संपादकीय
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अभी 11 लोगों को बच्चों के पोर्नो वीडियो इंटरनेट पर डालने और उन्हें फ़ैलाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है। हर कुछ महीनों में इस राज्य में ऐसी गिरफ्तारी हो रही है, और देश में तो हर दिन कहीं न कहीं ऐसा हो रहा है। बच्चों के पोर्नो का एक मतलब यह भी होता है कि उनका देह-शोषण भी हो रहा है।
दो बरस पहले उत्तरप्रदेश से बच्चों के सेक्स-शोषण का एक भयानक मामला सामने आया था जिसमें सिंचाई विभाग का एक इंजीनियर, रामभवन सिंह, बच्चों को इधर-उधर से जुटाकर उनका यौन शोषण करता था, और उनके वीडियो बनाकर इंटरनेट पर बेचता था। दस साल से वह यह काम करते आ रहा था, लेकिन उसके रिश्तेदारों को भी इसकी भनक नहीं लगी थी। फिर जब किसी सुराग से पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया, तो उसके पास बच्चों के पोर्नो का जखीरा मिला है। अब तक की जांच से पता लगा है कि वह गरीब परिवारों के 5 से 16 बरस तक की उम्र के बच्चों को अपना निशाना बनाता था। उसके पास से इतने डिजिटल सुबूत बरामद हुए थे कि इस मामले में शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसकी जांच सीबीआई कर रही थी. यह अफसर बच्चों को मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने के बहाने बुलाता था और उनका सेक्स-शोषण करता था।
इसके पहले 2017 में केरल में पुलिस ने लोगों के एक ऐसे समूह को पकड़ा था जो कि आपस में अपने बच्चों के अश्लील वीडियो बनाकर, उनकी नग्न तस्वीरें खींचकर शेयर करते थे, और इस समूह को चलाने वाले ने ऐसे पांच हजार लोगों को जुटा लिया था। यह मुस्लिम नौजवान इस बात की वकालत करता था कि जब तक बच्चियां चार बरस की रहें, उनसे बलात्कार करने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि इस उम्र की बातें उनको याद नहीं रहती। यह आदमी अपनी ही बच्चियों से बलात्कार करते उनके भी वीडियो पोस्ट करता था। केरल पुलिस ने इन पांच हजार लोगों को पकडऩे की पूरी कोशिश की थी, लेकिन ये लोग मोबाइल फोन के एक ऐसे मैसेंजर, सिग्नल, का इस्तेमाल करते हुए जहां किसी को पकड़ा नहीं जा सक रहा है। इन लोगों ने अपने सरीखे हजारों लोगों के साथ ऐसे वीडियो शेयर करने का काम कर रखा था और इसमें गिरफ्तारियां शुरू हो गई है।
लेकिन इतने बड़े मामलों का भांडाफोड़ होने से इसकी गिरफ्तारी के साथ-साथ अब आगे उन लोगों की गिरफ्तारी भी होनी चाहिए जो कि बच्चों के पोर्नो खरीदते हैं। इंटरनेट के जानकार लोग यह जानते हैं कि इंटरनेट पर आसानी से पकड़ में न आने वाला एक डार्क वेब होता है जिस पर तरह-तरह के मुजरिम काम करते हैं और वहां ऐसे वीडियो की खरीद-बिक्री भी होती है। हिन्दुस्तान में सीबीआई को तलाशते हुए योरप की किसी पोर्नो वेबसाईट पर एक हिन्दुस्तानी बच्चे का ऐसा पोर्नो मिला और वहां से ढूंढते हुए जांच एजेंसी रामभवन तक पहुंची।
इस मामले का भांडाफोड़ होने से हिन्दुस्तान के लोगों की आंखें खुलनी चाहिए कि बच्चों का यौन-शोषण कोई विदेशी सोच नहीं है, यह देशों की सरहदों से परे इंसानों के बीच एक आम बात है, और ऐसे अधिकतर लोग बच्चों का सेक्स-शोषण करने के बाद भी बच निकलते हैं क्योंकि बच्चे अपने घर या स्कूल में अपने शोषण की बात बताते भी हैं तो भी उनके ही लोग उस पर भरोसा नहीं करते। धीरे-धीरे बच्चों में बताने का हौसला खत्म होने लगता है। अब अगर एक अफसर 50 से अधिक बच्चों का शोषण कर चुका है, उसके कब्जे से दर्जनों वीडियो और सैकड़ों तस्वीरें मिली हैं, वह इंटरनेट पर पोर्न साईट्स को ये वीडियो बेच देता था, और बच्चों से सेक्स भी करते रहता था, 10 बरस तक उसका कोई भांडाफोड़ नहीं हो सका, तो यह नौबत भारतीय समाज के एक खतरनाक हाल को बताती है।
दुनिया के बाकी तमाम देशों के साथ-साथ हिन्दुस्तान के समाज को जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि गरीब और बेघर बच्चे, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, शिक्षकों और खेल प्रशिक्षकों की पहुंच के भीतर के बच्चे हमेशा ही खतरे में रहते हैं। हिन्दुस्तान में मां-बाप अपने बच्चों की शिकायतों को इसलिए भी सुनना नहीं चाहते क्योंकि ये शिकायतें कई तरह की असुविधा खड़ी करने वाली रहती हैं, रिश्तेदारों या पहचान वालों से रिश्ते बिगड़ते हैं, पुलिस थाने और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगते हैं, और जैसे कि आम हिन्दुस्तानी सोच है, सेक्स-हमले के शिकार लोगों के लिए ही यह मान लिया जाता है कि उनकी इज्जत लुट गई है। इस देश में बलात्कारी की इज्जत नहीं लुटती, बलात्कार के शिकार की इज्जत लुटती है। ऐसे देश में शिकायत लेकर किसी बच्चे का सामने आना नामुमकिन सा रहता है।
हिन्दुस्तान अपने डिजिटल विकास पर बड़ा गर्व करता है। लेकिन यहां चारों तरफ साइबर-ठगी चलती रहती है, साइबर-जालसाजी, और साइबर-जुर्म एक बड़ा कारोबार बन चुका है। ये तमाम जुर्म सरकार के काबू के बाहर दिखते हैं। इसी तरह चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर सरकार की पकड़ बहुत कम दिख रही है जबकि कई अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियां और दूसरे संगठन लगातार चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर नजर रखकर संबंधित सरकारों को सावधान करने का काम करते हैं। हिन्दुस्तान सरकार को ऐसे डिजिटल औजार विकसित करने चाहिए जो कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी का किसी भी शक्ल में इस्तेमाल करने वाले लोगों को पकड़े। हाल के महीनों में छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में भी बहुत से लोग दिल्ली से मिली सूचना के आधार पर गिरफ्तार किए गए हैं, लेकिन वॉट्सऐप जैसे तकनीक के चलते लोग दूसरे किस्म के सेक्स-पोर्नो के साथ-साथ बच्चों के सेक्स-पोर्नो भी एक-दूसरे को भेजते रहते हैं। ऐसे लोगों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए ताकि उनकी खबरें पढक़र बाकी लोगों को एक सबक मिल सके।
लेकिन बच्चों के सेक्स-शोषण का मुद्दा एक अलग पहलू भी रखता है। छोटे-छोटे सामानों का लालच, कई बार तो बेघर बच्चों के लिए एक रात सिर छुपाने की जगह या कंबल मिल जाना भी उन्हें अपने बदन का समझौता करने पर मजबूर कर देता है। इस देश में जब तक बच्चों की आम हालत नहीं सुधरेगी, जब तक वे बेघर और अनाथ बने रहेंगे, तब तक मोटे तौर पर उनका शोषण नहीं थम सकेगा। इसलिए चाइल्ड पोर्नोग्राफी का यह मामला बच्चों से बलात्कार के अनगिनत मामलों का एक पुख्ता सुबूत भी है। और सरकार को इस जुर्म का व्यापक प्रचार करके देश के बाकी मां-बाप, समाज के लोगों को सावधान भी करना चाहिए कि उनके इर्द-गिर्द ऐसी कोई हरकत दिखे तो वे तुरंत पुलिस को खबर करें। एक अफसर 10 बरस तक दर्जनों बच्चों का सेक्स-शोषण करते रहा, उसकी रिकॉर्डिंग करते रहा, उसे दुनिया भर में बेचते रहा, और किसी को उसकी खबर नहीं लगी, यह बात भी हैरान करने वाली है।
यह मामला सरकार और समाज दोनों के सावधान और चौकन्ने होने का है।
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मध्यप्रदेश में भोपाल में बीटेक की पढ़ाई करने वाले 21 बरस के एक छात्र, निशांक राठौर की लाश एक पटरी पर कटी हुई मिली, और उसके फोन से उसके पिता को भेजा गया ऐसा मैसेज मिला जो मुस्लिमों द्वारा दी गई धमकी सरीखा लग रहा था। उसमें लिखा था- नबी से गुस्ताखी नहीं, राठौर साहब आपका बेटा बहुत बहादुर था। इस छात्र के इंस्टाग्राम अकाऊंट पर भी ऐसा लिखा मिला- सारे हिन्दू कायरों देख लो, अगर नबी के बारे में गलत बोलोगे तो यही हश्र होगा। इससे अधिक टीवी चैनलों को और क्या लगता था। भडक़ाने वाले पोस्टर बनाकर टीवी समाचार बुलेटिन चलने लगे, और इस घटना को राजस्थान में कन्हैयालाल हत्याकांड और अमरावती के उमेश कोल्हे हत्याकांड की अगली कड़ी की तरह पेश किया जाने लगा। अब भाजपा शासित मध्यप्रदेश की पुलिस ने इस मामले की जांच करने के बाद यह पाया है कि इस नौजवान का फोन स्क्रीन लॉक किया हुआ था, और उसे किसी और ने नहीं खोला था। पुलिस ने जांच में यह भी पाया कि इस छात्र ने कर्ज न चुका पाने की वजह से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी, न कि उसकी हत्या हुई। जांच अफसर ने बताया कि उसने करीब 18 ऑनलाईन ऐप्प से लोन ले रखा था, और दोस्तों से भी कर्ज ले रखा था, और चुकाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। ऐसे में उसने आत्महत्या करने के पहले अपने पिता को साम्प्रदायिक किस्म का मैसेज भेजा जिसमें सिर तन से जुदा करने की बात लिखी, ऐसी ही बात उसने अपने इंस्टाग्राम अकाऊंट पर डाली।
लेकिन 24 जुलाई की शाम मिली इस लाश को लेकर 25 जुलाई से ही सोशल मीडिया पर इसे एक हिन्दू पर मुस्लिम हमला बताते हुए, इसे एक साम्प्रदायिक हत्या बताते हुए मुहिम छेड़ दी गई थी, जो कि टीवी चैनलों की मेहरबानी से जंगल की आग की तरह फैल रही थी। यह तो गनीमत है कि यह हादसा एक भाजपा शासित राज्य में हुआ है जहां एक हिन्दू नौजवान की ऐसी मौत का शक मुस्लिमों पर होने के बावजूद पुलिस ने यह पाया है कि इसमें कोई बाहरी व्यक्ति शामिल नहीं था, और यह आत्महत्या थी। अगर यह मामला किसी गैरभाजपा राज्य का रहता, तो वहां की पुलिस पर मुस्लिमों को बचाने की तोहमत लग सकती थी, कम से कम भाजपा के राज्य में यह तोहमत तो नहीं लग सकती। लेकिन अब ऐसे में सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले लोगों, और देश के टीवी समाचार चैनलों के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि किसी एक घटना की जांच भी पूरी होने के पहले उसे लेकर नफरत का सैलाब फैला देने की इनकी नीयत का क्या किया जाए? अभी चार दिन पहले ही देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने बड़ी तल्खी के साथ देश के टीवी समाचार चैनलों को कोसा था, और सोशल मीडिया को उससे भी अधिक खराब बताया था। सोशल मीडिया तो खैर किसी एक दिमाग से नियंत्रित मीडिया नहीं है, और वहां पर करोड़ों लोग लगातार लिखते रहते हैं। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो मीडिया को मिलने वाले तमाम किस्म के विशेषाधिकार, और पहुंच का इस्तेमाल करता है, और उसके बाद नफरत फैलाने का गैरजिम्मेदार काम, बल्कि बेहतर यह कहना होगा कि जुर्म भी करता है। अब भोपाल की यह घटना इसका एक ताजा सुबूत है कि मुस्लिमों की तरफ इशारा करने वाले ऐसे संदेशों के बीच एक हिन्दू मौत की जांच कर रही पुलिस वैसे ही दुनिया भर के दबाव में रही होगी, और उस पर सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हमला होते रहा। यह तो गनीमत है कि पुलिस ने एक हफ्ते की शुरुआती जांच में ही पूरी तरह से यह स्थापित कर दिया कि यह बिना किसी बाहरी हरकत के, सीधी-सीधी आत्महत्या है, वरना अब तक तो सडक़ों पर मुस्लिमों पर हमले होने लगते।
हर कुछ दिनों में ऐसी नौबत आती है जब हमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक बड़े हिस्से के बारे में यह बात लिखनी पड़ती है कि भारत सरकार अपने पास सुरक्षित बड़े कड़े अधिकारों पर बैठी हुई क्यों है, और देश में नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाकर अपना कारोबार बढ़ाने की ऐसी खुली साजिश के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती है? देश के मुख्य न्यायाधीश कुछ ही दिन पहले सार्वजनिक भाषण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में दुनिया भर का कहकर जाते हैं, और उसके बाद भी आज ऐसी हरकत जारी है। बल्कि मुख्य न्यायाधीश के बयान के दिन से ही यह ताजा नफरती सैलाब चल रहा है। इस देश में केन्द्र सरकार ने टीवी चैनलों के कामकाज की निगरानी के लिए एक संस्था बना रखी है, दूसरी तरफ पहले से चली आ रही प्रेस कौंसिल है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज रहते हैं, हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि भोपाल के इस मामले को ही एक नमूना मानकर इस पर टीवी चैनलों के कवरेज की जांच करवाए, और उस पर केन्द्र सरकार को कार्रवाई करने के लिए कहे। आज टीवी समाचार चैनलों का एक बड़ा हिस्सा देश के किसी भी साम्प्रदायिक संगठन के मुकाबले अधिक साम्प्रदायिक हो चुका है, और वह किसी भी दूसरे साम्प्रदायिक संगठन के मुकाबले अधिक सक्रिय भी है। देश में बनाए गए बड़े कड़े कानून धरे हुए हैं, और हिंसा भडक़ाने की यह हरकतें चल रही हैं जिनके बारे में मुख्य न्यायाधीश यह भी कह चुके हैं कि मीडिया पर मानो एक मुकदमा चलाया जाता है, और उसके दबाव में जजों के लिए भी काम करना मुश्किल हो जाता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, हम आज की बात को खत्म करते हुए एक बार फिर दुहरा रहे हैं कि अखबारों को मीडिया नाम की इस बड़ी छतरी से बाहर निकल जाना चाहिए, और अपने को टीवी से अलग, अपने पुराने नाम प्रेस का इस्तेमाल करना चाहिए। नफरती टीवी मीडिया के खिलाफ एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगनी चाहिए, और देखें कि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश अपने कार्यकाल के इन आखिरी कुछ हफ्तों में उस पर कुछ करते हैं या नहीं।
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पश्चिम बंगाल के कूचबिहार में एक मालवाहक गाड़ी में 27 तीर्थयात्रियों को ले जाया जा रहा था, अचानक इस पिकअप वैन में करंट दौड़ा, और 10 लोगों की मौत हो गई, कई लोग करंट से जख्मी हो गए। पुलिस का अंदाज यह है कि इस गाड़ी में डीजे सिस्टम चलाने के लिए जनरेटर लगाया गया था, और उसी की वायरिंग की गड़बड़ी से यह करंट दौड़ा हो सकता है। इस हादसे के बाद ड्राइवर गाड़ी छोडक़र भाग गया है, और शिवभक्तों के परिवारों को खबर की गई है। ऐसा हादसा हिन्दुस्तान के दो अलग-अलग पहलुओं पर फिक्र खड़ी करता है, एक तो यह कि धर्म का स्वरूप पूरी तरह अराजक हो गया है, वह आत्मघाती होने की हद तक लापरवाह हो गया है, और कई मामलों में हत्यारा होने की हद तक हिंसक भी हो गया है। दूसरा पहलू यह है कि सडक़ों पर हादसों में मरने वाले लोगों में दुनिया में हर दस में से एक हिन्दुस्तान में होते हैं, लेकिन देश-प्रदेशों में किसी को इसकी अधिक फिक्र नहीं दिखती है। धर्म पर आस्था के प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक जगहों पर लोग नियम-कानून के खिलाफ किसी भी हद तक जाते हैं, और यह हादसा उसी का एक नमूना है।
हिन्दुस्तान में आज धर्म तरह-तरह से जानलेवा साबित हो रहा है। अभी चार ही दिन हुए हैं, उत्तर भारत में कांवडिय़ों के एक जत्थे ने एक दूसरे कांवडिय़े को पीट-पीटकर मार डाला जो कि थलसेना का फौजी है, और अपनी आस्था के चलते कांवड़ लेकर जा रहा था। इससे परे भी जगह-जगह आस्थावान लोगों की हिंसा सामने आती रहती है, और अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच टकराव भी होते ही रहता है। फिर मानो एक धर्म के कट्टर और धर्मान्ध प्रदर्शन के मुकाबले किसी दूसरे धर्म के लोग उससे अधिक बढ़-चढक़र प्रदर्शन में लग जाते हैं। नतीजा यह होता है कि सार्वजनिक जगहें धार्मिक, कट्टर, और बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिक मुकाबले का मैदान बन जाती हैं, और हर धार्मिक त्यौहार पुलिस और प्रशासन के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर आता है। उत्तरप्रदेश जैसे कुछ राज्यों में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म को राजकीय धर्म सरीखा अघोषित दर्जा देकर धार्मिक टकराव की नौबत घटा दी गई है, क्योंकि गैरहिन्दुओं, और खासकर मुस्लिमों को यह अच्छी तरह मालूम है कि कांवडिय़ों पर हेलीकॉप्टर से या सडक़ किनारे खड़े होकर फूल बरसाने वाले आला पुलिस अफसरों का रूख उनके प्रति कैसा रहेगा अगर वे सडक़ पर कुछ मिनटों की नमाज पढ़ते दिख जाएंगे। जब प्रदेश का राज इस दर्जे का धार्मिक भेदभाव करने लगता है, तो सत्ता की ताकत के सामने टकराव की नौबत घट जाती है। राज्य-धर्म के मानने वाले लोगों, और दूसरे दर्जे के नागरिकों के बीच टकराव की गुंजाइश नहीं रह जाती है, क्योंकि सरकारी इंसाफ कमजोर तबके को हासिल नहीं रहता है।
जिस धर्म को निजी आस्था का सामान होना चाहिए था, वह राजनीतिक बढ़ावे से विकराल होते चल रहा है। त्यौहारों या तीर्थयात्राओं के मौके पर सडक़ों पर परले दर्जे का उत्पात दिखता है। और यह भी कम इसलिए दिखता है कि अधिकतर सीधे-सरल लोग सडक़ों पर अपना अधिकार भूलकर धार्मिक गुंडागर्दी के सामने खड़े नहीं होते। वे चुपचाप किसी और रास्ते से निकल जाते हैं, और किसी टकराव का खतरा नहीं उठाते। लेकिन सार्वजनिक जीवन में साल भर किसी न किसी तरह से अड़ंगा बनने वाले धर्म लोगों की उत्पादकता को भी कम करते हैं, और उनके जीवन का सुख-चैन भी छीनते हैं। चौबीसों घंटे धार्मिक लाउडस्पीकर बजते हैं, सडक़ों पर शामियाने तानकर कार्यक्रम होते हैं, भंडारे लगाकर चारों तरफ गंदगी छोड़ दी जाती है, विसर्जन से नदियों और तालाबों में अपार कचरा इकट्टा होते जाता है। इन सबसे परे लगातार बढ़ते साम्प्रदायिक तनाव और टकराव से लोगों की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। धार्मिक हिंसा में धर्म से परे चल रहे लोग भी घिर और फंस जाते हैं।
अब इससे जुड़े हुए दूसरे पहलू पर आएं, तो हिन्दुस्तान में सडक़ों पर गाडिय़ां धर्म से परे भी बहुत बुरी तरह बेकाबू हैं। गाडिय़ों से जुड़ा हुआ सारा ही सरकारी अमला संगठित भ्रष्टाचार चलाता है, और सामान ढोने वाली गाडिय़ों में मजदूरों और मुसाफिरों को ढोना रोजमर्रा की एक आम बात है। अब ऐसी गाडिय़ों में किसी हिफाजत का कोई इंतजाम तो हो नहीं सकता, इसलिए इनके हादसों में लोग बड़ी संख्या में मरते हैं। सरकारी नियमों का यह हाल है कि एक तरफ तो केन्द्र सरकार हर कार में आधा दर्जन एयरबैग लगाने का कानून बना रही है, ताकि लोगों की जिंदगी किसी हादसे में भी बच सके, दूसरी तरफ मजदूरों से लेकर तीर्थयात्रियों तक को सामान की तरह ढोने वाले ट्रकों और दूसरे कारोबारी वाहनों पर कोई रोक नहीं है। हालत यह है कि सरकारी और राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए भी सभी तरह की मालवाहक गाडिय़ों में जिंदगियां ढोई जाती हैं। अब देश में ऐसे दोहरे कानून से क्या फायदा जिसमें पैसे वाले लोगों की निजी कारों में भी हर मुसाफिर की जिंदगी बचाने एयरबैग लगाए जाएं, और गरीबों की जिंदगी जानवरों से भी कम कीमती मानी जाए। अगर मालवाहक गाडिय़ों में लोगों को ढोना बंद होगा, ऐसी गाडिय़ों को राजसात किया जाएगा, तो धीरे-धीरे मुसाफिर गाडिय़ां बढऩे लगेंगी। लेकिन नियमों का कोई सम्मान न करने की वजह से आज ऐसी अराजक नौबत है कि सामान या जानवर की तरह ठूंसकर इंसानों को ले जाया जाता है, और उस पर कोई रोक नहीं है। फिर जब ऐसी गाडिय़ों पर धार्मिक लोग सवार रहते हैं, तो उन्हें छूने की हिम्मत किसकी हो सकती है। राजनीतिक दलों का यह चरित्र बीते दशकों में लगातार अधिक उजागर होते चल रहा है कि वे सार्वजनिक-धार्मिक आयोजनों में भीड़ को बढ़ावा देकर अपनी जमीन बनाने की कोशिश करते हैं, और भीड़ अपने मिजाज के मुताबिक अराजकता पर चलते हुए राजनीतिक संरक्षण का अधिक मजा भी लेते चलती है।
लेकिन हर कुछ बरसों में किसी न किसी चुनाव में जाने वाली पार्टियों की हांकी जाती सरकारें कोई कड़ी कार्रवाई नहीं करती हैं। तो क्या अब सरकार की रोजमर्रा की जिम्मेदारियों के लिए भी लोग अदालत जाएं? और अब तो यह भी खतरा हो गया है कि जनहित याचिका लेकर जाने वाले लोगों पर सुप्रीम कोर्ट पांच लाख रूपये तक का जुर्माना लगा सकता है, कैद सुना सकता है।
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महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के एक बयान को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया है जिसमें मुम्बई के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच से माईक पर बोलते हुए राज्यपाल ने कहा- कभी-कभी मैं यहां लोगों से कहता हूं कि महाराष्ट्र में, विशेषकर मुम्बई और ठाणे से, गुजरातियों और राजस्थानियों को निकाल दो, तो तुम्हारे यहां कोई पैसा बचेगा ही नहीं। ये राजधानी जो कहलाती है आर्थिक राजधानी, ये आर्थिक राजधानी कहलाएगी ही नहीं। वे इन्हीं समुदायों में से एक से जुड़े एक नामकरण समारोह में बोल रहे थे। और जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, राज्यपाल के इस बयान के बाद आज विपक्ष में बैठे शिवसेना के उद्धव ठाकरे समेत तमाम लोग राज्यपाल पर टूट पड़े। ठाकरे ने शिवसेना के परंपरागत हमलावर तेवरों के साथ कहा- भगत सिंह कोश्यारी ने भले ही महाराष्ट्र की संस्कृति देखी हो, लेकिन उन्हें कोल्हापुरी जोड़ा भी दिखाना होगा। उल्लेखनीय है कि कोल्हापुरी चप्पलें विश्वविख्यात हैं। ठाकरे ने यह भी कहा कि राज्यपाल ने मराठी लोगों का अपमान किया है, और इसके साथ ही उन्होंने हिन्दुओं को बांटने की कोशिश भी की है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, और उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने भी राज्यपाल के बयान से असहमति जताई है, और कहा है कि महाराष्ट्र के निर्माण में मराठियों का योगदान सबसे ज्यादा है, और मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी सिर्फ मराठियों की मेहनत से बनी है।
