विचार / लेख

एक पाकिस्तानी का भारत भ्रमण..
24-Mar-2021 7:37 PM
एक पाकिस्तानी का भारत भ्रमण..

-सुल्तान अहमद 
2008 में सपरिवार इंडिया जाना हुआ। 
दिसंबर का महीना था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। और हम थे कराचीवासी, जहां पर ठंड बड़ी मिन्नतों के बाद किसी महबूबा की भांति दुर्लभता से ही दर्शन कराती है, वो भी केवल दो चार दिन ही ! सर्दी से सिकुडक़र बच्चें लगभग आधे ही हो गये थे।
ये तो आप लोग भी जानते ही होंगे कि दिल्ली की निर्दयी ठंड-
केवल दुई या रुई से ही जाती है।

मुझे एक टैक्सी वाले से मोलभाव करते हुए देखकर, एक सरकारी बस का कंडक्टर मेरे पास आकर बोला-
आप हिंदुस्तानी मालूम नहीं होते हैं।

जी, मैं पाकिस्तानी हूँ। मैंने कहा।

रात के इस पहर, किसी प्राईवेट गाड़ी से सफर करना उचित नहीं है। सरकारी बस में किराया भी कम लगेगा और हिफाजत भी ज़्यादा रहेगी।

रात के लगभग दो-अढ़ाई का समय रहा होगा। मैंने कंडक्टर की बात सुनकर, सरकारी बस से ही सफर करने को बेहतर समझा।

कन्डक्टर ने सामान रखवाया और सबसे अच्छी सीट ये कहकर दी कि आप हमारे अतिथि हैं।

अपने मोबाईल से हमारे रिश्तेदारों से बात भी करवाई और यूँ सभी यात्रियों से परिचय भी हो गया और हम वीआईपी भी हो गये।

सफर शुरू हुआ।

मोदी नगर से पहले एक प्राइवेट बस ने, जिसमें तीर्थयात्री थे, ओवरटेक करते हुए, हमारी बस को टक्कर मार दी। दोनों ड्राइवरों में हाथापाई हो गयी। हमारी सरकारी बस के ड्राइवर ने पुलिस में कम्पलेन कर दी। अगले नाके पर, पुलिस ने दूसरी प्राईवेट बस को रोक लिया। दोनों बस की सवारियाँ अपने-अपने ड्राइवर की तरफदारी करने लगे। पुलिस असमंजस की स्थिति में थी। तभी एक सवारी ने कहा की अच्छा आप पाकिस्तानी सवारी से पूछ लो, वो किसी का पक्ष नहीं लेगें।

इससे पहले कि हम अपना बयान देते, दूसरी बस से एक बूढ़ी महिला मेरे पास आयी और कहने लगी- 

बेटा रात का समय है और वैसे भी झगड़ा निबटाना पुण्य का काम होता है।

मंैने कहा, गलती किस की थी, मैं सच में नहीं जानता, परन्तु नुकसान किसी का भी नहीं हुआ है। अब हम केवल झूठे स्वाभिमान की खातिर लड़ रहे हैं। बेहतर है, इस हादसे को भूलकर आगे बढ़ चलें।

दोनों ड्राइवरों को राजी किया और फिर सफर शुरू हुआ।

चीतल रेस्टोरेंट, खतौली पर खूब पेट भरकर शाकाहारी व्यंजनों का स्वाद लिया।

भाई साहब ! 

यहाँ का बड़ा स्वादिष्ठ भोजन होता है। खूब मन से खाना, पैसों की चिंता मत करना। 

जो भी पास से गुजरता, यही कहता हुआ जाता। ओय छोटू ! देखो भाई साहब को सभी सब्जी देना। मांस मछली भी मिलती है, कहो तो भिजवा दूँ। 

मगर, मैंने मना कर दिया। अब यहाँ आकर भी शाकाहारी भोजन का आनंद नहीं लिया तो फिर कब ? साथ ही बिल की भी चिंता सताने लगी थी, खा जो इतना चूके थे।

मैं भुगतान काऊंटर पर पहुंचा। 

वहां पर फिर दोनों ड्राइवरों में बहस छिड़ी हुई था। मगर अब माजरा दूसरा था। दोनों ड्राइवर, मेरे खाने का भुगतान करने पर झगड़ रहे थे। 

वो मेरी बस में है तो मंै ही खाना खिलाऊँगा ना !

दूसरे ने कहा- 

यार देखो उनके कारण ही मेरी जान बची, वरना पुलिस मुझे कहाँ छोडऩे वाली थी। आखिर गलती तो मेरी ही थी, ओवरटेक करने में। अब पछतावा हो रहा है।

इसी बीच, वो बूढ़ी महिला आयी और कहने लगी- 

तुम लोग अब बस भी चलाओगे या यूँ ही लड़ते रहोगे। भुगतान मैं कर आयी हूं, बड़ा सज्जन आदमी लगता है।

और इधर बच्चे भावनाओं के समुद्र की अथाह गहराइयों में डूबे जा रहे थे। क्या ये अज़ीज़ दुश्मन भी, हमारी ही तरह इंसानियत के पुजारी नहीं है ?

बच्चों का अतिथि सत्कार और सहिष्णुता से जो परिचय आज हुआ था, उससे तो कभी राजनीतिक पटल पर उनका साक्षात्कार नहीं हुआ था।

बच्चे अचम्भित थे, यात्रियों के व्यवहार पर। आहिस्ता से कान में पूछते थे-

पापा ! क्या वाकई ये हमारा पड़ोसी मुल्क इंडिया ही है ! इन्हें तो हमारी सरकार बड़े दुश्मन कहती है। कहीं हम किसी दूसरे मुल्क में तो नहीं आ गये हैं ?

अब पता चला कि आप सही कहते थे, दुश्मनी केवल सरकारी स्तर पर है, अवाम के बीच नहीं है। ये केवल सियासी लोगों के हथकंड़े हैं।

लकीरें हैं तो रहने दो, किसी ने रूठ कर गुस्से में शायद खींच दी थीं।

इन्हीं को अब बनाओ पाला और आओ कबड्डी खेलते हैं। गुलज़ार

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