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औरत की जिंदगी क्या पति से शुरू और पति पर ही खत्म है?
24-Jul-2024 2:40 PM
औरत की जिंदगी क्या पति से शुरू और पति पर ही खत्म है?

-नासिरुद्दीन

पिछले दिनों एक ‘बहू’ सुर्खियों में रही हैं। उनके सास-ससुर ने उन पर कुछ आरोप लगाए हैं।

वे सेना के कैप्टन अंशुमान सिंह की पत्नी हैं। अंशुमान सिंह को हाल में ही मरणोपरांत कीर्ति चक्र मिला है।

यह सम्मान राष्ट्रपति ने उनकी पत्नी स्मृति सिंह और माँ मंजू सिंह को दिया। इसी के बाद मीडिया में कई तरह की बातें उनके सास-ससुर के हवाले से आ रही है। वह बातें कुछ इस प्रकार हैं।

बहू सब कुछ लेकर चली गई।

हमारे पास बेटे की तस्वीर के अलावा कुछ नहीं बचा।

हम तो बहू को बेटी की तरह रखते।

वह शादी करना चाहती तो नहीं रोकते।

हम तो अपने छोटे बेटे से उसकी शादी करा देते।

सेना की नीति में परिवार की परिभाषा में बदलाव हो।

उसे प्यार नहीं था।

वह देश छोडक़र चली जाएँगी।

यह सब पढ़-सुन कर ऐसा लग रहा है कि वे अपनी बहू के बारे में नहीं किसी मुजरिम के बारे में बात कर रहे हैं।

अगर वे इन बातों के ज़रिए किसी तरह के वास्तविक मुद्दों पर ध्यान दिलाना चाहते हैं तो उसका तरीक़ा यह नहीं है, जो इन्होंने अपनाया है।

मीडिया का नज़रिया भी रेखांकित करने वाला है। वह आमतौर पर ऐसे मामले को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। इन सबके केन्द्र में एक स्त्री है तो इसे पेश करने का अंदाज़ और अलग हो जाता है।

हालाँकि, इस पूरे विवाद के केन्द्र में जो व्यक्ति है, उसकी बात अब तक सुनाई नहीं दी है। इन सब पर सार्वजनिक तौर पर इतनी चर्चा हो रही है कि अब यह मुद्दा निजी दायरे से बाहर निकल चुका है। इसलिए इससे निकलने वाले मुद्दों पर चर्चा करना ग़लत नहीं होगा।

स्त्री के जीवन के बारे में कौन फ़ैसला लेगा?

इमेज कैप्शन,स्मृति सिंह से बात करते भारतीय सेना प्रमुख जनरल उपेंद्र द्विवेदी।

तो क्या एक स्त्री का अपने बारे में फ़ैसला लेना अपराध है? क्या एक स्त्री का अपने मृत पति से जुड़ी चीज़ों पर हक़ जताना ग़लत है? उसका कोई हक़ है भी या नहीं?

क्या स्त्री का जीवन महज़ पति और पति के परिवार से ही जुड़ा है? स्त्री के होने में पति के होने की भूमिका कितनी है?

क्या पति की मृत्यु के बाद भी वह उस जुड़ाव के लिए बाध्य है? क्या किसी स्त्री के जीवन में पति का न होना, उसकी जि़ंदगी से हर तरह की रंगत का दूर हो जाना है?

वह चाहे तो क्या अपना नया वैवाहिक जीवन शुरू नहीं कर सकती है? अगर उसे नया वैवाहिक जीवन शुरू करना है तो उसका विकल्प भी क्या वह घर ही है? लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि किसी स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं? या स्त्री का जीवन पति से ही शुरू होता है और पति पर ही ख़त्म होता है?

शादी के बाद पति का न रहना क्या स्त्री की जि़ंदगी का भी अंत माना जाएगा? क्या शादी के बाद उसकी स्वतंत्र पहचान भी ख़त्म हो जाती है? या उसकी अपनी व्यक्तिगत जि़ंदगी और शख़्सियत ही ख़त्म समझ ली जाए?

