विचार / लेख
-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की सबसे ज्यादा अंतर से जीत हुई है जिसमें उसे विपक्ष से लगभग ढाई गुणा अधिक सीट मिली हैं। भले ही भाजपा के नेताओं द्वारा यह प्रधानमन्त्री का जादू या मोदी की गारंटी आदि का असर बताया जा रहा है लेकिन शायद कोई राजनीतिक विश्लेषक या आमजन भी यह मानने को राजी नहीं होगा कि प्रदेश में भाजपा को यह प्रचंड बहुमत सिर्फ मोदी की बदौलत मिला है। आम धारणा यही है कि मध्य प्रदेश में भाजपा के प्रादेशिक नेताओं में शिवराज सिंह चौहान सबसे लोकप्रिय नेता हैं और उनकी लाडली बहना योजना ने उन्हें और भाजपा को पूरे प्रदेश में समभाव से लोकप्रिय बनाया है। यदि मोदी की गारंटी और तथाकथित जादू का इतना असर होता तो तेलंगाना में भाजपा तीसरे नंबर पर नहीं रहती और कुछ समय पहले कर्नाटक एवम हिमाचल प्रदेश में चुनाव नहीं हारती।
शिवराज सिंह चौहान सरकार पर व्यापम के अलावा भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अधिसंख्य जनता के साथ उनका जमीनी जुड़ाव सबसे ज्यादा है। कांग्रेस में ऐसा जुड़ाव दिग्विजय सिंह के लिए भी है लेकिन शिवराज सिंह की भाषा और व्यवहार दिग्विजय सिंह से ज्यादा विनम्र और संतुलित है। वे अपने धुर विरोधियों से भी व्यक्तिगत रंजिश नहीं रखते इसलिए उनके दुश्मन काफी कम हैं। फिर भी मध्य प्रदेश में राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की नीति में शिवराज सिंह चौहान को भी रमन सिंह और वसुंधरा राजे की तरह मुख्यमंत्री की रेस से बाहर कर दिया गया। इसके साथ यह भी आश्चर्यजनक है कि जिन केंद्रीय नेताओ की टीम को राज्यों में चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी थी उन्हें भी विधायकों से संपर्क कर मुख्यमंत्री चुनने की जिम्मेदारी नहीं दी गई।
मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री चुनने के लिए हरियाणा जैसे छोटे राज्य के अपने प्रदेश में अलोकप्रिय मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को पर्यवेक्षक नियुक्त करना शायद यही दर्शाता है कि भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र केवल दिखावे के लिए है, असल में सब कुछ मोदी और शाह की जोड़ी ऊपर से ही तय करती है। यह तो निकट भविष्य में पता चलेगा कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में क्रमश: शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे सरीखे नेताओं को किनारे कर नए चेहरों पर दांव लगाने से 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर होगा। क्या बाहर हुए वरिष्ठ नेता नेता और उनके अनेक समर्थक विधायक एवम कार्यकर्ता अपने अपने राज्यों में उसी लगन से काम करते रहेंगे जैसा वे अब तक करते आए हैं! वसुंधरा राजे जरुर ऐसी नेता हैं जो अपनी नाराजगी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती हैं। जहां तक शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह का प्रश्न है उनमें विद्रोह की चिंगारी दिखाई नहीं देती। संभव है कि उनकी निराशा को केन्द्र सरकार में मंत्री पद नवाज कर मरहम लगाने की कोशिश हो या उन्हें पार्टी में महत्त्वपूर्ण भूमिका देकर थोड़ा संतुष्ट करने के प्रयास किए जाएं। बहरहाल भारतीय जनता पार्टी का यह ओवरहाल उन मतदाताओं के गले उतरना मुश्किल है जिन्होंने अपने स्थानीय लोकप्रिय नेताओं की वजह से भाजपा को वोट दिया है। कम से कम मध्य प्रदेश और राजस्थान में शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे के कट्टर समर्थक काफी ठगे से महसूस कर रहे हैं।
राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है जहां निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह भी संभव है कि भविष्य में तीनों राज्यों का तुलनात्मक रूप से युवा नेतृत्व अपनी रचनात्मक सक्रियता से लोगों का दिल जीत ले। जिस तरह भाजपा में अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवानी के नेतृत्व के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है वैसा ही प्रादेशिक स्तर पर उभारी नई टीम भी कर सकती है। ऐसे में नए चेहरों का यह प्रयोग सफल भी हो सकता है।