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तालिबान आख़िर हैं कौन?
03-Jul-2021 8:48 AM
तालिबान आख़िर हैं कौन?

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था.

लेकिन धीरे-धीरे ये समूह खुद को मज़बूत करता गया और अब एक बार फिर से इसका दबदबा देखने को मिल रहा है.

क़रीब दो दशक बाद, अमेरिका 11 सितंबर, 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को हटाने की तैयारी कर रहा है. वहीं तालिबानी लड़ाकों का नियंत्रण क्षेत्र बढ़ता जा रहा है. आशंका यह भी उभरने लगी है कि वे सरकार को अस्थिर कर सकते हैं.

दोहा समझौता
तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी.

फरवरी, 2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जहां अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ.

समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाक़े में अल क़ायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही और राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा दिया था.

लेकिन समझौते के अगले साल से ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आम नागिरकों और सुरक्षा बल को निशाना बनाना जारी रखा.

अब जब अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से विदा होने की तैयारी कर रहे हैं तब तालिबानी समूह तेजी से देश में पांव पसार रहा है.

कब हुई थी तालिबान की शुरुआत
पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.

माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.

जल्दी ही तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे.

इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव तेजी से बढ़ा. सितंबर, 1995 में उहोंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा किया. इसके ठीक एक साल बाद तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी क़ाबुल पर कब्ज़ा जमाया.

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण
उन्होंने उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाया था. रब्बानी सोवियत सैनिकों के अतिक्रमण का विरोध करने वाले अफ़ग़ान मुजाहिदीन के संस्थापक सदस्यों में थे.

साल 1998 आते-आते, क़रीब 90 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था.

सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से ऊब गए थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया.

भ्रष्टाचार पर अंकुश, अराजकता की स्थिति में सुधार, सड़कों का निर्माण और नियंत्रण वाले इलाक़े में कारोबारी ढांचा और सुविधाएं मुहैया कराना- इन कामों के चलते शुरुआत में तालिबानी लोकप्रिय भी हुए.

लेकिन इसी दौरान तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया जिसमें हत्या और व्याभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी देना और चोरी के मामले में दोषियों के अंग भंग करने जैसी सजाएं शामिल थीं.

पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढकने वाली बुर्क़े का इस्तेमाल ज़रूरी कर दिया गया. तालिबान ने टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी लगा दी और 10 साल और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी.

तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देश
तालिबान पर मानवाधिकार के उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार से जुड़े कई आरोप लगने शुरू हो गए थे.

इसका एक बदनामी भरा उदाहरण साल 2001 में तब देखने को मिला जब तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के बाद भी मध्य अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बुद्ध की प्रतिमा को नष्ट कर दिया.

तालिबान को बनाने और मज़बूत करने के आरोपों से पाकिस्तान लगातार इनकार करता रहा है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि शुरुआत में तालिबानी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे.

अफ़ग़ानिस्तान पर जब तालिबान का नियंत्रण था तब पाकिस्तान दुनिया के उन तीन देशों में शामिल था जिसने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार किया था.

तालिबान के निशाने पर मलाला यूसुफ़ज़ई
तालिबान से अपने राजनयिक संबंधों को तोड़ने वाले देशों में भी पाकिस्तान सबसे आख़िरी देश रहा.

एक समय ऐसा भी आया जब तालिबान ने उत्तर पश्चिम में अपने नियंत्रण वाले इलाक़े से पाकिस्तान को अस्थिर करने की धमकी भी दी.

इसी दौर में तालिबानी चरमपंथियों ने अक्टूबर, 2012 को मिंगोरा नगर में अपने स्कूल से घर लौट रही मलाला यूसुफ़ज़ई को गोली मार दी थी. कहा गया कि तालिबानी शासन के अत्याचार पर छद्म नाम से लिखने के चलते 14 साल की मलाला से तालिबानी नाराज़ थे. इस घटना में मलाला बुरी तरह घायल हो गई थीं. उस वक्त पाकिस्तान में नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस घटना की निंदा हुई थी.

इस घटना के दो साल बाद तालिबानी चरमपंथियों ने पेशावर के एक स्कूल पर हमला किया था जिसके बाद पाकिस्तान में तालिबान का प्रभाव काफ़ी कम हो गया.

साल 2013 में अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान का पाकिस्तान में कमान संभाल रहे हकीमुल्ला मेहसूद सहित तीन अहम नेताओं की मौत हुई.

अल क़ायदा का ठिकाना

11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा.