सबका दुख, दुख ही है

दुखों की तुलना बेमानी है। दुख तराज़ू पर तौले जाने वाली चीज़ नहीं है। ऐसा करना दुखी लोगों के दुख को कमतर करना है।

खबरों के मुताबिक़, अंशुमान और स्मृति की आपसी पसंद की शादी थी। वे दोनों काफ़ी समय से एक-दूसरे को जानते थे। ज़ाहिर है, अंशुमान का न रहना, स्मृति की जि़ंदगी में भी बड़ा ख़ालीपन पैदा कर गया होगा।

दुख का पहाड़ सिफऱ् माँ-बाप पर नहीं गिरा है। स्मृति पर भी दुख का पहाड़ है। उनका वैवाहिक जीवन तो अभी शुरू ही हुआ था। उस पर एक झटके में विराम लग गया। उसने अपना साथी खोया है।

किसी स्त्री का अपने साथी को खोना क्या होता है, यह हमें समझना होगा। ऐसी हालत में उनके सामने लम्बी जि़ंदगी पड़ी है। इसीलिए यह ज़रूरी है कि जब हम इन मुद्दों पर बात करें तो इस बात का ख्य़ाल रखें। मीडिया के ज़रिए व्यक्तिगत जि़ंदगियों की पड़ताल न करें।

स्त्री का जीवन और सात जन्मों का बंधन

इमेज कैप्शन,मरणोपरांत कैप्टन अंशुमान सिंह को कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया

अभी हाल ही में एक शादी की धूम रही है। उस शादी में कन्यादान की महिमा का बखान हुआ। यही नहीं कहा गया कि शादी तो सात जन्म का साथ है। सात जन्म के साथ का विचार ही स्त्री को हमेशा से बाँधते आया है।

पुरुष को इस विचार से कभी बँधा नहीं पाया गया। तब ही तो हमारे समाज में सती जैसी प्रथा थी। स्त्रियाँ मृत पति के साथ ख़ुद का अंत कर लेती थीं। पुरुष मृत पत्नी के साथ ख़ुद का अंत करता हो, ऐसे तथ्य नहीं मिलते।

आज भले ही सती का अंत हो चुका हो लेकिन हमारी ख़्वाहिश स्त्री से कुछ ऐसे ही समर्पण की है। हम स्त्री से यही अपेक्षा करते हैं कि वह पूरी तरह से अपने पति से बंधी रहे। किसी भी सूरत में वह उससे अलग अपने अस्तित्व के बारे में न सोचे।

पति की मृत्यु के बाद भी उसका समर्पण ख़त्म न हो। यह अपेक्षा पतियों से नहीं दिखती यानी यह एकतरफ़ा अपेक्षा है। स्त्री से यह अपेक्षा सभी समुदायों में है। कहीं यह मज़हब के नाम पर है तो कहीं रिवाज के नाम पर।

जिसका जीवन है, वह ख़ुद तय करेगा

कोई भी स्त्री अपनी आगे की जि़ंदगी कैसे गुज़ारेगी, यह तय करना उनका हक़ है। पति के न रहने पर वह कैसे और कहाँ रहेगी, यह भी उसे ही तय करने देना चाहिए।

उस पर किसी तरह का विचार थोपना, उसके उस हक़ को ख़त्म करना है। यही नहीं, उसे दिमाग़ी तौर पर किसी ख़ास दिशा में सोचने पर मजबूर नहीं करना चाहिए। उसे अपने बारे में फैसला लेने का पूरा मौक़ा मिलना चाहिए।

यह विचार कहाँ से आता है कि वे चाहें तो वे अपने छोटे देवर से ब्याह कर लें। इसमें दो चीज़ें हैं। पहला, स्त्री के लिए ब्याह ही जि़ंदगी जीने का एकमात्र विकल्प है। ये मान लिया जाता है कि उसे अगर एक पति मिल गया तो उसका जीवन धन्य हो गया।

दूसरा, वह अपने को उसी घेरे में रखे, जिस घेरे में वह थी। यानी वह पति के परिवार के साथ ही अपना भविष्य देखे। स्मृति या किसी भी स्त्री को इस दुविधा में क्यों डालना? या स्त्री की ‘सुरक्षा’ शादी ही है और वह शादी मृत पति के घर में ही हो?