भगत सिंह कोश्यारी जिस इतिहास के साथ आते हैं, उसमें इस तरह की अनर्गल बातें कहना अटपटा नहीं समझा जाता। और खासकर जब अलग-अलग तबकों के बीच भेदभाव को बढ़ाने की बात हो, तो उसमें ऐसे लोग अतिरिक्त सक्रियता के साथ जुट जाते हैं। उनका पर्याप्त राजनीतिक अनुभव है, और वे महाराष्ट्र के बाहर के भी हैं। इसलिए वे ऐसी बातों की नजाकत को भी समझते हैं, और इनके खतरों को भी। वे उत्तराखंड विधानसभा, विधान परिषद से होते हुए राज्यसभा और लोकसभा सभी का तजुर्बा रखते हैं, और इसके पहले भी वे महाराष्ट्र के कुछ सबसे सम्मानजनक लोगों के बारे में अनर्गल बातें कर चुके हैं। मार्च में ही उन्होंने सावित्री बाई फुले के बाल विवाह को लेकर उटपटांग बात कही थी जिस पर बड़ा बवाल मचा था। इसके अलावा उन्होंने समर्थ रामदास को छत्रपति शिवाजी का गुरू करार दिया था जो कि ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत बात है और उस समय सत्तारूढ़ कांग्रेस एनसीपी, शिवसेना गठबंधन ने उनके बयानों पर आपत्ति जताई थी, और कहा था कि सावित्री बाई फुले के बाल विवाह का जिक्र करते हुए राज्यपाल ने जिस तरह हॅंसते हुए हाथों से कुछ इशारे किए थे, वह बहुत शर्मनाक था, गठबंधन ने कहा था कि ये महाराष्ट्र की बदनसीबी है कि उसे ऐसा गवर्नर मिला है। समर्थ रामदास को छत्रपति शिवाजी का गुरू बताने के पीछे भी महाराष्ट्र में यह वैचारिक विवाद चलता है कि ऐसा सुझाना ब्राम्हणों की गैरब्राम्हणों पर प्रभुत्व दिखाने की भावना है।
सार्वजनिक जीवन में जुबान पर लगाम देना किसी भी राजनीतिक दल में एक बुनियादी तालीम होनी चाहिए। जिस तरह प्राइमरी स्कूल में पहाड़ा और अक्षरज्ञान सिखाए जाते हैं, लिखना सिखाया जाता है, उसी तरह राजनीति में जुबान पर लगाम देना सिखाना चाहिए। ये राज्यपाल अकेले ऐसे नहीं हैं, अभी चार दिन पहले ही लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने जिस लापरवाही के साथ राष्ट्रपति की जगह राष्ट्रपत्नी शब्द का इस्तेमाल किया, उसने सदन के भीतर और बाहर बड़ी कड़वाहट घोल दी, और देश का मानो एक पूरा संसदीय दिन ही इस बदजुबानी को समर्पित हो गया। जो लोग राजनीति में लंबे समय से रहते हैं, उन्हें बदजुबानी की कोई रियायत नहीं दी जा सकती। और अधीर रंजन चौधरी तो इसके पहले भी मुंह खोलते ही पार्टी के लिए मुसीबत का सामान बनते रहे हैं। बहुत सी पार्टियों में बहुत से नेता ऐसे हैं जिन्होंने अपनी जुबान से अपनी पार्टी का नुकसान किया है। समाजवादी पार्टी के आजम खान के नाम को याद रखा जा सकता है जिन्होंने बलात्कार की शिकार एक छोटी बच्ची की लिखाई रिपोर्ट को राजनीतिक साजिश करार दिया था, और जिसके लिए उन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट की लताड़ भी पड़ी, और वहां जाकर माफी भी मांगनी पड़ी। ऐसे बयान ममता बैनर्जी से लेकर शरद यादव तक देते आए हैं, और ऐसी गंदगी बाद में दूसरी पार्टियों के लिए अपनी गंदगी के बचाव का तर्क बनती है।
चूंकि हिन्दुस्तान में अदालतों की एक सीमा है, और वैसे तो तमाम आबादी ऐसे बयानों को लेकर अदालत तक जाने के लिए आजाद है, लेकिन पहले से मामलों के बोझ से टूटी कमर वाली अदालतें और कितना बोझ झेल पाएंगी, इसका अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है। इसलिए सार्वजनिक जीवन में बकवासी और मवादी बयान देने वाले लोगों के खिलाफ राजनीति और सार्वजनिक जीवन के लोगों को दूसरी संवैधानिक कार्रवाई करनी चाहिए। अगर महिला आयोग, बाल आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग में जाकर शिकायत करने की गुंजाइश हो, तो वहां शिकायत करनी चाहिए, या फिर सार्वजनिक बयानों के हमले से ओछे और घटिया बयानों का जवाब देना चाहिए। जब तक ऐसे बकवासी लोगों को सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया जाएगा, तब तक उनकी बकवास जारी रहेगी। राज्यपाल के रूप में कोश्यारी अकेले नहीं हैं, और भी बहुत से राज्यपाल घटिया बातें करते आए हैं, घटिया हरकतें भी करते आए हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह के हालात में नारायण दत्त तिवारी को आन्ध्र का राजभवन छोडऩा पड़ा था, और उन्हें सेक्स वीडियो के विवाद के बीच वहां से निकलकर अघोषित संतान के डीएनए विवाद में आकर फंसना पड़ा था। राजनीतिक पार्टियों को भी अपने-अपने घटिया लोगों को काबू में रखना चाहिए क्योंकि उनकी वजह से देश के जलते-सुलगते मुद्दे धरे रह जाते हैं, और पार्टियां बकवासी में उलझ जाती हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल एक मिसाल हैं कि राज्यपाल कैसे नहीं होने चाहिए। किसी समझदार ने कहा भी है कि बेवकूफ होने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जब बेवकूफ को बढ़-चढक़र बोलने का शौक हो, तब दिक्कत बड़ी रहती है।
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उत्तरप्रदेश के कल तक के इलाहाबाद और आज के प्रयागराज की कुछ अटपटी खबर है। आमतौर पर तो यह माना जाना चाहिए था कि शहर को धार्मिक नाम मिलने के बाद वहां का माहौल अधिक धार्मिक या आध्यात्मिक होगा, लेकिन बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि इस शहर के स्कूली बच्चों में एक अजीब किस्म की हिंसा फैल रही है, जैसी कि बमों के शौकीन पश्चिम बंगाल में भी दिखाई-सुनाई नहीं पड़ी है। पुलिस ने वहां स्कूली बच्चों के कुछ गिरोह पकड़े हैं जो बम बनाकर उन्हें दूसरी स्कूलों के बाहर फोड़ रहे थे। ऐसे 35 स्कूली बच्चे प्रयागराज पुलिस की हिरासत में है, और रिपोर्ट कहती है कि पिछले कई महीनों से वहां पर सरेआम देसी बम मारने की वारदातें हो रही थीं। पुलिस का कहना है कि ये सभी बच्चे प्रयागराज के जाने-माने स्कूलों में पढ़ते हैं, और शुरुआती जांच में पता लगा है कि ओटीटी वेब सीरिज से प्रभावित होकर, उन्हीं के नामों पर इन छात्रों ने तांडव ग्रुप, जैगुआर ग्रुप, इम्मॉर्टल ग्रुप, माया ग्रुप जैसे गिरोह बनाए, इंटरनेट पर यूट्यूब से देखकर घरेलू बम बनाए, और एक दूसरे समूह पर दबदबा कायम करने के लिए, दहशत फैलाने के लिए ऐसे बम फोड़े, और सोशल मीडिया पर इन वारदातों की शोहरत भी बढ़ाने की कोशिश की। पुलिस ने बताया कि ऐसे किसी-किसी ग्रुप में तो छात्रों की संख्या सौ से लेकर तीन सौ तक भी है।
यह बड़ी अजीब सी खबर है, और लोगों को याद होगा कि अभी कुछ दिन पहले ही जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक शायद नाबालिग लडक़ी ने सडक़ पर एक साइकिल वाले के किनारे न होने पर उसका गला ही काटकर मार डाला, तब भी हमने ऐसी हिंसा के विश्लेषण की जरूरत बताई थी। बाद में आई खबरों में पता लगा कि वह लडक़ी एक गिरोह-सरगना बनना चाहती थी, और वह नशे के कारोबार से भी जुड़ी बताई गई थी। नाबालिग पीढ़ी की हिंसा और उसके जुर्म की बात अधिक बड़ी फिक्र इसलिए खड़ी करती है कि उसे शायद कानूनी जटिलताओं और जिंदगी के खतरों का पूरा अहसास नहीं रहता है। और भारत में नाबालिग बच्चों के किए हुए जुर्म पर उनके सुधार का इंतजाम इतना खराब है कि छत्तीसगढ़ में एक जगह ऐसे सरकारी केन्द्र पर इक_ा बच्चों ने छत पर चढक़र बाहर पुलिस या अफसरों पर गैस सिलेंडर फेंककर हमला करने की कोशिश की थी। जानकार लोगों का यह भी कहना है कि ऐसे सभी बाल सुधारगृह बच्चों को कई नए किस्म के जुर्म करना सिखाकर बिदा करते हैं, और कई तरह के नशे की भी आदत डालकर। हिन्दुस्तान में बच्चों को सुधारने का कोई भी असरदार सरकारी इंतजाम नहीं है, और इसलिए भी ऐसी नौबत आने देने से बचना चाहिए।
आज जब अलग-अलग कमरों में टीवी, या कि हर मोबाइल फोन पर तरह-तरह के वीडियो की सहूलियत, और उसका खतरा, दोनों ही मौजूद हैं, तो मां-बाप को चाहिए कि वे अपने बच्चों की हरकतों पर ध्यान दें, और पहली शिकायत का मौका आने के भी पहले उन्हें लेकर सम्हल जाएं। लोगों को याद होगा कि जो देश का सबसे चर्चित बलात्कार कांड था, उसमें निर्भया से बलात्कार और सबसे खूंखार दर्जे की हिंसा करने वालों में एक नाबालिग भी था। और एक नाबालिग के ऐसी हिंसा में शामिल होने को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक यह बहस भी हुई थी कि क्या नाबालिगों को ऐसे जुर्म में भी उम्र की रियायत देना जायज है? अब दुनिया के अलग-अलग देशों में, और उनके अलग-अलग प्रदेशों में बच्चों की उम्र के पैमाने अलग-अलग हैं। उनके गाड़ी चलाने से लेकर उनके सिगरेट-शराब पीने तक की उम्र अलग-अलग है। जुर्म को लेकर भी, शादी की उम्र को लेकर भी ये नियम अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान में मौजूदा नियम-कानून को देखना चाहिए जिसमें किसी नाबालिग से कोई गलती होने पर, या उसके कोई गलत काम करने पर उसे जिस किस्म के सुधारगृह में भेजा जाएगा, वहां से उसका और बुरा मुजरिम होकर निकलना तय रहेगा। लोगों का पैसा, उनकी राजनीतिक पहुंच, और उनकी किसी और किस्म की ताकत उनके बच्चों को हमेशा ही कानून के शिकंजे से नहीं निकाल सकती। पुलिस और न्याय व्यवस्था कितनी भी भ्रष्ट क्यों न हो, आज वीडियो-सुबूतों की वजह से बहुत से नाबालिग भी अदालत में ले जाकर मुजरिम साबित किए जा सकते हैं, और उन्हें कई बरस सुधारगृह में रखा जा सकता है। हर मां-बाप को ऐसे सुधारगृहों के खतरों को बारीकी से समझ लेना चाहिए, और ऐसी नौबत नहीं आने देनी चाहिए कि उनके बच्चे ऐसी जगहों पर भेजे जाएं, और वे वहां से पूरी तरह बर्बाद होकर निकलें। उन्हें यह खतरा भी समझना चाहिए कि आज उनके बच्चे नाबालिग उम्र में सुधारगृह पहुंचेंगे, और फिर 18 बरस के होने पर उन्हें आम जेल भेजा जाएगा, और वहां की जिंदगी के तमाम किस्म के खतरों को यहां पर गिनाना भी मुमकिन नहीं है, लोगों को सिर्फ इतना समझना चाहिए कि इन जगहों से उनके बच्चे बलात्कार के शिकार होकर भी निकल सकते हैं, जो कि इन जगहों पर एक आम बात है।
अब जिस घटना से आज का यह लिखना शुरू किया गया है, उस प्रयागराज में लौटें, तो यह बड़ी अजीब बात है कि एक तरफ तो उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में पुलिस चारों तरफ, हर किस्म की मुठभेड़ भी कर रही है जिसमें जुर्म के आरोपियों को सडक़ पर ही निपटा दिया जा रहा है। यह तरीका ऐसी शोहरत पा चुका है कि अभी कर्नाटक में साम्प्रदायिक हत्या के जवाब में वहां के हिन्दू संगठनों और भाजपा नेताओं ने इसी योगी-शैली का राज कर्नाटक में भी मांगा है, और वहां कल ही एक मंत्री ने यह भरोसा भी दिलाया है कि जरूरत रहेगी तो यूपी से अधिक बड़े पैमाने पर मुठभेड़ कर्नाटक में भी की जाएगी। ऐसी बड़ी कानूनी कार्रवाई वाले उत्तरप्रदेश में धार्मिक नाम वाले प्रयागराज में अगर नामी-गिरामी स्कूलों के बच्चे ऐसे औपचारिक गिरोह बनाकर एक-दूसरे पर सार्वजनिक हमलों का काम कर रहे हैं, तो यह बहुत भयानक नौबत है, यह उत्तरप्रदेश की ताजा समस्या तो है ही, यह बाकी हिन्दुस्तान के लिए भी खतरे की एक घंटी है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने वाली हिंसक वेब सिरीज और हिंसक वीडियो गेम्स का असर अगर इस तरह सिर चढक़र बोल रहा है, तो सरकार और समाज दोनों को इसके बारे में सोचना चाहिए। इस ताजा मामले को एक स्थानीय घटना मानने के बजाय नई पीढ़ी पर मंडराते एक व्यापक खतरे की तरह देखना बेहतर होगा, और बाकी जगहों पर ऐसी नौबत आए उसके पहले सबको सम्हल जाना होगा।
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कर्नाटक में आज किसी हिन्दू की, तो चार दिन बाद किसी मुस्लिम का कत्ल चल रहा है। और जाहिर तौर पर ये मामले साम्प्रदायिक हत्या के दिख रहे हैं। ऐसा भी लगता है कि ये जवाबी हत्याएं हैं। पहले किसी एक सम्प्रदाय के लोगों ने या संगठन ने दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को मारा, तो बाद में दूसरों ने उसका जवाब दे दिया। लोगों को याद होगा कि बीच-बीच में केरल में भी आरएसएस और सीपीएम के लोगों के बीच इस तरह की जवाबी हिंसा चलती रहती है। कर्नाटक में दिक्कत यह है कि वहां भाजपा के एक कार्यकर्ता के कत्ल के बाद लोग अब मुख्यमंत्री से यूपी के योगी-मॉडल की मांग कर रहे हैं। योगी मॉडल कोई प्रशासनिक व्यवस्था नहीं है, यह पुलिस और बुलडोजर की मदद से अल्पसंख्यक तबके के खिलाफ आतंक का एक माहौल बनाने का राजनीतिक मॉडल है, जिसके तहत मुस्लिमों को दूसरे दर्जे का नागरिक करार दिया जाता है। अब अगर भाजपा और संघ परिवार के लोग कर्नाटक में भाजपा सरकार रहने के बाद उनके कार्यकर्ता के कत्ल पर योगी मॉडल लागू करने की मांग कर रहे हैं, तो एक बरस पहले मुख्यमंत्री बने बासवराज बोम्मई पर एक दबाव पडऩा तो तय है ही। इस दबाव के चलते वे वहां पर पुलिस को और अधिक साम्प्रदायिक नजरिये से काम करने कहेंगे, या योगी के कुछ और असंवैधानिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करेंगे, यह पता नहीं। लेकिन धर्मान्धता और कट्टरता लोगों को गैरकानूनी हिंसा की तरफ धकेलने का काम करती हैं, और कर्नाटक आज उस खतरे की कगार पर दिख रहा है।
लेकिन इसे कर्नाटक की इस ताजा हिंसा के हमलों से परे भी देखें, तो यह देश के लिए एक अलग फिक्र की बात है। जब सडक़ों पर पूजा या नमाज को लेकर जगह-जगह तनातनी चल रही है, जब मस्जिद के लाउडस्पीकर का जवाब देने के लिए उनके सामने लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा पढ़ी जा रही है, जब पूरे देश की हवा में साम्प्रदायिक जहर घोला जा रहा है, तो कोई कब तक महफूज रहेंगे, यह एक पहेली है। आने वाली पीढ़ी को लोग कितनी हिफाजत या कितने खतरे में छोडक़र जाएंगे, यह तो बहुत दूर की बात है, आज की बात यह है कि साम्प्रदायिक तनाव बढ़ते-बढ़ते अब जगह-जगह कत्ल करवा रहा है। आज केन्द्र सरकार और बहुत से प्रदेशों की सरकारें ऐसे फैसले ले रही हैं कि जिनसे मुस्लिम अल्पसंख्यक अपने को खतरे में महसूस करें, उपेक्षित पाएं, और फिर उनके बीच के कुछ नौजवान कानून पर भरोसा छोड़ दें। पूरा देश इस बात को देख रहा है कि किस तरह किसी भाषण या ट्वीट को लेकर मुस्लिम नौजवान छात्र नेताओं को बरसों तक बिना जमानत जेल में डालकर रखा जा रहा है, और जैसा कि हमने कुछ दिन पहले लिखा था, और उसके कुछ दिनों के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि ऐसा लगता है कि इस देश में प्रक्रिया को ही सजा बना दिया गया है। अब अगर किसी समुदाय के लोगों को यह लगने लगेगा कि कानून की प्रक्रिया ही उनके खिलाफ सजा की तरह इस्तेमाल की जा रही है, तो उनका भरोसा ऐसे कानून और ऐसे लोकतंत्र पर से उठ जाने में कोई हैरानी नहीं होगी। आज जिन लोगों को यह लगता है कि बहुसंख्यक आबादी के वोटों को अल्पसंख्यक आबादी के वोटों के खिलाफ एक धार्मिक-जनमत संग्रह सरीखे चुनाव में खड़े करके इस देश और प्रदेशों पर अंतहीन राज किया जा सकता है, उन लोगों को ऐसी नौबत के खतरों का या तो अंदाज नहीं है, या वे खुद अपने परिवार को महफूज रखने की ताकत रखते हैं। अगर इस देश में दो समुदायों के बीच हिंसक नफरत को आसमान तक ले जाया जाएगा तो कौन सुरक्षित रह जाएंगे? आज जिस तरह किसी एक समुदाय के दो या चार लोग मिलकर दूसरे समुदाय के किसी एक को मार डाल रहे हैं, वैसी गिनती पूरे हिन्दुस्तान में हर दिन लाखों जगहों पर आ सकती है। लाखों ऐसे मौके हर दिन रहते हैं जब किसी एक समुदाय के चार लोगों के बीच दूसरे समुदाय का कोई एक घिरा हुआ रहे। अगर नफरत के हिंसा बढ़ती चली गई, तो हिन्दू और मुस्लिमों के बीच किसी टकराव को रोकने के लिए पूरे देश की पुलिस और तमाम फौज भी मिलकर कम पड़ेंगी। इन दोनों समुदायों के तमाम लोगों को पूरी हिफाजत दे पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। देश के लोकतंत्र पर लोगों का भरोसा बना रहेगा, तो ही वे खतरे से बाहर रहेंगे। आज जिस तरह धर्म को लोकतंत्र से बहुत-बहुत ऊपर रखा जा रहा है, और लोगों की धार्मिक भावनाएं पल-पल आहत हो रही हैं, किसी की भी लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय भावनाएं कभी भी आहत नहीं हो रही हैं, यह एक बहुत ही खतरनाक नौबत है।
इस देश के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को यह बात समझ लेना चाहिए कि उनकी संपन्नता और ताकत की वजह से आज हो सकता है कि उनके परिवार महंगी कारों में बैठकर दूर निकल जाते हों, लेकिन जिस दिन किसी एक समुदाय के लोग हिसाब चुकता करने के लिए दूसरे समुदाय के लोगों को ठिकाने लगाने लगेंगे, वैसे राज्यों में पुलिस और सरकार के पास सिर्फ ऐसे कत्ल की जांच, और उससे उपजे तनाव को काबू में करने का काम ही रह जाएगा। आज जिस तरह एक-एक कत्ल पूरे-पूरे राज्य को तनाव में डाल रहा है, कहीं कफ्र्यू लगता है, कहीं शहर बंद होता है, जिंदगी और कारोबारी कामकाज ठप्प हो जाते हैं, पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाती है, यह सब कुछ देश की बर्बादी का सिलसिला है। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त बाबरी मस्जिद गिराई गई थी, और देश के मुस्लिमों को लगा था कि कानून का राज उनके हक बचा नहीं पा रहा है, तब मुम्बई में आतंकी बम धमाके हुए थे, और सैकड़ों लोग मारे गए थे। इन धमाकों की तोहमत जिन पर है, वैसे दाऊद सरीखे कुछ लोग पाकिस्तान या कहीं और जा बसे हैं, लेकिन उन दंगों में हुए नुकसान की कोई भरपाई तो हो नहीं पाई। इसलिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक तबकों के बीच खाई खोदने के लिए भी, चुनाव जीतने के लिए भी अगर साम्प्रदायिक तनाव की आग को हवा दी जाती है, तो वह आग जंगल की आग की तरह बेकाबू भी हो सकती है, और पूरे देश की अर्थव्यवस्था को भी चौपट कर सकती है। साम्प्रदायिक नफरत चुनाव तो प्रभावित करती है, लेकिन उससे उपजी हिंसा कारोबार को भी प्रभावित करती है, देश के विकास को भी प्रभावित करती है। कर्नाटक ने पिछले बरसों में लगातार साम्प्रदायिकता देखी है, और देश का यह एक सबसे विकसित राज्य अपनी संभावनाओं से काफी पीछे हो गया होगा। जिन लोगों को साम्प्रदायिक हिंसा से आर्थिक गिरावट का रिश्ता समझ नहीं आता है, उन्हें अपने देश-प्रदेश की संभावनाओं का कोई अंदाज नहीं है। कुल मिलाकर बात यह है कि इस देश में 140 करोड़ आबादी में से अगर 20 करोड़ मुस्लिम हैं, तो हिन्दू और मुस्लिम आबादी के एक-एक फीसदी लोगों के भी साम्प्रदायिक-कातिल हो जाने का खतरा इस मुल्क को तबाह कर सकता है। आज सरकारें हांक रहे कई लोग इस खतरे की कीमत पर भी धार्मिक ध्रुवीकरण करके सत्ता पर निरंतरता चाहते हैं, लेकिन वह किसी श्मशान की चौकीदारी की निरंतरता सरीखी रहेगी।
और इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि जब धर्म के नाम पर कत्ल करने की आदत पड़ जाती है, तो उसके लिए दूसरे धर्म के किसी को मुर्दा बनाना जरूरी नहीं रहता, अभी उत्तराखंड में कांवड़ लेकर जा रहे एक फौजी से बहस होने पर दूसरे कावडिय़ों के एक जत्थे ने उसे लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला।
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ब्रिटेन में इन दिनों अगले प्रधानमंत्री के लिए कंजरवेटिव पार्टी के दो सांसदों के बीच मुकाबला चल रहा है। और इस मुकाबले को देखना हिन्दुस्तान के लोगों के लिए किसी किस्से कहानी सरीखा हो सकता है क्योंकि एक ही पार्टी के दो सांसदों के बीच सार्वजनिक रूप से जैसी बहस चल रही है, उसी पार्टी के सांसदों के बीच कई सांसदों को वोट देकर फिर अधिक वोट पाने वाले लोगों के बीच चुनकर जिस तरह दो आखिरी उम्मीदवार छांटे गए हैं, वह भी देखना दिलचस्प है। खासकर हिन्दुस्तान जैसे चुनावी लोकतंत्र में जहां पर कि किसी भी पार्टी में ऐसे किसी लोकतंत्र की उम्मीद की नहीं जा सकती। आज के ये दोनों ही उम्मीदवार, ऋषि सुनक और लिज ट्रस मौजूदा प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में शामिल थे, और जब बोरिस जॉनसन को बहुत मजबूरी में हटना ही पड़ा, तो अब ये दोनों अगले कुछ हफ्तों में पार्टी के रजिस्टर्ड वोटरों के बीच मतदान से अगला प्रधानमंत्री तय करवाएंगे। दूसरी तरफ इससे कुछ दूर हटकर देखें तो अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के पहले दोनों बड़ी पार्टियों के उम्मीदवार बनने के लिए उन पार्टियों के लोगों के बीच दावेदारी सामने आती है, वे दावेदार देश भर में घूमकर अपनी पार्टी के लोगों के बीच अपनी काबिलीयत के बारे में बताते हैं, और इस तरह देश भर से पहले तो पार्टियां ही अपने अधिकृत उम्मीदवार तय करती हैं, और फिर देश भर के वोटर उनमें से किसी को अगला राष्ट्रपति चुनते हैं। मतलब यह कि पार्टी के भीतर भी देश के सबसे बड़े पद के लिए उम्मीदवार बनने के लिए लोगों को बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है, और इन दोनों ही मॉडल्स में पूरी पार्टी की भागीदारी हो जाती है।
