संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट के रूख ने एक बार फिर हिन्दुस्तानियों को निराश किया है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश जैसे भाजपा राज्यों में सरकार को नापसंद अल्पसंख्यक मुस्लिम लोगों के किसी प्रदर्शन में शामिल होने, या उन पर दूसरे जुर्मों के आरोप रहने पर सरकार बुलडोजर से उनके घर, उनकी दुकानें गिरा दे रही हैं। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील पर अदालत ने नगर निगमों पर एक साथ कोई रोक लगाने से इंकार कर दिया क्योंकि उसका मानना है कि इससे नगर निगमों की ताकत घट जाएगी। जबकि इस मामले में याचिका से लेकर मीडिया की खबरों तक हर जगह यह बात साफ है कि सरकारों ने मोटेतौर पर छांट-छांटकर मुस्लिमों को निशाना बनाया है। उत्तरप्रदेश का एक ताजा मामला तो ऐसा है जिसमें आदमी के किसी प्रदर्शन में शामिल होने का आरोप लगाते हुए उसकी बीवी के नाम का मकान गिरा दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ने कानपुर और प्रयागराज प्रशासन की तरफ से पेश हुए सीनियर वकील हरीश साल्वे के तर्कों को मानते हुए अवैध निर्माण पर तोडफ़ोड़ का सामान्य प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट कोई एक दिल और एक दिमाग नहीं है। अलग-अलग जजों की बेंच रहती हैं, और किसी एक मुद्दे पर भी अलग-अलग बेंच का रूख अलग-अलग भी रहता है। कुछ बड़े संवैधानिक मामलों में अधिक बड़ी बेंच बनती है, और उनमें कुछ जज असहमति का फैसला भी लिखते हैं। इसलिए किसी एक मुद्दे पर पूरे सुप्रीम कोर्ट के रूख को एक मान लेना ठीक नहीं होगा। फिलहाल भाजपा-राज्यों में भाजपा पदाधिकारियों की चिट्ठी पर जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा करवाई गई ऐसी कार्रवाई सबके सामने है। टीवी कैमरों पर नेताओं और अफसरों के बयान यह बताते हैं कि किसे निशाना बनाना है, यह फैसला किसी न्यायसंगत पैमाने पर नहीं लिया जा रहा है, यह फैसला किसी साम्प्रदायिक तनाव या टकराव के बाद मुस्लिम समुदाय के लोगों को निशाना बनाने के लिए लिया जा रहा है। अब म्युनिसिपल तो अधिकतर मामलों में यह बात साबित कर सकती है कि उसने इन लोगों को पहले से नोटिस दिए हुए थे। और दरअसल पूरे देश में म्युनिसिपलों का तौर-तरीका यही रहता है कि हर अवैध निर्माण, हर अवैध कब्जे पर नोटिस दे दिए जाते हैं, और फिर चुनिंदा नोटिसों पर आगे कार्रवाई होती है, बाकी नोटिसों को दबाकर रख दिया जाता है। इसी मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने अदालत को याद दिलाया कि दिल्ली में बने हुए सभी फॉर्महाउस लगभग अवैध हैं, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। और अदालत की इस बहस से बाहर देश में हकीकत यही है कि राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर म्युनिसिपल की तोडफ़ोड़ होती है। हमने कुछ महीने पहले दिल्ली में शिवसेना के साथ अभिनेत्री कंगना रणौत की जुबानी लड़ाई देखी है, और उसके बाद किस तरह कुछ घंटों के भीतर म्युनिसिपल कंगना रणौत के अवैध निर्माण पर टूट पड़ी थी, और बड़े वकीलों ने अगले कुछ घंटों के भीतर कंगना को अदालती राहत भी दिलवा दी थी। अभी भी उत्तरप्रदेश सरकार और वहां के स्थानीय प्रशासनों को जो अदालती राहत मिली है, उसके पीछे हरीश साल्वे जैसे बड़े वकील का वजन भी है जो कि ब्रिटेन और हिन्दुस्तान दोनों जगह वकालत करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश में बड़ा निराश इसलिए किया है कि इन जजों ने इस मामले को बहुत तकनीकी आधार पर देखा, और यह मान लिया कि बुलडोजर से तोडफ़ोड़ पर एक व्यापक रोक लगा देने से देश भर में स्थानीय संस्थाओं के अधिकार थम जाएंगे। यहां पर मुद्दा अवैध निर्माण नहीं था, यहां पर मुद्दा अल्पसंख्यक समुदाय के, सरकार को नापसंद चुनिंदा लोगों को निशाना बनाकर उन्हीं के निर्माण तोडऩा था, जो कि बहुसंख्यक समुदाय के उससे सौ गुना अधिक संख्या के अवैध निर्माणों जितने ही अवैध रहे होंगे। अदालत ने सरकार और स्थानीय संस्थाओं की मिलीजुली साम्प्रदायिक साजिश को देखने-समझने से भी परहेज किया, और इसे सिर्फ एक सरकारी काम में बाधा न डालने वाला मामला समझा। जब देश की सबसे बड़ी अदालत तक कोई मामला पहुंचता है, तो उसे जिला अदालत जैसे तंगनजरिये की कानूनी सीमाओं से ऊपर उठकर काम करना चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संविधान की भी व्याख्या अपने हिसाब से कर सकता है, और हाल के महीनों में जिस तरह डंके की चोट पर हिन्दू नेताओं ने मुस्लिमों के निर्माण गिराने की बात कही, और आनन-फानन वहां बुलडोजर पहुंचकर उन्हें जमींदोज करने में लग गए। मध्यप्रदेश में तो वहां के एक सबसे ताकतवर मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस ले-लेकर ऐसे इरादे की घोषणा की, और फिर वैसी ही कार्रवाई हुई। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की यह व्याख्या बेबुनियाद है कि यह म्युनिसिपल का मामला है। जब राज्य सरकार म्युनिसिपल को सामने रखकर म्युनिसिपल के अधिकारों का इस्तेमाल करके खुद फैसले लेती है, खुद उसकी घोषणा करती है, तो फिर म्युनिसिपल के अधिकारों की फिक्र सुप्रीम कोर्ट को क्यों करना चाहिए? और अभी के तो कम से कम इन दो राज्यों के मामले ऐसे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक जांच का आदेश देना था कि क्या ऐसे व्यापक तोडफ़ोड़ के पीछे साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह भी था। यह एक राष्ट्रीय फिक्र का मुद्दा है, और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह कन्नी काट ली है। महीनों से यह मामला अदालत में चल रहा है, और सुप्रीम कोर्ट्र के चाहे-अनचाहे इस मामले में सरकारों के घोर साम्प्रदायिक रूख को बढ़ावा मिल रहा है। यह बात जितने बड़े पैमाने पर मीडिया में सामने आ चुकी है, अदालत को अपनी निगरानी में किसी हाईकोर्ट जज से इसकी जांच करवा लेनी थी, और उसी एक आदेश से अगले कुछ महीने तो सरकारें साम्प्रदायिक बदला लेने का काम नहीं करतीं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से निराशा यही होती है कि जो बात पूरे देश को दिख रही है, और जो बात इन राज्यों के सत्तारूढ़ नेता और हिन्दू संगठनों के नेता लाउडस्पीकर पर कह रहे हैं, उनका नोटिस लेना भी सुप्रीम कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा।
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हिन्दुस्तान मेें आज गुरू पूर्णिमा मनाई जा रही है। लोग गुरू का मतलब आमतौर पर स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों से लगा लेते हैं, और उन्हें याद करके उनका आभार व्यक्त करते हैं। कुछ और लोग अपने धार्मिक या आध्यात्मिक गुरू को भी याद कर लेते हैं। हमारी तरह के कुछ तीखी जुबान वाले लोग सोशल मीडिया पर यह भी लिखते हैं कि गुरू पूर्णिमा पर उन तमाम लोगों का धन्यवाद जिन्हें देखकर यह सीखा कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए। और शायद यही आखिरी बात जिंदगी में अनजाने गुरू दिला जाती है, और लोगों के लिए जितनी अहमियत कुछ करना सीखने की रहती है, उतनी ही अहमियत कुछ न करना सीखने की भी रहती है। इस पर आज लिखने की कोई जरूरत नहीं थी अगर अमरीका से कल डोनल्ड ट्रंप और एलन मस्क के बीच तीखी जुबानी जंग सामने न आई होती। सोशल मीडिया पर छिड़ी इस बहस को देखकर गुरू पूर्णिमा पर यह समझ पड़ता है कि ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए, और बड़े कामयाब लोगों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए।
डोनल्ड ट्रंप का सोशल मीडिया पर डाला गया एक पोस्ट कहता है- जब एलन मस्क व्हाइट हाउस में मुझसे मिलने आया था, और अपने बहुत से कारोबारों के लिए मेरी मदद मांग रहा था, जिनमें ऐसी बैटरी-कारें थीं जो पर्याप्त दूरी नहीं चल पाती थीं, बिना ड्राइवर चलने वाली ऐसी कारें थीं, जो टकरा जाती थीं, या ऐसे रॉकेट थे जो कहीं नहीं जाते थे, जिनमें मेरी मदद के बिना एलन मस्क दो कौड़ी का होता, और जो मुझे बता रहा था कि वह मेरा कितना बड़ा प्रशंसक है, और मेरी रिपब्लिकन पार्टी का समर्थक है, और उस दिन मैंने अगर उसे कहा होता कि नीचे घुटनों पर खड़े होकर मुझसे भीख मांगो, तो उसने वह भी किया होता...।
इसके साथ ट्रंप ने राष्ट्रपति भवन में अपनी बैठी हुई, और एलन मस्क की खड़ी हुई तस्वीर पोस्ट की है। किसी को कितना नीचा दिखाया जा सकता है इसकी एक मिसाल ट्रंप ने पेश की, और दुनिया के सबसे ताकतवर देश की सबसे ताकतवर कुर्सी भी एक घटिया इंसान को किस तरह बेहतर इंसान नहीं बना सकती यह साबित किया है। लोगों को याद होगा कि ट्रंप अपने कार्यकाल के पहले से भी चुनाव प्रचार के दौरान ही अपनी घटिया सोच को ढेर सारी गंदी जुबान में उगलते आए हैं, और एक वक्त ऐसा भी आया जब उन्हें राष्ट्रपति बनाने वाले वोटरों को भी अपनी चूक का अहसास हुआ। अभी अमरीका के इन दो सबसे बड़े लोगों के बीच ओछी जुबान में सार्वजनिक बहस चल रही है, और यह कहने की जरूरत नहीं होना चाहिए कि इसमें ट्रंप का मुकाबला करना कई एलन मस्क के लिए मिलकर भी मुमकिन नहीं है। अमरीकी राष्ट्रपति से मिलने आए किसी व्यक्ति ने उनसे क्या बात की, उसका जिक्र करके, या न की गई बातों का झूठा हवाला देकर एक भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति इस तरह घटिया जुबान में बात करे, यह गुरू पूर्णिमा के मौके पर एक अच्छी नसीहत हो सकती है कि ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए लोगों को इतना नीचे गिरने के पहले चार बार सोचना चाहिए। और यह बात अच्छी है कि एलन मस्क इस जुबानी गंदगी के मुकाबले में अपने आप पर काबू किए हुए हैं, और उन्होंने महज इतना कहा है कि यह समय ट्रंप के घर बैठने का है। उनका सूर्यास्त आ गया है, और उन्हें दुबारा चुनने का मतलब चीनी मिट्टी के बर्तनों की दुकान में बिफरे सांड को पालने सरीखा होगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव लडऩे की अधिकतम उम्र 69 बरस होनी चाहिए। मस्क के कहने का मतलब यह कि 76 बरस के ट्रंप राष्ट्रपति का अगला चुनाव लडऩे की अपनी बेहिसाब हसरत पूरी न कर पाएं। यह पूरी बहस इस बात से शुरू हुई थी कि ट्रंप ने एक भरी सभा में यह दावा किया था कि एलन मस्क ने उन्हें वोट दिया था, और एलन मस्क ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि यह सही नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि गंदगी की बहस, या बहस की गंदगी से बचना सीखने के लिए क्या हिन्दुस्तानियों को ट्रंप और मस्क की बहस, या ट्रंप की बकवास को सुनना जरूरी है? अमरीका से बढ़-चढक़र गंदी बहस हिन्दुस्तान में चल रही है, सडक़ों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चल रही है। एक कानूनी बहस के दौरान केन्द्र सरकार का वकील सुप्रीम कोर्ट में कहता है कि बजरंग मुनि जैसे सम्माननीय प्रमुख धार्मिक नेता को जब कोई नफरत फैलाने वाला कहे, तो उससे समस्याएं खड़ी होती हैं। अब जिसे केन्द्र सरकार का वकील सम्माननीय धार्मिक नेता कहता है, उसके वीडियो हफ्तों से चारों तरफ तैर रहे हैं जिनमें वह लाउडस्पीकर पर मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार करने का आव्हान कर रहा है। उसका एक नया वीडियो अभी और सामने आया है जिसमें वह कैमरे की आंखों में आंखें डालकर मुम्बई की किसी अभिनेत्री को धमकी दे रहा है कि वह आए तो बजरंग मुनि के ब्रम्हचारी उसे बलात्कार कर-करके गर्भवती करेंगे। अब इससे लोगों को गुरू पूर्णिमा पर तीन बातें सीखने मिलती हैं, पहली यह कि बजरंग मुनि नाम के इस नफरतजीवी जैसी घटिया सोच किसी इंसान को नहीं रखनी चाहिए, दूसरी बात यह कि किसी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के सरकारी वकील को ऐसे नफरतजीवी और हिंसक, और भारतीय कानून के मुताबिक मुजरिम इंसान को सम्माननीय धार्मिक नेता नहीं कहना चाहिए, और तीसरी बात यह कि किसी भी जरा सी जिम्मेदार सरकार को ऐसे हिंसक फतवे देने वाले को देशद्रोह के जुर्म में जेल में डालना चाहिए। अब गुरू पूर्णिमा के दिन देश के ऐसे ‘‘सम्माननीय धार्मिक नेता’’ से कुछ तो सीखना ही चाहिए।
गुरू पूर्णिमा किसी साक्षात और भौतिक गुरू से ही कुछ सीखने का मौका नहीं रहता, जिंदगी में हर दिन तरह-तरह के लोगों से पहले तो यही सीखना चाहिए कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए, इंसान को कैसा नहीं होना चाहिए। इंसान को कैसा होना चाहिए यह नसीहत तो स्कूल के वक्त से सीखने मिलती है, कैसा-कैसा नहीं होना चाहिए यह सीखने के लिए आगे की जिंदगी में थोड़ी सी हिम्मत भी लगती है, और बहुत सी समझ भी लगती है। इसलिए आज इस मौके पर चर्चा करते हुए अच्छे गुरूओं के मुकाबले घटिया मिसालों को याद करने की अधिक जरूरत है कि भले इंसानों को कैसा-कैसे नहीं होना चाहिए। हम सबकी जिंदगी में ऐसे बहुत से लोग रहते हैं जिनके कामों को देखकर, जिनकी बातों को देखकर यह साफ समझ पड़ता है कि वे कमीनगी की बातें हैं। उनका कोई वैज्ञानिक परीक्षण करने की भी जरूरत नहीं रहती। लेकिन इतनी समझ और इतना हौसला होना चाहिए कि खुद भी ऐसा कुछ करने से बचें, और अपने आसपास के लोगों को भी ऐसी मिसालें समझाते चलें कि जिंदगी में कभी ऐसा नहीं करना चाहिए।
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राष्ट्रपति चुनाव हफ्ते भर बाद है, और कई पार्टियों और गठबंधनों के रूख में थोड़ा-बहुत फर्क भी आते दिख रहा है। देश में सत्तारूढ़ एनडीए ने भाजपा की एक पुरानी नेता, आदिवासी महिला, द्रौपदी मुर्मू को तब उम्मीदवार घोषित किया जब एनडीए-उम्मीदवार का नाम जानने की राह देखते-देखते विपक्ष की डेढ़ दर्जन पार्टियों ने यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब आज जब दोनों ही उम्मीदवार देश भर के प्रदेशों में जाकर वहां पार्टियों के सांसदों और विधायकों से समर्थन मांग रहे हैं तब ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि एनडीए की पसंद संयुक्त-विपक्ष की पसंद पर खासी भारी पड़ रही है। विधायकों और सांसदों के वोटों की शक्ल में तो द्रौपदी मुर्मू को फायदा मिलते दिख ही रहा है, जो लोग उन्हें वोट नहीं देने वाले हैं, वे भी उन्हें एक बेहतर उम्मीदवार मान रहे हैं। अब कल तक यशवंत सिन्हा ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पदाधिकारी थे, और उन्होंने संयुक्त-विपक्ष प्रत्याशी बनने के लिए पार्टी से इस्तीफा दिया था। इस हिसाब से वे ममता बैनर्जी की पसंद थे, और उनकी उम्मीदवारी से विपक्ष में ममता बैनर्जी का महत्व भी बढ़ा था। और ममता बैनर्जी से खासे तनावपूर्ण रिश्ते होने के बावजूद कांग्रेस ने सबसे आगे बढक़र यशवंत सिन्हा का समर्थन किया था। लेकिन उसके बाद से लगातार पार्टियों और नेताओं का ऐसा रूख दिख रहा है कि द्रौपदी मुर्मू राजनीतिक और रणनीतिक रूप से एक बेहतर उम्मीदवार हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना में बगावत के बाद अब बंटवारे जैसी नौबत है, और विधायकों के बाद अब सांसदों में भी बंटवारा होते दिख रहा है, और उद्धव ठाकरे की भाजपा से सारी कटुता के बावजूद शिवसेना सांसदों का बहुमत द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में दिख रहा है। चूंकि वे ओडिशा से आती हैं, इसलिए एनडीए से तनावपूर्ण संबंधों के बावजूद बीजू जनता दल उनके लिए समर्थन घोषित कर चुका है। वे जिस झारखंड में राज्यपाल रही हैं, वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आज केन्द्र की मोदी सरकार के निशाने पर हैं, लेकिन इस आदिवासी-राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने अपनी पार्टी का समर्थन द्रौपदी मुर्मू के लिए घोषित किया है जबकि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में हैं।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन यशवंत सिन्हा वाली पार्टी की मुखिया ममता बैनर्जी ने कुछ दिन पहले द्रौपदी मुर्मू को लेकर यह बात कही कि अगर उन्हें एनडीए की उम्मीदवार का नाम पहले पता होता तो हालात बिल्कुल अलग होते। उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव होता तो इसे सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। आदिवासी-महिला या अल्पसंख्यक उम्मीदवार का नाम होने पर उनका (ममता बैनर्जी) रूख अलग होता। उन्होंने एक किस्म से मलाल के साथ यह कहा कि विपक्ष के गठबंधन में 16-17 पार्टियां हैं, और वे एकतरफा अपना कदम पीछे नहीं खींच सकतीं। मतलब यही है कि वे द्रौपदी मुर्मू को एक बेहतर उम्मीदवार मान रही हैं जबकि यशवंत सिन्हा खुद ममता बैनर्जी की पसंद हैं।
अब देश की बाकी चुनावी राजनीति से परे राष्ट्रपति के चुनाव में बहुत सी पार्टियां अपने व्यापक आम चुनावी गठबंधनों से परे हटकर भी वोट डालती हैं। एनडीए में रहते हुए कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को बाल ठाकरे ने इसलिए शिवसेना का समर्थन दिलवाया था क्योंकि वे महाराष्ट्र की थीं। और इसी तरह ममता बैनर्जी ने कांग्रेस से कटुता के बावजूद प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाने के लिए अपना समर्थन दिया था क्योंकि वे बंगाल के थे। और अब द्रौपदी मुर्मू को बहुत से लोग इसलिए समर्थन दे रहे हैं कि वे महिला हैं, आदिवासी हैं, और वे देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन सकती हैं। आज हिन्दुस्तान में महिला राष्ट्रपति का मुद्दा भी बड़ा है, और आदिवासी राष्ट्रपति का मुद्दा तो बड़ा है ही। इन दोनों को मिलाकर जब एनडीए के मुखिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया, तो वह एक राजनीतिक सूझबूझ की बात थी कि एनडीए के बाहर के भी कौन लोग उनके नाम का साथ दे सकते हैं। यह राजनीतिक होशियारी कोई बुरी बात नहीं है, और यह देश के प्रदेशों और राजनीतिक दलों की पसंद और उनकी मजबूरी को समझते हुए लिया गया एक ऐसा रणनीतिक फैसला था जो कि सही साबित हो रहा है। बाकी लोगों की बातों के अलावा ममता बैनर्जी ने जिस तरह का रूख द्रौपदी मुर्मू को लेकर दिखाया है, और आज इस पर चर्चा इसलिए भी की जा रही है कि द्रौपदी मुर्मू आज बंगाल में हैं, और वे सांसदों और विधायकों से मिलकर समर्थन की अपील करेंगी।
अपनी उम्मीदवार को जिताकर राष्ट्रपति बनवाने की नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की क्षमता पर किसी को वैसे भी कोई शक नहीं है, लेकिन उन्होंने जिस तबके की उम्मीदवार छांटी है, वह भी एक समझदारी का फैसला साबित हो रहा है। यशवंत सिन्हा की कई खूबियां हो सकती हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ लोगों का यह मानना है कि अटल सरकार का हिस्सा रहते हुए भी उन्होंने गुजरात दंगों के वक्त मोदी के बारे में कुछ भी नहीं कहा था। इसी तरह वे एनडीए सरकार का लंबे समय तक हिस्सा रहे, जिसमें वे भाजपा के बड़े पदाधिकारी थे लेकिन उन्होंने साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर कोई असहमति नहीं जताई। यशवंत सिन्हा का नाम कल तक भाजपा में रहने वाले और आज भाजपा के खिलाफ किस्म का भी है। ऐसे में हमेशा से भाजपा में रहीं द्रौपदी मुर्मू एक अधिक प्रतिबद्ध उम्मीदवार दिखती हैं।
राजनीति में आदर्श कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है वह बेहतर होता है। जो सामने पेश हैं, उनमें से बेहतर को छांटने का हक ही लोकतंत्र का चुनाव है। ऐसे में राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने के लिए भाजपा ने एक तुरूप का पत्ता छांटा, और आदिवासी-महिला को उम्मीदवार बनाया। इस पसंद के साथ ही कई पार्टियों ने एक-एक करके खुद होकर उन्हें समर्थन घोषित किया। राजनीति में ऐसी पसंद भी एक कामयाबी का सुबूत रहती है, और देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिले, इसका विरोध करना आसान नहीं है, फिर चाहे इस रबर स्टाम्प पोस्ट के लिए यह उम्मीदवार भाजपा की ही क्यों न हो। हफ्ते भर बाद मतदान के वक्त पता लगेगा कि उम्मीदवार के नाम ने किन-किन लोगों को एनडीए के बाहर से भी द्रौपदी मुर्मू के लिए अपनी ओर खींचा।
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जिंदगी में कई बार दर्द का अहसास खत्म हो जाता है। ऐसा कभी-कभी उस वक्त भी होता है जब किसी दूसरे के ऐसे दर्द को देखना हो जाए जिसकी कल्पना भी न की हो, जिसकी कल्पना करना आसान भी न हो, तो दिल-दिमाग ऐसे सुन्न हो जाते हैं कि किसी दर्द का अहसास नहीं रह जाता। कुछ ऐसा ही मध्यप्रदेश के मुरैना की एक फोटो और उसके वीडियो को देखकर हो रहा है। एक गांव का गरीब आदमी अपने दो बरस के बीमार बच्चे को इलाज के लिए मुरैना जिला अस्पताल लेकर आया था, वहां इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। अस्पताल से कोई शव वाहन नहीं मिला, तो यह आदमी, पूजाराम, अपने बेटे राजा के शव को लेकर अस्पताल के बाहर आया, और वहां से कोई एम्बुलेंस डेढ़ हजार रूपये से कम में ले जाने तैयार नहीं थी, और उसके पास उतने पैसे नहीं थे। उसने अपने साथ के आठ बरस के बेटे को सडक़ किनारे बिठा दिया, और उसकी गोद में छोटे भाई की लाश रख दी, और कोई सस्ती गाड़ी ढूंढने निकला। यह बड़ा भाई गुलशन कभी रो रहा था, कभी छोटे भाई के शव को लाड़ कर रहा था, और जैसा कि किसी सार्वजनिक जगह पर होता है चारों तरफ तमाशबीन थे, जो कि फोटो खींच रहे थे, और वीडियो बना रहे थे। चारों तरफ हॉर्न की आवाज के बीच अपने और भाई पर बैठती मक्खियों के बीच वह बच्चा समझ भी नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। इसका एक वीडियो ऐसा भी है जिसमें कोई आदमी इस बच्चे को कह रहा है- इधर देखो बेटा। जाहिर है कि उसके कैमरे में बच्चे के चेहरा साफ नहीं आ रहा होगा।
अब इससे बड़ा दर्द और क्या हो सकता है? यूक्रेन छोडक़र जाते हुए, या अफगानिस्तान और सीरिया छोडक़र जाते हुए कई बच्चों की, और उनकी लाशों की तस्वीरें बीच-बीच में आती हैं, लेकिन वे गृहयुद्ध या दूसरे देशों के साथ जंग से गुजरते हुए हालात के बीच की तस्वीरें हैं। वे तस्वीरें किसी ऐसे देश की नहीं हैं, किसी ऐसे प्रदेश की नहीं हैं, जहां पर मुख्यमंत्री प्रदेश की हर बच्ची का मामा होने का दावा करता है। जिस प्रदेश में बड़े-बड़े विख्यात तीर्थ हैं, जहां पर अर्धकुंभ होता है, जहां पर शक्तिपीठ है, और जहां जाने क्या-क्या नहीं हैं। यह बात किसी जंग से घिरी सरहद की नहीं है, यह बात एक विकसित प्रदेश के एक जिला मुख्यालय में गाडिय़ों के हॉर्न के बीच सडक़ किनारे की बात है। ट्विटर पर किसी ने इसकी तस्वीर के साथ यह पोस्टर ठीक ही बनाया है कि बच्चे की गोद में उसका भाई नहीं, हमारी, आपकी, हम सबकी लाश है।
यह कैसा प्रदेश है जहां पर सरकार का मुख्यमंत्री रात-दिन अपने को मामा कहते नहीं थकता! यह प्रदेश बड़े-बड़े तीर्थों वाला, और उनमें बड़े-बड़े चढ़ावे वाला प्रदेश है। इसी प्रदेश में सबसे बड़ा कारोबारी शहर इस बात के लिए विख्यात है कि वहां हर शाम से लेकर देर रात तक किस तरह खाने-पीने का कारोबार चलता है, और खाते-पीते घरों के लोग रात का खाने के बाद और खाने के लिए इन बाजारों में उमड़े रहते हैं। इस बच्चे के इर्द-गिर्द चारों तरफ घंटे भर गाडिय़ों के हॉर्न ही बज और गूंज रहे थे, लेकिन इसकी गोद में धरती का जो बोझ रखा हुआ था, उसे कोई अदना सी गाड़ी भी नसीब नहीं हो रही थी। लोग अक्सर लिखते हैं कि सबसे वजनी ताबूत वे होते हैं, जो सबसे छोटे होते हैं। अब आठ बरस के इस बच्चे की गोद में छोटे भाई की यह लाश एक पूरी धरती के वजन से कम तो क्या होगी?
