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अफ़ग़ानिस्तान: तीन दिन में तालिबान की नई सरकार, क्या होंगी चुनौतियाँ?
02-Sep-2021 9:58 AM
अफ़ग़ानिस्तान: तीन दिन में तालिबान की नई सरकार, क्या होंगी चुनौतियाँ?

-सरोज सिंह

31 अगस्त 2021, अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में कभी न भूलने वाली तारीख़ के तौर पर अब दर्ज़ हो गया है.

एक तरफ़ अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों और लोगों को बाहर निकालने के लिए इस डेडलाइन पर क़ायम रहा. तो दूसरी तरफ़ अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की ओर से नई सरकार बनाने की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं.

ख़बरों के मुताबिक़ कंधार में तालिबान की 'टॉप लीडरशिप काउंसिल' की तीन दिन तक बैठक हुई. तालिबान के नेता हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा ने इस बैठक की अध्यक्षता की.

तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के उप-प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तनिकज़ई का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में 'इस्लामिक अमीरात' वाली नई सरकार का खाका अगले तीन दिन में दुनिया के सामने होगा.

नई सरकार कैसी होगी और उसमें कौन कौन शामिल होंगे, इस पर पुख़्ता तरीक़े से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन जानकार मानते हैं कि नई सरकार के सामने चुनौतियाँ कम नहीं होंगी.

15 अगस्त को काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद से 15 दिन का वक़्त गुज़र चुका है. फ़िलहाल कोई ठोस शासन व्यवस्था वहाँ बहाल नहीं है. बैंकों के बाहर लंबी कतार लगी हुई है. रोज़मर्रा के ज़रूरी सामान की क़िल्लत से लोग परेशान हैं.

किसी भी हुकूमत के लिए ऐसी अव्यवस्था चिंता का सबब होगी और इस वजह से तालिबान भी अफ़ग़ानिस्तान में फैली इस अव्यवस्था को जल्द से जल्द दूर करना चाहेगा.

तालिबान की अंदरूनी गुटबाज़ी
लेकिन ये कैसे होगा? कितना आसान होगा या फिर कितना मुश्किल? यही जानने के लिए बीबीसी ने बात की पूर्व राजनयिक रहे तलमीज़ अहमद से.

उनका कहना है तालिबान के सामने चुनौतियाँ दो तरह की है- पहली चुनौती वो जो सरकार बनने के समय पेश आएगी और दूसरी चुनौती वो जो नई सरकार के गठन के बाद शुरू होगी.

पहली चुनौती के बारे में वो कहते हैं कि देखने वाली बात होगी की नई सरकार में तालिबान के राजनीतिक गुट (दोहा गुट) को ज़्यादा ताक़त मिलती है और फिर लड़ाई लड़ने वाले सिपाहसालार (मिलिट्री) गुट को.

जानकारों का मानना है कि तालिबान के अंदर भी गुटबाज़ी कम नहीं है. अब तक तालिबान एकजुट थे, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर करने के इरादे से. लेकिन एक बार उन्होंने लक्ष्य पा लिया है, तो इनकी आपसी गुटबाज़ी भी निकल कर सामने आएगी.

फ़िलहाल तालिबान की पॉलिटिकल लीडरशिप में सबसे अहम नाम है हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा का.

तलमीज़ अहमद कहते हैं, "हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा अभी तालिबान में नंबर एक की हैसियत रखते हैं. उनकी नेतृत्व क्षमता के बारे में अभी लोगों को ज़्यादा नहीं पता है. अगर वो नई सरकार के सबसे बड़े नेता होंगे, तो माना जाएगा कि पॉलिटिकल लीडरशिप की सरकार बनाने में ज़्यादा चली."

लेकिन वो ये भी कहते हैं कि जब हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा को तालिबान का नंबर एक नेता घोषित किया गया था, तो उन्हें 'कॉम्प्रोमाइज्ड उम्मीदवार' के तौर पर देखा गया था.

