संपादकीय
अफगानिस्तान के काबुल में एक गुरुद्वारे पर आईएस के आतंकियों ने हमला किया। हमला बहुत बड़ा था, दर्जन भर से अधिक विस्फोट किए गए, हथगोलों और रायफलों से लैस आतंकी गुरुद्वारे के अंदर घुसे, और दो लोगों मार डाला। इसके बाद अफगानिस्तान के आज के शासक, तालिबान ने इन आईएस आतंकियों को मार गिराया। खबरें बताती हैं कि अफगानिस्तान में हाल ही में सिक्ख धर्मस्थलों पर यह पांचवां बड़ा हमला है, और इनमें से अधिकतर की जिम्मेदारी आईएस ने ली है। इस बार आईएस ने इस हमले के बाद यह बयान जारी किया है कि उसने हिन्दुस्तान में (भाजपा प्रवक्ता) नुपूर शर्मा और नवीन जिंदल द्वारा पैगंबर का अपमान करने के जवाब में यह हमला किया है। अफगानिस्तान के घरेलू हालात ऐसे हैं कि तालिबान का भी आईएस आतंकियों पर कोई बस चल नहीं रहा है, और आज दुनिया के सबसे कट्टर इस्लामी आतंकी समूहों में से एक, आईएस वहां जब तब हमले करते रहता है।
अफगानिस्तान के किसी आतंकी हमले या मुठभेड़ के बारे में यहां लिखने की कोई वजह नहीं बनती थी, लेकिन इस बार आईएस ने इस हमले के बाद जो बयान दिया है, वह हिन्दुस्तान के लिए फिक्र की बात है। हिन्दुस्तानी लोग दुनिया के अधिकतर देशों में बसे हुए हैं, और दुनिया का ऐसा कोई इस्लामी देश नहीं है जहां पर हिन्दुस्तानी न हों। ऐसे में हिन्दुस्तान ने इस्लाम पर किया हुआ कोई भी हमला कई देशों में हिन्दुस्तानियों को निशाना बना सकता है, और बनाता ही है। जो आतंकी हमले हैं वे तो दिख जाते हैं, लेकिन जो आर्थिक हमले होते हैं, वे आसानी से दिखते नहीं हैं। जब न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों पर ओसामा-बिन-लादेन के आतंकियों ने विमान टकराकर हमला किया था, तो उसके जवाब में पूरी दुनिया में ही मुस्लिमों को जगह-जगह आर्थिक बहिष्कार झेलना पड़ा था, और उनके कारोबार में बड़ी गिरावट आई थी। अभी भारत में धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, और असहिष्णुता का नुकसान दुनिया भर में हिन्दुस्तानियों को कई अघोषित तरीकों से हो रहा है। और जो लोग अपनी-अपनी बसाहट में दुनिया भर में ऐसा नुकसान झेल रहे हैं, वे भी खुलकर इस बारे में कुछ बोलना नहीं चाहते हैं क्योंकि यह सिलसिला और आगे न बढ़े।
यह पहले भी कई बार लिखा जा चुका है कि खाड़ी के देशों में दसियों लाख हिन्दुस्तानी काम करते हैं, और उनके घर भेजे गए पैसों से भारत की विदेशी मुद्रा की जरूरत भी पूरी होती है, और भारतीय घरेलू अर्थव्यवस्था भी उसकी वजह से आगे बढ़ती है। ऐसे में हिन्दुस्तान के जिन नफरतजीवियों को तरह-तरह के फतवे देना सूझता है, उन्हें इस बात का अहसास भी नहीं है, और इसकी फिक्र भी नहीं है कि दूसरे देशों में अल्पसंख्यक कामगार तबके के हिन्दुस्तानियों, और हिन्दुओं का क्या हाल होगा। जिन्हें अपने मुहल्ले से बाहर निकलना नहीं है, और सबसे करीब की सडक़ पर उत्पात करना है, सबसे पास की बस्तियों में आग लगानी है, उन्हें दूर बसे अपने ही धर्म के लोगों की फिक्र की बात भला कैसे सूझेगी, क्यों सूझेगी? नतीजा यह है कि दुनिया के माहौल से बेखबर और बेफिक्र ऐसे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोग हिन्दुस्तान में आग लगाकर यहां तो खुद बच निकलने की गारंटी कर लेते हैं, लेकिन दूसरे देशों में हिन्दुस्तानी लोग उसका दाम चुकाते हैं।
आज हिन्दुस्तान में धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता की जो आंधी चल रही है, उस बीच लोगों को यह भी दिखाई नहीं दे रहा है कि एक देश के रूप में भारत की सभ्य दुनिया में कितनी बेइज्जती हो रही है। और न सिर्फ दूसरे देशों के पूंजीनिवेशकों ने हाल ही के हफ्तों में बहुत बड़ी रकम हिन्दुस्तान से निकाल ली है, बल्कि चीन के विकल्प के रूप में भारत को जो महत्व मिलना था वह भी कहीं आसपास दिख नहीं रहा है। कुछ लोगों को हिंसक हिन्दुस्तानियों के हाथों में झंडे-डंडों से इसका रिश्ता समझ नहीं आएगा, लेकिन साम्प्रदायिकता की आग में झोंके जा रहे देश में पूंजीनिवेश करने भी लोग बाहर से नहीं आएंगे। आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को जब सत्ता की तरफ से हिफाजत मिल जाती है, तब उसके भीतर अगर साम्प्रदायिक हिंसा सुलगती रहती है, तो वह लपटों में बदलने में वक्त नहीं लगता। और ऐसी लपटों में सबसे पहले अर्थव्यवस्था आती है, इस देश में भी, और इस देश के बाहर बसे हिन्दुस्तानियों की भी।
आज अफगानिस्तान के एक सिक्ख गुरुद्वारे को भारत में भाजपा प्रवक्ताओं के बयानों की वजह से इस्लामी आतंकियों का हमला झेलना पड़ा है। सिक्खों का इन बयानों से भी कोई लेना-देना नहीं था, और तो और इन प्रवक्ताओं में भी कोई निजी हैसियत में सिक्ख नहीं थे, लेकिन हिन्दुस्तानी होने की वजह से सिक्खों ने वहां कुछ साम्प्रदायिक हिन्दुओं के फैलाए जहर के दाम चुकाए हैं, अपनी जिंदगियां खोई हैं, और गुरुद्वारे पर हमला झेला है। देश के भीतर जो लोग बढ़ाई जा रही साम्प्रदायिकता पर चुप हैं, वे यह बात समझ लें कि दुनिया भर में जगह-जगह हिन्दुस्तानी लोग इसके दाम चुका रहे हैं, चुकाते रहेंगे। हिन्दुस्तान में जो लोग इस आग को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं, उनसे अफगानिस्तान के इस ताजा हमले को लेकर सवाल होने चाहिए कि यहां पर हिंसा फैलाते हुए क्या उन्हें दुनिया भर में बसे भारतवंशियों की फिक्र है?
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एक बार फिर देश की मोदी सरकार की एक बड़ी महत्वाकांक्षी योजना से बड़ा बवाल उठ खड़ा हुआ है। अग्निपथ योजना के तहत देश के नौजवान फौज में भर्ती होकर अग्निवीर बनने के पहले ही देश के आधा दर्जन राज्यों में प्रदर्शन करते हुए ट्रेन और बस में आग लगाने की वीरता दिखा रहे हैं। यह मामला बड़ा जटिल है, और हम देश की सुरक्षा से जुड़ी हुई इस फौजी नीति में आमूलचूल बदलाव का अतिसरलीकरण करना भी नहीं चाहते। लेकिन अलग-अलग जानकार लोगों की कही हुई, और लिखी हुई जो बातें अब तक सामने आई हैं, वे हैरान करती हैं कि क्या मोदी सरकार सचमुच ही बिना काफी सोच-विचार के ऐसा फैसला ले सकती है? आज देश में दस करोड़ से अधिक बेरोजगार हैं, इनमें फौज में जाने की हसरत रखने वाले करोड़ों नौजवान हैं, इनमें से लाखों ऐसे हैं जो पिछले पांच-दस बरस से इसकी तैयारी कर रहे हैं, और आज उन्हें पता लग रहा है कि उनके लिए खुल रही नौकरी कुल चार बरस की है, और इन चार बरसों के बाद न उन्हें पेंशन रहेगी, न उनको भूतपूर्व सैनिकों को मिलने वाली किसी भी तरह की सहूलियत रहेगी, तो ऐसे बेरोजगार नौजवान आपा खोकर आग लगाते सडक़ों और पटरियों पर हैं।
केन्द्र सरकार की अग्निपथ योजना को लेकर सरकार से बाहर के लोगों के मन में अनगिनत आशंकाएं हैं। इनमें से एक आशंका कांग्रेस पार्टी ने खुलकर सामने रखी हैं कि चार बरस हथियारबंद ट्रेनिंग और काम के बाद जब ये नौजवान एकदम से बेरोजगार होकर पच्चीस बरस की उम्र में फिर काम तलाशेंगे, तो हथियारों की उनकी ट्रेनिंग उन्हें गलत रास्ते पर भी ले जा सकती है। यह आशंका कांग्रेस से परे भी बहुत से लोगों ने जाहिर की है, और दुनिया के कई दूसरे देशों का ऐसा तजुर्बा भी है कि सेना से निकले हुए ऐसे ठेके के सैनिक बिना किसी सरकारी सहूलियत और बंदिश के निजी कारोबारी सैनिक बन जाते हैं, और कहीं वे बड़ी कंपनियों के लिए दूसरे देशों में हथियारबंद काम करते हैं, तो कहीं किसी देश में जंग में भाड़े पर काम करते हैं। रूस की ऐसी ही एक निजी सेना के लोग इन दिनों यूक्रेन में काम कर रहे हैं, और भाड़े पर कत्ल कर रहे हैं, और वागनर ग्रुप नाम की यह प्राइवेट मिलिट्री पहले सीरिया में भी काम कर चुकी है।
कुछ लोगों की यह खुली आशंका है कि आज हिन्दुस्तान में निजी कंपनियां जितनी विकराल होती जा रही हैं, उन्हें अगले बरसों में अपने होने वाले और अधिक विस्तार की हिफाजत के लिए निजी सेना की जरूरत पड़ेगी, और प्राइवेट सिक्यूरिटी के नाम पर उन्हें ऐसे हथियार-प्रशिक्षित लोग लगेंगे, और चार बरस में हिन्दुस्तानी फौज से रिटायर होने वाले ऐसे लोग ऐसी निजी सुरक्षा वर्दियों के लिए तैयार रहेंगे। लोगों ने इस सिलसिले में देश की एक सबसे बड़ी कंपनी की निजी सिक्यूरिटी एजेंसी का नाम भी गिना दिया है कि शायद उसी की भर्ती के लिए हिन्दुस्तानी फौज के रास्ते यह रास्ता निकाला जा रहा है।
एक दूसरी आशंका जो बहुत बड़ी है वह देश के एक रिटायर फौजी जनरल ने गिनाई है, और कुछ गैरफौजी जानकार लोगों ने भी। उनका कहना है कि अग्निपथ के रास्ते अग्निवीरों की नियुक्ति में देश के किसी इलाके के लिए कोई कोटा नहीं रहेगा, किसी तबके का कोई आरक्षण नहीं रहेगा, और भारतीय सेना में हमेशा से चली आ रही लड़ाकू और योद्धा जातियों के आधार पर बनी हुई रेजिमेंट नहीं रहेंगी। पूरे देश से जब एक साथ सेलेक्शन की जब एक लिस्ट बनेगी, तो यह भी मुमकिन है कि उसके अधिकतर लोग दो-चार राज्यों के ही हों। और फौज की इस तरह बदलती हुई शक्ल से राष्ट्रीय एकता पर किस तरह का असर पड़ेगा, इसका अंदाज लगाना अभी नामुमकिन है। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों से फौज में भर्ती के लिए जो कोटा रखा जाता था, वह इस अग्निपथ-अग्निवीर में खत्म कर दिया गया है, और फौज के बड़े जानकार लोग इसे एक बड़ा खतरा मान रहे हैं। इस देश की राष्ट्रीय एकता की इस तरह की अनदेखी बहुत लंबे समय में जाकर भारी पड़ सकती हैं क्योंकि हिन्दुस्तानी फौज आज धर्म और साम्प्रदायिकता से परे, जाति और क्षेत्रीयता से परे, राष्ट्रीय एकता की एक बड़ी मिसाल है, जिसका कि बिगडऩा शुरू होगा, तो एक-दो पीढ़ी बाद उसका नुकसान और खतरा पता चलेगा।
आज हिन्दुस्तानी फौज में जाकर देश के लिए जान कुर्बान करने का जज्बा सस्ते में नहीं आता है। सैनिकों को यह मालूम रहता है कि उनकी नौकरी के बाद इस देश की सरकार उनके परिवार को पेंशन, इलाज, रियायती सामान जैसी अनगिनत सहूलियतें देगी, उनके रिटायरमेंट के बाद उनके पुनर्वास के लिए तरह-तरह की योजनाएं रहेंगी, और उनके परिवार का भविष्य बुनियादी जरूरतों के लिए हिफाजत से रहेगा। आज चार बरस के अग्निवीर पांचवें बरस में किसी कंपनी के सिक्यूरिटी गार्ड बन जाएं तो बहुत रहेगा, न उनके हाथ पेंशन रहेगी, न इलाज, न बच्चों की पढ़ाई, न और कुछ। और इन्हीं चार बरसों में देश के लिए कुर्बान होने का मौका आने पर उनसे कुर्बानी की उम्मीद भी की जाएगी। मतलब यह कि वे अपनी जवानी के बेहतरीन बरस देश पर कुर्बान होने को तैयार रहें, खतरा उठाएं, और चार बरस बाद रिटायर होकर किसी कारखाने के गार्ड बन जाएं, या एटीएम की चौकीदारी करें। इनमें से कोई रोजगार खराब नहीं है, लेकिन ऐसे रोजगार के लिए कोई देश पर कुर्बानी का जज्बा जुटा पाएंगे, यह उम्मीद करना कुछ ज्यादती होगी।
इस योजना की घोषणा के दो दिन के भीतर, और दो दर्जन आगजनी के बाद इसमें भर्ती की उम्र में दो बरस की ढील घोषित की गई है। हैरानी की बात यह है कि मोदी मंत्रिमंडल में आज मंत्री, और रिटायर्ड थलसेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह ने मीडिया के वीडियो कैमरे के सामने यह बात कही कि उन्हें इस योजना के बारे में कुछ नहीं पता है, वे इसे तैयार करने वाले लोगों में नहीं थे, उन्हें इसके बारे में मालूम नहीं है। अब अगर केन्द्रीय मंत्रिमंडल के इतने बड़े एक भूतपूर्व फौजी से ही इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई है, और जैसा कि सारे जानकार लोग बता रहे हैं कि फौजी भर्ती में आमूलचूल फेरबदल का कोई पायलट प्रोजेक्ट भी नहीं बना, तो ऐसा लगता है कि यह नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून, नागरिकता कानून सरीखा ही एक और बिना तैयारी का फैसला है जिसमें मौजूदा विशेषज्ञों की राय भी नहीं ली गई है। यह सिलसिला इस देश की इतनी पुरानी फौज के लिए भी ठीक नहीं है, और उसी वजह से वह देश की हिफाजत के लिए भी ठीक नहीं है। संसद में बहुमत वाली सरकारें हर किस्म का फैसला लेने की ताकत रखती हैं, लेकिन जब सरकारें कई फैसले महज इसलिए लेने लगती हैं कि वे उन्हें लेने की ताकत रखती हैं, तो ये फैसले देश के खिलाफ भी हो सकते हैं, और सरकारों के खुद के खिलाफ भी।
आज करोड़ों बेरोजगारों के देश में दस लाख नई नौकरियों की उम्मीद से जश्न का माहौल रहना था, लेकिन आज केन्द्र सरकार के भागीदारों से परे कोई भी इसका हिमायती नहीं दिख रहा है। एक रिटायर्ड मेजर जनरल जी.डी. बक्शी जो कि आए दिन टीवी पर आग उगलते दिखते हैं, और मोदी सरकार के एक बड़े प्रवक्ता की तरह काम करते हैं, उन्होंने कहा है कि अग्निपथ स्कीम के बाद पीढिय़ों से फौज में जा रहे लोगों का सामाजिक ताना-बाना बिखर जाएगा। उन्होंने साफ कहा है कि चार साल में एक साल तो छुट्टी में मेडिकल में ही चला जाएगा, तीन साल में जवान मोर्चे पर क्या जंग लड़ेगा? चार साल के बाद जब सैनिक लौटेगा, और उसे काम नहीं मिलेगा तो वह मुजरिम ही बनेगा। उन्होंने कहा कि इससे भारतीय सेना का रेजिमेंटल सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा।
हम अभी अग्निपथ योजना से फौज को होने वाले नफे और नुकसान पर अपनी तरफ से कोई नतीजा नहीं निकाल रहे हैं, लेकिन जानकार लोगों की कही बातों से जो नतीजे निकल रहे हैं, उनमें से कुछ बातों को सामने रख रहे हैं। देश को इस बारे में और सोचने की जरूरत है, और सरकार को इस फैसले को स्थगित रखना चाहिए, यह देश को एक अलग तरीके से धीरे-धीरे विभाजित करने वाला फैसला हो सकता है, और कई तरह से खतरे में डालने वाला फैसला भी। आज इसे लेकर देश भर में जो उपद्रव चल रहा है, उसमें बेरोजगार नौजवानों से शांत रहने की हमारी अपील का क्या कोई मतलब होगा, जब देश के प्रधानमंत्री ही किसी भी हिंसक उपद्रव पर शांत रहने की अपील नहीं कर पा रहे हैं?