अब अगर इस तरह की कोई कल्पना हिन्दुस्तान के बारे में की जाए, तो यहां ऐसा कोई लोकतंत्र मुमकिन नहीं दिखता। पहले तो पार्टी के पदाधिकारियों का चुनाव भी किसी लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता, और अधिकतर पार्टियों में एक परिवार के भीतर निपटारा हो जाता है, और भाजपा जैसी पार्टी में कहा जाता है कि संघ परिवार के भीतर निपटारा हो जाता है। हिन्दुस्तान में न तो प्रधानमंत्री, न ही मुख्यमंत्री, और न ही किसी और ओहदे के लिए कोई भी चुनाव होता है। पार्टी के संसदीय दल, या विधायक दल के नेता भी शायद ही कहीं बहुमत से चुने जाते हैं, और पार्टी हांकने वाले लोग बंद कमरों से संगठन और सरकार दोनों का भविष्य तय कर लेते हैं कि किस कुर्सी पर किसे बिठाना है। इसलिए जब कभी संगठन या सरकार की किसी कुर्सी के लिए चुनाव के बारे में सोचना हो, तो ब्रिटेन और अमरीका सरीखे मॉडल पर सोच लेना चाहिए। ये दोनों ही देश बाकी दुनिया के लिए चाहे कितने ही अलोकतांत्रिक क्यों न हों, कितने ही हमलावर क्यों न हों, ये दोनों ही अपने घर के भीतर लोकतांत्रिक सिलसिले को जिंदा रखे हुए हैं।
हिन्दुस्तान ने वैसे तो अधिकतर कुनबापरस्त पार्टियां ही देखी हैं, कांग्रेस से शुरू करके शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा, राष्ट्रीय जनता दल, अकाली दल, चौटाला-कुनबा, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस, डीएमके, जैसी अनगिनत पार्टियां हैं जिनमें सबसे बड़े फैसले भी परिवार नाश्ते की टेबिल पर ले सकता है, या रात के खाने पर। इनमें किसी संगठन की कोई भूमिका नहीं है। और जब भाजपा की भी बात आती है, तो उसमें भी नीचे से लेकर ऊपर तक किसी भी ओहदे के लिए लोगों का मनोनयन होता है, किसी तरह के चुनाव नहीं होते। अब यह मनोनयन आरएसएस करता है, या हाल के बरसों में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह करते हैं, यह तो अंदर की बात है, लेकिन बाहर दिखावे के लिए भी किसी तरह का चुनाव नहीं होता है। अब इस नौबत की पूरी की पूरी तोहमत कांग्रेस की कुनबापरस्ती पर डालना ठीक होगा या नहीं, यह तो पता नहीं। लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते, और इस पर एक ही कुनबे का प्रत्यक्ष और परोक्ष कब्जा होने की वजह से भारतीय राजनीति में परिवारवाद के लिए तोहमत तो इसे ही झेलनी पड़ेगी। आज भाजपा मोटेतौर पर लीडर के स्तर पर वंशवाद से मुक्त दिखती है, लेकिन वह आंतरिक लोकतंत्र से कोसों दूर भी है। उसके भीतर के तमाम बड़े फैसले रहस्यमय तरीके से अपने को राजनीति से दूर करार देने वाला एक सांस्कृतिक संगठन लेता है, या अब बदले हुए हालात में मोदी और शाह लेते हैं। और एक-दूसरे पर तोहमत लगाने की जरूरत को अगर छोड़ दें, तो तमाम कुनबापरस्त पार्टियां अपने भीतर मगनमस्त हैं। इनमें से किसी भी पार्टी के भीतर कुनबापरस्ती के खिलाफ कोई बेचैनी नहीं दिखती है, कोई आवाज नहीं उठती है। और तो और एक-दो मिसालें तो भारतीय राजनीति में ऐसी भी हैं कि कुनबे से परे भी नेता ने अपनी प्रेमिका को पार्टी का मुखिया बना दिया, और न सिर्फ संगठन ने, बल्कि जनता ने भी उसे मंजूर कर लिया।
जिन लोगों को घूमने-फिरने का शौक रहता है लेकिन दुनिया भर में जाने की सहूलियत नहीं रहती, वे लोग टीवी के कुछ चैनलों पर अलग-अलग देशों के सैर-सपाटे की डॉक्यूमेंट्री देख लेते हैं, और तसल्ली कर लेते हैं। उसी तरह जब हिन्दुस्तानियों को लोकतंत्र के बारे में कुछ अच्छा पढऩे की जरूरत लगे, लोकतंत्र के बारे में कुछ अच्छा महसूस करने की जरूरत लगे, तो उन्हें ब्रिटेन और अमरीका के ऐसे लोकतांत्रिक मॉडल के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि हिन्दुस्तान में न सही, दुनिया में और कहीं इस तरह का जिंदा लोकतंत्र कायम तो है। दुष्यंत कुमार ने एक वक्त लिखा था- हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए...। इसी के मुताबिक लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आजाद मीडिया, लोकतांत्रिक पार्टियां, लोकतांत्रिक चुनाव, लोकतांत्रिक मूल्यों की अपनी हसरत पूरी करने के लिए दुनिया के बेहतर लोकतंत्रों की तरफ देखना चाहिए, और उनकी कामयाबी पर खुश हो लेना चाहिए।
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दुनिया में कैथोलिक ईसाई लोगों के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप अभी कनाडा पहुंचे। और जैसा कि पहले से तय था उन्होंने वहां के मूल निवासियों से इस बात के लिए माफी मांगी कि पिछली डेढ़ सदी में कैथोलिक चर्च और उसकी चलाई स्कूलों ने डेढ़ लाख के करीब आदिवासी बच्चों को उनके परिवार से दूर करके उन्हें ‘शहरी, शिक्षित, और सभ्य’ बनाने के लिए उन्हें अपनी स्कूलों में बंधुआ सा रखा। कनाडा के इतिहास में 1870 से 1996 के बीच मूल निवासियों के बच्चों को जबर्दस्ती उनके घरों से ले जाकर इस तरह उनका ‘विकास’ किया जाता था। और एक जांच रिपोर्ट बताती है कि इनमें से तीन हजार बच्चे इन स्कूलों में मर भी गए, जिन्हें इस जांच रिपोर्ट ने मूल निवासियों का सांस्कृतिक-जनसंहार करार दिया था। पोप फ्रांसीस ने आदिवासी समुदाय से ऐसी ही एक आवासीय-स्कूल की जमीन पर आमंत्रित आदिवासियों से माफी मांगते हुए कहा कि उन्हें चर्च के लोगों के इस किए हुए का बहुत दुख है, और उन्होंने इसके लिए माफी मांगी। यहां पर आदिवासी समुदायों के ऐसे लोग मौजूद थे जो कि चर्च की आवासीय-स्कूलों में कैद करके रखे गए थे, और जो आज भी जिंदा हैं। उन लोगों ने पोप की माफी पर तसल्ली जाहिर की, इनमें से कई लोग इस मौके के लिए दूर-दूर से पहुंचे थे। पोप ने कैथोलिक चर्च की तरफ से दुख और शर्मिंदगी का इजहार किया, और कहा कि वह स्कूल प्रथा भयानक गलती थी, और आदिवासियों के खिलाफ बहुत से ईसाई लोगों द्वारा की गई दुष्टता के लिए उन्होंने माफी मांगी। वहां पहुंचे मूल निवासियों में कई लोगों का कहना था कि यह माफी नाकाफी है, और पोप को इससे अधिक कुछ कहना चाहिए।
दुनिया में सभ्यता वही होती है कि लोग अपनी गलतियों, और खासकर अपने किए गलत कामों पर अफसोस जाहिर करना सीखें, और माफी मांगना सीखें। दुनिया का इतिहास ऐसी सभ्य संस्कृतियों से भरा हुआ है। लोगों को याद होगा कि ऑस्ट्रेलिया में भी शहरी, गोरे, ईसाई लोगों ने वहां के मूल निवासियों के साथ ऐसा ही किया था, और उनके बच्चों को सभ्य बनाने के नाम पर गांव-परिवार से दूर करके शहरी, ईसाई, आवासीय-स्कूलों में उन्हें रखा था जिससे कि वे अपनी संस्कृति से कट गए थे। सदियों के ऐसे शोषण के बाद अभी कुछ बरस पहले ऑस्ट्रेलिया की संसद ने इन समुदायों के प्रतिनिधियों को सदन के भीतर आमंत्रित किया, और फिर पूरी संसद ने खड़े होकर इनसे समाज की की हुई ज्यादती के लिए माफी मांगी थी। ऑस्ट्रेलिया में इसे स्टोलन जनरेशन कहा जाता था, यानी मूल निवासियों से चुराई गई (उनके बच्चों की) पीढ़ी। दुनिया के इतिहास में ऐसा कई देशों के साथ भी हुआ है जिन पर ज्यादती करने वाले दूसरे देशों ने उनसे माफी मांगी है। लेकिन ऐसी शर्मिंदगी जाहिर करने के लिए, और माफी मांगने के लिए लोगों का सभ्य होना जरूरी होता है।
हिन्दुस्तान के इतिहास को देखें, तो अंग्रेजों ने तो अपने जलियांवाला बाग जैसे जुल्म और जुर्म के लिए भी माफी नहीं मांगी थी, और नतीजा यह हुआ था कि एक हिन्दुस्तानी क्रांतिकारी उधम सिंह ने लंदन जाकर जलियांवाला बाग के अंग्रेज खलनायक जनरल डायर को सार्वजनिक रूप से गोली मार दी थी। हिन्दुस्तान के भीतर जो ताकतें, और जो संगठन गांधी की हत्या के पीछे थे, उसके लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने कभी भी उस जुर्म के लिए माफी नहीं मांगी। बल्कि अब तो ये संगठन गोडसे से लेकर सावरकर तक के महिमामंडन में लगे हुए हैं, और उसके लिए भी गांधी स्मृति के प्रकाशन का इस्तेमाल कर रहे हैं। देश में ऐसे और भी जो-जो ऐतिहासिक जुर्म हुए हैं, उनके लिए माफी मांगने का कोई इतिहास नहीं रहा है। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, और उनके बेटे संजय गांधी की असंवैधानिक सत्ता देश को कुचल रही थी। लेकिन आपातकाल की ज्यादतियों को लेकर कांग्रेस पार्टी ने कोई सार्वजनिक माफी मांगी हो ऐसा याद नहीं पड़ता। बल्कि इन शब्दों से इंटरनेट पर ढूंढने पर 2015 का कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का यह बयान सामने आता है कि आपातकाल के लिए कांग्रेस को माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है। उनका तर्क है कि इसके बाद लोगों ने इंदिरा गांधी को फिर प्रधानमंत्री चुन लिया था, और अगर हम (कांग्रेस) इसके लिए माफी मांगते हैं, तो देश की जनता को भी माफी मांगनी पड़ेगी कि उसने इसके बाद भी इंदिरा गांधी को क्यों चुना। कांग्रेस के एक बड़े नेता, जो कि एक वकील भी हैं, उन्होंने एक लंबे-चौड़े बयान में कई तरह से इस बात की वकालत की थी कि कांग्रेस को इमरजेंसी पर माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं है।
माफी तो इंदिरा गांधी के कत्ल के लिए सिक्ख पंथ के उस वक्त के उग्रवादियों की तरफ से भी किसी ने नहीं मांगी थी, बल्कि उसे जीत के जश्न की तरह मनाया गया था। इसके पहले जब स्वर्ण मंदिर से हथियारबंद आतंकियों को निकालने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया था, तो एक धर्मस्थान पर घुसने के लिए केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी से माफी की मांग की गई थी। अनगिनत हत्याएं करके भाग-भागकर स्वर्ण मंदिर में रहने वाले भिंडरावाले के आतंकियों को हटाने के लिए उस वक्त जो कार्रवाई सरकार को मुनासिब लगी थी, उसने की थी, और भिंडरावाले के हत्यारे-आतंक पर चुप रहने वाले सिक्ख नेताओं ने स्वर्ण मंदिर पर कार्रवाई के खिलाफ जुबानी हमला बोल दिया था, और नतीजा इंदिरा गांधी की हत्या तक पहुंचा था। इसके तुरंत बाद देश भर में सिक्ख विरोधी दंगे हुए थे, और यह बात आज तक जारी है कि कांग्रेस ने उस पर पर्याप्त माफी मांगी है या नहीं। जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सिक्ख विरोधी दंगों के लिए देश से माफी मांगी थी, जिसे बाद में लीक हुए एक अमरीकी कूटनीतिक संदेश में कहा गया था कि बीस बरस में किसी भारतीय नेता ने ऐसा करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई थी।
हिन्दुस्तान में ऐतिहासिक जुल्म और ज्यादती के और भी मामले हैं, 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराया गया, और गिराने वालों ने सामने मंच पर खड़े होकर, माईक से फतवे जारी करके यह काम किया, इसके ठीक पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने मैदान को समतल कर देने जैसी कोई बात सार्वजनिक रूप से कही थी, अडवानी ने इसके पहले रथयात्रा निकाली थी जिसमें उनके साथ आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मौजूद थे। लेकिन बाबरी मस्जिद गिराने के लिए किसी ने माफी नहीं मांगी, जिसके बाद कि देश भर में हुए दंगों और आतंकी हमलों में सैकड़ों मौतें हुई थीं। 2002 में गुजरात में हिन्दुओं से भरे रेल डिब्बे जला दिए गए, और उसके बाद मानो इसके जवाब में हिन्दू उग्रवादियों ने छांट-छांटकर हजारों मुस्लिमों को तीन दिनों तक मारा, और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार दूसरी तरफ मुंह मोड़े बैठी रही। अपनी सरकार के चलते राजधर्म की ऐसी अनदेखी पर मोदी ने कभी माफी नहीं मांगी। बल्कि आज जो संयुक्त विपक्ष के राष्ट्रपति पद प्रत्याशी थे, उन यशवंत सिन्हा के नाम के साथ गुजरात दंगे टाईप करके देखें तो पहली हैडिंग 2014 की दिखाई पड़ती है जिसमें यशवंत सिन्हा का बयान है कि गुजरात दंगों के लिए माफी न मांगकर मोदी ने सही किया। आज जरूर यशवंत सिन्हा की हार पर देश के बहुत से लोगों को अफसोस हो रहा है जो कि भाजपा की उम्मीदवार को हराना चाहते थे, लेकिन 2014 में जब यशवंत सिन्हा भाजपा के नेता थे, वे प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के बारे में दमखम से यह बात कह रहे थे, और उन्होंने यह भी कहा था कि कोई भी व्यक्ति इस बात को लेकर जरा भी विचलित नहीं है कि 2002 में गुजरात में क्या हुआ था, ठीक उसी तरह जिस तरह कि वे भूल गए हैं कि 1984 में सिक्खों के साथ क्या हुआ था।
माफी मांगने के लिए लोगों में लोकतांत्रिक समझ होना जरूरी है, दूसरे लोगों के हक और अपनी जिम्मेदारी की बुनियादी समझ होना जरूरी है। आज भी इस हिन्दुस्तान में संघ परिवार के संगठन उत्तर-पूर्वी राज्यों से आदिवासी परिवारों की बच्चियों को लाकर देश भर में जगह-जगह बनाए गए शबरी आश्रमों में रख रहे हैं, और उनकी संस्कृति, उनके धर्म से उन्हें परे ले जाकर उनका शहरी, हिन्दूकरण कर रहे हैं। यह ठीक उसी तरह का काम है जिसके लिए सैकड़ों बरस बाद ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में वहां की संसद, सरकार, और ईसाई धर्मप्रमुख माफी मांग रहे हैं, शर्मिंदगी जाहिर कर रहे हैं। हिन्दुस्तान में तो बस्तर जैसे आदिवासी इलाकों में आदिवासियों के साथ क्या तो भाजपा सरकार, और क्या तो कांग्रेस सरकार, सबके राज में जिस तरह के जुल्म हो रहे हैं, उसके लिए आदिवासियों से माफी मांगने की सभ्यता इस देश में जाने कब विकसित हो सकेगी। कई मामलों में हिन्दुस्तान पश्चिम से सैकड़ों बरस पीछे चलता है, और 22वीं या 23वीं सदी में हिन्दुस्तान की संसद और सरकार शायद आदिवासियों से माफी मांगने जितनी सभ्य हो सकेंगी।
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आज की दुनिया इन्फर्मेशन ओवरलोड की शिकार है। कोई इंसान एक दिन में जितना पढ़ सकते हैं, सुन या देख सकते हैं, उससे करोड़ों गुना अधिक उनके इर्द-गिर्द इंटरनेट पर तैर रहा है। अधिक सक्रिय और अधिक जुड़े हुए लोगों को वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर इतना अधिक आता है कि आम लोगों के लिए यह मुमकिन नहीं रहता कि उसे जांच-परख लें। यह एक और बात है कि अधिकतर लोगों के बीच ऐसे उत्साही इंसान जिंदा रहते हैं जो कि पूरी गैरजिम्मेदारी के साथ चीजों को आगे बढ़ाने को उतावले रहते हैं। नतीजा यह होता है कि लोग झूठी बातों को भी आगे बढ़ा देते हैं, और अक्सर ही यह जानते हुए भी आगे बढ़ा देते हैं कि वह झूठ है। लोगों को संपर्कों के अपने दायरे में यह दिखाने की भी एक हड़बड़ी रहती है कि उनके पास दिखाने को कुछ है। हर किसी को यह साबित करने की चाह रहती है कि उनका भेजा हुआ, या उनका पोस्ट किया हुआ भी लोग देखते हैं, और गैरजिम्मेदारी से उसे पसंद भी करते हैं।
अब अभी कल की ही बात है, योरप की एक बड़ी पर्यावरण आंदोलनकारी छात्रा ग्रेटा थनबर्ग के बारे में एक पोस्टर लोगों ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया जिसमें उसने जर्मन रेलगाडिय़ों को भीड़भरा बताया, और अपनी एक तस्वीर पोस्ट की जिसमें वह एक डिब्बे में अपने सामान सहित फर्श पर बैठी हुई है। अभी पोस्ट की हुई जानकारी यह भी बताती है कि जर्मन रेलवे ने तुरंत ही यह पोस्ट किया कि ग्रेटा थनबर्ग का फस्र्ट क्लास के डिब्बे में रिजर्वेशन था, और उसके लिए फलां सीट नंबर तय था। इस बात को ग्रेट थनबर्ग के खिलाफ इस्तेमाल किया गया कि पर्यावरण बचाने के नाम पर वह झूठ फैलाती है। अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे, विकसित देशों में बसे हुए लोगों ने भी इस पोस्टर का मजा लिया क्योंकि पर्यावरण बचाने की मुहिम छेड़े हुए इस लडक़ी ने दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं का जीना हराम किया हुआ है, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप जैसे लोग इससे हलाकान थे। लेकिन जब इस पोस्टर की हकीकत ढूंढने की कोशिश की गई, तो दो बातें सामने आईं, एक तो यह कि यह करीब तीन बरस पुरानी बात है। ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट पर जर्मन रेलवे ने यह जानकारी जरूर दी थी। लेकिन ग्रेटा-विरोधियों ने इसके बाद के हिस्से को छुपाकर यह पोस्टर बनाया जिसमें ग्रेटा थनबर्ग ने यह लिखा था कि उसका ट्रेन सफर तीन हिस्सों में था, और इसमें से एक हिस्सा उसने डिब्बे के फर्श पर गुजारा था। उसने यह भी साफ किया कि ट्रेनों को भीड़भरा बताना उसके लिए कोई नकारात्मक बात नहीं थी बल्कि उसने इसे पर्यावरण के लिए एक अच्छी बात की तरह पेश किया था क्योंकि ट्रेनें पर्यावरण का कम नुकसान करती हैं।
इस बात को महज एक घटना की तरह देखना ठीक नहीं है, इसे लोगों के रूझान की तरह देखना ठीक है कि जो लोग जिन्हें पसंद नहीं करते हैं, उनके खिलाफ वे चुनिंदा तथ्यों को लेकर एक झूठ को आगे बढ़ाते हैं, या सच की एक ऐसी शक्ल को सामने रखते हैं जो कि अधूरी रहती है, और एक अलग धारणा बनाती है। पिछले कुछ बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कुछ तस्वीरें और कुछ वीडियो ऐसे भी सामने आए हैं जिनमें वे लोगों की उपेक्षा करते दिख रहे हैं। खासकर लालकृष्ण अडवानी के साथ मोदी की एक ऐसी तस्वीर है जिसमें अडवानी हाथ जोड़े हुए बहुत ही बुरी तरह दीन-हीन, गिड़गिड़ाते हुए से दिख रहे हैं, और मोदी सामने एक क्रूर अंदाज में खड़े हैं। यह तस्वीर अपने आपमें गढ़ी हुई नहीं थी, लेकिन यह एक सेकेंड के भी एक छोटे हिस्से को दिखाती हुई तस्वीर थी, जिसके पहले और बाद के पल जब दूसरी तस्वीरों में सामने आए, तो दिखा कि मोदी उसके पहले या बाद में नमस्कार कर चुके थे। कुछ इसी तरह का एक वीडियो अभी दो दिनों से सोशल मीडिया पर चल रहा है जिसमें जाते हुए राष्ट्रपति उनके विदाई समारोह में एक कतार में खड़े हुए लोगों के सामने से नमस्कार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, और वहां खड़े हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी तरह मंत्रमुग्ध होकर कैमरों को देख रहे हैं, उस पल सामने से हाथ जोड़े हुए गुजरते हुए राष्ट्रपति को भी वे नहीं देख रहे हैं। बाद में इसके जवाब में भाजपा के लोगों ने एक दूसरा वीडियो पोस्ट किया जिसमें इन पलों के पहले के कुछ पल दिखते हैं, और उनमें मोदी राष्ट्रपति को नमस्कार कर चुके हैं, और राष्ट्रपति के सामने-सामने चलते हुए फोटोग्राफरों पर जब उनकी नजर टिकती है, तो फिर वहीं टिकी रह जाती है। अगर शुरू के इन पलों को न देखें, तो तस्वीर ऐसी बनती है कि मोदी ने राष्ट्रपति को देखा ही नहीं, और बस कैमरे देखते रह गए। यह एक अलग बात है कि कुछ पल राष्ट्रपति को देखने के बाद मोदी का ध्यान कैमरों की तरफ ही रह गया, लेकिन उन्होंने शुरू के कुछ पलों में राष्ट्रपति को नमस्ते तो कर लिया था।
आज का वक्त सूचनाओं के सैलाब का वक्त है, और साधारण समझबूझ के इंसानों के लिए यह आसान नहीं रहता कि वे इस सैलाब के बीच संभल पाएं। सुनामी सरीखे सैलाब से जूझते इंसान की तरह आज के लोगों के सामने दिक्कत यह रहती है कि उन्हें अपने संपर्कों के दायरे में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की एक हड़बड़ी रहती है, और उसका दबाव भी रहता है। जिस तरह लोग अपने साथ के लोगों को निराश करने के बजाय उनके साथ सिगरेट या दारू पीने लगते हैं, या जुआ खेलने लगते हैं, ठीक उसी तरह आज लोग अपने गैरजिम्मेदार दायरे की बराबरी करने के लिए उसी के दर्जे की गैरजिम्मेदारी दिखाने में लग जाते हैं। फिर सच को आधे या पूरे झूठ की तरह दिखाने के लिए कुछ गढऩे की जरूरत भी नहीं रहती, चीजों को बस आधा दिखाना, चीजों को गलत वक्त का दिखा देना भी काफी होता है। उमा भारती का एक पुराना वीडियो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ सबसे बुरी बातें कहते हुए इंटरनेट पर मौजूद है। उसे आज मोदी के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि भारत के प्रधानमंत्री के खिलाफ मोदी के कहे हुए एक वीडियो को आज मजाक में इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें वे कह रहे हैं कि रूपया उसी देश का गिरता है जिस देश का प्रधानमंत्री गिरा रहता है। अब उमा भारती ने भाजपा से बाहर रहते हुए जो कुछ कहा था उसे आज भी इस्तेमाल करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, लेकिन जिम्मेदार लोगों को यह समझने की जरूरत जरूर है कि कौन सी बात किस संदर्भ में कही गई थी।
संदर्भ से काटकर जब किसी बात को देखा जाता है, तो सरदार पटेल को नेहरू का विरोधी साबित किया जा सकता है, सरदार पटेल को आरएसएस का हिमायती साबित किया जा सकता है, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, और भगत सिंह को संघ के मंच पर सजाया जा सकता है। आज आंखों से जो सच सा दिखता है, उसे भी परख लेने का वक्त है। और इंटरनेट की मेहरबानी से यह बड़ा मुश्किल काम भी नहीं है। जो जानकारी आपके सामने आ रही है, उसके चुनिंदा शब्दों को इंटरनेट पर सर्च कर देखें, बड़ी संभावना रहेगी कि आप हकीकत की गहराई तक पहुंच जाएं। इससे एक दूसरा फायदा यह भी होगा कि आप झूठ फैलाने से बचेंगे। याद रखें कि आज के वक्त आपकी साख बस उतनी ही है जितनी कि आपकी फैलाई गई बातों की है। इसलिए बदनीयत झूठों की भीड़ के दबाव में आकर उनकी बराबरी करने न उतरें, सच पर बने रहें।