इस पर लिखने का मकसद महज मध्यप्रदेश की सरकार को कोसना नहीं है। ऐसा हिन्दुस्तान के किसी भी प्रदेश में हो सकता है, कई जगहों पर होता भी है, लेकिन अगर वहां मोबाइल फोन के कैमरे नहीं रहते हैं, तो बात अनदेखी रह जाती है। सोशल मीडिया पर मध्यप्रदेश के मंत्रियों के नाम लिखकर लोग याद दिला रहे हैं कि इस प्रदेश में ऐसे मंत्री फलां-फलां पाखंडी बाबा को चढ़ावा चढ़ाते हैं, और वहां गरीब का यह हाल है। लेकिन मंत्रियों और सरकार की जिम्मेदारी से परे भी देखें, तो समाज की सोच को यह क्या हो गया है कि ऐसी तकलीफदेह तस्वीर देखते हुए भी लोग वीडियो बनाते रहे, लेकिन मदद को सामने नहीं आए। जिस हिन्दुस्तान में इन दिनों धार्मिक भावनाएं आहत होने के लिए एक पैर पर तैयार खड़ी रहती हैं, वहां पर लोगों की इंसानी भावनाएं किसी भी तरह से आहत नहीं होती हैं, और वे फौलादी मजबूती के साथ महज वीडियो रिकॉर्डिंग करती हैं। एक एम्बुलेंस या शव वाहन का इंतजाम न हो पाना एक सरकारी नाकामयाबी है, लेकिन धर्म के मामले में नाजुक भावनाएं किसी सामाजिक जवाबदेही के मानवीय मामले में फौलादी बन जाती हैं, तो वह एक अधिक फिक्र की बात है, और उस बारे में लोगों को सोचना चाहिए।
यह खबर, इसकी तस्वीर, और इसका वीडियो जिन लोगों को नहीं हिला पाया है, उन्हें शायद कुछ भी नहीं हिला पाएगा। ऐसे लोग ईश्वर पर अपनी सोच को इस हद तक केन्द्रित कर चुके हैं कि उनकी कोई संवेदना दूसरों के लिए बाकी रह गई नहीं दिखती हैं। लोगों का संवेदनाशून्य हो जाना नेताओं की आपराधिक लापरवाही के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है, और इससे यह आत्मगौरवान्वित भारतीय समाज कैसे उबर सकेगा, इसके बारे में सोचना चाहिए। वहां से गुजरते हुए, फोटो और वीडियो खींचते हुए सैकड़ों लोगों को जिस मानसिक चिकित्सा की जरूरत है, उस बारे में भी सोचना चाहिए। इस बारे में और क्या कह सकते हैं, सिवाय इसके कि हर किसी को अपने बच्चों को इस नौबत में सोचना चाहिए, और उसके बाद अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए।
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श्रीलंका का ऐसा हाल होगा यह कल तक भी लग नहीं रहा था। पहले भी लोगों ने प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के घरों पर हमला किया था, लेकिन कल जिस तरह राष्ट्रपति भवन पर एक साथ दसियों हजार लोगों ने धावा बोला, इमारत और कैम्पस के इंच-इंच पर कब्जा कर लिया, भूखे पेट वहां के पलंग और सोफा पर लेटकर सेल्फी ली, राष्ट्रपति के स्वीमिंग पूल में छलांग लगाई, वह एक बहुत अनोखा नजारा था। लोगों को इससे अफगानिस्तान का वह नजारा याद आया जब राष्ट्रपति देश छोडक़र भाग गए थे, और खाली राष्ट्रपति भवन में तालिबान घुसकर इसी तरह हर फर्नीचर पर काबिज हो गए थे। वहां वे तालिबान थे, यहां यह श्रीलंका की निहत्थी जनता है, लेकिन एक बात एक सरीखी है कि राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे भी राष्ट्रपति भवन छोडक़र अज्ञात जगह पर चले गए हैं, और अफगानिस्तान की तरह ही ऐसी भी चर्चा है कि वे देश छोडक़र जा चुके हैं। कुछ ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें श्रीलंका की नौसेना के जहाज पर कुछ लोग बदहवासी में दौड़-दौडक़र सूटकेस चढ़ा रहे हैं, और कहा जा रहा है कि यह राष्ट्रपति का सामान लादा जा रहा है। फिर मानो यह सब भी काफी नहीं था, तो शाम तक प्रदर्शनकारी जनता ने प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के निजी मकान को आग लगा दी जिसमें कि वे एक दिन पहले तक परिवार सहित मौजूद थे। अब पूरा घर सामान सहित राख हो चुका है। यह पूरा प्रदर्शन बिना किसी संगठित अगुवाई के भडक़ी हुई भूखी भीड़ अपनी मर्जी से कर रही है जिसमें तमाम तबकों के लोग शामिल हैं, छात्रों के साथ बौद्ध भिक्षु भी हैं, और ईसाई मिशनरियों के प्रमुख भी।
श्रीलंका एक समय लंबे गृहयुद्ध से गुजरा हुआ है, और वहां पर तमिलों और सिम्हलियों के बीच लंबा खूनी संघर्ष चला है। तमिल उग्रवादियों का श्रीलंका की फौज से भी लंबा हथियारबंद मोर्चा रहा, और एक वक्त भारत ने भी श्रीलंका की मदद के लिए शांति सेना भेजी थी, जिससे बौखलाए हुए तमिल टाइगर्स, लिट्टे ने आतंकी हमला करके राजीव गांधी की हत्या ही कर दी थी। ऐसे दौर से गुजरा हुआ श्रीलंका हाल के बरसों में बिना किसी हिंसक टकराव के चल रहा था, और सिर्फ वहां सरकारी नीतियों, गलतियों, और गलत कामों का नतीजा देश के दीवालिया हो जाने की शक्ल में सामने आया था। श्रीलंका आज पूरी तरह से दीवालिया हो चुका है, और उसके मददगार देश भी उसकी मदद कर-करके थक गए हैं, और अंतरराष्ट्रीय मदद अब सूखती चल रही है। देश में ईंधन के अलावा खाने का भी अकाल पड़ गया है, और लोग इस नौबत का कोई इलाज भी नहीं देख रहे हैं। भारत, चीन, बांग्लादेश समेत बहुत से देशों ने श्रीलंका की बड़ी मदद की है, लेकिन वह बिना तले वाले कुएं में मदद डालने सरीखा हो रहा है, उससे श्रीलंका किसी समाधान तक पहुंचने की हालत में भी नहीं है।
सरकार के गलत आर्थिक फैसलों से देश किस तरह तबाह हो सकता है, श्रीलंका इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल बना हुआ है, और शांत जनता भी किस तरह राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के बंगलों पर हमले कर सकती है, उन्हें जला सकती है, यह चौंकाने वाला रूख है। श्रीलंका पाकिस्तान की तरह घरेलू आतंक का शिकार देश नहीं है, वह म्यांमार की तरह फौजी सत्ता का भी शिकार नहीं है। लेकिन वहां के लोकप्रिय और निर्वाचित नेताओं ने अपनी मनमानी से जिस तरह की बेवकूफी के आर्थिक फैसले लिए, और श्रीलंका को गड्ढे में डाल दिया, उसी का नतीजा है कि आज अफगानिस्तान की तरह राष्ट्रपति को घर छोडक़र भागना पड़ रहा है, प्रधानमंत्री का घर जला दिया गया है, और प्रधानमंत्री के भतीजे के घर को भी तोडफ़ोड़ कर तबाह कर दिया गया है। ऐसे आसार हैं कि वहां अगले दो-चार दिनों में एक सर्वदलीय राष्ट्रीय सरकार बन सकती है, और वह कुछ कड़े फैसले लेकर देश को वापिस जिंदगी की तरफ लाने की कोशिश कर सकती है। यह काम तकरीबन नामुमकिन सा रहेगा, लेकिन इसके सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं है।
भारत सहित दूसरे कई देशों को यह सबक लेने की जरूरत है कि मनमाने आर्थिक फैसले देश को किस तरह तबाही तक पहुंचाते हैं, और जनता की नाराजगी कहां तक पहुंच सकती है। लेकिन ऐसे सबक के अलावा श्रीलंका के अड़ोस-पड़ोस के देशों को यह भी सोचना होगा कि वे श्रीलंका की क्या मदद कर सकते हैं। भारत की समुद्री सरहद से कुल 40 किलोमीटर दूर अगर एक देश भूख से मरने की नौबत पर आ जाएगा, तो भारत उसे अनदेखा करके भी नहीं बैठ सकता। भारत के साथ एक दूसरी दिक्कत यह है कि श्रीलंका में एक बड़ी तमिल आबादी भी है, और श्रीलंका से सबसे करीब भारत का तमिल राज्य तमिलनाडु है, जहां पर शरणार्थियों का आना शुरू भी हो गया है। घोषित या अघोषित शरणार्थियों की वजह से देश पर एक आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा, और शरणार्थियों के साथ कुछ दूसरे बुरे लोग भी यहां आ सकते हैं। भारत की श्रीलंका नीति तमिलनाडु राज्य की भावनाओं को बहुत अनदेखा करके भी नहीं चल सकती है।
अपने किसी पड़ोसी देश में हालात इतने खराब हो जाने पर तमाम देशों के लिए एक खतरा रहता है, और भारत श्रीलंका के खतरे से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला देश है। उसके सामने श्रीलंका की मदद करने का बोझ उठाने का एक विकल्प है, और यह मदद न करके वहां चीन के अधिक गहरे दाखिले का खतरा उठाने का भी विकल्प है। श्रीलंका बहुत बुरी तरह चीनी कर्ज में डूबा हुआ है, और चीन ऐसे नाजुक वक्त पर कोई बड़ी मदद करके श्रीलंका को अपने अधिक प्रभाव में ले सकता है, और वह भारत के लिए एक बड़ी फौजी सरदर्दी की बात होगी। आने वाले दिन श्रीलंका के लिए कोई तुरंत समाधान तो लेकर नहीं आएंगे, लेकिन समाधान की एक संभावना की तरफ पहला कदम जरूर बढ़ सकता है। श्रीलंका को तबाह करने वाले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को उनकी पार्टी को हटाना पड़ा है, वे पूरी बेशर्मी से अपनी कुर्सियों पर काबिज थे, ठीक उसी तरह जिस तरह कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आखिरी दम तक इस्तीफे को तैयार नहीं हुए, और उनके मंत्रियों और पार्टी के सांसदों ने थोक में इस्तीफे देकर प्रधानमंत्री का कुर्सी पर बने रहना नामुमकिन कर दिया। श्रीलंका में भी यह पहले ही हो जाना था, लेकिन कुर्सियों से चिपके लोग मुल्क को मरघट बनाकर भी उस पर राज करना चाहते हैं। आने वाले दिन हिन्दुस्तान जैसे देशों के लिए भी बहुत से सबक लेकर आएंगे।
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दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क ने कुछ महीने पहले एक हैरतअंगेज दाम पर ट्विटर खरीदने की घोषणा की थी, और इस कंपनी के साथ खरीद-बिक्री के समझौते पर महीनों से उनकी बातचीत चल रही थी। इस बीच कारोबारी दुनिया के जानकार लोग हैरान हो रहे थे कि कर्ज लेकर इस दाम पर ट्विटर को खरीदकर एलन मस्क आखिर क्या हासिल करेंगे? और इतने पूंजीनिवेश को कैसे कमाई में बदल पाएंगे। लेकिन एक जिद्दी और सनकी कामयाब कारोबारी के रूप में एलन मस्क अड़े हुए थे, और कंपनी लेने के रास्ते पर वे आगे बढ़ रहे थे। अभी कल ऐसी खबर आई है कि वे इसे नहीं खरीदना चाहते क्योंकि खरीद-बिक्री का जो समझौता हुआ था उसके मुताबिक ट्विटर पर फर्जी या मशीनी अकाउंटों की जो जानकारी ट्विटर को देनी थी, उससे वह कतराती रही। एलन मस्क का शुरू से ही यह शक था कि ट्विटर इस्तेमाल करने वाले लोगों के जितने अकाउंट हैं, उनमें से बहुत से फर्जी या मशीनों से चलने वाले हैं, जिन्हें असली नहीं कहा जा सकता। वे ऐसे अकाउंट खत्म करने की बात भी कर रहे थे। वे सनकी हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े हिमायती हैं, और इतने बड़े हिमायती हैं कि यह उम्मीद भी की जा रही थी कि झूठी पोस्ट करने की वजह से अकाउंट खो बैठे पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप का ट्विटर खाता भी फिर से खुल सकता है अगर मस्क इसे खरीद लेते हैं। इस तरह मस्क की अभिव्यक्ति की आजादी सुनने में सभी को अच्छी लगती थी, लेकिन बहुत से लोगों के लिए वह फिक्र भी खड़ी कर रही थी क्योंकि उससे झूठ और नफरत फैलाने वालों को भी आजादी मिलने वाली थी।
यह एक संयोग है कि जब नकली या मशीनी ट्विटर-हैंडल की बात कहते हुए मस्क यह सौदा तोड़ रहे हैं, या तोड़ चुके हैं, तो उसके कुछ ही दिन पहले हिन्दुस्तान की एक प्रमुख समाचार-विचार वेबसाइट, द वायर, ने एक रिपोर्ट पेश की जिसमें यह बताया गया कि भारत में झूठी खबरों का भांडाफोड़ करने वाली वेबसाइट ऑल्टन्यूज के खिलाफ ट्विटर पर अभियान चलाने वाले 757 ट्विटर अकाउंट गुजरात के एक युवा भाजपा नेता से जुड़े हुए थे, और वे एक एप्लीकेशन के माध्यम से चलाए जा रहे थे, और इन्हीं अकाउंट में से एक अकाउंट से ऑल्टन्यूज के पत्रकार मोहम्मद जुबैर के खिलाफ पुलिस शिकायत की गई थी। यह लंबी रिपोर्ट बताती है कि किस तरह कम्प्यूटर एप्लीकेशन का इस्तेमाल करके गिने-चुने लोग ही सैकड़ों ट्विटर अकाउंट चलाते हैं, और फिर किसी को निशाना बनाकर उसके खिलाफ अभियान छेड़ देते हैं। जांच में यह भी पता लगा कि कुछ अकाउंट तो चौबीसों घंटे ऐसी हमलावर ट्वीट करते रहते हैं, जिन्हें कि मानवीय रूप से असंभव काम बताया गया। लेकिन 750 से अधिक ऐसे अकाउंट गुजरात के भारतीय जनता युवा मोर्चा के सहसंयोजक विकास अहीर के ईमेल एड्रेस से जुड़े हुए निकले, और फिर यह खुलासा हुआ कि किस तरह इन्हें कम्प्यूटर एप्लीकेशन द्वारा एक साथ चलाया जा रहा था।
अब आज जब दुनिया में ट्विटर को समाचारों का पहला स्रोत माना जा रहा है, जब दुनिया के हर किस्म के शासन और राष्ट्रप्रमुख, सबसे बड़े कारोबारी, सबसे बड़े खिलाड़ी और कलाकार, पत्रकार और लेखक अपनी बात सबसे पहले ट्विटर पर रखते हैं, और फिर उनमें से एक-एक पर लाखों लोगों की प्रतिक्रियाएं आती हैं, तो फिर ऐसे प्लेटफॉर्म का ईमानदार बने रहना भी दुनिया में समाचार-विचार की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है। आज हिन्दुस्तान में जिस तरह एक खास विचारधारा के समर्थन में, और बाकी विचारधाराओं के खिलाफ एक भयानक संगठित हमलावर फौज काम कर रही है, और जिसके बारे में यह उजागर होते ही रहता है कि उनमें से एक-एक लोग सैकड़ों ट्विटर अकाउंट चलाते हैं, तो फिर इस फर्जीवाड़े का खत्म होना भी जरूरी है। अभी ट्विटर खरीदने का सौदा इसी बात पर टूटा है कि इसकी कंपनी संभावित खरीददार को यह बताने तैयार नहीं है कि उसके कितने फीसदी अकाउंट फर्जी हैं। किसी कंपनी के कारोबार के लिए फर्जी आंकड़े फायदे के हो सकते हैं जैसे कि हिन्दुस्तान में अखबारों के खरीददारों या टीवी समाचारों के दर्शकों के आंकड़ों में भयानक फर्जीवाड़ा चलते ही रहता है। लेकिन अगला मालिक अगर पिछले मालिक से एक जानकारी मांग रहा है, और उसे वह देने से मुंह चुराया जा रहा है, तो इसका एक मतलब यह दिखता है कि फर्जीवाड़ा काफी बड़ा है, और पूरे आंकड़े सामने आ जाने पर ऐसा खतरा दिख रहा होगा कि एलन मस्क उसे खरीदने से इंकार कर दे।
आज टेक्नालॉजी ने अखबारों के सर्कुलेशन के फर्जी आंकड़ों के कारोबार को बचकाना साबित कर दिया है। आज बड़े-बड़े नेताओं और शोहरत पाए हुए लोगों को फेसबुक, ट्विटर, और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फॉलोअर खरीदने की सहूलियत हासिल है, और लाखों फर्जी फॉलोअर खरीदे जा सकते हैं। यह देखना दिलचस्प रहता है कि किस तरह छत्तीसगढ़ के एक नेता के जितने फॉलोअर टर्की में हैं, उतने छत्तीसगढ़ में भी नहीं हैं। फिर जब ऐसे फर्जी फॉलोअर एक हमलावर फौज का हिस्सा रहते हैं, तो वे लोकतंत्र को तबाह करने के अभियान में लगे हुए सुपारी-हत्यारे रहते हैं जिन्हें इन प्लेटफॉर्म को दुहने के हथियार भी हासिल रहते हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है, और किसी भी लोकतांत्रिक देश को ऐसी अलोकतांत्रिक हमलावर तकनीक और कोशिश के खिलाफ कानून बनाना चाहिए। ऐसे किसी संभावित कानून के खिलाफ एक तर्क यह भी रहेगा कि इससे लोग गुमनाम अकाउंट नहीं बना सकेंगे, और अपनी शिनाख्त उजागर किए बिना अपनी बात नहीं लिख सकेंगे। लेकिन आज की बेचेहरा हमलावर फौज को उजागर करना, और ऐसे फौजी हमले में मददगार साइबर-हथियार रोकना किसी भी लोकतंत्र का एक अनिवार्य काम होना चाहिए।
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महाराष्ट्र में शिवसेना की फजीहत और बेइज्जती खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। ऐसा भी नहीं है कि शिवसेना के इतिहास में कभी छोटे-मोटे बागी हुए ही न हों, लेकिन इस पैमाने पर बगावत का बुरा सपना तो कभी बाल ठाकरे ने भी नहीं देखा होगा, और न ही उद्धव ठाकरे या उनके बेटे ने। एक वक्त था जब उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे पार्टी और परिवार से अलग हुए, उन्होंने अपना अलग राजनीतिक दल बनाया, लेकिन वे भी कुछ साबित नहीं कर पाए। अब जब शिवसेना एक पूरी तरह अप्राकृतिक गठबंधन में सरकार चला रही थी, और अपने से वैचारिक अलग ध्रुव पर बैठी कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन में थी तो उसमें उसके इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे बुरी बगावत हुई, और आज की तारीख में शिवसेना किनारे लग गई दिखती है। ताजा खबर के मुताबिक भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लेने वाले कल तक के शिवसैनिक एकनाथ शिंदे के साथ नवी मुम्बई के शिवसेना पार्षद भी आ गए हैं। इसके पहले शिंदे के गृहनगर ठाणे के 67 में से 66 शिवसेना पार्षदों ने शिंदे का दामन थाम लिया था। अभी मुख्यमंत्री शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस के मंत्रिमंडल का विस्तार होना बाकी है, और उसके बाद हो सकता है कि रही-सही उद्धव-सेना में और टूट-फूट हो जाए। शिंदे-सेना का दावा है कि शिवसेना के 18 में से 12 सांसद उनके साथ आ सकते हैं। इस तरह उद्धव ठाकरे की शिवसेना आज अपने अस्तित्व की सबसे कमजोर पार्टी दिख रही है, और उसमें टूट-फूट जारी ही है।
बहुत से लोग जिन्हें भाजपा से रासायनिक परहेज है, उन्हें पहले दिन से यह बात खटक रही थी कि केन्द्र सरकार की तमाम ताकत को मिलाकर भाजपा ने महाराष्ट्र में एक गठबंधन सरकार को गिराया। लेकिन सच तो यह है कि यह गठबंधन पहले ही दिन से अस्वाभाविक था, और इसके भागीदार अटपटे हमबिस्तर थे। वैसे तो लोकतंत्र में किसी भी तरह के अस्वाभाविक और अटपटे गठबंधन को अलोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था को जारी रखने के लिए बनाना कई बार मजबूरी भी रहती है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि महाराष्ट्र में भाजपा की किसी संभावित साजिश से परे भी शिवसेना के भीतर एक बगावत की जमीन बनती चल रही थी, और अब बागियों के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वह दरार और चौड़ी, और गहरी होती चल रही है। शिवसेना, एनसीपी, और कांग्रेस की गठबंधन सरकार एक बड़ा ही अटपटा इंतजाम था, जिसमें सबसे अधिक असुविधा परंपरागत शिवसैनिक महसूस कर रहे थे। उनकी पूरी जिंदगी कांग्रेस के खिलाफ सडक़ की लड़ाई लड़ते गुजरी थी, और अब वे अचानक कांग्रेस के साथ भागीदार बनकर सरकार चला रहे थे। दूसरी तरफ जो भाजपा धार्मिक आधार पर शिवसेना की एक स्वाभाविक भागीदार थी, वह भाजपा विपक्ष में थी, और वोटरों के सामने तस्वीर यह बन रही थी कि हिन्दू भागीदार को धोखा देकर शिवसेना सोनिया गांधी की कांग्रेस के साथ मिल गई है, जिसे बाल ठाकरे ने कभी सिवाय हिकारत के नहीं देखा था। महाराष्ट्र के शिवसेना नेताओं और कार्यकर्ताओं का ऐसा मानना है कि आने वाले स्थानीय चुनावों को लेकर शिवसैनिक बहुत दुविधा में थे क्योंकि मुख्यमंत्री तो उनका था, लेकिन वैचारिक रूप से वे इस सरकार के भागीदारों के खिलाफ थे। उन्हें समझ नहीं पड़ रहा था कि वे किस तरह वोटरों के सामने अपनी बात रखनी होगी। ऐसी दुविधाओं के चलते हुए शिवसेना का एक बड़ा तबका एक बड़ी स्वाभाविक तकलीफ से गुजर रहा था, और उसकी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं थीं। भाजपा या केन्द्र सरकार का जो भी असर रहा होगा, उससे परे भी एकनाथ शिंदे और उनके साथियों की उद्धव ठाकरे से बगावत के ठोस राजनीतिक कारण थे, और चुनावी आशंकाएं थीं जिनके चलते शिवसेना में उनका रहना मुश्किल भी हो रहा था। जब आने वाले चुनावों में लोगों को अपनी परंपरागत जमीन खोने का खतरा दिखता है, तो फिर वे दलबदल से लेकर बगावत तक किसी भी बात पर उतारू हो सकते हैं, और शिवसेना की बगावत के पीछे यह भी एक वजह रही।
