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उलटी ना पड़ जाए क्षेत्रीय भाषाओं में टेक्नोलॉजी पढ़ाने की कोशिश
01-Sep-2021 2:50 PM
उलटी ना पड़ जाए क्षेत्रीय भाषाओं में टेक्नोलॉजी पढ़ाने की कोशिश

प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है. खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा.

डॉयचे वेले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट

भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के अंतर्गत उच्च शिक्षा में अब क्षेत्रीय भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर जोर होगा. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस पर पढ़ाई में इनके इस्तेमाल की बात कही थी. इसी दिशा में काम करते हुए नए शैक्षणिक वर्ष में 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने पांच भारतीय भाषाओं में टेक्निकल कोर्स की शुरुआत कर दी है.

वर्तमान सरकार इस बहुभाषायी उच्च शिक्षा नीति के जरिए समाज के वंचित तबकों को सशक्त करना चाहती है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में आमतौर पर कमजोर तबके से आने वाले स्टूडेंट्स सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करते हैं जिनमें उनके लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान हासिल कर पाना मुश्किल होता है.

हालांकि प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है, खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा. साथ ही यह योजना अपने वंचित तबकों को सशक्त करने के मकसद को पूरा कर सकेगी या नहीं, इस पर भी जानकार असमंजस में हैं.

गणित-विज्ञान विषय में अच्छे
भारत और अन्य एशियाई देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूल स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने अपने अंग्रेजी शिक्षा पाने वाले साथियों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया है. यूं तो ज्यादातर विषयों में बच्चों का स्तर एक जैसा था लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने वाले बच्चे विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ज्यादा अच्छे रहे. शैक्षणिक मनोविज्ञान भी मानता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई के कई फायदे होते हैं.

जानकारों के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों की हाजरी अच्छी रही है और उनमें पढ़ाई के प्रति ज्यादा लगन दिखी है. इसके अलावा उन्हें पढ़ाई में अभिभावकों की ओर से भी अतिरिक्त मदद मिल जाती है. शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि अभिभावक भी मातृभाषा में पढ़ाए जा रहे विषयों को समझ पाते हैं. जानकार मानते हैं कि जब इन बातों को वंचित तबकों के स्टूडेंट्स के नजरिए से देखा जाता है तो क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है.

अंग्रेजी की जरूरत रहेगी
हालांकि जानकार अंग्रेजी की पढ़ाई के खिलाफ नहीं हैं. उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज की कुलपति और शैक्षणिक मनोविज्ञान की जानकार सीमा सिंह कहती हैं, "पढ़ाई के माध्यम के तौर पर 'मातृभाषा बनाम अंग्रेजी' की लड़ाई से अच्छा है 'मातृभाषा संग अंग्रेजी' का नजरिया अपनाया जाना चाहिए." यानी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी की शिक्षा की आवश्यकता बनी रहेगी और शुरुआती पढ़ाई के दौरान ही इसे सिखाया जाने लगेगा.

बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग की प्रोफेसर अंजली बाजपेयी के मुताबिक, "कई रिसर्च बताते हैं कि छोटे बच्चे (2 से 8 साल के) नई भाषाओं को ज्यादा तेजी से सीखते हैं. इसलिए यह एक सही उम्र है, जब बच्चों को कम्युनिकेशन के लिए एक विदेशी भाषा सिखाई जा सकती है."

रिसर्च सामग्री की कमी
क्षेत्रीय भाषाओं में विषयों की जानकारी पाने के लिए एक दशक पहले के मुकाबले अब स्टूडेंट्स के पास बहुत से साधन हैं. यूट्यूब पर लगभग हर विषय के बारे में हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी पाई जा सकती है. हजारों की संख्या में क्षेत्रीय स्टडी चैनल इस पर मौजूद हैं, जिन पर लाखों की संख्या में व्यूज आते हैं.

इससे साफ हो जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में शैक्षिक सामग्री की काफी मांग है. हाल ही में शिक्षा से जुड़े कई स्टार्टअप क्षेत्रीय भाषाओं में जगह बनाने की कोशिश शुरू कर चुके हैं.

