दयाशंकर मिश्र

प्रिय सुख ! जब तुम आना !
10-Aug-2020 10:31 PM
प्रिय सुख ! जब तुम आना !

सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे।


हमने सुख के लिए इतनी सारी शर्तें तय कर दी हैं कि वह चाहे भी तो आसानी से हमारे द्वार पर दस्तक नहीं दे सकता! उसे अनुमति और पूछताछ की प्रक्रिया से गुजरना होगा। इस तरह तो कोई भी हमारे घर नहीं आना चाहेगा। कम से कम वह तो कभी नहीं आना चाहेगा, जिसे हम बुलाने के सबसे अधिक इच्छुक रहते हैं। सुख, हमारा ऐसा ही परिचित है, जिसे हम हमेशा आमंत्रित करना चाहते हैं, लेकिन हमने अपने घर और मन के बाहर इतनी तरह के नियम बना लिए हैं कि उसका प्रवेश संभव नहीं। हो सकता है कि सुख घर तक तो किसी तरह पहुंच भी जाए, लेकिन मन तक नहीं पहुंच सकता। मन तक पहुंचने के लिए तो शर्तें हटानी ही पड़ेंगी।

महात्मा बुद्ध ने बहुत सुंदर बात कही है। वह कहते हैं, हमारी सभ्यता, पुराने नियम, जीने के तरीके हमें सुखी नहीं होने देते। सुखी होना मानसिकता है, एक दृष्टि है, लेकिन हम ऐतिहासिक परंपरा के गुलाम हैं।

बुद्ध जो कह रहे हैं, उसे समझने के लिए बहुत दूर नहीं जाना है। बस अपने भीतर ही उतरकर देखना है। हम अपने कपड़े बदलते हैं। मकान बदलते हैं। हर वह चीज बदलते हैं, जिसमें कुछ नयापन है, लेकिन जो नहीं बदलते हैं, वह है- हमारे सोचने का तरीका! जीवन को समझने जानने का दृष्टिकोण। बुद्ध जब कहते हैं, सुखी होना एक मानसिकता है तो यह जरूरी है कि हम मानसिकता को समझने, रखने लायक मानस बनाएं। अपने दिमाग को इस तरह तैयार करें कि वह सुख भीतर की ओर खोजे, बाहर की ओर नहीं। हमारी मानसिकता हमारे मन से बनती है और मन का संबंध चेतन से अधिक हमारे अवचेतन से होता है। उस भीतर से होता है जिसकी ओर हम देखना ही पसंद नहीं करते। जिसकी ओर हम देखना पसंद नहीं करते, उसके अनुकूल खुद को हम कैसे तैयार कर पाएंगे। इसलिए हमारे चेतन और अवचेतन मन के बीच हमेशा जंग चलती रहती है। इसके कारण हम अपने ही भीतर बंट जाते हैं। भीतर से कुछ और करने की आवाज आती है और बाहर से कुछ और करते हैं। यहीं से व्यक्ति में समग्रता की कमी शुरू हो जाती है।

सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे। मैं चेखव की एक कहानी आपसे कहता हूं। संभव है कि इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच पाए।

महान कहानीकार चेखव की यह कहानी सुख की मानसिकता के बारे में बहुत सहज संवाद करती है। इसका नाम ध्यान में नहीं आ रहा है। कहानी इस प्रकार है- एक जमींदार घर से भागे पुत्र को खोज रहा है। उसका बेटा बचपन में ही घर छोडक़र चला गया था। किसी तरह पुत्र से संवाद स्थापित होता है। जमींदार को पता चलता है कि वह किसी भी समय बताए गए स्टेशन पर उससे मिलने आ सकता है। ठंड के दिन हैं। रूस में वैसे भी सर्दियां मुश्किलभरी होती हैं। जमींदार स्टेशन पर मौजूद धर्मशाला को पूरी तरह किराए पर ले लेता है। उसे अपने बेटे का स्वागत धूमधाम से जो करना है। बेटा किस स्थिति में आएगा, इसकी जानकारी जमींदार को नहीं है। धर्मशाला उसने इस तरह कब्जे में कर ली थी कि दूसरे किसी को भी रुकने की इजाजत नहीं थी।

देर रात उस धर्मशाला के दरवाजे पर दस्तक हुई। एक भिखारी ने बहुत प्रार्थना की। उसे रात बिताने के लिए जगह की जरूरत थी, क्योंकि बाहर भयानक शीतलहर चल रही थी। जमींदार के आदेश के अनुसार उसे जगह नहीं दी गई। वह भिखारी धर्मशाला के बाहर ही सो गया। इस तरह सोया कि अगले दिन उसे उठाया नहीं जा सका। वह ठंड में जम गया था।

सुबह उठते ही जमींदार ने पूछा कोई आया है! धर्मशाला के प्रबंधक ने उससे कहा कि आपका बेटा तो नहीं आया, देर रात एक भिखारी जरूर आया था, लेकिन आपके आदेश के अनुसार हमने उसे भीतर नहीं आने दिया। बाहर ठंड के कारण उसकी मौत हो गई। जमींदार बाहर जाकर देखता है कि वह भिखारी ही उसका बेटा है!

हमारे सुख के साथ अक्सर यह दुर्घटना होने की आशंका बनी रहेगी, अगर सुख को हम इतना निजी बना देंगे। सुख को निजी बनाते ही उसमें दूसरे के लिए करुणा और प्रेम समाप्त होते जाएंगे। जहां करुणा, प्रेम और उदारता समाप्त हो जाते हैं, वहां कुछ शेष नहीं रहता। इसलिए अपने लिए सुख चाहते समय हमें दूसरों के सुख का भी खयाल रखना होगा। यह मनुष्यता का सहज नियम है, इसका पालन करना मुश्किल नहीं। हां, हम थोड़े से लालच में इसे भुला बैठे हैं! (hindi.news18.com)

-दयाशंकर मिश्र

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