कुछ लोगों ने इस बात को लिखा है कि महाराष्ट्र में इस गठबंधन की सरकार को गिराकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी ने 2024 के चुनाव के लिए एक एजेंडा सेट किया है कि वे वंशवाद के खिलाफ हैं। महाराष्ट्र का यह गठबंधन तीन परिवारवादी पार्टियों का मेल था, और कांग्रेस, शिवसेना, और एनसीपी ये सब एक परिवार पर टिकी पार्टियां हैं, और इन्हें एक साथ खारिज करवाकर भाजपा ने महाराष्ट्र में जो फेरबदल करवाया है, उसका संदेश बाकी देश में भी जा सकता है। इसी तरह ऐसा भी कहा जा रहा है कि भाजपा तेलंगाना में मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव को भी वंशवादी करार देकर खारिज करवाना चाहते हैं, और इसी के चलते हुए अभी जब मोदी भाजपा की राष्ट्रीय बैठक में हैदराबाद पहुंचे तो केसीआर ने उनसे सीधा टकराव लिया। केसीआर का बेटा उनका मंत्री है, और उनकी बेटी सांसद रह चुकी है, और अभी विधायक है, और उनका भतीजा भी ताकतवर वित्तमंत्री है। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि अगले चुनाव में मोदी वंशवाद को एक बड़ा मुद्दा बना सकते हैं, जिसके निशाने पर लालू यादव से लेकर मुलायम तक के परिवार भी आ जाएंगे, और अपने भतीजे को आगे बढ़ाती ममता बैनर्जी भी आ जाएंगी। वंशवाद को आज भाजपा बड़े मुद्दे की तरह पेश नहीं कर रही है, क्योंकि अगर उसका मकसद 2024 में इसे मुद्दा बनाना है, तो वह इसे वक्त के पहले खर्च करना नहीं चाहेगी।
महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार आने से जिन लोगों को दुख और तकलीफ है, उनके लिए तो शिवसेना के पतन के महत्व को समझ पाना आज कुछ मुश्किल होगा। लेकिन अभी पिछली सरकार तक का दौर अगर देखें, तो यही शिवसेना वहां जितनी साम्प्रदायिक थी, उसने यूपी-बिहार के लोगों के खिलाफ जिस तरह का हिंसक अभियान छेड़ा हुआ था, वह मुम्बई की सडक़ों पर जिस तरह का बाहुबल का राज करते आई थी, उन सब बातों को एक बार फिर याद करके देखना चाहिए, और यह सोचना चाहिए कि इस गठबंधन सरकार के पहले तक की शिवसेना का पतन क्या सचमुच ही लोकतंत्र के लिए किसी तरह का नुकसान है? कुनबापरस्ती से परे भी अधिकतर ऐसे मुद्दे थे जो शिवसेना को एक अलोकतांत्रिक पार्टी साबित करते आए हैं, उसका घोर मुस्लिमविरोधी चेहरा हमेशा सबके सामने रहा है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि बाल ठाकरे ने बाबरी मस्जिद गिराने का दावा करते हुए कहा था कि उसे शिवसैनिकों ने गिराया है। इसलिए अगर महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का एक पतन हो रहा है, तो उसे लोकतंत्र का एक पतन मान लेना सही नहीं होगा, और कांग्रेस और एनसीपी को अगले चुनाव तक वैचारिक रूप से ईमानदार एक गठबंधन की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें शिवसेना की कोई जगह नहीं हो पाएगी। पार्टियों में विभाजन कोई बहुत ही अनहोनी बात नहीं रहती है, एनसीपी कांग्रेस से ही अलग होकर बनी थी, और ममता बैनर्जी ने भी कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी। इसलिए महाराष्ट्र में शिवसेना का विभाजन कोई बहुत बड़ा खतरा नहीं है, बल्कि यह वैचारिक ईमानदारी के आधार पर लोगों को दुबारा घर बसाने या पड़ोसी छांटने का एक मौका है।
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हिन्दुस्तान की फिक्र करने वाले लोग यहां की भ्रष्ट हो चुकी कार्य-संस्कृति को लेकर बहुत निराश रहते हैं। लोगों को लगता है कि जापान की तरह की ईमानदारी अगर हिन्दुस्तानी लोगों में आ जाती, तो देश की उत्पादकता कई गुना बढ़ जाती, और जनता के पैसों की बर्बादी खत्म हो जाती। खैर, जापान सरीखा बनने में हिन्दुस्तानियों की सपनों की एक सिरीज लगेगी, और सस्ते में ऐसे सपने देखे भी नहीं जा सकेंगे। फिर भी देश में इक्का-दुक्का ऐसे लोग निकल जाते हैं जो कि बाकी हिन्दुस्तानियों में हीनभावना और अपराधबोध भरने का राष्ट्रद्रोह करते दिखते हैं। ऐसा ही एक मामला अभी बिहार के मुजफ्फरपुर में सामने आया जहां पर अम्बेडकर विश्वविद्यालय के हिन्दी के सहायक प्राध्यापक ने पौने तीन बरस अपनी कक्षाओं में छात्र-छात्राओं की हाजिरी शून्य रहने पर पूरी तनख्वाह, 23 लाख 82 हजार रूपये विश्वविद्यालय को लौटा दी। विश्वविद्यालय ने जब चेक लेने से आना-कानी की तो डॉ. ललन कुमार ने नौकरी छोड़ देने तक की बात की, आखिर विश्वविद्यालय को चेक लेना पड़ा। वे एक किसान परिवार से आकर बिहार में पढऩे के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय और जेएनयू से पढ़े, और गोल्ड मेडल प्राप्त, राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त इस प्राध्यापक ने यह कहते हुए पैसा लौटाया कि अगर शिक्षक इसी तरह तनख्वाह लेते रहे तो पांच साल में उनकी अकादमिक मौत हो जाएगी। उनका कहना है कि हिन्दी में ग्यारह सौ छात्र-छात्राओं के नाम दर्ज हैं, लेकिन उनकी हाजिरी लगभग शून्य है, और ऐसे में उनका वेतन लेना अनैतिक होगा। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने तीन दिन से चली आ रही इस खबर के साथ एक दूसरी खबर पोस्ट की है जो कुछ महीनों से सोशल मीडिया पर है, और बताती है कि आरएसएस के एक घोषित विचारक जो टीवी पर अक्सर संघ की विचारधारा रखते दिखते हैं, उन्होंने किस तरह भोपाल के माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से बिना पढ़ाए लाखों रूपये वेतन लिया है।
जिस वक्त ये दोनों कतरनें सोशल मीडिया पर लगातार तैर रही हैं, उसी वक्त ट्विटर पर एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसमें रेलवे का एक टीटीई रोते-रोते बता रहा है कि किस तरह बिहार पुलिस के लोगों ने ट्रेन के भीतर उनसे टिकट पूछने पर उनकी जमकर पिटाई की, और उन्होंने महिला मुसाफिरों के हाथ-पैर जोड़े तो उन्होंने बीच-बचाव करके उन्हें किसी तरह बचाया, और डिब्बे के मर्द मुसाफिर बीच में नहीं पड़े, बचाने की कोई कोशिश नहीं की। अब यह भी हिन्दुस्तान की एक आम संस्कृति हो गई है कि अगर किसी पर हमला हो रहा है, तो उसे बचाने के लिए दूसरे लोग दखल नहीं देते। उस वक्त इस बात को भूल जाते हैं कि किसी वक्त ऐसा हमला उन पर भी हो सकता है, और उन्हें भी बचाने वाले नहीं मिलेंगे।
जो हिन्दुस्तान अपने किसी काल्पनिक गौरवशाली इतिहास का गुणगान करते हुए मदमस्त इठलाता रहता है, उसकी हकीकत ऐसी ही है। भरी सडक़ पर किसी दलित की नंगी पीठ पर गुंडे अगर अपना बेल्ट तोड़ रहे हैं, तो सैकड़ों तमाशबीन वीडियो बनाने की अपनी सबसे बड़ी नागरिक जिम्मेदारी पूरी करते रहते हैं। किसी अकेले बेबस को बचाने कोई आगे नहीं बढ़ते। अभी दो दिन पहले ही मध्यप्रदेश का एक वीडियो आया है कि किसी एक महिला के कंधे पर उसके पति को बिठा दिया गया है, और उस महिला के बाल खींचते हुए, उसे पीटते हुए गांव में उसका जुलूस निकाला जा रहा है, छोकरे उसे मार रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं। कमउम्र लडक़ों को यही हिन्दुस्तानी संस्कृति विरासत में दी जा रही है, जो कि दुनिया के किसी भी सभ्य देश में एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं होगी। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, और गरीबों पर जुल्म का अंतहीन सिलसिला इस देश में चलता है, और शायद ही कोई ऐसा वीडियो सामने आया हो जिसमें लोगों ने भीड़ या गुंडों के ऐसे जुर्म को रोकने की कोशिश भी की हो। जहां पर तमाशबीन गुंडों से कई गुना अधिक रहते हैं, वहां भी कोई बचाने के लिए सामने नहीं आते।
विश्वविद्यालय के जिस प्राध्यापक की बात से आज की यह चर्चा शुरू हुई है, वैसे लोग विश्वविद्यालयों में भी कम हैं। छत्तीसगढ़ में उच्च शिक्षा विभाग ने एक ऐसा प्राध्यापक देखा है जिसे एक जिला मुख्यालय के कॉलेज में उनकी विशेषज्ञता का विषय पढ़ाने के लिए तैनात किया गया था। वह जगह उनके रहने के शहर से दो घंटे की दूरी पर थी। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने उस कॉलेज में दाखिला लेने आने वाले हर छात्र-छात्रा का हौसला पस्त किया कि इस विषय को पढक़र क्या करोगे, इससे कोई नौकरी नहीं मिलेगी, दूसरा विषय ले लो। और फिर दो बरस ऐसे गुजारकर उन्होंने सरकार के सामने साबित कर दिया कि इस शहर में यह विषय कोई पढऩा ही नहीं चाहते, इसलिए उन्हें यहां से हटाया जाए। विचार के इस कॉलम में हम यह मिसाल इसलिए दे रहे हैं कि जब बिहार के इस प्राध्यापक को तनख्वाह लौटाते देखते हैं, तो आए हुए छात्र-छात्राओं को लौटाने वाला छत्तीसगढ़ का यह प्राध्यापक अनायास याद आ जाता है। यही अब भारत की संस्कृति हो चुकी है कि काम कैसे न किया जाए। भारतीय संस्कृति का झंडा लेकर उसके डंडे से दुनिया की बाकी तमाम संस्कृतियों पर हमला करने, और उन्हें हिकारत से देखने वाले हिन्दुस्तानी विश्वगुरूओं को यह बात समझ लेना चाहिए कि उनके नारों से दुनिया में उनका सम्मान नहीं बढ़ता। दाऊद इब्राहिम अगर किसी कलाकार से नोबल शांति पुरस्कार का मैडल बनवाकर उस पर अपना नाम लिख ले, तो उससे उसका सम्मान नहीं बढ़ जाएगा।
हिन्दुस्तान की आम संस्कृति में खामियां गहरी जड़ें जमा चुकी हैं। सरकारी नौकरियों के चक्कर में लोग इसलिए भी रहते हैं कि वहां बिना काम किए तनख्वाह मिलती है। कुछ ऐसा ही हाल सरकारों के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों का रहता है, जिन्हें डुबाने में सरकार के बड़े लोगों के भ्रष्टाचार के साथ-साथ कर्मचारियों के निकम्मापन भी शामिल रहता है, और सबकी मिलीजुली मेहनत से इन संस्थानों को बेचने का बहाना मिल जाता है। यह पूरा सिलसिला किसी देश को तबाह करने वाला है, और हिन्दुस्तान काफी हद तक तबाह हो चुका है। सरकारी कामकाज में जगह-जगह हरामखोरी देख-देखकर अब हिन्दुस्तान के निजी क्षेत्रों में भी ऐसा ही हाल होने लगा है, और मुफ्तखोरी लोगों का पसंदीदा काम हो गया है। ऐसे में जब कोई एक प्राध्यापक बिना पढ़ाए मिली तनख्वाह को लौटाने पर उतारू हो जाता है, तो देश के बाकी लोगों को भी अपने-अपने काम के बारे में सोचना चाहिए।
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ब्रिटिश सरकार के लिए आज का दिन भारी हडक़म्प का है। वहां के वित्तमंत्री, एक भारतवंशी, ऋषि सुनक और स्वास्थ्य मंत्री साजिद जाविद ने अलग-अलग वजहें बताते हुए सरकार से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन दोनों का ही यह कहना है कि प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की लीडरशिप में अब उनका भरोसा नहीं है। यह सिलसिला पिछले कई महीनों से चल रहा था जब प्रधानमंत्री पर यह तोहमत लगी थी कि जब पूरे देश पर लॉकडाउन के कड़े नियम लगाए गए थे तब प्रधानमंत्री निवास-कार्यालय में काम के बीच उन्होंने और उनके सहयोगियों ने दावतें की थीं, और लॉकडाउन के नियमों को तोड़ा था। प्रधानमंत्री ने संसद के भीतर इस बात को गलत करार दिया था, लेकिन जब लंदन की पुलिस, और संसद की एक कमेटी ने इस मामले की जांच की, तो पता लगा कि बोरिस जॉनसन ने झूठ कहा था, और इस बात को लेकर भी उनकी कन्जरवेटिव पार्टी के भीतर सांसदों में बड़ी नाराजगी थी, और कुछ लोग उनसे इस्तीफे की उम्मीद भी कर रहे थे। लेकिन इसके अलावा भी कई दूसरे मुद्दे थे जिन्हें लेकर प्रधानमंत्री से उनके सहयोगी मंत्रियों की असहमति चली आ रही थी, और ऐसे कुछ इस्तीफों की आशंका बनी हुई थी। अब इन दो इस्तीफों के बाद ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री के जाने का वक्त आ गया है, और आड़े वक्त उनके साथ खड़े रहने वाले साथी मंत्रियों के जाने का झटका खासा बड़ा है।
ब्रिटेन के मंत्रिमंडल और वहां के प्रधानमंत्री के मामलों पर इस जगह लिखने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन यह मुद्दा सोचने लायक है कि अगर लोग अपने मुखिया से सहमत नहीं हैं, और उसे बदलने की ताकत भी नहीं रखते हैं, तो फिर उन्हें खुद हट जाने का हौसला भी रखना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि इन दो ब्रिटिश मंत्रियों ने कोई ऐसा हौसला दिखाया है जो कि अनोखा हो। हिन्दुस्तान में भी कई ऐसे दौर आए हैं जब मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से असहमत किसी मंत्री ने इस्तीफा दिया हो, और घर बैठना बेहतर समझा हो। घर बैठने की बात जरूरी इसलिए है कि हाल के बरसों में हिन्दुस्तान में भी किसी मंत्री का इस्तीफा अमूमन तभी सामने आता है जब वे सरकार छोडक़र, कई सांसदों या विधायकों को तोडक़र कोई नई सरकार बनाने की हालत में रहते हैं। अब तो थोक में होने वाले दलबदल की शर्तें बदली जा चुकी हैं, और एक तिहाई सांसद या विधायक पार्टी नहीं छोड़ सकते, इसके लिए दो तिहाई सांसद-विधायक होना जरूरी है तभी उनकी सदस्यता बचती है। और अब तो बड़ी-बड़ी विधानसभाओं में भी ऐसी दो तिहाई बगावत सामने आ रही है। लेकिन ये इस्तीफे किसी सैद्धांतिक असहमति या त्याग के लिए नहीं होते, ये इस्तीफे नई सरकार बनाने के लिए होते हैं, और सैद्धांतिक आधार पर इस्तीफे अब हिन्दुस्तान में चलन से बाहर हो गए हैं। अब यहां किसी राज्य में, या केन्द्र की किसी गठबंधन सरकार में पूरी तरह से असहमत और बेचैन लोग भी सहूलियतों के लिए, कमाई के लिए सत्ता में बने रहते हैं, और सत्ता का मोह उनसे नहीं छूटता।
ब्रिटेन का यह ताजा मामला एक बार फिर याद दिलाता है कि लोकतंत्र गिरोहबंदी का नाम नहीं है, कि एक पार्टी के नाम पर, या संगठन की एकता के नाम पर गलत कामों और बुराईयों के साथ बना रहा जाए। ये दो इस्तीफे बतलाते हैं कि सैद्धांतिक असहमति, या अपने ही मुखिया के गलत काम का विरोध करने के लिए भी कुर्सी छोड़ी जा सकती है। ब्रिटिश वित्तमंत्री ऋषि सुनक के बारे में वहां की राजनीति में यह चर्चा काफी अरसे से बनी हुई थी कि वे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की अलोकप्रियता या नाकामयाबी की हालत में पार्टी के अगले नेता हो सकते हैं, लेकिन ऐसी राजनीति से परे उन्होंने मुद्दों पर इस्तीफा दिया है, और बाकी जगहों पर भी लोकतंत्र को ऐसी घटनाओं को बारीकी से देखना चाहिए। कभी भी किसी पार्टी या सरकार का संगठन अनैतिक कामों की गिरोहबंदी में तब्दील नहीं होना चाहिए। पार्टियों के भीतर इतने लोकतंत्र की गुंजाइश रहनी चाहिए कि लोग मुखिया से असहमत होकर भी वहां रह सकें। जब आंतरिक असहमति की गुंजाइश खत्म हो जाती है, तो किसी संगठन या सरकार का कैसा नुकसान होता है इसे देखना हो तो आपातकाल के संजय गांधी के दबदबे को याद करना चाहिए कि किस तरह संगठन और सरकार के सबसे बड़े लोगों की भी जुबान सिल दी गई थी, और इंदिरा गांधी को जमीनी हकीकत का पता चुनाव हार जाने के बाद ही चला था। अगर किसी संगठन और सरकार में असहमति की कोई जगह नहीं रहेगी तो उसका सबसे बड़ा नुकसान आंतरिक या बाहरी लोकतंत्र का होगा।
किसी सरकार या संगठन के अंधाधुंध बाहुबल, और उसकी लंबी स्थिरता पहली नजर में एक अच्छी बात लग सकती है, लेकिन यह बात एक खतरे के साथ ही आती है। ऐसी बाहुबली-स्थिरता लोकतंत्र को खतरे में डालने का खतरा रखती है। हिन्दुस्तान ने भी ऐसी बाहुबली-स्थिरता की कई मिसालें देखी हैं, और दुनिया के अलग-अलग किस्म के लोकतंत्रों में भी यह बात इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। एक प्रधानमंत्री देश के लिए बनाए गए कड़े कोरोना-कानूनों के खिलाफ अपने घर पर दावत करे, वहां शराब पार्टी हो, और फिर उसकी जानकारी बाहर आने पर उसे तब तक झुठलाया जाए जब तक कि उसके फोटो-सुबूत सामने न आ जाएं, ऐसी स्थिरता किसी काम की नहीं रहती है। लोकतंत्र पूरे पांच बरस की गारंटी वाला होना जरूरी नहीं होता है, उसका लोकतांत्रिक होना अधिक जरूरी रहता है। हिन्दुस्तानी संसदीय राजनीति में राममनोहर लोहिया की कही हुई यह बात अक्सर दुहराई जाती है कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। उनके कहने का मतलब किसी सरकार को अस्थिर बनाना नहीं था, उनका मतलब बड़ा साफ था कि अगर सरकार लोकतांत्रिक नहीं रह गई है, नैतिक नहीं रह गई है, तो उसे पांच बरस ढोने वाले लोग मुर्दा होते हैं, जिंदा कौमें नहीं होते हैं।
ब्रिटेन की सरकार इस झोंके या आंधी से किस तरह उबरती है, यह तो आने वाले हफ्तों में सामने आएगा, लेकिन लोकतंत्र में असहमति और विरोध का महत्व इन इस्तीफों से सामने आ चुका है, और बाकी जगहों पर भी लोकतंत्रों को आईना देखना चाहिए।
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उत्तराखंड और आसपास के पहाड़ी इलाकों से आए दिन पहाड़ धसकने से हादसों की खबरें आ रही हैं। उत्तराखंड प्रमुख हिन्दू तीर्थस्थानों की वजह से तीर्थयात्रियों से भरा रहता है, और खतरे उठाकर भी लोग जान देने की कीमत पर भी वहां जाते हैं। कुछ साल पहले की वहां की विकराल बाढ़ में हजारों से लेकर दसियों हजार तक लोगों के मरने की आशंका थी, जिनमें से हजारों का तो कुछ पता भी नहीं चला है। लेकिन अब वहां सडक़ों को चौड़ा किया जा रहा है, ताकि अधिक गाडिय़ां आ-जा सकें, ट्रैफिक की रफ्तार बढ़ सके। नतीजा यह है कि पहाड़ों को काटकर सडक़ें निकाली जा रही हैं, और उस इलाके का नक्शा ही बदला जा रहा है, बड़ी संख्या में पेड़ भी गिर रहे हैं, और यह जाहिर है कि पेड़ों की जड़ें हटने से मिट्टी भी खोखली होगी, और अगली बारिशों में भूस्खलन का खतरा और बढ़ेगा। और यह सब खतरे तो उस हालत में भी बढ़ रहे हैं जिस हालत में पिछली विनाशकारी बाढ़ जैसी नौबत न भी आए। सवाल यह है कि पर्यटन और तीर्थ, इन दोनों को ढोने की कितनी क्षमता उत्तराखंड या अड़ोस-पड़ोस के पहाड़ी इलाकों में है? उत्तराखंड और हिमाचल की दिक्कत यह है कि जब कभी किसी वजह से सैलानियों का कश्मीर जाना नहीं हो पाता है, वे इन दो प्रदेशों की तरफ रूख करते हैं, और यहां पर्यटन के महीनों में पानी की भारी कमी होने लगी है, और स्थानीय लोग पर्यटन की कमाई के बावजूद उससे थकने लगे हैं।