सात अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया.

दुनिया के सबसे बड़े तलाशी अभियान के बाद भी ओसामा बिन लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके दूसरे साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे.

तालिबान गुट के कई लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली और वे वहां से लोगों को निर्देशित करने लगे थे. हालांकि पाकिस्तान सरकार क्वेटा में तालिबान की मौजूदगी से हमेशा इनकार करती आई है.

असुरक्षा और हिंसा का माहौल
भारी संख्या में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी के बाद भी तालिबान ने धीरे-धीरे खुद को मज़बूत किया और अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रभाव को बढ़ाया. इसका नतीजा है कि देश में असुरक्षा और हिंसा का वैसा माहौल फिर से दिखने लगा है जो 2001 के बाद कभी नहीं देखा गया था.

सितंबर, 2012 में तालिबान लड़ाकों ने काबुल में कई हमले किए और नैटो के कैंप पर भी धावा बोला. साल 2013 में शांति की उम्मीद तब जगी जब तालिबान ने क़तर में दफ़्तर खोलने का एलान किया. हालांकि तब तालिबान और अमेरिकी सेना का एकदूसरे पर भरोसा कमज़ोर था जिसके चलते हिंसा नहीं थमी.

अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि संगठन ने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया. मुल्ला उमर की मौत कथित स्वास्थ्य समस्याओं के चलते पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी.

इसी महीने समूह ने मुल्ला मंसूर को अपना नया नेता चुने जाने की घोषणा की.

अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता
इसी दौरान तालिबान ने साल 2001 की हार के बाद पहली बार किसी प्रांत की राजधानी पर अपना नियंत्रण हासिल कर लिया था, रणनीतिक तौर पर बेहद अहम शहर कुंडूज़ पर उन्होंने नियंत्रण स्थापित किया.

मुल्ला मंसूर की हत्या अमेरिकी ड्रोन हमले में मई, 2016 में हुई और उसके बाद संगठन की कमान उनके डिप्टी रहे मौलवी हिब्तुल्लाह अख़ुंज़ादा को सौंपी गई, अभी इन्हें के हाथों में तालिबान का नेतृत्व है.

फरवरी, 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ. कई दौर की बातचीत के बाद ये समझौता हुआ था.

इसके बाद तालिबान ने शहरों और सैन्य ठिकानों पर हमले के बाद कुछ ख़ास तरह के लोगों को निशाना बनाने की शुरुआत की और ऐसे हमलों से उसने अफ़ग़ानिस्तान की जनता को आतंकित कर दिया.

अफ़ग़ानिस्तान सरकार को तालिबान से ख़तरा
इन हमलों में तालिबान ने पत्रकारों, न्यायाधीशों, शांति कार्यकर्ता, और रसूख के पदों पर बैठी महिलाओं को निशाना बनाया गया, ज़ाहिर है तालिबान ने केवल अपनी रणनीति बदली थी, कट्टरपंथी विचारधारा नहीं.

अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों ने गंभीर तौर चिंता जताई थी कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सामने अस्तित्व बचाने का संकट होगा लेकिन अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021 में एलान कर दिया कि 11 सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे.

दो दशक तक चले एक युद्ध में अमेरिकी महाशक्ति को छकाने के बाद तालिबान ने बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. इससे अमेरिकी सेना के बाहर निकलने के बाद क़ाबुल में सरकार के अस्थिर होने का ख़तरा है.

माना जा रहा है कि साल 2001 के बाद पहली बार तालिबान इतना मज़बूत दिख रहा है. नेटो के आकलन के मुताबिक अभी समूह के पूर्णकालिक लड़ाकों की संख्या 85 हज़ार के आस-पास है.

अभी तालिबान का कितने इलाक़े पर कब्ज़ा है, ये स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, लेकिन अनुमान यह है कि देश के पांचवें हिस्से से लेकर एक तिहाई हिस्से के बीच के क्षेत्र पर तालिबान का नियंत्रण है.

तालिबान जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, वह कई लोगों को चिंतित करने वाला है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले मिशन के कमांडर जनरल ऑस्टिन मिलर ने जून में ही चेतावनी दी थी कि देश गृह युद्ध की तरफ़ बढ़ सकता है.

जून महीने में ही अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भी अफ़ग़ानिस्तान के हालात का आकलन किया था. ये कहा जा रहा है कि इसमें अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के छह महीनों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार गिरने का कथित तौर पर अनुमान व्यक्त किया गया है. (bbc.com)

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