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छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कल दिल दहलाने वाली एक ऐसी वारदात हुई है जिस पर आसानी से भरोसा करने को दिल नहीं करता। शहर के बीचोंबीच एक व्यस्त चौराहे पर एक दुपहिये पर अपनी मां सहित जा रही एक लडक़ी ने हॉर्न बजाया, लेकिन रास्ते में साइकिल लिए खड़ा एक मूकबधिर कुछ सुन नहीं पाया। वह हॉर्न से हटा नहीं इस बात को लेकर नाबालिग कही जा रही इस लडक़ी ने अपने पास रखे छुरे से उस पर हमला कर दिया, और उसे मार डाला। इसके बाद शहर छोडक़र भागते उस लडक़ी को पुलिस ने गिरफ्तार किया। अब तक आमतौर पर राजधानी दिल्ली के इलाके और उत्तर भारत, पंजाब के कुछ इलाकों से सडक़ों पर होने वाले झगड़ों में कत्ल की खबरें जरूर आती थीं, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में शहर के बीच, दुपहिया सवार नाबालिग लडक़ी एक साइकिल वाले मूकबधिर को दिनदहाड़े इस तरह अपने छुरे से मार डालेगी, यह तो भरोसा करने लायक भी बात नहीं है, यह एक और बात है कि यह सच कल हो चुका है।
इस बात को किस-किस तरह से देखा जाए यह सोचने में भी कुछ मुश्किल हो रही है। चाकू और छुरा चलाना, आमतौर पर लडक़ों और आदमियों का काम माना जाता है, और उस काम में एक लडक़ी का उतरना भी कुछ अटपटी बात है। फिर यह भी है कि यह लडक़ी अपनी मां के साथ थी, और न ही किसी नशे में थी। इसलिए यार दोस्तों के साथ नशे में कोई जुर्म कर बैठना एक अलग बात होती, दिन की रौशनी में मां के साथ रहते हुए ऐसा करना और बड़ी फिक्र की बात है। फिर यह भी कि एक नाबालिग लडक़ी छुरा लेकर क्यों घूम रही थी? इस शहर की पुलिस बीच-बीच में नुमाइश करती है कि उसने बदमाश और आवारा लोगों की तलाशी लेकर उनसे कितने चाकू-छुरे बरामद किए हैं। लेकिन अब एक नाबालिग लडक़ी की तलाशी भी पुलिस क्या ले लेती? और फिर यह भी है कि एक मूकबधिर पर छुरे से हमला करते हुए भी इस लडक़ी को यह तो अंदाज लग गया होगा कि वह बोल-सुन नहीं पा रहा है, साइकिल पर है इसलिए जाहिर है कि लडक़ी के मुकाबले गरीब भी रहा होगा, और फिर भी उसको इस तरह मार डालना उस लडक़ी की हत्यारी सोच का एक सुबूत है, जो कि पूरे समाज के लिए खतरे और फिक्र की बात है।
हिन्दुस्तान में बहुत बड़ी-बड़ी गाडिय़ों पर चलने वाले बहुत ताकतवर और पैसों वाले लोगों की बददिमागी तो आए दिन सडक़ों पर देखने मिलती है जब वे ट्रैफिक सिपाही को भी हडक़ाते हुए धमकाते हैं कि वह नहीं जानता कि वे कौन हैं। लेकिन एक दुपहिया का तो इतना बड़ा अहंकार भी नहीं रहना चाहिए। हिन्दुस्तान में अपने तथाकथित इतिहास के झूठे गौरव का दंभ बहुत है, लेकिन अपने आज की असभ्यता पर उसे मलाल जरा भी नहीं है। सार्वजनिक जगहों पर हिन्दुस्तानी लोग दूसरों की जिम्मेदारी, और अपने अधिकार की ही सोचते रहते हैं। फिर वे दूसरों की जिम्मेदारी को आसमान की ऊंचाईयों तक साबित करते हैं, और अपने अधिकार को भी विकराल मानकर चलते हैं। नतीजा यह होता है कि सार्वजनिक जगहों और सार्वजनिक जीवन में हिन्दुस्तानी लोग अपने सबसे क्रूर रूप में सामने आते हैं। वहां पर उनकी गाडिय़ों का हॉर्सपावर उनके अहंकार के साथ जुडक़र उन्हें अधिक हिंसक बना देता है।
दुनिया के सभ्य देशों के लिए राष्ट्रवादी हिन्दुस्तानियों के मन में घोर हिकारत है कि वे पश्चिमी सभ्यता वाले हैं, वहां का समाज बदचलन है, वहां पर अश्लीलता और नग्नता की संस्कृति है। लेकिन ऐसे हिन्दुस्तानी पश्चिम के उन विकसित और सभ्य लोकतंत्रों के बारे में यह नहीं देखते हैं कि वहां पर पैदल और पैडल का सबसे अधिक सम्मान है। वहां पर सडक़ पार करने के लिए अगर एक पैदल इंसान ने एक कदम बढ़ा दिया है, तो दोनों तरफ का सारा ट्रैफिक थम जाता है। हिन्दुस्तान में पैदल और पैडल को अपनी राह से अलग फेंकने के लिए लोग गाडिय़ों में एक्स्ट्रा हॉर्न लगवाकर रखते हैं कि मानो ध्वनितरंगों से ऐसे गरीब लोगों को धकेलकर किनारे फेंक दिया जाएगा। यह सिलसिला इतना आम है कि हिन्दुस्तानी इसे जीने का एक ढर्रा ही मानकर चलते हैं, और शायद ही किसी हिन्दुस्तानी को यह फिक्र रहती होगी कि गाड़ी में साथ चल रही अगली पीढ़ी भी ऐसी ही बदतमीजी और बददिमागी सीख लेगी।
रायपुर में कल हुई यह घटना कई मामलों में अटपटी और अजीब है, इसलिए इसे मिसाल मानकर अधिक लिखना ठीक नहीं है। लेकिन सडक़ों पर होने वाली हिंसा में कई बार बेकसूर मारे जाते हैं, और फिर वे चाहे कारों में चलने वाले संपन्न लोग ही क्यों न हों। ऐसी जितनी घटनाएं याद पड़ रही हैं उनमें बहुत सी घटनाओं में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां या बददिमाग महंगी मोटरसाइकिलें शामिल रहती हैं, जिनके मालिक अपने को सडक़ों का भी मालिक समझते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह दिक्कत भी रहती है कि पुलिस के साथ होने वाली बदसलूकी के जवाब में पुलिस कोई कड़ी कार्रवाई नहीं कर पाती क्योंकि ऐसे बदसलूक लोगों को किसी न किसी किस्म की ताकतवर हिफाजत हासिल रहती है। यह भी मुमकिन है कि ऐसी बेइज्जती झेल-झेलकर पुलिस का मनोबल ही टूटा हुआ रहता है, और वह राजनीतिक दलों या प्रेस के स्टिकरों वाली गाडिय़ों को छोड़ते-छोड़ते हर बड़ी गाड़ी को छोडऩे लगते हैं। नतीजा यह निकलता है कि सडक़ों पर अराजकता एक आम बात हो जाती है। लेकिन हमारे लिखे हुए इन तमाम तर्कों में से एक भी तर्क कल की इस घटना की वजह नहीं समझा सकता जो कि बहुत ही अलग है, बहुत ही अजीब है। यह तो इस लडक़ी के परिवार के लोगों को मनोचिकित्सकों से मिलकर यह समझना चाहिए कि उसकी ऐसी हत्यारी दिमागी हालत क्यों हुई है? यह घटना इस किस्म की किसी और घटना की याद नहीं दिलाती, और इसलिए इसे बिल्कुल ही अलग मानकर पुलिस को भी इसका विश्लेषण करना चाहिए कि इस पीढ़ी के बीच ऐसी सोच आई कैसे, इतनी हिंसक कैसे हुई। सरकार और समाज पता नहीं इस बारे में क्या कर सकेंगे क्योंकि एक दुपहिया सवार दिनदहाड़े व्यस्त सडक़ पर एक बेकसूर साइकिल सवार को इस तरह मार न डाले, इसलिए तो बचाव के लिए कोई पुलिस तैनात नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर हमारा यह मानना है कि इस मामले को चाकूबाजी का एक और मामला मानकर चलना ठीक नहीं है, क्योंकि यह बिल्कुल अलग किस्म का मामला है, और तमाम जिम्मेदार तबकों को इसके बारे में सोचना चाहिए, और अपने बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए जिनके बटुए की ताकत के साथ उनकी गाडिय़ों की ताकत मिलकर उन्हें बेहद बददिमाग बना रही है, कहीं वे किसी को मार न डालें, या किसी के हाथ मारे न जाएं। इस एक अकेली घटना ने पिछले बहुत समय की घटनाओं से अधिक विचलित किया है।
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भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमना ने देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जमकर कोसा है, और कहा है कि अदालतों में चल रहे मुद्दों पर गलत जानकारी देना और एक तय नीयत के साथ एजेंडा संचालित बहसें लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह साबित हो रही हैं। उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया अब भी कुछ हद तक जवाबदेह है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं है, यह जो दिखाता है वह हवा-हवाई है। जस्टिस रमना रांची में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में बोल रहे थे, और उन्होंने कहा कि मीडिया द्वारा प्रचारित पक्षपातपूर्ण विचार लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं, और व्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं, इससे न्याय प्रक्रिया पर भी उल्टा असर पड़ता है। उन्होंने कहा कि (इलेक्ट्रॉनिक) मीडिया अपनी जिम्मेदारियों के दायरे से आगे जाकर, और उनका उल्लंघन करके लोकतंत्र को पीछे ले जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि सोशल मीडिया की हालत इससे भी बदततर है।
हमने इसी पन्ने पर पिछले बरसों में कई बार इस बात को लिखा है कि हिन्दुस्तान में मीडिया नाम का शब्द अब एक अटपटा लेबल बन गया है, और यहां के प्रिंट मीडिया को इससे बाहर निकलकर अपनी पुरानी पहचान, प्रेस को दुबारा कायम करना चाहिए। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का चाल, चरित्र, चेहरा एक-दूसरे से इतना अलग है, दोनों की तकनीक अलग है, दोनों की जरूरतें और मकसद अलग हैं, और ऐसे में उन्हें एक दायरे में एक लेबलतले रखना कुछ ऐसा ही है जैसा कि एक हाथी और एक बकरी को मिलाकर उनका एक संघ बना दिया जाए। यह एक बेमेल काम होगा जिससे इन दोनों जानवरों में से किसी का भी मकसद पूरा नहीं होगा। किसी पेशे के दायरे में उस पेशे या कारोबारी संगठन में उस कारोबार से जुड़े हुए लोग इसलिए रहते हैं कि उनके हित एक सरीखे रहते हैं, उनकी जरूरतें मिलती-जुलती रहती हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सारा ही तौर-तरीका अखबारनवीसी के पुराने और परंपरागत तौर-तरीकों से बिल्कुल ही उल्टा है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कोई नीति-सिद्धांत हैं या नहीं, इसे वे ही बेहतर जानें, लेकिन हम प्रिंट मीडिया में पूरी जिंदगी गुजारने के बाद उसका यह निचोड़ सामने रख सकते हैं कि नीति-सिद्धांतों से परे प्रिंट मीडिया का कोई भविष्य नहीं है। आज भी कई अखबार घटिया निकलते होंगे, जो बिककर छपते होंगे, लेकिन ऐसे अखबार भी बने हुए हैं जो कि छपकर बिकते हैं। इसलिए प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक का यह बेमेल लेबल, मीडिया कम से कम प्रिंट को तो छोड़ देना चाहिए। प्रिंट के पास तो आजादी की लड़ाई के दिनों से अब तक चले आ रहा प्रेस नाम का एक खूबसूरत और इज्जतदार शब्द है, और उसे उसका ही इस्तेमाल करना चाहिए।
यह बात हमारे सरीखे पेशेवर प्रिंट-पत्रकार ही नहीं कह रहे, इस देश के जागरूक नागरिकों का एक बड़ा तबका भी सोशल मीडिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस हद तक कोस रहा है कि यह हैरानी होती है कि देश में इतना कड़ा कानून रहते हुए भी टीवी चैनलों को लगातार नफरत और हिंसा फैलाने, लगातार साम्प्रदायिकता को बढ़ाने का मौका दिया जा रहा है, और उन्हें इस काम के लिए बढ़ावा भी दिया जा रहा है। वैसे तो यह काम कुछ अखबारों को बढ़ावा देकर भी हो रहा है, लेकिन फिर भी अखबारों के एक हिस्से में अब तक एक दर्जे की सामाजिक जवाबदेही बाकी है, जो कि टीवी समाचार चैनलों पर कब की खत्म हो चुकी है।
देश के मुख्य न्यायाधीश अपनी अदालत के बाहर एक लॉ यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में तो यह बात बोल रहे हैं, लेकिन जब अनगिनत मामलों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की फैलाई नफरत सुप्रीम कोर्ट के सामने आ चुकी है, तो वहां पर न तो मुख्य न्यायाधीश, और न ही दूसरे जज ऐसे नफरतजीवी, हिंसक, और देश को तबाह कर रहे टीवी चैनलों के खिलाफ कुछ बोल रहे हैं। जब ऐसे चैनलों के मालिक और संपादक बड़े-बड़े हमलावर हथियार लेकर कैमरों के सामने खड़े होते हैं, और देश से एक मजहब को, उसे मानने वाले लोगों को खत्म करने के फतवे देते हैं, तो ऐसे मामलों पर भी सुप्रीम कोर्ट का बर्दाश्त देखने लायक है। देश का ना सिर्फ सुप्रीम कोर्ट, बल्कि देश के हाईकोर्ट भी जब चाहें तब व्यापक जनहित के मामलों को बिना किसी पिटीशन के भी खुद मामला बना सकते हैं, और सुनवाई शुरू कर सकते हैं। ऐसे में बेहतर तो यह होता कि मुख्य न्यायाधीश एक व्याख्यान में ऐसी मसीहाई बातें करने के बजाय जज की कुर्सी पर बैठकर अपनी तनख्वाह को जायज साबित करते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जुर्म के कुछ नमूनों को लेकर एक कमेटी बनाते, और वह कमेटी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार से परे अपनी रिपोर्ट देती जिसमें सरकारी रूख का भी विश्लेषण रहता। आज सरकार के ऊपर मानो कुछ भी नहीं रह गया है, संसद में सरकारी बाहुबल के सामने विपक्ष को अनसुना कर देना एक परंपरा बन गई है। देश में सबसे महंगा संसद भवन बन रहा है, और बिना बहस कानून बनाना उसके भीतर इस बाहुबल के लिए सबसे सस्ता काम रहेगा। ऐसे में अदालत को ही यह देखना होगा कि सरकारी अनदेखी किस कीमत पर चल रही है, उससे लोकतंत्र का कितना नुकसान हो रहा है।
मुख्य न्यायाधीश ने न्यायिक प्रक्रिया को लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हरकतों की चर्चा की है। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का नुकसान इस देश में न्याय प्रक्रिया से परे आम जनता को भी झेलना पड़ रहा है, और इस देश का परंपरागत ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चला है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को न्याय प्रक्रिया के सामने टीवी चैनलों की खड़ी की हुई दिक्कत को ही नहीं देखना चाहिए बल्कि यह भी देखना चाहिए कि लोकतंत्र को जो व्यापक नुकसान इस संगठित बड़े कारोबार द्वारा सोच-समझकर, और सरकारी अनदेखी या बढ़ावे से किया जा रहा है, उसे कैसे रोका जाए? समाज के भीतर एक धर्म को दूसरे धर्म के खिलाफ नफरत के सैलाब में डुबाकर, हथियार थमाकर जिस तरह लड़ाया जा रहा है, उसे भी सुप्रीम कोर्ट को ही देखना होगा क्योंकि सरकार की दिलचस्पी इसमें नहीं दिख रही है।
जस्टिस एन.वी. रमना की कही बातें अगर उनके आखिरी कुछ हफ्तों में कोई शक्ल नहीं लेती हैं, तो ये किसी काम की नहीं रहेंगी। आज उन्हें कोई नहीं रोक सकता अगर वे अपने इन आखिरी हफ्तों में हिन्दुस्तान में टीवी चैनलों की नफरत और हिंसा और उसकी सरकारी अनदेखी की जांच करें। उन्हें तुरंत प्रिंट-मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और रिटायर्ड जजों में से लोगों को छांटकर ऐसी कमेटी बनानी चाहिए। इसकी रिपोर्ट तो जस्टिस रमना के रिटायर होने के बाद ही सामने आ पाएगी, लेकिन ऐसा काम उनके नाम के साथ जरूर दर्ज होगा।
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पश्चिम बंगाल की ममता बैनर्जी सरकार के साथ केन्द्र सरकार का टकराव, और तनातनी जारी है। लेकिन इस बार बात महज राजनीतिक नहीं है, बल्कि सत्ता का भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। ममता मंत्रिमंडल के पार्थ चटर्जी से जुड़े ठिकानों पर कल ईडी ने छापा मारा था। और मंत्री की एक बहुत ही करीबी महिला अर्पिता मुखर्जी के घर से 20 करोड़ रूपए नगद बरामद किए गए हैं, और 20 से अधिक मोबाइल फोन जब्त हुए हैं। यह छापा बंगाल की स्कूलों में नौकरी के लिए रिश्वत लेने के आरोपों पर कोलकाता हाईकोर्ट से सीबीआई जांच का आदेश देने के सिलसिले में पड़ा था। ऐसे आरोप थे कि सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में नौकरी लगवाने के लिए बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार चल रहा था, और मामला जब हाईकोर्ट तक पहुंचा तो वहां से सीबीआई जांच का आदेश हुआ, और सीबीआई ने इस मामले में मनी लांड्रिंग की आशंका पाकर ईडी को भी इसकी खबर की थी। कल बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के दो मंत्रियों सहित एक दर्जन जगहों पर ईडी ने एक साथ छापे मारे थे, और आज मंत्री पार्थ चटर्जी को गिरफ्तार कर लिया है।
पश्चिम बंगाल को लेकर पता नहीं क्यों बाहर ऐसी धारणा थी कि वहां तीन दशक तक लगातार चली वाममोर्चा सरकार ने एक ऐसी राजनीतिक और सरकारी संस्कृति विकसित की थी जिसमें बड़े पैमाने पर संगठित भ्रष्टाचार नहीं रह गया था। फिर ऐसा भी लगता था कि ऐसी संस्कृति देखे हुए पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे को हराकर दो-दो बार सत्ता में आई ममता बैनर्जी पर भी ऐसा नैतिक दबाव तो रहेगा कि वह भ्रष्टाचार को बड़े पैमाने पर संगठित स्तर तक नहीं ले जाएंगी। लेकिन धीरे-धीरे यह बात समझ में आ गई कि तरह-तरह की चिटफंड कंपनियों के साथ ममता बैनर्जी सरकार के लोगों का जितना गहरा रिश्ता चले आ रहा था वह मामूली और मासूम संबंध नहीं था, वह बड़े पैमाने पर राजनीतिक भ्रष्टाचार ही था। और अब तो जब सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में नौकरी दिलवाने के लिए इतने बड़े पैमाने पर रिश्वतखोरी की गई कि सीबीआई जांच शुरू होने के बाद, ईडी की जांच शुरू होने के बाद भी अब जाकर अगर मंत्री की सबसे करीबी महिला से 20 करोड़ रूपये नगद मिल रहे हैं, तो पिछले बरसों में इससे कितने गुना अधिक रकम आई-गई होगी, यह अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। राजनीतिक और सरकारी भ्रष्टाचार का पैसा बहुत कम ही इस तरह नगद रखा जाता है, और उसका अधिकतर हिस्सा लगातार इधर-उधर कर दिया जाता रहता है। इसलिए इस रकम से आंखें तो फटी की फटी रह जाती हैं, लेकिन यह संगठित भ्रष्टाचार की आखिरी किस्त सरीखी चीज है।
वैसे तो जनता के पैसों से चलने वाली सरकारों में किसी भी किस्म का भ्रष्टाचार सबसे गरीब जनता के हक को सबसे बुरी तरह कुचलना होता है, लेकिन जब नौकरियां देने में भ्रष्टाचार करके कम काबिल या नालायक लोगों को नौकरी पर रख दिया जाता है, तो उसका एक मतलब यह भी होता है कि उनकी पूरी नौकरी चलने तक लोगों को घटिया काम हासिल होगा। एक-एक शिक्षक अपनी पूरी जिंदगी में दसियों हजार बच्चों को पढ़ाते हैं, और अगर रिश्वत देकर नालायक लोग शिक्षक बन जाते हैं, तो वे नालायक बच्चों की पूरी पीढिय़ां तैयार करते हैं। यह सिलसिला किसी सडक़ या इमारत को बनाने में किए जा रहे भ्रष्टाचार से अधिक खतरनाक होता है। यह अधिक खतरनाक इस मायने में भी होता है कि जो गरीब नौकरी के लिए रिश्वत देने की हालत में नहीं रहते हैं, उनका मन ऐसे हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के लिए नफरत से भर जाता है, न सिर्फ सरकार बल्कि लोकतंत्र के सभी ढांचों से उन्हें नफरत हो जाती है। और ऐसे लोग न तो इस देश में कोई आत्मगौरव पाते हैं, और न ही सार्वजनिक सम्पत्ति के प्रति उनके मन में कोई दर्द रह जाता है। नैतिकता की तमाम नसीहतें देने वाले नेता उन्हें जालसाज और धोखेबाज दिखते हैं। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले मध्यप्रदेश में मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए हुए इम्तिहान लेने वाली व्यापम नाम की संस्था के व्यापक भ्रष्टाचार का मामला अदालत तक पहुंचा था। व्यापम मध्यप्रदेश में सरकारी नौकरियों में भर्ती का काम भी करती थी। इसके चयन में इतना बड़ा संगठित भ्रष्टाचार चल रहा था कि अभी तक उस मामले का पूरा पर्दाफाश नहीं हो पाया है जबकि दस बरस होने को हैं। मामले के इतना लंबा चलने से इससे जुड़े हुए तीस-चालीस गवाह और आरोपी रहस्यमय तरीके से मर गए या मार दिए गए, और अभी तक इस व्यापक जुर्म का पूरा खुलासा सामने नहीं आया है। लोगों को यह भी याद होगा कि हरियाणा के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला को भी शिक्षक भर्ती में भारी रिश्वतखोरी की वजह से दस बरस की कैद हुई थी, और उसके बेटे अजय चौटाला को भी इतनी ही कैद हुई थी।
हिन्दुस्तान में सरकारी नौकरियों में भर्ती बड़े पैमाने पर होने वाले भ्रष्टाचार का एक मौका रहता है। सत्ता कभी भी इतनी कमाई हाथ से जाने नहीं देती है। और जो 20 करोड़ रूपये नगदी पश्चिम बंगाल के मंत्री की करीबी महिला से मिले हैं, उसे बहुत थोड़ा सा मानना चाहिए क्योंकि ममता सरकार में तो हर किसी को यह मालूम था कि वे केन्द्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं, और उन्हें लगातार सावधान रहना है। इसके बावजूद अगर वे इस तरह से इस हद तक नोटों में डूबे हुए मिल रहे हैं, तो उनके पूरे भ्रष्टाचार का अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है। देश का कानून जितनी नगद रकम रखने की छूट देता है, उससे हजार गुना अधिक नगदी अगर इस तरह से मिल रही है, और भ्रष्टाचार के सुबूत मिल रहे हैं, तो फिर इसे कौन मोदी सरकार की बदले से की गई कार्रवाई करार दे सकते हैं? बदले की कार्रवाई भी जरूर होती होगी, लेकिन 20 करोड़ के नोटों के जखीरे पर बैठकर किसी को बदले की कार्रवाई की शिकायत करने का हक नहीं रह जाता। देश की बाकी सरकारों को भी इससे सबक लेना चाहिए। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें नोट छुपाने के बेहतर रास्ते निकालने चाहिए, बल्कि यह है कि ऐसा भ्रष्टाचार खत्म करना चाहिए जिसने चौटाला और उसके बेटे को दस-दस बरस जेल में रखा। अगर उनके पास हजारों करोड़ की काली कमाई भी होगी, तो भी दस बरस की कैद के मुकाबले वह भला किस काम की?
