विचार / लेख

डीजल के काले धुएं की गंध और, मशीनों की खटपट के बीच रियाज
19-Jul-2024 4:08 PM
डीजल के काले धुएं की गंध और, मशीनों की खटपट के बीच रियाज

-अशोक पांडे

राजस्थान के शेखावाटी इलाके में एक जिला है झुंझुनूं। झुंझुनूं की अलसीसर तहसील के एक गाँव लूणा में मुस्लिम गवैयों के कुछ परिवार रहते आ रहे थे। ये लोग पिछली पंद्रह पीढिय़ों से शास्त्रीय गायन कर रहे थे। कला और संगीत को संरक्षण दिए जाने का ज़माना था और शेखावटी के रईस तो वैसे भी इस मामले में हमेशा आगे रहने वाले बताये जाते थे। इलाक़े भर में ध्रुपद गायकी का बड़ा नाम माने जाने वाले उस्ताद अज़ीम खान इसी लूणा में रहते थे और अक्सर अपने छोटे भाई उस्ताद इस्माइल खान के साथ महफि़लों में गाने जाते थे।

18 जुलाई 1927 को अज़ीम खान के घर एक बालक जन्मा जिसे मेहदी हसन नाम दिया गया। मेहदी का अर्थ हुआ ऐसा शख्स जिसे सही रास्ते पर चलने के लिए दैवीय रोशनी मिली हुई हो। गाँव के बाकी बच्चों की तरह मेहदी हसन का बचपन भी लूणा की रेतीली गलियों-पगडंडियों के बीच बकरियां चराने और खेल-कूद में बीत जाना था लेकिन वे एक कलावन्त ख़ानदान की नुमाइंदगी करते थे सो चार-पांच साल की आयु में पिता और चाचा ने उनके कान में पहला सुर फूंका। उस पहले सुर की रोशनी में जब इस बच्चे के मुख से पहली बार ‘सा’ फूटा, एक बार को समूची कायनात भी मुस्कराई होगी।

आठ साल की उम्र में पड़ोसी प्रांत पंजाब के फाजिल्का में मेहदी हसन ध्रुपद और खय़ाल गायकी की अपनी पहली परफॉर्मेंस दे रहे थे। अगले दस-बारह साल घनघोर रियाज़ के थे जब अपने बुजुर्गों की शागिर्दी करते हुए मेहदी हसन ने ज्यादातर रागों को उनकी जटिलताओं समेत साध लिया होगा।

फिर 1947 आया। विभाजन के बाद पूरा हसन ख़ानदान पाकिस्तान चला आया। साहीवाल जिले का चिचावतनी कस्बा मेहदी हसन की कर्मभूमि बना। परिवार की जो भी थोड़ी-बहुत बचत थी वह कुछ ही मुश्किल दिनों का साथ दे सकी होगी। पैसे की सतत तंगी और जि़ंदा रहने की जद्दोजहद के बीच संगीत की कौन सोचता!

मेहदी हसन ने पहले मुग़ल साइकिल हाउस नाम की साइकिल रिपेयरिंग की एक दुकान में नौकरी हासिल की। टायरों के पंचर जोड़ते, हैंडल सीधे करते उन्होंने दूसरे उस्ताद से कारों और डीजल-ट्रैक्टरों की मरम्मत का काम भी सीख लिया। जल्दी ही वे इलाके में एक नामी मिस्त्री के तौर पर जाने जाने लगे और अड़ोस-पड़ोस के गांवों में जाकर इंजनों के अलावा ट्यूबवैल की मरम्मत के काम भी करने लगे।

संगीत से इकलौता ताल्लुक एक पुराने एक-बैंड वाले रेडियो की माफऱ्त बचा हुआ था। काम से थके-हारे लौटने के बाद वही उनकी तन्हाई का साथी बनता। किसी स्टेशन पर क्लासिकल बज रहा होता तो वे देर तक उसे सुनते। फिर उठ बैठते और तानपूरा निकाल कर घंटों रियाज़ करते रहते।

जीवन के वे कठिनतम दिन हफ्ते, महीने और साल बनते चले गए, मेहदी हसन ने रियाज़ करना कभी न छोड़ा। इंजन में जलने वाले डीजल के काले धुएं की गंध और मशीनों की खटपट आवाजों के बीच उनकी आत्मा संगीत के सुकून भरे मैदान पर पसरी रहती। रात के आने का इंतज़ार रहता।

दस साल इस तरह रियाज़ करते बीते तब जाकर 1957 में उन्हें रेडियो पर ठुमरी गाने का मौक़ा हासिल हुआ। रेडियो पर पहली परफॉर्मेंस हो गयी तब जाकर सालों बाद उन्हें अपने जैसे लोगों-संगीतकारों के साथ रहने को मिला। उन्होंने पाया कि पार्टीशन के बाद कला-संगीत को प्रश्रय देने वालों की तादाद लगभग समाप्त हो गयी थी। जो भी बड़े गवैये और साजिन्दे बचे थे, वे जस-तस अपना समय काट रहे थे। सत्ता की भी उनमें कोई दिलचस्पी न थी।

पच्चीस साल के अभ्यास में अपने जीवन का सबसे सुन्दर समय लगा चुके मेहदी हसन इस नैराश्य को स्वीकार करने वाले नहीं थे। इस बीच उन्होंने संगीत के साथ-साथ कविता की भी गहरी समझ पैदा कर ली थी। बड़े उस्तादों की सैकड़ों गज़लें उन्हें कंठस्थ थीं जिनके शेरों को वे अक्सर दोस्तों के साथ अपनी बातचीत में इस्तेमाल किया करते थे।

जिस रोज़ उस्ताद मेहदी हसन खान ने विशुद्ध क्लासिकल छोड़ गज़़ल गायकी को अपना इलाका बनाने का अंतिम फैसला लिया होगा कायनात उस दिन खुश होकर नाची भी होगी।

यह शायरी के साथ उनकी गहरी शनासाई थी कि उन्होंने मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे कविता के ख़लीफ़ाओं को भी गाया और फरहत शहज़ाद, सलीम गिलानी और परवीन शाकिर जैसे अपेक्षाकृत नए नामों को भी।

यह मानव सभ्यता द्वारा ईजाद की गई दो कला-विधाओं के चरम का एक साथ आना था। मेहदी हसन के यहाँ सुरों ने तमाम गज़़लों को नए मानी बख्शे और रदीफ़-काफिय़ों ने नई पोशाकें पहनीं।

उनकी गायकी के बारे में कुछ कहना वैसा ही है जैसे पानी के बारे में बात करना। पानी और उसके तमाम नामों को सब जानते हैं।

मेहदी हसन के पास बेहद लम्बे और कभी न थकने वाले अभ्यास की मुलायम ताकत थी जिसकी मदद से उन्होंने संगीत की अभेद्य चट्टानों के बीच से रास्ते निकाल दिए। पानी भी यही करता है।

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