दयाशंकर मिश्र

चुनना!
17-Aug-2020 2:50 PM
चुनना!

प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने कृष्ण की सेना ही क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं! हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है...

हम जो चुनते हैं, उससे बहुत कुछ तय नहीं होता। उससे ही सबकुछ तय होता है! अक्सर हमारा चुना हुआ लुभावना, लोकप्रिय और आश्वस्त करने वाला होता है। हम गुणवत्ता से चुनाव नहीं करते हम चुनाव करते समय जो आधार बनाते हैं वह अक्सर वैसे ही होते हैं, जिसकी कहानी हमें महाभारत में स्पष्ट सुनाई गई है! जब युद्ध होना तय हुआ तो पांडव और कौरव दोनों ही मदद का निवेदन लेकर कृष्ण के पास पहुंचे। संयोग से दोनों का कृष्ण के पास पहुंचने का समय एक ही था। लेकिन दोनों के दृष्टिकोण, जीवन के प्रति नजरिए में बड़ा फर्क था। दुर्योधन सोते हुए कृष्ण के सिरहाने बैठ जाते हैं, तो अर्जुन उनके पांव की ओर। दोनों का चयन मूलत: दोनों के व्यवहार से जुड़ा हुआ है।

जब हम विनम्रता से किसी के पास जाते हैं, तो हमारी आवाज, हमारा मन श्रद्धा के साथ निवेदन के लिए होता है। विनम्रता में स्नेह शामिल होता है। दूसरी ओर अहंकार के साथ ऐसा नहीं। अहंकार के साथ शक्ति का भाव अधिक होता है। इसलिए जब मदद मांगने का पहला अवसर अर्जुन को मिला, तो उन्होंने अकेले कृष्ण को चुना! उन्होंने निहत्थे कृष्ण को चुना। उन्होंने युद्ध में शस्त्र न उठाने वाले कृष्ण को चुना!

जब कृष्ण ने यह कहा था कि विशाल सेना और निहत्थे कृष्ण में से चुनना है, तो दुर्योधन भीतर ही भीतर डर गया होगा। उसे अवश्य ही लगा होगा कि कहीं अर्जुन और कृष्ण की प्रशिक्षित विशाल सेना न मांग ले। उसे लगा तो होगा कि अर्जुन वही मांगेगा, क्योंकि निहत्थे का वह क्या करेगा! लेकिन अर्जुन ने दुर्योधन के उलट चित्त पाया था। उसका मन तो कृष्णमय था। प्रेम में था। उसके मन में कहीं कोई दुविधा नहीं है।

दुविधा की दुनिया तो दुर्योधन जैसों के लिए है। जो विशाल सेना और प्रेम, स्नेह के बीच केवल शक्ति को चुनते हैं। शक्ति को चुनना असल में अपने अहंकार की पुष्टि है। जहां शक्ति के प्रति आग्रह अधिक होगा, वहां अहंकार से दूरी संभव नहीं।

प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने सेना क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं। हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है। कौरवों की हार केवल इसलिए नहीं हुई, क्योंकि पांडवों के पक्ष में धर्म था। बल्कि इसलिए भी हुई, क्योंकि वहां दूर-दूर तक अहंकार था। शक्ति के अनुयायी, समर्थक कई बार यह भूल जाते हैं कि उनके सेनापति मजबूरी में उनका साथ दे रहे हैं मन से नहीं।

जिस सेना के सेनापति भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण जैसे महारथी हों, उसका हारना केवल पांडवों की जीत नहीं है। उससे कहीं अधिक कौरवों की हार है। यह तीनों ही किसी न किसी रूप में पांडवों के साथ थे। उनकी विजय को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे। अहंकार के साथ ऐसा ही है। कल अहंकार दुर्योधन के साथ था, आज वह किस रूप में हमारे साथ है हमें नहीं पता!

इसलिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि हम अपने जीवन में दिए गए विकल्पों में से क्या चुनते हैं। महाभारत में द्रौपदी वस्त्रहरण, लाक्षागृह के होने पर जब धृतराष्ट्र और उनके समर्थित, पोषित, वचनबद्ध मौन चुन रहे थे तो असल में वह युद्ध की नींव रख रहे थे। अकेले दुर्योधन को युद्ध का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उसके अहंकार की इसमें बड़ी भूमिका है, लेकिन उससे अधिक भूमिका उन लोगों की है जो अपनी अपनी निष्ठा, निष्ठा के अहंकार से बंधे थे। इसलिए, यह बहुत जरूरी है कि हम अपने चुनाव और लक्ष्यों के प्रति सजग रहें। उनको पाने की हड़बड़ी में कहीं हम दुर्योधन जैसी गड़बड़ी न करें।

हमें भले ही बड़े युद्ध लडऩे हों, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि हम कहीं कृष्ण की जगह उनकी सेना के भरोसे तो नहीं हैं। कृष्ण किसी भी प्रश्न को अधूरा नहीं छोड़ते। इसलिए आगे चलकर जब वह हस्तिनापुर जाते हैं शांतिदूत बनकर तो दुर्योधन की जगह विदुर के यहां भोजन का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। दुर्योधन के नाराज होने पर वह उन्हें समझाते हैं, तुमको मुझसे स्नेह नहीं, नहीं तो तुम मेरे लिए लड़ जाते! दो पल के लिए केवल कल्पना करके देखिए अगर उस दिन दुर्योधन ने निहत्थे कृष्ण को मांग लिया होता, तो महाभारत की कहानी कुछ और होती।

मनुष्य प्रेम में गलतियां नहीं करता। असल में वह प्रेम में गलतियां करता ही नहीं। हां, उसका प्रेम कितना गहरा है यह प्रश्न जरूर उपस्थित होता है। गलतियां तो शुरू ही वहां से होती है, जहां प्रेम नहीं होता। हम प्रेम को दिखाना तो चाहते हैं, लेकिन बस अपने फायदे के लिए। ऐसे प्रेम का परिणाम वही होता है जो दुर्योधन का हुआ!

इसलिए यह जरूरी है कि हम अपने चयन के प्रति सावधान रहें। प्रेम में लेकिन, किंतु-परंतु होने से जायका बिगड़ जाता है। वहां शर्तों के लिए जगह नहीं हो सकती। कृष्ण वह सबकुछ करते हैं जो पांडवों के लिए जरूरी है! यहां तक कि वह अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ देते हैं। दूसरी ओर उनको देखिए जो कौरवों के सेनापति हैं। उनमें दुर्योधन के प्रति प्रेम नहीं, इसलिए वह अपनी शपथ के पिंजरे में स्वयं कैद हो जाते हैं।

प्रेम, अंतत: प्यार ही सबसे बड़ा हितैषी है। हमारा ख्याल जिस सुंदरता से प्रेम रख सकता है, वैसा कोई दूसरा नहीं। यह मन, जीवन, जीवनशैली तीनों को बखूबी संभालता है। लेकिन सबसे पहले हमें इसके साथ रिश्ते को संवारना होता है!

-दयाशंकर मिश्र

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news