विचार/लेख
फणींद्र दाहाल
भारतीय जनता पार्टी के विदेश मामलों के प्रमुख विजय चौथाईवाले हाल ही में नेपाल के सुदूर पश्चिमी हिस्से में एक सम्मेलन में भाग लेने पहुंचे और काठमांडू में उच्च स्तरीय बैठकें करने के बाद दिल्ली लौट गए।
वो काठमांडू में मानसखंड सम्मेलन में विशेष अतिथि के रूप में हिस्सा लेने पहुंचे थे।
उन्होंने कहा कि नेपाल के प्रधानमंत्री समेत सत्तारूढ़ और प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं के साथ उनकी मुलाकात हुई।
उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि सभी नेपाली नेताओं ने मजबूत नेपाल-भारत संबंधों और पार्टी स्तर पर और अधिक संपर्क पर जोर दिया।
किससे मिले
विजय ने ट्वीट किया कि उन्होंने चुनाव के बाद सत्ता संभालने पर प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रचंड को बधाई दी।
मुख्य विपक्षी नेता केपी ओली से मुलाकात के बारे में उन्होंने लिखा, ‘उन्होंने मुझे नेपाल की राजनीति और कई अन्य संबंधित मुद्दों के बारे में दिलचस्प बातें बताईं।’
विजय के साथ चर्चा के दौरान ओली एक गेरुआ रंग की शर्ट पहने नजऱ आ रहे हैं। उनके साथ में यूएमएल नेता बिष्णु रिमाल भी थे। बीबीसी ने जब इस मीटिंग के बारे में पूछा तो रिमाल ने जानकारी देने से इंकार कर दिया।
बीजेपी नेता ने पूर्व प्रधानमंत्रियों, शेर बहादुर देउबा और माधव कुमार नेपाल के साथ-साथ उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से भी मुलाकात की।
हालाँकि वो राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल से मिलना चाहते थे लेकिन पौडेल के अचानक बीमार पडऩे से ये कार्यक्रम स्थगित हो गया।
प्रधानमंत्री प्रचंड अगले महीने के अंत तक भारत आने की तैयारी कर रहे हैं। भारतीय सत्ताधारी दल के विदेश विभाग के प्रमुख जब नेपाल पहुंचे तो ऐसी तैयारी चल रही थी।
इससे पहले नेपाल भारत की संयुक्त बैठक में भाग लेने आए भारतीय विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने चुनाव के बाद गठबंधन टूटने के विषय में दिलचस्पी दिखाई।
चुनाव के बाद सबसे बड़ा दल नेपाली कांग्रेस विपक्ष में पहुंच गया था। दूसरा बड़ा दल यूएमएल के समर्थन से प्रचंड प्रधानमंत्री बन गए।
क्वात्रा के लौटने के बाद नेपाल में नए समीकरण भी भंग हो गए। अब कांग्रेस-माओवादी समीकरण सत्ता में हैं और कई विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली के लिए यह समीकरण अच्छा है।
नेपाली नेताओं से कैसे बातचीत हो
हाल के दिनों में अक्सर काठमांडू आने वाले बीजेपी नेताओं में विजय चौथाईवाले एक हैं।
नेपाल और भारत की राजनीतिक पार्टी के नेताओं के बीच व्यक्तिगत स्तर पर संबंध और मुलाकात कोई नई बात नहीं है।
नेपाली नेताओं ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया, और 1951 से नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम में दिल्ली की गहरी रुचि किसी न किसी रूप में दिखी है।
उस समय माओवादी विद्रोहियों और सात पार्टियों के बीच 12 सूत्री समझौता कराने में दिल्ली की खुली भूमिका रही है, जिसने देश में लोकतंत्र स्थापित करने का रास्ता साफ किया।
नेपाल भारत रिश्ते पर बारीक नजर रखने वाले ‘देशसंचार डॉट कॉम’ के संपादक युवराज घिमिरे कहते हैं कि वैसे तो नेपाल और भारत के नेताओं के बीच बातचीत सामान्य है लेकिन विदेशी मामलों की चर्चा निजी नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘विदेशी राजनयिकों या मेहमानों से विदेशी मामलों में साफ तौर पर बात की जानी चाहिए। यह सरकारी नीति और देश के सम्मान को दिखाता है। उनके साथ उठाए जाने वाले एजेंडे की जानकारी सरकार को भी होनी चाहिए।
घिमिरे कहते हैं कि बीजेपी और नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच संबंधों के विस्तार में कई सैद्धांतिक सवाल के जवाब नहीं हैं।
उन्होंने कहा, ‘चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जब उनसे बातचीत करती है तो नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों को लगता है कि ये उनके अनुकूल है। भाजपा भारत की सत्ताधारी पार्टी है तो नेपाली कांग्रेस नेपाल की सत्ताधारी पार्टी है। लेकिन यह टिकाऊ नहीं है क्योंकि वे यह नहीं देखते कि सिद्धांत क्या है और उनमें कितनी समानता है।’
घिमिरे याद दिलाते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और प्रचंड ने अपनी पिछली भारत यात्राओं के दौरान प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात नहीं की थी।
वो कहते हैं, ‘दूसरों द्वारा निर्देशित बैठकें और राजनयिक संबंध नेपाल के लिए असहज करने वाला है।’
नेपाल भारत संबंध कौन तय करता है?
घिमिरे के मुताबिक, भाजपा के विदेश मामलों के प्रभारी के रूप में विजय चौथाईवाले के प्रधानमंत्री मोदी के साथ अच्छे संबंध हैं।
वह मोदी के गृह राज्य गुजरात से हैं। उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का विश्वासपात्र माना जाता है।
विजय को ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम का श्रेय भी दिया जाता है, जो मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान बहुत चर्चित हुआ था।
विदेश मंत्रालय ही विदेश नीति तय करता है, लेकिन देश की राजनीतिक और सुरक्षा एजेंसियां भी कुछ महत्वपूर्ण नीतियों के निर्धारण में प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
घिमिरे कहते हैं, ‘विदेश मंत्री की भूमिका अब प्रतीकात्मक हो गई है। असल फैसले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के कार्यालय द्वारा किए जाते हैं।’
नक्शा विवाद को लेकर नेपाल-भारत के संबंधों में कड़वाहट आने पर भारत ने अपनी खुफिया एजेंसी के प्रमुख को काठमांडू भेजा था।
इसके बाद नेपाल और भारत के बीच बातचीत धीरे-धीरे सामान्य हुई।
भारत की खुफिया एजेंसी के प्रमुख की वापसी के बाद, विजय का नेपाल दौरा हुआ। उस समय जब ओली सरकार थी और ये दौरा विवादों में घिर गया।
दो साल पहले ये दौरा सीपीएन के तत्कालीन महासचिव बिष्णु पौडेल के निमंत्रण पर हुआ था।
उस समय वे अन्य पार्टियों के नेताओं से मिले थे और प्रचंड और माधव कुमार नेपाल से नहीं मिले।ड्ड
उस समय पार्टी के नेताओं ने कहा था कि तत्कालीन सीपीएन का विदेश विभाग भी इस दौरे से अनजान था।
घिमिरे कहते हैं कि चूंकि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के लिए सीधे नेपाल आकर राजनीतिक बैठकें करना आसान नहीं है, इसलिए राजनीतिक चेहरों को भेजा जाएगा, लेकिन ऐसी बैठकों के गहरे मायने हैं।
हाल के महीनों में, भाजपा ने विभिन्न देशों के साथ पार्टी स्तर की बातचीत बढ़ा दी है।
‘द हिंदू’ अखबार में छपी एक ख़बर के मुताबिक, वह ‘बीजेपी को जानो’ नाम से एक कार्यक्रम चला रहे हैं, जिसके तहत विभिन्न देशों के नेताओं और राजनयिक मिशनों के प्रमुखों को आमंत्रित किया गया है और मुलाकात की गई।
पिछले साल माओवादी केंद्र के अध्यक्ष प्रचंड ने इसी तरह के एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया था।
भारतीय मीडिया के अनुसार, नेताओं और राजनयिक मिशनों के प्रमुखों के साथ बातचीत में स्थापना के बाद से भाजपा के इतिहास और मोदी सरकार की उपलब्धियों पर चर्चा होगी।
इसके अलावा कहा जा रहा है कि दोनों देशों के बीच जनता के स्तर पर संबंधों को और पार्टी स्तर पर संबंध मजबूत करने पर जोर दिया जाएगा।
नेपाल की सत्ता से घनिष्ठ संबंध
विजय उन नेताओं में से एक हैं जिन्होंने हाल के दिनों में नेपाल के राजनीतिक दलों के साथ करीबी संबंध बनाए हैं।
कार्यक्रम की मुख्य अतिथि नेपाल की पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी व कांग्रेस नेता आरजू देउबा थीं, जो विशिष्ट अतिथि के रूप में धनगढ़ी आई थीं।
जब देउबा प्रधानमंत्री थे तो विजय को राखी बांधते आरजू की तस्वीर सार्वजनिक हुई थी।
विश्व हिंदू महासंघ की उपाध्यक्ष ज्योत्सना सऊद उन लोगों में थीं जिन्होंने प्रदेश सरकार के सहयोग से सुदूर पश्चिम विश्वविद्यालय में सम्मेलन आयोजित करने में मदद की।
ज्योत्सना कांग्रेस नेता एनपी सऊद की पत्नी हैं, जिन्हें हाल ही में विदेश मंत्री नियुक्त किया गया था।
उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि सम्मेलन नेपाल-भारत संबंधों को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से मजबूत करेगा और धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देगा।
कार्यक्रम प्रबंधन के संयोजक संदीप राणा ने कहा कि विजय की बैठक अलग थी और धनगढ़ी के कार्यक्रम का उद्देश्य सांस्कृतिक और धार्मिक पर्यटन के आदान-प्रदान को बढ़ाना है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘सुदूर पश्चिम से कुमाऊं तक के हिस्से को पौराणिक काल से मानसखंड के नाम से जाना जाता रहा है। उस सम्मेलन में सुदूर पश्चिम और उत्तराखण्ड की साझी संस्कृति और देवी-देवताओं के बारे में और सगोत्री से मिलते-जुलते नामों की चर्चा हुई थी।’
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड सरकार ने कुमाऊं को मानसखंड कॉरिडोर के रूप में विकसित किया है और कहा कि इसे नेपाल से जोडक़र पर्यटन के विस्तार की व्यापक संभावना है।
कुछ विश्लेषकों ने ऐसे प्रयासों को ‘सॉफ्ट डिप्लोमेसी’ कहा है।
हालाँकि, नेपाल और भारत के बीच नेपाल के सुदूर पश्चिमी क्षेत्र और महाकाली नदी के आसपास के सीमा विवाद अभी तक हल नहीं हुए हैं। (bbc.com)
सुशीला सिंह
भारत के सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने वाली याचिका पर अभी सुनवाई चल रही है।
इस सुनवाई के पहले दिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पर्सनल लॉ पर विचार किए बिना वो ये देखेगा कि क्या विशेष विवाह कानून के ज़रिए समलैंगिकों को अधिकार दिए जा सकते हैं या नहीं।
वहीं याचिकाकर्ताओं की तरफ से वकील मुकुल रोहतगी का कहना था कि समुदाय को मूलभूत अधिकारों के तहत शादी का अधिकार दिया जाना चाहिए, जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 में दी गई है।
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की बात की जाए, तो इसके जरिए अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाह को पंजीकृत किया जाता है और मान्यता दी जाती है।
मीनाक्षी सान्याल समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘सेफो फार इक्ववेलिटी’ (स्ड्डश्चश्चद्धश द्घशह्म् श्वह्नह्वड्डद्यद्बह्ल4) की सह-संस्थापक हैं।
उनका कहना है कि वे इसे समलैंगिकों की शादी नहीं, बल्कि ‘मैरिज इक्वलिटी राइटस’ बोलती हैं। अगर शादी करने का अधिकार है, तो ये सबके लिए होना चाहिए। वे विशेष विवाह अधिनियम के 30 दिनों के नोटिस वाले प्रावधान पर चिंता जाहिर करती है।
कोलकाता से बीबीसी के साथ बातचीत में वे कहती हैं, ‘ये मेरी और मेरे पार्टनर की बात नहीं हैं। मैं पिछले दो दशक से एक्टिविस्ट रही हूँ और हमने इतना कुछ अनुभव किया है। अब चाहे किसी का जेंडर और सेक्शुअल ओरिेएंटेशन (किसी के प्रति भावनात्मक, रोमांटिक चाहत होना) कुछ भी हो, हमें ये अधिकार मिलना चाहिए।’
वे सुप्रीम कोर्ट में विशेष विवाह अधिनियम पर की गई टिप्पणी पर कहती हैं, ‘क्या इस अधिनियम के 30 दिन के नोटिस पीरियड को हटाया जाएगा? हमने हाल ही में रुत्रक्चञ्जक्त+ समुदायों के अनुभवों को सुना था। उन्हें घर के अंदर अपनी पहचान को लेकर कई तरह की हिंसा और दुव्र्यवहार झेलना पड़ता है। ऐसे में अगर समुदाय के लोग शादी करना चाहते हैं और 30 दिन का नोटिस लगा दिया जाता है और अगर इस दौरान परिवार को पता चल जाता है, तो उनका व्यवहार क्या होगा आप ख़ुद सोचिए।’
हालाँकि गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने 30 दिन के नोटिस पीरियड को ‘पितृसत्तात्मक’ निजता का हनन और ऐसे कपल की सुरक्षा को लेकर ख़तरा बताया हैं।
-क्या है विशेष विवाह अधिनियम
दरअसल विशेष विवाह अधिनियम की धारा 5 के मुताबिक, शादी करने वाले व्यक्ति को सूचना देनी होती है और विवाह अधिकारी के कार्यालय के बाहर एक विशिष्ट स्थान पर शादी के संबंध में नोटिस लगाना होता है।
इस शादी का नोटिस लगने के 30 दिनों के भीतर अगर कोई आपत्ति नहीं करता है, तो विवाह करवा दिया जाता है।
वकील प्रतीक श्रीवास्तव कहते हैं कि विशेष विवाह अधिनियम जेंडर न्यूट्रल नहीं है। इसका सेक्शन 4 सी शादी के लिए लडक़ी की उम्र 18 साल और लडक़े की उम्र 21 साल की बात करता है। साथ ही इसका सेक्शन 24 और सेक्शन 25 बताता है कि अगर सेक्शन 4 के तहत शादी नहीं होती, तो वो अमान्य हो जाती है।
‘हमसफर ट्रस्ट’ के संस्थापक रह चुके अशोक काक कहते हैं, ‘विशेष विवाह अधिनियम में केवल सहमति देने वाले दो भारतीय नागरिकों की बात होनी चाहिए, जो बालिग हैं और वो एक दूसरे से शादी कर सकते हैं। वहीं इसमें मनोचिकित्सकों से ये सर्टिफिकेट लिया जा सकता है कि वे शादी करने के लिए फि़ट हैं।’
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान दलील दी गई कि कानूनी दृष्टि में शादी का अर्थ एक बायोलॉजिकल पुरुष और बायोलॉजिकल महिला के बीच का रिश्ता रहा है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि महिला और पुरुष में भेद करने की कोई पुख़्ता अवधारणा नहीं है।
वहीं जानकार कहते हैं कि कोई भी संबंध जो कानूनी है, वहाँ अधिकार होते ही हैं।
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वकील वीना गोडा मुंबई से फोन पर बताती हैं, ''शादी एक ऐसा रिश्ता है, जिसे कानूनी मान्यता दी गई है। जो एक रिश्ते को कानूनी दायरे में बांध देता है और फिर एक दंपती या स्पाउस (लीगल पार्टनर) के तौर पर स्वीकार्य हो जाते हैं, जो मिलकर एक परिवार बनाते हैं और इसमें सबके अधिकार होते हैं।’
किस तरह के अधिकार मिलेंगे?
जानकारों का मानना है कि अगर समलैंगिक विवाह को मान्यता मिलती है, तो जिन-जिन कागज़ात में स्पाउस का उल्लेख है, वहाँ उन्हें पूर्ण अधिकार मिलेंगे।
वकील वीना गोडा बताती हैं कि परिवार कई तरह के अधिकारों का लाभार्थी बनाता है, जैसे- पेंशन, इंश्योरेंस, ग्रैच्यूटी, मेडिकल क्लेम आदि।
वकील प्रतीक श्रीवास्तव रुत्रक्चञ्जक्त+ समुदायों के मुद्दों को उठाते रहते है।
वे वीना की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि इंश्योरेंस, ग्रैच्यूटी में नॉमिनी में स्पाउस या लीगल एयर ( ख़ून के रिश्ते) का विकल्प दिया जाता है।
वहीं समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति दे दी जाती है, तो उन्हें पेंशन का भी अधिकार मिलेगा, क्योंकि वहाँ नॉमिनी का विकल्प दिया गया है।
अशोक काक बताते हैं कि वित्तीय मामलों में समुदाय को मदद तो मिलेगी, लेकिन कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
वे कहते हैं, ‘अगर कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाता है, तो उस व्यक्ति का परिवार, पार्टनर को अस्पताल आने नहीं देता। वहीं समलैंगिक किराए पर घर लेने की कोशिश करते हैं, तो दिक्कत आती है।
भारत में रुत्रक्चञ्जक्त+समुदाय की संख्या करोड़ों में है। वहीं साल 2012 में सरकारी आँकड़ों में इस समुदाय की आबादी 25 लाख बताई गई है।
साल 2020 में आई प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट की मानें, तो कई देशों में समलैंगिकता को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है। भारत की बात की जाए, तो साल 2014 में ये स्वीकार्यता 15 प्रतिशत थी। वो बढक़र अब 37 प्रतिशत हो गई है।
वकील सोनाली कड़वासरा कहती हैं कि समलैंगिकों को शादी की मान्यता दी जाती है, तो कई कानूनों में भी संशोधन करने होंगे। क्योंकि भारत में कई कानून में दंपती का जिक्र आता है। ऐसे में कई चुनौतियाँ आ सकती हैं।
वे बताती हैं कि अगर समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति मिल जाती है, तो एक तरीका ये हो सकता है कि शादी के रजिस्ट्रेशन के समय वे (समलैंगिक जोड़ा) बता सकते हैं कि पारिवारिक स्वरूप में कौन क्या (पति कौन, पत्नी कौन) जिम्मेदारी निभाएगा।
यानी उन्हें कहा जा सकता है कि वो अपने रिश्ते में ख़ुद के बारे में बताएँ।
क्या चुनौतियाँ पेश आ सकती हैं?
सोनाली कड़वासरा के अनुसार, ‘अगर घरेलू हिंसा का मामला होता है तो हर महिला को ऐसी हिंसा के खिलाफ शिकायत करने का अधिकार है। ऐसे में अगर समलैंगिक विवाह में दोनों महिलाएँ हैं, तो दोनों में से कौन घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करा सकेगा? और अगर दोनों पुरुषों ने विवाह किया है, तो ऐसा मामला आने पर क्या दोनों ही शिकायत दर्ज करा पाएँगे या नहीं? ऐसे में ये सवाल अहम हो जाता है।’
भारत में महिलाओं को घर में होने वाली हिंसा से बचाने के लिए महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005 लाया गया था।
इसके बाद, दूसरे मुद्दों की बात की जाए, तो अगर समलैंगिक, शादी के बाद किसी कारणवश तलाक लेने का फैसला करते हैं, तो भरण पोषण के लिए कौन जिम्मेदार होगा?
