दयाशंकर मिश्र

हमारी पहचान !
14-Aug-2020 3:19 PM
हमारी पहचान !

खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे।


खुद की पहचान मुश्किल काम है। हम अक्सर ही इससे दूर रहते हैं। जीवन में तीन बातें ही खास हैं- जन्म, प्रेम और पहचान। जन्म वश में नहीं। प्रेम की समाज में व्यवस्था नहीं। पहचान करने के लिए बहुत साहस चाहिए। इसलिए हम दुखी, अकेले हुए जा रहे हैं। यह चक्रव्यूह टूटना चाहिए। जन्म हम तय नहीं कर सकते। इसे कोई और हमारे लिए तय करता है। यह हमारे नियंत्रण में नहीं। उसके बाद प्रेम। प्रेम, हम कितना सीख पाएंगे यह हमारे ऊपर ही निर्भर करता है, क्योंकि इसे सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं। हमारे किसी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्रेम पढ़ाया नहीं जाता। इसके उलट सारी व्यवस्थाएं हम इस तरह से करते हैं कि किसी तरह प्रेम कम होता जाए।

हम बच्चों को एक-दूसरे से अधिक अंक लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जन्म से ही। एक-दूसरे से आगे बढऩे के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए नहीं, क्योंकि इसका मनुष्य होने से कोई रिश्ता है, बल्कि इसलिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे दुनियादारी में पीछे रह जाएं। जीवन के अर्थ को वह भले ही न समझ पाएं, लेकिन हमारी नजर इसी पर रहती है कि वह दुनिया के मुकाबले में कहीं पिछड़ न जाएं!

जीवन संवाद में प्रेम पर तो हम निरंतर बात करते ही रहे हैं। आज पहचान पर कुछ बातें आपसे साझा करता हूं। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी, अपनी पहचान के बारे में...

अमेरिका में अब्राहम लिंकन के निधन के बाद उन पर एक नाटक तैयार किया गया। नाटक में लिंकन की भूमिका के लिए जिस व्यक्ति को चुना गया, उसे नाटक शुरू होने के छह महीने पहले से तैयारी पर लगाया गया। नाटक महत्वपूर्ण था। पूरे अमेरिका की इस पर नजर थी। इसलिए, उसके परिवार ने भी इस किरदार को ठीक से निभाने में पूरा सहयोग किया। उसे घर पर लिंकन होने का पूरा एहसास कराया गया।

वह व्यक्ति किरदार में इतना डूब गया कि वह पूरी तरीके से स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। जब तक नाटक चल रहा था, तब तक तो किसी का इस ओर ध्यान नहीं गया। लेकिन धीरे-धीरे उनकी पत्नी और बच्चों ने नाटक के निर्देशक से इस बात की शिकायत करते हुए कहा कि वह यह मानने को राजी ही नहीं कि वह लिंकन नहीं हैं!

उस व्यक्ति को लिंकन के बारे में इतनी अधिक जानकारियां हो गई थीं, इतने अधिक विवरण उसके पास थे कि वह स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। अंतत: उसे डॉक्टरों को दिखाना पड़ा। मनोचिकित्सकों के पास ले जाया गया। तब भी जल्दी से उस पर असर नहीं हुआ। उसके परिवार और मित्रों की चिंताएं बढ़ती जा रही थीं। वह किसी भी तरह से इस बात के लिए राजी नहीं था कि वह लिंकन नहीं है। डॉक्टरों को एक उपाय सूझा, उन्होंने उसे झूठ पकडऩे वाली मशीन से परीक्षण (लाई डिटेक्टर टेस्ट) के लिए तैयार किया। तब कहीं जाकर उसे यह समझाया जा सका कि वह लिंकन नहीं है। उसने केवल लिंकन का किरदार निभाया है!

वह खुशकिस्मत था। उसे कुछ ही वर्षों में पता चल गया कि वह लिंकन नहीं है! हम में से अधिकांश लोग पूरी जिंदगी न जाने खुद को क्या-क्या मानते हुए बिता देते हैं। हमें कोई कितना भी समझा ले, हम इस बात के लिए राजी नहीं होते कि हम जिसके गुमान में हैं, हम वह नहीं हैं! यह बताए भी कौन! क्योंकि बताने में बड़ा झंझट है। इसलिए जानते-बूझते सब लोग शांत रहते हैं। कितनी खतरनाक शांति है, लेकिन एक समाज के रूप में हमने इसे स्वीकार किया है।

खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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