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महाराष्ट्र के प्रमुख मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके, आज के केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की कुछ बातें हैं जो उन्हें किसी भी दूसरे केन्द्रीय मंत्री से अलग दिखाती हैं। वे लगातार अपने विभाग के तहत सडक़-पुल बनाने, ट्रैफिक सुधारने, गाडिय़ों को पेट्रोल-डीजल से बैटरी की तरफ ले जाने की सकारात्मक बातें करते हैं। उनकी तमाम बातों से ऐसा लगता है कि वे देश में फैले हुए नफरत के सैलाब से अनछुए रहकर अपनी बैटरी कार पर सवार, अपने बनाए हुए हाईवे पर आगे बढ़ते चले जाना चाहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे अपनी पार्टी और सरकार की राजनीति के खिलाफ हैं, लेकिन जनता के बीच कही उनकी बातें उन्हें एक अलग तरह का सम्मान दिलाने वाली रहती हैं और लोगों को यह भरोसा दिलाने वाली भी रहती हैं कि उनके विभाग के तहत होने वाला काम लोगों को सचमुच अच्छे दिन दिखा सकता है।
अभी नितिन गडकरी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यह कहा कि सरकार एक ऐसा कानून बनाने जा रही है जिसके बाद लोग अगर गलत खड़ी की हुई गाड़ी की फोटो भेजेंगे, और उस पर हजार रूपए से अधिक का जुर्माना बनेगा, तो उस पर पांच सौ रूपए का ईनाम उन्हें मिल सकेगा। उनका कहना है कि इससे गलत पार्किंग खत्म हो जाएगी। उन्होंने इस पर भी अफसोस जाहिर किया कि लोग गाडिय़ां तो ले लेते हैं, लेकिन उनके पास पार्किंग की जगह नहीं रहती। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने बरसों पहले इसी तरह की बात अपने इलाके की पुलिस को सुझाई थी कि उसे अखबारों के फोटोग्राफरों से अपील करनी चाहिए कि सडक़ों पर ट्रैफिक नियम तोडऩे वालों की फोटो खींचकर भेजें, और उस पर जुर्माना होने पर उसका एक हिस्सा फोटोग्राफर को भी मिलेगा। उस वक्त सडक़ों पर अखबारी-फोटोग्राफर ही अधिक रहते थे, और उस वक्त मोबाइल फोन-कैमरों का चलन नहीं था। लेकिन अब तो हर हाथ में एक कैमरा है, और अगर स्थानीय पुलिस चाहे तो वह अपने वॉट्सऐप नंबर, ईमेल एड्रेस, और सोशल मीडिया पेज तैयार कर सकती है जहां पर राह चलते लोग भी ऐसे फोटो-वीडियो भेजें, और उन पर जुर्माना होने पर उसका एक हिस्सा शिकायतकर्ता को भी मिले। आज पूरे हिन्दुस्तान में फौज में भर्ती की नई योजना, अग्निपथ, के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन हो रहा है, रेलगाडिय़ां जलाई जा रही हैं, लेकिन ट्रैफिक की शिकायत की ऐसी सडक़पथ योजना बनाकर ट्रैफिकवीरों से फोटो-वीडियो बुलवाने और ईनाम देने से वह सुधार हो सकेगा जो कि पुलिस अपने अमले को दस गुना करके भी नहीं कर सकती।
किसी भी सभ्य समाज में नियमों को लागू करना और करवाना हर किसी की जिम्मेदारी होनी चाहिए। आज देश की अराजक आबादी से पूरे नियम पालन करवाना हो तो दस गुना पुलिस भी कारगर नहीं होगी। और हर पुलिस सिपाही का खर्च तो जनता पर ही आता है। इसलिए जिस तरह सफाई अभियान में लोगों को जोडऩे वाली म्युनिसिपलें अधिक कामयाब होती हैं, उसी तरह ट्रैफिक सुधारने की मुहिम में जो प्रदेश या शहर अपने लोगों को उसमें भागीदार बनाएंगे, वे सरकारी खर्च बढ़ाने के बजाय सरकारी कमाई बढ़ाएंगे, और लोगों के बीच भी बिना वर्दी देखे नियमों का सम्मान रहेगा। आज तो जहां पुलिस के दिखने का खतरा न हो, वहां लोग अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, और सडक़ों के मवाली भी। यह नौबत बदलने के लिए जनभागीदारी की नितिन गडकरी की आज की सोच हम दस-पन्द्रह बरस पहले लिख चुके हैं, और उसके लिए राज्य सरकार को एक मामूली सा नियम बनाना पड़ेगा। आज भी ट्रैफिक चालान की कमाई राज्य के खजाने में ही जाती है, और अगर उसका एक हिस्सा लोगों को ईनाम में दिया जाता है, तो उसमें केन्द्र सरकार से किसी इजाजत की जरूरत भी नहीं है। राज्य सरकार अपने स्तर पर पहल करके अपने नागरिकों को ट्रैफिक सुधारने की इस मुहिम में लगा सकती हैं, और हर हाथ में मोबाइल फोन होने से इसकी कामयाबी भी तय है। यह जरूर हो सकता है कि ट्रैफिक से जुड़े हुए सरकारी महकमों के संगठित भ्रष्टाचार के एकाधिकार पर इससे चोट पहुंच सकती है, लेकिन वह भ्रष्टाचार लोगों की जिंदगी की कीमत पर चलता है, जिसे कि बंद किया जाना चाहिए।
शहरी जिंदगी में बच्चों को कोई भी नियम सिखाने की पहली शुरुआत ट्रैफिक से होती है, और जब वे ट्रैफिक के नियम तोड़े जाते देखते हैं, वे खुद भी वैसा ही करना सीख जाते हैं, और फिर धीरे-धीरे किसी भी नियम के लिए उनके मन में हिकारत घर कर जाती है। ऐसी अराजक सोच सरकार के लिए आगे कई किस्म के जुर्म पेश करती हैं, और देश की बहुत सी पुलिस, बहुत सी अदालतें इसी से जूझते रह जाती हैं। इसलिए ट्रैफिक सुधारना बच्चों को नियमों का सम्मान सिखाने का पहला पाठ रहता है। एक सभ्य देश की आसान सी पहचान यही रहती है कि वहां का ट्रैफिक नियमों का कितना सम्मान करता है। बिना राजनीतिक पसंद या प्रतिरोध के, नितिन गडकरी की सोच को राज्यों को अपने स्तर पर लागू करना चाहिए, चीजों को बेहतर बनाने की कोशिश इस अखबार के लिखे शुरू न हुई, तो भी कोई बात नहीं, गडकरी के कहे हुए शुरू हो जानी चाहिए। यह भी हो सकता है कि कई बेरोजगार अपने मामूली से मोबाइल फोन के कैमरे से दिन भर में हजार-दो हजार रूपए कमाने का एक रास्ता निकाल लें, और उन्हें अग्निपथ के मुकाबले चालानपथ एक बेहतर कॅरियर लगने लगें।
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दो दिन पहले झारखंड के राज्यपाल, देश के सबसे सीनियर सांसद रह चुके रमेश बैस की तरफ से मीडिया को भेजी गई एक जानकारी में बताया गया था कि रांची के राजभवन में उन्होंने पुलिस के बड़े अफसरों को बुलाकर रांची में दस जून और उसके बाद हुई घटनाओं के बारे में खुलासे से जानकारी ली थी। दस जून के वहां के प्रदर्शन में पुलिस गोली से दो मौतें हुई थीं, और उस बारे में राज्यपाल ने पूछा था कि इतनी हिंसा को रोकने के लिए पहले से बचाव की कार्रवाई क्यों नहीं की गई थी? पुलिस की तैयारी क्यों नहीं थी? उन्होंने अफसरों से यह भी कहा था कि प्रदर्शन करने वाले लोगों और गिरफ्तार लोगों की तस्वीरों को नाम-पते के साथ देकर शहर के प्रमुख जगहों पर होर्डिंग लगाए जाएं ताकि जनता उन्हें पहचान सके। अब राज्यपाल की तरफ से ही मीडिया को बैठक की भेजी गई इस जानकारी के बाद रांची पुलिस ने ऐसे होर्डिंग बनाकर जारी किए थे जिनमें उपद्रव करते लोगों के चेहरे दिख रहे थे, और उन्हें पहचान कर उनके बारे में पुलिस को खबर करने की अपील की गई थी। लेकिन पुलिस ने इसके बाद प्रेस नोट जारी किया कि इन वांछित उपद्रवियों के फोटो में संशोधन करने के लिए उसे वापिस लिया जा रहा है। इसके पहले झारखंड सरकार के गृहसचिव की रांची एसएसपी को लिखी एक चिट्ठी सामने आती है जिसमें कहा गया है ऐसी तस्वीरों के पोस्टर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ है, और इस बारे में स्पष्टीकरण दें। जाहिर है कि झारखंड में देश के एक सबसे वरिष्ठ भाजपा सांसद रहे, और अब राज्यपाल, रमेश बैस के निर्देशों पर काम कर रही पुलिस अपनी ही सरकार के निशाने पर आ गई है। राज्यपाल की तरफ से मीडिया को अफसरों संग उनकी बैठक की जो जानकारी भेजी गई थी, उसमें यह बात साफ थी कि उन्होंने ऐसे होर्डिंग लगाने के निर्देश दिए हैं।
ऐसे होर्डिंग लगाने के खिलाफ दाखिल एक जनहित याचिका में दो बरस पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने साफ-साफ एक आदेश दिया था। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सार्वजनिक प्रदर्शनों में उपद्रव करने के कथित आरोपियों की तस्वीरों, और उनके नाम-पते के साथ होर्डिंग लगाए थे, जिनमें कई शांतिपूर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम-फोटो भी लगाए गए थे। इस मामले में वहां के हाईकोर्ट ने एक आदेश दिया था। भारत की न्याय व्यवस्था के मुताबिक समान किस्म के मामलों में दूसरे प्रदेशों में भी किसी दूसरे प्रदेश के हाईकोर्ट के फैसलों का हवाला दिया जाता है, और झारखंड सरकार ने ऐसे ही एक हवाले के साथ राजधानी के एसएसपी को दिए नोटिस में इसका जिक्र किया है, जो कि चि_ी में लिखे बिना भी राज्यपाल के निर्देश को यह आईना दिखाना है कि ऐसे मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या फैसला दिया था।
अदालत की पूरी प्रक्रिया को किनारे रखकर जिस तरह से बुलडोजर चलाए जा रहे, ठीक उसी तरह ऐसे होर्डिंग भी लगाए जा रहे हैं। उत्तरप्रदेश के भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ये दोनों काम किए हैं, और इनमें से एक, बुलडोजर अभी भी पूरी रफ्तार से जारी है। जब सरकार ही यह तय करने लगे कि कौन उपद्रवी है, कौन मुजरिम है, उसके परिवार की संपत्ति को कितना जमींदोज करना जायज होगा, तो फिर अदालत की जरूरत ही क्या है? इस पर हम अभी एक-दो दिनों में ही खुलासे से लिख चुके हैं, जिसे दुहराना जगह बर्बाद करना होगा, लेकिन झारखंड के राज्यपाल के ताजा निर्देश को देखते हुए हम उसका जिक्र भर कर रहे हैं। झारखंड में सरकार तो भाजपा की नहीं है, लेकिन वहां के राज्यपाल भाजपा से आए हैं, और दिल्ली की भाजपा-अगुवाई वाली सरकार के भेजे हुए हैं। इसलिए वहां की सरकार की रीति-नीति से परे भी उन्होंने अफसरों को राजभवन बुलाकर एक निर्देश दिया जिसके मुताबिक आरोपियों और संदिग्ध लोगों के ये होर्डिंग जारी किए गए। इसके खतरे को समझना जरूरी है। आज जब देश में वैसे भी गोश्त के एक टुकड़े को लेकर लोगों का कत्ल किया जा रहा है कि वह गोमांस है, तब सरकार की तरफ से कुछ लोगों की तस्वीरें और नाम-पते संदिग्ध उपद्रवी की तरह पेश करके उन्हें भीड़त्या के लिए पेश किए जाने के बराबर है। झारखंड की राजधानी की पुलिस ने राज्यपाल के जुबानी निर्देशों को मानते हुए कानून के अपने सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल भी नहीं किया, और एक सहज लोकतांत्रिक समझ का भी नहीं, कि संदेह के आधार पर लोगों को निशाना बनाकर पेश करना अपने आपमें एक जुर्म है। इससे देश के अल्पसंख्यक तबके के लोगों की जिंदगी खतरे में डालने का काम भी किया जा रहा है, और चाहे राज्यपाल ही क्यों न कहे, अफसरों को यह काम नहीं करना था, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की जानकारी हर बड़े अफसर को होगी, यह उम्मीद तो की ही जाती है। एक राज्य की पुलिस के खिलाफ हाईकोर्ट जब कोई फैसला देता है, तो बाकी राज्यों के बड़े पुलिस अफसर भी उसे गौर से पढ़ते ही हैं, और राजभवन की बैठक में प्रदेश के तीन बड़े पुलिस अफसरों की मौजूदगी का जिक्र किया गया था।
संदेह के आधार पर लोगों की जिंदगी खतरे में डालना, उनके खिलाफ हिंसा के लिए दूसरे हिंसक तबकों को उकसाने के बराबर है। यह किसी राज्य में राज्य शासन का काम हो, या किसी दूसरे राज्य में राजभवन का, इससे उन प्रदेशों में हालात और बिगडऩे का पूरा खतरा रहता है, और सत्ता को अपने स्तर पर ऐसा इंसाफ करने में नहीं जुट जाना चाहिए जिसके लिए हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में न्यायपालिका बनाई गई है। सुप्रीम कोर्ट एक याचिका पर सुनवाई कर सकता है जिसमें देश के बहुत से भूतपूर्व जजों ने बुलडोजरी इंसाफ के खिलाफ अदालत से कार्रवाई करने की अपील की है। यह अपील करने वालों में तीन भूतपूर्व सुप्रीम कोर्ट जज हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट को याद दिलाया है कि अदालत कितना खरा सोना है, यह आज जैसे हालात की अग्निपरीक्षा में ही साबित होता है।
आज यह बात साफ है कि सरकारें और राजभवन जिस तरह अदालत के अहाते में अतिक्रमण कर रहे हैं, उसके खिलाफ अदालत की आंखें खुलनी चाहिए। कल के दिन अगर सुप्रीम कोर्ट के जज अपने आपको सांसद या मंत्री घोषित करने लगेंगे, खुद सरकार चलाने लगेंगे, तो लोकतंत्र कहां बचेगा?
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छत्तीसगढ़ के लिए बीते कल की तारीख एक बहुत बड़ी राहत लेकर आई जब आधी रात के ठीक पहले जांजगीर जिले में एक बंद ट्यूबवेल में साठ फीट से अधिक गहराई में जाकर गिरा, और वहां फंस गया बच्चा पहाड़ सी विकराल कोशिशों के बाद बचा लिया गया। आधी रात के जरा पहले इस बच्चे को सुरंग के रास्ते निकालने की तस्वीरें जब सामने आईं, तब प्रदेश के दसियों लाख लोग चैन से सो पाए। और जैसा कि ऐसी किसी भी मानवीय त्रासदी के मामले में होता है, इस घटना के बीच प्रदेश के बाहर के भी लाखों लोग भावनात्मक रूप से जुड़ गए थे, और अपने-अपने किस्म से दुआ कर रहे थे कि यह बेकसूर बच्चा बच जाए। जिन कोशिशों से जांजगीर के जिला प्रशासन, राज्य शासन, और केन्द्र सरकार की एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, सेना जैसी एजेंसियों ने इस असंभव को संभव कर दिखाया, उसके लिए ये सब बधाई के हकदार हैं। खासकर राज्य के मुखिया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जो कि पार्टी के प्रदर्शनों में राहुल गांधी के साथ दो दिन दिल्ली में सडक़ों पर पुलिस से जूझते रहे, और इन्हीं दो दिनों में वे लगातार जांजगीर जिले में एक दूसरे राहुल को बचाने की कोशिशों में भी लगे रहे। भूपेश बघेल अपने आत्मविश्वास और इस मामले में मजबूत लीडरशिप के लिए बधाई के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने हर घंटे-दो घंटे में हालात पर नजर रखी, लोगों से बात की, और सोशल मीडिया पर हौसला बढ़ाते हुए बार-बार दुहराया कि इस बच्चे को बचा लिया जाए।
आज जब यह बच्चा बिलासपुर के एक सुविधा-संपन्न अस्पताल में अच्छी देखरेख में इलाज पा रहा है, तो बीती रात की बकाया नींद पूरी करने के बाद हमारे दिमाग में भी सौ किस्म की बातें आ रही हैं कि इस हादसे में क्या नहीं हो सकता था जो कि इस बच्चे की जान ले लेता, और किसी को कोई हैरानी भी नहीं होती। हैरानी तो इस बच्चे के बच जाने में है जिसे कुदरत या आस्थावानों के ईश्वर ने मूकबधिर भी बनाया, और शायद दिमागी रूप से कुछ कमजोर भी। फिर हादसा ऐसा बुरा हुआ कि अपने ही घर में खुले पड़े रह गए एक ट्यूबवेल में वह साठ फीट से अधिक की गहराई में गिर गया। जब शासन-प्रशासन ने यह तय किया कि ट्यूबवेल के गड्ढे के पास दूसरा गड्ढा खोदकर सुरंग बनाकर इस बच्चे को बचाया जाए, तो पहाड़ की ऊंचाई जितनी गहरी खुदाई करने के दौरान यह पता लगा कि नीचे की जमीन पूरी चट्टानी है, और यह चट्टान भी सबसे अधिक कड़ी चट्टान है जिसे छीलना भी मुश्किल था। ऐसे में बच्चा उस गड्ढे में पानी में कुछ हद तक डूबा हुआ उकड़ू बैठा था, पहले घड़ी के कांटों से बढ़ते हुए घंटे दिख रहे थे, फिर कैलेंडर के पन्नों पर तारीखें बढ़ते दिख रही थीं, और चार दिन गुजर जाने पर भी उस बच्चे तक पहुंचने का कोई ठिकाना नहीं था। यह सब कुछ वक्त के खिलाफ, मौत के खिलाफ, हादसों के खतरों के खिलाफ चल रहा था। सरकार की कोशिशें जितनी कड़ी थीं, उनसे कहीं अधिक कड़ा वहां हौसला था जिसे लेकर यह कमजोर बच्चा बिना सुने, बिना बोले उस गहराई में, उस छेद में पड़ा हुआ था। यह सब कुछ उसके बचने की संभावनाओं के खिलाफ था, और खासकर जब खुदाई में मिट्टी की जगह चट्टानें निकलने लगीं, तो सब कुछ उस बच्चे की तथाकथित किस्मत के भी खिलाफ दिखने लगा था।
लेकिन सौ घंटे से अधिक, 105 घंटे उस छेद में बैठे-बैठे उस बच्चे ने जिस हौसले के साथ अपनी धडक़नों को जारी रखा, अपनी सांसों को थमने नहीं दिया, और वहां भर रहे पानी को निकालने के लिए ऊपर से लटकाई गई बाल्टी को भरने का काम भी किया, वह सब कुछ अकल्पनीय है। लोग अपने बच्चे के घर के बाथरूम में कुछ मिनटों के लिए बंद हो जाने पर जिस परले दर्जे की दहशत के शिकार हो जाते हैं, उसके मुकाबले इस बच्चे की जिंदगी पर खतरा, उसका अकेलापन, और सरकारी कोशिशों की तंग सीमाएं, इन सबने मिलकर एक ऐसी तस्वीर बनाई थी कि बच्चे के बचने की उम्मीद कम ही दिखती थी। लेकिन रायपुर और दिल्ली से सीएम, और जांजगीर में वहां के डीएम (कलेक्टर) जितेन्द्र शुक्ला ने अपना हौसला कभी कमजोर नहीं दिखने दिया, और आखिरकार इस बच्चे को बचा लिया गया।
हादसा होते ही मुख्यमंत्री ने पूरे प्रदेश के लिए यह हुक्म जारी किया कि सभी तरह के बंद पड़े हुए ट्यूबवेल की जांच की जाए कि कहीं कोई छेद खुला हुआ तो नहीं है। ऐसे ही किसी पुराने हादसे के वक्त इसी जगह पर हमने बरसों पहले यही सिफारिश की थी कि हर ट्यूबवेल की जांच हो जानी चाहिए कि कोई खुला हुआ तो नहीं है। आज सबसे अधिक यातना इस बहादुर बच्चे ने झेली है जिसने दस बरस की उम्र में मौत को इतने करीब से देख लिया, और शिकस्त भी दे दी। लेकिन उसके साथ-साथ उन सैकड़ों लोगों ने भी यातना झेली है जो उसे बचाने में लगे हुए थे, और जो भावनात्मक रूप से इस जिंदगी से जुड़ गए थे। ऐसी भावनात्मक त्रासदी, और मौत के खतरे से बचने के लिए हर गांव और थाना स्तर पर हर ट्यूबवेल की जांच हो जानी चाहिए कि उनमें से कोई खुले तो नहीं पड़े हैं। इस बार तो यह बच्चा बच गया, लेकिन ऐसे हादसों में बचना बहुत कम मामलों में हो पाता है, और जैसी नामुमकिन दर्जे की कोशिश इस एक मामले में सरकार और सरकारी एजेंसियों ने की है, वैसी भी हर हादसे में मुमकिन नहीं हो पाती। इसलिए बचाव ही सबसे अच्छा तरीका है। इस हादसे ने प्रदेश को बड़ा सबक दिया है कि ऐसे हर खतरे को टालने के लिए पुख्ता कोशिश की जाए, और हर ट्यूबवेल का रिकॉर्ड भी बना लिया जाए।
फिलहाल राहत की सुबह वाले इस दिन शासन-प्रशासन को बधाई देने के अलावा यह भी सूझ रहा है कि अभूतपूर्व साहस दिखाने वाले, और अंतहीन संघर्ष करने वाले इस बच्चे के हौसले की कहानी कम से कम इस राज्य के बाकी बच्चों को स्कूलों में पढ़ाना चाहिए ताकि वे अपनी जिंदगी में आने वाली दिक्कतों को पहाड़ सा विकराल न मान लें, और हमेशा यह याद रखें कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों से भी बच्चे बाहर निकल सकते हैं, निकले हुए हैं। राहुल नाम का यह बच्चा हौसले, सब्र, और संघर्ष का इस प्रदेश का सबसे बड़ा प्रतीक है, और समाज और सरकार को चाहिए कि उसे प्रेरणा की तरह इस्तेमाल करे, बच्चों के बीच, और बड़ों के बीच भी।
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जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहते हुए खबरों में अधिक आने वाले सत्यपाल मलिक बड़ा खुलकर बोलते हैं, और इस वजह से वे हाल के बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के घरेलू आलोचक की तरह भी स्थापित हुए हैं। अब अपने मुखर होने की वजह से, या किसी और वजह से, सत्यपाल मलिक पिछले बरसों में लगातार अलग-अलग प्रदेशों के राज्यपाल बनाए जाते रहे। 2018 से अब तक, ठीक चार बरस में वे ओडिशा, बिहार, जम्मू-कश्मीर, गोवा, और मेघालय के राज्यपाल रहे। चार बरस में पांच राजभवनों में बसाए गए शायद वे देश के अपने किस्म के अकेले राज्यपाल हैं। और मोदी के आलोचना के अलावा और तो कोई वजह ऐसी दिखती नहीं है कि वे लगातार और धीरे-धीरे कम महत्वपूर्ण राज्यों में भेजे गए, और अब वे आखिरी के चार महीने मेघालय में हैं जिसके बारे में देश के बाकी हिस्से को शायद यह भी याद नहीं होगा कि वहां का राजभवन किस शहर में है।
ऐसे सत्यपाल मलिक अभी दो दिन पहले राजस्थान में अंतरराष्ट्रीय जाट संसद में हिस्सा लेने पहुंचे थे, और उन्होंने अपने आम बागी तेवरों के मुताबिक अपनी ही पार्टी की केन्द्र सरकार पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि देश के एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, बंदरगाह, सरकार के दोस्त अडानी को बेचे जा रहे हैं, हमें देश को बिकने से रोकना होगा। उन्होंने कहा जब सब बर्बाद हो रहे हैं तो प्रधानमंत्री बताएं कि ये लोग मालदार कैसे हो रहे हैं? उन्होंने बड़ी संख्या में पहुंचे किसानों का यह भी आव्हान किया कि अडानी ने फसल सस्ते दाम पर खरीदने और महंगे दाम पर बेचने के लिए पानीपत में बड़ा गोदाम बनाया है, अडानी का ऐसा गोदाम उखाड़ फेंको, डरने की जरूरत नहीं है, मैं आपके साथ जेल चलूंगा, अंबानी और अडानी मालदार कैसे हो गए हैं, जब तक इन लोगों पर हमला नहीं होगा, तब तक ये लोग रूकेंगे नहीं।
सत्यपाल मलिक ने खुद के बारे में कहा कि किसान आंदोलन के दौरान वे अपना इस्तीफा जेब में लेकर प्रधानमंत्री से मिलने गए, उन्हें समझाया कि किसान कानून हटा दे, तब वह नहीं माने, बाद में प्रधानमंत्री को समझ आया, और उन्होंने किसानों से माफी मांगी, कानून वापस ले लिए। सत्यपाल मलिक ने कहा- मेरे तो राज्यपाल के तौर पर चार माह बचे हैं, जेब में इस्तीफा लेकर घूमता हूं, मां के पेट से गवर्नर बनकर नहीं आया था, चार महीने में ही किसानों के हक के लिए पूरी ताकत से मैदान में उतर जाऊंगा।
उनकी बातों को खुलासे से यहां पर लिखना इसलिए जरूरी था कि उन बातों को लेकर ही यहां आज की बात की जा रही है। यह बात तो ठीक है कि पिछले बरसों में घरेलू ऑडिटर की तरह या घर के भीतर के चौकीदार की तरह सत्यपाल मलिक ने कई बार सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाने पर लिया है, और जाने वे कौन सी रहस्यमय वजहें हैं जिनकी वजह से ये छोटे-छोटे राज्यों में भेजे तो गए, लेकिन फिर भी राज्यपाल बने रहे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि वे अगर मोदी सरकार के कृषि कानूनों की तरह गंभीर मुद्दों पर गंभीर खामियां देखते हैं, तो वे राजभवनों से चिपके हुए क्यों हैं? एक तरफ तो वे लोगों के साथ जेल जाने को तैयार होने का दावा कर रहे हैं, दूसरी तरफ वे किसानों को कानून तोडक़र अडानी का गोदाम उखाडक़र फेंकने को कह रहे हैं, लेकिन साथ-साथ वे राजभवन में अपनी तैनाती के आखिरी दिन तक वहां बने भी रहना चाहते हैं। अब मेघालय का राज्यपाल होना जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल होने की तरह का तो है नहीं कि वे प्रदेश को मंझधार में छोडक़र निकल नहीं सकते। जब चार महीने बाद वे किसानों के साथ सडक़ों पर आने पर आमादा हैं, तो चार महीनों के लिए राजभवन का यह मोह कैसा? वे इसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ भाजपा के भीतर से सबसे कटु आलोचना करने वाले एक-दो लोगों में शामिल रहे हैं, और सार्वजनिक रूप से, कैमरों के सामने उन्होंने बहुत कड़वी, निजी और गोपनीय बातें उजागर की हैं, और किसी भी बात का सरकार ने कोई खंडन नहीं किया है। ऐसी गंभीर तनातनी के चलते हुए उनका आलोचक भी बने रहना, और राजभवन में भी बने रहना कुछ विरोधाभासी लगता है। सार्वजनिक जीवन में जो लोग रहते हैं, वे अगर अपनी खुद की कही हुई बातों के गंभीर विरोधाभास में बरसों से, लगातार और नियमित रूप से ऐसे उलझे रहते हैं, तो उन्हें अपनी नीयत को लोगों के सामने साफ-साफ रखना चाहिए। वे अपनी नीयत का दावा करते हैं, लेकिन राज्यपाल के पद पर इन्हीं नरेन्द्र मोदी द्वारा की गई तैनाती के आखिरी दिन तक बने भी रहना चाहते हैं, जो कि नीयत की ईमानदारी से परे की बात है, और सरकार द्वारा तय की गई नियति का पूरा मजा उठाने की बात भी है।
केन्द्र सरकार चाहे तो सत्यपाल मलिक को हटा भी सकती थी, लेकिन उसे भी शायद एक अभूतपूर्व टकराव और कड़वाहट का खतरा दिख रहा होगा। शायद इसलिए मोदी सरकार मलिक के कार्यकाल को पूरा हो जाने देना चाहती है, जो कि खुद मलिक के मुताबिक चार महीने बाकी है। लेकिन हम सार्वजनिक जीवन के प्रमुख लोगों से इस नैतिकता की उम्मीद करते हैं कि वे प्रधानमंत्री पर अगर अडानी-अंबानी को लेकर इतनी बड़ी तोहमतें लगा रहे हैं, तो वैसे प्रधानमंत्री की दी गई कुर्सी पर उन्हें बने भी नहीं रहना चाहिए, और सत्ता-प्रतिष्ठान से बाहर आकर सडक़ की लड़ाई लडऩी चाहिए। हम इस बात को भी नैतिक बेईमानी पाते हैं कि वे किसानों को तो अडानी का गोदाम गिराकर बिना डरे जेल जाने का आव्हान कर रहे हैं, लेकिन खुद अगले चार महीने कानून से हर किस्म की हिफाजत पाते हुए राजभवन में बने रहना चाहते हैं। उनकी की गई आलोचना कम अहमियत नहीं रखती, लेकिन उनके कहने और करने के बीच एक फासला दिख रहा है, जिसे उन्हें खुद ही पाटना चाहिए। अगर उन्हें यह लग रहा है कि देश बेचा जा रहा है, प्रधानमंत्री के करीबी लोग उसे खरीद रहे हैं, तो ऐसी सरकार का राज्यपाल रहे बिना उन्हें सडक़ से इस बात को उठाना चाहिए। महज यह कहना कि वे मां के पेट से गवर्नर बनकर नहीं आए थे, काफी नहीं है, होना तो यह चाहिए कि वे उम्र के इस पड़ाव पर यह भी साबित करे कि किसी की अर्थी राजभवन से निकले, या किसान आंदोलन के धरना स्थल से, उनके धर्म के हर किसी को विलीन तो उन्हीं गिने-चुने पांच तत्वों में होना है। चार महीने बाद आंदोलन में शरीक होने की बात फिजूल की है, अगर उन्हें देश आज इस खतरनाक मुहाने पर दिख रहा है। सत्यपाल मलिक को अपनी नीयत के सत्य को साबित करना चाहिए, वरना उनकी बातों का कोई वजन नहीं रह जाएगा।
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उत्तरप्रदेश के योगीराज में जिस अंदाज में किसी भी प्रदर्शन में शामिल मुस्लिमों के घरों को जिस तरह सरकारी बुलडोजर आनन-फानन जमींदोज करने में लग जा रहे हैं, वह देखना भी भयानक है। लेकिन देश के लोगों के लिए ही यह नजारा भयानक है, देश का सुप्रीम कोर्ट अभी शायद ठंडी पहाडिय़ों पर गर्मी की छुट्टियां मना रहा है, और वैसे भी जब सुप्रीम कोर्ट काम कर रहा था तब भी उसने बुलडोजरों को रोकने की जहमत नहीं उठाई थी, इसलिए पहाड़ों से जजों के लौट आने के बाद भी लोगों को कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। और नीचे से लेकर ऊपर तक हिन्दुस्तानी अदालतों में जिस तरह आज की हिन्दुत्ववादी सरकारों के लिए एक बड़ा बर्दाश्त दिखाई पड़ रहा है, वह गजब का है। लेकिन हिन्दुस्तान में लोकतंत्र आज सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहने वाले कुछ धर्मनिरपेक्ष और इंसाफपसंद लोगों के मार्फत जिंदा है जो इस बात को जमकर उठा रहे हैं कि किस-किस प्रदेश में भाजपा की सरकारें कौन-कौन से काम साम्प्रदायिक नीयत से कर रही हैं, और किस तरह यह देश एक धर्मराज में तब्दील किया जा रहा है।
सोशल मीडिया के एक नियमित जिम्मेदार लेखक ने अभी कुछ मिनट पहले ही याद दिलाया है कि दो महीने पहले इसी यूपी एक अयोध्या में बरसों से आरएसएस और बजरंग दल के लिए काम कर रहे ब्राम्हण समाज के कई नौजवानों ने मस्जिदों के दरवाजों पर धार्मिक ग्रंथ के फटे पन्ने फेंके, गाली-गलौज की चि_ियां फेंकीं, और कथित रूप से सुअर के मांस के टुकड़े फेंके जिन्हें कि इस्लाम में अपवित्र माना जाता है। योगी की ही पुलिस ने उसी वक्त सात लोगों को गिरफ्तार किया, गिरफ्तारी को दो महीने हो रहे हैं, पुलिस के पास पूरे सुबूत हैं जिनमें सीसी टीवी की रिकॉर्डिंग भी है, लेकिन किसी सरकारी बुलडोजर ने इन लोगों के घरों का रूख नहीं किया। इस तरह के और भी कई जुर्म लोगों ने गिनाए हैं कि साम्प्रदायिक दंगों में जहां हिन्दू शामिल मिले, उनमें से किसी हिन्दू पर ऐसी कार्रवाई नहीं की गई।
चीजों को सही तरीके से सामने रखने के लिए ये मिसालें अच्छी हैं, लेकिन हम इस भेदभाव के बाद भी किसी पर भी बुलडोजरी फैसले के खिलाफ हैं क्योंकि यह सत्ता का पसंदीदा तरीका हो सकता है कि वह जिसे सजा देना चाहे कुछ मिनटों के भीतर उसे जमींदोज कर दे, लेकिन यह लोकतंत्र का तरीका नहीं हो सकता। और भेदभाव बताने के लिए तो ये मिसालें ठीक है क्योंकि ये सत्ता के साम्प्रदायिक चरित्र को उजागर करती हैं, लेकिन विरोध इस पूरे बुलडोजरी मिजाज का होना चाहिए, न कि आज जिन पर यह हमला हो रहा है, महज उन्हें बचाने के लिए। लोकतंत्र में सरकार और संसद से परे अदालत को भी इसलिए बनाया गया है कि जब कभी इनमें से किसी एक संस्था की ताकत इंसाफ के दायरे को पार करने लगे, तो दूसरी संस्थाएं उस पर कुछ कर सकें। इसीलिए बड़ी अदालतों के जजों को हटाने के लिए महाभियोग का प्रावधान किया गया है, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को भी पलटने के लिए संसद में कानून में संशोधन या नया कानून बनाने का प्रावधान किया गया है। लेकिन सबसे अधिक जरूरत पड़ती है सत्ता की सरकारी बददिमागी को काबू करने के लिए अदालती दखल की, और उसका भी सबसे मजबूत इंतजाम भारतीय लोकतंत्र में किया गया है।
आज हैरानी की बात यह है कि जब देश के बच्चे-बच्चे को यह दिख रहा है कि कई राज्यों की सरकारें घोर साम्प्रदायिक तरीके से काम कर रही हैं, और मुस्लिम समुदाय को घेरकर मारना ही सबसे बड़ी नीयत हो गई है, उसके बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट को यह नौबत दखल देने लायक नहीं लग रही है, तो यह उसकी चेतना को लकवा मार गया दिखता है। देश की सबसे बड़ी अदालत को आज अगर हिन्दुस्तानी सत्तारूढ़ साम्प्रदायिकता को टोकने की भी जरूरत नहीं लग रही है, तो देश के कार्टूनिस्टों ने तो पिछले कुछ दिनों से ऐसे कार्टून बनाने शुरू कर दिए हैं कि सुप्रीम कोर्ट की इमारत तक पहुंचे बुलडोजर उसे गिराने की तैयारी कर रहे हैं। और यह नौबत कार्टूनिस्ट की कल्पना से, उसके तंज से परे भी हकीकत से बहुत दूर नहीं है। हम सुप्रीम कोर्ट के प्रति बहुत रियायत का इस्तेमाल करते हुए उसकी चेतना को लकवा मारने की बात कह रहे हैं, सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी चुप्पी अख्तियार कर ली है जो उसकी जरूरत को ही खारिज कर रही है। जब देश के कमसमझ और मामूली लोगों को भी यह दिखे कि सत्ता अभूतपूर्व और ऐतिहासिक दर्जे की बेइंसाफी कर रही है, जुल्म कर रही है, और जुर्म कर रही है, और वैसे में मुल्क में अकेले सुप्रीम कोर्ट को ही यह बात न दिखे, तो उसे क्या कहा जाए?
