विचार / लेख
-दिनेश चौधरी
हिंदी में लेखक-प्रकाशक रॉयल्टी विवाद की अपार सफलता के बाद यह फुटकर विमर्श भी इसी मंच पर दिखाई पड़ रहा है कि दर्शकों को नाटक मुफ्त में नहीं दिखाना चाहिए। बिल्कुल नहीं दिखाना चाहिए और जरूरत पडऩे पर मुफ्तखोरों को रोकने के लिए बाउंसर्स तैनात कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा करते हुए खुद के गिरहबान में झांककर यह देख लेना चाहिए कि अपने सहयोगी कलाकारों-लेखकों के प्रति अपना रवैया कितना व्यावसायिक है। व्यावसायिकता आधी-अधूरी नहीं होनी चाहिए।
एक पुराना प्रसंग दोहरा रहा हूँ, जो मुझे अजय भाई ने सुनाया था। रायगढ़ इप्टा के अजय भाई को पिछले दिनों कोरोना ने हमसे छीन लिया। किसी मराठी नाटक के उन्होंने कुछ शो किए। नाटक लोगों को खूब पसंद आया। अपने यहाँ नाटककार की कमाई यही होती है कि नाटक लोगों को पसंद आ जाए। लेखक यही सोचकर धन्य होता है कि उसका लिखा नाटक कोई खेल रहा है। पैसे-धेले का कोई जुगाड़ नहीं होता। अजय भाई ने नाटककार को खुशी-खुशी चिठ्ठी लिखी कि आपके इतने शो हमने किए। मस्त रहे। लौटती डाक से उन्होंने बिल भेज दिया। अजय भाई अवाक! कहा, ‘हमारे यहाँ कॉपीराइट का चलन नहीं है।’ उन्होंने कहा कि, ‘दरी-तम्बू वाले को देते हो, माइक-लाइट वाले को देते हो, हलवाई को देते हो...लेखक को क्यों छोड़ दिया?’
ऐसा नहीं है कि नाटक करने वाले लोग बेईमान हैं और लेखक की रॉयल्टी दबाना चाहते हैं। मसला सिर्फ लेखक का नहीं है। व्यावसायिकता की बात करें तो सहयोगी कलाकारों -अभिनेताओं के मेहनताने या फीस का सवाल भी आता है। संगीतकारों-गायकों का भी। नाट्य-दल को किसी चित्रकार की कृति भेंट कर रहे हों तो चित्रकार की फीस और आखिर में टिकिट बेचना हो तो मनोरंजन कर। हिंदी पट्टी में टिकिट बेचकर आप यह सब कर लेंगे? जब हफ्तों पहले आमंत्रण-पत्र देने के और आखिरी घण्टे तक व्हाट्सएप मैसेज भेजने के बाद भी थिएटर हॉल पथराई आँखों से दर्शकों की बाट जोहते हों।
ऐसा तो नहीं है कि लोगों को पहले कभी नाटक देखने की आदत नहीं रही। नाचा-नौटंकी लोग देखते ही थे और टिकिट लेकर देखते थे। ठीक है कि आगे चलकर सिनेमा, टीवी और मोबाइल का हमला हुआ तो इन हमलों से जूझने के लिए क्या कोई रणनीति बन सकी? यह सवाल मैं किसी पर आक्षेप के लिए नहीं बल्कि खुद से पूछ रहा हूँ। हिंदी में नाटकों का कमोबेश वही हश्र हुआ तो नई कविता का। कविता पाठकों से कटती चली गयी और नाटक दर्शकों से। कविता आलोचकों के लिए लिखी जाने लगी और नाटक समीक्षकों के लिए। नाटकों में प्रयोग अच्छी बात है। प्रयोग किसी घटना या प्रसंग को सरल करने के लिए या व्याख्यायित करने के लिए हो तो वह ग्राह्य हो जाता है। प्रयोग का प्रयोजन दर्शकों को आतंकित करने का रहा। निर्देशक खुद को साबित करने के फेर में लगे रहे। कला और संस्कृति की समझ के हल्ले में कोई नया दर्शक नाटक देखने आया तो दोबारा उस दिशा में फटका भी नहीं। इस पर भी तो आत्मचिंतन होना चाहिए कि आपने कविता से रस, कहानी से कहानीपन और नाटकों से नाटकीयता को बेदखल कर दिया। किसी ने आपकी आलोचना की तो उसे कला, बौद्धिकता और समझ की धमकी देकर चुप करा दिया। वह आपसे बहस नहीं कर सकता इसलिए उसने आपको बहिष्कृत कर दिया।
अपनी इप्टा इकाई की रजत जयंती के सिलसिले में हम लोक-कलाकारों को आमंत्रित करने छत्तीसगढ़ के छोटे से गाँव मे गए। दो हजार की भी आबादी नहीं रही होगी। बरगद के एक पेड़ में नाचा दल की तख्ती लगी थी। सम्पर्क नम्बर था और नीचे लिखा हुआ था -मैनेजर! यह च्मैनेजरज् बड़े -बड़े शहरों के नामी नाट्य-दलों में भी नहीं पाया जाता। यहाँ निर्देशक होते हैं, संगीत निर्देशक होते हैं, प्रॉपर्टी इंचार्ज होते हैं, मेकअप मेन होते हैं पर कोई च्मैनेजरज् नहीं होता। बहरहाल, नाचा दल के मैनेजर से हमने कलाकारों को सम्मानित करने की बात कही तो उसने पूछा कि सम्मान करने के कितने पैसे दोगे? यह जानकारी भी मिली कि वे कलाकारों से एग्रीमेंट साइन करवाते हैं और रिहर्सल या शो में अनुपस्थित होने पर अर्थ-दण्ड देते हैं। आय की राशि वरिष्ठता के क्रम में बांट दी जाती है। जाहिर है कि यह काम भी हिंदी पट्टी में ही हो रहा है, पर इसलिए हो पा रहा है कि मेले-मड़ई में उनकी भारी माँग होती है। यह घटना ज्यादा नहीं, कोई चार-पांच साल ही पुरानी है। अभी के हालात क्या हैं, कह नहीं सकता।
हिंदी पट्टी में लेखकों-कलाकारों की दुर्दशा पर पोथियाँ रची जा सकती है। हमारा समाज इन्हें किस निगाह से देखता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। कला-संस्कृति तो बहुत दूर की बात है वह तो रोज का भोजन भी सेहत को ध्यान में रखते हुए नहीं करता। यह उसकी प्राथमिकता में नहीं आता। अगर ऑर्गेनिक टमाटर दस रूपये किलो मिले तो वह 5 रुपये वाले रासायनिक खाद वाले टमाटर को प्राथमिकता देता है भले ही मॉल में वह सौ रुपए का पॉपकॉर्न खरीद ले। कला-संस्कृति में उसकी सुरुचि-सम्पन्नता देखनी हो तो विवाह समारोह में चले जाएँ। वह भकोस कर प्लेट-भर खाता है और कानफोडू डीजे में संगीत का आनंद लेता है। उसके घर में किताब के नाम पर सिर्फ कोर्स-बुक या एक-दो धार्मिक किताबें होती हैं। ऐसे समाज से आप उम्मीद करते हैं कि वह टिकिट लेकर नाटक देखे तो आप बहुत मासूम है। इस समाज को नाटक की जरूरत नहीं है। यह आपकी अपनी जरूरत है। नाटक करना आपको अच्छा लगता है। करते रहें। कोई उम्मीद पालेंगे तो फ्रस्टेशन के शिकार होंगे। यथास्थिति बनाए रखें।