दूसरी तरफ़ तालिबान के मिलिट्री कमांडर हैं सिराजुद्दीन हक़्क़ानी. तालिबान में इन्हें नंबर दो का दर्ज़ा प्राप्त है. ये गुट दूसरों को अपने साथ लेकर चलने में ज़्यादा विश्वास नहीं रखता.

तालिबान का दौर अब तक का संघर्ष वाला दौर रहा है. ऐसे में सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को अब तक ज़्यादा ताक़त हासिल थी. अब उन्हें नई सरकार में क्या ज़िम्मेदारी मिलती है? वो किस किस को साथ लेकर चलते हैं? ये चुनौती भी सरकार के गठन के दौरान सामने आएगी.

अफ़ग़ानिस्तान में 1996 से 2001 के बीच तालिबान ने राज किया था. उस वक़्त तालिबान ने सरकार चलाने का कोई मॉडल दुनिया के सामने पेश नहीं किया था.

तलमीज़ अहमद उस दौर को 'संघर्ष की स्थिति' कहते हैं.

उनका मानना है कि आज की परिस्थिति 90 की दशक की संघर्ष की स्थिति से बिल्कुल अलग है.

सरकार चलाने के लिए तालिबान को अलग तरह के लोगों की ज़रूरत होगी. सरकार में उन्हें जानकार, विशेषज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स, प्रशासन चलाने के अनुभवी, नियम क़ानून के जानकार, एक तरह के संविधान और प्रशासन में पारदर्शिता की ज़रूरत होगी.

इन सबमें तालिबान में शामिल लोगों को किसी तरह की महारत हासिल नहीं है. ऐसे में देखना होगा, वो किन लोगों की मदद लेते हैं और इस तरह के अनुभवी लोग कहाँ से लाते हैं.

अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बनाने के लिए तालिबान के नेता सरकार के पुराने लोगों के संपर्क में हैं, जैसे पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई, अफ़ग़ानिस्तान की उच्च सुलह परिषद के प्रमुख रहे डॉक्टर अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह , पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार, 2012 में तालिबान विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता करने लिए चुने गए प्रतिनिधि सलाउद्दीन रब्बानी.

इन सभी लोगों में प्रशासनिक अनुभव भी है.

लेकिन इनमें से किस नेता को नई सरकार में क्या जगह मिलती है और उनकी सरकार में कितनी चलती है - ये भी तालिबान की नई सरकार और उसकी चुनौतियों के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कर देगा.

अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता की जद्दोजहद
अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बनने के बाद की चुनौतियों के बारे में बात करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस की प्रोफ़ेसर डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं कि तालिबान चाहेगा कि दुनिया के बड़े देश उनकी सरकार को मान्यता दें.

चीन, रूस, पाकिस्तान जैसे देशों की तरफ़ से तालिबान के लिए उत्साह वाले बयान ज़रूर आए हैं. लेकिन अभी तक किसी ने उन्हें मान्यता नहीं दी है. ज़्यादातर देश उनकी सरकार का पहला स्वरूप देखने का इंतज़ार कर रहे हैं.

डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं, "तालिबान की नई सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता इसलिए मायने रखती है क्योंकि फॉरेन फंडिंग अब बंद हैं. अफ़ग़ानिस्तान सरकार का 75 फ़ीसदी ख़र्च इसी विदेशी मदद पर निर्भर करता है. ऐसे में अमेरिका और आईएमएफ़ से फंडिंग रोकने से सरकार चलाना मुश्किल हो सकता है."

वो कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी का आधा हिस्सा विदेशी मदद के ज़रिए आता था. अब वो विदेशी मदद बिल्कुल बंद हो चुकी है. इस वजह से वहाँ आर्थिक गतिविधियाँ फ़िलहाल बंद पड़ी हैं. कई लोगों को तनख़्वाह नहीं मिल रही. जगह-जगह परिवार भुखमरी के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि नई सरकार सबसे पहले अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए तुंरत से कुछ नए और साहसिक क़दम उठाए."

विरोधी गुटों से निपटने की चुनौती
अंदरूनी झगड़े और अर्थव्यवस्था को संभालने के बाद तालिबान के सामने तीसरी चुनौती होगी अफ़ग़ानिस्तान में विरोधी गुट से निपटने की.

डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं, "तालिबान के सामने नॉर्दन एलायंस ने आसानी से घुटने कभी नहीं टेके हैं. इससे पहले भी पंजशीर में वो क़ब्ज़ा नहीं कर पाए थे. वहाँ के विद्रोह को पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है. तालिबान चाहेगा कि कैसे बातचीत के ज़रिए या सरकार गठन में उनको जगह दे कर इस विद्रोह से छुटकारा पाया जा सके."

इसके अलावा एक दूसरी तरह की चुनौती भी तालिबान को आईएसआईएस-के और अल-क़ायदा जैसे चरमपंथी संगठनों से मिल सकती है.

हाल में हुए काबुल धमाके में आईएसआईएस-के के हाथ होने की बात सामने आई है. आईएसआईएस-के को 'इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान प्रॉविंस' (आईएसकेपी) कहते हैं.

आईएसआईएस-के और तालिबान के बीच गहरे मतभेद हैं. आईएसआईएस-के का आरोप है कि तालिबान ने जिहाद और मैदान-ए-जंग का रास्ता छोड़कर क़तर की राजधानी दोहा के महंगे और आलीशान होटलों में अमन की सौदेबाज़ी को चुना है.

ऐसे में तालिबान की नई हुकूमत इनसे कैसे डील करेगी, ये देखने वाली बात होगी.

फ़ौज और पुलिस की ज़रूरत
अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के आने के बाद से ही पिछले 40 साल से वहाँ नागरिक संघर्ष (सिविल कॉन्फ्लिक्ट) चल रहा है. इस वजह से अफ़ग़ानिस्तान में एक बेहतरीन 'यूनिफाइड आर्म्ड फ़ोर्स' बन नहीं पाई. अमेरिका ने एक कोशिश ज़रूर की, लेकिन तालिबान के साथ सामना होने पर कोई ताक़त नहीं दिखा पाए और अपने हथियार डाल दिए.

अब अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के सामने ज़रूरत होगी जल्द से जल्द ऐसी फ़ोर्स खड़ी करें, जो अनुशासित भी हो और ताक़तवर भी. देश की सीमा को सुरक्षित करने के लिए ये सबसे अहम क़दम होगा.

ख़ास कर तब जब तालिबान पूरे विश्व में घूम घूम कर वादा कर रहे हैं कि वो अपनी ज़मीन का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के गढ़ के तौर पर किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं होने देंगें.

उसी तरह से अफ़ग़ानिस्तान के अंदर तालिबान शासन को आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए एक अलग पुलिस फ़ोर्स की ज़रूरत भी होगी, जो देश के भीतर की शासन व्यवस्था को दुरुस्त रखने में मददगार होगी.

जो पुलिस कर्मी पिछले शासन में इस फ़ोर्स का हिस्सा थे, तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा करने के साथ ही अब नदारद हैं. क्या वो पुराने लोग वापस आएँगे, कैसे आएँगे, कब तक आएँगे- ये भी अहम सवाल है. तलमीज़ अहमद इसे भी तालिबान के लिए चुनौती मानते हैं.

राष्ट्रीय एकता
इसके अलावा दोनों जानकार इस बात पर एकमत हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार को बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच एकता बनाए रखना भी ज़रूरी होगा.

तालिबान में पश्तून ज़्यादा है और अफ़ग़ानिस्तान में भी. इसके साथ साथ वहाँ अलग-अलग धर्म और संप्रदाय के लोग भी रहते हैं, जिनकी संख्या थोड़ी कम है जैसे हज़ारा और शिया, उज़्बेक और ताज़िक.

तालिबान के पिछले शासन काल में अल्पसंख्यकों पर काफ़ी ज़्यादतियों के क़िस्से सुनने को मिलते थे. इस बार वो न दोहराईं जाए, इस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भी नज़र होगी.

नई सरकार इन चुनौतियों से कैसे डील करेगी. इस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र होगी. (bbc.com)

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