भरण पोषण का अधिकार
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर (ष्टह्म्क्कष्ट) के सेक्शन 125 के अनुसार, एक शादीशुदा संबंध में पत्नी को पति से भरण पोषण के लिए सहायता लेने का अधिकार दिया गया है।
वहीं कानून ये कहता है कि किसी परिवार में बेटे से माता-पिता, शादी के बाद पत्नी या पिता से बच्चे भरण पोषण की मांग कर सकते हैं, लेकिन समलैंगिक विवाह में दोनों में से किसे ये सहायता लेने का अधिकार होगा और कौन इसे देगा या दोनों ही एक-दूसरे से मांग कर सकते हैं?
गोद लेने का अधिकार
वकील वीना गोडा और सोनाली कड़वासरा के अनुसार, ‘क़ानून एकल महिला या पुरुष को बच्चा गोद लेने का अधिकार देता है।
वहीं क़ानून ये भी कहता है कि गोद ली जाने वाली बच्ची और पुरुष में 21 साल का फर्क़ होना चाहिए।’
दोनों वकील चुनौती के बारे में बताते हुए कहती हैं, ‘ऐसे में ये देखना होगा कि अगर दोनों समलैंगिक महिला हैं और बच्ची गोद लेना चाहती हैं या समलैंगिक पुरुष लडक़ा गोद लेना चाहते हैं, तो क्या ये अधिकार दिया जाएगा? साथ ही इस परिवार में पिता और माँ की भूमिका में कौन होगा?’
कानून ये कहता है कि कोई दंपती (पति-पत्नी) दो साल तक स्थायी शादी में हैं, तो उन्हें बच्चा गोद लेने का अधिकार मिल सकता है।
वहीं नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (हृष्टक्कष्टक्र) ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये बच्चों के कल्याण के खिलाफ होगा और उनके विकास पर इसका प्रभाव पड़ेगा।
बच्चे की कस्टडी
कानून के अनुसार, पाँच साल से कम उम्र के बच्चे की कस्टडी का अधिकार माँ को मिलता है। ऐसे में अगर समलैंगिक शादी में तलाक़ का मामला सामने आता है, तो किसे बच्चे की कस्टडी लेने का अधिकार मिलेगा।
कानून में बच्चे का वेलफ़ेयर या कल्याण सर्वोपरि माना गया है। ऐसे में इस शादी में किसके अधिकार को ज़्यादा तरजीह दी जाएगी।
संपत्ति का अधिकार
कानून में परिवार की परिभाषा बताई गई है। किसी व्यक्ति का पैतृक और पिता द्वारा अर्जित संपत्ति में अधिकार होता है।
अगर अभिभावक अपनी संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करते हैं, तो व्यक्ति को कोर्ट में इस फ़ैसले को चुनौती देनी होगी। अगर वसीयत दस्तावेज़ नहीं होता है, तो उस सूरत में भारतीय विरासत क़ानून या भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की मदद ली जाती है।
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के मुताबिक, मृत्यु का प्रमाण पत्र जारी होने के बाद संपत्ति का क़ानूनी उत्तराधिकारियों के बीच बराबर-बराबर हिस्से में बँटवारा होता है। (bbc.com)
रतन लाल डांगी (आईपीएस)
क्या आप भी अपनी पूरी क्षमता से बढक़र तैयारी करने के बाद भी अपने लक्ष्य को न पाने से हताश / निराश हो जाते हैं ? तैयारी छोडऩे का मन करता है ? क्या ऐसा भाव भी मन में आने लगता है कि अब बहुत हो गया है ? मुझे अपने लक्ष्य को भूल जाना चाहिए । तो थोड़ा रुकिए मैँ आपको उस हताशा निराश से बाहर आने का उपाय बताता हूँ । हो सकता है वो आपके लिए उपयोगी हो । एक बार जरूर इस पर नजर डालिए।
इस दुनिया में केवल आप अकेले नहीं है जिसके साथ ऐसा हो रहा हैं । जो कोई भी बड़ा लक्ष्य लेकर चलता उन सबके साथ ऐसा होता ही है । न केवल हम लोगों के साथ बल्कि इस संसार के महान व्यक्तित्व के धनी लोगों के साथ भी ऐसा हुआ है। वो भी अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं होने से निराश होकर उसे त्यागने का मन बना चुके थे । लेकिन एक छोटी सी घटना से सबक लेकर पुन: अपने लक्ष्य को पाने में जुट गए थे और अपना लक्ष्य पाकर ही रहे । इसलिए हम सबको मन में आने वाले हर ऐसे भाव को हराकर आगे बढऩा चाहिए।
भगवान बुद्ध आत्मज्ञान की खोज में तपस्या कर रहे थे। उनके मन में विभिन्न प्रकार के प्रश्न उमड़ रहे थे। उन्हें प्रश्नों का उत्तर चाहिए था लेकिन अनेक प्रयासों के बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिली। वे आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या करने लगे। अनेक कष्ट सहन किए, कई स्थानों की यात्राएं कीं परंतु जो समाधान उन्हें चाहिए था, वह उन्हें मिला नहीं।
एक दिन उनके मन में कुछ निराशा का संचार हुआ। सोचने लगे, धन, माया, मोह और संसार की समस्त वस्तुओं का भी त्याग कर दिया। फिर भी आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। क्या मैं कभी आत्मज्ञान प्राप्त कर सकूंगा ? मुझे आगे क्या करना चाहिए ?
इसी प्रकार के अनेक प्रश्न बुद्ध के मन में उठ रहे थे। तपस्या में सफलता की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी और इधर बुद्ध ने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। वे उदास मन से इन्हीं प्रश्नों पर मंथन कर रहे थे।
इसी दौरान उन्हें प्यास लगी। वे अपने आसन से उठे और जल पीने के लिए सरोवर के पास गए। वहां उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा।
एक गिलहरी मुंह में कोई फल लिए सरोवर के पास आई। फल उससे छूटकर सरोवर में गिर गया। गिलहरी ने देखा, फल पानी की गहराई में जा रहा है।
गिलहरी ने पानी में छलांग लगी दी। उसने अपना शरीर पानी मे भिगोया और बाहर आ गई। बाहर आकर उसने अपने शरीर पर लगा पानी झाड़ दिया और पुन: सरोवर में कूद गई।
उसने यह क्रम जारी रखा। बुद्ध उसे देख रहे थे लेकिन गिलहरी इस बात से अनजान थी। वह लगातार अपने काम में जुटी रही। बुद्ध सोचने लगे, ये कैसी गिलहरी है ! सरोवर का जल यह कभी नहीं सुखा सकेगी लेकिन इसने हिम्मत नहीं हारी। यह पूरी शक्ति लगाकर सरोवर को खाली करने में जुटी है।
अचानक बुद्ध के मन में एक विचार का उदय हुआ- यह तो गिलहरी है, फिर भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में जुटी है। मैं तो मनुष्य हूं। आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो मन में निराशा के भाव आने लगे। मैं पुन: तपस्या में जुट जाऊंगा।
इस प्रकार महात्मा बुद्ध ने गिलहरी से भी शिक्षा प्राप्त की और तपस्या में जुट गए। एक दिन उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और वे भगवान बुद्ध हो गए।
इसलिए हमको भी अपने आस पास होने वाली कुछ घटनाएं एक हिम्मत हौसला दे सकती है बस हमको चौकन्ना रहना चाहिए । यदि बार बार प्रयास के बाद भी सफलता न मिले तो भी निराश नहीं होना चाहिए और पुन: प्रयास करना चाहिए । एक दिन निश्चित ही अपना लक्ष्य मिलेगा ।
-ध्रुव गुप्त
'परम सत्ता ने अच्छे-बुरे में फर्क़ करने वाली ज्ञानेन्द्रियां और बुराईयों से बचने की तमीज़ हमें दी है। सफलता उसे मिलेगी जिसने अपनी आत्मा को पवित्र और विस्तृत कर लिया। वह जिसने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ दबा दी उसके हिस्से में असफलता के सिवा और कुछ नहीं आने वाला।'
'विपरीत परिस्थितियों में भी उम्मीद मत खोएं और दुखी न हों। यह दुनिया आपका विश्राम-स्थल नहीं, परीक्षण-स्थल है।'
'रहमदिली ईमान की निशानी है। जिसमें रहम नहीं उसमें ईमान नहीं। जो दूसरे के प्रति रहम दिल होते हैं अल्लाह भी उनकी मदद करता है।'
'जिसने किसी बेगुनाह इंसान को मार डाला उसने मानो पूरी इंसानियत का क़त्ल कर दिया। जिसने किसी बेगुनाह की जान बचा ली उसने पूरी इंसानियत को बचा लिया।'
'तुम तब तक जन्नत में प्रवेश नहीं कर सकोगे जब तक ईमान नहीं लाओगे और तुम्हारा ईमान तबतक पूरा नहीं होगा जब तक तुम परस्पर प्यार न करोगे।'
'अल्लाह ने आप में से हरएक के लिए कानून और उस पर अमल करने के तरीक़े बनाए हैं। वह सबको एक ही समुदाय बना सकता था, लेकिन वह यह देखना चाहता है कि आप अलग विचारों के साथ कैसे रह पाते हैं। इसलिए आप सिर्फ अच्छा काम करने में एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करें।'
पवित्र कुरआन के उपरोक्त संदेशों के साथ आतंक, धर्मोन्माद और ग़ैरबराबरी से आक्रान्त इस वक़्त में आपसी भाईचारे, प्रेम और मानवीयता से भरी एक बेहतर दुनिया की दुआओं सहित देशवासियों को ईद की मुबारक़बाद !
तस्वीर फ़रीद आलम के फ़ेसबुक पेज से
सुमित सिंह
साल था 2005। इलाहाबाद में एक रेलवे स्टेशन है रामबाग। वहां से सुबह एक पैसेंजर ट्रेन चलती है बनारस के मंडुआडीह के लिए। ट्रेन की हालत ये थी कि सुबह साढ़े छह सात तक निकली ट्रेन मंडुआडीह पहुँचने में शाम के छह बजा देती थी। फऱ भी खचाखच भरी रहती थी। सारी बोगियाँ जनरल। सीट, पहले आओ पहले पाओ। गर्मी के दिन थे और मैं मंडुआडीह जाने कि लिए उस दिन ट्रेन में बैठा था। ट्रेन भरनी शुरू हो गई थी कि एक परिवार हमारे सामने वाली बर्थ पर आकर जम गया। सात आठ लोगों के परिवार की कमान जिन साहब के हाथ में थी वो रुआब वाले आदमी थे। तीन चार नौजवान उन्हें ट्रेन में बिठाने आए थे। आते ही उन्होंने सबका सामान उलट पलट कर इन साहब का सामान जमाना शुरू किया। कऱीब साठ पैंसठ की उम्र वाले इन साहब की क़द काठी अच्छी थी और उस पर कऱीने से बांधा गया साफ़ा, कलफ़ लगा कुर्ता और सदरी वग़ैरह। साथ में एक हम-उम्र महिला थीं और छोटे-बड़े बच्चे। कुर्ते की जेब में नोकिया तैंतीस दस मॉडल मोबाइल क्लिप किया हुआ था। तब इनकमिंग का भी पैसा लगता था।
सामान तो सामान, इनके पास बाक़ायदा अपनी सुराही थी मिट्टी की। जिसे सीट पर बैठे एक बच्चे को उठाकर रखवाया इन्होंने।
आने के दस मिनट के भीतर ही इन्होंने जेब से मोबाइल निकाल कर पहला फोन लगाया ‘भाई’ को। फोन को स्पीकर पर डालकर पूरे कूपे में घूम-घूमकर बार-बार सामने वाले से कहा कि ‘भाई’ को बता देना कि गाड़ी मिल गई, बैठ गए सब लोग। फोन काटने के बाद इन्होंने मुनादी पीट दी कि ये अतीक अहमद उर्फ ‘भाई’ के मौसिया ससुर लगते हैं, उन्हीं के यहाँ बात हो रही थी। उनकी बातें सुनकर लग भी रहा था कि फ़ोन जिसने भी उठाया था वो अतीक का करीबी ही था क्योंकि उसे अतीक अहमद के सारे कार्यक्रम वगैरह मालूम थे, उसने ये भी कहा था कि भाई को उनकी खैरियत बता देंगे।
अब दुनिया की सबसे रद्दी ट्रेन के एक जनरल कूपे में अतीक का इतना करीबी रिश्तेदार क्यों ही आकर बैठा, ये पूरी बोगी के लिए ही रहस्य था। तब अतीक की तूती बोलती थी इलाहाबाद में। बच्चा-बच्चा उसकी कहानियां जानता-सुनता था।
ट्रेन रामबाग से खुलकर दारागंज जाती, उसके बाद झूँसी, फिर रामनाथपुर, सैदाबाद, हंडिया वग़ैरह
वो नासपिटी ट्रेन उस दिन चल पड़ी टाइम से। ऐसा होता नहीं था। आधे से ज्यादा लोगों की ट्रेन छूट ही गई होगी। लेकिन दबी जुबान में लोग इसे अतीक का जलवा बताने लगे। चमत्कार मामूली आदमी के मत्थे मढ़ नहीं सकते।
उस ट्रेन में आमतौर पर टिकट चेक करने वाले आते नहीं थे, जब तक बनारस ना आ जाए। लेकिन उस दिन आधे घंटे दूर झूँसी में ही दनादन टिकट चेकर चढ़ पड़े। क्रक्कस्न के जवान रेलवे स्टाफ़ के साथ खड़े थे। मालूम चला कि पैसेंजर ट्रेन चेक करने का सालाना जलसा आज ही होना है। हमारी बोगी में भी टिकट चेकर आया। जिनके पास टिकट नहीं था उन्हें ‘हिसाब-किताब’ के लिए बाहर उतारा जाने लगा। टीसी के कोट पर नेमप्लेट लगी थी राजीव रंजन। आज पूरे दिन यही कार्यक्रम चलना था तो टीसी जल्दी में भी था। लेकिन उतनी जल्दी में भी नहीं था जितना हमारे सामने बैठे साहब ने समझ लिया था। टिकट मांगने पर उन्होंने कोई हरकत ही नहीं की। जब टीसी ने दोबारा टिकट मांगा तो हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि ‘आगे बढ़ो यार’। अब टीसी बमका। बोला ‘गाना गाकर पैसा मांग रहा हूं क्या, कि बोल रहे हो आगे बढ़ो, टिकट दिखाओ बाहर अधिकारी खड़े हैं’
इस पर उन्होंने जवाब दिया कि ‘बोल दो हाजी साहब बैठे हैं’
टीसी ने खिडक़ी से आवाज़ देकर सीनियर टीसी को बुलाया और बताया कि ये अर्दब दे रहे हैं। सीनियर टीसी के कोट पर सरफराज एस। नाम की नेमप्लेट लगी थी। देखकर हाजी साहब मुस्कुराए। पानदान निकालकर पान बनाने लगे। जूनियर टीसी आगे बढ़ गया।
सीनियर टीसी ने कड़ी आवाज़ में टिकट दिखाने को या टिकट ना हो तो बनवा लेने को कहा। हाजी साहब बोले कि ‘टिकट तो पूरी ट्रेन का बनवा दें हम लेकिन घर के बुजुर्गों से बात करने की ये तमीज है आपकी?’
टीसी सुबह सुबह काम पर आकर वैसे ही झल्लाया हुआ था उसने कहा कि ‘हमारे घर के बुजुर्ग बिना टिकट ट्रेन में चढऩे की बदतमीजी नहीं करते हैं आपकी तरह’
अब हाजी साहब ने खेला अतीक कार्ड। बताया कि भाई घर के ही हैं। टीसी को इतना सब्र था नहीं, उसने हाजी साहब का हाथ पकडक़र उन्हें खींच कर सीट से उठा दिया और सामने खड़ा करके कहा ‘तो गोली मरवा दोगे? कि हमारी जगह जमीन कब्जा करवा दोगे?’
इतने के लिए हाजी साहब तैयार नहीं थे, झेंप कर मोबाइल निकाला और किसी को फोन मिलाकर कहा कि ‘यार ये टीटी से बात करो ये बदमाशी कर रहा है हम ही से’
टीसी ने सेकेंड भर के अंदर मोबाइल पकड़ा और फ़ोन काटकर मोबाइल ट्रेन की खिडक़ी से बाहर फेंक दिया। हाजी साहब अरे-अरे कहके बाहर लपके।
इसके बाद शुरू हुई बहसा बहसी। हाजी साहब इस बात पर बमके कि ‘अतीक के बाप को हाथ कैसे लगा दिया।’ टीसी ने जवाब दिया कि ‘अभी कायदे से हाथ लगाया कहाँ है, अभी तो चालान करके भेजूँगा जेल।’
आखऱिी पत्तों के तौर पर हाजी साहब ने कहा कि ‘तुम जैसों की वजह से क़ौम की हँसी उड़ती है।’ जवाब आया कि ‘हँसी उन जैसों की वजह से उड़ती है जो खुद तो करोड़ों की गाड़ी में चलते हैं लेकिन उनका बाप सौ रुपए का टिकट नहीं खऱीद सकता।’
उसी रोज़ मैंने पहली बार सरफराज एस। के मुंह से सुना कि मुसल्लम ईमान का मतलब मुसलमान होता है, और चोरी से सफर करने वाले को कम अज कम खुद को मुसलमान तो नहीं ही कहना चाहिए।
बात की बात में हाजी साहब ने धमकाते हुए कहा कि ‘एक फोन पर गाड़ी घेर कर ‘उनके लोग’ खड़े हो जाएंगे, तब अपनी जिम्मेदारी ख़ुद लेना।’
इस पर सरफराज एस। ने छाती ठोंक के कहा (वाक़ई ऐसे ही कहा था) कि ‘यहीं खड़ा हूँ, मरवा दो, लेकिन मैं मरा तो घरवाली को इज्जत से पेंशन मिलेगी, बच्चे पढ़ते रहेंगे, और जिनके नाम पर गुंडई बता रहे हो उनकी मौत पर कोई पानी नहीं पूछेगा।’
आखिरकार इस पूरे तमाशे के बीच अब तक चुप रहीं हाजी साहब के साथ की महिला ने एक बच्चे को भेजकर सीनियर टीसी सरफराज एस। को बुलवाया, अपने पास से रुपए दिए और टिकट बनाने को बोला।
हाजी साहब ने ऐलान किया कि ‘ना टिकट बनेगा और ना हम उतरेंगे गाड़ी से, बात भाई की इज्जत की है।’
पर्ची लिखना शुरू कर चुका टीसी महिला की तरफ मुड़ा, उन्होंने इशारा किया कि तुम बनाओ टिकट।
हाजी साहब खिडक़ी के सामने रूठकर बेंच पर जा बैठे।
एक लडक़े को भेजकर महिला ने बुलवाया तो कहने लगे कि हम नहीं जाएंगे अब कहीं।
महिला ने लडक़े को वापस बुलाया, सामने रखी सुराही हाजी साहब के सुपुर्द करवाई और तसल्ली से बैठ गईं। इतनी हील हुज्जत के बाद ट्रेन खुली। आखऱिी बार जब देखा तो बेंच पर सुराही के बगल में बैठे हाजी साहब चायवाले को रोककर चाय लेते दिखे। सरफऱाज एस। वापिस बोगी में चढ़ लिए।
ये वही साल था जब अतीक अहमद राजू पाल मर्डर केस में आरोपी बनकर ख़बरों में था, लेकिन ये वो साल भी था जब एक टिकट चेकर सरफऱाज एस। ने पर्याप्त ख़तरा दिखते हुए भी अपने काम में कोताही नहीं बरती। नजऱ फेर लेने से उसका कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन वो ईमान के साथ खड़ा था और तन के खड़ा था।
आप तय कीजिए कि रीढ़ का धर्म क्या होता है?
