दयाशंकर मिश्र

दूसरों के दोष!
13-Aug-2020 11:12 PM
दूसरों के दोष!

हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसीलिए तो प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है।

हमारी गलती कभी होती ही नहीं। हम तो हमेशा ही निर्मल, निर्दोष होते हैं। सारी गलती हमेशा दूसरों की ही होती है। अपनी ओर न देखने के कारण हमारी चेतना में यह भाव इतनी गहराई से बैठ गया है कि हमने अपनी ओर देखना ही बंद कर दिया है। कमल का फूल कीचड़ में रहकर भी उसमें नहीं रहता, क्योंकि वह कीचड़ से ही ऊर्जा हासिल करके खुद को सुगंधित और कोमल बनाकर अपना जीवन बदल लेता है। हम सब भी ऐसा कर पाते, तो जिंदगी कम से कम ऐसी नहीं होती जैसी आज है।

हम मन, विचार, शरीर से दूसरों के प्रति कठोरता से भरते जा रहे हैं। जीवित व्यक्तियों को तो छोडि़ए, जो इस दुनिया में नहीं हैं उनके प्रति भी हमारा नजरिया घृणा, वैमनस्य से भरा होता है। यह बताता है कि हमारी जीवनदृष्टि कितनी छोटी, सीमित, संकुचित होती जा रही है!

दूसरों में निरंतर कमियां, गलतियां खोजने के कारण हम भीतर से रिक्त होते जा रहे हैं। कुएं में पानी कम हो, तो बाहर से पानी लाकर उसमें नहीं डालते। कुएं के भीतर उतरकर सफाई की जाती है। कचरा हटाया जाता है। कुएं में पानी उसके भीतर से आता है, बाहर से नहीं! हमारे संकट भी अंदर से ही आते हैं!

एक कहानी आपसे कहता हूं! इससे दूसरों को दोष देने की बात सरलता तक आपसे पहुंच सकेगी। संभव है आप उस मनोदशा को उपलब्ध हो सकें, जहां कहानीकार आपको ले जाना चाहता है!

परिवार में एक ही बेटा था। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत खराब नहीं थी, लेकिन बेटा बात-बात में नाराज रहा करता। नाराजगी से ज्यादा गुस्सा उसका स्वभाव बन गया था। इकलौते बेटों के साथ अक्सर यह समस्या देखी जाती है, क्योंकि वह अपनी हर इच्छा को ईश्वर के आदेश के बराबर मानते हैं। बचपन में बच्चे माता-पिता के अधीन होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं वह सीख जाते हैं कि माता-पिता को कैसे ‘काबू’ में रखना है! क्योंकि उन्होंने अपने माता-पिता से उनके माता-पिता को काबू करने के तरीके जाने-अनजाने सीख लिए हैं।

लडक़े का गुस्सा देखकर, उसकी बढ़ती उम्र देखकर उन लोगों ने तय किया कि इसका विवाह कर देना चाहिए। संभव है, विवाह के बाद उसकी मनोदशा में कुछ अच्छे बदलाव आ जाएं। कितनी मजेदार बात है, जिस बच्चे को मां-बाप बीस-पच्चीस बरस में नहीं बदल पाते, उसे परिवार के नए सदस्य के भरोसे छोड़ देते हैं! किसी का जीवन बदलना इतना सरल नहीं।

दूसरी ओर एक ऐसी लडक़ी थी जिसकी जिद, गुस्से को संभालने में माता-पिता असमर्थ हो रहे थे। उनके मन में भी ऐसा ही विचार आया जैसा इस लडक़ी के माता-पिता के मन में आया। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों के माता-पिता मिले, विवाह तय हो गया। विवाह के पहले ही दिन जब दोनों एकांत में अपने उपहारों को देखने बैठे, तो एक बहुत ही प्रिय व्यक्ति द्वारा दिए गए उपहार को खोलने की कोशिश पत्नी ने की। पति ने कहा, ठहरो चाकू ले आता हूं। पत्नी ने कहा हमारे यहां तो अक्सर ही ऐसे उपहार आते थे। मैं जानती हूं, इसे कैसे खोलना है। ऐसे उपहार को चाकू से नहीं कैंची से खोला जाता है। मैं कोई अनाड़ी नहीं हूं।

यह संभव है कि दो शांतिप्रिय लोग मिलकर बहुत अधिक शांतिपूर्ण वातावरण न बना सकें। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर दो झगड़ालू लोग मिल जाएं, तो निश्चित रूप से विवाद, कलह, मनमुटाव की ऐसी दीवारें खड़ी कर सकते हैं, जिन्हें गिराना किसी बुलडोजर के बस में नहीं! फिलहाल कहानी पर लौटते हैं। नवदंपत्ति का सारा विवाद चाकू, कैंची पर आकर सिमट गया। जीवन उससे आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था।

मान लीजिए पत्नी कैंची पर अड़ी, तो पति ही चाकू की जिद छोड़ देते। लेकिन ऐसा हो न सका। दोनों परिवारों का उनके स्वभाव को बदलने का प्रयास विफल हो गया। दोनों के विवाह को कई बरस हो गए, लेकिन ये चाकू-कैंची पर ही उलझे रहे। हर दिन ही चाकू-कैंची तलाश लिए जाते।

कुएं की तरह हमारी रिक्तता का उपाय हमारे भीतर उतरने में ही है! जैसा भीतर, वैसा बाहर! जैसा बाहर, वैसा भीतर! हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसलिए प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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