दयाशंकर मिश्र
जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
जब कभी रिश्तों के मोड़ ऐसी घुमावदार स्थिति में पहुंच जाएं, जहां विकल्प सीमित हों, वहां निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हमारी असली परीक्षा तो ऐसी स्थिति में ही होती है। इन दिनों ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जहां दो व्यक्तियों के बीच संबंध इतने अधिक खराब हो जाते हैं कि साथ रहना असंभव लगने लगता है। वहां लोग जीवन से मुंह मोडऩे का रास्ता अधिक अपनाने लगे हैं। ऐसे रिश्ते को वहीं छोडक़र आगे बढ़ जाने का विकल्प होते हुए भी लोग उसे नहीं चुन रहे। जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
अगर किसी रिश्ते में रहना संभव नहीं है, तो उससे बाहर आने का विकल्प चुना जाए, जीवन को बिना किसी तरह संकट में डाले! पति-पत्नी के साथ ही माता-पिता, भाई-बहन और बेहद घनिष्ठ मित्रता में भी यह देखने में आता है कि आपसी विश्वास की दीवार कई बार इतनी कमजोर हो जाती है कि बहुत मरम्मत के बाद भी उसे पुरानी स्थिति में लाना संभव नहीं होता। ऐसे में इस दीवार के निरंतर कमजोर होते जाने और किसी दिन अचानक गिर जाने का खतरा बना रहता है। दीवार गिरेगी तो जीवन को भी हानि हो सकती है। इसलिए हरसंभव कोशिश करने के बाद भी खंडहर हो चुके रिश्तों से बाहर आने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
भारतीय समाज की रचना इतनी जटिल और पुरुषप्रधान है कि अक्सर ही लड़कियों/ स्त्रियों को इस स्थिति से बाहर आने में बहुत अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह संभव नहीं है। अपने जीवन में ऐसे प्रसंगों का स्वयं गवाह रहा हूं। जहां, मेरे विशाल संयुक्त परिवार में ही इस तरह के मामले सामने आने पर पुरुषों की ओर से कोई पहल नहीं की गई। लेकिन जब बेटियों ने आवाज बुलंद करनी चाही कि अपने खंडहर हो चुके रिश्ते को छोडक़र जीवन की नई राह चुननी चाहिए, तो उसे वैसा समर्थन नहीं मिला, जैसा मिलना चाहिए था। लेकिन उनने जीवन को चुना। इन पंक्तियों के लेखक को यह सौभाग्य मिला कि वह गांव की हिम्मतवर और प्रतिभाशाली बेटियों का सारथी बन सके। उनकी यात्राओं में शामिल होकर जीवन संघर्ष का जो रस मुझे मिला। उससे मेरा यह विश्वास निरंतर गहरा होता जा रहा है कि जीवन दूसरों का दिखाया आईना नहीं, बल्कि वह तस्वीर है जिसमें हमें ही रंग भरने हैं। रंग भरते समय इस बात की गुंजाइश हमेशा रखनी चाहिए कि अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, तो तस्वीर नए सिरे से भी बनानी पड़ सकती है!
समाज के रूप में हम रिश्तों के प्रति इतने परंपरावादी/ यथास्थितिवादी हैं कि एक ही रिश्ते में घुटना तो स्वीकार है, लेकिन यह स्वीकार नहीं कि हम (स्त्री/पुरुष। कोई भी) नई राह पर चल सकें। जबकि पुराने रास्ते पर चलना संभव नहीं है। मैं अलग होने पर जोर नहीं दे रहा हूं। मैं केवल इस बात का विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जीवन संभावनाओं से भरा हुआ और बहुत व्यापक है। इसे समझिए। जीवन को रिश्तों का बंदी मत बनाइए। किसी का जीवनसाथी एक बार बन जाने का मतलब यह नहीं है कि किसी भी स्थिति में इससे अलग नहीं हुआ जा सकता। विवाह / रिश्ते में रजामंदी, एक साथ होने का फैसला ऐसा नहीं है कि उसे जीवन का पर्यायवाची बना लिया जाए। जब तक साथ रहें, खुशबू की तरह रहें। जब अलग हो जाएं, तो वैसे जैसे एक रास्ता कहीं जाकर दो पगडंडियों में बदल जाता है। शुभकामना सहित...
(hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र