विचार / लेख
-देवेन्द्र सुरजन
आज नाना की याद आ गयी, गरीबी का दौर था, परिवार पालने के लिए नाना उस वक़्त रिक्शा चलाते थे, लेकिन आमदनी उतनी नही होती थी कि परिवार पाल सके, फिर नाना ने पीतल की कारीगरी सीखी।
नाना पीतल के कारीगर हुआ करते थे, काम में सफाई इतनी की उस वक़्त दूर दराज के मंदिरों में उनके काम का नाम चलता था, दूर दूर से बड़े बड़े पंडित आते और कहते थे अब्दुल ख़ालिक़ साहब मंदिर की जलाधारी का काम तो आपसे ही कराना है चाहे 2 महीने लग जाएं या 3 महीने लग जाएं।
नाना का काम पीतल की जलाधारी, नाग और बड़े घंटे बनाने का था, उन्होंने जो पीतल के जलाधारी और नाग बनाये वो भारत में अलग अलग शहरों के शिव मंदिरों में लगे हुए है।
मुसलमान होने के बाद भी पंडित घंटो बैठे रहते थे, पानी पीते, नाश्ता करते, उनके कारखाने पर उनकी की हुई नक्काशी देखने बैठे रहते। नाना ने उज्जैन के, इंदौर के, गुजरात के कई मंदिरों के लिए भी जलाधारी बनाई... शायद सैकड़ो मंदिरों में घण्टियाँ, जलाधारी, नाग बनाकर भेजे और हाँ दाम मुँह माँगा मिलता था और इनाम भी।
मुसलमान होकर मंदिरों को संवारने के काम करते थे तो समाज से समझाइश भी आती थी, लेकिन उन्होंने न कभी अपना मज़हब छोड़ा न किसी धर्म की बुराई सुनी।
उनका हुनर उनके बच्चे पालने का ज़रिया रहा और समाजो के बीच मोहब्बत का पैग़ाम भी।
उनकी मुँहबोली बहन चंदा बुआ जि़न्दगी रहने तक उन्हें राखी बांधने आती रही और ये एक भाई की तरह उनकी थाली में तोहफे देते रहे और रिश्ते निभाते रहे... नाना को हिन्दू मुस्लिम एकता और प्रेम की मिसाल के रूप में लिए 1990 -95 के दौर में समाचार पत्रो में खूब जगह मिली।
न जाने कितने मंदिरों के कारीगर मुसलमान रहे और न जाने कितनी मस्जिदों के मजदूर हिन्दू रहे, हम उस देश के वासी है, जहां गंगा और जमुना की संस्कृति है, पुराने लोग निभा गए अब आपकी हमारी बारी है।
(नफरत फैलाने से समाज नही बनता न परिवार बनता है, मोहब्बत ही इंसानियत का पैगाम है)
सुबूर अहमद गौरी