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मीडिया में फर्जीवाड़े की जांच करने वाली और उसका भांडाफोड़ करने वाली एक विश्वसनीय वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के एक संस्थापक पत्रकार मोहम्मद जुबैर को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जो कहा वह देश के सभी राज्यों की सरकारों और केन्द्र सरकार के गौर करने की बात है। यह आदेश वैसे तो इस एक मामले में आया है, लेकिन अदालत ने कुछ व्यापक विचार सामने रखे हैं जो दूसरे मामलों पर भी लागू होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि किसी को गिरफ्तार करने के अधिकार का इस्तेमाल पुलिस को संयम से करना चाहिए। उसने उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जुबैर के एक ट्वीट को लेकर जगह-जगह दर्ज की गई एफआईआर पर अलग-अलग गिरफ्तारियां करने, और अलग-अलग मामले चलाने के खिलाफ राय दी, यूपी सरकार द्वारा जाहिर तौर पर फर्जी दिख रही इन शिकायतों में जुबैर को उलझाए रखने के लिए अलग-अलग जिलों में रिपोर्ट लिखवाने का जो सिलसिला चला रखा था, अदालत ने उसके खिलाफ भी कहा, और यूपी सरकार द्वारा इन मामलों पर बनाए गए विशेष जांच दल को भी भंग कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इन तमाम मामलों को एक साथ दिल्ली पुलिस को भेज दिया, जो है तो भाजपा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार के मातहत, लेकिन वह यूपी के बाहर है, और अब तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सीधे दखल के बाद दिल्ली पुलिस शायद उस तरह की साजिश का रूख नहीं रख पाएगी जैसा उत्तरप्रदेश पुलिस का दिख रहा था। उत्तरप्रदेश सरकार के वकील ने इस पूरे मामले में मुंह की खाई, और वकील तो सरकार का प्रतिनिधि रहता है, सरकार ने अदालत में मुंह की खाई है। यूपी की इस अपील को सरकार ने खारिज कर दिया कि जुबैर के आगे ट्वीट करने पर रोक लगाई जाए। सुप्रीम कोर्ट जज ने वकील से कहा यह तो ठीक वैसी ही बात की जा रही है कि एक वकील को बहस न करने को कहा जाए। एक पत्रकार को यह कैसे कहा जा सकता है कि वह लिखना बंद कर दे। अदालत ने यहां तक आदेश दिया कि अगर इसी मुद्दे पर जुबैर के खिलाफ कोई और एफआईआर भी दर्ज होती है, तो उन सभी मामलों में अभी से यह जमानत लागू रहेगी। यह अपने आपमें बड़ा कड़ा फैसला है जो कि बदनीयत की साजिश को देखते हुए दिया गया लगता है। यह एक और बात है कि अदालत के इस रूख के बाद अब यूपी सरीखा कोई दूसरा राज्य भी जुबैर के खिलाफ इस ट्वीट के मामले में नई एफआईआर लिखने से कतराएगा। अदालत ने यह साफ किया है कि गिरफ्तारी अपने आपमें एक कठोर कदम है जिसका कम ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सभी अदालतों से कहा है कि वे ऐसे अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करें जो गिरफ्तारी की शर्तों को पूरा किए बिना कानून की धाराओं का पालन किए बिना गिरफ्तारी करते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश देश की बाकी तमाम अदालतों पर लागू होता है।
अब ये दिन कुछ ऐसे चल रहे हैं कि हमें लगातार पुलिस और अदालत के मामलों पर लिखना पड़ रहा है। पहले बस्तर के मामले सामने आए जिनमें बेकसूर आदिवासियों को पुलिस और सुरक्षाबलों ने थोक में मारा और सरकारी वर्दियों द्वारा की गई ऐसी हत्याओं की जांच रिपोर्ट आने के बरसों बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार उस पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिख रही है। इसके बाद अभी चार दिन पहले एक दूसरा मामला आया जिसमें बस्तर में सीआरपीएफ पर एक नक्सल हमले के बाद पास के गांव के करीब सवा सौ बेकसूर आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया गया था, और एनआईए ने उन पर मुकदमा चलाया, और एनआईए की विशेष अदालत ने उन सबको बेकसूर पाकर छोड़ दिया। आज राज्यों की पुलिस वहां की सत्तारूढ़ राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर जिस तरह की कार्रवाई करते दिख रही हैं, उसके खिलाफ देश में एक जागरूकता की जरूरत है, और सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले में निचली अदालतों को दिए गए निर्देश पर अमल भी करवाने की जरूरत है। अगर पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं के कहे हुए किसी की भी गिरफ्तारी के लिए टूट पड़ती है, तो ऐसी पुलिस की कानूनी जवाबदेही तय होनी चाहिए। हमने पिछले कई बरसों में लगातार यह देखा है कि अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की सरकारों के मातहत काम करती पुलिस राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह काम करने लगती है। और यह सिलसिला न्याय प्रक्रिया को ही एक सजा की तरह स्थापित कर देता है जब जुबैर की तरह एक के बाद एक अलग-अलग जिलों में की गई एफआईआर के आधार पर उसकी एक जमानत होते ही दूसरी एफआईआर पर गिरफ्तारी की जाती है, और इंसाफ के पूरे सिलसिले को ही कुचल दिया जाता है। बाकी प्रदेशों में बाकी पार्टियां कोई रहमदिल नहीं हैं, और वे भी अपने विरोधियों, अपने को नापसंद लोगों को अपनी पुलिस के हाथों इसी तरह घेरती हैं, और कुचलती हैं। ऐसे में अदालतों को जमानत की सुनवाई करते हुए यह भी देखना चाहिए कि क्या पुलिस सत्ता के तलुए सहलाने के लिए लोगों को गिरफ्तार करके जेल में डाल रही है? बस्तर के आदिवासी पांच बरस बाद नक्सल आरोपों से छूटकर जेल के बाहर आए हैं, देश में जगह-जगह कई पत्रकार महीनों और बरसों तक जेल में सड़ाए जा रहे हैं क्योंकि किसी प्रदेश की सत्ता उन्हें पसंद नहीं करती। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और चूंकि देश के बहुत से प्रमुख राजनीतिक दलों की सरकारें अपने-अपने राज में यही रूख रखती हैं, इसलिए इसका इलाज अदालत छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। जुबैर नाम का यह पत्रकार सुप्रीम कोर्ट में बड़ी लड़ाई लडऩे की ताकत रखता था, इसलिए उसके लिए बड़े-बड़े वकील खड़े हुए, और एक बहुत चर्चित मामला होने की वजह से भी अदालत ने शायद उस पर तेजी से गौर किया। लेकिन बहुत छोटे-छोटे लेखक, पत्रकार, कलाकार ऐसे हैं जिन्हें वकालत की इतनी ताकत हासिल नहीं है, और उनके हकों के लिए सुप्रीम कोर्ट को ही राज्यों की पुलिस को ऐसे निर्देश देने पड़ेंगे ताकि बदनीयत दिखने पर ऐसी पुलिस के खिलाफ कार्रवाई हो सके।
किसी का किसी मामले से छूट जाना इसलिए भी हो सकता है कि गवाह बदल जाएं, और मामला साबित न हो पाए, लेकिन पुलिस की बदनीयत जहां रहती है वहां वह सिर चढक़र बोलती है। ऐसे मामलों में पुलिस को सजा देने का काम भी होना चाहिए, और इस बात की जांच भी होनी चाहिए कि पुलिस ने किन ताकतों के कहे हुए नाजायज और गैरकानूनी काम किए। आज जब देश में न्यायिक प्रक्रिया ही एक सजा हो चुकी है, तो लोगों को ऐसी ज्यादती से बचाने के लिए अदालतों को सक्रिय होकर पुलिस की जवाबदेही कटघरे में पूछनी होगी। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्याय की प्रक्रिया को वापिस इस्तेमाल में लाने की बात करने वाला है, और इसलिए यह हिम्मत बढ़ाने वाला भी है।
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देश के मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले होने वाले नीट इम्तिहान को लेकर एक नया विवाद खड़ा हुआ है जिसमें केरल के कुछ परीक्षा केन्द्रों में छात्राओं को तब तक भीतर नहीं जाने दिया गया जब तक उन्होंने अपनी ब्रा नहीं उतार दी। दरअसल नीट परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था नेशनल टेस्टिंग एजेंसी का नियम मेटल डिटेक्टर से जांच करके, बिना धातु के किसी सामान के ही भीतर जाने देने का है। ब्रा के हुक और वायर धातु के होते हैं, और उनसे मेटल डिटेक्टर के बजने पर इन छात्राओं को रोक दिया गया था। केरल में ऐसी ही एक छात्रा के पिता ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है जिसमें उन्होंने बताया कि उनकी बेटी ने जब यह इनरवियर उतारने से मना कर दिया, तो उसे परीक्षा देने से मना कर दिया गया है। रिपोर्ट में लिखाया है कि एक कमरा इनरविनर से भरा हुआ था, उनमें बहुत से लोग रो रहे थे, और इस तरह के भद्दे बर्ताव से बच्चों को मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा था, बहुत सी लड़कियां वहीं अपनी ब्रा उतार रही थीं, और पिछले बरसों में भी ऐसी नौबत आई है जब छात्राओं से ब्रा उतरवाई गई, और आसपास मौजूद पुरूष परीक्षक उन्हें घूरते रहे। हैरानी की बात यह है कि नेशनल टेस्टिंग एजेंसी ने एक बयान में कहा है कि उन्हें इस घटना के बारे में कोई शिकायत नहीं मिली है।
एक कड़े मुकाबले वाले ऐसे दाखिला इम्तिहान में बच्चे वैसे भी बहुत दबाव और तनाव के साथ शामिल होते हैं। ऐसे में लड़कियों को उनके रोजमर्रा के अनिवार्य रूप से पहनने वाले कपड़ों को उतरवाकर बैठने को कहा जाए, तो यह जाहिर है कि इस बात से उनका इम्तिहान देना बुरी तरह प्रभावित होगा। इम्तिहान के नियम-कायदे बनाने वाले लोग न सिर्फ बेवकूफ हैं, बल्कि वे संवेदनाशून्य और अमानवीय भी हैं। इम्तिहान के पोशाक के नियम धातु के धार्मिक प्रतीकों को तो भीतर जाने की छूट दे रहे हैं, लेकिन लड़कियों की बदन की प्राकृतिक जरूरत के मुताबिक जो कपड़े बिल्कुल ही जरूरी हैं, उन्हें धातु के हुक की वजह से उतरवाया जा रहा है। धर्म का सम्मान जिंदा लडक़ी के बदन के सम्मान से बढक़र हो गया। और देश भर में जब करोड़ों बच्चे ऐसे इम्तिहान में शामिल होते हैं, और उनमें शायद आधे से अधिक लड़कियां होती हैं, तब ऐसे नियम बनाना सजा के लायक काम है। अगर इस देश में बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं पर सत्तारूढ़ पार्टियों के मनचाहे और पसंदीदा लोग काबिज न होते, तो ऐसे नियमों और इंतजाम पर अब तक कई नोटिस जारी हो गए होते। एक खबर यह जरूर है कि केरल की पुलिस ने छात्राओं की ब्रा जबर्दस्ती उतरवाने वाली पांच महिलाओं को गिरफ्तार किया है। इन लड़कियों के मां-बाप ने यह भी कहा कि उनकी बच्चियां बरसों से इस इम्तिहान की तैयारी कर रही थीं, और उन्हें अच्छे नंबर पाने की उम्मीद थी, लेकिन जब उनकी ब्रा उतरवाकर उन्हें छात्रों के बीच बैठकर, पुरूष परीक्षकों की नजरों के सामने इम्तिहान देना पड़ा, तो वे मानसिक यातना से गुजर रही थीं, और इससे उनका लिखना बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
हिन्दुस्तान में लड़कियों और महिलाओं की प्राकृतिक जरूरतों के लिए समाज संवेदनाशून्य है। सार्वजनिक जगहों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक महिलाओं के लिए शौचालयों का इंतजाम कहीं होता है, और कहीं नहीं भी होता है। बहुत ऊंचे दर्जे के दफ्तरों की बात छोड़ दें, तो आम दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के माहवारी के दिनों के लिए कोई इंतजाम नहीं रहता। और ऐसी तरह-तरह की दिक्कतों का असर महिलाओं के मनोबल पर भी पड़ता है, और लडक़ों और आदमियों के मुकाबले उनकी संभावनाएं भी पिछडऩे लगती हैं। कहने के लिए तो केन्द्र और राज्य में मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग बने हुए हैं, लेकिन उन पर काबिज लोग सरकारों के लिए कोई दिक्कत खड़ी करना नहीं चाहते, और अधिकतर ऐसे मामलों में तो सरकार ही जिम्मेदार रहती है। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के डायरेक्टर जनरल विनीत जोशी के नाम से भी यह समझा जा सकता है कि यह एजेंसी लड़कियों की बुनियादी जरूरत के प्रति इस कदर गैरजिम्मेदार क्यों है। हिन्दुस्तान की पुरूष प्रधान और ब्राम्हणवादी समाज व्यवस्था में महिला की जगह उतनी ही है जितनी जगह महिलाओं के लिए मंदिरों में पुजारी के काम के लिए हो सकती है। कदम-कदम पर महिलाओं को कुचलना, उन्हें बराबरी पर नहीं आने देना, इसकी साजिशें कई बार तो शायद बिना कोशिश भी होती रहती हैं क्योंकि नीति और योजना बनाने वाले लोगों की सोच को इस तरह से काम करने के लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। अभी तीन दिन पहले ही यह खबर आई थी कि रिश्तों वाली वेबसाइटों पर ऐसी युवतियों पर कम ध्यान दिया जाता है जो कामकाजी हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा ने ऐसी एक वेबसाइट पर एक परीक्षण करके देखा कि जिन युवतियों के प्रोफाइल में वे कामकाजी नहीं दिखती हैं, उनमें 15-20 फीसदी अधिक दिलचस्पी ली जाती है। एक कामकाजी महिला के प्रोफाइल में 78 से 85 लोगों ने दिलचस्पी ली जबकि इतने ही वक्त में कोई काम न करने वाली महिला में सौ लोगों ने दिलचस्पी ली। भारतीय मूल की इस शोध छात्रा दिवा धर ने इस प्रयोग के लिए 20 ऐसी नकली प्रोफाइल बनाई जो बाकी तमाम मामलों में एक सरीखी थीं, सिवाय कामकाज के, या भविष्य में काम करने के। इसके बाद उन पर पहुंचने वाले लोगों को देखा तो काम न करने वाली महिलाओं में सबसे अधिक आदमी दिलचस्पी लेते हैं, इसके बाद बारी उन महिलाओं की आती है जो अभी काम कर रही हैं, लेकिन काम छोडऩा चाहती हैं। इस पूरे प्रयोग के बारे में यहां पर लिखना मुमकिन नहीं है लेकिन कुल मिलाकर बात यह है कि हिन्दुस्तान में लडक़ी या महिला का आगे बढऩा सबको खटकता है, और वह अगर कामयाब हो जाती है, तो उसमें लोगों की दिलचस्पी कम हो जाती है। यही वजह है कि नीतियां और योजना बनाने वाले लोगों को लड़कियों और महिलाओं की जरूरतें सूझती ही नहीं हैं। महिलाओं के हक और उनकी जरूरतों को लेकर लगातार और हमेशा चलने वाले एक आंदोलन की जरूरत है, तो शायद अगली सदी तक हिन्दुस्तान किसी बराबरी तक पहुंच पाए।
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हिन्दुस्तान की एक बड़ी खूबी यह है कि हर दिन कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा होता है जिससे लगता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। अभी दो हफ्ते पहले हमने इसी जगह उत्तरप्रदेश के एक अदालती फैसले के बाद लिखा था कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र किस हद तक नाकामयाब हो गया है, अदालतें किस तरह बेइंसाफी करती हैं, आमतौर पर अंधाधुंध देर करके। उत्तरप्रदेश का यह मामला 44 बरस के एक मजदूर का था जिस पर पुलिस ने आरोप लगाया था कि उसके पास कट्टा है। और यह देसी पिस्तौल उसके पास से कभी बरामद नहीं हुई, और यह मुकदमा 26 बरस चला, उसे 400 बार अदालत में पेश होना पड़ा, 2020 में निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया था, लेकिन सरकारी वकील ने जोर डालकर मामला फिर खुलवाया था, और अब 2022 में वह 70 बरस की उम्र में इस तोहमत से बरी हुआ है। इस दौरान पूरा परिवार तबाह हो गया है। इसी संपादकीय में हमने यह सुझाया था कि राम के उत्तरप्रदेश में रामरतन नाम के इस गरीब के 26 बरसों को तबाह करने के एवज में उसे न्यूनतम मजदूरी जितना मुआवजा तो मिलना चाहिए। इससे उसके बच्चों की जा चुकी पढ़ाई का तो कोई मुआवजा नहीं मिल सकता, परिवार की जिंदगी दुबारा नहीं आ सकती, लेकिन लोकतंत्र को अपनी नीयत और नीति स्थापित करने के लिए ऐसे मुआवजे करने का इंतजाम करना चाहिए।
एक पखवाड़े के भीतर ही छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दूसरा मामला सामने आया है जिस पर हम उसके बाकी पहलुओं पर तीन दिन पहले ही लिख चुके हैं, लेकिन उसके एक पहलू पर लिखा जाना बाकी है। बस्तर के दंतेवाड़ा के एनआईए कोर्ट ने 121 आदिवासियों को बरी किया है जिन पर एक नक्सल हमले में भागीदार होने के आरोप में एनआईए ने यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत मुकदमा चलाया हुआ था। सीआरपीएफ के 25 लोगों को मारने वाला नक्सल हमला जिस इलाके में हुआ था वहां के 122 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था जिनमें से एक की मौत हुई, और बाकी लोग बिना जमानत जेल में पांच साल गुजारकर अभी बरी हुए हैं। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था उनसे जिन सामानों की जब्ती पुलिस ने बनाई थी, और एनआईए ने मुकदमे में जिनका इस्तेमाल किया था उनमें धनुषबाण जैसा आदिवासियों के काम का रोजाना का हथियार भी था। खैर, ये सारे के सारे लोग अदालत से छूटकर पांच बरस बाद बाहर निकले हैं, इनमें से बहुत से तो 19-20 बरस के थे जब वे जेल गए थे। अब सवाल यह उठता है कि बिना जमानत जिन लोगों को जेल में रहना पड़ता है, और फिर जो बेकसूर साबित होकर बाहर निकलते हैं, उनके इन बरसों का क्या इंसाफ हो सकता है? हमने उत्तरप्रदेश के मामले में यह सुझाया ही था कि इतने दिनों की सरकारी रेट से न्यूनतम मजदूरी तो इन लोगों को देनी ही चाहिए ताकि जो गरीब लोग परिवार से दूर जेल में रहने को मजबूर थे, उन्हें इन बरसों का कुछ मुआवजा मिल सके।
बस्तर के नक्सल मामलों में गिरफ्तार किए जाने वाले बेकसूर आदिवासी तो बेकसूर रहते हैं, लेकिन बहुत से लोग इतने खुशकिस्मत नहीं रहते, और उन्हें सुरक्षाबल गांव-जंगल में ही बिना किसी कुसूर के मार गिराते हैं। हाल के बरसों में ऐसे बड़े-बड़े कई मामले सामने आए हैं, और न्यायिक जांच के निष्कर्ष की शक्ल में सामने आए हैं जिनमें सुरक्षाबलों के हाथों बेकसूरों की मौत स्थापित हुई है। ऐसे ही बस्तर में इस पहलू पर भी सोचने की जरूरत है कि नक्सलियों को हथियार डालने पर कई तरह की मदद की सार्वजनिक घोषणा सरकार बरसों से करती आई है। हर कुछ दिनों में नक्सलियों का आत्मसमर्पण दिखाया जाता है, और वे असली नक्सली हों, या कि सरकारी आंकड़े बढ़ाकर जनधारणा के लिए दिखाए गए नक्सली हों, उन्हें मुआवजा मिलता है, पुनर्वास का मौका मिलता है। जब हथियारबंद जुर्म करने वाले नक्सलियों को भी पुनर्वास का मौका मिलता है, तो फिर जांच एजेंसियों और अदालतों के शिकार ऐसे बेकसूर आदिवासियों को मुआवजा और पुनर्वास क्यों नहीं मिलना चाहिए? छत्तीसगढ़ सरकार इस बारे में देश में एक मिसाल पेश कर सकती है कि वह जेलों से बेकसूर छूटने वाले लोगों को उनके विचाराधीन बंदी रहने के दिनों की न्यूनतम मजदूरी जितनी रोजी दे। यह रकम पैसे वाले कैदियों के लिए किसी काम की नहीं रहेगी, लेकिन गरीब कैदियों के लिए यह जरूर काम की होगी। सरकार इसे केवल गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों के लिए शुरू कर सकती है, और इससे लोकतांत्रिक सरकार की न्याय व्यवस्था की चूक या कमजोरी पर एक जुर्माना लगेगा, और सबसे गरीब परिवारों पर गिरी हुई बिजली से उन्हें थोड़ी सी राहत मिलेगी। अगर छत्तीसगढ़ सरकार ऐसी पहल करती है तो धीरे-धीरे देश के बाकी प्रदेशों की सरकारों को भी इस रास्ते चलना पड़ेगा क्योंकि गरीबी की रेखा के नीचे के परिवार इस हालत में भी नहीं रहते हैं कि वे परिवार के एक कमाऊ सदस्य के बरसों के लिए चले जाने पर रोजाना की आम जिंदगी के इंतजाम कर सकें। ऐसे तमाम परिवारों में बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, बीमारों का इलाज नहीं हो पाता है।