दिलनवाज पाशा
पिछले तीन दिनों से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। इसे कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक रणनीति में बदलाव के रूप में भी देखा जा सकता है।
राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया है(@RAHULGANDHI)
कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2010-11 में देश की आर्थिक-सामाजिक और जातिगत गणना करवाई थी लेकिन इसके डाटा को जारी नहीं किया गया था।
अब कांग्रेस ने नेता राहुल गांधी ने कर्नाटक के कोलार की एक रैली में पिछड़ा वर्ग, दलितों और आदिवासियों के विकास के लिए तीन बिंदुओं पर आधारित एजेंडा घोषित किया और ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा दिया।
राहुल गांधी ने 2011 जातिगत जनगणना के डाटा को सार्वजनिक करने और आरक्षण में 50 फीसदी की सीमा को समाप्त करने की मांग भी की।
राहुल गांधी ने पिछड़ा वर्ग, दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण देने की मांग भी की। जाति जनसंख्या आधारित आरक्षण की मांग सबसे पहले 1980 के दशक में कांशीराम ने की थी।
इसके एक दिन बाद ही 17 अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर जातिगत जनगणना कराने के लिए तुरंत हस्तक्षेप करने की मांग की।
अपने पत्र में खडग़े ने कहा है कि जातिगत जनगणना के डाटा के वैज्ञानिक वर्गीकरण से सरकार की कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाों को लागू करने में मदद मिलेगी। इससे पहले उदयपुर में मई 2022 में हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर में भी पार्टी नेताओं ने जातिगत जनगणना का समर्थन किया था। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी के जातिगत जनगणना की मांग करने के बाद उन पर हमला किया है।
टाईम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के एक नेता ने जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी और यूपीए के शासन का उदाहरण देते हुए तर्क दिया है कि कांग्रेस पार्टी स्वयं जातिगत जनगणना के ख़िलाफ़ रही है।
हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने अधिकारिक तौर पर जातिगत जनगणना के मुद्दे पर कुछ स्पष्ट नहीं किया है। बीबीसी ने इस मुद्दे पर भाजपा प्रवक्ताओं से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में दिए जवाब में कहा कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है।
जातिगत जनगणना का इतिहास
दिल्ली में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ राहुल गांधी (@RAHULGANDHI)
भारत में जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल के दौरान साल 1951 में चर्चा की गई थी। हालांकि तब जातिगत जनगणना नहीं हुई थी।
सिर्फ कांग्रेस ही नहीं मंडल विचारधारा से प्रभावित देश के अन्य राजनीतिक दल भी जातिगत जनगणना की मांग को पिछले एक साल से जोर-शोर से उठा रहे हैं।
बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व और जदयू, कांग्रेस और राजद के गठबंधन वाली सरकार जाति आधारित जनगणना करा भी रही है। बीजेपी ने भी बिहार में जातिगत जनगणना के प्रस्ताव का समर्थन किया है। बिहार विधानमंडल में इसके पक्ष में फऱवरी 2019 और 2020 में भी एक प्रस्ताव पारित हुआ था। तब राज्य में बीजेपी नीतीश कुमार के साथ सरकार में शामिल थी।
वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रही हैं। दक्षिण भारत के कई राजनीतिक दल भी जातिगत जनगणना का समर्थन करते हैं।
साल 2024 के आम चुनावों से पहले विपक्ष अभी एकजुट नहीं हुआ है लेकिन जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सभी अहम विपक्षी पार्टियां एक प्लेटफॉर्म पर आ गई हैं। माना जा सकता है कि जातिगत जनगणना का मुद्दा विपक्षी पार्टियों को करीब भी ला सकता है।
राहुल गांधी ने जातिगत आरक्षण का मुद्दा क्यों उठाया है इस सवाल का जवाब देते हुए कांग्रेस के मीडिया प्रभारी जयराम रमेश ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा है, ‘भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कई सिविल सोसायटी समूहों ने राहुल गांधी के सामने जातिगत जनगणना का मुद्दा रखा था। कांग्रेस उसी मांग को उठा रही है।’
‘एक जरूरी मुद्दा’
पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर कहते हैं कि बीजेपी जाति की बात करती है लेकिन जातिगत जनगणना से डरती है (ALI ANWAR)
जातिगत मुद्दों पर लंबे समय तक काम कर चुके और संसद में कई बार जातिगत जनगणना का मुद्दा उठा चुके वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व राज्य सभा सदस्य अली अनवर मानते हैं कि राहुल गांधी के बयान से जातिगत जनगणना के मुद्दे को बल मिला है।
अली अनवर कहते हैं, ‘जातिगत जनगणना एक बहुत जरूरी मुद्दा है। भारत में धार्मिक आधार पर तो गिनती होती है। ब्रितानी शासकों ने ये नीति लागू की थी। लेकिन जातिगत आधार पर गिनती नहीं हुई है। बहुजन आबादी की गिनती होगी तो उसे हिस्सा मिलेगा। ये अच्छी बात है कि राहुल गांधी ने भी जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया है। इससे ये मुद्दा और मजबूत होगा।’
भारतीय जनता पार्टी भी जातिगत न्याय की बात करती है और जाति के आधार पर मंत्री बनाए जाते रहे हैं। लेकिन अली अनवर भारतीय जनता पार्टी पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि अगर बीजेपी जातिगत राजनीति कर सकती है तो उसे जातिगत जनगणना का भी समर्थन करना चाहिए।
अली अनवर कहते हैं, ‘बीजेपी भी अब जात-पात करती है, जाति के नाम पर मुख्यमंत्री और मंत्री बनाए जाते हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में अपने नए मंत्रियों का उनके वर्ग के साथ परिचय कराया, ऐसा किसी ने भी पहले नहीं किया था। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आप को पिछड़ा बताते हैं, बिहार में तो उन्होंने अपने आप को अति पिछड़ा बताया था। ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता है कि बीजेपी जाति की राजनीति नहीं करती है, अगर बीजेपी जाति की राजनीति कर सकती है तो उसे जातिगत जनगणना भी जरूर करानी चाहिए।’
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने के लिए जातिगत जनगणना जरूरी
लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने 2011 की जनगणना से पहले जातिगत जनगणना की मांग की थी(TWITTER/AKHILESH YADAV)
2011 में हुई जनगणना के डाटा को जारी ना किए जाने की वजह बताते हुए अली अनवर कहते हैं, ‘18 दिसंबर 2009 को मैंने स्वयं संसद में जातिगत जनगणना का सवाल उठाया था। हम कुछ कार्यकर्ताओं और प्रोफेसर शरद यादव से इस मुद्दे पर मिले, उन्होंने लालू यादव और मुलायम सिंह यादव से इस विषय पर बात की और बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने भी इसका समर्थन किया। 2011 की जनगणना में सरकार ने गणना कराई तो लेकिन अप्रशिक्षित लोगों से ये गणना कराई गई और उसका नतीजा कुछ नहीं निकला।’
वहीं भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि कांग्रेस शासनकाल में जातिगत जनगणना के आंकड़े इसलिए जारी नहीं हुए क्योंकि पार्टी के भीतर ही इसका विरोध था। पार्टी के सूत्रों ने नाम न लेते हुए टाइम्स ऑफ़ इंडिया से ये बात कही है।
अली अनवर कहते हैं कि देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से लडऩे के लिए भी जातिगत जनगणना जरूरी है। अली अनवर पसमांदा मुसलिम समाज के समन्वयक भी हैं।
अली अनवर कहते हैं, ‘देश में बढ़ रहे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने के लिए भी जातिगत जनगणना जरूरी है। जातिगत जनगणना से ये भी पता चलेगा कि सरकारी नौकरियों में किन वर्गों के लोग हैं। इसके अलावा देश में डॉक्टर, इंजीनियर जैसे पेशों में भी लोगों की जातिगत भागीदारी का पता चलेगा। देश में सामाजिक न्याय को मजबूत करने के लिए जातिगत जनगणना ज़रूरी है।’
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता और जातिगत मुद्दों पर अकसर अपनी राय रखने वाले राजकुमार भाटी भी यही राय रखते हैं।
भाटी कहते हैं, ‘अगर हम सामाजिक न्याय में विश्वास रखते हैं, जो देश का संविधान भी कहता है, तो हमें ये पता होना चाहिए कि देश में किस वर्ग की कितनी संख्या है।’
भाटी मानते हैं कि जातिगत जनगणना होने से सभी वर्गों को अपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण भी मिलेगा।
भाटी कहते हैं, ‘1977 में जनता पार्टी की सरकार ने मंडल आयोग बनाया था, 1990 के दशक में वीपी सिंह की सरकार ने इसे लागू किया। तब कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इसके खिलाफ थे। मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू किए जाने के खिलाफ सडक़ पर आंदोलन हुआ था और सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा साहनी केस में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तक सीमित कर दी थी।’
भाटी का तर्क है कि अगर जातिगत जनगणना होगी तो सभी वर्गों को आबादी में उनकी हिस्सेदारी के हिसाब से आरक्षण मिलेगा और इससे अन्य पिछड़ा वर्ग को फायदा होगा जिनकी संख्या देश की आबादी में अधिक है।
भाटी कहते हैं, ‘देश की आबादी में लगभग 52 प्रतिशत हिस्सेदारी ओबीसी जातियों की है लेकिन उन्हें आबादी के हिसाब से आरक्षण नहीं मिल पाया है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 50 फ़ीसदी की सीमा तय की है और फिर क्रीमी लेयर का प्रावधान भी किया गया है।’
गोपीनाथ मुंडे भी थे समर्थन में
(TWITTER/@MEAINDIA)
भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण है, इसके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए भी 10 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया गया है। अन्य पिछड़ा वर्ग समूहों का तर्क है कि ये प्रतिशत तय होने की वजह से भी उन्हें अपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण नहीं मिल पा रहा है।
भाटी कहते हैं, ‘मेरिट में बेहतर अंक होने के बावजूद ओबीसी उम्मीदवारों की संख्या 27 प्रतिशत तक ही सीमित रहती है। ऐसे में ये आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग समूहों के लिए मौका कम है और एक तय सीमा अधिक है जिसकी वजह से उनकी हिस्सेदारी नहीं बढ़ पा रही है। जातिगत जनगणना से देश में जाति आधारित वास्तविक आंकड़े मिलेंगे और पता चल सकेगा कि कौन सा वर्ग कहां खड़ा है। किसी भी पार्टी को इसका विरोध नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सामाजिक न्याय का मुद्दा है।’
बीजेपी के नेता, गोपीनाथ मुंडे ने 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, ‘अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएँगे। हम उन पर अन्याय करेंगे।’
इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस वक्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित की जाएगी। लेकिन अब बीजेपी जातिगत जनगणना पर अपना पक्ष स्पष्ट नहीं कर रही है।
भाटी कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि बीजेपी की नीयत में खोट आ गया है। बीजेपी सामाजिक न्याय की बात तो करती है लेकिन वास्तव में वो लोगों के साथ सिफऱ् छलावा करना चाहती है।’ (bbc.com)
अभिनव गोयल
पिछले कई दिनों से एक ख़बर की चर्चा हर जगह है और वह है प्रयागराज में हुआ अतीक हत्याकांड।
लेकिन इसके इतर राजनीतिक गलियारों में एक इंटरव्यू को लेकर भी तीखे सवाल जवाब हो रहे हैं। हालांकि यह खबर देश के बड़े अखबारों और मेन स्ट्रीम मीडिया से गायब-सी रही।
विपक्षी पार्टियां इसके सहारे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने में जुटी हैं। इस इंटरव्यू को अब तक यू-ट्यूब पर 35 लाख से ज़्यादा लोग देख चुके हैं।
यह इंटरव्यू, चार राज्यों के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने न्यूज वेबसाइट ‘द वायर’ के वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिया है।
इंटरव्यू में सत्यपाल मलिक ने पुलवामा हमले के लिए न सिर्फ केंद्र सरकार को जि़म्मेदार बताया बल्कि भ्रष्टाचार को लेकर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं।
यह पहली बार है जब भारतीय जनता पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता और कई अहम पदों पर रहे व्यक्ति ने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला बोला है।
इन आरोपों पर अब तक भारतीय जनता पार्टी ने किसी तरह की कोई सफाई नहीं दी है। हालांकि इस इंटरव्यू के बाद सत्यपाल मलिक पर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब सत्यपाल मलिक के बयानों को लेकर हंगामा हो रहा है। इससे पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं जब उनके बयानों से, उनकी ही पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी को मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।
सवाल है कि आखिर सत्यापाल मलिक ऐसा क्यों कर रहे हैं? वो भी ऐसी पार्टी के खिलाफ जिसने उन्हें न सिर्फ लोकसभा चुनाव का टिकट दिया, बल्कि पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष से लेकर चार राज्यों के राज्यपाल का पद तक दिया।
क्या इसमें उनके राजनीतिक हित जुड़े हुए हैं? उनके कहे का कितना वजऩ है? वे अपने पीछे जिस जाट समाज और किसानों के समर्थन का दावा करते हैं? आखऱि उनके दावे में कितना दम है? इन्हीं सबको जानने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले यह समझा कि सत्यपाल मलिक कौन हैं?
उनके पचास साल लंबे सियासी सफऱ पर नजर दौड़ाने से आपके लिए इन सवालों के जवाब तलाशना आसान होगा।
सियासी सफर में कई पार्टियां बदलीं
सत्यपाल मलिक ख़ुद को लोहियावादी बताते हैं। लोहिया के समाजवाद से प्रभावित होकर उन्होंने छात्र नेता के रूप में मेरठ कॉलेज छात्रसंघ से शुरुआत की।
उनका जन्म उत्तर प्रदेश में बागपत के हिसावदा गांव में 24 जुलाई 1946 को हुआ। वे बताते हैं कि दो साल की उम्र में ही उनके पिता का निधन हो गया था।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री बताते हैं कि सत्यपाल मलिक को राजनीति में लाने का काम चौधरी चरण सिंह ने किया। 1974 में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल की टिकट पर बागपत विधानसभा का चुनाव लड़ा और महज 28 साल की उम्र में विधानसभा पहुंच गए।
पहला विधानसभा चुनाव सत्यपाल मलिक ने करीब दस हजार वोटों के अंतर से जीता था।
1980 में लोकदल पार्टी से राज्यसभा पहुंचे, लेकिन चार साल बाद ही उन्होंने उस कांग्रेस का दामन थाम लिया जिसके शासनकाल में लगी इमरजेंसी का विरोध करने पर वो जेल गए थे।
1987 में राजीव गांधी पर बोफोर्स घोटाले का आरोप लगा, जिसके खिलाफ वीपी सिंह ने मोर्चा खोल दिया और इसमें सत्यपाल मलिक ने उनका साथ दिया। कांग्रेस छोड़ सत्यपाल मलिक ने जन मोर्चा पार्टी बनाई जो साल 1988 में जनता दल में मिल गई।
1989 में देश में आम चुनाव हुए। सत्यपाल मलिक ने यूपी की अलीगढ़ सीट से चुनाव लड़ा और पहली बार लोकसभा पहुंचे।
1996 में उन्होंने समाजवादी पार्टी ज्वाइन की और अलीगढ़ से चुनाव लड़ा।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘जाट नेता के तौर पर अलीगढ़ में उनकी बुरी हार हुई। वे चौथे नंबर पर रहे। उन्हें कऱीब 40 हज़ार वोट पड़े, जबकि जीतने वाले उम्मीदवार को कऱीब दो लाख तीस हजार वोट पड़े थे। इस चुनाव ने यह बताया कि अब वे बड़े जाट नेता नहीं रहे हैं।’
करीब तीस साल सत्यपाल मलिक मौटे तौर पर समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे, लेकिन 2004 में वे बीजेपी में शामिल हुए और पार्टी की टिकट पर चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के खिलाफ बागपत से चुनाव लड़े।
यह चुनाव भी उनकी जाट नेता की अस्मिता के लिए एक परीक्षा की तरह था, लेकिन इसमें वे फेल साबित हुए। अजीत सिंह को करीब तीन लाख पचास हजार वोट पड़े तो तीसरे नबंर पर रहे सत्यपाल मलिक को करीब एक लाख वोट मिले।
2005-2006 में उन्हें उत्तर प्रदेश बीजेपी का उपाध्यक्ष, 2009 में भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चा का ऑल इंडिया इंचार्ज बनाया गया।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘बीजेपी ने हार के बावजूद सत्यपाल मलिक को अपने साथ रखा। 2012 में उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया। ये वो दौर था जब बीजेपी उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन तलाश रही थी और उसे एक जाट लीडर की तलाश थी।’
‘उसी समय सत्यपाल मलिक का नरेंद्र मोदी के साथ व्यक्तिगत संवाद हुआ और संबंध बना।’
2014 में बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनकर आए और 30 सितंबर 2017 को उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया।
करीब 11 महीने बिहार का राज्यपाल रहने के बाद अगस्त 2018 में उन्हें जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
सत्यपाल मलिक के कार्यकाल में ही जम्मू-कश्मीर में विधानसभा भंग हुई, जिसके बाद राज्य का सारा एडमिनिस्ट्रेशन उनके हाथ में आ गया। इसी दौरान पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया गया।