ऐसे विचार उस नज़रिए की देन है, जो स्त्री को आज़ाद व्यक्तित्व नहीं मानता। यही नहीं स्त्री को जब बुरा साबित करना होता है तो उस पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं। इन आरोपों में दम हो न हो, समाज की नजऱ में उसे बुरा तो बना ही देते हैं।

यहाँ यह सवाल पूछना बेमानी नहीं होगा कि कितने ससुराल वाले बेटे के न रहने पर अपनी बहू को सम्मान के साथ बराबरी का परिवारीजन मानते हुए रखते हैं? ऐसी बहुओं की जि़ंदगी कितनी मुश्किल होती है, हम अपने समाज में देख सकते हैं।

स्मृति बन जाइए और फिर सोचिए

असल में जब तक उस स्त्री के तौर पर हम नहीं सोचेंगे जिसने अपने साथी को खोया है, तब तक हमें उस दिमाग़ी हालत का अंदाज़ा नहीं लगेगा जिससे स्मृति गुजऱी हैं या गुजऱ रही हैं।

हमें उनकी दिमागी हालत का पता नहीं। हमें उनकी बातें भी नहीं पता। हमें सारी बातें एक तरफ़ से पता चल रही हैंज् और मीडिया के ज़रिए जो पता चल रहा है, वह स्मृति को ‘अच्छी स्त्री’, ‘अच्छी या संस्कारी बहू’ के रूप में नहीं पेश करता।

सारी कथा इसके इर्द-गिर्द है कि वह चली गई। क्यों गई? क्या उसे नहीं जाना चाहिए? क्या उसे न चाहते हुए भी ख़ुद को बांध देना चाहिए?

स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व

बात घूम-फिरकर मूल मुद्दे पर आती है। यानी स्त्री का आज़ाद वजूद है या नहीं? स्त्री की अपनी जि़ंदगी है। स्मृति के पास तो लम्बी जि़ंदगी है। उस जि़ंदगी का वह क्या करेंगी, कैसे गुज़ारेंगी, किसके साथ गुज़ारेंगी- यह सिफऱ् और सिफऱ् उनका निजी मामला है।

यह किसी भी स्त्री का अपना फै़सला होना चाहिए। अगर वह नहीं चाहती है तो उसमें दख़ल देने का किसी को भी हक़ नहीं है। चाहे वह कोई भी क्यों न हो।

थोड़ी देर के लिए हम सोचकर देखते हैं कि स्त्री की जगह पुरुष होताज् तो क्या उसके बारे में भी ऐसी ही चर्चा होती या उसे भी ऐसी ही सलाह दी जाती?

इस समाज के तराजू़ का एक पलड़ा पुरुषों की तरफ़ झुका है। वह उन्हें जितनी आज़ादी देता है, स्त्रियों को उतना ही बाँधता है। जो हो रहा है, वह एक स्त्री को बाँधने की कोशिश है।

ये सब यह भी बताता है कि बतौर समाज हम स्त्री के साथ कैसा बर्ताव करते हैं। यह प्रकरण बता रहा है कि हमारे समाज में स्त्री होना कितना चुनौती भरा है। समाज हमेशा और हर रूप में उसे अपने ख़ास तरह के खाँचे में ढला देखना चाहता है। उस खाँचे से इतर स्त्री ने कुछ भी किया तो उसे नकार दिया जाता है। बुरी स्त्री बना दिया जाता है। (bbc.com/hindi)

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