आज हिन्दुस्तान में निशानों को छांट-छांटकर, धर्म के आधार पर जब निर्वाचित और संविधान की शपथ लेने वाली सरकारों के बुलडोजर जज का काम भी कर रहे हैं, वे बुलडोजज बन गए हैं, तब भी अगर सुप्रीम कोर्ट पहाड़ों पर छुट्टियां मना रहा है, तो क्या उसे लंबी छुट्टी दे देने की नौबत नहीं आ गई है? जहां तक हमें याद पड़ता है कि दिल्ली में बड़े जजों की राह में ट्रैफिक की मामूली दिक्कत भी आ जाने पर घंटे भर के भीतर पुलिस कमिश्नर को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है, आज तो सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजों की अदालतों के कटघरे भी इन बुलडोजरों के लिए छोटे और कम पड़ेंगे। सुप्रीम कोर्ट की इस रहस्यमय चुप्पी के चलते अब सरकारी जुल्म ने अदालतों की जगह ले ली है, अपने आपको हाशिए पर धकेलने वाली यह भारतीय लोकतंत्र की अकेली संस्था बन रही है।
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नगालैंड में दिसंबर 2021 में भारतीय सेना के एक मुहिम के दौरान 13 बेकसूर नौजवानों को गोलियों से भून दिया गया था, जिनमें से आधे तो नाबालिग ही थे। सारे के सारे निहत्थे थे, और एक जगह से मजदूरी करके लौट रहे थे, थलसेना की पैरा स्पेशल फोर्स ने इन कोयला खदान मजदूरों की पहचान भी नहीं की, और उनकी गाड़ी पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। अब नगालैंड पुलिस की एसआईटी ने अदालत में चार्जशीट फाईल की है जिसमें सेना के एक मेजर, दो सूबेदार, आठ हवालदार, चार नायक, छह लांस नायक समेत कुल तीस लोगों के खिलाफ जुर्म पेश किया गया है। पुलिस ने यह भी कहा है कि घातक लगाकर किए गए इस हमले में गलत पहचान के चलते बेकसूर मजदूर मार डाले गए थे।
सुरक्षा बल जब विपरीत और दबावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं, तो उनसे कई बार ऐसी चूक होती है, और कई बार वे दुस्साहस या अतिआत्मविश्वास में भी ऐसी कार्रवाई कर बैठते हैं क्योंकि जिन इलाकों में लगातार बंदूकों की तैनाती रहती है, वहां पर सुरक्षा बलों के हाथों हिंसा के मामले होते ही रहते हैं। कश्मीर हो, उत्तर-पूर्व, या कि बस्तर जैसे नक्सली इलाके, यहां पर राज्य और केंद्र के सुरक्षा बल तरह-तरह से मानवाधिकार भी कुचलते रहते हैं, कत्ल और बलात्कार जैसे जुर्म भी करते रहते हैं, और बंदूक की ताकत का बाकी हर किस्म का बेजा इस्तेमाल भी आम बात रहती है। मध्यप्रदेश में इंदौर के पास मऊ नाम की जगह पर सेना का बड़ा प्रशिक्षण केंद्र है, और हर साल दो साल में प्रशिक्षण केंद्र से निकलकर सैनिक शहर में जाते हैं, और स्थानीय पुलिस के साथ उनकी झड़प होती है, और यह पुलिस अफसरों का जिम्मा रहता है कि वे मामले को रफा-दफा करें। ऐसा टकराव रेल्वे स्टेशन और रेलगाडिय़ों में भी कई बार देखने मिलता है जब सैनिक समूहों में सफर करते हैं, और वे आम मुसाफिरों को उठाकर बाहर फेंक देते हैं, और पूरे डिब्बों पर कब्जा कर लेते हैं। मोटेतौर पर देखें तो भीड़ की जैसी मानसिकता आम जनता की हिंसक भीड़ में हो जाती है, वैसी ही मानसिकता सिपाहियों या सैनिकों के समूह की भी हो जाती है कि उनकी नजरों में कानून की कोई कीमत नहीं रह जाती है।
छत्तीसगढ़ का बस्तर लंबे समय से सुरक्षा बलों की ऐसी बददिमागी का गवाह और शिकार रहा है। यहां भी राज्य पुलिस के कुख्यात बड़े अफसरों की लीडरशिप में राज्य और केंद्र के सुरक्षा बलों ने गांव के गांव जला दिए, दसियों हजार लोग बेदखल हो गए, और पुलिस अफसर खुलेआम यह बोलते घूमते रहे कि बस्तर में उसी को जिंदा रहने का हक है जिसका जिंदा रहना वे जरूरी समझते हैं। ऐसे लंबे रिकॉर्ड वाले अफसरों का भी न तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कुछ बिगाड़ पाया, और न ही सुप्रीम कोर्ट। जब सुरक्षा बलों के खिलाफ कार्रवाई की नौबत आती है, तो सत्तारूढ़ नेताओं को यह समझा दिया जाता है कि अगर वर्दी के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, तो आगे जाकर दूसरे वर्दीधारी लोग खतरे उठाना बंद कर देंगे। ऐसे तर्क आतंक के दिनों में पंजाब में केपीएस गिल के वक्त भी दिए गए थे जब बड़े पैमाने पर मानवाधिकार हनन हुआ था और बेकसूरों को मारा गया था। पूरी दुनिया में बेकसूरों की ऐसी मौतों को हत्या मानने के बजाय उन्हें कोलैटरल डैमेज मान लिया जाता है कि मानो गेंहू के साथ घुन भी पिस गया हो। हकीकत यह है कि सत्तारूढ़ राजनेताओं की यह मजबूरी सी हो जाती है कि वे अपने सुरक्षा कर्मचारियों की गलती, या गलत काम को बचाने की कोशिश करें, क्योंकि ऐसा न करने पर जिम्मेदारी की आंच उन पर भी तो आएगी।
लेकिन किसी लोकतंत्र की परिपच्ता इसी में रहती है कि वह अपने भीतर होने वाली गलतियों, और गलत कामों को कितना खुलकर मंजूर करता है, और उन पर सुधार की क्या कार्रवाई करता है। अगर किसी सुरक्षा बल के लोगों की ज्यादती पर कार्रवाई होती रहे, तो उस सुरक्षा बलों के हाथों बड़ी हिंसा होने का खतरा भी घटते चलता है। लेकिन जब कश्मीर में फौज का एक अफसर जीप के सामने एक स्थानीय कश्मीरी को बांधकर पथराव के बीच से निकलने के लिए उसे मानव-कवज की तरह इस्तेमाल करता है तो ऐसे सुरक्षा बल स्थानीय लोगों की सारी हमदर्दी भी खो बैठते हैं। आज हिंदुस्तान में जगह-जगह केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस का जैसा साम्प्रदायिक और जातिवादी दिमाग बनाया जा रहा है, उसके चलते समाज के एक तबके का उस पर से भरोसा उठ गया है, और अपने देश के भीतर भी ऐसे सुरक्षा बल बिना जनसमर्थन वाले परदेश की तरह रह जाते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी हमारा देखा हुआ है कि सुरक्षा बलों से स्थानीय आदिवासियों की कोई हमदर्दी नहीं रह जाती, और पुलिस और प्रशासन अपनी गलती मानने के बजाय इसे नक्सलियों का असर करार देते हैं।
हमारा ख्याल है कि सुरक्षा बलों के हाथों जब कभी ऐसी हिंसा होती है, तो उसकी जांच, और उस पर कार्रवाई के लिए एक बहुत पारदर्शी और समयबद्ध इंतजाम होना चाहिए। बस्तर में हिंसा की शिकार पीढिय़ां गुजरी जा रही हैं, और कुसूरवार आलाअफसरों या बाकी वर्दीधारियों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही। नगालैंड में स्थानीय पुलिस ने यह अच्छा काम किया है कि साल भर के भीतर ही अदालत में चार्जशीट पेश कर दी है। इससे उत्तर-पूर्वी राज्यों की यह मांग भी मजबूत होगी कि सेना के बचाव के लिए बनाए गए विशेष अफ्पसा कानून को खत्म किया जाए। नगालैंड पुलिस के मौजूदा डीजीपी टीजे लांगकुमेर लंबे समय तक छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी रहे हैं, और उनके दौरान भी बस्तर में पुलिस ज्यादती के कई मामले सामने आए थे। आज राज्य के पुलिस मुखिया की हैसियत से उन्होंने नगालैंड में तेजी से कार्रवाई की है, क्या छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी भी अपने प्रदेश की सरकार से ऐसी किसी तेज कार्रवाई की उम्मीद कर सकते हैं? या फिर उन्हें सिर्फ नक्सल समर्थक होने की तोहमत झेलनी पड़ेगी?
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हिन्दुस्तान में मुस्लिमों की एक प्रमुख संस्था, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश भर के मुस्लिमों से सार्वजनिक अपील की है कि वे टीवी चैनलों की बहसों में हिस्सा न लें। मीडिया के मार्फत जारी इस अपील में कहा गया है कि समाज के प्रमुख लोग उन टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा न लें जिसका मकसद सिर्फ इस्लाम और मुसलमानों का मजाक उड़ाना है। उनका मकसद इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करना है, ये चैनल अपनी तटस्थता साबित करने के लिए एक मुस्लिम चेहरे को भी बहस में शामिल करना चाहते हैं, और प्रमुख मुस्लिम लोग अज्ञानता से इस साजिश के शिकार हो जाते हैं। अपील में आगे कहा गया है कि अगर इन कार्यक्रमों और चैनलों का बहिष्कार किया जाए तो इससे न केवल इनकी टीआरपी कम होगी, बल्कि वे अपने मकसद में पूरी तरह नाकामयाब भी होंगे।
इस अपील के बिना भी हिन्दुस्तान में आम लोग टीवी चैनलों पर इस किस्म की बहसों को देखकर थक चुके हैं जिनमें नफरत को आसमान की ऊंचाईयों तक ले जाया जाता है और वहां से देश के तमाम लोगों पर उसे छिडक़ दिया जाता है। बहुत से लोग अब खुलकर यह बात करने लगे हैं कि टीवी चैनल देखना बंद किया जाए। कहने के लिए तो केन्द्र सरकार के बड़े कड़े कानून टीवी समाचार चैनलों पर लगते हैं, और कई अर्जियां तो बरसों तक पड़ी रह जाती हैं, उन्हें टीवी चैनल शुरू करने की इजाजत नहीं मिलती। ऐसे में जब टीवी पर नफरत फैलाने के जुर्म में देश की सत्तारूढ़ भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता पर जुर्म दर्ज हुआ है, तब भी उस चैनल पर जुर्म दर्ज नहीं हुआ है जिस पर उसे दुनिया को हिला देने वाला यह बयान दिया था। अब किसी चैनल के साथ या और चैनलों के साथ यह रियायत भी समझ से परे है, कि उस पर किसी बयान पर तो जुर्म दर्ज हो गया, लेकिन वह चैनल यूट्यूब पर उस बयान को बनाए रखे, और उस पर कोई जुर्म न हो। यह पूरा सिलसिला मीडिया के गलाकाट मुकाबले में सबको एक-दूसरे के मुकाबले अधिक गैरजिम्मेदार बनाने वाला है, और इससे देश की सरकार को कोई परहेज भी नहीं लग रहा है। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ही एक बहुत छोटा सा जिम्मेदार हिस्सा बार-बार यह कह रहा है कि लोगों को टीवी देखना छोड़ देना चाहिए। और फिर टीवी के जो चैनल जाहिर तौर पर सबसे अधिक नफरत फैला रहे हैं, वे लोकप्रियता के पैमानों पर सबसे ऊपर भी बताए जा रहे हैं। दूसरी तरफ जो चैनल आज भी सबसे अधिक जिम्मेदारी दिखाकर जिंदा चल रहा है, वह लोकप्रियता के पैमाने पर सबसे नीचे पाया जा रहा है। इन बातों का मतलब क्या निकाला जाए?