नवंबर 2019 से अगस्त 2020 तक वे गोवा के और अगस्त 2020 से अक्टूबर 2022 तक वे मेघालय के राज्यपाल रहे।
इंटरव्यू में नरेंद्र मोदी पर लगाए गंभीर आरोप
सत्यपाल मलिक कई सालों से सरकार की लाइन से हटकर बयान देते आए हैं, लेकिन 14 अप्रैल को न्यूज़ वेबसाइट द वायर को दिए इंटरव्यू में उन्होंने विस्तार से उन घटनाओं को जि़क्र किया जो न सिफऱ् केंद्र की बीजेपी सरकार बल्कि प्रधानमंत्री के लिए भी मुश्किलें पैदा कर सकते हैं।
‘केंद्र की लापरवाही था पुलवामा हमला’
14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में विस्फोटकों से भरी गाड़ी, सीआरपीएफ़ के 70 बसों के काफिले में चल रही एक बस से भिड़ा दी गई थी। इस आत्मघाती हमले में 40 जवानों की मौत हुई थी।
इस हमले के लिए सत्यपाल मलिक ने केंद्र सरकार को जि़म्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि जम्मू से श्रीनगर पहुंचने के लिए सीआरपीएफ़ को पांच एयरक्राफ्ट की जरूरत थी। उन्होंने गृह मंत्रालय से एयरक्राफ्ट मांगे थे, लेकिन उन्हें नहीं दिए गए। हम एयरक्राफ्ट दे देते तो ये हमला नहीं होता क्योंकि इतना बड़ा काफिला सडक़ से नहीं जाता।
सत्यपाल मलिक ने इंटरव्यू में कहा कि जब यह जानकारी उन्होंने प्रधानमंत्री को दी और अपनी गलती के बारे में बताया तो पीएम ने कहा, ‘आप इस पर चुप रहिए।’
17 फरवरी को दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री ने अपनी रिपोर्ट में भी इस बात का जि़क्र किया था।
उन्होंने लिखा था, ‘चार फरवरी से बर्फबारी के कारण जम्मू में फंसे सीआरपीएफ के जवानों को भी हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंचने के लिए मंज़ूरी मांगी गई थी।’
‘सीआरपीएफ ने इसका प्रस्ताव बनाकर मुख्यालय भेजा था, जहां से इसे गृह मंत्रालय को भेजा गया, लेकिन कोई जवाब नहीं आने पर सीआरपीएफ का काफि़ला 14 फऱवरी को साढ़े तीन बजे जम्मू से श्रीनगर के लिए रवाना हो गया और दोपहर 3।15 बजे आतंकी हमला हो गया।’
पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘अगर सत्यपाल मलिक पुलवामा हादसे के समय ये सब कहने का साहस जुटा पाते तो वे वीपी सिंह वाली भूमिका में आ जाते, लेकिन उन्होंने दो शीर्ष लोगों के कहने से चुप रहना बेहतर समझा और देश अभी तक क़ीमत चुका रहा है।’
वे कहते हैं, ‘उन्होंने कहा कि पुलवामा हमले के वक्त कनेक्टिंग रोड पर जवान तैनात नहीं थे। उस समय पुलिस तो उनके ही अंदर थी। उन्हें इसकी जानकारी क्यों नहीं थी। अगर थी तो इस पर उन्होंने क्या कार्रवाई की?, किस तरह की जांच बाद में उन्होंने बिठाई।’
‘पाकिस्तान पर आरोप शिफ्ट किए’
उन्होंने कहा, ‘मुझे लग गया था कि ये सारी जिम्मेदारी पाकिस्तान की तरफ जानी है तो चुप रहिए।’
11 दिन बाद भारत सरकार ने दावा किया कि पुलवामा हमले का बदला लेते हुए भारतीय वायु सेना ने नियंत्रण रेखा पार कर, पाकिस्तान के शहर बालाकोट में आतंकवादी संगठन के ‘प्रशिक्षण शिविरों’ के ठिकानों पर सिलसिलेवार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की।
दो महीने बाद यानी अप्रैल 2019 में देश में होने वाले आम चुनाव में बीजेपी ने बालाकोट स्ट्राइक को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया। मंचों से बालाकोट स्ट्राइक का नाम बार-बार सुनाई दिया।
मई 2019 में आम चुनाव के जब नतीजे आए तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जीत को दोहराते हुए 300 का आंकड़ा पार किया और बहुमत से केंद्र में अपनी सरकार बनाई।
इंटरव्यू में सत्यपाल मलिक ने इशारों ही इशारों में यह भी आरोप लगाया कि पुलवामा हमले को भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव के लिए इस्तेमाल किया।
पारदर्शिता की कमी
5 अगस्त 2019 को केंद्र की बीजेपी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया था।
इतने बड़े फ़ैसले की जानकारी उन्हें महज़ एक दिन पहले दी गई। उन्होंने बताया, ‘कुछ नहीं पता था, एक दिन पहले शाम को गृह मंत्री का फ़ोन आया कि सत्यपाल मैं एक चि_ी भेज रहा हूं, सुबह अपनी कमेटी से पास करा के 11 बजे से पहले भेज देना।’
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार अजॉय आशीर्वाद कहते हैं, ‘सत्यपाल मलिक के आरोप एक तरफ़ा हैं, लेकिन केंद्र सरकार का जो ग़ैर पारदर्शी तरीका है वो चिंताजनक है। वे अपने सीनियर लीडर को अंधेरे में रख रहे थे।’
भ्रष्टाचार पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर और गोवा का राज्यपाल रहते हुए उन्होंने कई बार भ्रष्टाचार का मुद्दा प्रधानमंत्री के सामने उठाया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
सत्यपाल मलिक ने कहा कि प्रधानमंत्री के कऱीबी लोग उनके पास जम्मू-कश्मीर में दलाली का काम लेकर आए, जिसमें उन्हें 300 करोड़ रुपये का ऑफऱ था। इस काम को करने से उन्होंने मना कर दिया।
सत्यपाल मलिक ने कहा, ‘मैं सेफली कह सकता हूं कि प्रधानमंत्री जी को करप्शन से कोई बहुत नफरत नहीं है।’
वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार अजॉय आशीर्वाद कहते हैं, ‘ये गंभीर आरोप हैं जिसे बीजेपी के एक सीनियर नेता लगा रहे हैं। एक ऐसे व्यक्ति जो सिस्टम के अंदर के हैं और चार राज्यों के राज्यपाल रह चुके हैं। अगर यूरोप में ऐसा इंटरव्यू सामने आता तो प्रधानमंत्री का इस्तीफा हो जाता।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘सत्यपाल मलिक जी को कथित पेशकेश की बात को रिकॉर्ड पर लेना चाहिए था, जो उन्होंने नहीं किया।’
पहले भी दे चुके हैं विवादित बयान
22 अगस्त 2022- इस वक्त सत्यपाल मलिक मेघालय के राज्यपाल थे।
बागपत के खेकड़ा में आयोजित किसान मजदूर सभा में उन्होंने कहा, ‘दिल्ली की सीमाओं पर 700 किसान मर गए थे। मुझे कुत्ते ने नहीं काटा था कि मैं गवर्नर होते हुए पंगा लूं, लेकिन जब 700 लोग मर गए तब भी दिल्ली से एक चि_ी संवेदना की कहीं नहीं गई। कुतिया भी मरती है तो प्रधानमंत्री उसके प्रति संवेदना भेजते हैं।’
‘देर से उनको बात समझ आई। फिर तो माफी मांगकर तीनों क़ानून वापस लिए गए, लेकिन तबीयत में तभ भी ईमानदारी नहीं थी।’
जनवरी, 2022- ‘मैं किसानों के मामले में जब प्रधानमंत्री से मिलने गया तो मेरी पांच मिनट में लड़ाई हो गई। वो बहुत घमंड में थे। जब मैंने उनसे कहा कि हमारे पांच सौ लोग मर गए हैं।’
‘जब कुतिया मरती है तो आप चि_ी भेजते हो, तो उन्होंने कहा कि मेरे लिए मरे हैं? मैंने कहा कि आपके लिए तो मरे हैं। जो आप राजा बने हुए हो उनकी वजह से।’
‘उन्होंने कहा कि तुम अमित शाह से मिलो। मैं अमित शाह से मिला। उन्होंने कहा कि इसकी अक्ल मार रखी है लोगों ने। तुम बेफिक्र रहो, मिलते रहो। ये किसी न किसी दिन समझ में आ जाएगा।’
हालांकि बाद में वे अपने इस बयान से पलट गए। करण थापर के साथ इंटरव्यू में भी उन्होंने बात को दोहराते हुए कहा, ‘अमित शाह वाला बयान मैंने बिल्कुल गलत कहा।’
‘अमित शाह ने मुझसे कुछ नहीं कहा था कि इनकी अकल मारी हुई है या कुछ’ उसको मैं वापस लेता हूं। उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा। मैंने गलत कहा। ये मेरी गलती थी।’
जनवरी 2019- ‘जम्मू-कश्मीर भी देश के दूसरों राज्यों की तरह है। यहां कोई कत्लेआम नहीं चल रहा है। जितनी मौतें कश्मीर में एक हफ्ते में होती है उतने मर्डर तो पटना में एक दिन में हो जाते हैं। कश्मीर में अब पत्थरबाजी और आतंकी संगठनों में लडक़ों का शामिल होना बंद हो गया है।’
‘यहां लडक़े खुलेआम हथियार लेकर घूमते हैं और राज्य के पुलिसकर्मियों को मारते हैं। आप उन्हें क्यों मार रहे हैं। अगर मारना ही है तो उन्हें मारो जिन्होंने आपके देश और कश्मीर को लूटा है। क्या आपने ऐसे किसी शख्स को मारा है?’
जून, 2022 में अग्निपथ योजना का विरोध
उन्होंने कहा, ‘अग्निपथ योजना हमारी फौजों को, जवानों को नीचा दिखाने का काम करेगी। उनका करियर ख़त्म कर देगी। चार साल में छह महीने ट्रेनिंग करेंगे। छह महीने छुट्टी पर रहेंगे।’
‘तीन साल वो सिर्फ नौकरी करेंगे तो फिर कहां जाएंगे। उनकी तो शादी भी नहीं होगी। उनमें देश के लिए मरने के लिए कैसे जज़्बा होगा? ये बहुत ग़लत किया है, इसे जल्द वापस लेना चाहिए।’
मार्च, 2020- गवर्नर दारू पीता है
उत्तर प्रदेश में बागपत के दौरे पर एक जनसभा में उन्होंने कहा था, ‘गवर्नर का कोई काम नहीं होता। कश्मीर में जो गवर्नर होता है, वो दारू पीता है और गोल्फ़ खेलता है।
हमलावर होने के पीछे क्या है वजह?
सत्यपाल मलिक की सियासत को कऱीब से देखने वाले लोगों का कहना है कि वे मिज़ाज से मुंहफट आदमी हैं और उनके दिल में जो होता है वो कह देते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अजॉय आशीर्वाद कहते हैं, ‘ऐसा पहली बार नहीं है कि उन्होंने अब कैमरे पर आकर बयान दिया है। जब वे गोवा के राज्यपाल थे उस समय पद पर रहते हुए भी उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था।’
वहीं दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘आज आरटीआई का समय है। सत्यपाल मलिक जब पद पर थे तो इन बातों को कहीं रिकॉर्ड पर ला सकते थे। उस पर आने वाले समय में जांच हो सकती थी, लेकिन आपने एक भी काम ऐसा नहीं किया। जब 300 करोड़ रुपये के करप्शन की बात सामने आई तो वे उन लोगों को वहीं गिरफ़्तार करवा सकते थे।’
वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि उन्हें भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लडऩा था, लेकिन उनकी बातों को कोई सुन नहीं रहा था और जिस तरह से राजभवन में हस्तक्षेप हो रहा था उससे उनका पद से मोहभंग हो गया।’
कितने प्रभावशाली हैं सत्यपाल मलिक
सत्यपाल मलिक दावा करते हैं कि उनके पीछे जाट जाति और बड़ी संख्या में किसान खड़े हैं और अगर बीजेपी ने उन्हें परेशान किया तो पार्टी की दुर्गति हो जाएगी।
क्या सच में ऐसा है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले सत्यपाल मलिक की ज़मीन पर कितनी पकड़ है।
वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला कहते हैं, ‘किसान आंदोलन के समय उन्होंने कहा था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बड़ा फेरबदल होने जा रहा है, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। बजाय इसके कि समाजवादी पार्टी और किसानों की पार्टी माने जाने वाली राष्ट्रीय लोकदल के बीच मजबूत गठबंधन था।’
वे कहते हैं, ‘सत्यपाल मलिक जाट और किसान नेता के तौर पर ख़ुद की ब्रांडिंग कर रहे हैं।’
उनका मानना है कि अगर सत्यपाल मलिक बिना आरएलडी की मदद के बागपत से चुनाव लड़ते हैं तो उन्हें कुछ हज़ार वोट ही मिलेंगे।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘लोग इनका भाषण तो ज़रूर सुन लेंगे, लेकिन ये उन्हें वोट में कन्वर्ट कर पाएं ऐसा मुश्किल है।’ (bbc.com)
कीर्ति दुबे
‘23 मई, 1987 मेरठ के मलियाना गाँव की गलियों में मुन्ना अपनी छह साल की बेटी को लिए भागता है, तभी एक गोली उनकी बेटी के माथे को चीर देती है। लेकिन जब तक मुन्ना कुछ समझ पाता, एक दूसरी गोली उसके सीने में धँस जाती है और दोनों बाप-बेटी वहीं दम तोड़ देते हैं।’
मेरठ के मलियाना गाँव के रहने वाले मोहम्मद याकूब जब ये बात बताते हैं, तो सब कुछ मानों उनकी आँखों के सामने चल रहा हो। जब उन्होंने ये सब देखा था, तो उस वकत उनकी उम्र 30 साल थी और आज वो 66 साल के हो चुके हैं।
साल 1987 में मेरठ के मलियाना गाँव में 72 मुसलमानों की हत्या की गई थी और उनके घर जला दिए गए थे।
17 मई 1987 को मेरठ में हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए और तीन महीने तक मेरठ दंगों की आग में जलता रहा।
23 मई 1987 को दोपहर तक मेरठ के मलियाना में सब कुछ शांत था। लेकिन अचानक दोपहर की नमाज़ के बाद मुसलमानों पर हमले शुरू हो गए और गोलियाँ चलने लगी।
दंगाइयों की भीड़ मुसलमानों को निशाना बना कर उन्हें मारने लगी। मुसलमानों के घरों में आग लगा दी गई। मुसलमानों को निशाना बनाकर आग लगाई गई, बच्चों को जलती आग में फेंक दिया गया।
पीडि़त लोगों ने इस हिंसा के लिए प्रादेशिक आम्र्ड कॉन्टेब्यूलरी यानी पीएसी को जिम्मेदार ठहराया और उस पर गंभीर आरोप लगाया।
हालाँकि इस मामले में जब एफ़आईआर दर्ज हुई, तो इसमें ना तो किसी पुलिसवाले और ना ही पीएससी के लोगों को नामज़द किया गया।
36 साल के इंतज़ार और 900 सुनवाइयों के बाद बीते 31 मार्च को कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया।
अदालत ने सबूतों के अभाव और गवाहों के बयानों में प्रमाणिकता की कमी के कारण सभी 38 अभियुक्तों को बरी कर दिया।
72 मुसलमानों को किसने मारा?
इस हिंसा के बारे में जानने के लिए हम मेरठ के मलियाना पहुँचे, जहाँ ये नरसंहार हुआ।
अब ये गाँव क़स्बे में तब्दील हो चुका है। अगर कुछ नहीं बदला है, तो वो है यहाँ के लोगों के बीच फैला डर और निराशा।
उनके पास एक सवाल भी है- अगर सभी निर्दोष हैं, तो हमारे अपनों को किसने मारा?
ऐसा फ़ैसला क्यों आया? क्यों कोर्ट ने सभी 38 अभियुक्तों को बरी कर दिया?
एक नरसंहार का केस इतना कमज़ोर कैसे हो गया कि इसमें कोई अपराधी ही साबित नहीं हो सका।
हमने यही समझने के लिए इस केस की 35 साल पुरानी चार्टशीट पढ़ी, गवाहों के बयान पढ़े और 31 मार्च को आया सेशन कोर्ट का ऑर्डर पढ़ा।
जब 17 मई को मेरठ में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने यहाँ पीएसी की 11 टुकडिय़ाँ भेजी, ताकि हालात को काबू करने में प्रशासन को मदद मिले।
लेकिन आरोप लगा कि पीएसी ने दंगों के दौरान मुसलमानों को निशाना बनाया।
मलियाना नरसंहार से ठीक एक दिन पहले यानी 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा नरसंहार हुआ था।
इसमें 42 मुसलमानों को गोली मार कर नहर में फेंकने के मामले में 16 पीएसी जवानों को दोषी ठहराया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई।
मलियाना में कई चश्मदीद गवाहों ने बीबीसी को बताया कि उस दिन मुसलमानों के खिलाफ हुई हिंसा में पुलिस और पीएसी शामिल थी।
वकील अहमद इस मामले में बयान दर्ज कराने वाले पहले शख़्स थे। उन्हें उस दिन कमर पर गोली लगी थी। 36 साल बाद वकील के जख़़्म तो भर गए हैं, लेकिन निशान गहरा है।
वे कहते हैं, ‘यहाँ जो कुछ भी हुआ, उसकी शुरुआत पीएसी ने की। पहले पुलिस और पीएसी ने हमला शुरू किया और फिर दंगाइयों की भीड़ आ गई। मुझे गोली किसने मारी, मैं नहीं देख सका, लेकिन मैंने उन लोगों को जरूर देखा, जो लोग आगजनी कर रहे थे। मैंने उन सबको कोर्ट में पहचाना है। लेकिन हुआ ये कि पुलिस, पीएएसी चूँकि खुद हत्याओं में शामिल थी, तो उसने जितना इस केस को बिगाड़ सकती थी, बिगाड़ दिया ताकि कभी ये केस अंजाम तक ना पहुँचे।’
पेशे से दर्जी वकील अपनी बात कहते-कहते उस स्टूल से उठ खड़े होते हैं जिस पर बैठ कर वह सफेद पायजामा सिल रहे थे।
कुछ देर बाद वो हमें अपनी 36 साल पुरानी मेडिकल की पर्ची दिखाते हैं, जिसमें लिखा है कि 23 मई को उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया और डेढ़ महीने उनका इलाज चला और उनका ऑपरेशन हुआ।
पुलिस और सरकार का पक्ष
बीबीसी पीएसी और पुलिस पर लगे आरोपों का जवाब जानने के लिए मेरठ पीएसी के दफ्तर पहुँचा।
वहाँ हमें बताया गया कि कोई भी अधिकारी इस पर बात करने के लिए उपलब्ध नहीं है।
हमने मेरठ पुलिस के एएसपी रोहित साजवान से भी संपर्क किया, लेकिन उन्होंने भी हमसे बात करने से इनकार कर दिया।
इसके बाद हमने उत्तर प्रदेश सरकार का रुख जानने के लिए राज्य के गृह मंत्रालय के मुख्य सचिव और राज्य की पुलिस से मेल और फोन कॉल के जरिए संपर्क किया लेकिन हमें अब तक कोई जवाब नहीं मिला है।
अचानक नरसंहार की एफआईआर का गायब होना
24 मई, 1987 को मोहम्मद याकूब ने मलियाना में हुए नरसंहार को लेकर एफआईआर दर्ज कराई थी।
चूँकि याकूब लिख नहीं सकते थे, इसलिए एफआईआर की तहरीर मलियाना गाँव के रहने वाले सलीम सिद्दीक़ी ने लिखी थी।
इस मामले में 94 लोगों को नामजद किया गया था।
जिन 94 लोगों के नाम लिखे गए, उनमें से कई लोगों की मौत हो गई और कई का कभी पता ही नहीं लग सका।
इस मामले में कुछ ऐसे लोगों को भी नामजद कर लिया गया था, जो घटना के पहले ही मर चुके थे।
लिहाजा ये ट्रायल 38 अभियुक्तों के खिलाफ चला।
23 जुलाई 1988 को इस मामले में आठ पन्ने की चार्जशीट फाइल की गई।
लेकिन इसके बाद भी लगभग 20 साल तक केस का कोर्ट में ट्रायल ही नहीं शुरू हो सका।
वजह थी एफ़आईआर का बड़े ही रहस्यमय तरीके से गायब हो जाना।
प्राइमरी एफआईआर के गायब होने की सूरत में कोर्ट में ये कह कर सुनवाई टाली जाती रही कि जिस मामले की असल एफ़आईआर ही नहीं है, उस पर आखिर सुनवाई कैसे होगी।
साल 2009 में कोर्ट में पहले चश्मदीद वकील अहमद का बयान दर्ज किया गया।
एफ़आईआर लिखवाने वाले याकूब बताते हैं, ‘उस दिन (23 मई, 1987) जब मैं बाहर आया, तो गोलियों की आवाज और चारों तरफ आग थी। कई लोग जो अपने घरों में छिप गए थे, उनके घरों को बाहर से कुंडी लगा कर उन्हें घर के साथ आग के हवाले किया गया। लेकिन अब जो फैसला आया है, उसके बाद मेरा एक ही सवाल है कि अगर उन लोगों ने हमें नहीं मारा, पुलिस-पीएसी ने कुछ नहीं किया, तो आखिर हमारे लोग कैसे मर गए? क्या हमने ख़ुद को आग लगाई थी?’