जिस बस्तर में रोजाना ही सरकार आत्मसमर्पित नक्सलियों को नगदी प्रोत्साहन देने की खबरें जारी करती है, और उनके पुनर्वास का कई तरह का इंतजाम करती है, वहां पर सुरक्षाबलों के हाथों जेल जाने वाले बेकसूर साबित हुए लोगों को तो एक मुआवजा मिलना ही चाहिए, वरना आज के लोकतांत्रिक इंतजाम में तो आदिवासियों का भरोसा ही इस व्यवस्था से उठते चले जाएगा, और उन्हें लगते रहेगा कि हथियार उठाने पर ही सरकार मदद करती है, उसके बिना सरकार की नजर में वे या तो गोली मार देने लायक हैं, या जेलों में बंद कर देने लायक हैं। किसी एक इलाके में, किसी एक तबके में सरकार की नीतियां एक सरीखी रहनी भी चाहिए, और दिखनी भी चाहिए।
उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक मॉल को अचानक ढेर सी शोहरत और उतनी ही बदनामी मिल रही है। किसी भी कारोबारी के लिए मुफ्त की पब्लिसिटी, बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ, किस्म की होती है। और केरल के एक मुस्लिम कारोबारी के बनाए हुए सैकड़ों करोड़ के इस मॉल का नाम एकाएक पूरे हिन्दुस्तान की जुबान पर चढ़ गया है। लुलु मॉल में कुछ लोगों ने जाकर अचानक ही गलियारे में नमाज पढ़ी, या नमाज पढऩे का नाटक किया, उसका वीडियो बनाया गया, उसे चारों तरफ फैलाया गया, और अब उत्तरप्रदेश के हिन्दूवादी संगठन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से इस मॉल पर बुलडोजर चलाने की मांग कर रहे हैं, जिसका कि उद्घाटन ही योगी ने किया था। शुरुआती खबरों से जो पता लगता है उनमें इस मॉल में आकर नमाज पढऩे का यह नाटक किया गया था क्योंकि इसे कुल 18 सेकेंड तक किया गया, जैसी कि कोई नमाज नहीं होती है। जाहिर तौर पर इसका मकसद मॉल को बदनाम करना, और साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करना है। अब नमाज के इस नाटक के बाद हिन्दूवादी संगठन वहां हनुमान चालीसा पढऩे पहुंच गए, और पुलिस के जिम्मे इन्हीं सबको काबू करने का काम रह गया है।
हिन्दुस्तान में अब हर दो-चार दिन में कोई न कोई साम्प्रदायिक या भावनात्मक मामला इस तरह उठते दिखता है जिससे कि जिंदगी के असल मुद्दे दब जाएं। गांधी की स्मृति में बनी राष्ट्रीय सरकारी समिति की पत्रिका का ताजा अंक अभी सावरकर की स्तुति में आया है, और देश-दुनिया के गांधीवादी हक्का-बक्का हैं कि क्या गांधी को ये दिन देखना भी नसीब में लिक्खा हुआ था? फिर यह भी हो रहा है कि कल से जब देश में आटे-दाल के भाव बढऩे थे, और हर गरीब की रसोई में परिवार के बाकी लोगों के साथ बैठकर जीएसटी खाना खाने लगा है, तब देश भर में हो रहे हाहाकार को खबरों से पीछे धकेलकर 18 सेकेंड की नमाज और उसके मुकाबले हनुमान चालीसा टीवी स्क्रीन पर छाई हुई हैं। मीडिया और राजनीति की जुबान में इसे स्पिन डॉक्टरी कहते हैं, कि चर्चा में छाए मुद्दों का रूख मोड़ देना, और वहां पर दूसरे मुद्दों को ले आना। आज जब हिन्दुस्तान के हर गरीब और मध्यमवर्गीय घर के चूल्हों पर खतरा आया हुआ है, हर गरीब की थाली से कुछ कौर छीन लिए गए हैं, जब आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में किसी केन्द्र सरकार ने पहली बार सबसे गरीब की सबसे बुनियादी जरूरत से भी खून चूसने का काम किया है, उस वक्त देश के एक बड़े तबके को नमाज और हनुमान चालीसा में उलझाने का काम अनायास नहीं हो सकता। जिस साजिश के तहत ऐसा वीडियो बनाया गया, जिस साजिश के तहत इसका संगठित और सुनियोजित विरोध किया गया, उसी साजिश के तहत देश के दुख-दर्द को ढांकने का काम भी हो रहा है, खबरों के पन्नों से अनाज की जगह छीनी जा रही है।
लेकिन लोकतंत्र, चाहे वह जिस हद तक भी हिन्दुस्तान में बाकी हो, के तहत सत्ता से परे की बाकी ताकतों को भी ऐसे मौके पर कुछ करने की गुंजाइश हासिल रहती है। आज यह गुंजाइश जनजागरण की है। आज अगर हिन्दुस्तान की विपक्षी राजनीतिक ताकतें, मीडिया का जो भी छोटा-मोटा हिस्सा अब भी जनहित के लिए फिक्र रखता हो वह, सोशल मीडिया पर असरदार मौजूदगी रखने वाले और सही राजनीति की वकालत करने वाले लोग, ऐसे कई तबके हैं जो कि इस तरह की स्पिन डॉक्टरी का भांडाफोड़ कर सकते हैं, और लोगों को जागरूक कर सकते हैं कि कुछ खास मौकों पर कुछ जानी-पहचानी ताकतें राष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक, भावनात्मक, और उन्मादी मुद्दों को लेकर क्यों सक्रिय हो जाती हैं, और जिंदगी की किन तकलीफदेह हकीकतों को दबाना उनकी नीयत रहती है। लोकतंत्र में जितनी जिम्मेदारी सरकारी काम करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी की रहती है, उतनी ही जिम्मेदारी सरकारी नाकामयाबी को उजागर करने के लिए विपक्ष और देश के जागरूक तबकों की रहती है। फिर यह भी है कि अब देश की संसद में आलोचना के जिन विशेषणों पर रोक लगाने की खबरें आ रही हैं, उनसे परे संसद के बाहर की खुली हवा में तो उन तमाम विशेषणों का इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि वे सारे के सारे लोकतांत्रिक हैं। सत्ता अपने असर से संसद के भीतर चाहे जो करवा ले, संसद के बाहर खुली हवा में लोग आज भी बोल सकते हैं, चाहे कुछ खतरा उठाकर ही क्यों न बोलना हों।
लोगों को यह याद रखना चाहिए कि बीते बरसों में कब-कब किन बातों को पहले पन्ने से धकेलकर भीतर के पन्नों पर भेजने के लिए, या टीवी के समाचार बुलेटिनों से पूरी तरह बाहर करवाकर किसी फर्जी मुद्दे पर नाटकीय बहस की नूरा कुश्ती करवाने के लिए साजिशें की गई हैं। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से देश के जागरूक और जिम्मेदार तबके को भी अपनी बात कहने और लिखने की गुंजाइश हासिल है, जो कि अखबारी पन्नों से तकरीबन गायब हो चुकी है, और टीवी के पर्दों पर जो कभी थी भी नहीं। इसलिए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। फैज़ की कही बात को आज के संदर्भ में देखें तो यह कहा जा सकता है कि बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल कि सोशल मीडिया अब तक फ्री है।
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हिन्दुस्तान में आज से रोजमर्रा की चीजों और कामकाज पर टैक्स का ढांचा बदल रहा है। सामानों की ऐसी लंबी फेहरिस्त है जिस पर लोगों को अधिक जीएसटी चुकाना होगा। अखबारों की सुर्खियां इस बारे में बताती हैं कि गेहूं, चावल, आटा, मैदा जैसी अधिकतर चीजें आज से महंगी हो जाएंगी फिर चाहे वे किसी ब्रांड की चीजें न हों, और सिर्फ पैकेट में बंद की हुई चीजें हों। खाने-पीने की दूसरी चीजों, जैसे मुरमुरा, दही, पनीर, मखाना, सोयाबीन, मटर पर भी अब जीएसटी लगना शुरू हो रहा है, और पांच फीसदी जीएसटी लगेगा। केन्द्र सरकार को पता नहीं कितने छोटे-छोटे सामानों पर गौर करके जीएसटी लगाने या बढ़ाने की फुर्सत थी, अब चाकू, कागज काटने के चाकू, और पेंसिल शार्पनर पर भी अठारह परसेंट जीएसटी लगेगा। और तो और शवदाहगृह बनाने के वर्कऑर्डर पर अठारह फीसदी जीएसटी लगेगा। हजार रूपये से नीचे रोज वाले होटल कमरों पर भी अब बारह फीसदी जीएसटी लगना शुरू हो रहा है, और पांच हजार रूपये रोज से अधिक के अस्पताल के कमरों पर भी जीएसटी थोपा गया है। लोगों का इस बारे में कहना है कि आजादी के बाद पहली बार अनाज पर टैक्स लगाया गया है।
सरकारों को वैसे तो अपनी मर्जी से टैक्स लगाने की आजादी रहती है लेकिन आज देश वैसे भी महंगाई से कराह रहा है, पेट्रोल-डीजल और गैस के दाम अकल्पनीय हो चुके हैं, और जो लोग केन्द्र सरकार को धार्मिक भावना से पूजते हैं उनके अलावा कोई भी लोग इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। पूरे देश भर में रेलगाडिय़ां जगह-जगह रद्द हो रही हैं, रेलभाड़ा बढ़ते जा रहा है, प्लेटफॉर्म टिकट और से और महंगी होती जा रही है। और अब खाना-पीना, बिल्कुल ही आम घरेलू और मध्यमवर्गीय खाना-पीना जिस हिसाब से महंगा होते चल रहा है, वह लोगों की बर्दाश्त के बाहर है। देश में बहुत बुरी तरह बेरोजगारी है, लोगों की तनख्वाह जहां-तहां घटा दी गई है, वेतन और मजदूरी का भुगतान समय पर हो नहीं रहा है, और ऐसे में बुनियादी जरूरतों का लोगों की पहुंच से बाहर होते जाना पता नहीं लोग कैसे बर्दाश्त करेंगे। भारत के ठीक बगल में श्रीलंका आज बेकाबू आर्थिक बदहाली के चलते एक अराजक हालत में पहुंच चुका है, पाकिस्तान में भी चीजें सरकार के काबू से बाहर हो गई हैं, और इनके बीच बसा हिन्दुस्तान आज से यह नई तकलीफ भुगतने वाला है। ऐसे में सोशल मीडिया पर तैरते वे तमाम पोस्टर जायज लगते हैं जो कि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के वक्त गैस सिलेंडर पांच सौ रूपये के भीतर का रहने पर भी स्मृति ईरानी सिलेंडर लेकर सडक़ों पर चीखती दिखती थीं, और अब वही सिलेंडर ग्यारह सौ रूपये से अधिक का होने के बाद भी सरकार बेफिक्र है क्योंकि जनता धार्मिक, साम्प्रदायिक, और भावनात्मक मुद्दों में डूबी हुई है, और उसे अपनी जिंदगी के दुख-दर्द का अहसास कम होने के लिए एक राष्ट्रवादी एनस्थीसिया मिल गया है।
लेकिन लोगों का क्या होगा? सबसे गरीब तबका तो फिर भी रियायती अनाज पाकर अपनी जरूरतों को बुरी तरह तंग रखकर जी लेता है, लेकिन मध्यमवर्गीय तबके को जो ताजा कोड़ा आज से लगने जा रहा है, उसके लिए उसके पास कोई मरहम भी नहीं है। ऐसा लगता है कि आज से आम हिन्दुस्तानी जिंदगी दस फीसदी महंगी होने जा रही है। यह सोचना अकल्पनीय है कि पेंसिल शार्पनर पर अठारह फीसदी टैक्स लगाने की बात भी कोई सरकार सोच सकती है। सबसे गरीब बच्चे के लिए भी पढ़ाई में जरूरी इस बुनियादी सामान पर टैक्स लगाने का मतलब यह हुआ कि अब करोड़ों की कारों में चलने वाले लोगों पर लगाने के लिए कोई टैक्स बचा ही नहीं है?
आज हिन्दुस्तान की खबरों में जितना हिन्दुस्तान है, उतने का उतना श्रीलंका भी छाया हुआ है। इसलिए यह याद रखने की जरूरत है कि 2019 में अपार बहुमत पाकर जो सरकार सत्ता में आई थी वह आज 2022 में मुंह छुपाकर देश छोडऩे पर मजबूर हो गई है, और जनता वहां राष्ट्रपति भवन में घुसकर कब्जा करके बैठी है, और जनता का एक दूसरा हिस्सा जाकर प्रधानमंत्री के निजी घर को जलाकर खाक कर रहा है। बहुमत से आई सरकार भी भूख और अभाव को किसी सीमा तक ही लाद सकती है, और आज हिन्दुस्तान लगातार ऐसी तस्वीरों और वीडियो से लद गया है जिनमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोसते हुए रूपये के दाम गिरने को प्रधानमंत्री के गिरने के बराबर बता रहे थे, और आज वह रूपया एक डॉलर में अस्सी से भी अधिक चढ़ रहा है। हो सकता है कि महंगाई को झेलते हुए हिन्दुस्तानी जनता के बीच अगले आम चुनाव के पहले हकीकत का एक ऐसा अहसास लौटकर आए जो कि राष्ट्रवादी उन्माद और झूठे गौरव के चमकते रंगीन बुलबुले में पिन चुभा दे।
देश की विपक्षी पार्टियों और जनसंगठनों को महंगाई के इस ताजा बोझ के खिलाफ एक होकर आवाज उठानी चाहिए। एक तरफ जब देश की हर सार्वजनिक सम्पत्ति बेची जा रही है, जब देश के कुछ चुनिंदा बड़े कारोबारी अपनी दौलत में गुणा करते जा रहे हैं, तब सबसे आम लोगों की पीठ और कमर तोड़ देने वाला यह बोझ बर्दाश्त करने लायक नहीं है, और जनता की फिक्र करने वाले जितने भी तबके हैं उन्हें मिलकर इस ताजा बढ़ोत्तरी को पूरी तरह खारिज करवाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर यह आजाद भारत में बुनियादी जरूरत के अनाज पर, खान-पान पर पहली बार लगने वाला टैक्स है, तो यह आजादी का किस तरह का अमृत महोत्सव है?
यह नौबत देखकर अदम गोंडवी का लिखा याद आता है- सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है?
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पिछले चार दिनों में दो खबरें विचलित करने वाली आई हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों के बीच काम करने वाले एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को सुप्रीम कोर्ट में उनकी लगाई हुई एक जनहित याचिका की सजा दी गई है। 2009 में बस्तर में सत्रह आदिवासी मारे गए थे, इसे लेकर आदिवासी समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह शक और आरोप था कि इसके पीछे सुरक्षा बल थे। इस पर उसी इलाके की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करना निरर्थक मानकर हिमांशु कुमार सुप्रीम कोर्ट गए थे, और वहां से दस-बारह बरस बाद अब अदालत ने यह जनहित याचिका खारिज कर दी है, और इसे दायर करने के लिए हिमांशु कुमार पर पांच लाख रूपए का जुर्माना लगाया है। साथ ही अदालत ने छत्तीसगढ़ सरकार या सीबीआई को यह सुझाव भी दिया है कि वे याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश रचने, और पुलिस और सुरक्षाबलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए कार्रवाई भी कर सकते हैं, जिनमें दूसरी धाराएं भी लगाई जा सकती हैं। यह याचिका लगाने वाले हिमांशु कुमार तो थे ही, उनके साथ इस मानवसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के लोग भी थे। इस फैसले के बाद हिमांशु कुमार ने कहा है कि यह फैसला बेइंसाफ है, और वे इसका विरोध करते हुए जेल जाएंगे, उनके पास ऐसा जुर्माना पटाने के पैसे नहीं हैं, और वे जुर्माना पटाना भी नहीं चाहते। उन्होंने गांधी की मिसाल देते हुए कहा है कि अन्याय का विरोध करना जरूरी है। देश भर से सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच पैदा बेचैनी सोशल मीडिया और बयानों में सामने आ रही है, इसकी एक दूसरी वजह यह भी है कि अभी कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात के एक दूसरे मामले में वहां के 2002 के दंगों को लेकर सडक़ से अदालत तक सक्रिय एक सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ फैसले में सरकार को सुझाव दिया था कि वह तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ मुकदमा चला सकती है, और गुजरात सरकार ने आनन-फानन, अगले ही दिन तीस्ता के खिलाफ जुर्म दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया। लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ इस तरह की बात सुझाना अटपटा भी लगा है, लेकिन हम अभी उसकी कानूनी बारीकियों पर जाना नहीं चाहते हैं, देश में सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के रूख से पैदा हुई फिक्र की बात करना चाहते हैं।
आज के ही एक और समाचार को साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में दंतेवाड़ा के एनआईए कोर्ट ने दो दिन पहले एक फैसला सुनाया है जिसमें वहां के 121 आदिवासियों को बरी किया गया है जो कि एक नक्सल हमले में भागीदार होने के आरोप में यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत पांच बरस से जेल में बंद थे। बुर्कापाल हमला नाम का यह बड़ा माओवादी हमला सीआरपीएफ के 25 लोगों को मारने वाला था, और इसी हमले के आरोप में 121 स्थानीय आदिवासियों को भी गिरफ्तार करके जेल में डाला गया था। अब अदालत ने पाया है कि इनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं थे, और यह बात भी याद रखने की है कि इन पांच बरसों में इन्हें जमानत भी नहीं मिली थी। अदालत ने कहा है कि इन लोगों के खिलाफ न तो कोई सुबूत साबित हुए और न ही कोई बयान, और एनआईए यह भी नहीं दिखा पाया कि इन लोगों का नक्सलियों से या इस हमले से कोई लेना-देना था। अब सवाल यह है कि इसी बस्तर में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच पिसते हुए गरीब आदिवासियों के हक के लिए लडऩे वाले हिमांशु कुमार को भाजपा और कांग्रेस दोनों की राज्य और केन्द्र सरकारें मिलकर नक्सली साबित करने का मुकदमा चलाती हैं, या उनकी जनहित याचिका को खारिज करवाते हुए उन्हें बदनीयत साबित करती हैं, तो फिर देश में और राजनीतिक ताकतें बचती कौन सी हैं जो कि आदिवासियों या सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ रहमदिली दिखाएं? ये दोनों फैसले देश में सामाजिक और सरकारी अन्याय के खिलाफ अदालत तक कोशिश करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का हौसला खत्म करने वाले साबित हुए हैं, और अब लोगों को यह लग रहा है कि सरकारी बेइंसाफी, सरकारी हिंसा के खिलाफ अदालत तक की जाने वाली लोकतांत्रिक कोशिश उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। खासकर बस्तर के बारे में देखें तो वहां पर केन्द्र सरकार और राज्य के सुरक्षाबल दोनों ही सरकारों में अलग-अलग पार्टियों का राज रहने पर भी आदिवासियों पर जुल्म के मामले में एक ही सोच चलती आ रही है। जब कोई पार्टी विपक्ष में रहे तब तो उसका मुंह थोड़ा-बहुत खुल भी जाता है, लेकिन सत्ता में रहते हुए पार्टियों का रूख एक सरीखा रहता है, और हालात बहुत भयानक साबित हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ में मौजूदा कांग्रेस सरकार के आने के बाद बस्तर के सार्केगुड़ा में सत्रह बेकसूर आदिवासियों को माओवादी बताकर मुठभेड़ में मारा गया था, और 2019 में एक न्यायिक जांच में उन्हें बेकसूर पाया गया। इसके अलावा 2013 में एड्समेटा में आठ आदिवासियों को नक्सली बताकर मारा गया था, और न्यायिक जांच में 2022 में उन्हें बेकसूर पाया गया। इन दोनों जांच आयोग की रिपोर्ट पर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है, और न ही उसका कुछ करने का इरादा दिख रहा है। अब भाजपा के राज के वक्त थोक में बेकसूर आदिवासियों को इस तरह मारने पर भी आज की कांग्रेस सरकार अगर कुछ नहीं करती है, तो फिर लोकतंत्र इंसाफ के लिए डेमोक्रेटिक, रिपब्लिकन, और कंजरवेटिव पार्टियों का आयात तो नहीं कर सकता। जब देश की दोनों बड़ी पार्टियां, या उनकी गठबंधन सरकारें, और देश की अदालतें, इन सबका कुल जमा रूख बेकसूर आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के हक खारिज करने का हो जाए, जब सामाजिक कार्यकर्ता सबकी आंखों में खटकने लगें, जब सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पांच लाख जैसा बड़ा जुर्माना लगाया जाए, उनके खिलाफ कार्रवाई करने का सुझाव सरकारों को दिया जाए, तो फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं से नफरत करने वाली सरकारों को और चाहिए क्या?