लोकतंत्र और उदार बाजार व्यवस्था में किसी कारोबार पर तो रोक लगाई नहीं जा सकती, लेकिन सरकार देश के हर कारोबार को नियंत्रित करती है। ऐसे में अधिकार जिसके हाथ रहते हैं, जिम्मेदारी भी उसी की रहती है। जो सरकार टीवी चैनलों को बहुत थोक-बजाकर इजाजत देती है, और जिसके हाथ यह अधिकार रहता है कि वह किसी भी चैनल को कितने भी वक्त के लिए बंद कर सकती है, उसी से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह देश के अमन-चैन के खिलाफ सोची-समझी चैनली साजिश देखने पर उन चैनलों पर कम या अधिक वक्त के लिए रोक लगाए, और उसके खिलाफ जुर्म दर्ज करे। अब हर सैटेलाइट चैनल तकनीकी रूप से पूरी दुनिया में देखा जा सकता है, इसलिए उसके खिलाफ जुर्म भी पूरी दुनिया में दर्ज हो सकते हैं। हिन्दुस्तान में भी देश के हर थाने में किसी चैनल के खिलाफ जुर्म दर्ज हो सकता है, लेकिन वह एक अराजक नौबत हो जाएगी। जब देश में केन्द्र सरकार बहुत से मामलों में देश के तमाम प्रदेशों की मुखिया है, तो किसी चैनल के जुर्म पर जुर्म कायम करने में भी उसे पहल करनी चाहिए। अब यह एक अलग बात है कि दुनिया के मुस्लिम देशों में भारत को दी गई कूटनीतिक चेतावनी में हिन्दुस्तानी समाचार चैनलों का अलग से जिक्र नहीं किया, वरना अब तक दो-चार चैनल कम से कम कुछ दिनों के लिए तो बंद हो ही चुके रहते।
हिन्दुस्तान में यह सिलसिला बहुत भयानक है, और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भारतीय लोकतंत्र की एक कमजोर नब्ज बन गए, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नीयत की सही शिनाख्त की है। आज देश में साम्प्रदायिक हिंसा भडक़ाने की कीमत पर भी जो चैनल अपने धर्मान्ध और साम्प्रदायिक दर्शकों को हिंसा की तरफ धकेलते हुए अपने लिए अधिक टीआरपी जुटा रहे हैं, उनका जमकर विरोध होना चाहिए। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि भारत अब भी अखबारों का एक बड़ा तबका गैरसाम्प्रदायिक बना हुआ है, और उसे मीडिया नाम की इस विशाल छतरी से बाहर निकल आना चाहिए, और प्रेस नाम की अपनी पुरानी पहचान पर टिके रहना चाहिए। प्रेस और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को एक साथ गिनना नामुमकिन है, और प्रेस को अपनी परंपरागत पहचान, अपने परंपरागत मूल्यों पर टिके रहना चाहिए। हालांकि हिन्दुस्तानी प्रेस का एक हिस्सा आज टीवी चैनलों के बहुतायत हिस्से की तरह का भडक़ाऊ, उकसाऊ, साम्प्रदायिक या हिंसक हो चुका है, लेकिन फिर भी मोटेतौर पर हिन्दुस्तानी प्रेस टीवी से बहुत बेहतर बचा हुआ है, और उसे वैसा अलग रखने के लिए उसकी अपनी पहचान मीडिया शब्द से बाहर होनी चाहिए। यहां यह भी साफ कर देना जरूरी है कि हिन्दुस्तानी समाचार चैनल जो कर रहे हैं, वह पत्रकारिता बिल्कुल नहीं है, उसका अखबारनवीसी से कोई लेना-देना नहीं है, वह जर्नलिज्म बिल्कुल नहीं है। और जैसा कि इन तीनों शब्दों से यह साफ है, पत्रकारिता (समाचार) पत्र से जुड़ी हुई है, अखबारनवीसी अखबार से, और जर्नलिज्म किसी जर्नल से जुड़ा हुआ है, और वही मुमकिन भी है। प्रेस को अपनी टूटी-फूटी गुमटी में संपन्न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को घुसने नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह पर्याप्त बदनाम हो चुका है, और उसकी नीयत इंसानियत से परे की, कारोबारी कामयाबी की हो चुकी है, और फिर वह चाहे इंसानी लहू की कीमत पर ही क्यों न हो।
देश में आज नफरत का जो सैलाब टीवी चैनलों ने फैलाया हुआ है, उसे समेटना बरसों तक मुमकिन नहीं हो पाएगा। लगातार फूटते हुए ज्वालामुखी की तरह टीवी चैनलों के सिग्नल नफरत का लावा लेकर घरों तक पहुंच रहे हैं, और अपने दर्शकों के दिल-दिमाग को जहर के धुएं से भर दे रहे हैं। दर्शकों की यह बड़ी संख्या इस देश में मानसिक हिंसक रोगियों की बड़ी संख्या की तरफ इशारा भी करती है, और इस देश की सामूहिक चेतना को परामर्श और इलाज की जरूरत भी है। देश के आम लोगों को एक मुस्लिम संगठन के जारी किए हुए इस बयान पर गौर करना चाहिए, और अपने परिवार को ऐसे इलेक्ट्रॉनिक जहर से बचाना भी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल महीने भर से गांव-गांव घूम रहे हैं। मकसद है लोगों से उनकी दिक्कतों को जानना, और सरकारी योजनाओं की कामयाबी को तौलना। इसी दौरान उन्हें कई जगह यह भी सुनने मिला कि जंगल से बंदर आकर गांवों की फसल खत्म या खराब करके चले जाते हैं। जब कई जगह उन्हें यह बात सुनाई दी तो उन्होंने वन विभाग से कहा कि जंगलों मेंं सागौन जैसे पेड़ लगाने के बजाय फलों के पेड़ लगाए जाएं, जो कि जानवरों के भी काम आएं, और आसपास बसे हुए लोगों के भी।
दरअसल जंगल तो ऐसे ही हुआ करते थे। मिलेजुले पेड़ रहते थे, कुछ लकड़ी के इस्तेमाल आते थे, कुछ बांस होता था, और कुछ आदिवासियों और जानवरों के खाने लायक फल होते थे। लेकिन चूंकि फलों से वन विभाग को कोई कमाई नहीं होती, इसलिए वह यूक्लिपटस से लेकर सागौन तक का वृक्षारोपण करते आया है जिससे कमाई की गारंटी रहती है। लेकिन इससे जानवरों और इंसानों के जिंदा रहने की कोई गारंटी नहीं रहती, क्योंकि जंगल के सागौन जैसे पेड़ सिर्फ वन विभाग ही काट सकता है, और वहां बसे हुए लोगों को भी उसे काटने की इजाजत नहीं रहती। सरकारी योजनाओं के फायदे को अगर रूपयों की ठोस शक्ल में नहीं गिना जा सकता, तो उन्हें फिजूल का मान लिया जाता है। इसलिए सागौन जैसे वृक्षारोपण विभाग के पसंद के होते हैं, और आम स्थानीय जंगली फलों के पेड़ कभी भी उसकी प्राथमिकता नहीं रहते।
एक वक्त तो ऐसा था जब सडक़ों के किनारे लगे पेड़ों पर भी कई किस्म के फल लगते थे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसी सार्वजनिक जगहों पर ऐसे पेड़ लगाए जाते हैं जिनका असल जिंदगी में इस्तेमाल सीधे-सीधे नहीं होता, और जो कम रखरखाव में पल जाते हैं, बड़े हो जाते हैं। शहरों के इर्द-गिर्द भी अभी कुछ दशक पहले तक देसी फलों के कई किस्म के जंगल होते थे, और शहरों से बच्चे भी फल तोडऩे यहां चले जाते थे, जानवरों को तो पेड़ पर लगे हुए या जमीन पर गिरे हुए फल नसीब होते ही थे। जंगल विभाग ने सभी जगह विविधता को खत्म करने का काम किया है, और किसी एक किस्म के पेड़ के जंगल लगा दिए जिससे कि जैवविविधता खत्म हुई, और स्थानीय जानवरों और इंसानों दोनों से जंगल के फायदे छिन गए। शहरों के भीतर तो बसाहटों में फलों के पेड़ को अगल-बगल के लोगों के लिए खतरा भी मान लिया जाता है क्योंकि उन्हें तोडऩे के लिए लोग पत्थर चलाएंगे। लेकिन जंगलों में अगर फलदार पेड़ लगाए जाते हैं, तो उससे जंगली जानवरों का शहरों में उत्पात भी कम होगा, जंगल में बसे लोगों को खाने और बेचने के लिए ऐसे फल मिलेंगे।
छत्तीसगढ़ की एक और खूबी है कि यहां के जंगलों की वनोपज देश के किसी भी राज्य के मुकाबले अधिक है। और तेन्दूपत्ता, महुआ, इमली, चिरौंजी जैसे पेड़ सरकार के लगाए हुए नहीं हैं, वे कुदरती पेड़ हैं, जिनकी उपज सरकार खरीद लेती है, और इस तरह वनवासियों को एक मामूली सालाना कमाई होती है। जंगलों से भरे-पूरे इस राज्य में कोई न कोई रास्ता निकालकर इमारती लकड़ी का दो नंबर का कारोबार चलते रहता है, लेकिन अगर फलदार पेड़ लगाए जाएंगे, तो उनसे कोई कारोबार नहीं चलेगा, बल्कि लोगों का रोजगार चलेगा। छत्तीसगढ़ के जंगलों में फलदार पेड़ों को बढ़ावा देने की जरूरत और संभावना तो है ही, लेकिन इसके अलावा भी प्राकृतिक जंगलों में रेशम पालन, लाख के कीड़ों को पालना जैसे बहुत से और रोजगार की गुंजाइश भी है जो कि मामूली सी सरकारी मदद से आगे बढ़ सकती है। देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अर्थव्यवस्था कुछ हद तक बांस पर भी टिकी हुई है, और छत्तीसगढ़ में बांस अच्छी तरह बढ़ता है, और यहां बांस से सामान बनाने का काम भी काफी बढ़ा हुआ है। राज्य के पहले वित्तमंत्री रामचन्द्र सिंहदेव अपने जीवनकाल में बस्तर में केन की खेती के लिए कोशिश करते रहे, और छत्तीसगढ़ में ऐसी बेंत के फर्नीचर भी बनाए जाते हैं।
मुख्यमंत्री की इस बात से आज हमने यहां लिखना शुरू किया है, वह बात जानवर और इंसानों के बीच के टकराव को भी घटा सकती है। वैसे तो छत्तीसगढ़ में जंगली जानवरों के साथ इंसानों का मुख्य टकराव हाथियों तक सीमित है, और जंगलों को बचाना ही उसका अकेला तरीका हो सकता है। हाथियों के खाने के लिए अलग से कोई फसल तो नहीं लगती, लेकिन जंगल और तालाब-नदी जरूर लगते हैं, और छत्तीसगढ़ में कोयला निकालने के लिए बड़े पैमाने पर ऐसे जंगल खत्म करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। यह याद रखने की जरूरत है कि कोयले के लिए जब जंगल हटेंगे, जंगली जानवर बेदखल होंगे, तो उनका इंसानों के साथ टकराव भी बढ़ेगा, और गांव-कस्बों में उनका दाखिला भी। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को जंगलों की अपनी पहचान बचाकर रखनी चाहिए, क्योंकि इसी से यह राज्य भी बचेगा, और इसके जानवर और इंसान भी। फलों के पेड़ लगाना इस सिलसिले में एक शुरूआत हो सकती है, जिसका असर आगे चलकर देखने मिलेगा।
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पिछले महीने स्लोवेनिया में चल रहे साइकिलिंग के एक प्रशिक्षण कैम्प से भारत की एक प्रमुख महिला खिलाड़ी ने वापिस आना तय किया क्योंकि टीम के मुख्य राष्ट्रीय कोच आर.के. शर्मा पर उसका यह आरोप था कि वे उसे अपने साथ सोने के लिए कह रहे थे, बलपूर्वक अपने करीब खींच रहे थे, उसने शर्मा के बारे में यह भी कहा कि वे उसे अपनी बीवी की तरह रहने के लिए दबाव डाल रहे थे, वरना वे उसका कॅरियर तबाह करने की धमकी दे रहे थे, और कह रहे थे कि उसे सडक़ों पर सब्जियां बेचनी पड़ेगी। इस पर भारत के खेल संगठन ने इस खिलाड़ी को जांच का भरोसा दिया है, और कमेटी बना दी है। साइकिलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया ने कहा है कि वे पूरी तरह अपनी खिलाड़ी के साथ हैं। उल्लेखनीय है कि यह कोच 2014 से ही राष्ट्रीय साइकिलिंग टीम के साथ है।
यह पहला मौका नहीं है जब खेलों में प्रशिक्षक या टीम मैनेजर द्वारा यौन शोषण की बात सामने आई हो। अब तक का ऐसा सबसे बड़ा मामला अमरीका में जिमनास्ट कोच का सामने आया है जिसकी वजह से पिछले ओलंपिक के बीच से अमरीका की सबसे होनहार जिमनास्ट ने मुकाबला छोड़ दिया था क्योंकि वह मानसिक रूप से टूट गई थी। बाद में अमरीका में जब इस मामले की जांच हुई तो पता लगा कि बीस बरसों तक प्रशिक्षक रहे हुए इस आदमी ने इस दौरान 368 जिमनास्ट लड़कियों का देह शोषण किया था। जिस अमरीका में कानून और उस पर अमल दोनों ही कड़े हैं, वहां पर भी देश के सबसे बड़े, ओलंपिक खिलाड़ी, देह शोषण का शिकार होते रहे, और वहां के खेल संगठन कुछ नहीं कर पाए। अब अगर एक कोच 368 जिमनास्ट को ऐसी यातना दे सकता है, तो इस भांडाफोड़ होने के पहले कितनी प्रतिभाशाली खिलाड़ी यह खेल छोडक़र जा नहीं चुकी होंगी?
अब हिन्दुस्तान में अधिकतर खिलाड़ी लड़कियां गरीब या मध्यम वर्ग से निकलकर आती हैं, बहुत से खिलाड़ी आदिवासी इलाकों से आने वाले होते हैं, जिनकी न पारिवारिक आवाज होती है, न जिनमें कानूनी हकों को लेकर बहुत जागरूकता ही होती है। ऐसे में उनका शोषण करना अधिक आसान रहता है क्योंकि खेल संगठनों पर वही गिने-चुने पेशेवर हो चुके सत्तारूढ़ नेता काबिज रहते हैं, और बड़े ताकतवर अफसर भी हर प्रदेश में खेल संघों को हांकते हैं। ऐसे में सत्ता के इस मिलेजुले कारोबार के एकाधिकार के सामने खड़ा होना किसी खिलाड़ी के बस का नहीं रहता। फिर बचपन से लेकर बड़े होने तक दस-दस बरस जो लडक़े-लड़कियां पढ़ाई को भी छोडक़र रात-दिन मेहनत करके, परिवार और समाज से लडक़र खेल के मैदान पर मेहनत करते हैं, उन्हें ताकतवर प्रशिक्षकों या खेल संघ पदाधिकारियों के शोषण के सामने समर्पण करना कई बार अकेला जरिया दिखता है। ऐसे में अपने पूरे खेल-कॅरियर को देखते हुए बहुत से खिलाड़ी देह शोषण को बर्दाश्त करते होंगे, क्योंकि हिन्दुस्तानी समाज में कोई लडक़ी किसी के भी खिलाफ शोषण की शिकायत करे, सबसे पहले तो उस लडक़ी को ही अछूत और सरदर्द मान लिया जाता है, और सब लोग उससे परहेज करने लगते हैं कि कब यह कोई बवाल न खड़ा कर दे। नतीजा यह होता है कि खेल का मैदान हो, या पढ़ाई-लिखाई में रिसर्च हो, या किसी दफ्तर में प्रमोशन का मौका हो, मर्दों का यह समाज उससे चुप्पी के साथ सब बर्दाश्त करने की उम्मीद ही करता है। जो लडक़ी या महिला यौन शोषण झेलते हुए चुपचाप काम में लगी रहे, उसे अधिक व्यवहारिक मान लिया जाता है, और उसकी राह में अड़ंगे घट जाते हैं। हिन्दुस्तान में अगर किसी लडक़ी या महिला को अपनी प्रतिभा और काबिलीयत के दम पर प्रमोशन मिलता है तो भी लोग आंखें बना-बनाकर आपस में बात करते हैं कि उसने बॉस को खुश कर दिया होगा।
हिन्दुस्तान में महिला के कानूनी हक कागजों पर तो बहुत लिखे हैं, लेकिन जमीन पर देखें तो सारी की सारी न्याय प्रक्रिया उसके इन हकों को कुचलने के हिसाब से बनी हुई है। यह तो हिन्दुस्तान का हाल है, जहां पर हालत दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले अधिक खराब है, लेकिन विकसित देशों में भी खेलों के भीतर सेक्सटॉर्शन कहे जाने वाले इस यौन शोषण को एक बड़ी समस्या बताया गया है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की एक ताजा रिपोर्ट में कई देशों में खिलाडिय़ों के खिलाफ ऐसी यौन हिंसा की मौजूदगी को पाया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जर्मन एथलीटों के बीच सर्वे में तीन में से एक ने यौन हिंसा के कम से कम एक हादसे का जिक्र किया है। आम जानकार लोगों का यह मानना है कि खेल के क्षेत्र से यौन शोषण के बहुत सारे मामलों की रिपोर्ट ही नहीं की जाती है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि खेलों में अलग-अलग लोगों के बीच ताकत में बहुत अधिक फासला है। बच्चे बहुत कमजोर हालत में हैं, और वे खेलों के मिजाज के मुताबिक प्रशिक्षक पर भावनात्मक और शारीरिक रूप से आश्रित भी रहते हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि ये रिश्ते कुछ मामलों में खिलाडिय़ों के कॅरियर को बनाने या बर्बाद करने की ताकत रखते हैं।
भारत में साइकिलिंग की एक दिग्गज महिला खिलाड़ी की शिकायत का यह मौका देश भर के तमाम खेल संगठनों, और सरकारी विभागों को आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन का मौका भी देते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि शोषण कई बरस तक जारी रहे, और वह अनदेखा रहे, या उसे अनसुना किया जाता रहे, तो फिर ऐसे खेल संगठनों को भी भंग करना चाहिए, और उनके पदाधिकारियों पर जिंदगी भर के लिए प्रतिबंध भी लगाना चाहिए। अगर खिलाडिय़ों का यौन शोषण बरस-दर-बरस जारी है, और खेल संघ उसकी तरफ से अनजान है, तो वह अनजान नहीं होते, वे लापरवाह होते हैं, और ऐसे लोगों पर आजीवन प्रतिबंध भी लगना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर का एक सेक्स स्कैंडल देश भर में लोगों को जुबान भी दे सकता है, और खेल संगठनों या प्रशिक्षण कैम्पों को अधिक पारदर्शी भी बनाना चाहिए जहां पर खिलाडिय़ों के लिए परामर्शदाता आएं-जाएं, और उनकी कोई शिकायत है तो वह जल्द सामने आ सके, बजाय इसके कि शोषण करने वाले लोग बरसों तक इस सिलसिले को जारी रखें।
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उत्तरप्रदेश की खबर है कि मोबाइल फोन पर पबजी खेलने की लत के शिकार हो चुके सोलह बरस के एक लडक़े को जब मां ने और खेलने से रोका, तो उसने बाप की पिस्तौल लेकर मां को गोली मार दी, और हत्या के बाद पहुंची पुलिस को इधर-उधर भटकाने की कोशिश भी की। लेकिन पूछताछ के बाद यह साफ हो गया कि उसी ने मां को मारा। इस वारदात के बाद आई खबरों में यह भी याद किया गया है कि मार्च के महीने में महाराष्ट्र के ठाणे में पबजी खेल को लेकर ही दोस्तों में झगड़ा हुआ था, और तीन दोस्तों ने चौथे को चाकू के दस वार करके मार डाला था।
ये तो परले दर्जे की हिंसा के मामले हैं इसलिए खबरों में आ गए हैं, लेकिन डिजिटल उपकरणों, वीडियो गेम्स, और टीवी-फोन पर वीडियो देखने की लत नई पीढ़ी के बच्चों से लेकर जवान लोगों तक सबको बराबरी से तबाह कर रही है, और आज के बच्चे-जवान दिन में अपना जितना वक्त सब इंसानों के साथ कुल मिलाकर गुजारते हैं, उससे कहीं अधिक वक्त वे टीवी और मोबाइल फोन पर गुजारत हैं। नतीजा यह है कि आज फोन ही लोगों का जीवनसाथी हो गया है, वही तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्ही हो, हो गया है। इस सिलसिले के खतरे लोगों को आज समझ नहीं आ रहे हैं, लेकिन भयानक हैं। आज छोटे-छोटे बच्चे कुछ खाते-पीते हुए मोबाइल या टीवी पर कार्टून फिल्में देखने या कोई वीडियो गेम खेलने की जिद पर अड़े रहते हैं, और वे दुनिया के सबसे कमउम्र के ब्लैकमेलर रहते हैं जो कि अपनी बात मनवाए बिना मुंह नहीं खोलते। मां-बाप कामकाजी रहते हैं तो उन्हें अपने काम की हड़बड़ी रहती है, और छोटे-छोटे बच्चे उनके बर्दाश्त को परखते रहते हैं, उन्हें यह अंदाज रहता है कि थक-हारकर मां-बाप उनके सामने समर्पण कर देंगे, और फिर मर्जी की स्क्रीन के साथ वे खा-पीकर मां-बाप पर अहसान करेंगे। दरअसल फोन या टीवी की स्क्रीन बच्चों के दिमाग पर सोचने का बोझ भी नहीं डालती, और फिर वे अपने घर पर मां-बाप को टीवी पर क्रिकेट या दूसरे प्रोग्राम देखते हुए खाते-पीते बैठते देखते हैं, और वही सीखते हैं।
जब तक मरने-मारने की बात न आए तब तक लोगों की नींद नहीं खुलती है, इसलिए अभी लोग इस खतरे की तरफ से मोटे तौर पर अनजान चल रहे हैं, या फिर इस खतरे से जूझना उनके लिए मुश्किल होगा, इसीलिए वे इसे अनदेखा कर रहे हैं। इस देश में मनोचिकित्सकों या परामर्शदाताओं की मौजूदगी उनकी जरूरत के पांच-दस फीसदी भी नहीं है, इसलिए भी लोग बच्चों के सामने सरेंडर करके उन्हें मनमानी करने देते हैं, और स्क्रीन की लत बढ़ते-बढ़ते हिंसा तक पहुंच रही है। जो लोग मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं, या मोबाइल फोन का इस्तेमाल कम करने के लिए कहने पर खुदकुशी कर ले रहे हैं, वे बाकी वक्त भी किस मानसिकता में जी रहे होंगे, इसका एक अंदाज लगाया जा सकता है। इसलिए हत्या-आत्महत्या न होने पर भी लोगों को परिवार के भीतर इस खतरे की तरफ से चौकन्ना रहना चाहिए, और बच्चों का, लडक़े-लड़कियों का स्क्रीन टाइम घटाने की कोशिश करनी चाहिए।
पिछले दो बरस में कोरोना-लॉकडाउन की वजह से बहुत सी पढ़ाई-लिखाई ऑनलाईन हुई है, और पढ़ाई की जानकारी भी बच्चों को इंटरनेट पर तलाशनी पड़ी है। नतीजा यह हुआ है कि छात्र-छात्राओं की स्मार्टफोन या कम्प्यूटर तक पहुंच बढ़ी है, और इंटरनेट की सहूलियत मानो स्याही जितनी जरूरी हो गई। ऐसे में मां-बाप के बस में भी नहीं रहता है कि वे बच्चों को फोन या कम्प्यूटर से पूरे समय रोक सकें, क्योंकि उन पर यह निगरानी भी नहीं रखी जा सकती कि वे पढ़ाई कितनी देर कर रहे हैं, और वीडियो गेम, या वयस्क वीडियो पर कितना समय लगा रहे हैं। वीडियो गेम की वजह से हुई हत्या और आत्महत्या की खबरें अधिक रहती हैं, लेकिन लोगों को याद होना चाहिए कि कुछ महीने पहले ही छत्तीसगढ़ के एक संयुक्त परिवार में एक छोटी सी बच्ची के साथ परिवार के ही पांच-सात नाबालिग लडक़ों ने सेक्स-वीडियो देख-देखकर बलात्कार किया था, और फिर परिवार के लोग ही पुलिस तक पहुंचे थे। इंटरनेट पर बिखरी हुई सनसनी के साथ जीना सीखने में पता नहीं हिन्दुस्तानी समाज के बच्चे कितना वक्त लेंगे। आज तो हालत यह है कि पश्चिम की गोरी चमड़ी के सेक्स-वीडियो से अधिक उत्तेजना देने वाले देसी वीडियो बड़ी रफ्तार से बाजार पर कब्जा कर रहे हैं, और हिन्दुस्तानियों की सेक्स-कल्पनाओं को पंख मुहैया करा रहे हैं।
स्मार्टफोन और कम्प्यूटरों ने किताबों को धकेलकर फुटपाथ पर कर दिया है, और खुद रोजाना की जिंदगी के हाईवे पर तेजी से दौड़ रहे हैं। यह सिलसिला बच्चों के बोलना भी सीखने के पहले से शुरू हो रहा है, और लोगों के वयस्क या अधेड़ हो जाने तक भी चल रहा है। तमाम जिंदगी तो किसी को न रोका जा सकता, न सिखाया जा सकता, लेकिन छोटे बच्चों को तो किसी भी तरह की स्क्रीन से परे रखने के लिए पूरे परिवार को कोशिश करनी चाहिए, ताकि उसकी बुनियाद ही एक स्क्रीन का कैदी होकर न डले। इसके लिए परिवार के लोगों को बच्चों के लिए वक्त निकालना चाहिए, और बच्चों को ऐसी स्थितियों में रखना चाहिए जहां किसी भी तरह की स्क्रीन उनके सामने ही न आए, या आसपास स्क्रीन रहे भी, तो भी उसकी बजाय कुछ दूसरी अधिक आकर्षक चीजों में बच्चों को उलझाकर रखा जाए। यह मुद्दा बहुत से लोगों को महत्वहीन लग सकता है, और यह भी लग सकता है कि बच्चे तो इसी तरह बड़े होते हैं, लेकिन इस तरह बड़े होते हुए बच्चे कल्पनाशून्य होने लगते हैं, और कई मामलों में वे हिंसक भी होने लगते हैं। इसलिए इस समस्या को मामूली या कम खतरनाक मानकर चलना एक गलती होगी।
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पंजाब में अभी आम आदमी पार्टी की सरकार ने बहुत से तथाकथित वीआईपी लोगों की हिफाजत में कटौती की तो अगले ही दिन उस सुरक्षा घेरे के बिना बाहर निकले वहां के एक कांग्रेस नेता और बड़े मशहूर पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला को गोलियों से भून दिया गया। और कुछ घंटों के भीतर ही पंजाब के एक बड़े गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई ने सोशल मीडिया के मार्फत इस कत्ल की जिम्मेदारी ली, और कहा कि उसके गिरोह के एक आदमी के कत्ल में इस गायक का मैनेजर शामिल था जिसे इस गायक ने बचाया था, और उसे इसकी सजा दी जा रही है। इसी वक्त अलग-अलग बहुत सी खबरों यह बात आई कि लॉरेंस बिश्नोई के गिरोह में सात सौ लोग शामिल हैं जो कि हिन्दुस्तान से लेकर कनाडा और ऑस्ट्रेलिया तक बिखरे हुए हैं, और वह जेल के भीतर से जुर्म का अपना साम्राज्य चलाता है।
अगर पंजाब का यह ताजा कत्ल इतना चर्चित नहीं होता, वहां आम आदमी पार्टी की नई-नई बनी सरकार न होती, चर्चित लोगों का सुरक्षा घेरा खत्म न किया गया होता, तो शायद देश के लोगों को यह पता नहीं लगा होता कि पंजाब में इतने बड़े-बड़े गिरोह काम कर रहे हैं। कम से कम खबरों में तो इसके पहले कभी ऐसे गैंगवॉर की चर्चा याद नहीं पड़ती। अब तक पंजाब को लेकर सबसे अधिक चर्चा वहां पर सरहद पार से आने वाले नशे की रहती थी, जिसकी गिरफ्त में पंजाब की नौजवान पीढ़ी बर्बाद बताई जाती है। यह भी शक लोगों को रहता था कि सरहद पार कर कई तरह के हथियार भी पंजाब में घुसते हैं, और इन्हीं तर्कों को लेकर केन्द्र सरकार ने अभी सरहद के किनारे की बहुत चौड़ी पट्टी सीमा सुरक्षा बल के हवाले की है, और राज्य का एक बड़ा हिस्सा राज्य पुलिस के बाहर हो गया है। ऐसा पंजाब अगर अपने पड़ोसी कुछ राज्यों से लेकर दिल्ली तक इतने बड़े मुजरिम गिरोह का भी शिकार है कि जिसके बंदूकबाज कनाडा और ऑस्ट्रेलिया तक फैले हुए हैं, तो फिर सवाल यह उठता है कि ऐसे बड़े गिरोह-सरगना जेल के भीतर से अपना राज कैसे चलाते हैं? जेल के भीतर इन्हें मोबाइल फोन या दूसरी सहूलियतें किस तरह हासिल होती हैं? जब तक जेल का अमला भ्रष्ट नहीं होगा, तब तक कोई मुजरिम वहां से किस तरह सैकड़ों लोगों के अपने गिरोह को चला सकता है? अब यह मामला पंजाब से लेकर दिल्ली तक फैला हुआ है, और इन तीन राज्यों की अलग-अलग पुलिस का चौकन्नापन दिल्ली के एक भाजपा प्रवक्ता की गिरफ्तारी और उसकी बलपूर्वक रिहाई में तो सामने आया है, लेकिन जुर्म की ऐसी दुनिया इन्हीं पुलिसवालों की आंखोंतले, और शायद इनकी मेहरबानी से खड़ी हुई है।
लोगों को याद होगा कि पंजाब में धार्मिक और अलगाववादी आतंक का लंबा इतिहास रहा है, और वह बड़ी मुश्किल से खत्म हुआ था। अब अगर वहां पर इतने बड़े गिरोह काम कर रहे हैं, जो कि इस तरह बेधडक़ ऐसे जुर्म कर रहे हैं, तो यह सरकारों की नालायकी का भी एक सुबूत है, और इतने बड़े गिरोह रातों-रात तो खड़े हुए नहीं हैं। आज हालत यह है कि ये मुजरिम सोशल मीडिया पर अपना पेज चलाते हैं, और उनके लाखों फॉलोअर भी हैं। फिर ऐसे में देश का आईटी कानून क्या हुआ, जो कि एक कार्टून बनाने वाले को तो तुरंत जेल भेज देता है, एक ट्वीट पर राजद्रोह लगा देता है, लेकिन जो ऐसे बड़े गैंगस्टरों को हीरो बनने का मौका देता है। यह एक मामला पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार, और केन्द्र की भाजपा अगुवाई वाली सरकार के लिए एक टेस्ट केस सरीखा है कि हत्या का ऐसा जुर्म सामने आने के बाद, और उसकी जिम्मेदारी लेने के बाद ये सरकारें ऐसे मुजरिमों के गिरोह खत्म करने के लिए क्या करती हैं। हैरानी की बात यह है कि पंजाब की जेलों से लेकर दिल्ली की तिहाड़ जेल तक, हर कहीं ताकतवर मुजरिमों, पैसे वालों, और नेताओं को मोबाइल फोन की सहूलियत हासिल रहती है, और वहां से फोन करके वे बाहर लोगों को धमकाते हैं, उनसे फिरौती और उगाही लेते हैं। आम लोगों को भी यह लगता है कि जिनकी ताकत जेल के भीतर से जुर्म का कारोबार चलाने की है, उनसे कितना उलझा जाए? इसलिए जेल के भीतर मुजरिमों की ताकत उन्हें जेल के बाहर की दुनिया से अधिक ताकतवर बना देती है, और सरकारों को इसका ध्यान रखना चाहिए। पंजाब जैसे नाजुक राज्य को यह भी सोचना चाहिए कि मुजरिमों की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती है, वे किसी के भी हाथ बिक सकते हैं, वे सरहद पार के विदेशी आतंकियों, या वहां की सरकारों के हाथ भी बिक सकते हैं, और बड़े-बड़े गिरोह कब इस देश में साम्प्रदायिक दंगों से लेकर सार्वजनिक हमलों तक के लिए भाड़े पर काम करने लगें, इसका कोई भरोसा तो है नहीं। इसलिए देश-प्रदेश की सरकारों को बड़े अपराधियों के गिरोह खत्म करने के लिए अधिक मेहनत करनी चाहिए, क्योंकि ये आज तो एक गायक को मार रहे हैं, कल वे भाड़े पर किसी सार्वजनिक-जानलेवा हमले को तैयार हो जाएं तो उसमें हैरानी क्या रहेगी?
