विचार / लेख
फेमिनिस्ट शोभा अक्षर
एक पोस्टर फ़ेसबुक पर सरक्युलेट हो रहा है, जिस पर लिखा है,
‘अगर फ़ेमिनिज़्म आपको ऐसी स्त्री बनाता है जिसके साथ कोई रह न सके, तो वो फ़ेमिनिज़्म नहीं श्राप है।’
पहली बात कि इसमें लिखा गया ‘ऐसी स्त्री’, ये शब्द स्त्री-द्वेष से उपजता है। दूसरी बात, ‘श्राप’ शब्द उद्धृत करने का तात्पर्य है कि इसे लिखने वाला या वाली ख़ुद को पुण्य कर्मों की देवी/देवता मानता या मानती है।इसे वरदान मिला है कि यह किसी भी मुद्दे पर कुछ भी अल्लम-बल्लम बक सकता या सकती है।
मैं कहना चाहती हूँ, फ़ेमिनिज़्म स्त्री-द्वेष और पुरुष-द्वेष दोनों से इतर सिफऱ् स्त्री अधिकारों की बात करता है। और फ़ेमिनिस्ट सिफऱ् स्त्रियाँ ही नहीं होतीं, पुरुष भी होते हैं।
सिफऱ् पुण्य कमाने वाली ये देवी/देवता को फ़ेमिनिज़्म की यह सबसे पहली और मूल बात शायद पता नहीं है। पितृसत्ता को ढोते-ढोते ये देवी/देवता भीड़ के साथ रहते तो हैं पर हल्का-सा इनका दु:ख कुरेदो तो किसी जर-जर इमारत की तरह भरभरा कर गिर पड़ते हैं। इनके भीतर का अकेलापन इनको हर पल खोखला करता रहता है, इनके भीतर का अकेलापन इनकी तर्कशीलता को किसी दीमक की तरह खाता और ख़त्म करता जा रहा है।
इनको लग रहा है, फ़ेमिनिज़्म मतलब अकेला होना होता है।
ब्रह्मा से वरदान प्राप्त, मेरे पुण्य कर्मों वाले देवियों/देवताओं, फेमिनिस्ट होना तुम्हारे बस की बात नहीं है क्योंकि तुम्हारी तरह फ़ेमिनिस्ट लोग जि़न्दगी के हर पल पितृसत्ता के सामने घुटने टेक कर, समझौते कर, ख़ुद के अस्तित्व और अस्मिता को नाले में फेंक कर, पितृसत्ता की ग़ुलामी करके नहीं जी रहे।