आखिर याक़ूब थाने तक कैसे पहुँचे थे, इस पर वे विस्तार से जानकारी देते हैं।
वे कहते हैं, ‘पीएसी के लोगों ने मेरे कपड़े उतरवाएँ और हाथ बाँध कर मुझे गाँव के बाहर लेकर गए, शायद मैं भी मर जाता, लेकिन एक पुलिस वाले ने मुझे गाड़ी में बिठाया और टीपी नगर थाने लेकर गया। वहाँ रात भर तो मैं अचेत पड़ा रहा, लेकिन अगले दिन सुबह मैंने थानेदार से कह कर अपनी शिकायत सलीम भाई के हाथों लिखवाई। लेकिन ये एफआईआर पता नहीं कैसे गायब हो गई। कई सालों तक कोर्ट थाने के चक्कर लगाए, लेकिन वो एफआईआर नहीं मिली।’
ना मेडिकल रिपोर्ट, ना गवाहों से सही तरीके से बयान
इस केस में 35 गवाहों के नाम थे, लेकिन कोर्ट में सिर्फ 14 गवाह पेश किए गए।
लेकिन कोर्ट के सामने भारतीय दंड संहिता 161 के तहत इनमें से कई गवाहों के दर्ज बयानों को पेश ही नहीं किया गया।
या यूँ कहें कि 161 के तहत कई गवाहों के बयान पुलिस ने लिए ही नहीं।
आईपीसी के तहत दर्ज बयान का मतलब है, वो बयान जो पुलिस अधिकारी के सामने दर्ज किया गया हो।
ये बयान वैसे तो कोर्ट में कानूनी रूप से वैध नहीं होते।
लेकिन सेशन जज लखविंदर सिंह सूद ने अपने फैसले में कहा है कि कई गवाहों के 161 के तहत बयान ना होने से इतने पुराने केस में जब लगभग 30 साल बाद बयान दर्ज होने शुरू हुए, तो ये समझना मुश्किल हो गया कि उस वक़्त गवाह ने पुलिस से क्या बताया था।
मलियाना नरसंहार का मामला यूपी राज्य बनाम 38 अभियुक्तों के खिलाफ था। लिहाजा इस केस में मुसलमानों की पैरवी सरकारी वकील कर रहे थे।
इस केस में जिन लोगों को चोट आई थी और जिन्होंने गवाही दी, उनकी मूल मेडिकल रिपोर्ट तक कोर्ट में पेश नहीं हुई। इसे इस तरह समझिए कि इस मामले में पहले चश्मदीद गवाह वकील अहमद को गोली लगी, लेकिन अभियोजन पक्ष ने कोई मेडिकल दस्तावेज नहीं दिखाए।
इतना ही नहीं जिन भी गवाहों ने अपने चोटिल होने की बात बताई, उसके समर्थन में कोई भी मेडिकल रिपोर्ट नहीं दी जा सकी।
ना ही पीडि़तों का इलाज करने वाले डॉक्टरों की गवाही हुई।
इस मामले में मेरठ सेशन कोर्ट के सरकारी वकील सचिन मोहन ने बीबीसी को बताया, ‘ये मामला काफ़ी साल पुराना है, ऐसे में पुलिस ने जो उस वक्त नहीं किया उसकी वजह से ये केस कमजोर हुआ। इस मामले में डॉक्टर जिंदा ही नहीं हैं, तो उनका गवाह कैसे हो पाता। जाँचकर्ता को ये सारे कागज़ उस वक़्त ही जुटाने चाहिए थे।’
जिन लोगों की मौत गोली लगने से हुई थी, उस मामले में हथियार कभी बरामद ही नहीं किए और लिहाजा ये साबित भी नहीं हो सका कि गोली किसने चलाई या ये लोग किसकी गोली से मारे गए।
उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डायरेक्टर जनरल विभूति नारायण राय मेरठ दंगों के दौरान 1987 में गाजियाबाद से एसपी थे।
विभूति नरायाण वो पुलिस अधिकारी हैं, जिन्होंने हाशिमपुरा मामले की शुरुआती जाँच की और एफआईआर दर्ज की। इस मामले में 16 पीएसी वालों को आजीवन कारावास हुई।
वे कहते हैं, ‘मलियाना नरसंहार में पुलिस और राज्य दोनों की पीडि़तों को न्याय दिलाने की मंशा नहीं थी। अगर हथियार सीज किए गए होते, तो बंदूकों का बैलिस्टिक टेस्ट होता और पता चल जाता कि किस फायरआम्र्स से गोलियाँ चली हैं। लेकिन जब ये हुआ ही नहीं, तो ये कैसे पता चलता। मलियाना नरसंहार दिन के उजाले में हुआ और हाशिमपुरा को रात के सन्नाटे में अंजाम दिया गया। लेकिन फिर भी हमने एक्शन लिया और एक सर्वाइवर हमें मिला, जिसके बयान से हाशिमपुरा के 42 मुसलमानों को न्याय मिला लेकिन मलियाना में सबूतों की कोई कमी ना होने के बावजूद जाँच से लेकर केस लडऩे तक के स्तर पर ढिलाई का नतीजा ये है कि आज कोर्ट ने किसी को उन उन मुसलमानों का गुनहगार नहीं माना।’
इस केस में किस स्तर की ढिलाई पुलिस और अभियोजन पक्ष के स्तर पर की गई, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि इस केस में पीडि़त परिवारों की पैरवी कर रहे सरकारी वकील सचिन मोहन ने बीबीसी को बताया कि ‘एफआईआर लिखने वाले शख्स सलीम सिद्दीक़ी को कोर्ट की ओर से तीन बार समन किया गया, लेकिन वो कहाँ हैं, इसका कोई पता नहीं, उन्हें भी ट्रेस नहीं किया जा सका।’
लेकिन जब हम मलियाना गाँव पहुँचे, तो बड़ी आसानी से हमें सलीम का घर मिला, जहाँ वे अपने परिवार के साथ रहते हैं।
सलीम ने बताया कि उन्हें कभी कोर्ट ने समन नहीं किया।
23 मई, 1987 के बारे में वे कहते हैं, ‘कई लोग जख़़्मी थे और टीपीनगर थाने में थे। मेरी उम्र उस वक्त 35 साल थी और मैंने हाल ही में वकालत पूरी की थी। मैं गाँव के उन चंद लोगों में से एक था, जो हिंदी पढ़ लिख सकता था। इसलिए थाने में मुझे बलाया गया। जिन 93 लोगों के नाम मैंने तहरीर में लिखे थे, वो थाने में मौजूद कई पीडि़तों ने लिए थे और सबको मिलाकर एक तहरीर तैयार की गई थी।’
न्यायिक जाँच की रिपोर्ट कभी सामने नहीं आई
27 मई 1987 को यूपी के तत्कालीन सीएम वीर बहादुर सिंह ने मलियाना नरसंहार की न्यायिक जाँच के आदेश दिए और इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जीएल श्रीवास्तव को रिपोर्ट बनाने का काम दिया गया।
जस्टिस श्रीवास्तव ने 84 चश्मदीदों के बयान के आधार पर रिपोर्ट तैयार की, लेकिन वो रिपोर्ट कोर्ट में पेश ही नहीं हुई और ना ही कभी सार्वजनिक की गई।
मलियाना मामले में वकील अल्लाउद्दीन सिद्दीकी सरकारी वकील के साथ काम कर रहे थे।
चूँकि मलियाना हिंसा के पीडि़त आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं, ऐसे में अल्लाउद्दीन उनकी ओर से पैरवी बिना पैसों के ही कर रहे थे।
अल्लाउद्दीन सिद्दीकी ने जस्टिस श्रीवास्तव के साथ भी रिपोर्ट बनाने के दौरान काम किया था।
वो कहते हैं, ‘जस्टिस श्रीवास्तव की रिपोर्ट में क्या था वो आज तक ना तो कोर्ट में बताया गया और ना ही प्रशासन के जरिए सामने लाया गया।’
सिद्दीक़ी ये भी बताते हैं कि अब जस्टिस श्रीवास्तव का निधन हो चुका है, तो ऐसे में कोई ये सामने नहीं ला सकता कि उस वक्त न्यायिक जाँच में उन्हें क्या मिला।
जब कोर्ट ने बीते 31 मार्च को अपना फ़ैसला सुनाया, तो उस वक्?त अलाउद्दीन सिद्दीकी कोर्ट में मौजूद ही नहीं थे। पीडि़त पक्ष की ओर से केवल सरकारी वकील ही मौजूद थे।
इस फैसले पर सिद्दीकी कहते हैं, ‘अभी तो गवाहों के बयान पूरे नहीं हुए थे। लेकिन कोर्ट ने अचानक फैसला सुना दिया। सीआरपीसी 313 के तहत कोर्ट अभियुक्तों से उनके खिलाफ पाए गए सबूतों पर सवाल करता है, जो यहाँ हुआ ही नहीं। आज फैसला देते हुए जज साहब ने बयानों पर संदेह जताया, लेकिन जब बयान हो रहे थे, तभी जज ने क्यों नहीं बोल दिया कि ये कैसे बयान है?’
‘इसे साबित कैसे करेंगे, वकील से तभी जज साहब ने ये बात क्यों नहीं कह दी? सबसे बड़ा सवाल तो ये होना चाहिए कि अगर गवाह कोर्ट में सबूतों के आधार पर साबित नहीं हो पाए तो, ये किसकी गलती है, जाहिर सी बात है कि सरकारी वकील, जो इस केस में पीडि़त मुसलमानों के लिए लड़ रहे थे, उनकी जि़म्मेदारी थी कि वो कोर्ट में अपने गवाहों को सच साबित करें। कोई नहीं चाहता था कि इस केस में किसी को सजा मिले।’
शिनाख़्त परेड तक नहीं हुई
पुलिस ऐसे मामलों में गवाहों के सामने उन अभियुक्तों को पेश करती है, जिन पर अपराध में शामिल होने का शक होता है। गवाह कई बार अभियुक्त का नाम ना जनने की सूरत में उसे देख कर पहचान लेता है।
लेकिन मलियाना नरसंहार की जाँच करते वक्त पुलिस ने शिनाख़्त परेड भी नहीं कराई। पहली बार गवाहों के सामने अभियुक्त सीधे 30 साल बाद कोर्ट में आए। कोर्ट ने अपने आदेश में इसे भी गवाहों के कमजोर होने का कारण माना।
70 मुसलमानों के परिवारों को भले ही न्याय ना मिला हो, लेकिन कैलाश भारती मानते हैं कि उन्हें 36 साल के मुश्किल वक्त के साथ अब जा कर न्याय मिला है।
कैलाश भारती इस मामले में मुख्य अभियुक्त थे।
पेशे से वकील कैलाश भारती अपने कमरे में रखे पलंग पर बैठे हुए थे। सामने कुछ पत्रकार थे, जिनसे वो बात कर रहे थे। घर में राहत का महौल था।
कैलाश भारती कहते हैं, ‘36 साल तक मुझ पर दंगाई होने का दाग लगा रहा। मेरी उम्र 35 साल थी जब मुझ पर मुक़दमा हुआ। इन सालों में जहाँ बेटी का रिश्ता लेकर गया वहाँ मुझे शर्मिंदगी के घूँट पीने पड़े। 36 साल के बाद हमें न्याय मिला है। मुझे नहीं पता किसके साथ अन्याय हुआ है, लेकिन हमें न्याय मिला।’
कैलाश भारती के वकील छोटेलाल बंसल ये तो मानते हैं कि उसके मुवक्किल को न्याय मिला, लेकिन वो ये भी मानते हैं कि मलियाना के मुसलमानों के साथ न्याय नहीं हुआ।
वो कहते हैं, ‘पुलिस ने पीएसी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया होता, तो शायद कुछ होता। पुलिस ने तो वोटर लिस्ट से निकाल कर नाम एफआईआर में चढ़ा दी। कैसे कुछ साबित होता। कई लोगों के जीवन के 36 साल बर्बाद हुए।’
कितना भयावह था मंजर
मलियाना में पीएसी की जिस कंपनी को तैनात किया गया था, वो थी 44वीं बटालियन जिसके कमांडर थे आरडी त्रिपाठी।
29 मई 1987 को यूपी की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने आरडी त्रिपाठी को सस्पेंड करने का ऐलान किया था, लेकिन आरडी त्रिपाठी पर कभी कोई एक्शन नहीं हुआ।
बदले में उन्हें प्रमोशन मिला और वो रिटायर होने तक विभिन्न पदों पर बने रहे।
कुरबान अली ने बतौर पत्रकार 1987 में मेरठ में तीन महीने तक चले सांप्रदायिक दंगे को कवर किया था।
आंखों देखे मंजर को बयां करते हुए वे कहते हैं, ‘मलियाना में जो नरसंहार हुआ था, उसके तीन दिन बाद मैं वहाँ पहुँचा। उन दिनों मैं एक अख़बार के लिए काम किया करता था। पूरा गाँव जैसे भूतिया हो चुका हो, जले हुए मकान और एक अजीब सा सन्नाटा था। कहीं एक-दो बच्चे घरों के बाहर रोते-बिलखते दिख जाते थे। कई सारी ताज़ी क़ब्रें थीं जिनकी मिट्टी तक गीली थी। वहाँ से आने के बाद भी कई महीनों तक मैं मानसिक रूप से परेशान रहा। वो सब कुछ आज भी आँखों और दिल के धँसा हुआ है। मैं कई कोशिशों के बाद भी उस मंजर को नहीं भूल सकता।’
साल 2021 में जब हाशिमपुरा नरसंहार मामले में पीएसी के जवानों को दोषी ठहराया गया, तो उसके बाद कुरबान अली, विभूति नारायण राय और एक पीडि़त इस्माइल ने इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की कि 'मलियाना नरसंहार मामले में कोर्ट की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए और एसआईटी गठित कर मामले की दोबारा जाँच शुरू की जाए।
इस्माइल ने मलियाना नरसंहार में अपने परिवार के 11 लोगों को खोया था।
कुरबान अली बताते हैं, ‘इस याचिका के खिलाफ यूपी सरकार ने 800 पेज का हलफनामा दायर कर कहा था कि इससे जुड़ी एफआईआर गायब थी, लेकिन अब वो मिल चुकी है और उस पर सुनवाई चल रही है।’
लेकिन अब ये फैसला आने के बाद क्या 36 साल पुराने केस में दोबारा जाँच शुरू करना संभव है।, क्या अब मलियाना नरसंहार के सबूत जुटाए जा सकेंगे?
कुरबान अली कहते हैं, ‘आखिर पीएससी का रिकॉर्ड तो होगा कि उस दिन कौन से अधिकारी ड्यूटी पर थे। ये सभी चीज़े रिकॉर्ड से निकाली जा सकती हैं लेकिन अगर न्याय दिलाने की मंशा हो तो।’
वहीं खुद यूपी पुलिस में शीर्ष अधिकारी रह चुके विभूति नारायण मानते हैं कि अब अगर इस केस को ऊपरी अदालत में भी ले जाया गया, तो भी जिस तरह के सबूत हैं उससे कोई अलग फैसला कोर्ट के लिए दे पाना मुश्किल होगा।
वो कहते हैं, ‘36 साल बाद सबूतों को जुटाना बहुत मुश्किल है, मेरा मानना है कि राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए लोगों के बेहतर मुआवजा देना चाहिए।’
हिंसा के बाद इस मामले में सरकार की ओर से पीडि़त परिवारों को 20 हज़ार का मुआवजा मिला था।
हालाँकि विभूति नारायण न्याय मिलने की उम्मीद को पूरी तरह खारिज नहीं करते।
वे जर्मनी के न्यूरेमबर्ग ट्रायल का उदाहऱण देते हुए कहते हैं, ‘हमने देखा है कि कैसे 50 साल बाद न्यूरेमबर्ग ट्रायल मामले में उन नाज़ी लोगों को खोज-खोज कर सजा मिली, जो यहूदियों की हत्या में शामिल थे, लेकिन सवाल मंशा का ही है।’
लेकिन वो लोग ख़ुद इस हिंसा की ज़द में आए और अपनी आँखों के सामने अपनों को मरते देखा, उन्हें अब न्याय की कितनी उम्मीद है?
रईस अहमद को 23 मई की उस दोपहर चेहरे के बाएँ हिस्से में गोली लगी।
देरी से ही सही इलाज ने उन्हें बचा लिया, लेकिन उनके पिता जो 23 मई 1987 को कानपुर से मेरठ आ रहे थे उनकी रास्ते में ही दंगाइयों ने लिचिंग की। आज तक रईस को अपने पिता का शव नहीं मिला।
वह कहते हैं, ‘मेरे पिता का जनाज़ा नहीं उठ सका, मुझे लगता था कि सभी तो ना सही लेकिन कुछ लोगों को तो सजा मिलेगी, लेकिन सबको छोड़ दिया गया। हमारे साथ अब सरकार भी नहीं खड़ी है न्याय की क्या उम्मीद करूँ।’ (bbc.com)
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के प्रमुख फातिह बिरोल ने डीडब्ल्यू को बताया कि अगर दुनिया अपने जलवायु लक्ष्यों के प्रति गंभीर है, तो मौजूदा तेल क्षेत्र, गैस के कुएं और कोयले की खदानें “पर्याप्त से अधिक” हैं.
डॉयचे वैले पर अजीत निरंजन की रिपोर्ट-
ज्यादातर अमीर देशों के ऊर्जा मंत्रियों के नेतृत्व वाली पेरिस स्थित अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के प्रमुख ने चेतावनी दी है कि जीवाश्म ईंधन का उत्पादन बढ़ाने वाली कंपनियां धरती के तापमान को रोकने के लक्ष्यों को हासिल करने में बाधक बन रही हैं.
आईईए के कार्यकारी निदेशक फातिह बिरोल ने डीडब्ल्यू को बताया, "अगर वे अपनी रणनीतियों के तहत तेल, गैस या कोयले के उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि जारी रखती हैं और दूसरी तरफ यह भी कहती हैं कि कंपनी की रणनीति 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य के मुताबिक है, तो यह एक समस्या है.”
आईईए एक वैश्विक प्राधिकरण है जो ऊर्जा से जुड़ा डेटा इकट्ठा करता है और उसका विश्लेषण करता है. यह इस मसले पर पूरी दुनिया की सरकारों और कंपनियों की बातें सुनता है और उनका निष्कर्ष निकालता है. औद्योगिक देशों के ओईसीडी समूह ने 1973 में तेल संकट के बाद सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति में मदद के लिए इस एजेंसी की स्थापना की थी.
हालांकि, हाल के वर्षों में इस एजेंसी के काम का दायरा बढ़ गया है. यह एजेंसी सदस्य देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने में मदद करने के लिए भी काम करती है. विश्व के नेताओं ने सदी के अंत तक ग्लोबल वॉर्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन मौजूदा नीतियों से यह लक्ष्य हासिल होता नहीं दिख रहा है. कुछ जीवाश्म ईंधन कंपनियां अपने उत्पादन को बढ़ाने की योजना बना रही हैं. इसे देखते हुए ऐसा लगता है कि ग्लोबल वार्मिंग तय सीमा से दोगुनी बढ़ सकती है.
बिरोल ने कहा, "हमें तेल, गैस और कोयले की खपत कम करनी है. अगर हमारा लक्ष्य ऐसा करने का है और अगर हम ऐसा कर सकते हैं, तो मौजूदा तेल व गैस क्षेत्र और कोयला खदानें हमारी मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त से भी ज्यादा हैं.”
कोई नया तेल या गैस क्षेत्र नहीं
आईईए की फ्लैगशिप वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक रिपोर्ट 1998 से हर साल प्रकाशित होती आ रही है. इस रिपोर्ट में बताया जाता है कि अगर नीतियां एक जैसी रहती हैं, तो दुनिया भर में ऊर्जा आपूर्ति और मांग कैसे बदलेगी. 2021 में रिपोर्ट में एक नया परिदृश्य जोड़ा गया है. जलवायु परिवर्तन को लेकर सरकारों और निवेशकों की गंभीरता को देखते हुए आईईए ने एक रोडमैप जारी किया कि किस तरह वैश्विक अर्थव्यवस्था 2050 तक नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल कर सकती है.
इस मॉडल में सुझाव दिया गया है कि इस लक्ष्य को हासिल करने पर सदी के अंत तक धरती के तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सिमट जाएगी. बिरोल ने कहा कि यह मॉडल अब ‘ऊर्जा की दुनिया, आर्थिक दुनिया और कई सरकारों के लिए बाइबिल' के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
इसके तहत, अब नई जगहों पर जमीन से ईंधन निकालने, ड्रिल करने या खोदने के लिए निवेश को बंद करना होगा. 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए, कोई नया गैस और तेल क्षेत्र की अनुमति नहीं देनी होगी. इसके अलावा, नई कोयला खदान या मौजूदा कोयला खदान के विस्तार की अनुमति नहीं देनी होगी.