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भारतीय जनता पार्टी की एक चर्चित नेता नुपूर शर्मा के एक टीवी चैनल पर मोहम्मद पैगंबर के बारे में दिए गए बहुत ही ओछे और हमलावर बयान को लेकर हिंदुस्तान के गैरसाम्प्रदायिक लोगों में भारी नाराजगी है और उस नाराजगी के चलते दूसरे कुछ मुस्लिम देशों में भारतीय सामानों के खिलाफ एक फतवा जारी हुआ है कि उनका बहिष्कार किया जाए। अब इन मुस्लिम देशों के साथ भारत के जो कारोबारी संबंध हैं उनको देखते हुए, या कि बाजार में ग्राहकों से बहिष्कार की अपील को देखते हुए, भारत सरकार ने इनके कूटनीतिक विरोध को लेकर एक बयान जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि भारत सांस्कृतिक विरासत और अनेकता में एकता की मजबूत परंपराओं के अनुरूप सभी धर्मों को सर्वोच्च सम्मान देता है, और अपमानजनक टिप्पणी करने वालों के खिलाफ पहले ही कड़ी कार्रवाई की जा चुकी है। सरकार ने यह भी कहा कि इस संबंध में बयान भी जारी किया गया जिसमें किसी भी धार्मिक शख्सियत के अपमान की निंदा करते हुए सभी धर्मों की समानता पर जोर दिया गया है। सरकार ने यह भी कहा कि यह बयान देने वाले लोग शरारती तत्व हैं, या फ्रिंज एलिमेंट है, जो कि हाशिए पर बैठे हुए लोगों के बारे में कहा जाता है। दूसरी तरफ हकीकत यह है कि भाजपा की तरफ से अधिकृत रूप से उसकी नेता नुपूर शर्मा टीवी की बहसों में आते रहती हैं और अगर कुछ बरस पहले कि उनकी एक ट्वीट के स्क्रीन शॉट पर भरोसा किया जाए तो नुपूर शर्मा ने बड़े शान के साथ ही यह बखान किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके ट्विटर पेज को फॉलो करते हैं। अब ऐसे में भाजपा अपने प्रवक्ता से एकाएक हाथ धो ले उसे शरारती तत्व या फ्रिंज एलिमेंट बतलाए यह आसानी से गले उतरने वाली बात नहीं लगती है। जब अपने लोगों के कुकर्मों और जुर्म से बदनामी और नुकसान सर से ऊपर निकल जाये तो उसे फ्रिंज एलिमेंट कह देना क्या दुनिया को समझ नहीं आता है?
फिर इस सिलसिले में एक बात समझने की जरूरत है कि जिस दिन टीवी चैनल पर अपमानजनक, भडक़ाऊ, और सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाला बयान दिया गया उसके बाद से खाड़ी के देशों के विरोध आने तक शायद 2 दिनों से अधिक का वक्त भाजपा के पास था कि वह इस बयान से अपना पीछा छुड़ाती, अपने नेताओं को निष्कासन की चेतावनी देती, अपने नेताओं का निलंबन करती उन्हें पार्टी से निकालती, लेकिन भाजपा की यह प्रतिक्रिया तब जाकर दो-तीन दिन बाद आई, जब खाड़ी के देशों में भारतीय सामानों के बहिष्कार का सिलसिला शुरू हो गया और जब वहां पर भारत के राजदूतों को बुलाकर औपचारिक विरोध दर्ज किया गया कि वे देश मोहम्मद पैगंबर का ऐसा अपमान बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे। भाजपा के पास नफरत की आग उगलते अपने ऐसे नेताओं पर कार्रवाई का जो मौका था, वह मौका तो उसके हाथ से तभी निकल गया जब ऐसे बयान के बाद सोशल मीडिया और मीडिया में लगातार इस बयान के बारे में लिखा गया, पार्टी की जानकारी में यह बयान था लेकिन उसने इसके ऊपर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की, इसे खारिज नहीं किया, इन लोगों को तुरंत पार्टी से नहीं निकाला तो सवाल है कि आज भारत सरकार किस तरह से, सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के दिए गए ऐसे बयान को लेकर एक देश की हैसियत से दूसरे देशों से माफी मांग रही है? ऐसा शायद इस हड़बड़ी में किया गया कि खाड़ी के देशों में मोदी के अपमान वाले पोस्टर सार्वजनिक जगहों पर छा गए थे। वरना इन बयानों के बाद कानपुर में दंगा भडक़ गया, तब भी पार्टी ने इन पर कोई कार्रवाई नहीं की थी।
यह सत्ता और सत्तारूढ़ पार्टी इन दोनों के बीच ऐसे मेल-मिलाप का मुद्दा है जो कि लोकतंत्र में हो नहीं सकता। अगर भारत सरकार को दूसरे देशों को यह कहना है कि जिन लोगों ने ऐसे बयान दिए थे उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई है, तो यह कड़ी कार्रवाई पार्टी से निलंबन नहीं हो सकती, वह तो राजनीतिक दल के भीतर का मामला है। पार्टी के भीतर से निलंबन का मौका भी पार्टी ने खो दिया 2 दिन 3 दिन के बाद जाकर इनको पार्टी से निलंबित किया या निकाला। अब सवाल यह उठता है कि भारत सरकार को जो संवैधानिक, कानूनी, या सरकारी कार्रवाई इस मामले में करनी थी उनमें से कोई भी कार्रवाई नहीं हुई है तो भारत सरकार का दूसरे देशों को यह कहना कि इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई है, यह बात तथ्यात्मक रूप से गलत है। सरकार कह रही है कि अपमानजनक टिप्पणी करने वालों के खिलाफ पहले ही कड़ी कार्रवाई की जा चुकी है। इनके खिलाफ कोई सरकारी या कानूनी कार्रवाई नहीं हुई है, लोगों ने इनके खिलाफ जाकर पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है, और अंतरराष्ट्रीय बवाल खड़ा होने के बाद भाजपा ने इन लोगों को, ऐसे 2 नेताओं या प्रवक्ताओं को पार्टी से निलंबित किया है, या निष्कासित किया है। यह पूरा का पूरा सिलसिला एक बहुत ही साफ बात दिखाता है वह यह कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बिना भाजपा अपने देश के भीतर भी अपने ऐसे बवाली लोगों के खिलाफ भी कोई कार्रवाई करने के बारे में सोच भी नहीं रही थी। आज तो वह किसी चुनाव में नहीं लगी हुई थी, आज पार्टी के पास इन बयानों के ऊपर विचार करने का पर्याप्त समय था, इन लोगों के ये विचार वीडियो की शक्ल में, और खबरों की शक्ल में चारों तरफ फैले हुए थे, लेकिन पार्टी ने कुछ भी नहीं किया था। यह एक बवाल खड़ा होने के बाद एक अंतरराष्ट्रीय दबाव आने के बाद अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार होने के बाद लिया गया फैसला है, जो कि पार्टी का फैसला है। भारत सरकार को यह साफ करना चाहिए कि ऐसे बयान के खिलाफ जो कानूनी कार्रवाई अनिवार्य रूप से होनी चाहिए थी उसका क्या हुआ? इसके साथ साथ ऐसे नेताओं की पार्टी भाजपा को भी यह साफ करना चाहिए कि आज उसने, सरकार ने जिन शब्दों में देश की सांप्रदायिक एकता, सद्भाव, सभी धर्मों के प्रति सम्मान की जो बात कही है, क्या देश में सचमुच ही भाजपा उनको बढ़ावा दे रही है ? इन बातों की रक्षा कर रही है, क्या आज देश में सचमुच ही अल्पसंख्यक लोगों और दूसरे लोगों को संरक्षण मिल रहा है? क्या वे बिना खतरे के जी रहे हैं? यह बात भी समझ लेने की जरूरत है कि आज दुनिया एक बड़े गांव की तरह हो गई है और हिंदुस्तान में जो कुछ होता है उसकी प्रतिक्रिया दुनिया भर में देखने मिल सकती है। भारत में अगर हिंदूवादी ताकतें, हिंदुत्ववादी सरकारें अगर अल्पसंख्यकों को इस तरह से घेर-घेरकर मार रही हैं, अगर उनके रीति-रिवाज पर हमला कर रही हैं, उनके खानपान पर हमला कर रही हैं, उनके आराध्य पर हमला कर रही हैं, तो उन्हें यह बात जान लेना चाहिए कि जिन देशों का शासन इस्लाम के आधार पर चलता है उन देशों में काम कर रहे दसियों लाख हिंदुस्तानियों की नौकरी, उनका भविष्य, उनके परिवार सब कुछ खतरे में पड़ रहे हैं। भारत में हिंसक बकवास करने वाले लोगों को इस बात का अंदाज नहीं है कि वे पूरी दुनिया में किस तरह के खतरे हिंदुस्तान के लोगों के लिए खड़े कर रहे हैं। एक बार अगर कोई खाड़ी के देशों में जाकर वहां से कमाई करके, वहां काम करके, वहां अपने परिवार को रखकर हिंदुस्तान लौटेंगे, तो वह इस तरह की बकवास नहीं कर सकेंगे। इन तथाकथित राष्ट्रवादियों को यह भी अहसास नहीं है कि हिंदुस्तान में मुस्लिमों का जीना मुश्किल करके ये मुस्लिम दुनिया में पाकिस्तान के हाथ कितने मजबूत कर रहे हैं।
सरकार को अपनी राजनीतिक पार्टी, सत्तारूढ़ पार्टी को समझ देने की जरूरत है कि देश के भीतर नफरत को इस हद तक बढ़ावा देने से तमाम देशों में हिंदुस्तानियों के लिए मुसीबत आने जा रही है। अभी अमेरिका ने धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर हिंदुस्तान के खिलाफ एक कड़ी टिप्पणी की है, दुनिया भर की कई संसदों में भारत में अल्पसंख्यकों पर किए जा रहे हैं हमलों को लेकर फिक्र जाहिर की जा चुकी है। पूरी दुनिया में हिंदुस्तान की छवि एक ऐसे देश की बन रही है जहां पर एक धर्म की गुंडागर्दी चल रही है, और दूसरे धर्म को कुचला जा रहा है। तो यह बात तय है कि यहां आने वाला पूंजी निवेश भी घटेगा और हिंदुस्तान की इज्जत तो मटियामेट हो ही रही है। यह मौका भारत सरकार के लिए, और भारत पर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए, इन दोनों के लिए गंभीर आत्ममंथन का मुद्दा है। इस देश की, इसके लोगों की और कितनी बेइज्जती दुनिया भर में करवाई जाएगी, या लोगों की संभावनाओं को बाकी दुनिया में किस हद तक खत्म किया जाएगा इन बातों को सोचे बिना महज इन 2 नेताओं-प्रवक्ताओं पर कार्रवाई से बात सुलझने वाली नहीं है, मुद्दा खत्म होने वाला नहीं है। इस मुद्दे की तरफ लोगों का ध्यान गया है, लोगों ने इस पर तंज कैसा है कि क्या सचमुच ही भारत सरकार आज देश में ऐसे माहौल को बढ़ावा दे रही है जैसा कि उसने एक बयान में बखान किया है? क्या सचमुच ही भारतीय जनता पार्टी ऐसे सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रही है जैसा कि उसने एक बयान में अभी लिखकर जारी किया है? यह तो ऐसा लगता है कि कई देशों के विरोध और भारत के बहिष्कार के खतरे को देखते हुए, नुकसान को कम करने की एक कोशिश के तहत जारी किया गया बयान है जिसका हकीकत और असलियत से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह साफ दिखाई देता है कि ये दोनों बयान जमीन से जुड़े हुए नहीं हैं, यह दोनों बयान महज कागज के दो पन्ने हैं, जिनको आज बड़े अन्तरराष्ट्रीय नुकसान को रोकने के लिए जारी किया गया है। सोशल मीडिया पर लोगों ने तुरंत भारत सरकार और भाजपा इन दोनों से यह सवाल किए हैं कि क्या वे सचमुच इन बातों पर भरोसा कर रहे हैं, और अमल कर रहे हैं, जो कि उन्होंने इन बयानों में लिखा है, और अगर नहीं कर रहे हैं तो उनसे लगातार यह सवाल किए जाएंगे। कहा जाता है कि कोई घड़ा जब पूरा भर जाता है, तब फूटता है, तो भारत में आज सांप्रदायिक तनाव सोच-समझकर साजिश के तहत इस हद तक बढ़ाया जा चुका था कि अब वह घड़ा किसी न किसी एक वजह से फूटना था। अभी फूटा है, इसका मवाद चारों तरफ फैला है, इसे समेटना इतना आसान नहीं है, लेकिन इससे एक मौका मिल रहा है भारत सरकार और भाजपा दोनों को कि अपने तौर-तरीके सुधारें और अपनी पार्टी और अपनी सत्ता को और अधिक बदनामी से बचाएं। देश को तो बचाने की जरूरत आज सबसे अधिक आ खड़ी हुई है, क्योंकि आज देश इन्हीं हरकतों की वजह से खतरे में पड़ा हुआ है। आज देशद्रोह का मुकदमा ऐसे लोगों पर अगर दर्ज नहीं होगा, तो फिर सरकार कुछ भी नहीं करती दर्ज होगी।
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हिन्दुस्तान में हर बरस पौने दो करोड़ लोग ऐसी बीमारियों से मरते हैं जो कि कमजोर खानपान और कम वजन से जुड़ी हुई हैं। देश की एक सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था, सेन्टर फॉर साईंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने साल की भारत की पर्यावरण-रिपोर्ट में यह बात कही है। यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह ये बीमारियां कमजोर खानपान से जुड़ी हुई हैं, लेकिन साथ-साथ ये बीमारियां अधिक मांस खाने, अधिक कोल्डड्रिंक पीने की वजह से भी हो रही हैं। मतलब यह कि खानपान से जुड़ी मौतें या तो कम खाने की वजह से हो रही हैं, या अधिक खाने की वजह से हो रही हैं। देश में असमानता का यह भी एक नुकसान है कि कुछ के पास खाने को इतना कम है कि वे कुपोषण के शिकार हैं, उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित हो रहा है, दूसरी तरफ कुछ लोग खा-खाकर भी अघा नहीं रहे हैं, और डायबिटीज और कैंसर, सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
अब इस तस्वीर को इस रिपोर्ट से अलग हटकर भारतीय जिंदगी के अपने तजुर्बे से देखें तो यह साफ लगता है कि हिन्दुस्तान में खानपान को लेकर एक तबके के सामने मजबूरी है, और दूसरे तबके की लापरवाही है। अगर केन्द्र और राज्य सरकारों की राशन योजनाएं न रहें, तो भूख से मौत अभी कुछ दशक पहले की ही बात है, और कुपोषण से मौतें तो आज भी हिन्दुस्तान में दसियों लाख हर साल होती ही हैं। जो लोग सरकारी योजनाओं पर जिंदगी गुजार रहे हैं, उनके बारे में तो कोई अधिक सलाह नहीं दी जा सकती क्योंकि वह सलाह तो सरकार के लिए ही हो सकती है, और वह किसी सलाह से परे है। लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों के खानपान में, खाते-पीते और पैसे वाले तबके के खानपान में सुधार की बहुत जरूरत भी है, और बहुत गुंजाइश भी है। हिन्दुस्तान में अगर दसियों लाख लोग हर बरस अधिक खाने से मर रहे हैं, और हर बरस करोड़ों लोग गलत और अधिक खाने से डायबिटीज के शिकार हो रहे हैं, तो इस नौबत को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता की जरूरत है। यह जिंदगी का एक इतना बड़ा सच है कि इसे सिर्फ अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
जैसे-जैसे बाजार लोगों की जिंदगी पर हावी होते जा रहा है, वह लोगों की जीवन शैली को अपने हिसाब से ढाल भी रहा है। जिन परिवारों में खर्च उठाने की ताकत है वहां पर सुबह का नाश्ता कारखानों से आए हुए डिब्बा बंद चीजों का होता है, और उन्हें दूध के साथ मिलाकर ऐसा मान लिया जाता है कि यह परिवार के लिए बहुत सेहतमंद खाना है। दूध में मिलाने के कई किस्म के पावडर मां-बाप को यह झांसा देते हैं कि बच्चों को इसे दूध में देने से उनका दिमाग तेज होगा, उनका कद तेजी से बढ़ेगा, वे अधिक मजबूत होंगे। इसी तरह एक-एक करके बहुत सा खानपान अब कारखानों से डिब्बा या पैकेट में बंद होकर बाजार के रास्ते लोगों तक पहुंचता है, और उनके बदन में अंधाधुंध शक्कर, नमक, तेल भर देता है। नतीजा मोटापा होता है, और मोटापे के बाद, या बिना मोटापे के भी डायबिटीज होता है। इसलिए बचपन से ही इस जागरूकता की जरूरत है कि अधिक से अधिक खानपान घर पर बनी हुई चीजों का होना चाहिए, और बाजार का खाना कभी भी घर के खाने से बेहतर नहीं होता। लोगों को अपने बच्चों को कारखाने में बना खाना या कोई भी सामान कम से कम देना चाहिए। अब यह जागरूकता उन बच्चों में तो नहीं आ सकती जिन्हें बाजार के सामान अधिक जायकेदार लगें, इसका इंतजाम कंपनियां करती हैं। यह जागरूकता तो मां-बाप में ही आ सकती है, लेकिन बच्चों को बचपन से ही घर के सेहतमंद खाने का महत्व समझाया जा सकता है ताकि उनके दिमाग में घर के खाने के लिए सम्मान बैठा रहे।
आज हिन्दुस्तान की शहरी जिंदगी में एक बड़ी दिक्कत खाने की घर पहुंच सेवा भी हो गई है। टेलीफोन पर एक संदेश गया, और आधे घंटे के भीतर डिब्बाबंद खाना घर पहुंच गया। ऐसा सारा ही खाना अधिक तेल-नमक का होता है, और इनमें नमक से परे कुछ और रसायन भी डाले जाते हैं ताकि उनसे खाने का स्वाद बढ़े। इन सबका नुकसान बहुत है, लेकिन जो लोग इस खर्च को उठा सकते हैं, उनके लिए घर पर खाना बनाने के बजाय आए दिन बाहर से खाना बुला लेना आम बात है। शहरी और संपन्न जिंदगी के साथ बढ़ती चल रही इस सोच के खतरे लोगों को समझाने की जरूरत है। संपन्नता लोगों के दिमाग को इतना मंद भी कर देती है कि वे सोचने लगते हैं कि ऐसे खानपान से उन्हें जो भी बीमारी होगी उसके इलाज के लिए बड़े-बड़े अस्पताल मौजूद हैं, और उनका खर्च उठाने की उनकी ताकत है। यह लापरवाही आत्मघाती है, और धीमी रफ्तार से खुदकुशी सरीखी है। ऐसा तबका कई तरह के संगठनों से भी जुड़ा रहता है, और वहां पर भी ऐसी जागरूकता की कोशिश हो सकती है। दरअसल खानपान का बाजार पैकेट के सामानों से लेकर रेस्त्रां तक, लोगों को लुभाने का काम करता है, और लोगों को अपनी संपन्नता के इस्तेमाल का यह एक जरिया भी दिखता है कि परिवार को लेकर बाहर जाएं, और खा-पीकर मस्ती करें। ऐसी जिंदगी लोगों को रफ्तार से खतरे की तरफ धकेल रही है, और हिन्दुस्तान जैसे देश में इलाज की सहूलियतों पर ऐसे संपन्न तबके का अनुपातहीन बोझ भी पड़ता है, जिसका नतीजा यह होता है कि गरीबों को जरूरत के वक्त अस्पताल नसीब नहीं होते।
कुल मिलाकर सीएसई की इस रिपोर्ट के बाद ऐसा लगता है कि गरीब तबके में भी इस जागरूकता की जरूरत है कि वह अपनी सीमित कमाई को शराब और गुटखा जैसी चीजों पर बर्बाद न करे, और अपने बच्चों के, परिवार के खानपान को बेहतर बनाने की कोशिश करे। गर्भवती महिला से लेकर कमउम्र के बच्चों तक कमजोर खानपान का ऐसा बुरा असर होता है जो कि अगली पीढिय़ों तक जारी रहता है। इसके साथ-साथ संपन्न तबके को भी समझ देने की जरूरत है। अब इससे ज्यादा हम क्या कहें, सभी लोग समझदार हैं।
