विचार / लेख

नमक के डॉक्टर
29-Feb-2024 3:02 PM
नमक के डॉक्टर

डॉ. परिवेश मिश्रा

(संयोग है कि आज श्री दिग्विजय सिंह का जन्मदिन है। चार साल में एक बार आता है। उन्हें बधाई। )

कभी कभी छोटी बातें भी बड़े सामाजिक परिवर्तन का कारण बन जाती हैं। शर्त बस इतनी है कि बात को आगे बढ़ाने वाले लोग मिलते रहें। जैसे हमें मिले।

सारंगढ़ से उत्तर दिशा में महानदी के किनारे जेवरा नाम का एक छोटा गाँव में जब हम पहुँचे तो सौ डेढ़ सौ युवा दम्पत्तियों का एक समूह बच्चों को गोद में लिए खड़ा था। मेरी पत्नी मेनका देवी और मैं वहाँ बच्चों का टीकाकरण करने पहुँचे थे। राजीव गांधी और सैम पित्रोदा के शुरू किये कोल्ड-चेन आधारित टीकाकरण मिशन में कुछ समय बाकी था। वहाँ हमें अनेक लोगों के गले में टेबल-टेनिस से लेकर टेनिस बॉल के आकार की गांठें लटकी दिखीं। गिनने पर ऐसे लोगों की संख्या 18 निकली।

जब हम दोनों ने मेडिकल कॉलेज से शिक्षा पूरी की हम आदर्शवाद के बादलों में तैर रहे थे। मेरी पीढ़ी का यह वह दौर था जब बीस से तीस वर्ष की आयु में यदि कोई युवा थोड़ा विद्रोही, स्थापित व्यवस्था से प्रश्न करने वाला, थोड़ा क्रांतिकारी टाईप विचार न रखे, न व्यवहार करे तो लोग उसे असामान्य मानने लगते थे।

उस दौर में नये बने डॉक्टर के सामने अधिक विकल्प नहीं होते थे। नर्सिंग होम और निजि बड़े अस्पतालों का चलन राजीव गांधी से शुरू होकर नरसिंह राव तथा मनमोहन सिंह के काल में बढ़ा, तब नहीं था। भोपाल में मेडिकल कॉलेज होस्टल के पास ही राज्य के स्वास्थ्य विभाग का दफ्तर था। सादे कागज पर आवेदन छोड़ आने के हफ्ता-दस दिन में नियुक्ति पत्र हाथ में आ जाता था। यह अलग बात है कि गूगल-पूर्व के उस काल में उसके बाद नियुक्ति पत्र हाथों में लिये युवा डॉक्टर पता करते घूमता था कि नियुक्ति वाला गांव नक्शे में कहां है। अधिकांश प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिजली और सडक़ विहीन स्थानों पर थे। रेडियोलॉजी विभाग में मेरे साथ एम.डी. कर रहे डॉ. समीर हूमड मनासा के रहने वाले थे। मनासा मध्यप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर नीमच के पास है। एक दिन समीर ने अपना नियुक्ति लिफ़ाफ़ा खोला और पूछा था- यह कुडुमकेला कहां होता है? मैंने बताया यह मध्यप्रदेश की पूर्वी सीमा पर रायगढ़ और धर्मजयगढ़ के बीच है। समीर का अगला प्रश्न था- कितनी दूर है? जब बताया कुडुमकेला में मनासा की अपेक्षा सूरज चालीस मिनट पहले उदय होता है तो देर तक सोने के आदी समीर का चेहरा उतर गया था।

मेनका देवी और मैंने सामाजिक चिकित्सा के क्षेत्र वाले जिस रास्ते पर चलने का निर्णय लिया था वह बहुत अधिक चला हुआ नहीं था। इस राह में हमें लेप्रसी, टीबी, फ़ायलेरियेसिस जैसी स्थितियां इफरात में मिलने जा रही थीं। लेकिन इनसे दो-चार होने का कोई मॉडल सामने नहीं था जिसके अनुसरण पर विचार किया जा सके। मुरलीधर देवीदास आमटे को बाबा आमटे के नाम से जाना जाता था। उन्होंने लेप्रसी पर बहुत काम किया था। वे बहुत बड़ी हस्ती थे। वे स्वाभाविक रोल मॉडल हो सकते थे। किन्तु हम न तो अपने कार्यक्षेत्र को लेप्रसी में सीमित रखना चाहते थे न ही अपने भूगोल को आश्रम के भीतर।

जब हम जेवरा गाँव से वापस आये तो एक नया अध्याय हमारे कामों में जुड़ गया। गले में गांठ (घेंघा या गॉयटर) को आयोडीन की कमी से शरीर में होने वाले दुष्प्रभावों के समूह में रखा जाता है। इसके अलावा नवजात शिशुओं की बढ़ी हुई मृत्यु दर, मृत शिशु के बाहर आने की दर, शारीरिक और मानसिक विकलांगताएं, मंदबुद्धि आदि भी इस समूह में आते हैं।

प्राकृतिक आयोडीन मिट्टी की सबसे ऊपरी सतह में पाया जाता है और जहां पानी का बहाव तेज होता है वहां इसकी कमी अधिक होती है। हमारे जि़ले के उत्तरी क्षेत्रों में पहाड़ी इलाका होने के कारण बहाव तेज होना ही था। अब यह इलाका जशपुर के नाम से एक अलग जिला बन चुका है। उन दिनों युवा होनहार अफसरों को एडिशनल कलेक्टर का पद दे कर यहां का प्रशासनिक मुखिया बनाया जाता था। सात विशाल विकास खण्डों वाला यह बड़ा इलाका था। यदि युवा अधिकारी प्रतिभाशाली और कल्पनाशील हो तथा कुछ नया करने का जज़्बा रखता हो तो उसे ऐसा करने के लिए पूरा अवसर यहाँ प्राप्त होता था।

