विचार / लेख
-अशोक पांडे
अपने जीवन के आख़िरी सत्तर दिनों में विन्सेंट ने सत्तर पेंटिंग्स बनाईं. उन दिनों वह वह किस तरह की ऊर्जा और जिद से भरा हुआ होगा इसकी कल्पना करनी हो तो इनमें से कुछ पेंटिंग्स को गौर से देखना होगा. जैतून के पेड़ों के एक चित्र में एक कीड़े के रेंग चुकने के निशान स्पष्ट दीखते हैं. इसी सीरीज की एक और पेंटिंग में तो एक टिड्डे की समूची खोपड़ी और पिछली टांगें रंगों के साथ चिपक कर अमर हो चुकी चीजें बन गयी हैं. आउटडोर पेंटिंग करते समय गीले पेंट पर ऐसी चीजें हो जाना सामान्य है. उस्ताद कलाकार स्टूडियो में लौट कर इस खामियों को दुरुस्त करते हैं. वान गॉग के पास इतना समय न था. एक चित्र में तो उसकी उँगलियों की छापें तक लगी हुई हैं. पेंटिंग की दुनिया में इस बात को अक्षम्य माना जाता है.
विन्सेन्ट वान गॉग ने एक ख़त में दर्ज किया था - "दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है."
पूरी जिन्दगी निराशा, शराबखोरी, गुरबत, पागलपन, वेश्याओं की सोहबत और खराब स्वास्थ्य से जूझने को मजबूर बना दिए गए, एक ग्रामीण पादरी के नालायक समझ लिए गए इस विकट प्रतिभावान बेटे को जब आखिरकार जब उसका मेहनताना मिला, उसे मरे हुए कई बरस हो चुके थे.
सारी जिन्दगी जिसकी एक भी पेंटिंग नहीं बिक सकी, उसके बनाए एक डॉक्टर के पोर्ट्रेट को छः अरब रुपयों में खरीदा गया.
हताशा के चरम पर पहुँचने के बावजूद उसने इस बात को अपना फ़र्ज़ जाना कि उसके भीतर जो महानतम है उसे हर हाल में अगली पुश्तों के लिए सौंप कर जाना है. वह कुल सैंतीस साल तीन महीने उनतीस दिन जिया.
हर दिन थोड़ा-थोड़ा उजड़ते और अजनबी बनते जा रहे हमारे संसार में जब तक विन्सेन्ट के लिए जगह रहेगी, चंद्रमा का इंतज़ार कर रहे सूरजमुखी के फूल उसकी याद दिलाते रहेंगे. उम्मीद ख़त्म नहीं होगी!
1853 के साल वह आज, 30 मार्च ही के दिन जन्मा था.
(चित्र फिलहाल लिस्बन में रह रहे ईरानी कलाकार अली रज़ा करीमी का बनाया हुआ है जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से विन्सेन्ट को अपनी डिजिटल पेंटिंग्स का नायक बनाया हुआ है और सैकड़ों चित्र रचे हैं.)