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हिन्दुस्तान के आज के माहौल पर लिखना, पिछले दिनों, हफ्तों, महीनों, और बरसों की बातों को दुहराने के अलावा और कुछ नहीं है। वही तनावपूर्ण साम्प्रदायिक माहौल बनाने की कोशिश हो रही है, और लोगों को लग रहा है कि धर्म से बड़ा कोई कर्म इस देश के लोगों को नसीब नहीं है। ऐसा लग रहा है कि प्रसाद से ही दो वक्त रोजी-रोटी चल जाएगी, और धार्मिक शोरगुल से बड़ी कोई पढ़ाई नहीं रह गई है। लोगों के एक हमलावर तबके को ऐसा लग रहा है कि वक्त की घड़ी की सुई को उल्टा घुमा दिया जाए। हजारों बरस पहले जिस तरह धर्म को लेकर शायद कबीलों में लड़ाई लड़ी जाती थी, सैकड़ों बरस पहले धर्म को लेकर देश एक-दूसरे पर चढ़ाई करते थे, अधिक ताकतवर हमलावर लोग दूसरे देशों पर हमला करके वहां के लोगों को अपने धर्म में शामिल करते थे, और हमले के शिकार देश के अनगिनत लोग खुद होकर भी राजा के कृपापात्र बनने के लिए उसके धर्म में शामिल हो जाते थे, उसी तरह आज भी सत्ता की पसंद के धर्म का राज लोकतंत्र के ऊपर कायम किया जा सकता है। इसी फेर में हिन्दुस्तान में आज हिन्दुओं का एक हमलावर तबका रात-दिन इतना तनाव खड़ा कर रहा है कि दो दिन पहले हिन्दुओं के सबसे बड़े संगठन के मुखिया, मोहन भागवत को यह कहना पड़ा कि हर मस्जिद के भीतर शिवलिंग ढूंढने की जरूरत नहीं है। लेकिन जैसा कि आज के बहुत से लोग यह मानते हैं कि उनके शब्द दिल से कितने निकले हैं, और महज होठों से कितने निकले हैं, इसका अंदाज लगाना चौदह मुल्कों के मनोवैज्ञानिकों के लिए भी मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
अब इस पर लिखने का मौका आज एक बार फिर इसलिए आया है कि कल जब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, और मुख्यमंत्री तीनों कानपुर में थे, उस वक्त वहां जुमे की नमाज के बाद दो समुदायों में भारी पत्थरबाजी हुई। मुस्लिम इस बात से खफा थे कि कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर आग लगाकर टीआरपी तापने के लिए चलाई जा रही बहसों के बीच भाजपा की एक तेजाबी प्रवक्ता नुपूर शर्मा ने जिन शब्दों में मोहम्मद पैगंबर के बारे में ओछी बातें कही थीं, उनसे आमतौर पर ऐसे ही चैनल देखने वाले लोग भी हक्का-बक्का थे। किसी और किस्म की जरा सी भी बात देश के आज के किसी नेता के बारे में की होती, तो अब तक उस पर एफआईआर दर्ज हो गया रहता, और किसी राज्य की पुलिस देश के दूसरे सिरे पर जाकर बोलने वाले को गिरफ्तार करके ला चुकी होती। लेकिन चूंकि यह बात आज इस देश में अवांछित साबित किए जा रहे मुस्लिम तबके के खिलाफ थी, उनकी धार्मिक आस्था के खिलाफ थी, इसलिए नफरतजीवी हमलावरों ने उसे जायज मान लिया। भाजपा प्रवक्ता के उसी बयान को लेकर कल कानपुर में दो तबकों के बीच पथराव हुआ, और वह कई इलाकों में घंटों तक चलते रहा। यह पथराव चूंकि दो तबकों में था इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि इसमें से एक तबके के पत्थर उठाने के हौसले को यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने को सीधी चुनौती मानेंगे, और इस वक्त वे यह साबित करने में जुटे होंगे कि हर हाथ को पत्थर उठाने का हक नहीं है।
देश का यह माहौल बहुत भयानक है। और बहुत से लोगों का यह अंदाज बेबुनियाद नहीं है कि आज देश की असल दिक्कतों को दूर कर पाना चूंकि सरकार के काबू के बाहर की बात हो गई है, इसलिए उन असल मुद्दों को हाशिए पर धकेलकर धर्म और इतिहास के मुद्दों को सामने लाया जाए। जब सामने आग की लपटें दिखती हैं, तो उनके पीछे की दिक्कतें वैसे ही आंखों से दूर हो जाती हैं। इन्हीं सब बातों को देखकर अखिलेश यादव ने अभी यह कहा है कि इतिहास के आटे से वर्तमान की रोटी नहीं बन सकती। अखिलेश की बात ठीक है, लेकिन इसके साथ-साथ इसमें एक बात और जोड़ी जानी चाहिए, इतिहास के आटे से वर्तमान के लोगों की लाशों पर सेंकी गई रोटी आखिर खिलाई किसे जाएगी, सारे तो मारे जाएंगे।
हिन्दुस्तान की यह नौबत बहुत भयानक है, जिसमें हमलावर हिन्दू संगठन कर्नाटक में यह साबित करने में लगे हैं कि स्कूल-कॉलेज में पढऩे वाली मुस्लिम लड़कियों को तब तक पढऩे का हक नहीं रहेगा जब तक वे हर किसी को अपने बाल और अपने कान नहीं दिखाएंगी। वरना हिजाब से और क्या फर्क पड़ता है? लड़कियों के बाल और कान ही तो उससे ढंकते हैं, और उन्हें देखे बिना हिन्दू तबके को चैन क्यों नहीं पड़ रहा है? लेकिन ऐसी एक-एक बात की फेहरिस्त बनाना नामुमकिन है क्योंकि अब तो भाजपा के राज वाले कई राज्यों में बुलडोजर भी बिना ऑपरेटर खुद यह जानने लगे हैं कि उन्हें किन बस्तियों में जाना है, और किन घर-दुकानों को जमींदोज करना है। यह माहौल पूरे देश में फैलते चल रहा है, बढ़ते चल रहा है, और मानो इसकी एक प्रतिक्रिया कश्मीर के आतंकियों की तरफ से आ रही है जो कि इस केन्द्र प्रशासित राज्य में हिन्दुओं को चुन-चुनकर मार रहे हैं, और कुछ तस्वीरें सामने आई हैं कि किस तरह हिन्दू कर्मचारी कश्मीर छोडक़र बाहर निकल रहे हैं। धारा 370 के रहते भी हिन्दुओं की ऐसी छांट-छांटकर हत्याएं नहीं हुई थीं, और इन्हें देश के बाकी माहौल से अलग करके देखना सच से मुकरना होगा।
इस सिलसिले को अगर थामा नहीं गया तो यह आग जाने कहां तक पहुंचेगी। लेकिन आज एक झूठे इतिहास को फिल्मों के जरिए, टीवी सीरियल और किताबों के जरिए नफरत की आग फैलाने में पेट्रोल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। अखंड भारत की बात करते-करते आज भारत खंड-खंड हो चला है, और समाज के भीतर जिस कदर टुकड़े हो रहे हैं, उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराकर किसे टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा जाएगा? इतिहास को खोदकर वहां से हथियार निकालकर उससे जंग लड़ी जाएगी, तो ईसाई और मुस्लिम तो तमाशबीन ही रहेंगे, असली जंग तो हिन्दुओं और बौद्धों के बीच लड़ी जाएंगी क्योंकि भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तथ्य बताते हैं कि इस जमीन पर मुगलों के पैर भी पडऩे के पहले बौद्ध मंदिरों को तोडक़र वहां हिन्दू मंदिर बनाए गए थे। अब किस धर्म के ढांचे के भीतर किस धर्म की मूर्ति और प्रतीक तलाशे जाएं, क्या इसी में हिन्दुस्तान की इस पीढ़ी का भविष्य है? सच तो यह है कि जिन कंधों पर इस देश और इसके प्रदेशों के लोगों का भविष्य तय करने का जिम्मा वोटरों ने दिया है, वे अपने बच्चों को तो विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाकर आत्मगौरव से फूले नहीं समा रहे हैं, और आम लोगों को सडक़ों पर लाकर साम्प्रदायिकता की मशाल थमा रहे हैं कि सब कुछ जला डालें। इतिहास अच्छी तरह दर्ज कर रहा है कि इस दौर में इस देश के कौन-कौन लोग चुप थे। इतिहास कही गई बातों को तो छोटे अक्षरों में दर्ज करता है लेकिन चुप्पी को बड़े-बड़े अक्षरों में। लोगों को याद रखना चाहिए कि फिल्मों और किताबों में झूठा इतिहास लिखने वाले लोग दुनिया का भविष्य तय नहीं करते हैं, और न ही उनके लिखे से, परदे पर उनके लिखाए से इतिहास बदलता है। यह जरूर है कि आज देश में फैलाए जा चुके साम्प्रदायिक उन्माद से देश की नौजवान पीढ़ी की संभावनाएं बदल गई हैं, और अब वे लंबे वक्त खाली हाथ रहने वाले हैं, अधिक से अधिक उन हाथों को पत्थर नसीब होंगे।
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हिन्दुस्तान अब धर्म की अफीम के नशे में डूब गया दिखता है। और लोग महज अपने धर्म की अफीम के नशे में डूबते तो भी ठीक होता, लोग अब अपने से अधिक दूसरे धर्म की अफीम के नशे में डूब रहे हैं। अभी उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ के एक निजी कॉलेज के कैम्पस में वहां के एक प्रोफेसर ने बगीचे में एक खुली जगह पर नमाज पढ़ी, और इसका वीडियो फैला, तो भाजपा और कुछ दूसरे दक्षिणपंथी संगठनों ने इसका विरोध किया। कॉलेज प्रशासन ने प्रोफेसर को एक महीने की छुट्टी पर भेज दिया। अब कुछ लोग इस प्रोफेसर पर और कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ बहुत से लोग इसे देश में बनाए जा रहे मुस्लिम विरोधी माहौल की एक कड़ी बता रहे हैं। इस मुस्लिम प्रोफेसर ने प्रिंसिपल को बताया कि वे जल्दी में थे, और नमाज का वक्त हो गया था तो बगीचे के एक कोने में उन्होंने नमाज पढ़ी थीं। इसका विरोध कर रहे लोगों का तर्क है कि कॉलेज परिसर का इस्तेमाल धार्मिक आस्थाओं के लिए नहीं किया जाना चाहिए। भाजपा के एक नेता ने थाने में इसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है कि आज अगर इसे नहीं रोका तो कल बच्चे क्लास में भी नमाज पढ़ेंगे।
इस ताजा विवाद में बस घटना नई है, बाकी तो सब कुछ देश में इन दिनों चले ही आ रहा है, और उसी फैलाए जा रहे तनाव की यह अगली कड़ी है। हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में स्कूलों में सरस्वती पूजा एक आम बात है, और उसे लेकर कभी कोई धार्मिक या साम्प्रदायिक विवाद नहीं हुआ। उत्तर भारत और हिन्दीभाषी प्रदेशों में थानों में बजरंग बली का मंदिर, या दीवारों पर उनकी तस्वीरें आम बात हैं, और इस पर भी कभी कोई विवाद नहीं हुआ। सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के जितने दफ्तरों में नगदी रखने के लिए तिजोरी या कैशबॉक्स होते हैं, वहां पर लक्ष्मी पूजा होती ही है, और इसे कभी एक धर्म का काम मानकर दूसरे धर्मों के लोगों ने विवाद नहीं किया। दशहरे पर देश भर में पुलिस और दूसरे सशस्त्र बल हथियारों की पूजा करते हैं, और इनमें गैरहिन्दू मंत्री और अफसर भी शामिल होते हैं। देश के बहुत बड़े हिस्से में सरकारी कारखानों में भी दशहरे पर मशीनों की पूजा होती है, और विश्वकर्मा पूजा के दिन समारोह होता है, जिनमें सभी धर्मों के कामगार शामिल होते हैं। यह सिलसिला अंतहीन है, और इसे इस देश में धर्म नहीं माना गया, संस्कृति मान लिया गया, और इसका कभी कोई विरोध नहीं हुआ। लेकिन अब हाल के बरसों में बदले हुए माहौल में एक कॉलेज के बगीचे के एक कोने में एक प्रोफेसर के एक दिन नमाज पढ़ लेने का वीडियो फैलाया जा रहा है, और उसे लेकर बवाल खड़ा किया जा रहा है।
जिन संगठनों के लोग यह बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं, वे लोग शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक आयोजन करने के आदी रहे हैं। जब कर्नाटक में स्कूल-कॉलेज में लड़कियों के हिजाब पहनने को लेकर साम्प्रदायिक दंगा चल रहा था, छत्तीसगढ़ में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में प्राध्यापक धोती-कुर्ता पहनकर पूजा में बैठे थे, और पंडित के मार्गदर्शन में सरस्वती पूजा कर रहे थे। अभी इस विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह हुआ तो उसमें मंच पर हिन्दू धर्म से जुड़े हुए एक संगठन के मुखिया, रावतपुरा सरकार कहे जाने वाले व्यक्ति को अतिथि बनाकर रखा गया। देश भर में अनगिनत सरकारी स्कूलें ऐसी हैं जहां कक्षाओं में सरस्वती की तस्वीरें लगी रहती हैं, या क्लास खत्म होने पर अलग-अलग शिक्षक अपनी मर्जी से बच्चों से सरस्वती वंदना या पूजा करवा लेते हैं, और क्लास में मौजूद दूसरे धर्मों के बच्चे भी बिना किसी विवाद के, बिना किसी झिझक के उसमें शामिल हो जाते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दुस्तान एक लोकतंत्र न होकर एक धर्मराज है जिसमें बहुसंख्यक धर्म के त्यौहारों, रीति-रिवाजों, और प्रतीकों का राज रहेगा, और दूसरे धर्म के लोगों को कोई आजादी नहीं रहेगी?
हम किसी भी स्कूल-कॉलेज, सरकारी या सार्वजनिक दफ्तर, या सार्वजनिक जगह के धार्मिक इस्तेमाल के खिलाफ हैं। जो स्कूल-कॉलेज किसी धर्म के लोग चलाते हैं, उन्हें सरकारी नियमों में अलग दर्जा मिला हुआ है, और वहां भी अगर धर्म का दखल न हो, तो भी हम उससे सहमत रहेंगे। हम तो सार्वजनिक रूप से धर्म के किसी भी तरह के प्रदर्शन के भी खिलाफ हैं क्योंकि वह आस्था का प्रदर्शन नहीं रहता, वह दूसरे धर्मों के लोगों को दिखाने के लिए बाहुबल का प्रदर्शन अधिक रहता है। लेकिन फिर भी जब तक इस देश में तमाम किस्म के धार्मिक काम प्रचलन में हैं, हमारे सरीखे गिनती के लोग उन पर कोई रोक तो लगवा नहीं सकते। लेकिन जब बिना आवाज किए घास पर बैठकर किसी के एक दिन नमाज पढ़ लेने पर इतना बवाल खड़ा किया जा रहा है, तो सवाल यह उठता है कि क्या देश में बहुसंख्यक धर्म का दर्जा अलग है, और इस राष्ट्रवादी व्यवस्था में क्या अल्पसंख्यक धर्मों की जगह वैसी ही है जैसी मनुवादी व्यवस्था में दलितों की रखी गई है? देश का संविधान तो धार्मिक बराबरी देता है, लेकिन देश का माहौल इस बराबरी को कुचल-कुचलकर उसका चूरा बना चुका है, और सद्भाव को और बारीक पीस देने पर आमादा है।
स्कूल-कॉलेज से धर्म को पूरी तरह से निकाला दे देना अच्छी बात है। इस प्रोफेसर को भी कॉलेज के बगीचे में एक दिन भी नमाज नहीं पढऩे देनी चाहिए। लेकिन साथ-साथ देश भर के स्कूल-कॉलेजों में बाकी भी किसी धर्म के कोई आयोजन नहीं होने चाहिए, और वह देश के लिए एक बेहतर माहौल होगा।
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बिहार में एक अजीब सी नौबत आ गई है कि वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति-आधारित जनगणना करवाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई और उसमें सत्तारूढ़ गठबंधन के भागीदार भाजपा सहित सभी 9 प्रमुख पार्टियों ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया। यह काम करने के लिए बिहार, और खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लंबे समय से केन्द्र सरकार से मांग करते आ रहे थे, और अब बिहार सरकार ने खुद ही इसे करवाने का फैसला लिया है। केन्द्र सरकार इससे सहमत नहीं है, और बरसों से इस मांग पर वह कोई फैसला नहीं ले रही है, लेकिन बिहार के इस प्रदेश स्तरीय फैसले का वहां की बीजेपी ने भी साथ दिया है, अगर खुलकर साथ नहीं भी दिया है तो भी इसका विरोध भी नहीं किया है, क्योंकि जातियों को नाराज करके चुनाव लडऩा नामुमकिन हो जाएगा। बिहार की सभी पार्टियों का यह कहना है कि जाति-आधारित जनगणना से सत्ता में कमजोर जातियों की भागीदारी बढ़ाने में मदद मिलेगी।
उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे दो बड़े हिन्दीभाषी उत्तर भारतीय राज्य जाति की राजनीति करते हैं। पंचायत और वार्ड के चुनाव से लेकर संसद और मुख्यमंत्री के चुनाव तक में जाति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। तमाम बड़ी पार्टियां या तो खुलकर जाति की बात करती हैं, या फिर टिकटें बांटते हुए जाति के आधार पर जीत की संभावना देखकर ही उम्मीदवार तय करती हैं। सरकारी नौकरियों में भी ताकत की किसी कुर्सी पर तैनाती जाति के आधार पर होती है, और लोग खुलकर इसकी चर्चा करते हैं, इसका असर सरकारी कामकाज और फैसलों पर भी देखने मिलता है। लेकिन इस जाति-आधारित जनगणना से दलितों और आदिवासियों का अधिक लेना-देना इसलिए नहीं है कि उनके तबके पहले से अच्छी तरह पहचाने हुए हैं, उनकी गिनती भी साफ है, और उनके लिए सीटों का आरक्षण भी बिल्कुल साफ है। इससे मोटेतौर पर पिछड़ों का लेना-देना है जिनमें पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच अनुपात और संभावना की खींचतान चलती रहती है।
अभी तो लंबे समय से चली आ रही मांग के बाद राज्य सरकार ने केन्द्र की किसी सहमति-अनुमति की परवाह किए बिना अपने अधिकार क्षेत्र में इस जनगणना का फैसला लिया है। लेकिन एक बार इसके आंकड़े सामने आ जाने के बाद जाहिर तौर पर पिछड़ा वर्ग आरक्षण के भीतर अलग-अलग तबके बनाने की मांग होगी ही। इस जनगणना का घोषित या अघोषित मकसद भी वही है कि ओबीसी के भीतर परिवार की सालान कमाई के आधार पर विभाजन के अलावा यह एक विभाजन भी किया जाना चाहिए कि जाति के आधार पर अतिपिछड़े लोग कौन हैं? इससे यह एक अलग सवाल खड़ा हो सकता है कि आज ओबीसी के भीतर आय-आधारित दो तबके हैं, तो क्या इस नई जनगणना के बाद आय-आधारित चार तबके हो जाएंगे, जिनमें से ओबीसी में दो, और अतिओबीसी में दो तबके रहेंगे? क्या इस जनगणना से पढ़ाई और नौकरी के आरक्षण दुबारा तय होंगे, चुनाव में आरक्षण दुबारा तय होगा, या फिर उसके लिए वंचित तबकों को अलग से एक संघर्ष करना पड़ेगा? क्योंकि अब जो जनगणना होने जा रही है, वह किसी धर्म के भीतर जाति, और उपजाति की अलग-अलग आबादी दिखाएगी। उसके बाद यह सवाल खड़ा होगा कि क्या पढ़ाई, सरकारी और राजनीतिक बंटवारा सिर्फ जाति के आधार पर उस अनुपात में हो, या वंचित तबकों को उसमें अधिक हक मिले ताकि वे आधी-एक सदी में कुछ ऊपर आ सकें, या फिर कुछ जातियों के भीतर ही यह संघर्ष होगा, अभी कुछ साफ नहीं है। यह जरूर है कि ऐसे किसी भी वर्ग और वर्ण संघर्ष के लिए एक जमीन इस जाति-आधारित जनगणना से बनेगी जिस पर हक की लड़ाई लड़ी जा सकेगी।
बिहार की राजनीति में यह भी माना जाता है कि हिन्दू धर्म के तहत आने वाली जातियों के बीच जब कभी विभाजन की बात आती है, तो वह भाजपा की हिन्दू पहचान को नुकसान पहुंचाती है। जब सवर्ण और ओबीसी, दलित और आदिवासी जैसे तबके खड़े होते हैं, तो उनके भीतर अपने स्थानीय लीडर तैयार होते हैं, और वे भाजपा को एक साथ हासिल होने वाले हिन्दू तबके की तरह काम नहीं करते। इसलिए जब कभी हिन्दुओं के बीच जाति और गरीबी के आधार पर अलग-अलग तबके बनेंगे, तो वे व्यापक हिन्दू समाज की धारणा को कमजोर करेंगे। इसलिए भाजपा अपनी चुनावी राजनीति के हिसाब से, हिन्दू समाज को अलग-अलग तबकों में देखना नहीं चाहती है। देश के जो प्रदेश जाति की इतनी तंग सरहदों से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें दूर बैठकर यूपी-बिहार के जातिवाद का अंदाज नहीं लग सकता है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि बिहार की यह जाति-आधारित जनगणना धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी मांग पैदा करेगी, और वहां भी खासकर ओबीसी पर आधारित पार्टियां इसकी मांग कर सकती हैं। आने वाला वक्त यह बताएगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किस तरह जाति-आधारित जनगणना के इस फैसले की पहल करके इसका राजनीतिक फायदा पाने वाले नेता बनते हैं, फिलहाल उन्होंने पहल नाम की यह जीत तो हासिल कर ही ली है।