जो इलाके पर्यावरण के हिसाब से नाजुक मिजाज हैं, जहां खतरे कुछ अधिक रहते हैं, उन्हें लेकर बार-बार यह बात उठती है कि वहां पर पर्यटन और दूसरे किस्म की आवाजाही, कारोबार और निर्माण, इन सभी की सीमा तय होनी चाहिए। जिस तरह 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ ने यह साबित कर दिया था कि उसके सामने इंसानों के बनाए हुए ढांचों और सरकार के किसी भी इंतजाम की कोई अहमियत नहीं है, वैसी नौबत दुबारा आ सकती है, और ऐसा कोई भी विनाश प्राकृतिक नहीं रहने वाला है, मानव निर्मित रहने वाला है। पर्यावरण के जानकार लोग पहाड़ी इलाकों में डीजल-पेट्रोल की गाडिय़ों की आवाजाही, उनसे होने वाले प्रदूषण के खतरों से आगाह करते ही रहते हैं। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में बांध की परियोजना और पनबिजली योजना भी जमीनी हालात को खतरनाक बनाते जा रही हैं। इनके बारे में भी जानकार विशेषज्ञ लगातार चेतावनी देते हैं, लेकिन पांच-पांच बरस के लिए आने-जाने वाली सरकारों से सैकड़ों बरस के पडऩे वाले फर्क की फिक्र की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस तरह देखें तो पहाड़ी इलाके कुदरत की कभी-कभी की मार से परे सरकार की योजनाओं, और इंसानों की तीर्थ और पर्यटन की हसरतों, इन दोनों के शिकार होते चल रहे हैं। इन्हीं सब हालात को देखते हुए कई बरस पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल उत्तराखंड सरकार और उसकी उद्योग और प्रदूषण की संस्थाओं को बुरी तरह फटकार लगा चुका है, लेकिन बड़ी-बड़ी योजनाओं से सत्ता के बड़े-बड़े दो नंबरी हित जुड़े होते हैं, और कुदरत वहां प्राथमिकता नहीं रह जाती है। पहाड़ और जंगल काट-काटकर विकास के नाम पर इतने तरह के निर्माण होते हैं, कि पहाड़ी नदियों को बदला हुआ रास्ता नहीं सूझता, और आए दिन भूस्खलन से हादसे होते जा रहे हैं।
अब ऐसे में एक बड़ा खतरा बाकी ही है। दुनिया के पर्यावरण विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि उत्तराखंड के और ऊपर, हिमालय के ग्लेशियर दुनिया के कई दूसरे इलाकों के ग्लेशियरों की तरह तेजी से पिघल रहे हैं, या और तेजी से पिघलने जा रहे हैं। इसलिए ग्लेशियर पिघलने से पहाड़ी नदियों की बाढ़ एक अलग खतरनाक नौबत ला सकती है, जिस पर इंसानों का कोई काबू भी नहीं रहेगा। इंसान अपनी तरफ से पहाड़ों को बड़ी-बड़ी गाडिय़ों से पाटकर, पर्यटन के बाद छोड़े गए कचरे से पाटकर एक अलग खतरा खड़ा कर रहे हैं, और धरती पर गर्मी बढऩे से ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाला खतरा एक अलग खतरा है। पहाड़ों पर विकास के नाम पर जिस तरह विस्फोटक लगा-लगाकर चट्टानों को उड़ाया जा रहा है, उनसे भी जमीन के भीतर के पत्थर-मिट्टी के ढांचों में दरार आ रही है, और इससे होने वाले खतरे आंखों से दिख भी नहीं रहे हैं।
कुल मिलाकर एक बात कही जा सकती है कि पांच बरस की निर्वाचित सरकारों से पांच लाख बरस पुरानी धरती के अगले पचास बरस की फिक्र की उम्मीद ही जायज नहीं है। और हाल के बरसों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने जिस तरह नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के खिलाफ बागी तेवर दिखाए हैं, उसका लगाया हुआ जुर्माना तक जमा नहीं किया है, वह अपने आपमें एक बहुत खतरनाक नौबत है। हर प्रदेश सत्ता पर काबिज नेताओं की कमाई की नीयत के शिकार हैं, और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जिस मकसद से बनाया गया था, उसे शिकस्त देने पर हर कोई आमादा हैं। यह सिलसिला इस धरती को जाने कहां ले जाकर छोड़ेगा। सत्ता पर बैठे लोगों के हाथों पर्यावरण के अधिक फैसले कभी भी नहीं दिए जा सकते। लेकिन इस सिलसिले को कोई कैसे बदलेगा, यह रास्ता भी नहीं सूझता है।
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देश में आज चल रहे सबसे बड़े साम्प्रदायिक बवाल की जड़, भाजपा की उस वक्त की प्रवक्ता नुपूर शर्मा पर एक कड़ी टिप्पणी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जे.बी.पारदीवाला ने दो दिन पहले एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि सोशल और डिजिटल मीडिया पर आज कल जजों के फैसलों के रचनात्मक और आलोचनात्मक मूल्यांकन के बजाय उनके खिलाफ निजी राय जाहिर की जा रही है जिससे ज्युडिशियरी को नुकसान पहुंच रहा है, और यह उसकी गरिमा को कम कर रहा है। उन्होंने कहा कि इस मायने में कानून के शासन को बनाए रखने के लिए डिजिटल और सोशल मीडिया को रेगुलेट किया जाना जरूरी है। दरअसल जस्टिस पारदीवाला ने नुपूर शर्मा को लेकर बड़ी कड़ी टिप्पणियां की थीं, जिन्हें लेकर कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टी को सत्तारूढ़ भाजपा पर कड़ा हमला करने का मौका मिला था। सोशल मीडिया पर भी नुपूर शर्मा के आलोचक इन टिप्पणियों को लेकर हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों, और भाजपा पर टूट पड़े थे, दूसरी तरफ नुपूर शर्मा के प्रशंसकों ने सुप्रीम कोर्ट जज की इस टिप्पणी के खिलाफ सोशल मीडिया पर #सुप्रीमकोठा नाम से एक अभियान छेड़ा था। लोगों ने जस्टिस पारदीवाला की जमकर आलोचना शुरू की थी। मोटेतौर पर नुपूर शर्मा फैंस क्लब का यह भी कहना था कि नुपूर शर्मा अपनी जीवनरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी, लेकिन वहां जज ने देश के साम्प्रदायिक तनाव के लिए नुपूर शर्मा को अकेले ही जिम्मेदार ठहराकर उसकी जिंदगी और खतरे में ही डाल दी। साम्प्रदायिकता के खिलाफ मुखर बहुत से धर्मनिरपेक्ष लोगों ने जस्टिस पारदीवाला की बातों को आज की जरूरत बताया, और कहा कि जब सरकार खुद होकर साम्प्रदायिकता के किसी खतरे को मानने को तैयार नहीं है, तब एक जज का यह कहना जरूरी था, और जायज था।
अब अगर इस एक मामले से परे होकर देखें, तो इसी जज की कही हुई एक बात तो आगे बढ़ाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सोशल और डिजिटल मीडिया का पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक मुद्दों के राजनीतिकरण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा कि जो मामले अदालत में चल रहे हैं, उनकी मीडिया में ऐसी समीक्षा से जज यह सोचने लग सकते हैं कि किसी मुद्दे पर मीडिया क्या सोचता है, और वे कानून क्या कहता है के बजाय मीडिया क्या कहता है इस पर अधिक ध्यान देने लग सकते हैं।
यह मुद्दा महत्वपूर्ण भी है, और महत्वहीन भी है। भारत जैसे लोकतंत्र में, या किसी भी लोकतंत्र में जजों को जनता की प्रतिक्रियाओं को जानते हुए ही किसी मामले की सुनवाई करनी होती है, और फैसला देना होता है। वे अपने आपको बिजली के तार की तरह प्लास्टिक या रबर के घेरे में नहीं सकते, और उन्हें मीडिया या दूसरी सामाजिक प्रतिक्रियाओं के बीच ही सांस लेना होता है, और उसी बीच काम करना होता है। ऐसा भी नहीं कि केवल सुप्रीम कोर्ट के जज ही बाहर की प्रतिक्रियाओं को देखते-सुनते हैं। लोकतंत्र के बाकी लोग भी जजों की बातों को सुनते हैं, और पिछले कुछ हफ्तों में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने योरप और अमरीका के अपने दौरे के दौरान निजी कार्यक्रमों में भी जो बातें कही हैं, उन्हें भी तमाम लोग सुन रहे हैं, और हिन्दुस्तान में सरकार में कुछ लोग उनके हर शब्द का नोटिस ले रहे होंगे। लोकतंत्र एक लचीली व्यवस्था है, और इसमें फौलादी दीवारें नहीं बनाई जा सकतीं। किसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में मामला भी चल रहा है, और उसी मुद्दे पर कानून बनाने की ताकत रखने वाली संसद में भी बहस चलती रहती है, और सांसद और जज दोनों ही एक-दूसरे की बातों को सुनते रहते हैं। इसलिए संसद या न्यायपालिका को किसी टापू पर अलग से बसकर काम करने की जरूरत नहीं रहती, और विचारों का प्रवाह चारों तरफ जारी रहता है। लेकिन यह बात सही है कि जब सोशल मीडिया पर बदनीयत से किसी जज के खिलाफ #सुप्रीमकोठा जैसी मुहिम छेड़ी जाती है, तो उस जज की मानसिक स्थिति पर उसका असर होना तय रहता है। लेकिन जिन हाथों में देश के बड़े से बड़े लोगों पर फैसला देने का अधिकार रहता है, उनके सिरों पर ऐसा बोझ तो कभी न कभी आ ही सकता है।
दूसरी तरफ अमरीकी न्यायव्यवस्था को देखें तो वह भी पिछले एक पखवाड़े से लगातार अभूतपूर्व चर्चा में है। उसके एक के बाद एक फैसले अमरीका को 18वीं सदी में ले जाने वाले कहे जा रहे हैं, पचास बरस पहले से वहां सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से स्थापित गर्भपात के हक को महिला से छीन लिया गया है, दूसरी तरफ लोगों के सार्वजनिक जगहों पर निजी हथियार लेकर जाने के हक को जायज करार दिया गया है। ऐसे ही एक-दो और फैसलों को लेकर अमरीका मेें आज सुप्रीम कोर्ट को पाषाण युग की अदालत कहा जा रहा है, और वहां तो अदालती फैसले के बाद उससे सहमत या असहमत जजों में से एक-एक के इतिहास को खंगालकर यह विश्लेषण भी किया जाता है कि उनमें से किसकी पहले कैसी निजी विचारधारा रही है, और वह इस फैसले में कैसी झलक रही है। लोग जजों के राजनीतिक संबंधों पर भी लिखते हैं कि किस राष्ट्रपति ने किस विचारधारा के तहत उस व्यक्ति को जज बनाया था। वहां जज बनने के पहले ही राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत व्यक्ति को लंबी संसदीय सुनवाई का सामना करना पड़ता है जिनमें उनसे हर किस्म के निजी और सार्वजनिक सवाल करते हुए सांसद टीवी कैमरों के सामने कई-कई दिन तक उनकी निजता की बखिया उधेड़ते हैं। ऐसे जजों के सामने जब कोई मामले रहते हैं, तो उनकी अदालतों के सामने सडक़ों पर लोग प्रदर्शन करते रहते हैं, और अलग-अलग किस्म की मांग करते रहते हैं, विरोध करते हुए बैनर-पोस्टर लेकर जुलूस निकालते रहते हैं। वह एक अधिक बड़ा सार्वजनिक दबाव रहता है, लेकिन किसी अमरीकी जज ने कभी ऐसे दबाव का जिक्र नहीं किया है।
हिन्दुस्तान में भी जजों को सोशल मीडिया पर उनके और उनके फैसलों के बारे में कही जा रही बातों को अनसुना करना चाहिए। उन्हें यह भी अनसुना करना चाहिए कि टीवी जैसे बकवास मीडिया पर सबसे घटिया दर्जे के हिंसक और साम्प्रदायिक लोग अदालत में खड़े हुए मुद्दों पर क्या बकवास कर रहे हैं। कुछ तो जजों को अपने को ऐसी बकवास से दूर रखना चाहिए, और फिर भी अगर उनके आंख-कान तक ये पहुंच ही जाएं, तो भी उन्हें अनदेखा और अनसुना करना सीखना चाहिए। लोकतंत्र के सभी स्तंभों को चमड़ी कुछ मोटी करने की आदत डालनी चाहिए, ताकि वे तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं के प्रति अधिक संवेदनशील न रहें। आज के वक्त तो मीडिया के अच्छे और बुरे सभी किस्म के महत्वपूर्ण लोगों के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान चलते ही रहते हैं, केन्द्र सरकार में बैठे बड़े-बड़े केन्द्रीय मंत्रियों ने जर्नलिस्ट और प्रेस शब्दों को तोड़-मरोडक़र प्रेस्टीट्यूट जैसा शब्द निकाला है जिसका मतलब एक वेश्या-पत्रकार होता है। इसलिए लोकतंत्र में ओछी और घटिया मुहिम से सिर्फ न्यायपालिका अपने आपको बचाए, यह भी जायज नहीं होगा। उसके हाथ में तो अदालती ताकत है, और वह तो किसी बात को अपनी अवमानना मानकर लोगों को कटघरे में बुला सकती है, लेकिन सार्वजनिक जीवन के उन जिम्मेदार लोगों का क्या होगा जिन्हें हजार-हजार लोग बलात्कार की धमकी देते हैं, जिनके बच्चों तक को बलात्कार की धमकियां दी जाती हैं? अगर सोशल मीडिया को रेगुलेट करने का कोई कानून बनना है, तो वह सिर्फ न्यायपालिका की इज्जत बचाने के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए। वह सोशल मीडिया पर किसी भी तबके की बेइज्जती के खिलाफ बनाया जाना चाहिए, और हकीकत तो यह है कि ऐसा मजबूत कानून बना हुआ है, लेकिन सरकारें अपनी राजनीतिक पसंद के मुताबिक ऐसे जुर्म अनदेखे करते चलती हैं। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट के जज आज तक तो किसी भी तरह के हमले से परे रहते आए हैं, उन्हें बेफिक्री से, और बेधडक़ अपना काम करना चाहिए, क्योंकि नाजुक मुद्दों पर उनका हर फैसला इतिहास भी गढ़ता और बदलता है।
हिन्दुस्तान के जिस उत्तरप्रदेश में राम बसते हैं, जहां की सरकार रामराज का दावा करती है, उस प्रदेश की एक खबर पिछली कई सरकारों के हाल को बताने वाली आई है। 1996 में उत्तरप्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा था, उसके बाद मायावती लौटकर फिर मुख्यमंत्री बनी थीं, उनके बाद कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह, मायावती, मुलायम सिंह यादव, मायावती, अखिलेश यादव, और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। तीन दशक का यह वक्त गुजर गया तब जाकर सत्तर बरस के रामरतन को अदालत से रिहाई मिली है। जब वह 44 बरस का था, तब पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया, और उस पर आरोप लगाया कि उसके पास कट्टा है। यह देसी पिस्तौल कभी बरामद नहीं हो पाई, अदालत में पुलिस कभी पेश नहीं कर पाई, लेकिन मामला चलते ही रहा। और आज सबसे निचली अदालत में इस मामले का फैसला हुआ तो उसे बेकसूर मानकर बरी किया गया। इन 26 बरसों में अदालत में उसे चार सौ बार पेश होना पड़ा, और अब वह 70 बरस का हो चुका है, और पूरा परिवार जिंदगी खो चुका है। इस मामले के चलते बच्चे पढ़ नहीं पाए, और परिवार बर्बाद हो गया। 1996 से चली आ रही कट्टे की तोहमत से निचली अदालत ने उसे 2020 में बरी कर दिया था, लेकिन सरकारी वकील ने फिर जोर डालकर मामला खुलवाया, और अब जाकर दुबारा वही फैसला सामने आया।
आज जब हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री से लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तक दुनिया भर में घूम-घूमकर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र और न्यायव्यवस्था के बारे में सौ तरह की बातें कह रहे हैं, तो इस देश में ऐसे मामले सामने आना जारी है जो बताते हैं कि यह लोकतंत्र किस हद तक नाकामयाब भी हो चुका है। आजाद हिन्दुस्तान का इतिहास सरकारी अमले की हिंसा और कमजोर लोगों के साथ उसकी बेइंसाफी से भरा हुआ है। लोगों को बिहार का आंख फोडऩे का मामला याद होगा, भागलपुर में 70-80 के दशक में पुलिस ने एक ऑपरेशन गंगाजल चलाया। इसके तहत पुलिस ने 33 अपराधियों की आंखों को फोड़ा, और उन्हें इंजेक्शन की सिरींज से तेजाब डाला। इसी को पुलिस और जनता ने गंगाजल माना। छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षा बलों ने आदिवासी महिलाओं से बलात्कार और बेकसूर आदिवासियों की हत्याओं के अनगिनत जुर्म किएं, लेकिन उनके खिलाफ जांच आयोग की रिपोर्ट आ जाने के बाद भी कोई कार्रवाई तक नहीं हुई। पंजाब के आतंक के दिनों में सुरक्षा बलों ने लोगों के मानवाधिकार खूब कुचले, यही काम उत्तर-पूर्वी राज्यों में हुआ, और यही काम कश्मीर में हुआ। लेकिन हिन्दुस्तान जितने विशाल और विकराल आकार के देश की सरकारी ताकत इतनी बड़ी हो जाती है कि बिखरे हुए मानवों के अधिकार उसके सामने कहीं नहीं टिक पाते। नतीजा यह हुआ कि जगह-जगह लोगों का लोकतंत्र पर से भरोसा खत्म हुआ, और सरकार को अपनी पूरी ताकत इस्तेमाल करके फौजी वर्दियों की मदद से कथित लोकतंत्र को बचाना पड़ा, भरोसा तो नहीं बचना था, नहीं बचा।
हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था को अपने खुद के कामकाज पर गौर करना चाहिए, क्योंकि अब संसद और विधानसभाओं को बाहुबल की स्थिरता या बाहुबल की कमी की अस्थिरता के खेल खेलने से फुर्सत नहीं है। ऐसे में किसी को तो सोचना होगा कि 25-30 बरस तक अगर किसी बेकसूर को अदालत में फंसाकर रखा जाता है, तो उस परिवार की जिंदगी के उन दशकों की किसी भरपाई की जिम्मेदारी लोकतंत्र पर आती है या नहीं? आतंकी घटनाओं की तोहमत लगाकर मुस्लिमों को जेल में डालना कई पार्टियों के राज में पुलिस और सत्ता का पसंदीदा शगल रहा है, और जब ऐसे लोग 25-30 बरस बाद बेकसूर छूटते हैं, तब तक उनकी कई पीढिय़ों का वर्तमान और भविष्य सब कुछ तबाह हो चुका रहता है। इस लोकतंत्र में ऐसे इंतजाम की जरूरत है जिसमें शुरूआत के लिए कम से कम गरीब लोगों को बेकसूर बरी होने पर मुकदमे के बरसों की भरपाई न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से तो ब्याज सहित मिले। अगर एक नामौजूद कट्टे की तोहमत लगाकर राम के उत्तरप्रदेश में रामरतन नाम के गरीब के 26 बरस अदालत में झोंक दिए गए, तो उसे इन 26 बरसों की न्यूनतम मजदूरी जितना मुआवजा तो मिलना चाहिए। अब उसके बच्चों की जा चुकी पढ़ाई का तो कोई मुआवजा नहीं मिल सकता, परिवार की जिंदगी दुबारा नहीं आ सकती, लेकिन लोकतंत्र को अपनी नीयत और नीति स्थापित करने के लिए ऐसे मुआवजे का इंतजाम करना चाहिए।
हिन्दुस्तान में जिंदगी बहुत सस्ती मान ली जाती हैं, और लोगों का वक्त भी मुफ्त का मान लिया जाता है। इसीलिए सरकारी दफ्तरों से लेकर दूसरी सार्वजनिक जगहों तक सरकारें अपने निकम्मेपन की भरपाई लोगों की कतारें लगवाकर करती है। लोगों को दिन-दिन भर खड़ा करवा दिया जाता है, मानो उनके वक्त की कोई कीमत न हो। और सबसे अधिक खराब नौबत हिन्दुस्तान की अदालतों की है जहां पर गरीब इंसाफ के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी खड़े रह जाते हैं। वे अपनी आंखों से देखते हैं कि किस तरह सुबूत बिक रहे हैं, गवाह बिक रहे हैं, पुलिस और वकील बिक रहे हैं, और अदालतों के बाबू से लेकर जज तक बिक रहे हैं। और इस खरीद-बिक्री को देखते हुए भी वे अपनी पूरी जिंदगी इंसाफ कहे जाने वाले एक फैसले का इंतजार करते हैं। अभी पिछले कुछ हफ्तों से हिन्दुस्तान के मुख्य न्यायाधीश योरप और अमरीका जाकर वहां के बहुत से कार्यक्रमों में भारतीय न्यायपालिका और लोकतंत्र पर बहुत कुछ कह रहे हैं। लेकिन उसके साथ-साथ एक बड़ी जरूरत यह भी है कि न्यायव्यवस्था की लापरवाही, साजिश, या बेइंसाफी की शिकार जिंदगियों को मुआवजा देने के बारे में भी सोचा जाए।
-सुनील कुमार
हिन्दुस्तान में नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए हिन्दी के जिन समाचार चैनलों पर सबसे अधिक तोहमत लगती है, उसके समाचार-मुखिया के चैनल छोडऩे की खबर कल आई, तो कुछ लोगों ने राहत की सांस ली कि इस आदमी की नफरत अब एक चैनल पर नहीं दिखेगी। लेकिन फिर उसके इस्तीफे में यह पढक़र कि वह अपना खुद का कोई कारोबार शुरू कर रहा है लोग फिर फिक्र में पड़ गए कि यह तो नफरत की अपनी खुद की मालिकाना दुकान शुरू कर रहा है, अब पता नहीं और क्या करेगा। लेकिन जिस चैनल को छोडक़र वह निकल रहा था, उसे भी इसके जाने के बाद धंधे में बने रहना है, और वहां बाकी लोगों पर यह जिम्मेदारी भी आ गई थी कि इस आदमी की कमी न खलने दें। इसलिए कल जीन्यूज में बड़े जोर-शोर से एक समाचार दिखाया गया जिसमें राहुल गांधी का एक वीडियो दिखाया जा रहा था जिसमें वे कुछ हमलावरों को बच्चा कह रहे थे। इस वीडियो के साथ जीन्यूज के एंकर ने कहा कि राहुल गांधी ने उदयपुर हत्याकांड के आरोपियों को बच्चा कहा है। उसने कहा कि इस बर्बरता को देश का हर वर्ग सीधे-सीधे कह रहा है कि ये गलत है, और इसको कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। एंकर ने आगे कहा कि राहुल गांधी विपक्ष के सबसे बड़े नेता के तौर पर हैं, और उनका कहा सबके सामने बहुत मायने रखता है, राहुल गांधी अगर उन आरोपियों को बच्चा कह रहे हैं, और फिर सोचें ये आगे क्या संदेश लेकर जाता है, क्या कन्हैया को मारने वाला, बेरहमी से उसका कत्ल करने वाला बच्चा था?