उन दिनों यहां श्री मनोज श्रीवास्तव पदस्थ थे। हाल में वे मध्यप्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से रिटायर हुए। उन्होने इस समस्या को समझा और निदान ढूंढऩे में हमारी मदद की। नमक ऐसी वस्तु थी जिसका सेवन सब करते हैं। किन्तु आयोडीन वाले नमक की उपलब्धता और खपत दोनों बहुत कम थे। उन दिनों की प्रचलित प्रथा के अनुसार कस्बों से व्यापारी अपनी सायकिल में लटके झोलों में ढेले वाला नमक लेकर वन के अंदर गाँवों तक पहुंचते और आदिवासियों से बदले में वनोपज लेकर वापस आ जाते थे। आमतौर पर यह वह नमक होता जो घोड़ों आदि पशुओं के लिये बाज़ार में आता था। मनोज जी ने एक प्रयोग का सुझाव दिया। उन दिनों जवाहर रोजग़ार योजना के नाम से एक कार्यक्रम चलता था जिसमें ग्रामीणों को काम के बदले पारिश्रमिक के रूप में चावल और नगद दिया जाता था। सुझाव था इस कार्यक्रम के माध्यम से आयोडीन वाला नमक आदिवासियों तक पहुँचाने का। मनोज जी के सुझाव पर अमल हुआ।

बाहर से बड़े पैकिंग में आयोडाईज्ड नमक बुलाया गया। खुले नमक से आयोडीन का क्षरण हो जाता है इसलिए इलाके की सारी आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का सहयोग लेकर नमक को प्लास्टिक के छोटे-छोटे पैकेट्स में बांटा और मोमबत्ती की लौ की सहायता से सील किया गया। नमक के पैकेट्स के ढेर बन गये। जवाहर रोजग़ार योजना के भुगतान के साथ नमक का वितरण शुरू हुआ। आमतौर पर परिवार के एक से अधिक सदस्य मज़दूरी करते थे। देखते देखते ग्रामीणों और आदिवासियों के घरों में इतने पैकेट्स इक_ा हो गये कि वनोपज से अदला-बदली कर ढेले वाला नमक लेने का कारण समाप्त हो गया। उसके बाद कोई औपचारिक सर्वे तो नहीं हुआ किन्तु उस इलाके में पदस्थ डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों से जानकारी मिली कि परिवर्तन दिखाई देना शुरू हो गया था।

इस दौरान मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन गये थे। 1995 में उनके मंत्रीमंडल के एक साथी मोहनलाल चौधरी की मृत्य हो गयी। वे सारंगढ़ से लगे हुए सरायपाली क्षेत्र से विधायक थे। मृत्य के कारण उपचुनाव घोषित हुआ और उम्मीदवार के चयन के सिलसिले में दिग्विजय सिंह जी का आगमन हुआ। सरायपाली का रास्ता सारंगढ़ होकर जाता था सो भोजन के लिए वे गिरिविलास में रुके। उस दौरान हुई बातचीत में मेनका जी ने उनके साथ जेवरा से लेकर जशपुर तक के अपने अनुभव साझा किये। मुझसे उन्होंने इस विषय पर इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक के द्वारा किये गये रिसर्च की रिपोर्ट्स लीं। सारंगढ़ से सरायपाली के बीच का रास्ता उन दिनों बेहद खराब था। सो रास्ते में दस्तावेजों का अध्ययन करने के लिए उन्हे कुछ अतिरिक्त समय भी मिला। लौटते समय वे एक बार फिऱ रुके और जो शंकाएं थीं उनका निराकरण किया।

मुख्यमंत्री के भोपाल वापस पहुंचने के कुछ ही दिनों के भीतर दो बाते हुईं - उन्होने अपनी सरकार के लिए पांच मिशनों की घोषणा की। आयोडीन की कमी से होने वाली स्थितियों पर नियंत्रण उनमें एक था। दूसरा निर्णय था मध्यप्रदेश में बिना आयोडीन के खुले नमक की बिक्री पर पूरी तरह रोक।

खुले नमक की बिक्री पर रोक की घोषणा का सभी ने खुले दिल से स्वागत किया हो ऐसा नहीं था। इसका विरोध करने वाले एक बड़े  वर्ग का मानना रहा कि यह निर्णय आयोडीन नमक बेचने वाली बड़ी कम्पनियों के दबाव में या उन्हे उपकृत करने के लिए लिया गया था।

जो भी हो, इसका दूसरा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। न मनोज श्रीवास्तव अपने पद पर रहे न दिग्विजय सिंह। लेकिन यह सच है कि आज छत्तीसगढ में (और शायद मध्यप्रदेश और अन्य स्थानों में भी) गले में गांठ लिये लोग दिखाई नहीं देते। कम से कम उतनी आसानी और उतनी संख्या में तो कतई नहीं जितने हमें जेवरा में दिखाई दिये थे। पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाली विकलांगताएं अब नजर नहीं आतीं। अब बाजार में खुला नमक भी बिकता नजर नहीं आता।

गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़

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