देश की आज की हवा लोकतंत्र के दो बड़े स्तम्भों के बीच एक अभूतपूर्व हमखयाली दिखा रही है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक मुद्दों पर सरकार और अदालत की समझ एक हो गई है। यह एकता, एकजुटता, या हमखयाली लोकतंत्र को खत्म करने का माहौल बना चुकी है। इस देश में अब कोई भी महफूज नहीं रह गए हैं, और खासकर वे लोग जो कि कमजोर लोगों के हक के लिए ताकतवर सरकारों, बड़ी-बड़ी पार्टियों, और उनके अन्नदाता कारोबारियों को किसी भी वजह से नाराज करने का काम करते हैं। लोकतंत्र के लिए ये ताजा अदालती फैसले शर्मनाक भी हैं, और हौसला तोडऩे वाले भी हैं।
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बाम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा है कि वह राजनेताओं से यह क्यों नहीं कह सकती कि वे अवैध होर्डिंग्स पर अपनी तस्वीर न लगवाएं। पूरे प्रदेश में अवैध होर्डिंग और बैनर ने सार्वजनिक जगहों को तबाह कर रखा है, खूबसूरती तो खत्म हुई ही है, कई जगहों पर ऐसे होर्डिंग और बैनर से फंसकर दुर्घटनाएं भी होती हैं। मोटेतौर पर राजनीतिक दलों का नाम और उनके नेताओं का चेहरा उन पर दिखता है। हाईकोर्ट ने इनके खिलाफ सरकार को आदेश दिया था लेकिन सरकार ने उस पर कोई अमल नहीं किया। सार्वजनिक जगहों पर बैनर-होर्डिंग के अलावा जगह-जगह पोस्टर, स्वागत द्वार, और इश्तहार के दूसरे तरीकों के बारे में भी इस मामले में सुनवाई हो रही है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले चेन्नई में 23 बरस की एक युवती पर सडक़ के डिवाइडर पर लगाया गया एक होर्डिंग गिर गया था, और इसके बाद वह सडक़ पर गिरी तो एक ट्रक ने उसे कुचल दिया, और उसकी मौत हो गई। उस वक्त मद्रास हाईकोर्ट ने यह कहा था कि अवैध होर्डिंग्स के खिलाफ आदेश दे-देकर वह थक गया है।
इन दो महानगरों के हाईकोर्ट का अफसोस देखकर यह बात समझ आती है कि अपने चेहरों के अवैध होर्डिंग लगाने वाले नेताओं की सेहत पर हाईकोर्ट के किसी ऑर्डर का कोई फर्क नहीं पड़ता। ठीक उसी तरह जिस तरह कि जिला प्रशासन के आदेश का शादियों और बारातों पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लाउडस्पीकरों पर हाईकोर्ट के आदेश का कोई फर्क नहीं पड़ता, ठीक उसी तरह कि चुनाव आयोग की खर्च सीमा का चुनावी खर्च पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह लोकतंत्र कतरे-कतरे में धीरे-धीरे नाकामयाब और बेअसर होते चल रहा है। आज सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिक ताकतें जिस हमलावर अराजकता के साथ हावी हो चुकी हैं, उनसे निपटने के लिए पूरे देश की पुलिस कम पड़ेगी। आज हिंसक हमलावरों की मेहरबानी यही है कि वे किसी प्रदेश में एक साथ हमला नहीं कर रही हैं, वरना देश का कोई प्रदेश इन ताकतों से न जूझ सके। इसी तरह सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार की अराजकता, सडक़ों पर गैरकानूनी गाडिय़ों, खूनी रफ्तार, और ओवरलोड की अराजकता, खुद सरकारों की बदनीयत की कार्रवाई की अराजकता देश को आज तबाह कर रही हैं। ऐसे में शहरी सार्वजनिक जगहों पर गैरकानूनी होर्डिंग्स का मामला बाकी चीजों के मुकाबले छोटा जुर्म है, और कम हिंसक है, लेकिन यह हजारों करोड़ सालाना का दो नंबर का धंधा है। जिन होर्डिंग्स से म्युनिसिपलों या सरकारी संपत्तियों को मोटी रकम मिलनी चाहिए, उनका नाम भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आता, क्योंकि उनके पीछे नेताओं का हाथ रहता है, और सामने उनका चेहरा। देश के कमोबेश हर राज्य में ऐसा ही ढर्रा चला हुआ है, और जब तक अदालत से किसी अफसर को सजा मिलने का खतरा न हो, किसी अफसर को अदालत का कोई डर नहीं रहता।
आज सार्वजनिक अराजकता को बचाना और बढ़ाना स्थानीय नेताओं के बाहुबल का एक सुबूत रहता है कि वे अपनी कितनी मनमानी कर सकते हैं। उनके समर्थकों के लिए यह शक्तिप्रदर्शन का एक जरिया रहता है जिससे वे इलाके के कारोबारियों और सरकारी अफसरों के सहम जाने की उम्मीद करते हैं। लोगों को जिस सरकारी दफ्तर पर दबाव बनाने की जरूरत रहती है, उसी के आसपास वे उस विभाग के मंत्री के साथ अपनी तस्वीर के होर्डिंग लगाते हैं, ताकि उनके जाने पर अफसर को यह पता रहे कि वे मंत्री के किसी करीबी से बात कर रहे हैं। महाराष्ट्र तो फिर भी जागरूक जनता का प्रदेश है, और लोग सार्वजनिक मुद्दों को लेकर अदालत तक जाते हैं, और इलाके के मवाली-नेताओं से हिंसा का खतरा भी उठाते हैं। छत्तीसगढ़ सरीखे प्रदेश सार्वजनिक जनचेतना से पूरी तरह मुक्त हैं, और यहां पर अराजकता सिर चढक़र बोलती है। इक्का-दुक्का जनसंगठन किसी मामले में हाईकोर्ट तक पहुंचते भी हैं, तो भी वहां का हुक्म अफसर रद्दी की टोकरी में डालते हैं। अगर जनता के भीतर जागरूक लोगों के संगठन या अकेले जागरूक नागरिक भी सार्वजनिक मुद्दों को लेकर सरकार और अदालत तक पहुंचने का सिलसिला चलाएंगे, तो ऐसे प्रदेश भी राजनीतिक ताकत की गुंडागर्दी से आजाद हो सकेंगे। आज सार्वजनिक जगहों पर धर्म, राजनीति, सामाजिक संगठनों के नाम पर जिस तरह गुंडागर्दी दिखती है, उसमें कानून की इज्जत करने वाले आम लोग सबसे अधिक पिसते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। सत्ता पर काबिज लोग वोटों के फेर में लोगों में अराजकता को बढ़ाते चलते हैं, और उनके बीच अपनी ताकत भी दिखाते चलते हैं। जनता के बीच के लोग इसके खिलाफ जनहित याचिकाएं दायर करें, तो धीरे-धीरे नेताओं और अफसरों की बददिमागी खत्म हो सकती है। और फिर एक बात समझने की जरूरत है कि जब जागरूकता आती है, तो वह सहेलियों सहित आती है। एक जागरूक समाज सरकारी तालाबों, बगीचों, और खेल मैदानों के कारोबारी इस्तेमाल के खिलाफ भी उठ खड़ा होगा, सरकारी पैसों की बर्बादी के खिलाफ भी आवाज उठाएगा, और भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लोग संगठित होंगे। जैसा कि लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार हासिल होती है, जैसी सरकार के वे हकदार होते हैं। इसलिए लोगों को हकदार बनकर दिखाना होगा, तो उन्हें कोई काबिल सरकार मिलेगी, और बेहतर सरकारी काम मिलेगा, और सार्वजनिक जगहें बेहतर होंगी। आज का मुर्दा समाज अपने बच्चों के लिए निजी घर-दुकान तो छोडक़र जा सकता है, लेकिन यह समाज शहर को एक कब्रिस्तान की तरह मुर्दा छोडक़र भी जाएगा। अराजकता के खिलाफ लोगों को खड़ा होने की जरूरत है। दुनिया का इतिहास यह बताता है कि बिना किसी स्वार्थ के जब लोग जुल्म के खिलाफ जुटते हैं, तो उनके साथ धीरे-धीरे उम्मीद से अधिक लोग आ जाते हैं। हर प्रदेश और हर शहर में लोगों को सार्वजनिक जगहों के ऐसे बाहुबली इस्तेमाल के खिलाफ पहले सरकार को लिखना चाहिए, और फिर वहां असर न हो, तो अदालत जाना चाहिए।
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तमिलनाडु के चार अस्पतालों को सरकार बंद करवा रही है जिन पर यह आरोप है कि उन्होंने सोलह बरस की एक लडक़ी की मां और उसके सौतेले पिता के साथ मिलकर उसके अंडे गैरकानूनी तरीके से निजी गर्भाधान मेडिकल सेंटरों को बेचे। तमिलनाडु सरकार ने अपनी जांच में छह अस्पतालों को ऐसा करने का गुनहगार पाया है जिनमें से एक केरल और एक आन्ध्र में भी हैं। जांच में यह पता लगा कि इस नाबालिग लडक़ी को कागजातों में जालसाजी करके, नकली आधार कार्ड इस्तेमाल करके शादीशुदा बालिग बताया गया, और उसके अंडे निकाले गए। भारत में मेडिकल सहायता से गर्भाधान को लेकर बनाए गए कानून बड़े साफ हैं। जांच में यह भी पता लगा कि अस्पताल के डॉक्टरों को यह मालूम था कि इस लडक़ी का आधार कार्ड फर्जी है, और किसी और आदमी ने उसका पति बनकर सहमति के कागजात पर दस्तखत किए थे। पुलिस ने इस लडक़ी की मां और सौतेले पिता को गिरफ्तार कर लिया है, और इस मामले से जुड़े दो और लोग भी गिरफ्तार हैं। इस नाबालिग लडक़ी ने अपनी शिकायत में कहा था कि 2017 से अब तक उसे आठ बार अस्पताल ले जाकर उसके अंडे निकाले गए। उसकी यह भी शिकायत है कि उसका सौतेला पिता पांच बरस से उसका यौन शोषण कर रहा है। किसी लडक़ी या महिला से निकाले गए ऐसे अंडे 25-30 हजार रूपये में खरीदकर गर्भाधान केन्द्र उनका इस्तेमाल करते हैं।
भारत में एक तरफ तो गर्भाधान से जुड़े हुए कानून बहुत कड़े हैं, और कई प्रदेशों में अब तक अंग प्रत्यारोपण जैसे जीवनरक्षक कानून बनाए ही नहीं गए हैं। छत्तीसगढ़ में भी इसके नियम बनाने के लिए एक कमेटी की चर्चा साल-छह महीने पहले हुई थी, उसके बाद से उसकी भी कोई खबर नहीं है। भारत में किराए की कोख, यानी सरोगेसी से बच्चे के जन्म को लेकर कानून बहुत कड़ा बना दिया गया है, और कड़े कानून के बीच छेद करके रास्ता निकालने का दाम मुजरिमों को हमेशा ही ज्यादा देना पड़ता है। किडनी प्रत्यारोपण देश में सबसे अधिक मांग वाली प्रत्यारोपण-सर्जरी है, और इस काम में भी बड़े-बड़े गिरोह लगातार लगे रहते हैं, कभी-कभी पकड़ाते भी हैं। लोगों को याद होगा कि आज से चौथाई सदी पहले जब किडनी ट्रांसप्लांट को लेकर देश में कोई कानून नहीं थे, और गरीब लोग अपनी जरूरत के लिए किडनी बेचने तैयार रहते थे, और इसी तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में एक पूरी बस्ती ऐसी है जिसके हर मकान में बदन पर चीरा लगे हुए लोग हैं जो कि किडनी निकालने के बाद का बचा निशान है। हिन्दुस्तान नए कानून बनाने और मौजूदा कानूनों को और अधिक कड़ा करने का शौक रखने वाला देश है। इसके बाद बहुत संगठित रूप से कानूनों को तोडऩे का सिलसिला शुरू होता है।
दरअसल इस देश में जिस संसद और जिन विधानसभाओं पर कानून बनाने का जिम्मा है, उनके भीतर दलबदल को रोकने के लिए जो कानून बनाया गया है, उसमें कम से कम एक तिहाई सदस्यों की शर्त को अधिक कड़ा करके कम से कम दो तिहाई कर दिया गया, और अब बड़े मजे से दो तिहाई लोग भी दलबदल के लिए जुट जा रहे हैं। कानून को बनाने का मकसद धरे रह गया, अब उसकी शक्ल यह हो गई है कि उसे तोडऩे के लिए बहुत बड़ी ताकत रखने वाले लोगों की जरूरत है। हर कानून कड़ा होते-होते कमजोर लोगों के तोडऩे लायक नहीं रह जाता, लेकिन सबसे बड़े बाहुबलियों के लिए इस देश में हर कानून को तोडऩे का विकल्प रखा गया है, और इसी के तहत देश के बड़े-बड़े अस्पतालों में इंसानी बदन के हिस्सों की बिक्री और उन्हें निकालने-लगाने के संगठित गिरोह काम कर ही रहे हैं।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि संसद और विधानसभाओं में ऐसे जटिल पहलुओं वाले कानूनों को बनाते समय जो चर्चा होनी चाहिए वह राजनीतिक गुटबाजी और सत्ता की जिद के चलते नहीं हो पाती है। सदनों में बहस का स्तर गिरता जा रहा है, बहस का वक्त घटते जा रहा है, और सांसद-विधायक इस बात के लिए उदासीन रहते हैं कि किसी खास विषय पर बहस करते हुए वे जानकारी लेकर और मुद्दे को समझकर आएं। नतीजा यह होता है कि कई कानून ऐसे बन जाते हैं जिन पर अमल मुश्किल होता है, जिनके बीच मुजरिमों के लिए रास्ते रहते हैं, और जिनसे कमजोर-गरीबों को दिक्कत होती है, और पैसों की ताकत इन कानूनों को तोड़ लेती है। चिकित्सा से जुड़े हुए बहुत से कानूनों का यही हाल है, संसद में बहस का वक्त पार्टियों के एक-दूसरे पर हमले में गुजर जाता है, सांसद ऐसे भाषण में जुट जाते हैं जिसका वीडियो उनके मतदाताओं पर असर डाल सके, और कानून की बारीकियों पर ठीक से चर्चा भी नहीं हो पाती।
जब देश की संसद और विधानसभाएं खुले दिमाग से विचार-विमर्श की संभावनाओं को पूरी तरह से कुचल देने के बाद ही काम करती हैं, तो यही होता है। ऐसे कानून बनते हैं जिसके तहत गरीब जरूरतमंद अपने बदन के हिस्सों को बेचते हैं, पैसे वाले उन्हें खरीदते हैं, और कानून इन अस्पतालों के गलियारों में पोंछा लगाता है। ऐसा लगता है कि इस देश में निजी चिकित्सा कारोबार का निर्वाचित प्रतिनिधियों और पार्टियों पर आर्थिक दबदबा इतना है कि उनके कारोबारी हितों के खिलाफ सदनों में चर्चा भी नहीं होती। अमरीका जैसे देश में तो हर कारोबार को अपनी बात से सांसदों को सहमत कराने वाले कानूनी लॉबिंग करने वाले लोगों को भाड़े पर रखने की छूट है। हिन्दुस्तान में ऐसी कोई छूट नहीं है, इसलिए सांसद-विधायक खरीदने कारोबारी खुद ही जाते हैं, और लोगों को याद होगा कि ऐसी खरीद-बिक्री के कुछ स्टिंग ऑपरेशन सामने आने के बाद कई सांसदों की सदस्यता भी खत्म हुई थीं। आज भी बहुत से कानून देखकर ऐसा लगता है कि उनके पीछे स्टिंग ऑपरेशनों से बचकर काम करने की कामयाबी रही है।
लेकिन हम किसी कानून के खिलाफ नहीं हैं, और छत्तीसगढ़ जैसे जो प्रदेश अंग प्रत्यारोपण के कानून के तहत नियम नहीं बना सके हैं, वे अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह हैं। ऐसे कानून न रहने से राज्य में जरूरतमंद मरीजों को भी उनके परिवार के लोगों से भी अंग नहीं मिल पा रहे हैं, और इसके लिए लोगों को महीनों तक दूसरे प्रदेशों के कई चक्कर लगाने होते हैं, और कागजी खानापूरी में बरसों निकल जाते हैं। इसलिए संसद और विधानसभाओं में जानकार बहस के बाद कानून बनना चाहिए, और उस पर अमल के लिए गैरसरकारी निगरानी-कमेटियां भी बननी चाहिए।
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सुप्रीम कोर्ट के रूख ने एक बार फिर हिन्दुस्तानियों को निराश किया है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश जैसे भाजपा राज्यों में सरकार को नापसंद अल्पसंख्यक मुस्लिम लोगों के किसी प्रदर्शन में शामिल होने, या उन पर दूसरे जुर्मों के आरोप रहने पर सरकार बुलडोजर से उनके घर, उनकी दुकानें गिरा दे रही हैं। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील पर अदालत ने नगर निगमों पर एक साथ कोई रोक लगाने से इंकार कर दिया क्योंकि उसका मानना है कि इससे नगर निगमों की ताकत घट जाएगी। जबकि इस मामले में याचिका से लेकर मीडिया की खबरों तक हर जगह यह बात साफ है कि सरकारों ने मोटेतौर पर छांट-छांटकर मुस्लिमों को निशाना बनाया है। उत्तरप्रदेश का एक ताजा मामला तो ऐसा है जिसमें आदमी के किसी प्रदर्शन में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उसकी बीवी के नाम का मकान गिरा दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने कानपुर और प्रयागराज प्रशासन की तरफ से पेश हुए सीनियर वकील हरीश साल्वे के तर्कों को मानते हुए अवैध निर्माण पर तोडफ़ोड़ का सामान्य प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट कोई एक दिल और एक दिमाग नहीं है। अलग-अलग जजों की बेंच रहती हैं, और किसी एक मुद्दे पर भी अलग-अलग बेंच का रूख अलग-अलग भी रहता है। कुछ बड़े संवैधानिक मामलों में अधिक बड़ी बेंच बनती है, और उनमें कुछ जज असहमति का फैसला भी लिखते हैं। इसलिए किसी एक मुद्दे पर पूरे सुप्रीम कोर्ट के रूख को एक मान लेना ठीक नहीं होगा। फिलहाल भाजपा-राज्यों में भाजपा पदाधिकारियों की चिट्ठी पर जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा करवाई गई ऐसी कार्रवाई सबके सामने है। टीवी कैमरों पर नेताओं और अफसरों के बयान यह बताते हैं कि किसे निशाना बनाना है, यह फैसला किसी न्यायसंगत पैमाने पर नहीं लिया जा रहा है, यह फैसला किसी साम्प्रदायिक तनाव या टकराव के बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों को निशाना बनाने के लिए लिया जा रहा है। अब म्युनिसिपल तो अधिकतर मामलों में यह बात साबित कर सकती है कि उसने इन लोगों को पहले से नोटिस दिए हुए थे। और दरअसल पूरे देश में म्युनिसिपलों का तौर-तरीका यही रहता है कि हर अवैध निर्माण, हर अवैध कब्जे पर नोटिस दे दिए जाते हैं, और फिर चुनिंदा नोटिसों पर आगे कार्रवाई होती है, बाकी नोटिसों को दबाकर रख दिया जाता है। इसी मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने अदालत को याद दिलाया कि दिल्ली में बने हुए सभी फॉर्महाउस लगभग अवैध हैं, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। और अदालत की इस बहस से बाहर देश में हकीकत यही है कि राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर म्युनिसिपल की तोडफ़ोड़ होती है। हमने कुछ महीने पहले दिल्ली में शिवसेना के साथ अभिनेत्री कंगना रणौत की जुबानी लड़ाई देखी है, और उसके बाद किस तरह कुछ घंटों के भीतर म्युनिसिपल कंगना रणौत के अवैध निर्माण पर टूट पड़ी थी, और बड़े वकीलों ने अगले कुछ घंटों के भीतर कंगना को अदालती राहत भी दिलवा दी थी। अभी भी उत्तरप्रदेश सरकार और वहां के स्थानीय प्रशासनों को जो अदालती राहत मिली है, उसके पीछे हरीश साल्वे जैसे बड़े वकील का वजन भी है जो कि ब्रिटेन और हिन्दुस्तान दोनों जगह वकालत करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश में बड़ा निराश इसलिए किया है कि इन जजों ने इस मामले को बहुत तकनीकी आधार पर देखा, और यह मान लिया कि बुलडोजर से तोडफ़ोड़ पर एक व्यापक रोक लगा देने से देश भर में स्थानीय संस्थाओं के अधिकार थम जाएंगे। यहां पर मुद्दा अवैध निर्माण नहीं था, यहां पर मुद्दा अल्पसंख्यक समुदाय के, सरकार को नापसंद चुनिंदा लोगों को निशाना बनाकर उन्हीं के निर्माण तोडऩा था, जो कि बहुसंख्यक समुदाय के उससे सौ गुना अधिक संख्या के अवैध निर्माणों जितने ही अवैध रहे होंगे। अदालत ने सरकार और स्थानीय संस्थाओं की मिलीजुली साम्प्रदायिक साजिश को देखने-समझने से भी परहेज किया, और इसे सिर्फ एक सरकारी काम में बाधा न डालने वाला मामला समझा। जब देश की सबसे बड़ी अदालत तक कोई मामला पहुंचता है, तो उसे जिला अदालत जैसे तंगनजरिये की कानूनी सीमाओं से ऊपर उठकर काम करना चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संविधान की भी व्याख्या अपने हिसाब से कर सकता है, और हाल के महीनों में जिस तरह डंके की चोट पर हिन्दू नेताओं ने मुस्लिमों के निर्माण गिराने की बात कही, और आनन-फानन वहां बुलडोजर पहुंचकर उन्हें जमींदोज करने में लग गए। मध्यप्रदेश में तो वहां के एक सबसे ताकतवर मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस ले-लेकर ऐसे इरादे की घोषणा की, और फिर वैसी ही कार्रवाई हुई। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की यह व्याख्या बेबुनियाद है कि यह म्युनिसिपल का मामला है। जब राज्य सरकार म्युनिसिपल को सामने रखकर म्युनिसिपल के अधिकारों का इस्तेमाल करके खुद फैसले लेती है, खुद उसकी घोषणा करती है, तो फिर म्युनिसिपल के अधिकारों की फिक्र सुप्रीम कोर्ट को क्यों करना चाहिए? और अभी के तो कम से कम इन दो राज्यों के मामले ऐसे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक जांच का आदेश देना था कि क्या ऐसे व्यापक तोडफ़ोड़ के पीछे साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह भी था। यह एक राष्ट्रीय फिक्र का मुद्दा है, और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह कन्नी काट ली है। महीनों से यह मामला अदालत में चल रहा है, और सुप्रीम कोर्ट्र के चाहे-अनचाहे इस मामले में सरकारों के घोर साम्प्रदायिक रूख को बढ़ावा मिल रहा है। यह बात जितने बड़े पैमाने पर मीडिया में सामने आ चुकी है, अदालत को अपनी निगरानी में किसी हाईकोर्ट जज से इसकी जांच करवा लेनी थी, और उसी एक आदेश से अगले कुछ महीने तो सरकारें साम्प्रदायिक बदला लेने का काम नहीं करतीं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से निराशा यही होती है कि जो बात पूरे देश को दिख रही है, और जो बात इन राज्यों के सत्तारूढ़ नेता और हिन्दू संगठनों के नेता लाउडस्पीकर पर कह रहे हैं, उनका नोटिस लेना भी सुप्रीम कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा।
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हिन्दुस्तान मेें आज गुरू पूर्णिमा मनाई जा रही है। लोग गुरू का मतलब आमतौर पर स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों से लगा लेते हैं, और उन्हें याद करके उनका आभार व्यक्त करते हैं। कुछ और लोग अपने धार्मिक या आध्यात्मिक गुरू को भी याद कर लेते हैं। हमारी तरह के कुछ तीखी जुबान वाले लोग सोशल मीडिया पर यह भी लिखते हैं कि गुरू पूर्णिमा पर उन तमाम लोगों का धन्यवाद जिन्हें देखकर यह सीखा कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए। और शायद यही आखिरी बात जिंदगी में अनजाने गुरू दिला जाती है, और लोगों के लिए जितनी अहमियत कुछ करना सीखने की रहती है, उतनी ही अहमियत कुछ न करना सीखने की भी रहती है। इस पर आज लिखने की कोई जरूरत नहीं थी अगर अमरीका से कल डोनल्ड ट्रंप और एलन मस्क के बीच तीखी जुबानी जंग सामने न आई होती। सोशल मीडिया पर छिड़ी इस बहस को देखकर गुरू पूर्णिमा पर यह समझ पड़ता है कि ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए, और बड़े कामयाब लोगों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए।
डोनल्ड ट्रंप का सोशल मीडिया पर डाला गया एक पोस्ट कहता है- जब एलन मस्क व्हाइट हाउस में मुझसे मिलने आया था, और अपने बहुत से कारोबारों के लिए मेरी मदद मांग रहा था, जिनमें ऐसी बैटरी-कारें थीं जो पर्याप्त दूरी नहीं चल पाती थीं, बिना ड्राइवर चलने वाली ऐसी कारें थीं, जो टकरा जाती थीं, या ऐसे रॉकेट थे जो कहीं नहीं जाते थे, जिनमें मेरी मदद के बिना एलन मस्क दो कौड़ी का होता, और जो मुझे बता रहा था कि वह मेरा कितना बड़ा प्रशंसक है, और मेरी रिपब्लिकन पार्टी का समर्थक है, और उस दिन मैंने अगर उसे कहा होता कि नीचे घुटनों पर खड़े होकर मुझसे भीख मांगो, तो उसने वह भी किया होता...।