अब जीन्यूज के इस समाचार के वीडियो के साथ देश के एक पिछले केन्द्रीय सूचना प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन राठौर सहित ढेर सारे भाजपा सांसदों, विधायकों, भाजपा प्रवक्ताओं, और आक्रामक हिन्दुत्व वाले कई टीवी पत्रकारों ने इसे री-ट्वीट किया, और बताया कि राहुल गांधी कन्हैया के हत्यारे को बच्चा कह रहे हैं, और इस तोहमत के साथ राहुल गांधी पर आतंकी, गद्दार, देशद्रोही होने जैसी तमाम तोहमतें भी लगाई गईं। यह सिलसिला कुछ घंटे चलते रहा, ऐसी हिंसक-हिन्दुत्व सोच रखने वाले लोगों ने इसे वॉट्सऐप पर खूब चलाया, चारों तरफ फैलाया। बड़े नामी-गिरामी टीवी पत्रकारों ने इसे आगे बढ़ाया। लेकिन कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी की बात का पूरा वीडियो जारी करते हुए जीन्यूज के फर्जीवाड़े का भांडाफोड़ किया। इस पूरे वीडियो में राहुल गांधी यह कहते दिख रहे हैं कि केरल के वायनाड में उनके संसदीय कार्यालय में जिन लोगों ने तोडफ़ोड़ की है, वे बच्चे हैं। उन्होंने कहा कि यह काम अच्छा नहीं है, लडक़ों ने गैरजिम्मेदाराना हरकत की है, लेकिन वे बच्चे हैं। उन्होंने यह भी कहा यह उनका संसदीय कार्यालय तो है, लेकिन उसके पहले वह वायनाड के लोगों का दफ्तर है, उनकी आवाज का दफ्तर है, इसलिए यह हमला दुर्भाग्यजनक है। उन्होंने कहा कि हमलावर बच्चे थे, और उन्होंने गैरजिम्मेदारी का काम किया है। जब कई अलग-अलग समाचार-कैमरों की रिकॉर्डिंग में राहुल गांधी का यही पूरा भाषण निकलकर सामने आया, और कांग्रेस पार्टी ने भी इस पूरे भाषण को पोस्ट किया, तब जाकर जीन्यूज ने अपने उस समाचार बुलेटिन को इंटरनेट से हटाया, और अगले समाचार बुलेटिन में अपनी गलती मानी, लेकिन इसका कोई जिक्र नहीं किया कि राहुल गांधी पर उन्होंने तीन हत्यारों को बच्चा कहने का झूठ कहा था। अपने उस गलत काम के जिक्र के बिना उन्होंने सिर्फ अपनी जानकारी को गलत करार दिया, जिसे लेकर उसके खिलाफ कई किस्म की कानूनी कार्रवाई आज हो सकती है। यह कार्रवाई कांग्रेस और राहुल गांधी की साजिशन बेइज्जती की तो हो ही सकती है, यह कार्रवाई धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक नफरत फैलाने की भी हो सकती है। अभी कल ही सुप्रीम कोर्ट भाजपा की प्रवक्ता की हैसियत से ऐसे ही एक दूसरे समाचार चैनल पर नफरत और साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने वाली नुपूर शर्मा के बारे में बोल चुका है कि उदयपुर में इस हत्या और देश के आज के हिंसक माहौल की जिम्मेदार वह अकेली है। अब यह दूसरा समाचार चैनल और यह दूसरा एंकर कल ही से यह साबित करने में जुट गए कि वे नुपूर शर्मा और उसके वाले समाचार चैनल से कम नहीं हैं, और अपना चैनल कल ही छोडक़र जाने वाले सुधीर चौधरी नाम के ऐसे ही एक नफरतजीवी से भी कम नहीं है।
हिन्दुस्तान में बहुत से, या शायद बेहतर यह कहना होगा कि अधिकतर, समाचार चैनलों का काम अब झूठ के सहारे से नफरत फैलाकर, हिंसा फैलाकर अपने लिए दर्शक जुटाने का रह गया है। ऐसे देश और ऐसे मीडिया का जहर सरकार कब तक फैलने देगी यह समझ नहीं पड़ता है। केन्द्र सरकार के मातहत ऐसी संवैधानिक या नियामक संस्थाएं हैं जो कि मीडिया की ऐसी साम्प्रदायिक साजिशों पर बड़ी सख्त कार्रवाई करने के लिए बनी हैं। केन्द्र सरकार चाहे तो ऐसे साजिशन झूठ के लिए इन या किन्हीं और समाचार चैनलों को बंद भी कर सकती है, उनके खिलाफ साम्प्रदायिक दंगे भडक़ाने के मुकदमे भी कर सकती है, लेकिन ऐसा कुछ किया नहीं जा रहा है। यह सिलसिला इस देश के लोकतंत्र को गड्ढे में धकेल रहा है। लोकतंत्र से भी पहले जो तथाकथित इंसानियत की बुनियादी बातें रहना चाहिए, उन्हें भी हिन्दुस्तान में कुचल दिया जा रहा है। आने वाली पीढिय़ों के सामने एक सबसे ही खराब मिसाल पेश की जा रही है कि यही लोकतंत्र में मान्यताप्राप्त तौर-तरीके हैं, और यही लोकतंत्र है।
इस जगह पर यह भी याद करना जरूरी है कि अभी कुछ दिन पहले ही देश की एक प्रमुख समाचार फैक्टचेक वेबसाइट, ऑल्टन्यूज के सहसंस्थापक मोहम्मद जुबैर को एक ऐसे ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया गया है जिसमें उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की एक पुरानी फिल्म का एक फोटो पोस्ट किया था। इस पोस्ट के खिलाफ एक बेनाम ट्विटर-हैंडल की तरफ से पुलिस को शिकायत की गई थी, उस पर पुलिस ने आनन-फानन यह कार्रवाई की। और इस शिकायत के तुरंत बाद वह ट्विटर-हैंडल बंद कर दिया गया, और आज सुबह की खबर है कि उसे दूसरे कई सौ ट्विटर-हैंडलों के साथ-साथ गुजरात का एक नेता अकेले ही चला रहा था, और इन सबका अभियान ऑल्टन्यूज को बदनाम करना था, उस पर हमला करना था क्योंकि ऑल्टन्यूज जितने भांडाफोड़ कर रहा है, उसमें से बहुत सारे धार्मिक और साम्प्रदायिक झूठ के समाचार को उजागर करते हैं।
देश में यह सवाल भी पिछले दो-चार दिनों से लगातार खड़ा हुआ है कि नुपूर शर्मा अपने आपको राष्ट्रीय समाचार चैनल कहने वाले एक बड़े समाचार चैनल पर मोहम्मद पैगंबर के बारे में आपत्तिजनक बातें कहकर भी अब तक पुलिस की पकड़ से बाहर है, दूसरी तरफ देश में साम्प्रदायिक, और दूसरे किस्म के झूठ फैलाने वाले समाचारों का झूठ उजागर करने वाला ऑल्टन्यूज का पत्रकार एक बेचेहरा ट्विटर-हैंडल की शिकायत पर जेल में है। यह हालत लोकतंत्र के लिए कई किस्म के सबक की है। जिन लोगों को लगता है कि यह सिर्फ मीडिया की परेशानी की बात है, वे ये जान लें कि जिस दिन आजाद मीडिया नहीं रहेगा उस दिन वे महज गुलाम नागरिक रहेंगे। आज इस देश में दंगाई मीडिया को जिंदाबाद कहा जा रहा है, और सच्चाई मीडिया को जेल में डाला जा रहा है, लोकतंत्र की इस खतरनाक नौबत के बारे में लोगों को चर्चा करने की जरूरत है।
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हिन्दुस्तान में आज से सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक लग रही है। अलग-अलग प्रदेशों में पिछले कुछ बरसों में धीरे-धीरे यह सिलसिला चल रहा था, लेकिन आज से केन्द्र सरकार ने पूरे देश में प्लास्टिक की ऐसी थैलियों और दूसरे सामानों पर रोक लगा दी है जिन्हें एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाता है, और दुबारा इस्तेमाल नहीं होता। उसमें चाय-पानी के लिए प्लास्टिक के गिलास, चम्मच-प्लेट, पतली पन्नियों की थैलियां जैसी बहुत सी चीजें शामिल हैं। केन्द्र सरकार ने सभी प्रदेशों को ऐसे सामानों की आवाजाही को रोकने के लिए आदेश भी दिया है। इसके तहत कान साफ करने के रूई लगे प्लास्टिक के डंडियों वाले ईयरबड, झंडे, पीपरमेंट और आईस्क्रीम की डंडियां, थर्मोकोल, प्लेट, कप, गिलास, निमंत्रण पत्र, और सिगरेट के पैकेट पर प्लास्टिक, पीवीसी के बैनर, जैसे डेढ़ दर्जन से अधिक चीजें हैं। अगर धरती को बचाना है तो इस एक आदेश को एक और रद्दी कागज साबित करने के बजाय राज्य सरकारों और खासकर स्थानीय संस्थाओं को ध्यान देना होगा, क्योंकि केन्द्र सरकार दिल्ली में बैठे हुए पूरे देश में इस पर अमल नहीं कर सकती। प्रदेशों को भी औद्योगिक क्षेत्रों, बाजारों की जांच करनी होगी ताकि ऐसे सामान न बने, और न बिकें। एक बार छोटे ठेलों और छोटी दुकानों तक सामान अगर पहुंच जाएंगे, तो उनका इस्तेमाल रोकना किसी के बस में नहीं रहेगा।
केन्द्र सरकार की बनाई हुई यह लिस्ट अमल के हिसाब से मुश्किल नहीं है। इनमें से सभी सामानों के कागज या दूसरे विकल्प मौजूद हैं, और हो सकता है कि शुरू में उनके दाम कुछ अधिक हों, लेकिन इस्तेमाल बढऩे के बाद उनका उत्पादन बढ़ेगा, और वे सस्ते हो जाएंगे। लेकिन जो अकेला सामान सबसे अधिक इस्तेमाल होता है, वह है पॉलीथीन की थैली। इसका आसान विकल्प कपड़े और जूट के थैले हो सकते हैं, जो कि हिन्दुस्तान में परंपरागत रूप से चलते भी आए हैं। पहले घरों में फटी चादर या दूसरे कपड़ों से थैले सिल लिए जाते थे, जो बरसों तक काम आते थे। लोग बाजार जाते हुए एक थैले के भीतर चार थैले रखकर ले जाते थे, और लौटने में सबमें सामान भरकर लाते थे। अब तो कई किस्म के सिंथेटिक कपड़े ऐसे आ गए हैं जो कि बहुत पतले भी हैं, और बहुत मजबूत भी हैं। उनकी बनी हुई थैलियां आसानी से जेब में आ जाती हैं, और महीनों या बरसों तक साथ दे सकती हैं। राजस्थान में पुरानी साडिय़ों से रोजाना के इस्तेमाल के थैले बनाने का चलन है, और किराने या दूसरे सामानों के दुकानदार ग्राहकों को मुफ्त में ही ऐसे थैलों में सामान भरकर देते हैं। ऐसा काम बड़े पैमाने पर पूरे देश में किया जाना चाहिए, और इसके लिए हर जगह अब महिलाओं के तरह-तरह के समूह मौजूद हैं जिन्हें मामूली सिलाई मशीन देकर, कारखानों से निकलने वाले कपड़ों के टुकड़े देकर उनके सामानों का एक स्थानीय बाजार बनाया जा सकता है।
हिन्दुस्तान एक धर्मप्रधान देश है, और यहां धर्म के नाम पर लोग अपनी खुद की बलि देने के लिए तैयार हो जाते हैं, अपने बदन के हिस्से काटकर चढ़ा देते हैं। ऐसे में अगर देश के सभी धर्मस्थान पॉलीथीन बैग्स पर रोक लगा दें, वहां भीतर उन्हें घुसने न दें, तो कपड़ों की थैलियों का चलन एकदम से बढ़ सकता है। इस काम को केन्द्र सरकार के किसी आदेश के बिना भी राज्य सरकार और स्थानीय शासनों को अपने स्तर पर बहुत पहले से कर लेना था, और हम बरसों से इसी कॉलम में इस बात की सलाह भी देते आ रहे थे। अब देश भर में एकाएक प्लास्टिक थैलियों की कमी हो जाए, उसके पहले सत्तारूढ़ उत्साही लोगों को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में महिलाओं को इस काम में लगाना चाहिए, उन्हें जूट के कपड़े, या दूसरे किस्म के सस्ते और मजबूत कपड़े दिलवाने चाहिए ताकि रोजगार का एक नया जरिया भी पैदा हो सके।
लोगों को जिस तरह मोबाइल फोन लेकर चलने की आदत है, या दुपहिया चालकों से उम्मीद की जाती है कि वे हेलमेट लेकर चलें, उसी तरह अब लोगों को घर से ही कपड़े या जूट की थैलियां लेकर निकलना चाहिए, और धरती पर बोझ बढ़ाने से बचना चाहिए। प्लास्टिक की छोटी सी थैली दिखने में पतली लगती है, लेकिन उसे नष्ट होने में हजारों बरस लग सकते हैं, इसलिए लोगों को अपनी आने वाली पीढिय़ों पर रहम करना चाहिए। लोग अपनी कई पीढिय़ों तक के लिए मकान, जमीन, या दौलत तो बनाकर छोड़ जाते हैं, लेकिन उनके लिए एक साफ-सुथरी धरती छोडक़र जाने की उन्हें फिक्र नहीं रहती। वे इस परले दर्जे का प्रदूषण छोडक़र जा रहे हैं, जंगलों को इस हद तक काट रहे हैं, नदियों और समंदर को जहरीला कर दे रहे हैं, और वे एक गंदगी के बीच बच्चों का भविष्य छोडक़र जा रहे हैं। भारत में आज से लागू हो रहा यह नया प्रतिबंध शुरू के कुछ महीनों में लोगों पर भारी पड़ सकता है क्योंकि हिन्दुस्तानी लोग सार्वजनिक जीवन के नियमों को मानने के आदी नहीं रह गए हैं। फिर यह भी है कि सरकारी स्तर पर नियमों को लागू करना सबसे ही कमजोर काम है, और सरकारी अमला या तो भ्रष्ट है, या निकम्मा है, और अधिकतर मामलों में ये दोनों ही बातें उस पर लागू होती हैं। इसलिए सरकारी व्यवस्था पर अधिक भरोसा किए बिना स्थानीय संस्थाओं, व्यापारिक और सामाजिक संगठनों को जूट और दूसरे किस्म के कपड़ों का इंतजाम करके महिलाओं को सिलाई के काम में लगाना चाहिए, और इससे ही धरती बच सकेगी। देश के बहुत से महानगर बारिश में बुरी तरह डूब जाते हैं, और उसकी एक वजह नालियों में जाकर फंसने वाली प्लास्टिक की ऐसी थैलियां भी हैं। इसलिए तमाम लोगों को इस नौबत से बचने के लिए जागरूकता दिखानी चाहिए।
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राजस्थान में एक हिन्दू दर्जी की एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर जिस तरह दो मुस्लिमों ने गला काटकर हत्या की है, और उसे मोहम्मद पैगंबर का कथित अपमान करने वाली नुपूर शर्मा के समर्थन के खिलाफ किया गया बताया है, उससे चारों तरफ खलबली मची हुई है। सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर इतनी हिंसक कार्रवाई शायद पहली बार हुई है, और शायद पहली बार ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर धमकी देते हुए इस तरह वीडियो जारी हुआ है। लेकिन इन तमाम बातों पर हम कल लिख चुके हैं, और आज इससे जुड़े हुए एक पहलू पर लिखने की वजह केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के एक बयान से आई है, जिन्होंने यह सवाल उठाया है कि मदरसों में छोटे बच्चों को यह पढ़ाया जाता है कि ईशनिंदा (अल्लाह की निंदा), की सजा सिर काटना है। उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम कानून कुरान से नहीं आता है, वह बाद के राजाओं के समय इँसानों का लिखा हुआ जो सिर काटने की सजा लिखता है। आरिफ मोहम्मद खान ने इस पर अफसोस जाहिर किया कि यह कानून बच्चों को मदरसों में पढ़ाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि पांच-छह बरस की उम्र से ही ऐसा कानून मदरसों में पढ़ाया जाता है, और अगर बच्चे उससे प्रभावित होते हैं, और उसके मुताबिक काम करते हैं, तो फिर वे अपने धर्म की रक्षा के नाम पर कोई भी काम करने को तैयार हो सकते हैं। उन्होंने यह राय भी जाहिर की कि चौदह बरस की उम्र तक बच्चों को सामान्य शिक्षा ही देनी चाहिए, और यह उनका मौलिक अधिकार भी है। उन्होंने कहा कि इस उम्र के पहले उन्हें कोई विशेष शिक्षा नहीं देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है, इसकी फिर से जांच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि कुरान ऐसी सजा नहीं सुझाता, यह बाद के लोगों ने लिखा है।
आज देश राजस्थान के इस ताजा धार्मिक हमले को लेकर विचलित है, इसलिए ऐसे हमलावरों की सोच के हर पहलू पर चर्चा हो रही है। आरिफ मोहम्मद खान भाजपा के बनाए हुए राज्यपाल हैं, और उनका नाम अभी कुछ दिन पहले तक राष्ट्रपति पद के संभावित एनडीए उम्मीदवार के लिए भी खबरों की अटकलों में था। लेकिन भाजपा से उनके संबंधों की वजह से उनकी बात का वजन कम नहीं होता। मदरसों के खिलाफ हिन्दूवादी ताकतों की सोच के पीछे उनकी बदनीयत हो सकती है, लेकिन एक जाहिर सा दूसरा सवाल यह भी है कि क्या आज के जमाने में गरीब मुस्लिम बच्चों को बचपन से ही मदरसों में धर्म की शिक्षा देना, और उन्हें सामान्य औपचारिक स्कूली शिक्षा से दूर रखना कोई जायज बात है? ईसाई स्कूलों में भी बच्चों को धार्मिक पाठ पढ़ाए जाते हैं, या उनसे धार्मिक प्रार्थना करवाई जाती है। कुछ दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के स्कूलों में भी ऐसा होता होगा क्योंकि उनका दर्जा ही धार्मिक अल्पसंख्यक आधार पर बने हुए शैक्षणिक संस्थान है। ऐसे किसी भी स्कूल-कॉलेज में अगर बच्चों को आज की बाकी औपचारिक शिक्षा से परे सिर्फ धर्म पढ़ाया जाएगा, तो वह उन बच्चों की जिंदगी खराब करने के अलावा और कुछ नहीं रहेगा। मुस्लिम मदरसों को धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने के नाते मर्जी का पाठ्यक्रम पढ़ाने की छूट मिली भी हो, तो भी उस तबके के गरीब बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए सरकार को यह सोचना होगा कि क्या उन्हें सिर्फ इसी तरह की शिक्षा देना जायज है?
भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर धर्मनिरपेक्ष ताकतें लगातार सक्रिय रहती हैं। इनमें ऐसे राजनीतिक दल भी रहे जिन्होंने शाहबानो के वक्त एक अकेली मुस्लिम महिला के हकों के खिलाफ अड़े हुए मुस्लिम दकियानूसी मर्दों के वोटर-बाहुबल के सामने समर्पण कर दिया था, और संसद में नया कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। फिर धार्मिक आधार पर ही इस तबके को कई तरह की छूट देने का सिलसिला भी चले आ रहा था जिसकी कुछ बातों को केन्द्र की मोदी सरकार ने बदला है। इसमें मुस्लिम महिला के अधिकार बढ़ाने के लिए तीन तलाक के खिलाफ बनाया गया कानून है। मोदी सरकार की दूसरी कई नीतियों के चलते हुए तीन तलाक के कानून को भी मुस्लिम विरोधी करार दिया गया जबकि इससे मुस्लिम महिला के अधिकार बढ़ रहे थे, और मुस्लिम पुरूष के अधिकार कम हो रहे थे। देश की धर्मनिरपेक्ष ताकतें मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय का साथ देते हुए मुस्लिम महिला के अधिकारों को अलग से देखने से कई बार कतराती भी हैं, क्योंकि वह इसे मुस्लिम समाज के भीतर का मुद्दा मानती हैं। अब हिन्दू समाज में भी बाल विवाह से लेकर सतीप्रथा तक बहुत सी बातें समाज के भीतर की थीं, लेकिन समाज के भीतर का कोई सुधार इन बातों को खत्म नहीं कर पा रहा था, और आखिर में देश की सरकार को कानून बनाकर ही हिन्दू समाज की इन रूढिय़ों को खत्म करना पड़ा था। तमाम कानून के बावजूद आज भी बाल विवाह बड़े पैमाने पर चल रहा है, और कानून भी उसे नहीं रोक पा रहा है। ऐसे में मदरसों को लेकर अगर उनमें धर्म शिक्षा से परे औपचारिक शिक्षा की बात होती है, तो उसे मुस्लिम समुदाय के धार्मिक मामलों में दखल नहीं मानना चाहिए। ऐसे मदरसे दुनिया में एक ऐसी पीढ़ी ला रहे हैं जो कि धार्मिक व्यवस्था पर परजीवी की तरह टिकी रहेगी, और आधुनिक दुनिया में अधिक आगे बढऩे के लायक नहीं बनेगी। किसी तबके को धार्मिक अल्पसंख्यक आधार पर शिक्षा के ऐसे धार्मिक अधिकार को देने का एक मतलब यह भी है कि उस धर्म की एक पीढ़ी के बहुत से लोगों को हमेशा के लिए पिछड़ा बना देना। यह सिलसिला उस समुदाय के साथ भी बेइंसाफी है, और बच्चों की उस पीढ़ी के साथ तो बेइंसाफी है ही जो कि अपना फैसला खुद नहीं ले पाती।
चाहे स्कूल-कॉलेज हो, चाहे किसी दूसरे धर्म से जुड़े हुए ऐसे तथाकथित सांस्कृतिक संगठन हों जो कि धार्मिक आधार पर बच्चों के दिमाग में जहर भरते हैं, कट्टरता भरते हैं, उन सब पर रोक लगानी चाहिए। आज देश में कई तरह की धार्मिक कट्टरता एक-दूसरे की प्रतिक्रिया में बढ़ती चली जा रही हैं, इस पर रोक लगाने के लिए भी पढ़ाई-लिखाई में से धर्म की भूमिका कम करने की जरूरत है। और सिर्फ धार्मिक पढ़ाई तो एक पीढ़ी के भविष्य को बर्बाद कर देने के अलावा कुछ नहीं है, और ऐसे लोग अपने धार्मिक स्थानों पर दान पर पलने वाले लोग बनकर रह जाते हैं, जिन्हें किसी धार्मिक फतवे से किसी हिंसा में झोंक देना आसान रहता है। इसलिए देश के तमाम शैक्षणिक संस्थानों को धार्मिक शिक्षा से अलग करने की जरूरत है, और जब व्यापक स्तर पर ऐसा किया जाएगा तो समझ आएगा कि इससे सिर्फ मदरसे प्रभावित नहीं होंगे, बल्कि दूसरी धर्मों के शैक्षणिक संस्थान भी प्रभावित होंगे, उनकी पढ़ाई की किताबें भी प्रभावित होंगी। फिलहाल तो राजस्थान की इस ताजा हिंसा को देखते हुए इस बात की जांच की जरूरत है कि क्या मदरसों में ईशनिंदा पर गला काटने की सजा सिखाई जा रही है?