आईईए की एक और हालिया रिपोर्ट में यह बात दोहराई गई है. हालांकि, नई रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दशक के अंत तक नए तेल क्षेत्रों के लिए हर साल 18 अरब डॉलर का निवेश किया जा सकता है. आईईए के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू को बताया कि ये ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें पहले ही मंजूरी मिल चुकी है और ये उत्पादन के लिए तैयार हैं, इसलिए अगले कुछ वर्षों तक इनमें निवेश की जरूरत है.
सस्टेनेबिलिटी थिंक टैंक इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट द्वारा किए गए विश्लेषण में एक कदम आगे की बात कही गई है. इसमें यह निष्कर्ष निकाला गया है कि नए तेल और गैस क्षेत्रों को विकसित करना 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के हिसाब से ‘सही नहीं' है.
आईईए की हालिया रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य भी तभी हासिल हो सकता है जब 2050 तक कोयले, तेल और गैस की मांग में क्रमश: 90, 80 और 70 फीसदी की कमी हो. साथ ही, रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु कार्यकर्ताओं और निवेशकों को ऊर्जा कंपनियों पर दबाव बनाना होगा कि वे अपने कारोबार में कार्बन का उत्सर्जन कम करें.
बिरोल ने कहा, "अगर कोई तेल कंपनी यह कहती है कि वह उत्पादन बढ़ाएगी, तो मैं उससे सहमत नहीं हूं. यह उसकी पसंद है. हालांकि, अगर कंपनी कहती है कि वह अपना तेल उत्पादन 3 मिलियन बैरल प्रतिदिन बढ़ाने जा रही है और उसकी रणनीति पेरिस समझौते के मुताबिक है, तो यह सही नहीं है. यह पूरी तरह विरोधाभास है.”
नवीकरणीय ऊर्जा की क्रांति को पहचानने में विफल रहा है आईईए
जीवाश्म ईंधन पर अपनी मजबूत पकड़ के बावजूद, आईईए स्वच्छ ऊर्जा के विकास को समझने में उतना कामयाब नहीं रहा है. वैज्ञानिकों और ऊर्जा विश्लेषकों ने आईईए की आलोचना की है कि वह इस बात का आकलन करने में पूरी तरह सफल नहीं रहा है कि सौर ऊर्जा और हवा से कितनी बिजली बनाई जा सकती है.
इसकी रिपोर्ट में अक्षय ऊर्जा के बुनियादी ढांचे के विकास में काफी कम वृद्धि का अनुमान लगाया गया है. जबकि, कई देशों ने इसके अनुमान की तुलना में नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में काफी ज्यादा वृद्धि दर्ज की है. इसका नतीजा यह हो सकता है कि नीति निर्माताओं ने टेक्नोलॉजी को उतनी गंभीरता से न लिया हो.
इसकी प्रतिक्रिया में बिरोल ने कहा, "यह सामान्य बात है कि अगर आप ऊर्जा से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण संगठन हैं, तो कई पक्ष आपकी आलोचना कर सकते हैं. हालांकि, हमें जो आलोचना मिल रही है, वह यह है कि हम स्वच्छ ऊर्जा को इतनी मजबूती से आगे बढ़ा रहे हैं कि जीवाश्म ईंधन के महत्व को कम कर रहे हैं.”
आईईए के अनुमान सटीक न होने का एक कारण यह है कि नवीकरणीय ऊर्जा का समर्थन करने वाली नीतियों में तेजी से बदलाव आया है, जिससे आईईए के अनुमान पुराने हो गए हैं. हालांकि, विशेषज्ञों ने यह भी कहा है कि एजेंसी गलतियों से सीखने और मॉडलों को अपडेट करने में धीमी रही है.
स्वच्छ ऊर्जा अनुसंधान फर्म ब्लूमबर्गएनईएफ के एक सौर विश्लेषक जेनी चेस ने कहा कि पुराने डेटा से नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की रूप-रेखा पेश करना कठिन है, लेकिन आईईए अतीत को भविष्य में पेश कर रहा है. दूसरे शब्दों में कहें, तो पुराने डेटा से ही भविष्य की रूप-रेखा पेश कर रहा है. आईईए बार-बार यह समझने में विफल रहा है कि एक क्रांति हो रही है, लेकिन उन्होंने आखिरकार यह बात समझ ही ली.”
आयरलैंड में यूनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के ऊर्जा मॉडलर एंड्रयू स्मिथ ने कहा, "कुछ समस्याओं को ठीक नहीं किया गया है. आईईए मॉडल में नवीकरणीय ऊर्जा को बिजली ग्रिड में ले जाने की लागत वास्तविकता की तुलना में कहीं अधिक है. यह व्यवस्थागत समस्या है जिसके बारे में कई साल पहले बताया गया था और यह अभी भी हो रहा है.”
जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी करनी होगी
जैसे-जैसे धरती का तापमान बढ़ रहा है, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कटौती की मांग तेज होती जा रही है. जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित हवा से होने वाले नुकसान से चिंतित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने जीवाश्म ईंधन की खोज और उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए कानून बनाने का आह्वान किया है. वर्ष 2021 में डब्ल्यूएचओ ने कहा कि जलवायु परिवर्तन मानवता के सामने ‘सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा' है.
मार्च में, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने विज्ञान के क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों की समीक्षा वाली अपनी ऐतिहासिक रिपोर्ट प्रकाशित की. इसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि अगले 12 वर्षों में कार्बन प्रदूषण को हर हाल में दो-तिहाई तक कम करने पर ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने के लक्ष्य को हासिल करने की आधी संभावना होगी. साथ ही, 2040 तक कार्बन प्रदूषण 2019 की तुलना में 80 फीसदी कम हो जाना चाहिए.
यह रिपोर्ट जारी होने के कुछ हफ्तों बाद, कई जीवाश्म ईंधन कंपनियों ने प्रदूषण रोकने की अपनी योजनाओं को धीमा कर दिया. बीपी ने जीवाश्म ईंधन के उत्पादन से उत्सर्जन में कटौती के अपने लक्ष्यों को कम कर दिया. एक्सॉन मोबिल ने जैव ईंधन के रूप में शैवाल का उपयोग करने की योजना को खत्म कर दिया. शेल के सीईओ वाएल सवान ने मार्च में एक साक्षात्कार में द वॉल स्ट्रीट जर्नल को बताया कि उनकी कंपनी यह विचार कर रही है कि कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती के अपने लक्ष्यों में बदलाव करना है या नहीं.
बिरोल ने कहा, "यह बहुत ही आसान है. अगर हमें 1.5 डिग्री के लक्ष्य को हासिल करना है, तो आपको उतना तेल, गैस और कोयले का इस्तेमाल नहीं करना होगा जितना आप आज कर रहे हैं. यह बात पूरी तरह स्पष्ट है. इसमें किसी तरह का संशय नहीं है.” (dw.com)
आदिवासियों का धर्म क्या है? यह सवाल पूरे देष और खुद आदिवासियों तक को लगातार परेषान किए है। 1951 की मर्दुमशुमारी में ‘आदिवासी’ नाम वाला कॉलम हटा दिया गया। सवाल उत्तेजक और विवादास्पद है कि आदिवासी मूलत: हिंदू हैं या उनका हिंदूकरण करने की कोशिशें लंबे अरसे से की जाती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी सभी आनुुशंगिक शाखाएं वन क्षेत्रों में वर्षों से कई छोटी बड़ी समाजसेवी और शैक्षणिक संस्थाएं खोलकर आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहती उन्हें अपनी परिभाषा में हिंदू बल्कि अब हिंदुत्व का शामिल षरीक मायने दे रही हैं। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिजिनिस‘ का हिंदी तर्जुमा ‘आदिवासी‘ की व्याख्या करते दुनिया में विपुल साहित्य और गंभीर लेखन उपलब्ध है। भारत में आदिवासियों का एक बड़ा धड़ा हिंदू कहलाने से परहेज करता है। इसके बरक्स कई आदिवासी हिंदू धर्म की मान्यताओंं, प्रथाओं और परंपराओं में शामिल शरीक होते भी चलते रहे हैं।
संविधान में आदिवासी के बदले ‘अनुसूचित जनजाति’ या कभी ‘ट्राइबल’, या कोई ‘वनवासी’ वगैरह शब्दों के अनुसार संबोधित किया जाता रहता है। अनूसूचित जनजाति शब्द का विरोध आदिवासी करते चले आ रहे हैं। आदिवासियों के लिए पूरे जीवन प्रखर विदुषी, ईमानदार और समाजचेता बुद्धिजीवी झारखंड निवासी रमणिका गुप्ता ने बहुत महत्वपूर्ण बातें कही हैं। आज कोई सबसे बड़ा खतरा अगर आदिवासी जमात को है, तो वह उसकी पहचान मिटने का है। इक्कीसवीं सदी में उसकी पहचान मिटाने की साजिश एक योजनाबद्ध तरीके से रची जा रही है।
अपनी किताब ‘हिंदू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति‘ में ‘समाजचेता’ वैज्ञानिक वृत्ति के लेखक और शोधकर्ता अभय कुमार दुबे आदिवासियों के हिंदूकरण के संबंध में तर्क करते हैं ‘बी.के. रॉय बर्मन, एल.पी. विद्यार्थी और वेरियर एल्विन जैसे अध्येताओं ने जनजातीय समूहों को चार या पांच भागों में अपने-अपने हिसाब से वर्गीकृत किया है। इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जिनका हिंदू समाज में पूरी तरह से विनियोग किया जा चुका है, या जो हिंदू समाज के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं, या जो ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और जिनका पूरा या आधा रूपांतरण हो चुका है, या जो मैदानी समाज से संपर्क में भी हैं और जिन्होंने अपना आदिवासीपन नहीं छोड़ा है, या जिनका हिंदू समाज के निचले पायदान में विनियोग कर लिया गया है, या जो पूरी तरह से हिंदू हो चुके हैं। जाहिर है इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जो हिंदू बनने के लिए तैयार नहीं हैं और हिंदू समाज के प्रति नकारात्मक रूख रखते हैं।‘‘
संघ ने आदिवासियों के हिंदूकरण की कोशिश नहीं की थी। उसके पहले ही प्रतिष्ठा प्राप्त गहिरा गुरु (असली नाम रामेश्वर) के प्रभावी नेतृत्व में जशपुरनगर में ईसाइयत के प्रसार का विरोध हो रहा था। गहिरा गुरु ने कुछ शिव मंदिरों और दुर्गा मंदिर की स्थापना भी की थी। संघ परिवार ने गहिरा गुरु की लोकप्रियता का लाभ उठाकर बजरंगबली को आदिवासियों के देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और साथ में ईसाई मिशनरियों के खिलाफ हिंसा में भी उनका इस्तेमाल किया।
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत मेें आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 अर्थात् देष की कुल आबादी का 8.06 प्रतिशत रही है। भारतीय ट्राइबल पार्टी के मुखिया छोटूभाई वासवा कहते हैं, ‘आदिवासियों के लिए आदिवासी धर्म ही कॉलम होना चाहिए। सरना, भील, गोंड या फिर मुंडा नहीं।’ यह भी कहते हैं कि ‘हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है। संघवाले हिंदू शब्द को स्थापित करना चाहते हैं। यह तो वास्तव में सनातन धर्म है।’ उनके अनुसार, ‘जब तक बाहरी लोग आदिवासी क्षेत्र में नहीं आए थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक आदिवासी संस्कृति थी। भारत का असली इतिहास तो आदिवासियों से शुरू होता है।’
प्रसिद्ध मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस गांधीजी के निजी सचिव भी रहे। उन्होंने समाजशास्त्रीय, नृतत्वशास्त्रीय नई अवधारणा प्रस्तुत की जिसे गांधी, नेहरू, ठक्कर बापा बल्कि अंबेडकर सहित पूरी संविधान सभा ने भी स्वीकार कर लिया था। यह अवधारणा अकादेमिक क्षेत्र में ‘आदिवासियों को जज्ब करने की हिंदू विधि’ के नाम से विख्यात है। बोस की थ्योरी है कि आदिवासी हिंदुओं के दिन प्रतिदिन संपर्क में होते रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे क्रमश: अपनी आदिवासी पहचान और अस्मिता भूलते गए। प्रसिद्ध मानवशास्त्री और निर्मल बोस के समकालीन तारकचंद्र दास (1898-1964) ने इसके उलट बोस के बरक्स अपनी समझ की तात्विकता को बेहतर, वैज्ञानिक और सेक्युलर आधारों पर समीक्षित करते कहा है कि आदिवासी मूलत: हिन्दू नहीं हैं।
आदिवासियों को दुनियावी कारणों से ईसाई धर्मों मेंं प्रलोभन के आधार पर धर्म परिवर्तित कर लिया जाता रहा हो लेकिन वह आदिवासी होने की मानसिकता का ईसाइयत में अंतरण नहीं कहा जा सकता। भारत के आदिवासी समुदाय के एकमात्र कार्डिनल आर्च बिषप तिल्सेफर टोप्पो भी मानते हैं कि जनजातियों के बीच कैथोलिक चर्च अभी शिशु अवस्था में ही है। संकेत साफ है चर्च को जनजातियों के बीच आगे बढऩे की संभावनाएं दिखाई तो दे रही है। संविधान के अनुसार ईसाई धर्म अल्पसंख्यक धर्म है। आदिवासी संवैधानिक रूप से घोषित अल्पसंख्यक नहीं हैं। आदिवासी के ईसाइयत में धर्म परिवर्तित होने पर उसकी पहचान आदिवासी के रूप में सुरक्षित रहती है। धर्म परिवर्तन करने से भी उसे अल्पसंख्यक की श्रेणी में नहीं माना जाता। यही ईसाई धर्म में तब्दील हो गए आदिवासी अब मांग करते हैं। वे ईसाइयों के रूप में व्यवहार करते हैं, तो कहते हैं कि हमें अल्पसंख्यक माना जाए क्योंकि हम ईसाई हैं। उन्हें संवैधानिक और अन्य तरह की सुरक्षाएं दी जाती हैंं, जिसके वे नौकरी, विधायन में निर्वाचन तथा शिक्षा आदि के लिए हकदार हैं, तब कहते हैं कि हम आदिवासी हैं। ईसाइयत में परिवर्तित सभी ईसाई आदिवासी दोहरा चरित्र जीवन जीने और दोहरे लाभ भी उठाने को मजबूर हैं।
ईसाई मिशनरी और ईसाइयत में तब्दील हो चुके आदिवासी भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद् सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ हिंसा का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि वे आदिवासी ईसाइयों को जबरिया हिंदू धर्म में शामिल करने के लिए तयशुदा अभियान चला रहे हैं। आदिवासियों और चर्च पर भौतिक तथा हिंसात्मक हमले भी करते हैं ताकि डर के कारण ईसाई हो चुके आदिवासी वापस अपने कथित हिंदू धर्म में लौट जाएं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर 2014 के बाद ऐसे इलाकों में जहां आदिवासी ईसाई हो चुके हैं, संघ, विश्व हिंदू परिषद् तथा भारतीय जनता पार्टी की ओर से हमलों का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है। यह भी आरोप है कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें रही हैं, उस दौरान वहां हमले बहुत बढ़े हैं। संयुक्त राज्य अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की सिफारिश तक की है। उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन में लोग संलग्न हैं। आयोग के प्रस्ताव में खासतौर से छत्तीसगढ़ के धर्मांतरण विरोधी कानून छत्तीसगढ़ अर्थात् धर्म स्वातंत्र्य संहिता, 1968 और भारतीय जनता पार्टी की छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पेश किए गए संशोधन का हवाला दिया है।
उन्हें हिंदू धर्म का मान लिया जाए इसको लेकर भी मूल आदिवासियों में विरोध बरकरार है। वे अपने आपको सरना या किसी अन्य मूल आदिवासी धर्म के साथ जुड़े रहना चाहते हैैं। भारतीय जनता पार्टी और सरना धर्म के मानने वालों सहित कुछ और लोगों का तर्क है कि जो आदिवासी ईसाई बन गए हैं, उन्हें आरक्षण का फायदा नहीं मिलना चाहिए। लेकिन सवाल संविधान का है। आदिवासी चिंतक डॉ. रामदयाल मुंडा ने आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता को वैचारिक आधार देते ‘आदि धर्म’ नाम से महत्वपूर्ण किताब लिखी। उनका यह विचार संघ के ‘एक धर्म हिंदू’ नामक नारे का प्रतिपक्ष कहा गया। रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा था कि आदिवासियों को सरना धर्म कोड की जरूरत नहीं है। संघ तो उन्हें हिंदू मानता है। तब आदिवासी समाज में इसकी काफी उलट प्रतिक्रिया हुई थी। संघ बिल्कुल नहीं चाहता कि आदिवासी हिंदुत्व के फ्रेम से बाहर हो जाएं। इसलिए जहां जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां वहां धर्मांतरण के खिलाफ अधिनियम पारित कर कठोरता के साथ आदिवासियों के ईसाई बनने पर दबाव बनाया जाएगा और जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं उनकी हिंदू धर्म में वापसी के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।
ए. के. पंकज कहते हैं कि भारत की मर्दुमशुमारी 1931 के आंकड़ों के आधार पर एक नई बात कहते हैं। अंग्रेजी राज के दौरान उनका आंकड़ा 1931 की जनगणना पर आधारित कहता है कि 30 लाख लोगों में 16 लाख हिंदू बन गए। सिर्फ 35 गोंडों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। बीस लाख भीलों में सोलह लाख हिंदू बन गए। आठ हजार ने मुस्लिम धर्म अपनाया। और केवल 133 ने ईसाइयत ली। पच्चीस लाख संथालों में दस लाख हिंदू बने जबकि ईसाई धर्म अपनाने वालों की संख्या केवल चौबीस हजार रही है। इसी तरह दस लाख उरांव में से चार लाख हिंदू और दो लाख ईसाई बने। ईसाई संगठन चाहते रहे हैं कि आदिवासी ईसाई बन जाएं। हिंदू संगठन उन्हें अपने पाले में लाने पुरजोर कोशिश मेंं लगे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें। इसके लिए संघ देश भर में अभियान चलाएगा।