इसके साथ ट्रंप ने राष्ट्रपति भवन में अपनी बैठी हुई, और एलन मस्क की खड़ी हुई तस्वीर पोस्ट की है। किसी को कितना नीचा दिखाया जा सकता है इसकी एक मिसाल ट्रंप ने पेश की, और दुनिया के सबसे ताकतवर देश की सबसे ताकतवर कुर्सी भी एक घटिया इंसान को किस तरह बेहतर इंसान नहीं बना सकती यह साबित किया है। लोगों को याद होगा कि ट्रंप अपने कार्यकाल के पहले से भी चुनाव प्रचार के दौरान ही अपनी घटिया सोच को ढेर सारी गंदी जुबान में उगलते आए हैं, और एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्हें राष्ट्रपति बनाने वाले वोटरों को भी अपनी चूक का अहसास हुआ। अभी अमरीका के इन दो सबसे बड़े लोगों के बीच ओछी जुबान में सार्वजनिक बहस चल रही है, और यह कहने की जरूरत नहीं होना चाहिए कि इसमें ट्रंप का मुकाबला करना कई एलन मस्क के लिए मिलकर भी मुमकिन नहीं है। अमरीकी राष्ट्रपति से मिलने आए किसी व्यक्ति ने उनसे क्या बात की, उसका जिक्र करके, या न की गई बातों का झूठा हवाला देकर एक भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति इस तरह घटिया जुबान में बात करे, यह गुरू पूर्णिमा के मौके पर एक अच्छी नसीहत हो सकती है कि ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए लोगों को इतना नीचे गिरने के पहले चार बार सोचना चाहिए। और यह बात अच्छी है कि एलन मस्क इस जुबानी गंदगी के मुकाबले में अपने आप पर काबू किए हुए हैं, और उन्होंने महज इतना कहा है कि यह समय ट्रंप के घर बैठने का है। उनका सूर्यास्त आ गया है, और उन्हें दुबारा चुनने का मतलब चीनी मिट्टी के बर्तनों की दुकान में बिफरे सांड को पालने सरीखा होगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव लडऩे की अधिकतम उम्र 69 बरस होनी चाहिए। मस्क के कहने का मतलब यह कि 76 बरस के ट्रंप राष्ट्रपति का अगला चुनाव लडऩे की अपनी बेहिसाब हसरत पूरी न कर पाएं। यह पूरी बहस इस बात से शुरू हुई थी कि ट्रंप ने एक भरी सभा में यह दावा किया था कि एलन मस्क ने उन्हें वोट दिया था, और एलन मस्क ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि यह सही नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि गंदगी की बहस, या बहस की गंदगी से बचना सीखने के लिए क्या हिन्दुस्तानियों को ट्रंप और मस्क की बहस, या ट्रंप की बकवास को सुनना जरूरी है? अमरीका से बढ़-चढक़र गंदी बहस हिन्दुस्तान में चल रही है, सडक़ों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चल रही है। एक कानूनी बहस के दौरान केन्द्र सरकार का वकील सुप्रीम कोर्ट में कहता है कि बजरंग मुनि जैसे सम्माननीय प्रमुख धार्मिक नेता को जब कोई नफरत फैलाने वाला कहे, तो उससे समस्याएं खड़ी होती हैं। अब जिसे केन्द्र सरकार का वकील सम्माननीय धार्मिक नेता कहता है, उसके वीडियो हफ्तों से चारों तरफ तैर रहे हैं जिनमें वह लाउडस्पीकर पर मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार करने का आव्हान कर रहा है। उसका एक नया वीडियो अभी और सामने आया है जिसमें वह कैमरे की आंखों में आंखें डालकर मुम्बई की किसी अभिनेत्री को धमकी दे रहा है कि वह आए तो बजरंग मुनि के ब्रम्हचारी उसे बलात्कार कर-करके गर्भवती करेंगे। अब इससे लोगों को गुरू पूर्णिमा पर तीन बातें सीखने मिलती हैं, पहली यह कि बजरंग मुनि नाम के इस नफरतजीवी जैसी घटिया सोच किसी इंसान को नहीं रखनी चाहिए, दूसरी बात यह कि किसी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के सरकारी वकील को ऐसे नफरतजीवी और हिंसक, और भारतीय कानून के मुताबिक मुजरिम इंसान को सम्माननीय धार्मिक नेता नहीं कहना चाहिए, और तीसरी बात यह कि किसी भी जरा सी जिम्मेदार सरकार को ऐसे हिंसक फतवे देने वाले को देशद्रोह के जुर्म में जेल में डालना चाहिए। अब गुरू पूर्णिमा के दिन देश के ऐसे ‘‘सम्माननीय धार्मिक नेता’’ से कुछ तो सीखना ही चाहिए।
गुरू पूर्णिमा किसी साक्षात और भौतिक गुरू से ही कुछ सीखने का मौका नहीं रहता, जिंदगी में हर दिन तरह-तरह के लोगों से पहले तो यही सीखना चाहिए कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए, इंसान को कैसा नहीं होना चाहिए। इंसान को कैसा होना चाहिए यह नसीहत तो स्कूल के वक्त से सीखने मिलती है, कैसा-कैसा नहीं होना चाहिए यह सीखने के लिए आगे की जिंदगी में थोड़ी सी हिम्मत भी लगती है, और बहुत सी समझ भी लगती है। इसलिए आज इस मौके पर चर्चा करते हुए अच्छे गुरूओं के मुकाबले घटिया मिसालों को याद करने की अधिक जरूरत है कि भले इंसानों को कैसा-कैसे नहीं होना चाहिए। हम सबकी जिंदगी में ऐसे बहुत से लोग रहते हैं जिनके कामों को देखकर, जिनकी बातों को देखकर यह साफ समझ पड़ता है कि वे कमीनगी की बातें हैं। उनका कोई वैज्ञानिक परीक्षण करने की भी जरूरत नहीं रहती। लेकिन इतनी समझ और इतना हौसला होना चाहिए कि खुद भी ऐसा कुछ करने से बचें, और अपने आसपास के लोगों को भी ऐसी मिसालें समझाते चलें कि जिंदगी में कभी ऐसा नहीं करना चाहिए।
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राष्ट्रपति चुनाव हफ्ते भर बाद है, और कई पार्टियों और गठबंधनों के रूख में थोड़ा-बहुत फर्क भी आते दिख रहा है। देश में सत्तारूढ़ एनडीए ने भाजपा की एक पुरानी नेता, आदिवासी महिला, द्रौपदी मुर्मू को तब उम्मीदवार घोषित किया जब एनडीए-उम्मीदवार का नाम जानने की राह देखते-देखते विपक्ष की डेढ़ दर्जन पार्टियों ने यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब आज जब दोनों ही उम्मीदवार देश भर के प्रदेशों में जाकर वहां पार्टियों के सांसदों और विधायकों से समर्थन मांग रहे हैं तब ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि एनडीए की पसंद संयुक्त-विपक्ष की पसंद पर खासी भारी पड़ रही है। विधायकों और सांसदों के वोटों की शक्ल में तो द्रौपदी मुर्मू को फायदा मिलते दिख ही रहा है, जो लोग उन्हें वोट नहीं देने वाले हैं, वे भी उन्हें एक बेहतर उम्मीदवार मान रहे हैं। अब कल तक यशवंत सिन्हा ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पदाधिकारी थे, और उन्होंने संयुक्त-विपक्ष प्रत्याशी बनने के लिए पार्टी से इस्तीफा दिया था। इस हिसाब से वे ममता बैनर्जी की पसंद थे, और उनकी उम्मीदवारी से विपक्ष में ममता बैनर्जी का महत्व भी बढ़ा था। और ममता बैनर्जी से खासे तनावपूर्ण रिश्ते होने के बावजूद कांग्रेस ने सबसे आगे बढक़र यशवंत सिन्हा का समर्थन किया था। लेकिन उसके बाद से लगातार पार्टियों और नेताओं का ऐसा रूख दिख रहा है कि द्रौपदी मुर्मू राजनीतिक और रणनीतिक रूप से एक बेहतर उम्मीदवार हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना में बगावत के बाद अब बंटवारे जैसी नौबत है, और विधायकों के बाद अब सांसदों में भी बंटवारा होते दिख रहा है, और उद्धव ठाकरे की भाजपा से सारी कटुता के बावजूद शिवसेना सांसदों का बहुमत द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में दिख रहा है। चूंकि वे ओडिशा से आती हैं, इसलिए एनडीए से तनावपूर्ण संबंधों के बावजूद बीजू जनता दल उनके लिए समर्थन घोषित कर चुका है। वे जिस झारखंड में राज्यपाल रही हैं, वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आज केन्द्र की मोदी सरकार के निशाने पर हैं, लेकिन इस आदिवासी-राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने अपनी पार्टी का समर्थन द्रौपदी मुर्मू के लिए घोषित किया है जबकि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में हैं।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन यशवंत सिन्हा वाली पार्टी की मुखिया ममता बैनर्जी ने कुछ दिन पहले द्रौपदी मुर्मू को लेकर यह बात कही कि अगर उन्हें एनडीए की उम्मीदवार का नाम पहले पता होता तो हालात बिल्कुल अलग होते। उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव होता तो इसे सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। आदिवासी-महिला या अल्पसंख्यक उम्मीदवार का नाम होने पर उनका (ममता बैनर्जी) रूख अलग होता। उन्होंने एक किस्म से मलाल के साथ यह कहा कि विपक्ष के गठबंधन में 16-17 पार्टियां हैं, और वे एकतरफा अपना कदम पीछे नहीं खींच सकतीं। मतलब यही है कि वे द्रौपदी मुर्मू को एक बेहतर उम्मीदवार मान रही हैं जबकि यशवंत सिन्हा खुद ममता बैनर्जी की पसंद हैं।
अब देश की बाकी चुनावी राजनीति से परे राष्ट्रपति के चुनाव में बहुत सी पार्टियां अपने व्यापक आम चुनावी गठबंधनों से परे हटकर भी वोट डालती हैं। एनडीए में रहते हुए कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को बाल ठाकरे ने इसलिए शिवसेना का समर्थन दिलवाया था क्योंकि वे महाराष्ट्र की थीं। और इसी तरह ममता बैनर्जी ने कांग्रेस से कटुता के बावजूद प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाने के लिए अपना समर्थन दिया था क्योंकि वे बंगाल के थे। और अब द्रौपदी मुर्मू को बहुत से लोग इसलिए समर्थन दे रहे हैं कि वे महिला हैं, आदिवासी हैं, और वे देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन सकती हैं। आज हिन्दुस्तान में महिला राष्ट्रपति का मुद्दा भी बड़ा है, और आदिवासी राष्ट्रपति का मुद्दा तो बड़ा है ही। इन दोनों को मिलाकर जब एनडीए के मुखिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया, तो वह एक राजनीतिक सूझबूझ की बात थी कि एनडीए के बाहर के भी कौन लोग उनके नाम का साथ दे सकते हैं। यह राजनीतिक होशियारी कोई बुरी बात नहीं है, और यह देश के प्रदेशों और राजनीतिक दलों की पसंद और उनकी मजबूरी को समझते हुए लिया गया एक ऐसा रणनीतिक फैसला था जो कि सही साबित हो रहा है। बाकी लोगों की बातों के अलावा ममता बैनर्जी ने जिस तरह का रूख द्रौपदी मुर्मू को लेकर दिखाया है, और आज इस पर चर्चा इसलिए भी की जा रही है कि द्रौपदी मुर्मू आज बंगाल में हैं, और वे सांसदों और विधायकों से मिलकर समर्थन की अपील करेंगी।
अपनी उम्मीदवार को जिताकर राष्ट्रपति बनवाने की नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की क्षमता पर किसी को वैसे भी कोई शक नहीं है, लेकिन उन्होंने जिस तबके की उम्मीदवार छांटी है, वह भी एक समझदारी का फैसला साबित हो रहा है। यशवंत सिन्हा की कई खूबियां हो सकती हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ लोगों का यह मानना है कि अटल सरकार का हिस्सा रहते हुए भी उन्होंने गुजरात दंगों के वक्त मोदी के बारे में कुछ भी नहीं कहा था। इसी तरह वे एनडीए सरकार का लंबे समय तक हिस्सा रहे, जिसमें वे भाजपा के बड़े पदाधिकारी थे लेकिन उन्होंने साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर कोई असहमति नहीं जताई। यशवंत सिन्हा का नाम कल तक भाजपा में रहने वाले और आज भाजपा के खिलाफ किस्म का भी है। ऐसे में हमेशा से भाजपा में रहीं द्रौपदी मुर्मू एक अधिक प्रतिबद्ध उम्मीदवार दिखती हैं।
राजनीति में आदर्श कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है वह बेहतर होता है। जो सामने पेश हैं, उनमें से बेहतर को छांटने का हक ही लोकतंत्र का चुनाव है। ऐसे में राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने के लिए भाजपा ने एक तुरूप का पत्ता छांटा, और आदिवासी-महिला को उम्मीदवार बनाया। इस पसंद के साथ ही कई पार्टियों ने एक-एक करके खुद होकर उन्हें समर्थन घोषित किया। राजनीति में ऐसी पसंद भी एक कामयाबी का सुबूत रहती है, और देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिले, इसका विरोध करना आसान नहीं है, फिर चाहे इस रबर स्टाम्प पोस्ट के लिए यह उम्मीदवार भाजपा की ही क्यों न हो। हफ्ते भर बाद मतदान के वक्त पता लगेगा कि उम्मीदवार के नाम ने किन-किन लोगों को एनडीए के बाहर से भी द्रौपदी मुर्मू के लिए अपनी ओर खींचा।
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जिंदगी में कई बार दर्द का अहसास खत्म हो जाता है। ऐसा कभी-कभी उस वक्त भी होता है जब किसी दूसरे के ऐसे दर्द को देखना हो जाए जिसकी कल्पना भी न की हो, जिसकी कल्पना करना आसान भी न हो, तो दिल-दिमाग ऐसे सुन्न हो जाते हैं कि किसी दर्द का अहसास नहीं रह जाता। कुछ ऐसा ही मध्यप्रदेश के मुरैना की एक फोटो और उसके वीडियो को देखकर हो रहा है। एक गांव का गरीब आदमी अपने दो बरस के बीमार बच्चे को इलाज के लिए मुरैना जिला अस्पताल लेकर आया था, वहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। अस्पताल से कोई शव वाहन नहीं मिला, तो यह आदमी, पूजाराम, अपने बेटे राजा के शव को लेकर अस्पताल के बाहर आया, और वहां से कोई एम्बुलेंस डेढ़ हजार रूपये से कम में ले जाने तैयार नहीं थी, और उसके पास उतने पैसे नहीं थे। उसने अपने साथ के आठ बरस के बेटे को सडक़ किनारे बिठा दिया, और उसकी गोद में छोटे भाई की लाश रख दी, और कोई सस्ती गाड़ी ढूंढने निकला। यह बड़ा भाई गुलशन कभी रो रहा था, कभी छोटे भाई के शव को लाड़ कर रहा था, और जैसा कि किसी सार्वजनिक जगह पर होता है चारों तरफ तमाशबीन थे, जो कि फोटो खींच रहे थे, और वीडियो बना रहे थे। चारों तरफ हॉर्न की आवाज के बीच अपने और भाई पर बैठती मक्खियों के बीच वह बच्चा समझ भी नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। इसका एक वीडियो ऐसा भी है जिसमें कोई आदमी इस बच्चे को कह रहा है- इधर देखो बेटा। जाहिर है कि उसके कैमरे में बच्चे के चेहरा साफ नहीं आ रहा होगा।
अब इससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है? यूक्रेन छोडक़र जाते हुए, या अफगानिस्तान और सीरिया छोडक़र जाते हुए कई बच्चों की, और उनकी लाशों की तस्वीरें बीच-बीच में आती हैं, लेकिन वे गृहयुद्ध या दूसरे देशों के साथ जंग से गुजरते हुए हालात के बीच की तस्वीरें हैं। वे तस्वीरें किसी ऐसे देश की नहीं हैं, किसी ऐसे प्रदेश की नहीं हैं, जहां पर मुख्यमंत्री प्रदेश की हर बच्ची का मामा होने का दावा करता है। जिस प्रदेश में बड़े-बड़े विख्यात तीर्थ हैं, जहां पर अर्धकुंभ होता है, जहां पर शक्तिपीठ है, और जहां जाने क्या-क्या नहीं हैं। यह बात किसी जंग से घिरी सरहद की नहीं है, यह बात एक विकसित प्रदेश के एक जिला मुख्यालय में गाडिय़ों के हॉर्न के बीच सडक़ किनारे की बात है। ट्विटर पर किसी ने इसकी तस्वीर के साथ यह पोस्टर ठीक ही बनाया है कि बच्चे की गोद में उसका भाई नहीं, हमारी, आपकी, हम सबकी लाश है।
यह कैसा प्रदेश है जहां पर सरकार का मुख्यमंत्री रात-दिन अपने को मामा कहते नहीं थकता! यह प्रदेश बड़े-बड़े तीर्थों वाला, और उनमें बड़े-बड़े चढ़ावे वाला प्रदेश है। इसी प्रदेश में सबसे बड़ा कारोबारी शहर इस बात के लिए विख्यात है कि वहां हर शाम से लेकर देर रात तक किस तरह खाने-पीने का कारोबार चलता है, और खाते-पीते घरों के लोग रात का खाने के बाद और खाने के लिए इन बाजारों में उमड़े रहते हैं। इस बच्चे के इर्द-गिर्द चारों तरफ घंटे भर गाडिय़ों के हॉर्न ही बज और गूंज रहे थे, लेकिन इसकी गोद में धरती का जो बोझ रखा हुआ था, उसे कोई अदना सी गाड़ी भी नसीब नहीं हो रही थी। लोग अक्सर लिखते हैं कि सबसे वजनी ताबूत वे होते हैं, जो सबसे छोटे होते हैं। अब आठ बरस के इस बच्चे की गोद में छोटे भाई की यह लाश एक पूरी धरती के वजन से कम तो क्या होगी?
इस पर लिखने का मकसद महज मध्यप्रदेश की सरकार को कोसना नहीं है। ऐसा हिन्दुस्तान के किसी भी प्रदेश में हो सकता है, कई जगहों पर होता भी है, लेकिन अगर वहां मोबाइल फोन के कैमरे नहीं रहते हैं, तो बात अनदेखी रह जाती है। सोशल मीडिया पर मध्यप्रदेश के मंत्रियों के नाम लिखकर लोग याद दिला रहे हैं कि इस प्रदेश में ऐसे मंत्री फलां-फलां पाखंडी बाबा को चढ़ावा चढ़ाते हैं, और वहां गरीब का यह हाल है। लेकिन मंत्रियों और सरकार की जिम्मेदारी से परे भी देखें, तो समाज की सोच को यह क्या हो गया है कि ऐसी तकलीफदेह तस्वीर देखते हुए भी लोग वीडियो बनाते रहे, लेकिन मदद को सामने नहीं आए। जिस हिन्दुस्तान में इन दिनों धार्मिक भावनाएं आहत होने के लिए एक पैर पर तैयार खड़ी रहती हैं, वहां पर लोगों की इंसानी भावनाएं किसी भी तरह से आहत नहीं होती हैं, और वे फौलादी मजबूती के साथ महज वीडियो रिकॉर्डिंग करती हैं। एक एम्बुलेंस या शव वाहन का इंतजाम न हो पाना एक सरकारी नाकामयाबी है, लेकिन धर्म के मामले में नाजुक भावनाएं किसी सामाजिक जवाबदेही के मानवीय मामले में फौलादी बन जाती हैं, तो वह एक अधिक फिक्र की बात है, और उस बारे में लोगों को सोचना चाहिए।
यह खबर, इसकी तस्वीर, और इसका वीडियो जिन लोगों को नहीं हिला पाया है, उन्हें शायद कुछ भी नहीं हिला पाएगा। ऐसे लोग ईश्वर पर अपनी सोच को इस हद तक केन्द्रित कर चुके हैं कि उनकी कोई संवेदना दूसरों के लिए बाकी रह गई नहीं दिखती हैं। लोगों का संवेदनाशून्य हो जाना नेताओं की आपराधिक लापरवाही के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है, और इससे यह आत्मगौरवान्वित भारतीय समाज कैसे उबर सकेगा, इसके बारे में सोचना चाहिए। वहां से गुजरते हुए, फोटो और वीडियो खींचते हुए सैकड़ों लोगों को जिस मानसिक चिकित्सा की जरूरत है, उस बारे में भी सोचना चाहिए। इस बारे में और क्या कह सकते हैं, सिवाय इसके कि हर किसी को अपने बच्चों को इस नौबत में सोचना चाहिए, और उसके बाद अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए।
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श्रीलंका का ऐसा हाल होगा यह कल तक भी लग नहीं रहा था। पहले भी लोगों ने प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के घरों पर हमला किया था, लेकिन कल जिस तरह राष्ट्रपति भवन पर एक साथ दसियों हजार लोगों ने धावा बोला, इमारत और कैम्पस के इंच-इंच पर कब्जा कर लिया, भूखे पेट वहां के पलंग और सोफा पर लेटकर सेल्फी ली, राष्ट्रपति के स्वीमिंग पूल में छलांग लगाई, वह एक बहुत अनोखा नजारा था। लोगों को इससे अफगानिस्तान का वह नजारा याद आया जब राष्ट्रपति देश छोडक़र भाग गए थे, और खाली राष्ट्रपति भवन में तालिबान घुसकर इसी तरह हर फर्नीचर पर काबिज हो गए थे। वहां वे तालिबान थे, यहां यह श्रीलंका की निहत्थी जनता है, लेकिन एक बात एक सरीखी है कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे भी राष्ट्रपति भवन छोडक़र अज्ञात जगह पर चले गए हैं, और अफगानिस्तान की तरह ही ऐसी भी चर्चा है कि वे देश छोडक़र जा चुके हैं। कुछ ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें श्रीलंका की नौसेना के जहाज पर कुछ लोग बदहवासी में दौड़-दौडक़र सूटकेस चढ़ा रहे हैं, और कहा जा रहा है कि यह राष्ट्रपति का सामान लादा जा रहा है। फिर मानो यह सब भी काफी नहीं था, तो शाम तक प्रदर्शनकारी जनता ने प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के निजी मकान को आग लगा दी जिसमें कि वे एक दिन पहले तक परिवार सहित मौजूद थे। अब पूरा घर सामान सहित राख हो चुका है। यह पूरा प्रदर्शन बिना किसी संगठित अगुवाई के भडक़ी हुई भूखी भीड़ अपनी मर्जी से कर रही है जिसमें तमाम तबकों के लोग शामिल हैं, छात्रों के साथ बौद्ध भिक्षु भी हैं, और ईसाई मिशनरियों के प्रमुख भी।
श्रीलंका एक समय लंबे गृहयुद्ध से गुजरा हुआ है, और वहां पर तमिलों और सिम्हलियों के बीच लंबा खूनी संघर्ष चला है। तमिल उग्रवादियों का श्रीलंका की फौज से भी लंबा हथियारबंद मोर्चा रहा, और एक वक्त भारत ने भी श्रीलंका की मदद के लिए शांति सेना भेजी थी, जिससे बौखलाए हुए तमिल टाइगर्स, लिट्टे ने आतंकी हमला करके राजीव गांधी की हत्या ही कर दी थी। ऐसे दौर से गुजरा हुआ श्रीलंका हाल के बरसों में बिना किसी हिंसक टकराव के चल रहा था, और सिर्फ वहां सरकारी नीतियों, गलतियों, और गलत कामों का नतीजा देश के दीवालिया हो जाने की शक्ल में सामने आया था। श्रीलंका आज पूरी तरह से दीवालिया हो चुका है, और उसके मददगार देश भी उसकी मदद कर-करके थक गए हैं, और अंतरराष्ट्रीय मदद अब सूखती चल रही है। देश में ईंधन के अलावा खाने का भी अकाल पड़ गया है, और लोग इस नौबत का कोई इलाज भी नहीं देख रहे हैं। भारत, चीन, बांग्लादेश समेत बहुत से देशों ने श्रीलंका की बड़ी मदद की है, लेकिन वह बिना तले वाले कुएं में मदद डालने सरीखा हो रहा है, उससे श्रीलंका किसी समाधान तक पहुंचने की हालत में भी नहीं है।
सरकार के गलत आर्थिक फैसलों से देश किस तरह तबाह हो सकता है, श्रीलंका इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल बना हुआ है, और शांत जनता भी किस तरह राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के बंगलों पर हमले कर सकती है, उन्हें जला सकती है, यह चौंकाने वाला रूख है। श्रीलंका पाकिस्तान की तरह घरेलू आतंक का शिकार देश नहीं है, वह म्यांमार की तरह फौजी सत्ता का भी शिकार नहीं है। लेकिन वहां के लोकप्रिय और निर्वाचित नेताओं ने अपनी मनमानी से जिस तरह की बेवकूफी के आर्थिक फैसले लिए, और श्रीलंका को गड्ढे में डाल दिया, उसी का नतीजा है कि आज अफगानिस्तान की तरह राष्ट्रपति को घर छोडक़र भागना पड़ रहा है, प्रधानमंत्री का घर जला दिया गया है, और प्रधानमंत्री के भतीजे के घर को भी तोडफ़ोड़ कर तबाह कर दिया गया है। ऐसे आसार हैं कि वहां अगले दो-चार दिनों में एक सर्वदलीय राष्ट्रीय सरकार बन सकती है, और वह कुछ कड़े फैसले लेकर देश को वापिस जिंदगी की तरफ लाने की कोशिश कर सकती है। यह काम तकरीबन नामुमकिन सा रहेगा, लेकिन इसके सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं है।
भारत सहित दूसरे कई देशों को यह सबक लेने की जरूरत है कि मनमाने आर्थिक फैसले देश को किस तरह तबाही तक पहुंचाते हैं, और जनता की नाराजगी कहां तक पहुंच सकती है। लेकिन ऐसे सबक के अलावा श्रीलंका के अड़ोस-पड़ोस के देशों को यह भी सोचना होगा कि वे श्रीलंका की क्या मदद कर सकते हैं। भारत की समुद्री सरहद से कुल 40 किलोमीटर दूर अगर एक देश भूख से मरने की नौबत पर आ जाएगा, तो भारत उसे अनदेखा करके भी नहीं बैठ सकता। भारत के साथ एक दूसरी दिक्कत यह है कि श्रीलंका में एक बड़ी तमिल आबादी भी है, और श्रीलंका से सबसे करीब भारत का तमिल राज्य तमिलनाडु है, जहां पर शरणार्थियों का आना शुरू भी हो गया है। घोषित या अघोषित शरणार्थियों की वजह से देश पर एक आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा, और शरणार्थियों के साथ कुछ दूसरे बुरे लोग भी यहां आ सकते हैं। भारत की श्रीलंका नीति तमिलनाडु राज्य की भावनाओं को बहुत अनदेखा करके भी नहीं चल सकती है।
अपने किसी पड़ोसी देश में हालात इतने खराब हो जाने पर तमाम देशों के लिए एक खतरा रहता है, और भारत श्रीलंका के खतरे से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश है। उसके सामने श्रीलंका की मदद करने का बोझ उठाने का एक विकल्प है, और यह मदद न करके वहां चीन के अधिक गहरे दाखिले का खतरा उठाने का भी विकल्प है। श्रीलंका बहुत बुरी तरह चीनी कर्ज में डूबा हुआ है, और चीन ऐसे नाजुक वक्त पर कोई बड़ी मदद करके श्रीलंका को अपने अधिक प्रभाव में ले सकता है, और वह भारत के लिए एक बड़ी फौजी सरदर्दी की बात होगी। आने वाले दिन श्रीलंका के लिए कोई तुरंत समाधान तो लेकर नहीं आएंगे, लेकिन समाधान की एक संभावना की तरफ पहला कदम जरूर बढ़ सकता है। श्रीलंका को तबाह करने वाले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को उनकी पार्टी को हटाना पड़ा है, वे पूरी बेशर्मी से अपनी कुर्सियों पर काबिज थे, ठीक उसी तरह जिस तरह कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आखिरी दम तक इस्तीफे को तैयार नहीं हुए, और उनके मंत्रियों और पार्टी के सांसदों ने थोक में इस्तीफे देकर प्रधानमंत्री का कुर्सी पर बने रहना नामुमकिन कर दिया। श्रीलंका में भी यह पहले ही हो जाना था, लेकिन कुर्सियों से चिपके लोग मुल्क को मरघट बनाकर भी उस पर राज करना चाहते हैं। आने वाले दिन हिन्दुस्तान जैसे देशों के लिए भी बहुत से सबक लेकर आएंगे।
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