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राजस्थान के उदयपुर में कल ऐसी धार्मिक-आतंकी वारदात हुई है कि जिसने हिन्दुस्तान को तालिबान के मुकाबले ला खड़ा किया है। वहां के एक हिन्दू दर्जी के सोशल मीडिया पेज पर शायद उसके आठ बरस के बेटे ने नुपूर शर्मा के समर्थन में एक पोस्ट की थी। एक टीवी बहस पर नुपूर शर्मा ने मोहम्मद पैगंबर के बारे में आपत्तिजनक बातें कही थीं, जिसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुस्तान के मुसलमानों से लेकर मुस्लिम देशों तक ने विरोध दर्ज किया था, और कई देशों के विरोध के बाद भारत में भाजपा ने अपनी इस राष्ट्रीय प्रवक्ता को पद से हटाया था, और सरकार ने उसके खिलाफ जुर्म दर्ज किए थे। तब से अब तक नुपूर शर्मा गिरफ्त से बाहर है। देश में धर्मान्ध हिन्दुओं का एक तबका पूरी ताकत से नुपूर शर्मा के साथ खड़ा है, और दूसरी तरफ मुस्लिम इस बात से आहत हैं कि उसे अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया है। ऐसे माहौल के बीच सोशल मीडिया उबला पड़ा है, और साम्प्रदायिकता मानो इस देश का मुख्य खानपान हो गई है, और लोगों के पास मानो नफरत को फैलाना ही अकेला रोजगार बचा है। कम से कम अधिक मुखर और हमलावर लोगों ने सोशल मीडिया पर नुपूर शर्मा पर इस देश को दो हिस्सों में बांट दिया है, और इसी माहौल में जब राजस्थान के इस हिन्दू दर्जी के आठ बरस के बेटे ने बाप के सोशल मीडिया अकाऊंट पर नुपूर शर्मा की हिमायत में कुछ पोस्ट किया, तो उस पर उदयपुर के कुछ मुस्लिमों ने उसे हिंसक धमकी दी थी। इस पर कन्हैयालाल नाम के इस दर्जी को पुलिस ने पकड़ा था, और फिर छोड़ भी दिया था। अब दो मुस्लिम उसके पास कपड़े का नाप देने के नाम पर आए, एक ने नाप देते-देते कटार जैसे बड़े हथियार से उसका गला रेत दिया, और दूसरा मुस्लिम उसका वीडियो बनाते रहा जिसे बाद में अपने बयान के साथ उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की धमकी के साथ सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। इस बहुत ही भयानक तालिबानी हिंसा के बाद पूरे राजस्थान में साम्प्रदायिक तनाव है, और गनीमत यह है कि ये दोनों हत्यारे गिरफ्तार कर लिए गए हैं।
हिन्दुस्तान अपने आज के साम्प्रदायिक तनाव के साथ बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है। कट्टर, धर्मान्ध, और साम्प्रदायिक ताकतों में से किसी भी एक ताकत से लैस हिन्दुस्तानी दूसरे का गला काटने की ताकत रखते हैं। धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक नफरत इस देश में आज सबसे अधिक ताकतवर इंजन बन गए हैं, और कुछ तबकों में डबल इंजन की नफरत चल रही है। राजस्थान में पिछले कुछ महीनों में बार-बार साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं हो रही हैं, लेकिन घटनाओं से कुछ कम दर्जे के तनाव देश के अधिकतर प्रदेशों में छाए हुए हैं। ऐसे में राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से अपील की है कि उनकी बातों का सार्वजनिक असर होता है, और उन्हें देश की आम जनता से शांति की अपील करने को कहा है। केन्द्र सरकार ने उदयपुर की इस तालिबानी-हत्या की जांच एनआईए को दी है, जो कि आतंकी पहलू के नजरिये से इस मामले की जांच करेगी। इस बीच एक खबर यह भी है कि भाजपा के जिन दो प्रवक्ताओं/नेताओं, नुपूर शर्मा, और नवीन जिंदल ने मोहम्मद पैगंबर के बारे में आपत्तिजनक बातें कही थीं, उनमें से नवीन जिंदल को उदयपुर का यह वीडियो भेजकर उसी तरह मारने की धमकी दी गई है। यह तनाव उम्मीद से परे का नहीं है, और ऐसे बयानों से लेकर ऐसे कत्ल तक का मकसद देश में हत्यारे तनाव को बढ़ाना ही रहता है, और साम्प्रदायिक ताकतें इसमें बहुत कामयाब हुई दिख रही हैं। आज इस देश के लोग जीने-खाने और कमाने की फिक्र को छोडक़र किसी धर्म के अपमान करने को अपना पेशा बना चुके हैं, और ऐसे लोगों के चलते देश में कोई भी महफूज नहीं रहेंगे।
यह वक्त हिन्दुस्तान को अब भी और जलने देने से बचाने का है, और अधिक खत्म हो जाने के पहले इसे थाम लेने का है। हाल के बरसों में देश के अमन-चैन, और भाई-बहनचारे की जो तबाही हुई है, उनसे उबरने में इन बरसों जितनी पीढिय़ां लग जाने वाली हैं, इसलिए तबाही के हर बरस को और आगे की एक पीढ़ी की बर्बादी मानकर इस खतरे का अंदाज लगाना चाहिए। जहां कन्हैयालाल का आठ बरस का बेटा एक नफरतजीवी नुपूर शर्मा की हिमायत में सोशल मीडिया पर नफरत का ट्वीट करता है, तो आज साम्प्रदायिकता ने किस पीढ़ी तक को तबाह कर दिया है, उसे समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए। गहलोत अपने राज्य राजस्थान की साम्प्रदायिक घटनाओं को रोकने में नाकामयाब दिख सकते हैं, लेकिन इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि पूरे देश के लोगों पर गहलोत की बात का असर नहीं हो सकता, और मोदी-शाह की बात का असर हो सकता है। इसलिए कम से कम प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोडक़र, देश के आज के माहौल पर कुछ बोलना चाहिए, और कुछ से अधिक काफी बोलना चाहिए। नाजुक मौकों पर चुप्पी के कई गलत मतलब भी निकाले जाते हैं, इसलिए जो जिम्मेदारी के ओहदों पर बैठे हुए लोग हैं, जो शोहरत-हासिल लोग हैं, उन लोगों को नाजुक मौकों पर चुप रहने का हक नहीं दिया जा सकता। आज देश में धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता जितनी तबाही ला रही है, वह देश का सबसे बड़ा राष्ट्रीय खतरा बन चुकी है। ऐसे मौके पर प्रधानमंत्री को खुलकर सामने आना चाहिए, और उन्हें अपना आदर्श मानने वाले लोगों के बीच भी जिस तरह की गलतफहमी या खुशफहमी फैली हुई है, उसे दूर करना चाहिए। किसी को ऐसा लग सकता है कि साम्प्रदायिक हिंसा से परे बड़े-बड़े कारखाने तो चलते ही रहते हैं, और उनसे देश की जीडीपी चलना जारी रहता है, लेकिन यह हकीकत नहीं है। उदयपुर का कन्हैयालाल आज किसी दूसरे के सामान का ग्राहक नहीं रह गया है, और अपने ग्राहकों के लिए अब वह कपड़े नहीं सिलने वाला है। उसके कातिल भी अब न कोई ग्राहक रह जाएंगे, और न ही कारीगर। इस तरह देश की साम्प्रदायिक हिंसा कारोबार को खतम कर रही है, जिसकी रफ्तार धीमी लग सकती है, लेकिन इसका असर हर हिन्दुस्तानी पर पड़ रहा है, खासकर अगर वे अरबपति न हों।
देश को साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता से उबारने की जरूरत है। जो ताकतें विवेकानंद से लेकर सरदार पटेल तक, और भगत सिंह से लेकर विनायक दामोदर सावरकर तक को अपना आदर्श मानती हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि आज वे सब अपने आदर्श कहे जाने वाले इन तमाम लोगों की कही बातों के ठीक खिलाफ काम कर रहे हैं। मन, वचन, और कर्म का यह विरोधाभासी पाखंड खत्म होना चाहिए। एक मेहनतकश कन्हैयालाल को दूसरे मेहनतकश मोहम्मद के हाथों मरवाने की तोहमत कुछ जटिल रास्तों से अपने ठिकाने तक पहुंच सकती हैं, सीधे-सीधे नहीं। यह देश इस नुकसान को झेलने की हालत में नहीं है, और ऐसा देश जाने किस जुबान से विश्व गुरू बनने का दंभ पाले हुए है। यह असाधारण समय है, और इसकी मांग है कि देश के असाधारण लोग इस वक्त चुप न रहें, हालात को सम्हालने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी पूरी करें।
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अमरीका के कई सरहदी राज्यों में वैसे तो पड़ोस के देशों से लोगों की गैरकानूनी घुसपैठ चलती ही रहती है, लेकिन अभी कुछ घंटे पहले वहां के टैक्सास में एक बड़ी लॉरी लावारिस पड़ी मिली जिसके भीतर 46 लाशें पड़ी हुई थीं। जाहिर तौर पर ये गैरकानूनी तरीके से अमरीका में आए हुए लोग थे जो कि मानव-तस्करी का कारोबार करने वाले लोगों की इस लॉरी में आगे ले जाए जा रहे थे। इसके भीतर न कोई एयरकंडीशनिंग थी, न ही पीने का पानी भी था, और इन 46 लाशों के बीच 16 लोग जिंदा भी मिले हैं जो कि लू और गर्मी की वजह से बुरी तरह तप रहे थे, और उन्हें अस्पताल ले जाया गया। अमरीका की मैक्सिको के साथ सरहद के करीब का यह हादसा वहां के पुलिस अफसरों को भी हिला गया है क्योंकि उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में ऐसी लाशें नहीं देखी थीं। मानव तस्कर तरह-तरह के तकलीफदेह सफर से लोगों को अमरीका में लाते हैं, और सरहद से दूर ले जाते हैं, लेकिन मौतों का यह रिकॉर्ड नया है। अमरीका में मैक्सिको से आते पिछले महीने ही दो लाख 40 हजार अवैध घुसपैठियों को पकड़ा गया था, और कितने लोग आए होंगे इसका कोई अंदाज अभी नहीं है। लेकिन यह हाल सिर्फ अमरीका का हो ऐसा भी नहीं है, योरप के अधिकतर देशों में बाहर के देशों से ऐसी घुसपैठ चलती ही रहती है, और लोगों को याद होगा कि जब सीरिया, लिबिया, अफगानिस्तान जैसे देशों में गृहयुद्ध जैसे हालात थे, तो वहां के लोग भी दूसरे देशों में पहुंचते थे, और समुद्र तट पर एक छोटे बच्चे की लाश की तस्वीर लोगों को अब भी परेशान करती है।
यह हादसा उस दिन सामने आया है जिस दिन अमरीकी राष्ट्रपति जी-7 देशों के प्रमुख लोगों के साथ दुनिया की आर्थिक असमानता और मानवाधिकारों पर चर्चा कर ही रहे हैं। इस बैठक में ब्रिटिश प्रधानमंत्री भी मौजूद थे, और ब्रिटेन पिछले कुछ महीनों से अपनी एक शरणार्थी योजना को लेकर विवादों में घिरा हुआ है। ब्रिटेन पहुंचने वाले अवैध शरणार्थियों के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक अफ्रीकी देश रवांडा के साथ एक समझौता किया है, और ब्रिटेन अपनी दिक्कतों को बढऩे से रोकने के लिए ऐसे आ रहे शरणार्थियों को अपने खर्च से रवांडा भेजेगा, और वहां पर उनके लिए बनाए गए शरणार्थी शिविरों का खर्च भी उठाएगा। यह नीति खुद ब्रिटेन में बहुत बुरी आलोचना से घिरी हुई है, और मानवाधिकार की फिक्र करने वाले लोग यह मानते हैं कि यह शरणार्थियों के प्रति जिम्मेदारी पूरी करना नहीं है, उन्हें मामूली खर्च से अपनी आंखों से, और अपनी सरहद से दूर धकेल देना भर है। खैर, ब्रिटिश सरकार के इस बारे में अपने तर्क हो सकते हैं, और हर देश की शरणार्थी नीति अपनी घरेलू फिक्रों, और वहां के खतरों को देखते हुए ही बनाई जा सकती है। कुछ मुस्लिम देशों से आने वाले शरणार्थियों को जगह देकर योरप के कई देशों में जिस तरह के सांस्कृतिक टकराव सामने आ रहे हैं, वे भी वहां स्थानीय सरकारों पर एक दबाव बने हुए हैं। इससे परे भी जब बाहर से आए हुए शरणार्थियों में से कुछ लोग धार्मिक आधार पर आतंकी हमले करने लगते हैं, तो स्थानीय आबादी के बीच भी शरणार्थियों के खिलाफ एक नाराजगी खड़ी होने लगती है। ऐसी बहुत सी बातें शरणार्थियों को जगह देने के साथ जुड़ी हुई हैं, और कुछ देशों में तो शरणार्थी नीति किसी राजनीतिक दल की जीत या हार भी तय कर देती हैं।
आज दुनिया में आर्थिक असमानताएं इतनी अधिक हैं कि बहुत से देशों में भूखे मरने के बजाय लोग जिंदगी दांव पर लगाकर किसी ऐसे देश में घुस जाना चाहते हैं जहां पर उनके जिंदा रहने की तो गारंटी रहेगी ही, हो सकता है कि उनकी अगली पीढ़ी उन विकसित देशों की पूरी संभावनाएं हासिल कर सकें। यह उम्मीद इस कदर दुस्साहस दे देती है कि लोग रबर की छोटी सी बोट पर सवार होकर समंदर पार करके ऐसे किसी देश तक पहुंचने का खतरा उठाते हैं, क्योंकि उन्हें यह तो मालूम रहता ही है कि उनके पहले ऐसी कोशिश करने वाले लोगों में से कुछ को कामयाबी भी मिली थी। और अपने देश के गृहयुद्ध के बीच, वहां की भुखमरी के बीच अपने बच्चों को हर दिन मरते देखने से बेहतर उन्हें यह लगता है कि जिंदगी के लिए एक कोशिश की जाए। आज जब जी-7 या किसी दूसरे किस्म के देशों के समूह बैठकर बाकी दुनिया की भी बात करते हैं, तो इस पर भी बात होनी चाहिए कि दुनिया के किसी भी देश के नागरिकों के कितने न्यूनतम अधिकारों की गारंटी करना संपन्न और विकसित देशों की जिम्मेदारी रहेगी। दुनिया में जब तक सबसे गरीब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होंगी, धार्मिक और राजनीतिक आधार पर हिंसा जारी रहेगी, गरीबों की अमीर देशों में घुसपैठ जारी रहेगी, और यह सिलसिला सरहदी सिपाहियों के रोके रूकने वाला नहीं है।
दुनिया के संपन्न और विकसित देशों को सबसे गरीब देशों की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए अपनी वैश्विक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। आज धरती के किसी हिस्से पर कोई देश है, और किसी दूसरे हिस्से पर कोई दूसरा देश। लेकिन धरती तो एक ही है, और उसके हर इंसान का एक न्यूनतम अधिकार वैश्विक संपदा पर है ही। इस अधिकार का सम्मान करने की बात होनी चाहिए, और ऐसा किए बिना कोई भी देश अपनी इंसानियत का दावा नहीं कर सकेंगे। जब कोई हादसा एक सीमा से परे का तकलीफदेह होता है, तो ही वह सोचने पर मजबूर करता है। अमरीका में कल जितनी बड़ी संख्या में जिस हालत में लाशें मिली हैं, उन्हें देखते हुए दुनिया को एक ईकाई मानकर हालात सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
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सोशल मीडिया की मेहरबानी से किसी भी जलते-सुलगते मुद्दे पर खास से लेकर आम लोगों तक को अपने मन की बात कहने का मौका हासिल है। और इसी के चलते हुए अभी लगातार यह बात लिखी जा रही है कि महाराष्ट्र से शिवसेना के विधायकों को लेकर पहले भाजपा शासित गुजरात और फिर भाजपा शासित असम ले जाने वाले विमानों का खर्चा कहां से आ रहा है? लोग यह भी पूछ रहे हैं कि विधायकों का पहला बड़ा जत्था गुवाहाटी पहुंच जाने के बाद छोटे-छोटे जत्थों के लिए फिर से विमान जुटाने का खर्च कहां से आ रहा है? और एक बात यह भी उठ रही है कि पिछले कई राज्यों की राज्य सरकारें पलटने के वक्त सत्तारूढ़ पार्टी के बागी विधायकों को दूसरी पार्टी के राज्य वाले प्रदेश के महंगे होटल या रिसॉर्ट में ठहराने का खर्च कहां से आता है? बाढ़ में डूबे हुए असम में नदियों के पानी में लाशों के तैरने की तस्वीरें इंटरनेट पर तैर रही हैं, और ऐसे माहौल में ये सवाल बड़ी तल्खी के साथ उठाए जा रहे हैं कि महाराष्ट्र में सरकार पलटने के लिए यह पूरा खर्च कौन उठा रहा है? केन्द्र सरकार की एजेंसियां इसकी जांच क्यों नहीं कर रही हैं?
इस मुद्दे पर किसी का पक्ष लेने के बजाय हम इसकी बुनियादी बातों पर जाना चाहते हैं कि महाराष्ट्र जैसे राज्य में मुम्बई में किसी एक जमीन या इमारत पर कारोबारी इजाजत देने पर सत्ता को दसियों करोड़ रूपये मिल सकते हैं, और मिलते भी रहे होंगे। ऐसे में 25-50 लाख रूपये अगर विशेष विमानों और महंगी होटलों पर खर्च हो भी रहे हैं, तो उसे मुद्दा बनाने का मतलब असल मुद्दे को छोड़ देना है। अगर नीयत सांप को मारने की है, तो उसके गुजर जाने के बाद उसकी लकीर पर लाठी पीटने से क्या हासिल होगा? आज राजनीतिक पार्टियों की सत्ता जिस बड़ी दौलत में खेलती हैं, उसके सामने कुछ दर्जन विधायकों का हफ्ते-दस दिन किसी होटल में रहना कोई बड़ा खर्च नहीं है। और यह पहली बार भी नहीं हो रहा है।
लोगों को याद होगा कि अभी कुछ बरस पहले ही जब कर्नाटक में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की भाजपा सरकार में शामिल वहां के सबसे बड़े खदान कारोबारी और सरकार में मंत्री रेड्डी बंधु जब अपनी ही सरकार गिराना चाहते थे, तो वे बाढ़ में तबाह कर्नाटक के दर्जनों विधायकों को लेकर कई दिन आन्ध्र के हैदराबाद के किसी सात सितारा होटल में पड़े हुए थे। जैसे-जैसे राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ते चल रहा है, सत्ता की कमाई बढ़ते चल रही है, वैसे-वैसे सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त के रेट बढ़ रहे हैं, सौदेबाजी बढ़ रही है, और नई सत्ता पर पूंजीनिवेश करने के लिए बड़े कारोबारियों में उत्साह भी बढ़ रहा है। जो लोग राज्यों के कामकाज से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि राज्य की चुनिंदा ताकतवर कुर्सियों पर अपने पसंदीदा अफसरों को लाने के लिए बड़े कारोबारी बड़ा पूंजीनिवेश करने को एक पैर पर खड़े रहते हैं। यही हाल केन्द्र सरकार में कुछ खास मंत्रालयों के मामले में होता है जहां आने वाले अफसरों का अपनी मर्जी का होने के लिए देश के बड़े कारोबारी सरकार पर अपने सारे असर का इस्तेमाल करते हैं, जरूरत रहती है तो पेशगी भी देते हैं, और फिर किस्त भी बांध देते हैं। जिस देश में और उसके प्रदेशों में भ्रष्टाचार के पैमाने इतने ऊपर जा चुके हैं, वहां अगर महाराष्ट्र की नई सरकार अपनी मर्जी से बनवाने के लिए होटल, हवाई जहाज, और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों पर दस-बीस करोड़ रूपये खर्च भी होने जा रहे हैं, तो इतनी रकम तो मुम्बई कीकिसी एक खास पुलिस-कुर्सी के लिए करने लोग तैयार रहते हैं।
हम किसी भी किस्म के भ्रष्ट पूंजीनिवेश की वकालत नहीं कर रहे हैं, लेकिन जब लोकतंत्र दांव पर लगा है, तब कुछ करोड़ के बिल पकडक़र उस पर बहस करने से असल मुद्दा तो धरे ही रह जाएगा। आज भारत की राजनीति में त्रिपुरा के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार जैसे आदर्शों की उम्मीद नहीं करना चाहिए जिनके चुनावी घोषणापत्र के मुताबिक उनके पास 10 हजार 8 सौ रूपये थे, और जो तनख्वाह पार्टी में जमा कर देते थे, और वहां से उन्हें गुजारे के लिए पांच हजार रूपये महीने मिलते थे। उनकी जिंदगी में केन्द्र सरकार की कर्मचारी रही पत्नी की पेंशन से भी मदद मिलती थी जिसने पति के मुख्यमंत्री रहते हुए भी पूरे वक्त रिक्शे से सरकारी दफ्तर आना-जाना किया करते थे। और माणिक सरकार ऐसी ईमानदारी वाले अकेले वामपंथी मुख्यमंत्री नहीं थे। उसी त्रिपुरा में उनके पहले नृपेन चक्रवर्ती मुख्यमंत्री रहे, और उनकी ईमानदारी का भी यही हाल रहा। नृपेन चक्रवर्ती जब मुख्यमंत्री निवास पहुंचे थे तो उनका सारा सामान टीन की एक पेटी में था। एक दशक बाद जब वे मुख्यमंत्री निवास से हेमेले हॉस्टल गए, तो रिक्शे पर उनके साथ वही एक पेटी गई। दस बरस मुख्यमंत्री रहते हुए इस पेटी में कोई नया सामान नहीं जुड़ा।
जिस देश ने ऐसे लोगों का और उनकी पार्टी का चुनावी नक्शे से नामोनिशान मिटा दिया है, उन्हें अब विशेष विमानों में एक होटल से दूसरे रिसॉर्ट जाने वाले विधायक और सांसद ही नसीब होने चाहिए, और नसीब हैं। इन छोटे-छोटे खर्चों को अगर कोई आज बड़ी मुद्दा मान रहे हैं, तो यह दाऊद इब्राहिम के स्टेडियम में सिगरेट पीने जितना बड़ा ही जुर्म है, जिस पर खूब लंबी बहस हो सकती है, उसके बाकी के तमाम जुर्मों को अनदेखा करते हुए। लोगों को लोकतंत्र के लिए मायने रखने वाले मुद्दों के पहलुओं को उनकी असल अहमियत के अनुपात में ही महत्व देना चाहिए। भारत की राजनीति अब गांधीवादी मूल्यों का खेल नहीं रह गई है। इसलिए अब कुछ करोड़ों के खर्च पर बहस खर्च करना सिवाय बेवकूफी के कुछ नहीं है। मुम्बई का शहरी विकास विभाग का एक छोटा सा अफसर यह पूरा खर्च उठा सकता है, और इतने से खर्च को लेकर भाजपा पर तोहमतें लगाना भी ठीक नहीं है। राजनीतिक दल होटल के कमरे, और प्लेन की सीट पर खर्च नहीं करते, वे संसद और विधानसभा के भीतर की सीटों को खरीदते-बेचते हैं। इसलिए सोशल मीडिया और बाकी मीडिया पर भी जो लोग विधायकों के जनवासे के खर्च पर सवाल उठा रहे हैं, उनकी मासूमियत पर तरस आता है।
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पंजाब के चंडीगढ़ में एक आईएएस अफसर के बेटे ने अपनी लाइसेंसी बंदूक से खुद को गोली मार ली। उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है, और परिवार का कहना है कि पंजाब विजिलेंस की जो टीम उनकी घर की तलाशी लेने आई थी, उसी ने बेटे को गोली मार दी हैं। यह आईएएस अफसर, संजय पोपली, कुछ दिन पहले भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, और उसकी काली कमाई की जांच के लिए विजिलेंस कई जगह छापेमारी कर रही है, और इसी सिलसिले में उसके घर पहुंची थी जहां परिवार में यह हादसा हुआ। विजिलेंस को इस अफसर के घर से बारह किलो सोना, तीन किलो चांदी की ईटें मिली हैं, और अनगिनत दूसरे महंगे सामान भी। इस अफसर की जांच पाईप लाईन टेंडर मंजूर करने के लिए एक फीसदी कमीशन मांगने के आरोप के बाद हुई थी, और वहां से इन सामानों के साथ-साथ हथियार और कारतूस भी मिले, जिन्हें लेकर एक अलग मामला दर्ज किया गया है। पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार ने पहले दिन से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मोर्चा खोलने की घोषणा की थी, और देश का शायद यह पहला मौका था कि मुख्यमंत्री ने काम सम्हालने के कुछ हफ्तों के भीतर ही अपने एक मंत्री को भ्रष्टाचार के जुर्म में गिरफ्तार करवा दिया। अब यह महज दिखावा मानना या कहना तो नाजायज होगा क्योंकि सरकार के मंत्री का ऐसा भ्रष्ट होना सरकार के लिए बदनामी भी लेकर आता है, लेकिन पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने हौसला दिखाया था।
अकाली-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस पार्टी की सरकारों के रहते हुए पिछले दशकों में पंजाब भ्रष्टाचार में डूबा हुआ राज्य बन गया था, और वहां मंत्री भी नशे की तस्करी में शामिल बताए जाते थे। दोनों ही तरह की सरकारें जमीन से कट गई थीं, सामंती और कुनबापरस्त अंदाज में चल रही थीं, और शायद यही वजह थी कि वोटरों ने इस बार हैरतअंगेज नतीजे देते हुए इन तीनों ही पार्टियों को खारिज कर दिया था, और आम आदमी पार्टी को सत्ता दे दी थी। लोगों को यह भी याद रहना चाहिए कि दो चुनाव पहले दिल्ली में भी वोटरों ने कांग्रेस और भाजपा को एकमुश्त खारिज करते हुए आम आदमी पार्टी को सत्ता दी थी, और अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में सरकार दुबारा लौटकर भी आई। दिल्ली में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम केजरीवाल का एक बड़ा नारा रहा, और अगर लगातार दो चुनावों के नतीजे कोई संकेत हैं, तो वोटरों ने उनके इस नारे पर भरोसा किया दिखता है।