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हिन्दुस्तान में नरेन्द्र मोदी सरकार ने हर बरस दो करोड़ नए रोजगार का वादा किया था, और हर बरस करोड़ों रोजगार कम हो रहे हैं। लेकिन रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी नौकरी नहीं होता है। निजी दुकान भी बंद हो रही है, और उसके दो कर्मचारी भी नौकरी खो रहे हैं, तो वह भी बेरोजगारी बढऩा है। ऐसे में यह खबर भी आ रही है कि पिछले छह बरस में रेलवे ने तीसरे और चौथे दर्जे के करीब पौन लाख पद खत्म कर दिए हैं, और इससे अधिक पद खत्म करने की तैयारी चल रही है। फौज में नौकरियां लगना बंद सा हो गया है, और जगह-जगह फौज में जाने की राह देख रहे नौजवान प्रदर्शन कर चुके हैं कि उनकी उम्र निकली जा रही है, और फौजी भर्ती हो नहीं रही है। वहां भी इसी तरह लाख-पचास हजार पद खाली पड़े हैं। फिर यह भी है कि एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशन तक, और केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों तक की बिक्री हो रही है, और उनके नए मालिक छंटनी भी कर रहे हैं, और वहां मशीनों से काम बढ़ रहा है। कुल मिलाकर यह है कि सरकार और पब्लिक सेक्टर पद भी खत्म करते चल रहे हैं, और अपने काम को अधिक से अधिक ठेके पर भी देते चल रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि एक समय हिन्दुस्तान में सरकारी नौकरी को जिंदगी की गारंटी मानकर चलने वाले लोग अब निराश हैं क्योंकि सरकारी नौकरियों की संभावना अब घटती चली जा रही है।
बेरोजगारों और सरकारी कर्मचारियों के नजरिये से परे होकर अगर देखें तो सरकारी अमले से जिनका वास्ता पड़ता है, वे जानते हैं कि सरकारी कार्य संस्कृति भारी निराश करने वाली और जनविरोधी है। सरकारी कर्मचारी तभी तक जनता रहते हैं जब तक वे बेरोजगार रहते हैं, और सरकारी नौकरी पाने के लिए आंदोलन करते हैं। एक बार वे सरहद के दूसरी तरफ चले जाते हैं, तो फिर उनका मिजाज राजा का हो जाता है जिसके लिए बाकी जनता प्रजा रहती है। सरकारी अमले का काम बाजार के किसी भी पैमाने के मुकाबले बड़ा कमजोर रहता है, और उसकी लागत बहुत अधिक रहती है। एक ही देश-प्रदेश में, एक ही समाज में, एक सरीखे काम के लिए तनख्वाह का इतना बड़ा फर्क सरकारी और निजी नौकरी में रहता है कि वह सरकारी को दामाद की तरह, और निजी को गुलाम की तरह दिखाता है। एक निजी नौकरी के ड्राइवर को आठ-दस हजार रूपए महीने मिलते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकारी ड्राइवर को काम आमतौर पर चौथाई होता है, और सरकार पर उसकी लागत चार गुना आती है। तनख्वाह, पेंशन, इलाज का खर्च, और बाकी चीजें मिलाकर सरकारी ड्राइवर को निजी ड्राइवर के मुकाबले चार गुना या अधिक महंगा बना देते हैं। कुछ इसी तरह का हाल अधिकतर किस्म के काम का होता है जिनमें दिखता है कि सरकारी कर्मचारी की लागत इतनी अधिक है कि लोग निजी नौकरी करने के बजाय बेरोजगार बैठे रहकर भी सरकारी नौकरी का इंतजार करते हैं।
अब अगर सरकार के नजरिये से देखें, तो वह एक कर्मचारी की जिंदगी भर की जिम्मेदारी उठाने के बजाय यह बात आसान पाती है कि वह किसी निजी एजेंसी को काम आऊटसोर्स कर दे, और फिर निजी एजेंसी सस्ते कर्मचारी रखकर उन्हें न्यूनतम वेतन देकर सरकार का वही काम सस्ते में कर दे। धीरे-धीरे देश-प्रदेश में अधिकतर विभागों में आऊटसोर्स एक पसंदीदा शब्द बनते जा रहा है, और सरकार की सीमित कमाई में यह शायद उसकी मजबूरी भी होते चल रहा है। देश के अलग-अलग प्रदेश अंधाधुंध नौकरियां बढ़ाकर अपने खर्च को इतना अधिक कर चुके हैं कि अपनी कमाई का तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सा वे वेतन, ईंधन, और दफ्तर के खर्च पर लगा दे रहे हैं, और बहुत से प्रदेशों में तो सरकार के पास विकास के लिए एक चौथाई बजट भी नहीं बचता है। सरकारों को नौकरियां देने से लोकप्रियता मिलती है, लेकिन ये नौकरियां अगर विकास और जनकल्याण के खर्च में कटौती करके दी जा रही हैं, तो इनसे नौकरी पाने वालों को तो फायदा है, लेकिन जनता का इसमें व्यापक नुकसान है। इसलिए सरकारों को उनका स्थापना व्यय कहा जाने वाला खर्च घटाना चाहिए, और ऐसा करने का एक आसान रास्ता सभी जगह यह दिखता है कि गैरजरूरी कुर्सियों पर लोगों के रिटायर होने पर उन ओहदों को खत्म कर दिया जाए। वैसे भी अब मशीनीकरण और कम्प्यूटरीकरण की वजह से उतने अधिक कर्मचारियों की जरूरत नहीं रह गई है, और आज नौकरी चाहने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि आने वाला वक्त और मुश्किल होने वाला है, और सरकारी नौकरियों के भरोसे बैठे रहना अपनी जिंदगी तबाह करने से कम कुछ नहीं होगा।
अब ऐसे में सरकार और बेरोजगार, इन दोनों के सामने जो आसान रास्ता बचता है, वह स्वरोजगार का है। लोग अपनी क्षमता और अपने पसंद के ऐसे काम देखें जिन्हें वे अधिक पूंजीनिवेश के बिना कर सकें। हो सकता है कि यह पढ़-लिखकर डिग्री लेने के बाद पकौड़ा बेचने से होने वाली बेइज्जती जैसा लगे, लेकिन अगर सरकारी नौकरियां रहेंगी ही नहीं, तो फिर अपना काम देखना ही एक रास्ता बचता है। ऐसे में सरकार को लोगों के सामने स्वरोजगार के कई विकल्प रखने चाहिए, और उनके लिए लोगों को तैयार भी करना चाहिए। अभी कुछ हफ्ते ही पहले हमने इसी जगह पर लिखा था कि सरकारी नौकरियों में पहुंचे हुए लोगों की हर आठ बरस में दुबारा परीक्षा होनी चाहिए, उनका मूल्यांकन होना चाहिए, और हर आठ बरस में सरकारी अमले में से एक चौथाई की छंटनी होनी चाहिए। सरकारी नौकरी निकम्मेपन के लिए आश्रम की तरह नहीं होनी चाहिए, और इसे लेकर लोगों के मन में बैठी हुई सुरक्षा की गारंटी खत्म होनी चाहिए। इस गरीब देश में जनता अपने पैसों पर जिन कर्मचारियों को रखती है, वे अगर उसी से पैसों की उगाही में लग जाते हैं, तो ऐसे लोगों की छंटनी होनी ही चाहिए। कुछ लोग सोशल मीडिया पर यह लिखते हैं कि सरकारी कर्मचारी काम न करने की तनख्वाह लेते हैं, और काम करने की रिश्वत। ऐसी नौबत में सरकारी नौकरियां अधिक रहना जनविरोधी काम है। सरकारी अमला कम से कम रहना चाहिए ताकि टैक्स का पैसा सीधे जनकल्याण या विकास कार्यों में लग सके। ये बातें बेरोजगारों को कड़वी लग सकती हैं, लेकिन जिन लोगों को सरकारी दफ्तरों में धक्के खाने पड़ते हैं, और जायज काम के लिए भी नाजायज रिश्वत देनी पड़ती है, वे जानते हैं कि सरकारी कुर्सियां कितनी बेरहम होती हैं। इस बेरहमी की कीमत जनता चुकाए यह बिल्कुल भी ठीक नहीं है। सरकारी अमले को सुधारने के बाकी सारे तरीकों के साथ-साथ उनकी गिनती को कम करके लोगों को स्वरोजगार के मौके जुटाकर देना किसी भी देश के लिए एक बेहतर बात होगी।
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आज दुनिया में तम्बाकू निषेध दिवस मनाया जा रहा है। तम्बाकू से सेहत पर होने वाले खतरों के प्रति जागरूकता पैदा करने की एक सालाना कोशिश इस दिन होती है, और सालाना कोशिशों का कोई असर लोगों पर होता है, इसका कोई सुबूत तो रहता नहीं, फिर भी इस दिन कुछ लिख लिया जाता है, या कहीं और कुछ चर्चा हो जाती है। बीबीसी पर आज 75 बरस की एक महिला की कहानी आई है जिसके पति धूम्रपान करते थे, और इस महिला को यह अहसास नहीं था कि उस घर की हवा में आसपास रहते हुए भी उस पर इसका असर हो रहा होगा। पति के मरने के पांच बरस बाद जाकर उन्हें इस पैसिव स्मोकिंग की वजह से कैंसर हुआ, और अब वे नाक से सांस नहीं ले पातीं, गले में किए गए एक छेद से उन्हें सांस लेनी पड़ती है। लेकिन यह हादसा अकेला नहीं है। दुनिया भर के विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि हर बरस तम्बाकू से 80 लाख मौतें हो रही हैं, जिनमें 12 लाख लोग खुद तम्बाकू का सेवन नहीं करते थे, यानी मोटेतौर पर वे पैसिव स्मोकर थे।
हिन्दुस्तान तम्बाकू उगाने और तम्बाकू की खपत करने वाला दुनिया का अव्वल देश है। जाहिर है कि यहां पर मुंह का कैंसर, फेंफड़े का कैंसर, और सांस नली का कैंसर भी बहुत अधिक है। ऐसा भी लगता है कि बहुत से गरीब लोग जांच में कैंसर न निकल जाए इस डर से बुढ़ापे में जांच नहीं करवाते कि परिवार इलाज कराते हुए बर्बाद हो जाएगा। फिर यह भी है कि पैसिव स्मोकिंग से कैंसर के खतरे का अहसास भी कम लोगों को है, इसलिए लोग अपने आसपास के लोगों को बीड़ी-सिगरेट पीने के लिए मना नहीं करते। बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने बड़े साहब या नेता की गाड़ी चलाते हुए, मालिक की सिगरेट को बर्दाश्त करने के लिए मजबूर रहते हुए पैसिव स्मोकिंग झेलते हैं, और बेकसूर मारे जाते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में सरकारों के भीतर तमाम लिखित प्रतिबंधों के बावजूद बड़े लोग दफ्तर या गाडिय़ों में सिगरेट पीते हैं, और उनके मातहत उन्हें झेलने के लिए मजबूर होते हैं। कहने के लिए सरकारी दफ्तर में सिगरेट पीने पर हजारों का जुर्माना है, लेकिन यह जुर्माना किसी पर कभी लगा हो, यह सुनाई नहीं पड़ता।
हिन्दुस्तान में तम्बाकू को लेकर एक और बहुत बड़ी दिक्कत है जो कि दुनिया के कई विकसित देशों में यहां के मुकाबले बहुत कम है। यहां तम्बाकू और सुपारी मिलाकर बनाया गया गुटखा गली-गली बिकता है, और उन राज्यों में भी धड़ल्ले से बिकता है जहां पर इस पर कानूनी रोक लगा दी गई है। दरअसल सिगरेट, तम्बाकू, और गुटखा का कारोबार इतना बड़ा और संगठित है कि वह किसी भी राज्य की सरकारी मशीनरी को भ्रष्ट बना देता है, और यह संगठित भ्रष्टाचार गुजरात जैसे ड्राई-स्टेट में एक टेलीफोन कॉल पर पहुंचने वाले शराब के हर देशी-विदेशी ब्रांड से उजागर होता है। इसलिए जहां लोगों की तम्बाकू-गुटखा की खपत रहेगी, वहां पर पुलिस और दूसरे अफसरों की मिलीभगत से इसकी तस्करी नहीं होगी, यह सोचना ही बेकार है। इसलिए जब तक देश के किसी भी प्रदेश में सिगरेट-गुटखा की बिक्री जारी रहेगी, तब तक वह पूरे देश में मिलते रहेंगे।
भारत की सडक़ों पर इन दिनों सिगरेट पीने वाले लोग कुछ कम दिखते हैं क्योंकि उतने ही दाम में वे गुटखा खरीदकर देर तक तम्बाकू का नशा पाते हैं। यह सिलसिला इतना फैला हुआ है कि लोगों को कैंसर से बचाने की कोई गुंजाइश नहीं है। एक तरीका यही दिखता है कि लोगों में कैंसर के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए, और उनकी अपनी सेहत को खतरे के साथ-साथ उन्हें यह भी समझाना जरूरी है कि कैंसर होने की हालत में पूरा परिवार किस तरह तबाह होता है, और खाते-पीते घरों से भी कामकाजी लोग बेवक्त छिन जाते हैं, परिवार की जमापूंजी इलाज में खर्च हो जाती है, और जिंदगी के रोज के संघर्ष के बीच लोग इलाज के लिए बड़े शहरों के चक्कर लगाते टूट जाते हैं। ऐसा लगता है कि सरकार और समाज दोनों को मिलकर और अलग-अलग लोगों के बीच तम्बाकू से सेहत को सीधे होने वाले खतरे, परोक्ष धूम्रपान से होने वाले खतरे, और परिवार पर पडऩे वाले आर्थिक बोझ की असल जिंदगी की कहानियां रखनी चाहिए। यह भी किया जा सकता है कि सार्वजनिक कार्यक्रमों के पहले और बाद में कुछ मिनटों के लिए ऐसे परिवारों के किसी व्यक्ति से उनकी तकलीफ बयान करवाई जाए ताकि बाकी लोगों पर उसका असर पड़ सके। दूसरी तरफ यह भी हो सकता है कि सार्वजनिक जगहों और दफ्तरों पर सिगरेट-तम्बाकू पर रोक को कड़ाई से लागू करवाने के लिए लोग पहल करें, क्योंकि तम्बाकू-प्रदूषण से मुक्त साफ हवा पाना हर किसी का बुनियादी हक है।
भारत चूंकि गरीब देश है, आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जो परिवार में कैंसर के एक मरीज को ढो नहीं सकता है। कमाने वाला सदस्य अगर कैंसर का शिकार हो जाए, तो पूरे घर के मरने की नौबत आ जाती है। इसलिए सरकार और समाज को कैंसर के इलाज के साथ-साथ उससे बचाव पर जोर देना चाहिए जिससे कि इलाज के ढांचे पर भी जोर न पड़े, और जिंदगियां बेवक्त खत्म न हो।
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कांग्रेस पार्टी के लिए राज्यसभा के नाम तय करना इस बार आसान भी नहीं था क्योंकि कुल दो राज्यों में उसकी सरकार है, और उसके अनगिनत नेता अपने-अपने राज्यों में हारे बैठे हैं जो कि कांगे्रस विधायकों वाले राज्यों से राज्यसभा पहुंचना चाहते थे। ऐसे में पार्टी ने थोड़े बहुत नेताओं को खुश करने की जो कोशिश की है उससे छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को बड़ा सदमा पहुंचा है और उसे एक किस्म से बड़ी बेइज्जती झेलनी पड़ी है। इसके पहले छत्तीसगढ़ के बीस बरस के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि किसी पार्टी की दोनों सीटों को प्रदेश के बाहर के लोगों को दे दिया जाए। इस बार छत्तीसगढ़ पर कांग्रेस पार्टी के एक पुराने नेता राजीव शुक्ला को थोपा गया है जो कि कांग्रेस से अधिक क्रिकेट संगठन की राजनीति में लगे रहते हैं, और जिन पर पहले कई तरह के गंदे आरोप लग चुके हैं। अरबपतियों के कारोबारी खेल आईपीएल के विवाद उनके नाम चढ़े हुए हैं, वे अपनी पारिवारिक हैसियत में अरबपति मीडिया कारोबारी भी माने जाते हैं, और कई बार राज्यसभा में रह चुके हैं, और अब छत्तीसगढ़ पर उन्हें लादा गया है। दूसरी तरफ बिहार के एक बाहुबली नेता पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन को भी कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ से उम्मीदवार बनाना तय किया है जो कि बिहार में कई चुनाव जीत और हार चुकी हैं, और अभी पिछली लोकसभा में वो कांग्रेस की सांसद थीं। अब कांग्रेस पप्पू यादव के नाम से जानी जाने वाली उनकी पत्नी को छत्तीसगढ़ पर लादकर क्या साबित करना चाहती है? यह राज्य जिस ओबीसी तबके के मुख्यमंत्री का है, जहां पर मुख्यमंत्री पद के चार में से तीन दावेदार ओबीसी तबके के थे, जहां पर पिछले विधानसभा चुनाव में ओबीसी तबके के साहू समाज ने कांग्रेस को थोक में विधायक दिए थे, वहां पर आज प्रदेश में कई अच्छे ओबीसी नाम खबरों में तैरते रहे, और पार्टी ने बाहर के दो लोगों को यहां भेज दिया। अभी दो दिन पहले तक कांग्रेस छत्तीसगढ़ से किसी दलित महिला का नाम तलाश रही थी, अब एकाएक दो बाहरी लोगों को यहां डाल दिया गया। राजीव शुक्ला की मानो पूरी जिंदगी ही राज्यसभा में गुजरने के लिए बनी है, और पप्पू यादव का बाहुबल उन्हें छत्तीसगढ़ तक में ताकतवर बना रहा है। कांग्रेस की ऐसी पसंद से छत्तीसगढ़ के लोगों में भारी निराशा है, और यहां की कांग्रेस पार्टी में निराशा होना तो जायज है ही। भारत की राजनीति में बड़ी या छोटी पार्टियां जिन लोगों को राज्यसभा के लिए मनोनीत करती हैं उनके पीछे देश के किस उद्योगपति का हाथ रहता है, इसे साबित करना तो नामुमकिन रहता है, लेकिन उसकी चर्चा होते रहती है, और इस बार भी वह चर्चा हो रही है।
लेकिन इस पार्टी की समझ हैरान करती है कि दो विधायकों वाले यूपी से वह राज्यसभा के तीन उम्मीदवार दूसरे राज्यों पर थोप रही है। और जो छत्तीसगढ़ और राजस्थान डेढ़ बरस बाद एक साथ चुनाव में जाएंगे, जहां पर आज कांग्रेस की सरकारें हैं, वहां पर एक भी स्थानीय नाम राज्यसभा के लिए सही नहीं समझा गया, और इन दोनों राज्यों पर दूसरे राज्यों के नेताओं को थोपा गया है। राजस्थान से तीन सदस्य राज्यसभा में जाएंगे, जिनमें पंजाब के रणदीप सिंह सुरजेवाला, महाराष्ट्र के मुकुल वासनिक, और राजस्थान के प्रमोद तिवारी के नाम हैं। यह बात भी हैरान करती है कि जिन मुकुल वासनिक की दस्तक से कांग्रेस उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हुई उन्हें अपने गृहप्रदेश महाराष्ट्र से जगह नहीं मिली, उन्हें राजस्थान भेजा गया, और उत्तरप्रदेश से इमरान प्रतापगढ़ी को महाराष्ट्र भेजा गया। ऐसा शायद इसलिए किया गया है कि राजस्थान कांग्रेस के कुछ विधायकों ने गुलाम नबी आजाद की नाम की चर्चा होने पर उनका विरोध किया था, और शायद उसे देखते हुए ही इमरान प्रतापगढ़ी को महाराष्ट्र के रास्ते राज्यसभा लाया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ ने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को छप्पर फाडक़र सीटें दी थीं, और उसी का नतीजा है कि आज राज्यसभा की दोनों सीटों के लिए कांग्रेस के उम्मीदवारों का जीतना तय है, और भाजपा ने यहां उम्मीदवार खड़े न करना तय किया है। लेकिन अपार जनसमर्थन को अगर कांग्रेस पार्टी अपना हक मानकर इस तरह की मनमानी करती है, तो राज्य के ऐसे अपमान को वोटर अगले चुनाव में अच्छी नजर से नहीं देखेंगे। कल ये नाम आने के बाद से अभी तक सोशल मीडिया पर भी छत्तीसगढ़ कांग्रेस के छत्तीसगढ़ीवाद का मजाक उड़ रहा है कि क्या यही सबसे बढिय़ा छत्तीसगढिय़ा हैं?