आदिवासी के साथ जुल्म आजाद भारत में हो रहा है। यह असाधारण और अन्यायपूर्ण है। यह कैसा संविधान, शासन और कानून है जो मनुष्य होने की कगार पर गिर रहा है। जो मनुष्य की सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुरक्षित रखने का वायदा करने के बावजूद उसके अस्तित्व पर ही चोट कर रहा है। फिर भी उसे समझाता है कि तुम तो वोट बैंक की इकाई हो। तुम भारत के मूल निवास का अहसास भले रहे हो। तो भी तुम्हें किसी न किसी धर्म में शामिल होकर उस धर्म की आदतों, मान्यताओं, आदेशों और परंपराओं को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा। यह जद्दोजहद केवल मनुष्यों की चुनौती नहीं है। यह इतिहास का एक भविष्यमूलक पेचीदा सवाल है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
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फेसबुक रीयलटाइम मीडियम होने के कारण विकासमूलक और आंदोलनकारी या वैचारिक क्रांति में बड़ी भूमिका निभा सकता है। समस्या है फेसबुक का पेट भरने की। देखना होगा फेसबुक के मित्र-यूजर किन चीजों से पेट भर रहे हैं। खासकर हिन्दी के फेसबुक मित्र किस तरह की चीजों और विषयों के संचार के लिए इस माध्यम का इस्तेमाल कर रहे हैं ? अभी एक बड़ा हिस्सा गली-चौराहों की पुरानी बातचीत की शैली और अनौपचारिकता को यहां ले आया है। इससे जहां एक ओर पुरानी निजता या प्राइवेसी खत्म हुई है। वहीं दूसरी ओर वर्चुअल संचार में इजाफा हुआ है। हमें फेसबुक को शक्तिशाली मीडियम बनाना है तो देश की राजनीति से जोडऩा होगा। राजनीति से जुडने के बाद ही फेसबुक को हिन्दी में अपनी निजी पहचान मिलेगी और फेसबुक की बतखोरी,गॉसिप और बाजारू संस्कृति से आगे जाकर क्या भूमिकाएं हो सकती हैं उनका भी रास्ता खुलेगा। कोई भी मीडिया टिप्पणियों, प्रशंसा, निज मन की बातें,निजी जीवन की दैनंदिन डायरी, पत्रलेखन से बड़ा नहीं बना, इनसे मीडिया को पहचान नहीं मिलती। ब्लॉगिग,फेसबुक आदि को प्रभावी बनाने के लिए इन माध्यमों का राजनीति से जुडऩा बेहद जरूरी है।
क्लारा शिन ने ‘दि फेसबुक एरा: टैपिंग ऑनलाइन सोशल नेटवक्र्स टू बिल्ड बेटर प्रोडक्टस, रीच न्यू ऑडिएंसेस, एंड सेल मोर स्टफ’ नामक किताब में लिखा है ऑनलाइन सोशल नेटवर्क के तेजी से विस्तार ने हमारी जीवनशैली, काम और संपर्क की प्रकृति को बुनियादी तौर पर बदल दिया है। इसने व्यापार के विस्तार की अनंत संभावनाओं को जन्म दिया है। फेसबुक विस्तार के तीन प्रधान कारण हैं। पहला, विश्वसनीय पहचान। दूसरा,विशिष्टता और तीसरा है समाचार प्रवाह। फेसबुक द्वारा डाटा और सूचनाओं के सार्वजनिक कर देने के बाद से इंटरनेट पर्दादारी का अंत हो गया है। सूचना की निजता की विदाई हुई है और वर्चुअल सामाजिकता और पारदर्शिता का उदय हुआ है। डाटा के सार्वजनिक होने से यूजर आसानी से पहचान सकता है कि वह किसके साथ संवाद और संपर्क कर रहा है।ब्लॉगिंग के साथ निजी सूचनाओं के सार्वजनिक करने की परंपरा आरंभ हुई थी जिसे फेसबुक ने नयी बुलंदियों पर पहुँचा दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक जीवन से निजता का अंत हो गया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि इंटरनेट पहले की तुलना में और भी ज्यादा पारदर्शी बना है। साथ ही सामान्य लोगों में निजी बातों को सार्वजनिक करने की आदत बढ़ी है। निजी और सार्वजनिक बातों के वर्गीकरण के सभी पुराने मानक दरक गए हैं। फेसबुक ने प्राइवेसी का अर्थ बदला है पहले प्राइवेसी का अर्थ था छिपाना। लेकिन आज कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। आज प्राइवेसी का अर्थ है संचार के संदर्भ का सम्मान करना। नकारात्मक पक्ष है वर्चुअल यथार्थ। यानी यथार्थ का विलोम। वर्चुअल संचार ने समाज में वर्चस्वशाली ताकतों को और भी ज्यादा ताकतवर बनाया है और सामान्यजन को अधिकारहीन, नियंत्रित और पैसिव बनाया है। इंटरनेट आने के बाद दरिद्रता और असमानता के खिलाफ राजनीतिक जंग कमजोर हुई है। वर्चस्वशाली ताकतों को बल मिला है। सामाजिक और राजनीतिक निष्क्रियता बढ़ी है। शाब्दिक गतिविधियां बढ़ी हैं, कायिक शिरकत घटी है। अब हम वर्चुअल में मिलते हैं और वर्चुअल में ही गायब हो जाते हैं।
फेसबुक महज एक कंपनी नहीं है वह नए युग की कम्युनिकेशन, सभ्यता-संस्कृति की रचयिता भी है। यह बेवदुनिया की पहली कंपनी है जिसके एक माह में 1 ट्रिलियन पन्ने पढ़े जाते हैं। प्रतिदिन फेसबुक पर 2.7बिलियन लाइक कमेंटस आते हैं। किसी भी कम्युनिकेशन कंपनी को इस तरह सफलता नहीं मिली, यही वजह है कि फेसबुक परवर्ती पूंजीवाद की संस्कृति निर्माता है। वह महज कंपनी नहीं है।
गूगल के सह-संस्थापक सिर्गेयी ब्रीन ने इंटरनेट के भविष्य को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की है। इंटरनेट की अभिव्यक्ति की आजादी को अमेरिका और दूसरे देशों में जिस तरह कानूनी बंदिशों में बांधा जा रहा है उससे मुक्त अभिव्यक्ति के इस माध्यम का मूल स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा।
फेसबुक पर यदि कोई यूजर कहीं से सामग्री ले रहा है और उसे पुन: प्रस्तुत करता है और अपने स्रोत को नहीं बताता तो इससे नाराज नहीं होना चाहिए। यूजर ने जो लिखा है वह उसके विचारधारात्मक नजरिए का भी प्रमाण हो जरूरी नहीं है।
फेसबुक तो नकल की सामग्री या अनौपचारिक अभिव्यक्ति का मीडियम है। यह अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति या कम्युनिकेशन का कम्युनिकेशन है। यहां विचारधारा, व्यक्ति, उम्र,हैसियत,पद. जाति, वंश, धर्म आदि के आधार पर कम्युनिकेशन नहीं होता। फेसबुक में संदर्भ और नाम नहीं कम्युनिकेशन महत्वपूर्ण है। फेसबुक की वॉल पर लिखी इबारत महज लेखन है। इसकी कोई विचारधारा नहीं है। फेसबुक पर लोग विचारधारारहित होकर कम्युनिकेट करते हैं। विचारधारा के आधार पर कम्युनिकेट करने वालों का यह मीडियम ‘ई’ यूजरों से अलगाव पैदा करता है।
फेसबुक विचारधारात्मक संघर्ष की जगह नहीं है। यह मात्र कम्युनिकेशन की जगह है। इस क्रम में मूड खराब करने या गुस्सा करने या सूची से निकालने की कोई जरूरत नहीं है। हम कम्युनिकेशन को कम्युनिकेशन रहने दें। कु-कम्युनिकेशन न बनाएं। फेसबुक कम्युनिकेशन क्षणिक कम्युनिकेशन है। अनेक बार फेसबुक में गलत को सही करने के लिए लिखें ,लेकिन इसमें व्यक्तिगत आत्मगत चीजों को न लाएं। दूसरी बात यह कि फेसबुक मित्र तो विचारधारा और पहचानरहित वायवीय मित्र हैं। आभासी मित्रों से आभासी बहस हो। यानी मजे मजे में कम्युनिकेट करें। असल में ,विचारधारा का कम्युनिकेशन में अवमूल्यन है फेसबुक। एक अन्य सवाल उठा है कि क्या फेसबुक और ट्विटर ने अकेलेपन को कम किया है या अकेलेपन में इजाफा किया है ? यह अकेले व्यक्ति को और भी एकांत में धकेलता है। संपर्क तो रहता है ,लेकिन संबंधों का बंधन नहीं बंधने देता। दोस्त तो होते हैं लेकिन कभी मिलते नहीं हैं।
फेसबुक ने मनुष्य की मूलभूत विशेषताओं को कम्युनिकेशन का आधार बनाकर समूची प्रोग्रामिंग की है। मनुष्य की मूलभूत विशेषता है शेयर करने की और लाइक करने की। इन दो सहजजात संवृत्तियों को फेसबुक ने कम्युनिकेशन का महामंत्र बना डाला। इसमें भी फोटो शेयरिंग एक बड़ी छलांग है। यूजर जितने फोटो शेयर करता है वह नेट पर उतना ही ज्यादा समय खर्च करता है। आप जितना समय खर्च करते हैं उतना ही खुश होते हैं और फेसबुक को उससे बेशुमार विज्ञापन मिलते हैं । विगत वर्ष फेसबुक को विज्ञापनों से 1 बिलियन डॉलर की कमाई हुई है। असल में फेसबुक सामुदायिक साझेदारी का माध्यम है।यदि कोई इसे घृणा का माध्यम बनाना चाहे तो उसे असफलता हाथ लगेगी। फेसबुक में धर्म,धार्मिक प्रचार, राजनीतिक प्रचार आदि सब सतह पर विचारधारात्मक लगते हैं लेकिन प्रचारित होते ही क्षणिक कम्युनिकेशन में रूपांतरित हो जाते हैं। विचारधारा और विचार का महज कम्युनिकेशन में रूपान्तरण एक बड़ा फिनोमिना है। जिनकी तरीके से देखने की आदत है वे इस तथ्य को अभी भी पकड़ नहीं पा रहे हैं।
इंटरनेट के समानान्तर सैटेलाइट टीवी और मोबाइल कम्युनिकेशन का भी तेजी से विस्तार हुआ है। नई पूंजीवादी संचार क्रांति समाज को स्मार्ट मोबाइल क्रांति की ओर धकेल रही है। स्मार्ट मोबाइल के उपभोग के मामले में चीन ने सारी दुनिया को पीछे छोड़ दिया है। भारत में बिजली की कमी के अभाव में रूकी संचार क्रांति निकट भविष्य में स्मार्ट मोबाइल फोन से गति पकड़ेगी । स्मार्ट फोन के जरिए हम पीसी-लैपटॉप को भी जल्द ही पीछे छोड़ जाएंगे ।
फेसबुक ने अहंकाररहित कम्युनिकेशन को संभव बनाया है। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति सहज भाव से अपनी बात कहकर खिसक लेता है। अहंकाररहित कम्युनिकेशन जीवन का परमानंद है।
सुदीप ठाकुर
2024 के चुनाव को लेकर राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एकजुट करने की नई मुहिम शुरू कर चुके हैं। सियासत इस देश का सबसे प्रिय शगल है। अनेक राजनीतिक पंडित और संपादक 2024 का अपना आकलन शुरू कर चुके हैंं। यहां देखिए 2024 के आम चुनाव को लेकर अख़बारनवीस सुदीप ठाकुर का पहला ब्लॉग...
हमारे बहुदलीय लोकतंत्र की संरचना कुछ इस तरह की है कि विगत सत्तर सालों में ऐसे बहुत कम मौके आए हैं, जब कोई एक मजबूत विपक्षी दल रहा हो। दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की 2024 के चुनाव के मद्देनजर विपक्षी दलों को एकजुट करने की ताजा मुहिम को इस तथ्य के साथ भी देखने की जरूरत है।
जनता दल (यू) नेता नीतीश ने अपने उपमुख्यमंत्री राजद नेता तेजस्वी के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े और राहुल गांधी तथा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से अलग-अलग मुलाकातें की हैं। इस बीच, दूसरे विपक्षी नेताओं की आपस में मुलाकातों की खबरें भी हैं। नीतीश कुमार ने 2024 में भाजपा को चुनौती देने के लिए ‘एक सीट एक उम्मीदवार’ का फार्मूला दिया है। यानी भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ संयुक्त विपक्ष का एक-एक उम्मीदवार। देखा जाए तो यह कोई नया फार्मूला नहीं है, और जैसा कि खुद नीतीश ने भी कहा है कि 1977 और 1989 में ऐसा किया जा चुका है। हालांकि 1977 और 1989 की परिस्थितियां भिन्न थीं और तब कांग्रेस प्रभुत्व वाली पार्टी थी। आज भाजपा प्रभुत्व वाली पार्टी है।
क्या एकजुट विपक्ष का यह फार्मूला इस बार कारगर होगा? क्या 2024, 1977 और 1989 को दोहराएगा?
पूरे देश के पैमाने पर विभिन्न राज्यों में भाजपा और विपक्षी दलों की स्थिति को देखें, तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है। करीब बीस छोटे बड़े दल हैं, जिन्हें गैर भाजपा या गैर एनडीए की श्रेणी में रखा जा सकता है। जाहिर है, इतने सारे दलों के बीच सामंजस्य बिठाना कोई आसान काम नहीं है। तो नीतीश किस आधार पर संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार की बात कर रहे हैं? या विपक्ष की ऐसी किसी भी मुहिम का आधार क्या है?
इसका सबसे बड़ा आधार यही है कि 2019 के चुनाव में भाजपा को 37.7 फीसदी वोट मिले थे, यानी 63 फीसदी वोट बिखरे हुए हैं। यदि विपक्षी दल एकजुट हो जाएं, तो भाजपा का आधार दरक सकता है। इस अंक गणित में यदि विभिन्न दलों की केमेस्ट्री को भी मिलाकर देखें, तो स्थितियां काफी साफ होती जाती हैं।
हम इस विश्लेषण में राज्यों को तीन समूहों या ग्रुप में बांट रहे हैं। पहले ग्रुप में ऐसे राज्य हैं, जहां भाजपा का किसी भी एक दल या गठबंधन से सीधा मुकाबला है। इसे हम यहां ‘ग्रुप-ए’ कहेंगे। दूसरे समूह में ऐसे राज्य हैं, जहां विपक्षी दल (भाजपा के विपक्षी) एकजुट नहीं हैं या एक दूसरे से भी चुनाव लड़ते हैं। ऐसे राज्यों को हम ‘ग्रुप-बी’ कहेंगे। तीसरा समूह ऐसे राज्यों का है, जहां प्रभुत्व वाले दल न तो भाजपा की अगुआई वाली एनडीए में हैं और न ही विपक्षी दलों की मुहिम में शामिल हैं। ऐसे राज्यों को इस विश्लेषण में हम ‘ग्रुप-सी’ कहेंगे।
आइए सबसे पहले ‘ग्रुप-ए’ पर नजर डालते हैं। यानी उन राज्यों और वहां की लोकसभा सीटों पर जहां भाजपा तथा उसके गठबंधन का किसी एक दल या गठबंधन से सीधा मुकाबला है, और हो सकता है। (मुकाबले में शामिल छोटे दलों को इसमें शामिल नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनकी उपस्थिति बहुत प्रभावकारी नहीं है) ये राज्य हैं, तमिलनाडु (39), महाराष्ट्र (48), बिहार, (40) झारखंड (14), मध्यप्रदेश (29), छत्तीसगढ़ (11), राजस्थान (25), गुजरात (26), असम (14), हरियाणा (10), हिमाचल प्रदेश (04) और उत्तराखंड (05)। ये कुल 265 सीटें होती हैं, जहां मौजूदा स्थिति में विपक्ष को एकजुट कहा जा सकता है और जहां वह भाजपा या एनडीए को सीधे चुनौती देने की स्थिति में है। यानी 'ग्रुप-ए’ में 265 सीटें हैं।
‘ग्रुप-ए’ में शामिल तमिलनाडु में द्रमुक, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह लगातार तमिलनाडु में भाजपा का आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अन्नाद्रमुक एनडीए का हिस्सा है। महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव ठाकरे), एनसीपी और कांग्रेस का महाअघाड़ी भाजपा-शिवसेना (शिंदे) के गठबंधन के खिलाफ संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने की स्थिति में है। यही स्थिति बिहार में है, जहां जनता दल (यू), राजद और कांग्रेस का महागठबंधन है। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, असम, हरियाणा, हिमाचल और उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा तथा उसके गठबंधन के बीच सीधी लड़ाई है।
अब ग्रुप-बी की बात करते हैं, जहां विपक्षी दलों की आपस में भी लड़ाई है। इनमें हम उत्तर प्रदेश (80), पश्चिम बंगाल (42), केरल (18), तेलंगाना (17), कर्नाटक (28), पंजाब (13) और दिल्ली (07)। ग्रुप-बी में कुल सीटें हुईं 205। उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच अभी कोई तालमेल नहीं है। 2014 से देश का यह सबसे बड़ा सूबा भाजपा का गढ़ बन गया है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस तथा कांग्रेस और वामदलों के बीच अभी कोई तालमेल नहीं है। 2019 में भाजपा ने यहां 18 सीटें जीत ली थीं। और अभी अमित शाह ने 35 का टारगेट रखा है! केरल में कांग्रेस और वाम दल पारंपरिक रूप से प्रतिद्वंद्वी हैं। तेलंगाना के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की स्थिति ममता के तृणमूल की तरह है, जिसने कांग्रेस से दूरी बना रखी है। कर्नाटक में कांग्रेस और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के जनता दल (एस) के बीच अभी तालमेल नहीं है। पंजाब और दिल्ली में अब आम आदमी पार्टी भी बड़ी दावेदार है, जहां कांग्रेस के साथ उसका अभी तालमेल नहीं है।
अब ग्रुप-सी को देखते हैं, जिन राज्यों के प्रभुत्व वाले दल प्रत्यक्षत: न तो भाजपा के साथ हैं और न ही विपक्ष के साथ। ये राज्य हैं, ओडिशा (21) और आंध्र प्रदेश (25)। ओडिशा में करीब पच्चीस साल से बीजू जनता दल का शासन है। बीजद नेता और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक न तो एनडीए का हिस्सा हैं और न ही विपक्ष की ताजा मुहिम का। आंध्र प्रदेश में 2019 से वाईएसआर कांग्रेस पार्टी सत्ता में है। इसके नेता और मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी भी पटनायक की तरह न तो एनडीए का हिस्सा हैं और न ही विपक्ष की ताजा मुहिम का। हालांकि यह भी सच है कि कुछ विशेष मौकों पर विधेयक पारित करवाने में बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस ने मोदी सरकार का साथ दिया है। लेकिन ये दोनों दल अकेले ही चुनाव मैदान में जाना चाहेंगे। आंध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी भी है। ग्रुप-सी में इस तरह 46 सीटें हैं।
इस तरह ग्रुप-ए की 265, ग्रुप-बी की 205 और ग्रुप-सी की 46 सीटों को जोड़ें तो ये 516 सीटें होती हैं। लोकसभा की कुल 543 सीटें हैं।इस तरह बची 27 सीटें जम्मू-कश्मीर, गोवा तथा पूर्वोत्तर के राज्यों की हैं, जिन्हें मोटे तौर पर इस विश्लेषण में शामिल नहीं किया गया है। जम्मू-कश्मीर, गोव को छोड़ दें, तो बाकी के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भाजपा की स्थिति मजबूत है और वहां एकजुट विपक्ष की संभावनाएं कम ही हैं।
ग्रुप-ए की 265 सीटों में सीधे मुकाबले के आसार हैं। वहीं ग्रुप-बी के उत्तर प्रदेश (80) और दिल्ली (07) ही ऐसे राज्य हैं, जहां लोकसभा चुनाव के लिहाज से भाजपा वर्चस्व वाली पार्टी है और जहां विपक्ष बिखरा हुआ है। जबकि ग्रुप-बी के पश्चिम बंगाल (42), केरल (18), तेलंगाना (17), कर्नाटक (28), और पंजाब (13) ऐसे राज्य हैं, जहां विपक्ष एकजुट भले न हो, लेकिन वहां की प्रभुत्व वाली विपक्षी पार्टियां भाजपा को सीधे चुनौती दे सकती हैं। ये सीटें होती हैं, 118। इन्हें यदि ग्रुप-ए की 265 सीटों के साथ जोड़ दें तो ये 383 सीटें होती हैं, जहां विपक्ष सही रणनीति बनाकर भाजपा को सीधे चुनौती दे सकता है।