लेकिन पंजाब, दिल्ली, और आम आदमी पार्टी से परे देश में भ्रष्टाचार की बात करें, तो सरकारों का एक बड़ा बजट भ्रष्टाचार के हवाले हो जाता है। अलग-अलग सरकारों में भ्रष्टाचार के तौर-तरीके अलग हो सकते हैं, कहीं पर हर ठेकेदार से रिश्वत और कमीशन ली जाती है, कहीं पर अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग को एक बड़ी इंडस्ट्री की तरह चलाया जाता है, और कहीं-कहीं बड़े कारोबारियों को सरकारी कामकाज में उपकृत करके उनसे पर्दे के पीछे भागीदारी कर ली जाती है। हिन्दुस्तान में अलग-अलग पार्टियों और देश-प्रदेश की सरकारों के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन पूरा देश भ्रष्टाचार में बुरी तरह डूबा हुआ है, और आम जनता उसमें पिस रही है। आज जब यूक्रेन यूरोपीय समुदाय का मेंबर बनने की कोशिश कर रहा है, तो यूक्रेन का मौजूदा भ्रष्टाचार इस राह का रोड़ा बना हुआ है। यूरोपीय यूनियन जैसा विकसित लोकतंत्रों और सभ्य समाजों का गठबंधन भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा मानता है, और किसी को सदस्य बनाने के पहले उस देश की सरकार को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जवाब देना पड़ता है, कानून बनाने पड़ते हैं, और उन पर अमल भी करना पड़ता है। आज हिन्दुस्तान ऐसे किसी समुदाय की सदस्यता की जरूरत से बहुत दूर है, लेकिन अगर ऐसी कोई नौबत रहती, तो हिन्दुस्तान कभी यूरोपीय यूनियन जैसी संस्था का सदस्य नहीं बन सकता था।
आज की ही एक दूसरी खबर बताती है कि जिस बिहार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सुशासन बताया जाता है, उसकी राजधानी पटना में सरकारी निगरानी विभाग ने एक ड्रग इंस्पेक्टर के घर पर छापा मारा तो वहां से पांच बोरों में भरे हुए चार करोड़ के नोट मिले, दर्जनों जमीनों के कागज मिले, कई कारें मिलीं, और गहने, बैंक खाते मिले। अब ड्रग इंस्पेक्टर तो राज्य सेवा का एक छोटा अफसर होता है, और बिहार को नीतीश कुमार का सुशासन कहा जाता है, वहां यह हाल है। आज अगर एक प्रदेश के एक अफसर के घर के स्टोर रूम से सोने-चांदी का ऐसा जखीरा निकल रहा है, दूसरे छोटे अफसर के घर बोरों में करोड़ों के नोट निकल रहे हैं, और दूर-दूर तक उसकी दौलत बिखरी होने की जांच जारी ही है, तो फिर पूरे देश को कुल मिलाकर किस तरह बेचा जा रहा है, यह साफ है। हमारा तो यह मानना है कि भ्रष्ट अफसरों से जितनी जब्ती हो पाती है, वह उनकी काली कमाई का एक बहुत ही छोटा हिस्सा रहता है, बाकी तो चारों तरफ बेनामी जायदाद और दूसरे देशों के बैंकों में चले जाता है। ऐसे में देश-प्रदेश की सरकारें अगर कोई ईमानदार नीयत रखती हैं, तो उन्हें किसी के इतने अधिक भ्रष्ट हो जाने के बहुत पहले ही उसे दबोच लेने का इंतजाम रखना चाहिए। जब भ्रष्ट अफसर अरबपति हो जाएं, उसके बाद उन पर हाथ डाला जाए, तो उसका मतलब है कि वे सरकारी पैसों और कामकाज की दसियों गुना अधिक बर्बादी कर चुके हैं, जनता के हितों और सरकारी कामकाज की क्वालिटी को बेच चुके हैं। यह हालत ऑल इंडिया सर्विस कही जाने वाली नौकरियों की है, जिनके लिए देश भर से सबसे चुनिंदा लोगों को छांटा जाता है, और फिर वे आनन-फानन देश के सबसे भ्रष्ट लोग भी बनने का खतरा रखते हैं। यह सिलसिला अखिल भारतीय सेवाओं की साख को खत्म कर चुका है, और केन्द्र सरकार और अलग-अलग प्रदेशों में हर किस्म के भ्रष्टाचार के नमूने मौजूद हैं।
अच्छी साख वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने डेढ़ दशक पहले एक सर्वे किया था तो उसमें पाया था कि पचास फीसदी हिन्दुस्तानी रिश्वत देकर, या कोई पहचान जुटाकर सरकारी काम करवा पाते हैं। 2021 में भ्रष्टाचार पर जनधारणा का एक सर्वे हुआ, उसमें दुनिया के 180 देशों में हिन्दुस्तान को 85वें जगह पर रखा गया था, यानी यह देश दुनिया के 84 और देशों के मुकाबले अधिक भ्रष्ट मिला था। केन्द्र और राज्य सरकारों के कई विभाग भ्रष्टाचार की सबसे अधिक गुंजाइश रखने वाले माने जाते हैं, और मंत्रियों में इन विभागों को पाने के लिए गलाकाट मुकाबला तो चलता ही है, अफसर भी इन विभागों या ऐसी जगहों पर तैनाती के लिए लूटपाट करने को तैयार रहते हैं।
पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार सचमुच ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लगी हुई है, या यह उसका दिखावा है, जो भी हो, देश-प्रदेश की तमाम सरकारों को अपने राज के भ्रष्टाचार पर काबू पाना चाहिए, और जनता के बीच के लोगों को भी चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अलग-अलग तरह की लड़ाई लड़ें। यह इसलिए भी जरूरी है कि भ्रष्टाचार सबसे गरीब जनता के बुनियादी हक भी खा जाता है, लोगों को अपने परिवार की लाश के पोस्टमार्टम के लिए भी रिश्वत देनी होती है, और मानवाधिकारों का इससे बुरा कुचलना और क्या हो सकता है? लोग अपने-अपने आसपास के भ्रष्टाचार को देखें, और अपनी जिम्मेदारी सोचें।
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अमरीका में पिछले दो-चार दिनों में वहां की सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने अमरीकी समाज को बड़ा झटका दिया है। खासकर समाज के उस हिस्से को जो संविधान में दिए गए एक बुनियादी अधिकार के साथ बंदूकों को लेकर कुछ शर्तें जोडऩा चाहते हैं क्योंकि आए दिन नौजवान किसी तनाव या नफरत को लेकर सार्वजनिक जगहों पर गोलीबारी कर रहे हैं, और कई लोगों को मार डाल रहे हैं। अमरीका के मौजूदा कानून में 18 बरस के होते ही लोग मनचाही बंदूकें खरीद सकते हैं, और ऐसे हमलावर हथियार भी बेहिसाब लेकर रख सकते हैं जिनमें से एक-एक हथियार से पलक झपकते दर्जन भर लोगों को मार डाला जा सकता है। अमरीकी सरकार हाल के महीनों की ऐसी गोलीबारी के बाद लगातार कोशिश कर रही थी कि एक जनमत ऐसा तैयार हो जो बंदूकें रखने के बुनियादी हक के साथ-साथ कुछ सावधानियों की शर्तें जोडऩे की इजाजत सरकार को दे। अभी अमरीका के न्यूयॉर्क राज्य का एक कानून सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया जो कि लोगों को सार्वजनिक जगहों पर हथियार लेकर चलने से रोकता था। अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों में से जिन छह ने इस फैसले पर सहमति दी है, उनमें से तीन को पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में नियुक्त किया गया था। अमरीकी न्याय व्यवस्था हिन्दुस्तान जैसे देश से अलग है, और वहां पर सुप्रीम कोर्ट के जज मरने तक काम करते हैं, और ऐसे में किसी जज के गुजरने पर ही मौजूदा राष्ट्रपति को अपनी पसंद का जज बनाने का मौका मिलता है। इसलिए राष्ट्रपति की अपनी विचारधारा वाले जज अनायास ही बनते हैं, और ट्रंप को ऐसे तीन जज बनाने का मौका मिला था।
अमरीकी सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला पचास बरस पहले के इसी अदालत के एक फैसले को खारिज करने वाला है, और इस फैसले से देश भर में अमरीकी महिलाओं को गर्भपात का फैसला लेने का हक खत्म हो गया है। सिर्फ एक-दो बहुत ही सीमित किस्म के मामलों में गर्भपात हो सकेंगे, जैसे कि गर्भपात न होने से अगर गर्भवती की जिंदगी को खतरा है, तो बड़ी कड़ी मेडिकल सिफारिश पर ही ऐसा गर्भपात हो सकेगा। अमरीका में गर्भपात हमेशा से एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है, और चुनावों के दौरान भी पार्टियों और नेताओं को इस मुद्दे पर अपना रूख साफ करना होता है। अमरीकी सुप्रीम कोर्ट से ऐसे ही फैसले की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि वहां के जजों ने डोनल्ड ट्रंप के नियुक्त किए हुए, और कन्जर्वेटिव विचारधारा के जजों का बहुमत है, और पांच जजों ने बहुमत से यह फैसला दिया, तीन जज इसके खिलाफ रहे। इस फैसले से भी अमरीका के उदारवादी, नागरिक अधिकारों के हिमायती, और डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक बहुत निराश हुए हैं, और इसे महिला अधिकारों के आंदोलन की एक बहुत बड़ी हार माना जा रहा है।
ये दोनों फैसले बिल्कुल ही अलग-अलग संदर्भों में हैं, लेकिन ये दोनों ही मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन की सोच के खिलाफ गए हैं, और अमरीका के काले लोग, दूसरे देशों से वहां पहुंचे हुए दूसरी नस्लों के लोग, प्रवासी और शरणार्थी लोग इन सबकी उम्मीदों पर पानी फेरने वाले रहे हैं। जिस अमरीका में आधी सदी से महिलाओं को गर्भपात का फैसला लेने का हक था, आज वह तस्वीर पूरी तरह पलट गई है। इसी तरह बरसों से यह बहस चली आ रही थी कि लोगों के हथियार रखने के साथ कुछ शर्तें जोड़ी जानी चाहिए ताकि हिंसक, नफरतजीवी, और विचलित मानसिक स्थिति के लोग हमलावर हथियार इक_े न कर सकें। लेकिन आज हालत यह है कि अनगिनत अमरीकी परिवार अपनी खरीदी हुई बंदूकों की घर के भीतर ही जब नुमाइश करते हैं तो ऐसा लगता है किसी फौजी बटालियन के हथियारों की दशहरे की पूजा हो रही है। अभी कुछ हफ्तों के भीतर जिस तरह दो बड़ी-बड़ी सामूहिक हत्याएं दो नौजवानों ने की हैं, उसके बाद तो ऐसा लग रहा था कि गनकंट्रोल पर बात कुछ बन सकेगी, और जनमत तैयार हो सकेगा, लेकिन न्यूयॉर्क के कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत ही निराश करने वाला है, और आज की अमरीका की जरूरत, वहां के आम लोगों की हिफाजत के खिलाफ है।
अमरीका के घरेलू मामलों से बाकी दुनिया का अधिक लेना-देना नहीं है, क्योंकि न तो बाकी दुनिया की महिलाओं को गर्भपात के लिए अमरीका जाना है, और न ही जब तक किसी सैलानी पर अमरीका में गोली चले, तब तक वहां गए पर्यटकों को भी कोई खतरा नहीं है। लेकिन इससे दुनिया भर के सोचने के लिए यह मुद्दा उठता है कि जजों की निजी सोच किस तरह किसी देश की तस्वीर बदल सकती है। अमरीका में न्यायपालिका को लेकर तरह-तरह के विश्लेषण करने की छूट लोगों को है। हिन्दुस्तान में अदालतें जिस तरह की टिप्पणी पर अवमानना का केस शुरू कर दें, वैसी टिप्पणी अमरीका में आम हैं कि कौन से जज कैसी सोच रखते हैं, और किस मामले में वे किस तरह फैसला दे सकते हैं, यह आमतौर पर लिखा जाता है। यह भी आमतौर पर लिखा जाता है कि किस राष्ट्रपति ने उन्हें जज बनाया है। इसलिए अमरीका की बात अलग है, लेकिन दुनिया के बाकी देशों को अपनी-अपनी न्याय व्यवस्था के भीतर यह सोचने की जरूरत है कि वहां किस तरह के जज बनाए जा रहे हैं, किस तरह की ताकतें जज छांट रही हैं, और रिटायर होने के बाद जज सरकार से किस-किस तरह के उपहारों और उपकारों की उम्मीद कर रहे हैं। यह सब समझने की बात है, और किसी जिम्मेदार लोकतंत्र को अपने आपको ऐसी फिक्र से बेपरवाह नहीं रखना चाहिए। दुनिया के तमाम देशों को, खासकर उन्हें जिन्हें अपनी न्यायपालिका पर बड़ा गुरूर है, उन्हें अमरीका में ट्रंप के बनाए जजों, और उनके ऐसे फैसलों को लेकर आई नौबत पर विचार करना चाहिए।
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विज्ञान, विज्ञान कथाओं के मुकाबले कभी-कभी अधिक रफ्तार से आगे बढ़ते दिखता है। विज्ञान और तकनीक में इंसानी कामयाबी उसकी कल तक की उम्मीद के मुकाबले बहुत आगे चल रही है। अब ऐसे में गूगल के एक ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इंजीनियर ने जब यह दावा किया कि वह भाषा की समझ के प्रयोग करते हुए इसी मकसद के लिए बनाई गई एक मॉडल के साथ बात कर रहा था, तब उसने पाया कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वाली यह मॉडल अपनी भावनाओं के साथ बोलने लगी थी। अब तक ऐसे कम्प्यूटर उनमें डाली गई जानकारी, याददाश्त, और उसके कम्प्यूटर-विश्लेषण के आधार पर जवाब देते हैं, लेकिन यह मॉडल ऐसी एक बातचीत के दौरान भावनाओं के साथ बोलने लगी, तो यह इंजीनियर भी हक्का-बक्का रह गया। उसने यह बात अपनी वेबसाइट पर लिखी, और कंपनी ने उसे अभी काम से अलग कर दिया है। गूगल ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के साथ जुड़े हुए बहुत से नैतिक पहलुओं पर भी शोध और काम करते चल रहा है, और ब्लेक मोइन नाम का यह इंजीनियर इन्हीं पहलुओं पर काम कर रहा था। अब काम से सस्पेंड हो जाने के बाद ब्लेक का कहना है कि उसकी कम्प्यूटर मॉडल (चैटबोट) ने भावनाएं हासिल कर ली हैं, और उसने अब ब्लेक से कहा है कि वह उसके लिए एक वकील तलाश दे। हालांकि गूगल ने, और दूसरे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस विशेषज्ञों ने ब्लेक के इस दावे को खारिज कर दिया है कि कोई कम्प्यूटर भावनाएं हासिल कर सकता है।
यह अकेली खबर जितनी हैरानी खड़ी करती है, उतने ही सवाल भी खड़े करते हैं। अगर कृत्रिम बुद्धि पाने वाले कम्प्यूटर भावनाएं भी पाने लगेंगे, और भावनाओं के आधार पर फैसले लेकर काम करने लगेंगे, तो शायद वे उन्हें एक खास मकसद से बनाने वाले इंसानों के काबू के बाहर हो जाएंगे। अभी भी विज्ञान के साथ यह एक बड़ा खतरा जुड़ा हुआ ही है कि उसकी ताकत इंसानों के काबू के बाहर हो सकती है। अभी तक तो विज्ञान और तकनीक इंसानों के हाथ औजार और हथियार की तरह काम कर रहे हैं, लेकिन जैसे-जैसे उनमें कृत्रिम बुद्धि बढ़ाई जा रही है, विश्लेषण करने की क्षमता बढ़ाई जा रही है, वैसे-वैसे वे उस खतरे की तरफ बढ़ रहे हैं जो कि इन कम्प्यूटरों में भावनाएं, और चेतना आ जाने पर हो सकता है। आज कम्प्यूटर अपनी कृत्रिम बुद्धि से कई तरह के काम करने के लायक बनाए गए हैं, लेकिन अभी तक उन्हें भावनाओं से लैस नहीं किया गया है, या उन्होंने खुद भावनाएं हासिल नहीं की हैं। लेकिन विज्ञान और टेक्नालॉजी में कई बार यह होता है कि खोज किसी चीज की जाती है, और हासिल कोई और चीज हो जाती है। किसी बीमारी का इलाज ढूंढा जाता है, और किसी और बीमारी का इलाज हाथ लग जाता है। ऐसे में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को बढ़ाते चलते इंसानों को हो सकता है कि उस पल की खबर न लगे जब ऐसे कम्प्यूटर अपनी कृत्रिम बुद्धि से भावनाएं हासिल कर लें, नैतिकता के अपने पैमाने तय कर लें, और अपने फैसले खुद लेने लगें। ऐसी नौबत बहुत आसान नहीं लग रही है, और इसीलिए कम्प्यूटर के भावनाओं के इस ताजे दावे की वजह से गूगल ने अपने एक इंजीनियर को सस्पेंड कर दिया है।
दुनिया में ऐसी कई फिल्में बनी हैं जिनमें कम्प्यूटर मशीनों, या रोबो को बेकाबू होकर अपनी भावनाओं से काम करते दिखाया है। वे अच्छे और बुरे का फैसला खुद लेने लगते हैं, और उन्हें बनाने वाले लोगों को भी हक्का-बक्का कर देते हैं। और ऐसी नौबत फिल्मों और विज्ञान कथाओं से परे, असल जिंदगी में बहुत दूर रह गई हो, ऐसा भी जरूरी नहीं है। अब पल भर के लिए यह कल्पना करें कि भारत की संसदीय राजनीति में सही और गलत का फैसला करने के लिए ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस किसी कम्प्यूटर पर नियम-कायदे और लोकतंत्र की परंपराओं को डाला जाए, और फिर यह कहा जाए कि जिन लोगों का आचरण असंसदीय है, असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है, उन लोगों को सजा दी जाए, और कम्प्यूटर ऐसे लोगों के फोन बंद कर दे, उनके बैंक खातों का काम बंद कर दे, उनकी कार को रिमोट से बंद कर दे, और उन्हें पकडऩे के लिए पुलिस भेज दे, तो क्या होगा? अभी तक इंसान जाहिर तौर पर तो ऐसे कम्प्यूटर नहीं बना रहे हैं जिनके बेकाबू हो जाने का खतरा हो, लेकिन जब दुनिया की महाशक्तियां फौजी दर्जे की रिसर्च के नाम पर बहुत से अनैतिक काम करती हैं, तो क्या वे ऐसे रोबोसोल्जर नहीं बना रही होंगी जो कि जंग के मैदान में दुश्मनों को छांट-छांटकर, खुद फैसले लेकर उन्हें मारे? आज तो जंग के हथियारों में भी घोषित तौर पर ऐसे हथियार या मशीनी सैनिक नहीं बनाए जा रहे हैं जो मारने का फैसला भी खुद लें, लेकिन क्या फौजों और उनकी सरकारों पर सचमुच ही इतना भरोसा किया जा सकता है कि वे पर्दे के पीछे भी ऐसी टेक्नालॉजी विकसित नहीं कर चुके होंगे?
अब कृत्रिम बुद्धि से लैस रोबो भावनाओं और नैतिक मूल्यों से भी कब लैस कर दिए जाएंगे, यह महज वक्त की बात लगती है। अभी गूगल के इस ताजा मामले के बाद यह भी बहस चल रही है कि ऐसे रोबो, या चैटबोट के साथ लगातार काम करने वाले लोग क्या उनसे ऐसे भावनात्मक संबंध भी बना लेंगे कि वे उन्हें अपने रिसर्च के दायरे के बाहर भी भावनाओं से लैस करने की सोचने लगें? कुछ लोग इसे एक सचमुच का खतरा मानते हैं कि लगातार किसी चैटबोट के साथ काम करते हुए इंजीनियर और उसके बीच ऐसे भावनात्मक संबंध हो जाएं कि इंजीनियर या शोधकर्ता उसे इंसानी दर्जे के करीब लाने लगे, अपनी मोहब्बत को जिंदा शक्ल देने लगे। अब गूगल से अभी सस्पेंड इस इंजीनियर ने अपनी इस चैटबोट के कहे उसके लिए एक वकील छांटकर उससे संपर्क करवा दिया है, और वकील से बातचीत करके चैटबोट ने उसे अपना केस दे भी दिया है। यह पूरा सिलसिला एक विज्ञान कथा की तरह लग रहा है, लेकिन यह उस गूगल कंपनी के भीतर की बात है जिसके बिना आज के एक आम और औसत इंसान की जिंदगी कुछ घंटे भी नहीं चलती।
आज से दस-बीस बरस में ऐसे मामले-मुकदमे शायद देखने मिल जाएं कि चैटबोट के लिए किसी ने अपने जीवनसाथी को छोड़ा, और चैटबोट से शादी कर ली। या चैटबोट ने ईर्ष्या में अपने रिसर्चर की प्रेमिका को मार डाला। देखें आगे क्या-क्या होता है...
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हिन्दुस्तान में फौज एक बड़ा मुद्दा है। हर बरस 25-50 हजार लोगों को नौकरी देने की ताकत से परे भी बहुत सी बातें हैं जो हिन्दुस्तान में फौज की अहमियत बताती हैं। इनमें से एक तो यह है कि यह एक साथ दो ऐसे देशों से घिरा हुआ है जिनसे हिन्दुस्तान के रिश्ते दुश्मनी के माने जाते हैं। दूसरी बात यह कि इन दोनों के आपसी रिश्ते दुनिया में सबसे अधिक मीठे रिश्तों वाले देशों सरीखे हैं। और जब इन दोनों से एक साथ हिन्दुस्तान की तनातनी चल रही है, तो इस मुल्क की फौज को इन दोनों से एक साथ जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए। आज इस फौज को लेकर जितने तरह के सवाल उठ रहे हैं, वे ऐसी किसी तैयारी से बिल्कुल परे के हैं, और फौज पर आज की तारीख में लदे हुए पेंशन के बोझ को आगे चलकर घटाने की नीयत के हैं। ऐसा माना जा रहा है कि अग्निपथ नाम की नई योजना सरकार की फौजी योजना नहीं है, वह एक वित्तीय योजना है कि सस्ते में सैनिक कैसे जुटाए जा सकते हैं, और उनका बोझ फौज पर डालने से कैसे बचा जा सकता है। किफायत बुरी बात नहीं है, लेकिन जिस अंदाज में यह किफायत की जा रही है, वह अंदाज बड़ा अटपटा है, और लोगों के मन में ऐसे शक खड़े कर रहा है जिनके बारे में बहुत पहले किसी ने कहा था कि शक का इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं है। आज की मौजूदा सरकार के पास तो जनता के बीच खड़े हो गए शक का इलाज बिल्कुल भी नहीं है।
देश के फौजी और प्रतिरक्षा के दूसरे मामलों के जानकार लोगों का कहना है कि अग्निपथ नाम की यह योजना इस रहस्यमय तरीके से रातों-रात सामने रख दी गई कि इस पर देश में कोई लोकतांत्रिक बहस भी नहीं हो पाई, लोगों से राय भी नहीं ली जा सकी। और इसमें ऐसी किसी फौजी गोपनीयता की बात भी नहीं थी कि परमाणु विस्फोट करने के पहले कैसे उस राज को उजागर किया जाए। आज अग्निपथ का जितना विरोध हो रहा है, और उसकी जितनी आलोचना हो रही है, और उसे बचाने के लिए सरकार को जिस तरह फौजी वर्दियों को सामने बिठाकर उसका बचाव करना पड़ रहा है, उन सबसे सरकार की साख अच्छी नहीं हो रही है। इस पर आज लिखने की एक ताजा वजह यह है कि देश के आज मौजूद एकमात्र परमवीर चक्र विजेता और सियाचीन के हीरो, कैप्टन बानासिंह ने एक अखबार से बातचीत में खुलकर कहा है कि अग्निपथ की वजह से भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, और ये योजना सेना को बर्बाद कर देगी, और पाकिस्तान चीन को फायदा पहुंचाएगी। बानासिंह 73 बरस की उम्र में सर्वोच्च फौजी सम्मान के साथ रिटायर्ड जिंदगी जी रहे हैं, और उन्होंने कहा कि जिस तरह अग्निपथ योजना सब पर थोपी गई है, वह तानाशाही के समान है। उन्होंने कहा कि सैनिक बनना खेल नहीं है, इसके लिए सालों की ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है, और महज छह महीने में कैसे किसी की ट्रेनिंग हो सकती है? उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने इस योजना को लाने का फैसला किया, उन्हें सशस्त्र बलों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
किसी एक रिटायर्ड बहादुर फौजी की बात से असहमत होने वाले लोग भी हो सकते हैं, लेकिन फौजी रणनीति के जानकार बहुत से दूसरे लोगों का यह मानना है कि अग्निपथ और अग्निवीर का यह सिलसिला लोगों पर थोप दिया गया है, और चूंकि सरकार ने एक बार यह फैसला ले लिया है, तो अब उसे किसी भी कीमत पर लोगों पर लादा जा रहा है। जिस तरह नोटबंदी का फैसला लेकर, उसे लोगों पर लादने के लिए लगातार उसमें बदलाव किए गए थे, जिस तरह लॉकडाउन और टीकाकरण के फैसले लेकर फिर उन्हें लागू करवाने के लिए लगातार फेरबदल किए गए थे, जिस तरह जीएसटी को हड़बड़ी में आधी रात की आजादी की तरह का जलसा संसद में करके उसे लागू किया गया था, और उसके बाद उसमें सैकड़ों फेरबदल किए गए, ठीक उसी तरह दो दिनों के भीतर ही अग्निपथ के साथ भी हो रहा है, और सडक़ों पर आगजनी को देख-देखकर सरकार तरह-तरह के रास्ते निकालते दिख रही है कि चार बरस में रिटायर होने वाले अग्निवीरों को कहां-कहां नौकरी दी जा सकेगी। एक-एक करके भाजपा राज्य इसकी घोषणा कर रहे हैं, और उन राज्यों का नाम लिए बिना देश के सबसे बड़े फौजी अफसर खौल रही नौजवान पीढ़ी को गैरफौजी बातें समझाने में लगे हुए हैं। बिना किसी अपवाद के तमाम विश्लेषक इस बात को लेकर भी सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि सरकारी और राजनीतिक बातों को सार्वजनिक रूप से समझाने के लिए फौज का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। और तो और, तीनों सेनाओं के सबसे बड़े अफसरों की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में वर्दियों से यह तक कहलवा दिया गया कि अग्निपथ के खिलाफ आगजनी करवाने में कोचिंग सेंटरों का हाथ है जिन्होंने उन्हें फौजी बनवाने के लिए लाखों रूपए ले लिए थे। अब इतनी बात तो अब तक पुलिस भी किसी चार्जशीट में नहीं लिख पाई है, और ऐसी विवादास्पद और साबित न हुई बात फौज के सबसे बड़े अफसरों के मुंह से कहलवाई जा रही है।
