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विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने-2
26-Mar-2021 12:09 PM
विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने-2

-रमेश अनुपम

विनोद कुमार शुक्ल के सम्पूर्ण लेखन में एक विशेष प्रकार का सम्मोहन है, एक तरह का जादू भी। अपने उपन्यास या कहानियों के माध्यम से विनोदजी जिस दुनिया को रचते हैं, वह लातिनी लेखक ग्रेबिएल गार्सिया मार्कवेज की तरह किसी जादुई यथार्थ की दुनिया से कम नहीं है।

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यथार्थ विनोदजी के यहां उस तरह से नहीं आता है जिस तरह से वह अन्य लेखकों के यहां दिखाई देता है, विनोदजी के गद्य में यह यथार्थ फैंटेसी के साथ घुल-मिलकर इस तरह से आता है कि पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इसमें कितना यथार्थ है और कितनी कल्पना?

उनके यहां फैंटेसी का अपना एक अलग जादू है, जो जादू उनके किसी समकालीन हिंदी लेखक के यहां दुर्लभ है। विनोदजी के यहां फैंटेसी किसी बच्चे की चित्रकारी की तरह है जो रंगों से खेलते हुए अनायास ऐसा कुछ रच देता है कि हम अवाक रह जाते हैं। 

विनोदजी के यहां जो चीजें मुझे सबसे अधिक चमत्कृत करती हैं वह है एक बच्चे जैसी कल्पना, जो मछलियों को आकाश में तैरा सकती हैं और चिडिय़ों को पानी के भीतर उड़ा सकती हैं। उनकी रचनाओं को गौर से देखेेेें तो उनकी रचनाओं में बच्चों जैसी एक जिद भी है, कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, उस पर तुम्हें यकीन करना ही होगा।

उपन्यास या कहानी क्या है एक बच्चे की जिद ही तो है जिस पर बिना यकीन किए आपका प्रवेश वहां निषिद्ध है।

कभी-कभी लगता है विनोदजी अपनी रचनाओं में सुरबहार पर कोई पक्का शास्त्रीय राग बजा रहे हैं और अपने आरोह-अवरोह में, द्रुत और विलंबित में हमें डूब जाने के लिए विवश कर रहे हैं।

कभी लगता है गणेश पाईन या गुलाम शेख की अद्भुत पेंटिंग की तरह वे हमें अपने रंगों और रेखाओं के साथ एकाकार कर देने की कोई जादुई कोशिश कर रहे हैं या कभी ऋत्विक घटक या अपर्णा सेन की फिल्मों की तरह किसी अलौकिक दृश्य या ध्वनियों की किसी ऐसी दुनिया में ले जा रहे हैं, जिसे हमने इस से पहले कभी इस तरह से देखा और सुना ही नहीं था।

विनोदजी का संपूर्ण गद्य मुझे किसी पवित्र ऋचा की तरह लगता है, जहां जाने से पहले स्वयं को भी पवित्र किया जाना अनिवार्य है।

विनोदजी का पद्य मुझे किसी प्रागैतिहासिक शिला लेखों की भांति प्रतीत होते हैं जिसे अब तक ठीक-ठीक पढ़ा जाना बाकी है और जिसे अब तक समझा जाना बाकी है।

विनोदजी को पूरी तरह से समझे जाने के हमारे दावे निर्मूल सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि विनोदजी तात्कालिकता से परे एक ऐसे महत्वपूर्ण और दुर्लभ रचनाकार हैं, जो पाठकों और आलोचकों से एक नई दृष्टि की मांग करते हैं, जो समकालीनता की भीड़ से अलहदा सर्वकालिकता का वरण करते हैं। 

वे मुक्तिबोध की तरह लोकप्रियता और सर्व स्वीकार्यता पर यकीन करने से बचते हुए एक बीहड़ मार्ग पर चलना अधिक पसंद करते हैं, जहां अस्वीकृत किए जाने के खतरे अनगिनत हैं।
(पहली किस्त 22 मार्च को पोस्ट)

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