सरकार भी इसमें साथ दे रही है. ऐसे में माना जा सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई से उच्च शिक्षा में गरीबी और अमीरी के अंतर को खत्म किया जा सकता है लेकिन वहीं दूसरी ओर इस रास्ते पर चलने के कई डर भी हैं.

यह डर पहले के ऐसे प्रयोग से निकले हैं जो याद दिलाते हैं कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) ऐसे प्रयास करने के बावजूद नाकाम रहा है. ऐसी कोशिश में सबसे बड़ी चुनौती अध्ययन सामग्री जैसे किताबों और रिसर्च पेपर वगैरह की कमी होती है.

अनुवाद का बड़ा कार्यक्रम
इस कमी को पूरा करने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (AICTE) ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग कर किताबों, अकादमिक पत्रिकाओं और वीडियो का हिंदी अनुवाद करने वाला उपकरण पेश किया है. हालांकि इन अनुवादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना सबसे जरूरी बात होगी ताकि अर्थ संबंधी गड़बड़ियों को दूर किया जा सके. इतना ही नहीं भाषा और मशीन लर्निंग में ऐसे प्रयास बहुत बड़े स्तर पर करने होंगे जिनके लिए काफी पैसों की जरूरत होगी.

सीमा सिंह कहती हैं, "क्षेत्रीय भाषाओं में रिसर्च कंटेंट की कमी दूर करने के लिए अनुवाद अच्छा जरिया है. तकनीकी इसमें काफी मदद कर सकती है. लेकिन टेक्नोलॉजी जैसे विषयों में तेजी से बदलाव आते हैं. ऐसे में कुछ ऐसी समितियों को बनाया जाना चाहिए जो उन बदलावों को जल्द से जल्द पाठ्यक्रम में शामिल करने पर काम कर सकें. साथ ही ये समितियां भाषा को सरल और समझ आने लायक बनाए रखने की कोशिश भी करें."

नौकरी और शिक्षक दोनों ढूंढना मुश्किल
जानकार कहते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले ग्रेजुएट्स का प्लेसमेंट फिर भी एक समस्या होगा. कई सरकारी एंजेसियां एंट्री-लेवल नौकरियों के लिए सिर्फ अंग्रेजी में परीक्षाएं कराती हैं, इसे भी बदलने की जरूरत होगी. भारत में कॉलेज-शिक्षित बेरोजगारी पहले ही अधिक है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई इसे और बढ़ा कर सकती है. यह भारत जैसे देश में भाषा के आधार पर बंटवारा भी कर सकती है जिससे वंचित समुदायों में आत्मविश्वास पैदा होने के बजाए, उसका उल्टा असर भी हो सकता है.

एक समस्या क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी भी होगी. भारत में उच्च-शिक्षा के लिए ज्यादातर अंग्रेजी का बोलबाला रहा है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले अच्छे शिक्षकों को खोजना भी चुनौतीपूर्ण होगा. मसलन एआईसीटीई ने क्षेत्रीय भाषाओं में कम्यूटर साइंस और इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए अनुमति दे दी है. इनमें कोडिंग करनी होती है. जिसमें प्राथमिक स्तर पर ही अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है. ऐसी स्थिति में स्टूडेंट्स को अलग से ट्रेनिंग की जरूरत पड़ सकती है.

अंतर घटेगा या बढ़ेगा
जानकार मानते हैं कि इस पूरे मामले में ग्लोबलाइजेशन को भी ध्यान में रखना चाहिए. नई शिक्षा नीति, शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना चाहती है लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने से स्टूडेंट्स को नॉलेज ट्रांसफर का लाभ मिलने में बाधा आ सकती है.

जानकारों के मुताबिक ऐसा भी हो सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा पाने वाले स्टूडेंट्स अंग्रेजी में पारंगत न होने के चलते अंतरराष्ट्रीय नौकरियां न हासिल कर सकें, जिससे ब्रेन ड्रेन में कमी लाने में मदद मिले. लेकिन यह नीति समृद्ध और गरीब लोगों के बीच के अंतर को पाटने के अपने उद्देश्य में भी सफल हो पाएगी इसमें संशय है. ऐसे में ग्लोबलाइजेशन के दौर में एक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की देने के मामले पर काफी सोच-विचार की जरूरत होगी. (dw.com)
 

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