यह पूरा सिलसिला एक खतरा खड़ा कर रहा है। फौज में आज सैनिकों का एक ही दर्जा है, उन सबके रिटायर होने की एक ही शर्तें हैं। लेकिन अग्निवीरों के पहुंचने के बाद वहां पर दो अलग-अलग तबके एक ही किस्म के काम में खड़े हो जाएंगे, कुछ तो अपनी नौकरी पूरी करके रिटायर होंगे, और बाकी पूरी जिंदगी पेंशन और सहूलियतें पाएंगे, और दूसरा तबका उन अग्निवीरों का रहेगा जो चार साल बाद वहां से निकाल दिए जाएंगे, और फिर किसी इंडस्ट्री में या भाजपा कार्यालय में चौकीदार का काम करेंगे। इस तरह के चार बरस लोगों की जिंदगी में देश के लिए जान कुर्बान कर देने की कितनी प्रेरणा भर सकेंगे, यह अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। और लोगों को यह शक है कि फौज के भीतर एक ही किस्म के काम के लिए, एक ही किस्म की वर्दी में इन दो किस्म के सैनिकों के बीच भेदभाव वहां के माहौल को खराब भी कर सकता है। दिक्कत यह है कि आज इस देश में सरकार की मर्जी से असहमति रखने को देशद्रोह करार दिया जा रहा है, और योग के नाम पर देश का एक सबसे बड़ा कारोबार खड़ा कर देने वाले रामदेव ने दो दिन पहले ही अग्निपथ के विरोधियों को देशद्रोही करार दिया है।
चूंकि सरकार अपनी इस योजना को हर कीमत पर पूरी तरह लागू करने पर आमादा है, इसलिए आज इस पर चर्चा की जरूरत फिर लग रही है। लोगों के अलग-अलग मंचों को इस पर चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि हमने मोदी सरकार के तमाम बड़े फैसलों को लागू होने के बाद जनता के दबाव में सुधरते भी देखा है, और किसान कानूनों की तरह वापस होते भी देखा है। कई फैसलों को बिना लागू हुए ताक पर रखे जाते भी देखा है। इसलिए चार बरस के ठेके पर नौजवानों को शहादत के जज्बे के लिए तैयार करने की सरकार की जिद पर लोगों को शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध करना चाहिए, हो सकता है कि सरकार को खुद समझ में आए कि उसने जिद में गलत फैसला ले लिया है। यह देश मौजूदा सरकार का ही नहीं है, यह देश तमाम लोगों का है, और इसे सरकार के फैसलों पर सोचना चाहिए ताकि आने वाली पीढिय़ां उसे न भुगतें।
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अखबार की जिंदगी भी बड़ी अजीब रहती है, अक्सर ही पहले पन्ने पर जगह पाने के लिए खबरों में धक्का-मुक्की होती है, और अगर पहला पन्ना तैयार करने वाले लोगों को मेहनत से परहेज न हो, तो आखिरी पलों तक खबरें ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर होती रहती हैं। अब कल ही एक तरफ तो महाराष्ट्र की शिवसेना में अभूतपूर्व और बड़ी बगावत चल रही थी, सरकार गिरने के आसार दिख रहे थे, और दूसरी तरफ देश की विपक्षी पार्टियों ने मिलकर एक आकस्मिक एकता दिखाते हुए यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया। और जैसा कि पहले से तय था, कुछ घंटों के बाद देश पर सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए की मुखिया भाजपा ने एक भूतपूर्व भाजपा विधायक, और राज्यपाल रह चुकीं द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद प्रत्याशी घोषित किया है। इन दोनों ही नामों के साथ कई तरह की चर्चा शुरू हुई, यशवंत सिन्हा भाजपा की अगुवाई वाली अटल सरकार में महत्वपूर्ण वित्तमंत्री और विदेश मंत्री रह चुके हैं, लेकिन कल सुबह तक वे ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में थे, और विपक्ष के संयुक्त सर्वसम्मत उम्मीदवार बनने के पहले उन्होंने तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा दिया। यह बात जगजाहिर है कि ममता बैनर्जी और कांग्रेस के बीच एक अनबोला सा चल रहा है, और बड़ी तनातनी चल रही है, इस बीच में अगर ममता की पसंद को कांग्रेस खुलकर अपना पूरा समर्थन दे रही है, तो यह कल का एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम था। और खासकर उन घंटों में यह सहमति या एकता नजर आई जब उन्हीं घंटों में महाराष्ट्र में शिवसेना के भीतर असहमति और फूट सुर्खियों में थी। राष्ट्रपति पद के लिए दो उम्मीदवार सामने आ चुके हैं, लेकिन विधायकों और सांसदों के बहुमत से चुने जाने वाले राष्ट्रपति के लिए आज आंकड़े किसके साथ हैं, यह बात साफ है, और अब से राष्ट्रपति चुनाव मतदान तक हो सकता है कि शिवसेना के बहुत से विधायकों के वोट भी भाजपा उम्मीदवार के साथ चले जाएं।
लेकिन ये राजनीतिक घटनाक्रम अभी उतार-चढ़ाव से गुजर रहा है, और इस पर लिखने की अधिक जरूरत नहीं है। एक दूसरा मुद्दा जो इन्हीं सबके बीच से निकलकर आ रहा है, वह द्रौपदी मुर्मू का है। वे ओडिशा में सरकारी नौकरी में छोटी सी कुर्सी से उठकर वार्ड चुनाव लड़ते हुए विधायक बनी, और दो कार्यकाल विधायक रही, मंत्री भी रहीं। वे सिर्फ भाजपा में रहीं, और इस नाते 2015 में वे झारखंड की राज्यपाल बनाई गईं। वे ओडिशा की आदिवासी हैं, और देश के आदिवासी राज्य झारखंड में राज्यपाल रहीं, और अब उन्हें एक आदिवासी महिला के रूप में भाजपा ने अगला राष्ट्रपति बनाने का फैसला लिया है। उनका नाम सामने आने के बाद देश में यह चर्चा जोरों से चल रही है कि क्या एक आदिवासी महिला होने के नाते वे आदिवासियों या महिलाओं की हिफाजत के लिए कुछ कर पाएंगी, या फिर वे मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की तरह होकर रह जाएंगी जो एक दलित होने के नाते इस पद पर लाए गए थे, और जिनके कार्यकाल के दौरान देश के दलितों ने खूब जुल्म झेले हैं, और राष्ट्रपति की तरफ से हमदर्दी के कुछ शब्द भी नहीं आए। अब सोशल मीडिया इस बात पर उबला पड़ा है कि द्रौपदी मुर्मू जब झारखंड की राज्यपाल रहीं उस दौरान वहां आदिवासियों पर खूब जुल्म हुए, सरकारी फैसले आदिवासियों के खिलाफ लिए गए, लेकिन राजभवन में रहते हुए उन्होंने इनमें से किसी बात का विरोध नहीं किया।
अब राष्ट्रपति बनाते वक्त किसी तबके को महत्व देने, या किसी तबके को संतुष्ट करने की बात तो ठीक हो सकती है, लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद क्या ऐसे लोग अपने तबके का कोई भला कर पाते हैं? या क्या उन्हें अपने तबके का अलग से कोई भला करना चाहिए? जो ओहदा देश की संवैधानिक व्यवस्था में सबसे ऊपर बनाया गया है, और जिसकी हकीकत भी सब जानते हैं कि यह ओहदा मोटेतौर पर केन्द्र सरकार का चेहरा देखकर काम करता है, उस ओहदे पर किसी को किस उम्मीद के साथ बिठाया जाता है? यह बात तो साफ है कि जिस तरह ज्ञानी जैलसिंह अपने पूरे कार्यकाल प्रधानमंत्री राजीव गांधी से नापसंदगी से देश में एक अनिश्चितता बनाए हुए थे, वैसा राष्ट्रपति तो कोई भी सरकार नहीं चाहेगी। सरकार तो आमतौर पर फखरूद्दीन अली अहमद किस्म का राष्ट्रपति चाहेगी जिससे आपातकाल की घोषणा पर आधी रात को दस्तखत करवा लिए गए थे। इसलिए किसी भी सरकार से राष्ट्रपति को अधिकार देने की उम्मीद करना फिजूल की बात है।
अब सवाल यह उठता है कि अगर प्रचलित जनधारणा के मुताबिक राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की रबर स्टैम्प ही है, तो किसी भी ईमानदार और इज्जतदार व्यक्ति को रबर स्टैम्प क्यों बनना चाहिए? और जहां तक संवैधानिक सीमाओं की बात है, तो भारत की संवैधानिक व्यवस्था में भी राष्ट्रपति के लिए बहुत सी बातें मुमकिन हैं। राष्ट्रपति देश के हालात पर अपनी बात कह सकते हैं, और उन्हें केन्द्र सरकार भी इससे नहीं रोक सकती। राष्ट्रपति कोई इंटरव्यू दे सकते हैं, कोई लेख लिख सकते हैं, सरकार के भेजे प्रस्तावों को रोककर देर कर सकते हैं, उन्हें कम से कम एक बार तो अपनी आपत्ति या सुझाव लगाकर वापिस भेज सकते हैं, लेकिन अगर कोई राष्ट्रपति अपने इन संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल भी नहीं करते हैं, तो वे अपने को इस कुर्सी पर बिठाने वाले के प्रति वफादारी दिखाते हैं, या राष्ट्रपति का दूसरा कार्यकाल पाने के लिए सरकार की सेवा करते हैं। जो एक बार इस ओहदे पर पहुंच गए, उन्हें हटाना तो आसान नहीं रहता, इसलिए उन्हें पांच बरस के एक कार्यकाल की सहूलियतों की तो गारंटी रहती है। इसके बाद भी अगर पुरानी वफादारी या आगे की उम्मीद न हो, तो यह रबर स्टॉम्प भी देश का भला कर सकता है, सरकार के गलत कामों पर उसकी फजीहत कर सकता है। लेकिन ऐसे राष्ट्रपति पहली बात तो बनाए नहीं जाते, और दूसरी बात यह कि बनने के बाद वैसे रह नहीं जाते। इसलिए देश के सबसे बड़े संवैधानिक ओहदे का लगभग हमेशा ही बेजा इस्तेमाल होते आया है, पुरानी वफादारी और शुक्रगुजारी दिखाने के लिए, या दूसरे कार्यकाल की उम्मीद के लिए। ऐसे में अगर कोई राष्ट्रपति केन्द्र सरकार या देश की किसी सरकार के असंवैधानिक कामकाज को देखते हुए भी उसे अनदेखा करते हैं, तो वे हौसले की कमी, और निजी स्वार्थ की वजह से करते हैं, या फिर ऐसा इसलिए भी कर सकते हैं कि उनकी कुछ कमजोर बातें सरकार के हाथ हों।
आज एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने की संभावनाओं से न तो आदिवासियों के खुश होने की कोई बात है, और न ही महिलाओं के खुश होने की। इन दोनों के खिलाफ देश भर में पिछले बरसों में जो माहौल बना हुआ था, उसमें राज्यपाल रहते हुए भी, और उसके बाद भी उन्होंने मुंह खोला हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। इसलिए उनके आने से देश के आदिवासी समुदाय में उत्साह की कोई वजह नहीं है, और न ही महिलाओं में उत्साह की। आने वाला वक्त बताएगा कि क्या वे अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करेंगी, या वफादारी और उम्मीद के साथ वक्त काटेंगी। भारत के राष्ट्रपति पद को गैरजरूरी महत्व नहीं देना चाहिए, यह समारोहों के लिए बनाया गया दिखावे का एक ओहदा है, जिस पर बैठे लोगों के सामने इस पसंद का मौका रहता है कि वे चाहें तो असर डाल सकते हैं।
मुम्बई की एक रिपोर्ट है कि 2021 में वहां नए जन्म का रजिस्ट्रेशन कोरोना के पहले के बरस 2019 के मुकाबले 24 फीसदी गिर गया है। 2019 में 1 लाख 48 हजार से अधिक जन्म रजिस्ट्रेशन हुआ था, जो 2020 में गिरकर 1 लाख 20 हजार हो गया, अब 2021 में वह कुल 1 लाख 13 हजार रह गया है। इसकी एक बड़ी वजह मुम्बई में बाहर से आकर काम करने वाले लोगों का लॉकडाउन के दौरान अपने गांव लौट जाना रहा, और उसके बाद से अब तक वे सारे लोग काम पर लौटे नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि जो काम मुम्बई में हासिल था, वह अपने गांव या कस्बे में मिल रहा होगा, लेकिन लॉकडाउन के दौरान महानगरों से जो हौसला टूटा, तो वह फिर जुड़ नहीं पाया। ऐसा भी देखा गया है कि मजदूर अगर लौटकर आ भी गए हैं, तो भी उनके परिवार नहीं लौटे हैं, और नतीजा यह है कि अगर उनमें नई संतान होती भी है तो उसका रजिस्ट्रेशन कहीं और हुआ होगा। लोगों को लगा कि मुसीबत के वक्त न मालिक काम आए, न महानगर।
ऐसे कामगारों के अलावा जानकारों का यह भी अंदाज है कि मुम्बई में जन्म घटने के पीछे लोगों पर छाई हुई आर्थिक अनिश्चितता भी एक वजह थी। मंदी छाई हुई थी, लोगों को यह समझ नहीं पड़ रहा था कि कोई भी नया खर्च वे कैसे उठाएंगे, और अस्पतालों के नाम से दहशत हो रही थी। ऐसे में बीमारी और बदहाली से घिरे हुए लोगों ने चाहे-अनचाहे यह समझदारी दिखाई कि ऐसे दौर में परिवार नहीं बढ़ाए। जबकि खतरा यह था कि महीनों तक घर बैठे हुए लोग आबादी बढ़ा सकते थे, लेकिन वह नौबत नहीं आई। हो सकता है कि पूरे देश के ऐसे आंकड़े कुछ और तस्वीर दिखाएं क्योंकि पूरा देश तो महानगर मुम्बई है नहीं। लेकिन ऐसा लगता है कि देश की बड़ी आबादी ने आज की आर्थिक हकीकत का अहसास करते हुए यह समझ लिया है कि नए मुंह और पेट तुरंत कमाने वाले नए हाथ लेकर नहीं आने वाले हैं, और इसलिए अच्छे कहे जाने वाले दो बच्चों का भी यह शायद सही वक्त नहीं है।
अभी आबादी के आंकड़ों को लेकर तो हम अधिक विश्लेषण करना नहीं चाहते क्योंकि पूरे देश के आंकड़े सामने भी नहीं हैं, और कोरोना-लॉकडाउन के इस दौर को लेकर अधिक अटकल भी नहीं लगानी चाहिए। लेकिन एक बात तय है कि हिन्दुस्तान में आज जिंदा रहना जितना महंगा हो गया है, पढ़ाई और इलाज जिस तरह लोगों की पहुंच के बाहर होते चल रहा है, रोजगार सिमटते चल रहे हैं, इन सबको देखते हुए लोगों को पहले कमाई की गारंटी करनी चाहिए, उसके बाद ही शादी या नए परिवार जैसे खर्च बढ़ाने चाहिए। आज परिवार को बढ़ाना एक दिन का खर्च नहीं है, जन्म और अस्पताल का बिल तो एक बार ही जुट सकता है, लेकिन नई जिंदगी का रोजाना का खर्च, और किसी परेशानी के वक्त अचानक आने वाला खर्च जुटाना आज अधिकतर लोगों की पहुंच के बाहर हो चुका है। आज एक बार फिर अग्निपथ और अग्निवीर के बारे में लिखने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन सेना से चार बरस बाद रिटायर कर दिए जाने वाले अग्निवीरों को केन्द्रीय सुरक्षा बलों, राज्य सरकारों, या निजी कंपनियों में नौकरी देने का भरोसा या गारंटी उस वक्त बेमायने लगते हैं जब यह दिखता है कि सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र तक लगातार नौकरियों की कटौतियां चल रही हैं, सरकारों में लाखों कुर्सियां सोच-समझकर खाली रखी गई हैं, ताकि तनख्वाह का बोझ घट सके। यह नौबत न तो अग्निपथ से सुधरने वाली है, न ही अधिक बिगडऩे वाली है। इसलिए लोगों को परेशानी से जूझने की अपनी क्षमता पर अधिक भरोसा करना चाहिए, अच्छे दिन आने की उम्मीद पर कम भरोसा करना चाहिए।
लोगों को परिवार बढ़ाने से परे भी अपने खर्चों पर काबू रखना चाहिए, क्योंकि आज जो कमाई है, वह कल जारी रह सकेगी इसकी कोई गारंटी नहीं हैं। दूसरी तरफ बढ़े हुए खर्च कम कर पाना आसान नहीं रहता, इस बात की तो गारंटी सी रहती है। भारत जैसे देश में सकल राष्ट्रीय उत्पादन के आंकड़े चाहे हौसला बहुत पस्त न करें, लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि इन आंकड़ों में मनरेगा मजदूरों से लेकर अडानी-अंबानी की कमाई के, उत्पादन के आंकड़े भी शामिल हैं। और आज देश में कमाई का जो अनुपातहीन बंटवारा है, उसमें अडानी-अंबानी की दोगुनी होती दौलत और कई गुना बढ़ती कमाई के आंकड़ों से देश के गरीब और मध्यम वर्ग को खुश होने की जरूरत नहीं है। आने वाला वक्त इससे और अधिक कड़ा हो सकता है, और लोगों को न सिर्फ अपने काम को बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हुनर के बाजार में उनकी कद्र बनी रहे, बल्कि उन्हें लगातार अपने खर्चों पर काबू भी रखना चाहिए। अभी पूरी दुनिया में आसमान पर पहुंच रही महंगाई के कम होने का आसार नहीं दिख रहा है, और लोगों को खर्च घटाते जाने की कोशिश भी करनी चाहिए।
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आज देश में कांग्रेस पार्टी से परे बाकी तमाम लोगों के लिए सेना में भर्ती की नई योजना अग्निपथ सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। कांग्रेस पार्टी की बात कुछ अलग है, उसके नए संचार प्रमुख, राज्यसभा सदस्य जयराम रमेश ने कल ही ट्वीट किया है कि आज 20 जून का देश भर का कांग्रेस का प्रदर्शन अग्निपथ के खिलाफ और राहुल गांधी पर केन्द्रित प्रतिशोध की राजनीति के खिलाफ रहेगा। आज जब देश की बहुत सी पार्टियां और संगठन अग्निपथ के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, तो इस व्यापक मुद्दे से कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को जोडक़र अग्निपथ के महत्व को घटाने के अलावा और कुछ नहीं कर रही। खैर, जयराम रमेश आज अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जो कि अपने बयान से आज अपनी पार्टी का नुकसान कर रहे हैं। भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने कल वीडियो कैमरों के सामने जिस तरह यह बात कही कि अग्निपथ से भर्ती होने वाले सैनिक रिटायर होने के बाद भाजपा कार्यालय के सुरक्षाकर्मी बनने में प्राथमिकता पाएंगे, वह बात उनकी पार्टी का बहुत बड़ा नुकसान कर गई है, और भाजपा की अगुवाई वाली मोदी सरकार जो जनधारणा प्रबंधन करना चाह रही थी, कैलाश विजयवर्गीय ने उस कोशिश को मानो लात ही मार दी। दूसरी तरफ कल ही केन्द्र सरकार के एक मंत्री, जी.किशन रेड्डी ने औपचारिक प्रेस कांफ्रेंस में यह कहा कि अग्निवीरों को सेना से निकलने के बाद काम की कमी नहीं रहेगी क्योंकि उन्हें ड्राइवरी, बिजली मिस्त्री का काम, नाई और धोबी का काम सिखाया जाएगा। फिर मानो भाजपा इस तरह की बातों में आगे न निकल जाए इसलिए कांग्रेस के एक एमएलए इरफान अंसारी अपनी बेवकूफी की बातों के साथ दो दिनों से समाचार बुलेटिनों पर छाए हुए हैं, और अभी उनका यह बयान बार-बार दिखाया जा रहा है कि चार साल सैनिक रहकर निकले हुए लोग बाहर आकर हथियार उठा लेंगे, और सडक़ों पर खून-खराबा होगा। जिस तरह अग्निपथ योजना के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए नौजवान भीड़ सडक़ों और पटरियों पर हिंसा कर रही है, कुछ उसी किस्म की हिंसा अलग-अलग पार्टियों के नेता कैमरा और माईक देखते ही कर रहे हैं, और लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से बकवास करते हुए ये लोग अपनी खुद की पार्टी या अपनी खुद की सरकार को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
लोगों को याद होगा कि अभी दो हफ्ते ही गुजरे हैं जब भाजपा के दो प्रवक्ताओं ने पार्टी को एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक मुसीबत में डाला है, और अपनी पार्टी के साथ-साथ उन्होंने इस पूरे देश को भी दुनिया के बीच हिकारत के घेरे में डाल दिया है, और एकमुश्त तमाम मुस्लिम देशों को भारत के आमने-सामने कर दिया है। उसके तुरंत बाद भी ऐसी अनौपचारिक खबर आई थी कि भाजपा के प्रवक्ता धर्म के मामलों पर नहीं बोलेंगे, कई और मुद्दों पर पार्टी के बड़े नेताओं से बात करने के बाद ही बोलेंगे, जिन्हें पार्टी ने अधिकृत किया है वे ही लोग टीवी चैनलों पर जाएंगे। इस अनौपचारिक खबर से ऐसा लगने लगा था कि अब भाजपा के प्रवक्ताओं की जुबान पर पार्टी की लगाम रहेगी। लेकिन जब कोई केन्द्रीय मंत्री, या कैलाश विजयवर्गीय सरीखे बड़े नेता किसी जलते-सुलगते मुद्दे पर ऐसे लापरवाही के शब्द इस्तेमाल करते हैं, तो यह समझ आता है कि पार्टी के प्रवक्ताओं और नेताओं पर पार्टी का कोई बस नहीं है। यही हाल दूसरी कई पार्टियों के बारे में भी कहा जा सकता है, और आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपनी सुनाई अपने बचपन की कहानियों को लेकर उनकी आलोचना के साथ-साथ उनकी मां का भी जिस तरह का मजाक बनाया जा रहा है, उस पर भी कोई पार्टी अपने लोगों को कोई जिम्मेदारी सिखाते नहीं दिख रही है, क्योंकि हर पार्टी के पास भाजपा के कई नेताओं के इससे भी बुरे बयानों की मिसालें कायम हैं, और जुबानी गिरावट का यह सिलसिला बेधडक़ आगे बढ़ते चल रहा है।
आज अग्निवीरों को लेकर एक तरफ तो फौजी वर्दी पहने हुए बड़े अफसर मीडिया के सामने आकर उन्हें अपनी बराबरी का सैनिक बता रहे हैं, अपने बगल में सुला रहे हैं, अपने से किसी मायने में कम नहीं बता रहे हैं, और ऐसा करके वे सरकार की शांति कायम करने की नीयत का साथ दे रहे हैं। दूसरी तरफ सरकार के ही हिमायती लोग तरह-तरह से इन अग्निवीरों को मनरेगा मजदूरों से बेहतर गिनाकर लोगों को यह तुलना करने पर मजबूर कर रहे हैं कि अग्निवीर मनरेगा मजदूरों से तो बेहतर ही रहेंगे। सरकार के हिमायती इन लोगों को यह भी समझ नहीं है कि मनरेगा मजदूर सरहद पर जान कुर्बान करने के लिए नहीं जाते हैं, अपने गांव के बगल ही मिट्टी खोदते हैं। देश का सिलसिला कुछ तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से, और कुछ बाकी मीडिया की मेहरबानी से भी इतना बिगड़ चुका है कि अब लोग सेना भर्ती के तरीके पर उठाए सवालों को सेना को कमजोर करने की साजिश कह रहे हैं, दुश्मन देश की सेना को मजबूत करने की साजिश कह रहे हैं। जिसके मुंह में जो आ रहा है वह कहे जा रहे हैं, और जो बात जितनी अधिक अटपटी है, जितनी अधिक खटकने वाली है, वह मीडिया में उतनी ही अधिक अहमियत भी पा रही है। ऐसा लगता है कि जो सोशल मीडिया, और मीडिया भी, लोकतंत्र का बड़ा औजार माने जाते हैं, वे एक ऐसी लाठी बन गए हैं जिसे घुमा-घुमाकर लोकतंत्र के टुकड़े किए जा रहे हैं।
आज हर मोबाइल फोन एक मीडिया संस्थान बन गया है, और हर नागरिक मीडियाकर्मी। ऐसे में रद्दी से रद्दी नेता को भी कई कैमरे नसीब हो जाते हैं, और सामने कैमरे देखकर, खबरों में आने की उनकी हसरत उमडऩे लगती है, और वे अपनी पार्टी या अपने संगठन का नुकसान भी करने की कीमत पर उटपटांग बोलने लगते हैं। कल तक मोदी सरकार के विरोधी यह कह रहे थे कि चार साल बाद फौज से निकलकर अग्निवीर दर्जे के सैनिक अडानी और अंबानी के सिक्यूरिटी गार्ड बन पाएंगे, कैलाश विजयवर्गीय ने चार कदम आगे बढक़र उन्हें भाजपा दफ्तर का सिक्यूरिटी गार्ड बना दिया। फिर मानो कैलाश विजयवर्गीय के मुकाबले केन्द्रीय मंत्री जी.किशन रेड्डी को हीनभावना होने लगी, तो उन्होंने रिटायर्ड अग्निवीरों को ड्राइवर, बिजली मिस्त्री, नाई और धोबी बना दिया। अब देश के दर्जनभर राज्यों में लगी हुई आग को बुझाने में लगी मोदी सरकार को उसके घर के चिरागों से ही आग लग रही है। बहुत सी दूसरी विपक्षी पार्टियों के पास जलने लायक कुछ बचा नहीं है, इसलिए उन्हें आज समझ नहीं आ रहा है कि उनके नेता और प्रवक्ता उनका क्या नुकसान कर रहे हैं। हिन्दुस्तान के मीडिया की दिक्कत यह हो गई है कि सोशल मीडिया के बीच जिंदा रहने के लिए उसे तरह-तरह से सोशल मीडिया की अराजकता से मुकाबला करना पड़ता है। फिर यह भी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने ग्राहकों की जरूरतों, और अपनी तकनीक की सीमाओं के चलते हुए चाहे-अनचाहे सनसनी पर ही जिंदा रहता है, और अधिक गैरजिम्मेदारी उसे अधिक कामयाब भी बनाती है।
इस पूरे दौर में राजनीतिक दलों को एक ही सहूलियत है कि उसके बकवासी नेताओं के मुकाबले दूसरी पार्टियों में भी बकवासी नेता हैं, और नुकसान किसी एक पार्टी का ही नहीं हो रहा है। लेकिन तमाम पार्टियों के नुकसान होने को राहत मानने वाली हिन्दुस्तानी राजनीति इस बात की तरफ से बेफिक्र और बेखबर है कि इससे हिन्दुस्तान की सार्वजनिक जीवन की हवा जहरीली होती चल रही है, और यहां पर अब कोई न्यायसंगत, तर्कसंगत संवाद मुमकिन नहीं रह गया है।
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