दयाशंकर मिश्र

मन के युद्ध!
25-Aug-2020 1:26 PM
मन के युद्ध!

जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए।

दुनिया में युद्ध का इतिहास पुराना है। हम जब शांति में भी रहते हैं, तो युद्ध की तैयारी करते हैं। सजगता से देखने पर पता चलेगा कि दुनिया शांति में कम, युद्ध और युद्ध की तैयारी में अधिक रहती है। मानसिक रूप से हम युद्ध के इतने समर्थक हो चले हैं कि हमेशा जंग के लिए तैयार रहते हैं। मन के युद्ध कभी थमते ही नहीं। राजनीति के क्षेत्र दूसरे हैं और जीवन के दूसरे। लेकिन उदारीकरण के नाम पर दुनिया में जो कुछ रचा जा रहा है, उसका सबसे अधिक नुकसान अगर किसी को हुआ है, तो वह मनुष्य का मन है।

शांत, सुंदर, सुकून वाले मन में इतनी चिंता थोपी जा रही है कि मन का स्वभाव ही बदलता जा रहा है। हम करीब-करीब नींद में चल रहे हैं! जीवन के छोर हमारे वश में नहीं। हमारे नाम पर कोई दूसरा फैसले कर रहा है! दूसरों से होड़, मुकाबला, आगे निकलने की आकांक्षा ने जीवन का सारा रस छीन लिया। इसमें कुछ भी गलत नहीं था, अगर इसमें जीवन का रस बाकी रहता। जब हम कहते हैं कि हम तालाब का पानी बचाने के लिए उसकी खुदाई कर रहे हैं, तो हमें इस बात का ध्यान रखना ही होता है कि खुदाई करते हुए हम कहीं तालाब के तटबंधों को ही नुकसान न पहुंचा दें। यही बात जीवन पर भी लागू होती है! कहीं पहुंचने, जल्दी पहुंचने के फेर में सबकुछ छूटता जा रहा है। हमारी जरूरत का तो इंतजाम हो सकता है, लेकिन दुनिया में कोई ऐसा अलादीन का चिराग नहीं, जो हमारे लालच को पूरा कर सके।

एक छोटा-सा किस्सा आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात सरलता से आप तक पहुंच सके।

एक राजा के दरबार में बड़ी विचित्र घटना घटी। राजमहल के बाहर मीलों तक पांव रखने की जगह न थी। एक फकीर आया था दरबार में। राजा के लिए उसको संतुष्ट करना कोई बड़ी बात न थी। लेकिन उसने एक शर्त रखी। उसके पास खोपड़ी का कंकाल था। उसे ही उसने अपना भिक्षापात्र बना लिया था। फकीर ने राजा से कहा, ‘मैं उससे ही भिक्षा लेता हूं जो मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर सके।’

राजा हंसा। राजा हंसते ही हैं जब कोई उनके वैभव को चुनौती दे! राजा ने कहा, ‘तुम्हें लगता है, मेरे पास इतना वैभव भी नहीं कि तुम्हारी यह टूटी खोपड़ी न भर सकूं।’ उसने अपने वजीर से कहा, ‘इसे हीरे-जवाहरात से भर दो!’ जैसे-जैसे वजीर हीरे और बहुमूल्य वस्तुएं खोपड़ी में भरते गए, राजा की हंसी डूबती गई। फकीर हंसता ही रहा। सुबह से शाम होने को आई, लेकिन खोपड़ी पूरी न भर पाई!

राजा फकीर के चरणों में गिर पड़ा! उसने कहा, ‘मुझे क्षमा करें। मैं आपको पहचान न सका। आपको देने योग्य मेरे पास कुछ नहीं।’ फक़ीर ने कहा, ‘तुम अभी भी नहीं पहचान रहे। इस खोपड़ी को भरने का प्रश्न है, जो खोपड़ी तुम्हारे शरीर पर है उसे रिक्त करो। उसमें से अहंकार, लालच और अपने कुछ होने के दंभ को निकाल बाहर फेंको।’

उस फकीर के भिक्षापात्र का पता नहीं। राजा उसे भर पाया कि नहीं। लेकिन हमारा अपना दिमाग भी ठीक उसके जैसा है। लाख जतन कर लीजिए वह भरता नहीं। वह तब तक नहीं भरेगा, जब तक हम राजा की तरह व्यवहार करना बंद नहीं करेंगे। दूसरों से तुलना बंद कीजिए। जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए। (hindi.news18.com)

-दयाशंकर मिश्र

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