हमने इसके पहले भी छत्तीसगढ़ के बाहर के थोपे गए लोगों को देखा है जिनसे इस राज्य को एक धेले का भी कोई फायदा नहीं हुआ था। कांग्रेस पार्टी ने यहां से 2004 और 2010 में मोहसिना किदवई को राज्यसभा भेजा था, जिनका एक भी काम कांग्रेस पार्टी को भी याद नहीं होगा। अभी दो बरस पहले ही दिल्ली के एक बड़े वकील केटीएस तुलसी को कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा था, और दो बरस पूरे होने पर भी उनका कोई अस्तित्व छत्तीसगढ़ को नहीं मालूम है। यह नौबत इस प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत खराब है जिसने कि एक बहुत ही अभूतपूर्व ताकत हासिल की हुई है। यह मौका छत्तीसगढ़ के ऐसे लोगों को राज्यसभा में भेजने का था जो कि देश की संसद में इस प्रदेश के मुद्दों को बेहतर तरीके से उठा सकते थे। आज लोकसभा में छत्तीसगढ़ के कुल दो सांसद हैं, और पिछले लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़, राजस्थान, और मध्यप्रदेश में कुल मिलाकर 65 लोकसभा सीटों पर तीन कांग्रेस सांसद चुने गए थे, जिनमें से दो छत्तीसगढ़ से थे। ऐसे छत्तीसगढ़ को कांग्रेस ने ऐसी हिकारत से देखा है कि यहां की दोनों राज्यसभा सीटें बाहर के निहायत गैरजरूरी लोगों को दे दीं। इस बार राज्य में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के आसपास ही राज्यसभा के लायक कई अच्छे नाम थे, जिनमें उनके सलाहकारों के नाम भी थे, लेकिन इनमें से किसी को मौका नहीं मिला, और विवादों से जुड़े हुए दो नाम इस राज्य पर डाल दिए गए। छत्तीसगढ़ी वोटर यह भी सोच रहे होंगे कि क्या किसी पार्टी को इतना बहुमत देने का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर इतनी उपेक्षा झेलना भी हो सकता है? अब राज्यसभा में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से जो चार लोग रहेंगे उनमें से सिर्फ फूलोदेवी नेताम ही छत्तीसगढ़ी रहेंगी। यह राज्य ऐसे राजनीतिक फैसले का दाम चुकाएगा जब इसके हक की बात करने वाले राज्यसभा में नहीं रहेंगे।
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राजस्थान से दिल दहलाने वाली खबर आई है कि एक ही परिवार की तीन बहनों की शादी एक ही घर में हुई थी, और अब उन्होंने एक साथ अपने दो बच्चों को लेकर आत्महत्या कर ली है। ये सब बहनें 20-25 बरस के आसपास की थीं, और दोनों बच्चे बहुत छोटे थे, दो बहनें गर्भवती भी थीं। लड़कियों के मायके का कहना है कि तीनों को ससुराल में दहेज के लिए बार-बार पीटा जाता था, और तंग आकर उन्होंने सामूहिक आत्महत्या कर ली। मायके के पास अपनी जुबानी शिकायत के अलावा एक बहन का वॉट्सऐप स्टेटस है जिसमें उसने लिखा है- हम अभी जा रहे हैं, खुश रहें, हमारी मौत का कारण हमारे ससुराल वाले हैं, हर दिन मरने से बेहतर है कि एक बार में ही मर जाएं। तमाम लाशें मिल जाने के बाद इन तीनों बहनों के पतियों और ससुराल वालों के खिलाफ दहेज प्रताडऩा और आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का मामला दर्ज किया गया है, और गिरफ्तार किया गया है।
आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि आत्महत्या की कगार पर पहुंचे हुए लोगों को अगर मन हल्का करने के लिए कोई भरोसेमंद मिल जाए, तो उनकी आत्महत्या की सोच टल भी सकती है, खत्म भी हो सकती है। लेकिन यहां तो एक साथ रहती तीनों बहनें इस तरह प्रताडि़त थीं कि आत्महत्या का फैसला शायद एक-दूसरे से बात करके और पुख्ता ही हो गया। आत्महत्या के विश्लेषकों का यह मानना रहता है कि महिलाएं आत्महत्या करते हुए बच्चों को पहले इसलिए मार देती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके बाद बच्चों की जिंदगी और खराब रहेगी, और उससे अच्छा उनका मर जाना रहेगा। भारत में महिलाओं की आत्महत्या में से बहुत की वजह दहेज प्रताडऩा रहती है जिसके चलते उसके दिमाग में ससुराल के लोग बार-बार यह बात बिठाते हैं कि वह मर जाए तो ससुराल सुखी रहेगा। बहुत सी लड़कियों की जिंदगी में शादी के बाद मायके लौटने का विकल्प नहीं रहता क्योंकि हिन्दुस्तानी समाज में उसके दिमाग में यह बात बार-बार कूट-कूटकर भरी जाती है कि उसकी डोली मायके से उठी है, और उसकी अर्थी उसके ससुराल से उठनी चाहिए। भारत का कानून शादीशुदा लडक़ी को भी अपने माता-पिता की संपत्ति में हक दिलाने की बात करता है, लेकिन असल जिंदगी में यह माहौल बना दिया जाता है कि लडक़ी का हक उसके दहेज की शक्ल में दिया जा चुका है, और बची हुई दौलत भाईयों की होती है। यह सब चलते हुए बहुत सी लड़कियां ससुराल में घुट-घुटकर मर जाती हैं, आत्महत्या कर लेती हैं, या उनकी दहेज-हत्या हो जाती है, लेकिन मां-बाप के घर लौटने की नहीं सोच पातीं।
एक दूसरी बड़ी वजह शादीशुदा लड़कियों की आत्महत्या की यह भी है कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं रहती हैं, उनकी नौकरी या कामकाज ससुराल ही छुड़वा देता है, या मां-बाप लगने ही नहीं देते हैं, और ससुराली प्रताडऩा के बीच भी उसके पास वहां से बाहर निकलकर अपने पैरों पर खड़े होने और जिंदगी गुजारने का विकल्प नहीं रहता है। जो लड़कियां शादी के बाद भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहती हैं, शायद उनकी आत्महत्या की नौबत कम आती होगी। इसलिए ऐसी हत्या या आत्महत्या की खबरें पढ़ते हुए भारतीय समाज में लडक़ी और उसके मां-बाप को चाहिए कि वे उसे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर ही उसकी शादी करें। जिस राजस्थान से ऐसी सामूहिक आत्महत्या की खबर आई है, वहां पर अभी भी बाल विवाह का चलन है, और एक समाचार बताता है कि इस आत्महत्या में शामिल तीनों बहनों की शादी बचपन में ही तीनों भाईयों से हो गई थी, और कुछ बड़ी होने के बाद वे अपने पतियों के पास रहने आई थीं। बाल विवाह हिन्दुस्तान में एक बड़ी वजह है कि लडक़ी न शादी के पहले आत्मनिर्भर हो पाती, और न शादी के बाद। बाल विवाह के खिलाफ कानून कड़ा है, लेकिन इसका प्रचलन खत्म ही नहीं हो रहा है, और ऐसे बाल विवाह लडक़ी के व्यक्तित्व का कोई विकास नहीं होने देते, उसकी पूरी जिंदगी ससुराल में गुलाम कैदी की तरह बना देते हैं।
यह मामला इतना बड़ा है जिसमें तीन सगी बहनें दो बच्चों के साथ आत्महत्या कर रही हैं, और दो की कोख में अजन्मे बच्चे पल भी रहे थे। इस तरह सात जिंदगियां एक साथ खत्म हुई हैं। इस मामले से भारतीय समाज की आंखें खुलनी चाहिए, और अलग-अलग जात-बिरादरी के भीतर इस मिसाल को लेकर चर्चा होनी चाहिए कि लड़कियों की बदहाली कैसे घटाई जा सकती है, और कैसे उसे आत्मनिर्भर और सुरक्षित बनाया जा सकता है। एक अकेली आत्महत्या शायद लोगों को जगाने के लिए काफी न होती, लेकिन अभी यह मामला जितना भयानक है उससे समाज की व्यापक सोच में बदलाव आना चाहिए।
ऐसा भी नहीं हो सकता कि इस परिवार के और लोगों को, या पड़ोस के लोगों को इतनी पारिवारिक हिंसा की जानकारी न हुई हो। अब या तो वे सीधी दखल देना नहीं चाहते होंगे, या फिर पुलिस पर उनका भरोसा नहीं होगा कि उससे शिकायत करके उनका नाम गोपनीय रह सकेगा। एक पूरे परिवार की ऐसी नौबत आने के बाद भी उसे बचाने के लिए कुछ न करना, आसपास के लोगों की बेरूखी भी बताता है, और बाकी समाज में इस पर भी चर्चा होनी चाहिए कि समाज की सामूहिक जिम्मेदारी ऐसे में क्या बनती है। आखिर में हम इसी बात को दुहराना चाहेंगे कि देश के कानून के मुताबिक मां-बाप को लडक़ी को उसका हक देना चाहिए, और अगर ऐसा हक मिलने का भरोसा रहेगा, तो बहुत सी लड़कियां आत्महत्या करने के बजाय मायके लौटने की सोच सकेंगी।
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अमरीका में नागरिकों के निजी हथियार सदियों से बहस का सामान रहे हैं। अठारहवीं सदी में अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने के लिए नागरिकों ने भी अपने हथियारों सहित लड़ाई में हिस्सा लिया था, और बाद में जब अमरीका का संविधान बना तो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की फेहरिस्त में निजी हथियार रखना दूसरे ही नंबर पर था। तब से बहस भी चल रही है कि क्या नागरिकों को इतनी आसानी से हथियार खरीदने की छूट रहनी चाहिए, लेकिन हथियार निर्माताओं की तगड़ी लॉबी कभी इस छूट के खिलाफ कोई कानून बनने नहीं देती। अभी एक पखवाड़े के भीतर अमरीका में दो बड़ी शूटिंग हुईं, एक में दस काले लोगों को मार डाला गया, और दूसरी में बीस स्कूली बच्चों की हत्या कर दी गई। इसके बाद एक बार फिर यह बहस चल रही है कि अमरीका में हथियारों को लेकर कुछ नए प्रतिबंध लगाए जाएं, और जैसा कि हमेशा से होते आया है, वहां की रिपब्लिकन पार्टी किसी भी नियंत्रण का विरोध कर रही है क्योंकि इस पार्टी का हाल यह है कि कोई इसके सांसद बनने के लिए पार्टी का उम्मीदवार बनना चाहे, तो उस उम्मीदवारी के लिए भी उसे गन लॉबी से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। इसलिए देश की एक सबसे बड़ी पार्टी खुलकर हथियारों की आजादी की हिमायती है, और ऐसे में वहां की संसद से नागरिकों के बुनियादी अधिकार पर किसी किस्म के संशोधन की कोई गुंजाइश किसी को दिखती नहीं है।
लेकिन अमरीका के इस घरेलू खतरे की बारीकियों से परे इस मुद्दे पर एक व्यापक नजर डालें तो यह दिखता है कि अमरीका में अभी चालीस करोड़ या उससे अधिक बंदूकें हैं, और इनमें से अधिकतर नागरिकों के पास हैं जिन्हें अठारह बरस का होने पर एक से अधिक हमलावर हथियार खरीदने की आजादी है। 2018 के आंकड़े बताते हैं कि वहां सौ नागरिकों के बीच 120 हथियार हैं, मतलब यह कि बहुत से लोगों के पास एक से अधिक हथियार भी हैं। अभी स्कूल में बच्चों को मार डालने वाले नौजवान ने कुछ समय पहले ही अपने अठारहवें जन्मदिन पर अपने को दो बंदूकें तोहफे में दी थीं, जो कि अमरीका में हमलावरों की सबसे पसंदीदा बंदूक है। अब जब वहां के फिक्रमंद मां-बाप में से कुछ लोग हथियारों पर कुछ रोक की बात कर रहे हैं, तो एक बार फिर हथियार उद्योग लोगों को सुझा रहा है कि वह तो स्कूल के शिक्षकों को हथियार बंद करने की बात बहुत समय से करते आया है। लेकिन कुछ समझदार लोगों का यह मानना है कि ऐसी कोई वजहें नहीं हैं जिनसे यह मान लिया जाए कि शिक्षकों के हथियार बंद होने से स्कूलों में हिंसा घट जाएगी। दूसरी तरफ हथियारों पर किसी भी रोक के खिलाफ जो लोग हैं उनका तर्क यह है कि हत्याएं हथियार नहीं करते हैं, उनके पीछे के दिमाग करते हैं, और सरकार को मानसिक रूप से बीमार या हिंसक ऐसे लोगों को इलाज की जरूरत है, और जब कभी वे कोई धमकी या चेतावनी पोस्ट करते हैं तो उस पर नजर रखने की जरूरत भी है ताकि उन्हें कोई सामूहिक हिंसा करने से रोका जा सके।
आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का एक मकसद यह भी है कि क्या अमरीका को सचमुच ही कम हथियारों से अधिक सुरक्षित बनाया जा सकता है? क्या यह तर्क जायज है कि चालीस करोड़ हथियारों वाले देश में पिछले बीस बरस में कुल सौ सामूहिक हत्याएं हुई हैं। इसका एक मतलब यह भी है कि हथियार रखने वाले अधिकतर लोगों ने कोई सामूहिक हत्याएं नहीं की हैं, बल्कि कोई भी हत्याएं नहीं की हैं। लेकिन एक दूसरा आंकड़ा बताता है कि 2020 में ही 45 हजार अमरीकियों की मौत पिस्तौल-बंदूक की गोलियों से हुई हैं, चाहे वे आत्महत्या हुई हों, या हत्याएं। मतलब यह है कि सामूहिक हत्या की घटनाओं को देखें तो ऐसा लगता है कि हथियार के मुकाबले उसके पीछे के दिल-दिमाग की अधिक बड़ी भूमिका हिंसक फैसलों में रही हैं। अगर हथियार रखने से ही लोग हिंसा पर उतारू हो जाते तो चालीस करोड़ हथियारों वाले, या सौ की आबादी पर 120 हथियारों वाले देश में कोई जिंदा ही नहीं बचते। अब अमरीकी बुनियादी अधिकार की बात को अगर अलग रखें, तो हिन्दुस्तान जैसे देश की मिसाल सामने है जहां गिने-चुने नागरिकों के पास ही हथियार रहते हैं क्योंकि एक-एक लायसेंस के लिए लोगों को बरसों तक सरकार में संघर्ष करना पड़ता है। और हिन्दुस्तान में हथियारों की हिंसा में ऐसी कोई कमी भी नहीं है, रोजाना दर्जनों लोग हथियारों की गोलियों से मारे जाते हैं। यह एक अलग बात है कि अमरीका की तरह की सामूहिक हत्याएं यहां पर नहीं होती हैं, और दिलचस्प बात तो यह है कि अमरीका की तरह के जो दूसरे पश्चिमी देश हैं उनमें भी कहीं पर भी ऐसी हत्याएं नहीं होती हैं, सिर्फ अमरीका में ही होती हैं।
ऐसे हत्यारे आमतौर पर किसी नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ रहते हैं, और उनमें से कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं जिनकी कुछ बुरी यादें अपने स्कूल को लेकर रही हैं, और वे उसका हिसाब चुकता करने के लिए वहां जाकर सामूहिक हत्या कर आए हैं। लोगों के पास बड़ी संख्या में हथियार रहना अच्छी बात नहीं है क्योंकि उससे दूसरे लोग भी मारे जाते हैं, खुद भी मरते हैं, और लंबी-चौड़ी सजा भी होती है। लेकिन सामूहिक हत्या को लेकर अगर हथियारों की कमी की बात की जाए, तो अमरीका में कभी भी ऐसा तो हो नहीं सकता कि निजी हथियारों पर पूरी रोक लग जाए। उनमें अगर कमी या कटौती होगी, हथियार लेने के पहले लोगों का मानसिक परीक्षण होगा, तो चालीस करोड़ लोगों का मानसिक परीक्षण, या उनके सामाजिक बर्ताव पर निगरानी किसी भी सरकार की क्षमता के बाहर का काम होगा। हम निजी हथियारों के खिलाफ हैं, क्योंकि उनका इस्तेमाल आत्मरक्षा के लिए तो बहुत ही कम होता है, अपने आपको या किसी दूसरे बेकसूर को मारने के लिए अधिक होता है। लेकिन अमरीका में आज जिस तर्क के साथ, सामूहिक हत्याओं को रोकने के लिए निजी हथियारों पर किसी किस्म की रोक की बात की जा रही है, वह ऐसी सामूहिक हत्याओं का इलाज नहीं दिख रही है। सामूहिक हत्याओं के पीछे की वजहों को तलाशना भी जरूरी होगा। और इस मुद्दे पर चर्चा का एक मकसद यह भी है कि दुनिया में जहां कहीं जटिल समस्याएं रहती हैं, वहां पर जाहिर तौर पर समस्या की जड़ जो दिखती है, उसकी असली जड़ शायद उससे अलग भी हो सकती है। यह ध्यान हमेशा रखना चाहिए।
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दिल्ली के एक बड़े अखबार, इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के बाद दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ आईएएस जोड़े का तबादला दिल्ली से दूर लद्दाख और अरूणाचल कर दिया गया है। अखबार की खबर थी कि एक बड़े सरकारी स्टेडियम, त्यागराज स्टेडियम में ये अफसर शाम को अपना कुत्ता घुमाने ले जाते थे, और इस वजह से वहां खेल की प्रैक्टिस कर रहे सभी सैकड़ों खिलाडिय़ों को सात बजे के पहले स्टेडियम से बाहर निकाल दिया जाता था। नौकरशाही की बददिमागी की यह एक आम मिसाल है, और देश भर में जगह-जगह आईएएस और आईपीएस अफसरों की ऐसी तरह-तरह की मनमानी चलती रहती है, जिस पर बड़े वजनदार सत्तारूढ़ राजनेताओं का भी कोई बस नहीं चलता। अखिल भारतीय सेवाओं के अफसर सत्ता की तमाम ताकत का बुरी तरह इस्तेमाल करने के लिए बदनाम रहते हैं, और जाहिर तौर पर सरकारी नियमों के खिलाफ होने पर भी वे तकरीबन हर मामले में बचे ही रहते हैं।
एक वक्त इन नौकरियों को देश की सेवा करने का एक मौका माना जाता था, लेकिन वक्त ने यह साबित किया कि यही स्थाई शासक हैं, और निर्वाचित नेता तो पांच-पांच बरस में आते-जाते रहते हैं। दूसरी बात देश-प्रदेश में यह भी देखने मिलती है कि सरकार चला रहे मंत्रियों में खुद में समझ की इतनी कमी रहती है कि वे अपने मातहत आने वाले बड़े अफसरों के राय-मशविरे के मोहताज रहते हैं, नीतियां बनाने में भी नेताओं को अफसरों की मदद लगती है। इसके अलावा एक बड़ी बात जिसने हिन्दुस्तान में सरकारी कामकाज को तबाह किया है, वह नेताओं की भ्रष्टाचार की चाहत है, जिसके चलते हुए वे अपने अफसरों के साथ गिरोहबंदी में लग जाते हैं, और पार्टनरशिप फर्म की तरह साझा कमाई में हिस्सा बांटा होने लगता है। जब ऐसी नौबत आ जाती है तो अफसरशाही और बेलगाम हो जाती है क्योंकि रिश्वत और कमीशन खाने-कमाने के तरीके उन्हें नेताओं से ज्यादा आते हैं।
हिन्दुस्तान में सत्ता के बेजा इस्तेमाल का हाल इतना खराब है कि देश की राजधानी में बड़े से सरकारी स्टेडियम में अपने-अपने खेल की प्रैक्टिस कर रहे सैकड़ों खिलाडिय़ों को सात बजे के पहले हर हाल में बाहर करके अफसर परिवार अपना कुत्ता घुमाता है, और आधी-अधूरी प्रैक्टिस छोडक़र खिलाडिय़ों को चले जाना पड़ता है। ऐसा राज्यों में भी अधिकतर जगहों पर होता है जहां अफसर पूरी तरह बेलगाम रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में जहां गरीब आदिवासी बसते हैं, वहां पर एक आईएफएस ने अपने सरकारी बंगले में सरकारी पैसे से स्वीमिंग पूल बनवा लिया था, जिसका खूब हंगामा हुआ, जांच का भी नाटक किया गया, लेकिन अफसर का कुछ भी नहीं बिगड़ा। प्रदेश के अधिकतर बड़े अफसर एक की जगह आधा-आधा दर्जन तक गाडिय़ां रखते हैं, बड़े बंगलों में दर्जनों सिपाही-कर्मचारी बेगारी करते हैं, और ऐसे हर छोटे कर्मचारी का सरकार पर बहुत बड़ा बोझ रहता है। अधिकतर बड़े अफसर अपनी तनख्वाह से कई गुना अधिक का बोझ सरकार पर डालते हैं, और बंगलों के रख-रखाव के अलावा कहीं सिपाही और कर्मचारी सब्जियां उगाने का काम करते हैं, कहीं कुत्ता घुमाते हैं, और कहीं बच्चों को खिलाते हैं।
केन्द्र सरकार ने दो आईएएस अफसरों की इस तरह सजा वाली पोस्टिंग करके एक अच्छी मिसाल कायम की है, और राज्यों को भी इससे सीखना चाहिए। अखिल भारतीय सेवाओं का पूरा ढांचा पूरे देश में एक जैसी कार्य संस्कृति के लिए भी बना है, और वह बीते दशकों में धीरे-धीरे धराशाही होते रहा। बहुत से जानकार लोगों का यह भी मानना है कि यह प्रशासनिक ढांचा अंग्रेजों के वक्त काले हिन्दुस्तानियों पर राज करने के लिए तो ठीक था, लेकिन अब यह काउंटर प्रोडक्टिव हो गया है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम नौकरशाही की सबसे ताकतवर कुर्सी, जिला कलेक्टरी का नाम बदलने की वकालत करते आए हैं। अब कलेक्टर कुछ कलेक्ट नहीं करते हैं, बल्कि राज्य की और केन्द्र की कमाई को जिलों में खर्च करने का काम करते हैं। इसलिए कलेक्टर या जिलाधीश पदनाम को बदलकर जिला जनसेवक नाम रखना चाहिए ताकि नाम की तख्ती से उनकी सोच पर भी फर्क पड़ सके। आज उनका रूतबा इस नाम और उसके साथ जुड़ी हुई ताकत की वजह से बने रहता है, और इस सामंती ढांचे को तोडऩे की जरूरत है। जब कलेक्टरों का नाम जिला जनसेवक रहेगा, तो वे अस्पताल में बीमारों को देखते हुए उनके पलंग पर अपने जूते वाले पैर रखना भूल जाएंगे। लोगों को यह अहसास लगातार कराने की जरूरत रहती है कि उनका काम क्या है और उनकी जिम्मेदारी क्या है। राज्य सरकारें अपने स्तर पर भी अफसरों के पदनाम बदल सकती हैं, और इसमें देर नहीं करनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल लगातार गांव-गांव का दौरा कर रहे हैं, और उनके भी देखने में आया होगा कि कई जगहों पर कलेक्टर बहुत बददिमागी से काम करते हैं। इसलिए इस एक कुर्सी के नाम और काम में इतनी सारी ताकत बनाए रखना सही नहीं है। दिल्ली में एक अखबार की रिपोर्टिंग से इस आईएएस जोड़े की बददिमागी सामने आई है, लेकिन देश भर में इस बददिमागी को खत्म करने की जरूरत है।
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हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया नफरत और मोहब्बत के बीच जीता है। और इनके बीच भी वह मोटेतौर पर सिरों पर ही जीता है, इन दोनों के बीच का हिस्सा अमूमन खाली रहता है। इसलिए अभी जब ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सैकड़ों छात्र-छात्राओं के सवालों के बीच राहुल गांधी अकेले जवाब देते बैठे थे, तो भी उनके जवाबों को लेकर हिन्दुस्तान में उनसे नफरत करने वाले लोग टूट पड़े हैं। राहुल गांधी के सामने कोई चुनिंदा पत्रकार पहले से तय सवालों की लिस्ट लेकर नहीं बैठा था, बल्कि सभी किस्म के असुविधाजनक सवाल करने वाले छात्र-छात्राओं की वहां भीड़ थी, और वे छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य जंगल के कटने को लेकर भी राहुल गांधी को घेर रहे थे, जो कि आज कांग्रेस पार्टी के लिए एक बड़ी असुविधा का सवाल है क्योंकि इससे उसकी दो राज्य सरकारें जुड़ी हुई हैं, और कांग्रेस के पास आज यही दो राज्य हैं भी। सवाल-जवाब के ऐसे खुले दौर में जब राहुल गांधी को व्यक्तिगत त्रासदी से जुड़े हुए सवालों का भी सामना करना पड़ा, और ऐसे एक सवाल के जवाब में जब वो कुछ देर चुप रहे, तो उस चुप्पी का भी हिन्दुस्तान में उनसे नफरत करने वाली भीड़ ने मजाक उड़ाया है। एक विरोधी विचारधारा के नेता का मजाक उड़ाने में कुछ भी अटपटा नहीं है, लेकिन जब व्यक्तिगत और पारिवारिक त्रासदी से जुड़ी बातों पर किसी को जवाब देने में कुछ वक्त लगता है, तो उस तकलीफ को भी न समझकर, उसकी खिल्ली उड़ाना इंसानियत के उसी घटिया दर्जे का सुबूत है, जिसके नमूने आज हिन्दुस्तानी सडक़ों पर झंडे-डंडे लिए बहुतायत से दिखते हैं।
राहुल गांधी से पूछा गया था कि वे भारतीय समाज में हिंसा और अहिंसा के बीच उलझन को किस तरह देखते हैं? सवाल पूछने वाली शिक्षिका ने यह भी जिक्र किया था कि राहुल की पीढ़ी में हिंसा का एक अहम रोल रहा है, और उनके मामले में यह व्यक्तिगत भी है, अभी-अभी उनके पिता, राजीव गांधी, की बरसी गुजरी है। इस सवाल के जवाब में राहुल कुछ पल चुप रहे, और फिर उन्होंने कहा- ‘मुझे लगता है, जो शब्द दिमाग में आता है, वह क्षमा करना है। हालांकि वह सबसे सटीक शब्द नहीं है।’ इसके बाद राहुल चुप हो गए, और कुछ लोगों ने इस पर तालियां बजाईं, राहुल ने यह भी कहा कि वो अभी भी कुछ सोच रहे हैं। उन्होंने इसके बाद अपने पिता के निधन का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी जिंदगी में वह सबसे बड़ी सीख देने वाला अनुभव था, और कहा कि इस घटना ने उन्हें वो चीजें भी सिखाई हैं जो कि वे किसी भी और परिस्थिति में कभी नहीं सीख सकते थे।
राहुल गांधी से किया गया सवाल उनके पिता की आतंकी हत्या से जुड़ा हुआ था, और यह भी याद रखने की जरूरत है कि बहुत कम उम्र में ही उन्होंने अपनी दादी के गोलियों से छलनी शरीर को देखा था, जिसे उन अंगरक्षकों ने ही छलनी किया था जिनके साथ राहुल उसी घर में क्रिकेट भी खेला करता था। हिन्दुस्तान में और ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने अपने बचपन से जवानी के बीच अपनी दादी और पिता दोनों की आतंकी हत्या देखी होगी? ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने परिवार के दो लोगों को इस तरह खोने के अलावा पिता के नाना का आजादी की लड़़ाई में बरसों जेल में रहना जाना होगा? और ऐसे राहुल से जब सवाल-जवाब के एक खुले दौर में उनके पिता की मौत के जिक्र के साथ हिंसा और अहिंसा पर सवाल किया जाए, और जवाब देते हुए वे कुछ चुप रहें, और उस चुप्पी का मखौल बनाया जाए, तो खिल्ली उड़ाने वाले ऐसे लोगों को कुछ देर शांत बैठकर अपने परिवार में ऐसी त्रासदी की कल्पना करना चाहिए, और फिर खुद के बारे में सोचना चाहिए कि क्या इनके लिए उसके बाद ऐसे किसी सवाल का जवाब देना आसान रहेगा? अपने पिता के हत्यारों को माफ कर देना आसान रहेगा?
आज हिन्दुस्तान में जिस तरह लोग एक धर्म के लिए, एक विचारधारा के लिए, और एक नेता के लिए बुनियादी मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों को भी जिस तरह नाली में फेंक चुके हैं, उससे यह हैरानी होती है कि क्या यह देश सचमुच महान है? क्या ये महानता के सुबूत हैं कि लोग देश की बड़ी त्रासदी रहने वाली शहादतों का नुकसान झेलने वाले परिवारों के त्रासद पलों की खिल्ली उड़ाना भी अपनी जिम्मेदारी मानते हैं? जिस देश की संस्कृति महानता के कई पैमाने गढ़ती थी, आज वहां हैवानियत कही जाने वाली सोच इस तरह, इस हद तक सिर चढक़र बोल रही है कि लोग देश के शहीदों का मजाक उड़ा रहे हैं, उनके परिवारों की खिल्ली उड़ा रहे हैं, और शहादत की वजह बनी हुई हिंसा की चर्चा को लेकर ही अपनी ऐसी हिंसक सोच दिखा रहे हैं। यह सिलसिला इस देश के जिम्मेदार, सरोकारी, और लोकतांत्रिक लोगों को डूब मरने जैसी हीनभावना देता है कि अपनी जिंदगी में इस लोकतंत्र और इस समाज का ऐसा हिंसक संस्करण देखना भी बाकी था?
आज हिन्दुस्तान में विचारहीन जुबानी हिंसा में पेशेवर अंदाज में जुटे हुए भाड़े के ट्वीटरों या नफरत के आधार पर बिना भुगतान समर्पित भाव से काम करने वाले ट्वीटरों का सैलाब आया हुआ है। यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि इनमें मजदूर कितने हैं, और स्वयंसेवक कितने हैं। लेकिन आज की यह फौज आने वाली पीढ़ी को घर-दुकान, कारोबार से परे सबसे बड़ी विरासत नफरत की देकर जा रही है, और आने वाली कई पीढिय़ां इसकी फसल काटने को मजबूर रहेंगी। एक ऐसा नौजवान या अधेड़, जो कि हर किसी के हर सवाल का जवाब देने मौजूद रहता है, जो सार्वजनिक मंचों पर बागी तेवरों वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के सवालों से भी मुंह नहीं चुराता है, उसका मखौल कौन लोग उड़ा रहे हैं, उन्हें आईने में खुद को भी देखना चाहिए।
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