निस्संदेह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए 2024 के चुनाव बेहद अहम हैं, क्योंकि 2025 में आरएसएस की स्थापना के सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। भाजपा के रणनीतिकार तो इस बार मोदी की अगुआई में 400 से अधिक सीटें जीतने की बात कर रहे हैं, जैसा कि कुछ दिन पहले द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट में कहा गया था।
क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में 383 सीटों का अंकगणित काम करेगा? इसका जवाब विपक्ष को तलाशना है।
डॉ. परिवेश मिश्रा
सारंगढ़ नगर से लगे हुए गुमर्डा अभयारण्य में एक रेस्ट हाऊस पास के गांव टमटोरा के नाम पर जाना जाता रहा है। 1999 में मुझे खुशी हुई देखकर कि इस रेस्टहाउस का नाम ‘जे.जे.दत्ता हट’ रख दिया गया है। छत्तीसगढ राज्य बना तो अफसर बदले। 2003 में फिर यहां पहुंचा तो देखा नाम मिटा दिया गया था। बात यहां नहीं रुकी। कुछ सालों के बाद एक अधिकारी ने सामने के पहाड़ के नाम पर रेस्टहाउस का नाम राठन-हट कर दिया। फिर अधिकारी बदले और वर्तमान में इसका नाम जे.जे. बंगला है।
मेरा यह लेख इस उम्मीद को समर्पित है कि वन विभाग का कोई जिम्मेदार अधिकारी इसे पढक़र सुनिश्चित करे कि इस अभयारण्य और श्री जेजे दत्ता के संबंधों तथा उसके महत्व से मैदानी अधिकारियों और पर्यटकों की वाकफिय़त हो और उनके नाम से इस अभयारण्य के जुड़ाव को स्थायित्व मिले। सच तो यह है कि किसी भी सरकारी योजना, स्थान, स्मारक आदि का नामकरण बहुत सोच-विचार के बाद किया जाना चाहिए और आम लोगों को ऐसे नामकरण के आधार, औचित्य, पृष्ठभूमि और तर्क के साथ नाम के महत्व से परिचित कराने की व्यवस्था होना चाहिए।
आजादी के बाद के पच्चीस साल भारत के वनों और वन्य-प्राणियों के लिए बर्बादी का काल था। अधिकतम नुकसान वनों के उन इलाकों में हुआ जो आजादी से पहले तक राजाओं के अपने निजी शिकार-गाह थे और जिन संरक्षित वनों को राज्यों के विलय के बाद राजाओं ने अपनी निजि सम्पत्ति के रूप में अपने पास न रखकर भारतीय संघ के हवाले कर दिया था। राजाओं का जो आदर, सम्मान, प्रेम, डर और खौफ (अलग-अलग अनुपात में) आम जनता को वृक्षों की कटाई और जानवरों के शिकार से रोकता था, उसे आज़ादी ने हटा दिया था।
आज देश मे जो कुल 617 नेशनल पार्क और अभयारण्य अधिसूचित हैं उनमे से आधे से अधिक ऐसे हैं जो आजादी से पहले शिकार के लिए आरक्षित वन थे- 277 राजाओं के इलाकों में और 87 अंग्रेजों द्वारा प्रशासित इलाकों में।
सारंगढ़ के राजाओं का अपना ऐसा ही आरक्षित वन और शिकार-गाह था गुमर्डा। कुछ अन्य प्रसिद्ध नामों में छत्तीसगढ में सरगुजा का सेमरसोत, दंतेवाड़ा का इन्द्रावती, बस्तर का कांगेर-वैली, कोरिया का गुरू घासीदास, गुजरात में सिंह के लिए विख्यात जूनागढ़ का गिर, केरल में ट्रावनकोर महाराजा का पेरियार पार्क, मध्यप्रदेश मे पन्ना, बांधवगढ़, सीधी का संजय-डुबरी, शिवपुरी का माधव राष्ट्रीय उद्यान, पालपुर-कूनो, सैलाना जैसे नाम शामिल हैं। इसी तरह कॉर्बेट (उत्तराखंड), कान्हा (मप्र), ताडोबा (महाराष्ट्र) अंग्रेजों के आरक्षित वन थे।
शिकार और संरक्षण, मानव और वन्य-प्राणियों का सह-अस्तित्व, इन सब के बीच संतुलन बैठाने का कार्य हाथों में लम्बा बांस लेकर हवा में झूलती रस्सी पर चलने जैसा होता है। इस दायित्व का निर्वहन वर्षों और पीढिय़ों के अनुभव और समझ की मांग करता है।
सरगुजा के महाराजा रामानुजशरण सिंह का नाम दुनिया के इतिहास में सबसे अधिक शेर मारने वाले व्यक्ति के रूप मे दर्ज है। हालांकि शेरों की संख्या 1150 पर पहुंचने के बाद उन्होने रिकॉर्ड रखना छोड़ दिया था पर अनुमान के अनुसार यह संख्या 1400 है। जब सन् 1918 में महाराजा रामानुजशरण सिंह ने राजकाज संभाला तब राज्य में आदमखोरों समेत शेरों की संख्या इतनी अधिक हो चुकी थी कि बड़ी तादाद में लोग राज्य छोडक़र भागने लगे थे। एक समय आया जब यह तय करना जरूरी हो गया कि सरगुजा में आदमी रहेंगे या शेर। सरगुजा से लगे हुए हैं कोरिया राज्य के जंगल। और कोरिया से लगे हुए हैं रीवा राज्य के जंगल। एक अनुमान के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति से द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बीच इस क्षेत्र में कोई तीन हजार शेर मारे गये थे। उसी अनुमान के अनुसार 1924 में भारत में सत्तर हजार शेर थे। अधिकांश मध्य क्षेत्र में।
जूनागढ़ राज्य में 1891 में सिंह की अनुमानित आबादी 31 थी। लॉर्ड कर्जन ने नवाब की ओर से आया शिकार का न्योता स्वीकार कर लिया था। लेकिन 1899-1901 के भीषण अकाल के बाद सिंहों की संख्या में भारी कमी हो गई। दोनों ने तय किया गया कि शिकार के स्थान पर वे मिल कर सिंह के संरक्षण की दिशा में काम करेंगे।
आजादी से पहले शिकार का अधिकार चंद लोगों के पास सुरक्षित था। इस अभिजात्य वर्ग की कैद से निकला अधिकार जब सर्व-सुलभ हुआ तो यह अवसर अघोषित उत्सव में तब्दील होते समय नहीं लगा। दुर्भाग्य से इस उत्सव पर प्रभावी रोक लगने में पच्चीस साल लग गये।
प्रकृति, वन और वन्य-जीवों से अपने अगाध प्रेम के कारण प्रधानमंत्री बनने के बाद श्रीमती इंदिरा गाधी ने इनके संरक्षण को अपनी प्राथमिकता बनाया। किन्तु राह आसान नहीं थी। आजादी के बाद के दशकों में भारत विदेशी मुद्रा की भीषण कमी के दौर से गुजर रहा था। पर्यटन विदेशी मुद्रा की आमदनी का बड़ा स्रोत था और उन दिनों शिकार के साथ इसका अटूट संबंध था। शिकार-टूरिज्म लॉबी बहुत मजबूती से किसी भी प्रतिबंध के खिलाफ थी। यह संयोग नही था अप्रेल 1952 से अस्तित्व में रहे इंडियन बोर्ड फॉर वाईल्डलाईफ (आईबीडव्लूएल) ने कभी भी देश मे शेरों के शिकार पर प्रतिबंध की सिफारिश नहीं की थी। वन्य-प्राणियों, विशेषकर शेर, चीते, सांप, मगरमच्छ आदि की खाल का निर्यात विदेशी मुद्रा कमाने का बड़ा जरिया था। इसके अतिरिक्त रिसर्च के लिए हजारों की संख्या में बन्दर निर्यात किये जाते थे।
तब तक देश में इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1927 के प्रावधान के तहत शेर (बाघ) और अन्य वन्य-प्रणियों के शिकार के लिए परमिट जारी किये जाते थे। प्रधानमंत्री बनने के छह महीने के भीतर एक जुलाई 1966 के दिन श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में ‘इंडियन फॉरेस्ट सर्विस’ लागू कर एक छोटी शुरुआत की। इंदिरा जी ने राजा कर्ण सिंह को आईबीडव्लूएल का नया अध्यक्ष बनाया और एक जुलाई 1970 को परमिट प्रणाली को बंद करते हुए शेरों के शिकार को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया। वन चूंकि राज्यों का विषय था इसलिए सभी मुख्य मंत्रियों को इसके क्रियान्वयन के लिए पत्र लिखे गये। कुछ महीनों के बाद जब उन्हे पता चला कि इस रोक को लागू करने में सबसे अधिक कोताही मध्यप्रदेश में हो रही है तो उन्होंने मुख्यमंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल को एक के बाद एक तीन पत्र लिखे और हर एक की भाषा में उनकी नाराजगी और तल्खी पहले से अधिक थी।
उस वर्ष मध्यप्रदेश ने प्रतिबंध के बावज़ूद शेरों के शिकार के लिए 29 परमिट जारी किये थे। मुख्यमंत्री के भाई श्री विद्याचरण शुक्ल उन दिनों इंदिरा जी के मंत्रीमंडल के सदस्य भी थे और एल्विन-कूपर नामक शिकार-पर्यटन कम्पनी के मालिक भी। इन्दिरा जी की अत्यधिक नाराजगी का एक परिणाम यह हुआ कि कुछ समय में जब वन्य-प्राणी संरक्षण अधिनियम आया तो मध्यप्रदेश उसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना।
इंदिरा जी को वन्य-प्राणी और पर्यावरण के लिए अपने लक्ष्यों को हासिल करने में भूतपूर्व राजाओं के योगदान की क्षमता पर पूरा विश्वास था। सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह, भावनगर के राजा धर्मकुमार सिंहजी, ध्रंगधरा के राजा जैसे अपने मित्रों से समय समय पर वे चर्चा करती रही थीं।
10 सितम्बर 1971 के दिन जब इंदिरा जी ने अपने कुछ विश्वासपात्रों को बुलाकर वन्य-प्राणियों के संरक्षण के लिए कानून बनाने पर विचारमंथन किया तो उसमें अधिकारी कम, राजपरिवारों के सदस्य अधिक थे। कश्मीर के अंतिम राजा के पुत्र डॉ. कर्ण सिंह, कपूरथला राजघराने के च्च्बिलीज्ज् अर्जन सिंह, मशहूर पक्षी-मित्र सालेम अली के परिवार के जफर फतेह अली और दिल्ली ज़ू के मुखिया रह चुके राजस्थान काडर के कैलाश सांखला जैसे अधिकारियों के अलावा आमंत्रित थे महाराज कुमार रणजीत सिंह जी।
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श्री एम. के. रणजीत सिंह गुजरात में शिकार की परम्परा वाले वांकानेर राजघराने मे जन्म लेने के बाद भी युवावस्था में ही शिकार हमेशा के तज कर अपने आप को वन्य-प्राणियों के संरक्षण के लिए समर्पित कर चुके थे। 1961 में आई.ए.एस. में चयन के बाद इन्हे मध्यप्रदेश काडर दिया गया। उन दिनों प्रथा थी कि युवा अधिकारियों के अंदर छुपी विशिष्ट योग्यताओं और अभिरुचि को ढूंढक़र, पहचान कर, उसके अनुसार नियुक्तियां और जि़म्मेदारियां देकर उन्हे प्रोत्साहित भी किया जाता था और देश तथा प्रशासन के व्यापक हित में लाभ भी लिया जाता था। मध्यप्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में उन्ही के बैच के श्री शरदचन्द्र बेहार, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में श्री अशोक वाजपेयी, पुरातत्व के क्षेत्र में श्री के.के. चक्रवर्ती, और वन तथा पर्यावरण के क्षेत्र में डूंगरपुर राजघराने के श्री समर सिंह ऐसे ही कुछ उदाहरण रहे हैं।
राजा नरेशचन्द्र सिंह जी की बेटियां - मेरी पत्नी मेनका देवी तथा उनकी बहनें - जिन दिनों सागर के सेन्ट जोसेफ कॉन्वेन्ट के होस्टल में रह रहे थे, श्री रणजीत सिंह वहां असिस्टेंट कलेक्टर के रूप में पदस्थ थे और इन बच्चों के लोकल गार्जियन थे। मंडला में कलेक्टर रहने के दौरान कान्हा मे उनके किये कामों ने इंदिरा जी का ध्यानाकर्षण किया और वे दिल्ली बुला लिये गये। तब से प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ के रूप में वे श्रीमती गांधी के पास उपलब्ध रहे। वन्य-प्राणि (संरक्षण) अधिनियम की पूरी परिकल्पना और कानून की ड्राफ्टिंग से लेकर बाद के क्रियान्वयन तक का कार्य इन्होने किया।
वन्य-प्राणी (संरक्षण) अधिनियम नवम्बर 1972 में अस्तित्व में आया। जनवरी 1973 में यह मध्यप्रदेश में लागू हुआ। राज्य में वन विभाग के ही अन्दर वन्य-प्राणियों के लिये एक नया विभाग खड़ा करना था। विभाग के अधिकारियों की तब तक की समझ और अनुभव वनों के संरक्षण और उनके व्यावसायिक दोहन तक सीमित थी। वन्य-प्राणी एक सर्वथा नया विषय था। मुख्य धारा से हटना अधिकारियों की पदोन्नति की संभावना को प्रभावित करेगा कि नहीं इसे लेकर भी संशय था। ऊपर से तुर्रा यह कि इस विभाग के कामकाज पर प्रधानमंत्री की चौकस नजऱ रहने वाली थी। आम अधिकारी अपनी सेवाएं देने के लिए उत्सुक नहीं थे।
यहां कहानी में एन्ट्री होती है वन्य-प्राणी प्रेमी और राज्य के श्रेष्ठतम वरिष्ठ वन अधिकारियों में एक श्री जगत ज्योति (जे.जे.) दत्ता की। जिन दिनों वे राज्य के सर्वश्रेष्ठ साईन्स कॉलेज नागपुर में पढ़ रहे थे, उन दिनों एम.एस.सी. में गोल्ड-मैडिल प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को मार्कशीट के साथ ही उसी कॉलेज में लेक्चरर के रूप में नियुक्ति पत्र भी पकड़ा दिया जाता था। 1946 में ज़ूलॉजी विषय में गोल्ड-मैडिलिस्ट रहे श्री दत्ता ने दो वर्ष शिक्षक के रूप में कार्य किया। 1948 में देहरादून के इंडियन फ़ॉरेस्ट कॉलेज में दाखिल हुए और दो वर्ष के बाद ए.सी.एफ. के पद पर काम शुरू किया। वन्य-प्राणियों में शुरू से श्री दत्ता की बहुत रुचि रही। 1967 में इनका चयन नेहरू-फेलोशिप के लिए हुआ और इन्हे कनाडा और अलास्का में वाईल्ड-लाइफ़ प्रबंधन की ट्रेनिंग के लिए भेजा गया था। सरगुजा और जगदलपुर जैसे स्थानों में कंज़र्वेटर फ़ॉरेस्ट रह चुके श्री दत्ता को मध्यप्रदेश का प्रथम चीफ़ वाईल्ड-लाईफ़ वॉर्डन नियुक्त किया गया। उसी दौरान दिल्ली में श्री रणजीत सिंह भारत के प्रथम डायरेक्टर वाईल्ड लाइफ़ नियुक्त किये गये।
श्री दत्ता के जिम्मे, अन्य बातों के अलावा, राज्य में नये अभयारण्यों को चिन्हांकित करने का काम था। श्री दत्ता तथा श्री रणजीत सिंह के साझा निर्णय के परिणामस्वरूप शुरुआत सारंगढ़ से हुई। गुमर्डा वन को राजा नरेशचन्द्र सिंह जी उतनी ही अच्छी तरह जानते थे जितना लोग अपनी हथेलियों की लकीरों को जानते हैं। सारंगढ़ स्टेट के पुराने नक्शे निकाले गये। राजा साहब के साथ श्री दत्ता ने न केवल गुमर्डा का चप्पा-चप्पा घूमा बल्कि अभयारण्य की सीमा का निर्धारण भी दोनों ने साथ मिलकर किया। नतीजा : अधिनियम बनने के बाद गुमर्डा आकार लेने वाला भारत का सबसे पहला अभयारण्य बना। यह महत्व है रेस्टहाउस के नामकरण का जो भारत में वन्य-प्राणि संरक्षण के इतिहास में श्री जेजे दत्ता के साथ साथ सारंगढ़ की भूमिका को रेखांकित करता है।
Post Script: : (श्री दत्त 1979 में मध्यप्रदेश के चीफ़ कन्जऱवेटर नियुक्त हुए। तब यह विभाग का सबसे ऊंचा पद होता था। उनकी सेवानिवृत्ति से पहले इस पद को प्रिंसिपल चीफ़ कन्जऱवेटर का दजऱ्ा दिया गया। जिन श्री जे.जे.दत्ता के मैदानी सेवाकाल को इंदिरा गांधी जी के विचारों ने सबसे अधिक प्रभावित किया, वे उसी दिन सेवानिवृत्त हुए जिस दिन श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की गयी : 31 अक्टूबर 1985)
गिरिविलास पैलेस
सारंगढ़ 496445
श्री जगत ज्योति दत्ता। पिछले सप्ताह परिवार जनों के बीच इन्होने अपना 97वां जन्मदिन मनाया है।
ज़ूम करने पर नाम दिखेगा ठन हटज
वर्तमान नाम जे जे बंगला
राघवेंद्र राव
तिब्बती आध्यात्मिक नेता और बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा हाल ही में एक विवाद के केंद्र में दिखे। उनसे जुड़ा एक ऐसा वीडियो वायरल हुआ जिसमें वो एक नाबालिग बच्चे के होंठ चूमते दिखे और होंठ चूमने के बाद उन्होंने उससे अपनी जीभ चूसने के लिए कहा।
इस वीडियो के वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं जिनमें लोगों ने इस पूरे प्रकरण को अनुचित और परेशान करने वाला बताते हुए दलाई लामा की कड़ी आलोचना की।
दलाई लामा के दफ्तर की तरफ से एक बयान जारी किया गया जिसमें दलाई लामा ने उस बच्चे और उसके परिवार से माफी मांगी और इस घटना पर अफ़सोस जताया।
साथ ही ये भी कहा गया कि दलाई लामा जिन लोगों से मिलते हैं उन्हें अक्सर मासूमियत से और मजाकिया लहजे में चिढ़ाते हैं।
इस मामले पर मचे हंगामे के बीच बीबीसी ने नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) से सम्पर्क कर ये जानना चाहा कि क्या वो इस मामले में किसी तरह की कार्रवाई के बारे में सोच रहा है?
एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने कहा कि वो इस मामले को ‘देख रहे हैं’ और ये पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या दलाई लामा को कोई डिप्लोमेटिक इम्युनिटी या राजनयिक प्रतिरक्षा मिली हुई है।
किसी भी देश में रहने वाले या यात्रा कर रहे विदेशी राजनयिकों या नेताओं को डिप्लोमेटिक इम्युनिटी मिलती है जिसकी वजह से उस देश के कानूनों से उन्हें छूट मिलती है।
इस विवाद के सामने आने के चार दिन बाद भी एनसीपीसीआर की तरफ़ से इस मामले पर कोई बयान नहीं आया है।
बीबीसी ने कई चाइल्ड-राइट्स एक्टिविस्ट्स या बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं से इस मामले में बात करने की कोशिश की।
कई कार्यकर्ताओं ने इस विषय पर बात करने से इनकार कर दिया और जिन्होंने बात की भी उनसे ये ज़ाहिर हुआ कि इस विषय पर राय बंटी हुई है।
‘जो हुआ वो गलत था’
शेखर महाजन एक गैर-सरकारी संस्था ‘सहयोग’ के कार्यकारी निदेशक हैं और बाल-अधिकारों के क्षेत्र से सक्रिय तौर पर जुड़े हुए हैं।
उनका कहना है कि भारतीय संस्कृति में गले मिलना या माथे पर चूमना या सिर पर हाथ रखना प्यार जताने के तौर पर देखा जाता है। ‘लेकिन किसी बच्चे से अपनी जीभ चूसने को कहना दलाई लामा को शोभा नहीं देता।’
ये भी कहा जा रहा है कि जीभ को मुंह से बाहर निकालने को तिब्बती संस्कृति में एक अभिवादन के तौर पर देखा जाता है।
इस पर शेखर महाजन कहते हैं, ‘इस वीडियो में बात केवल जीभ बाहर निकालने भर की नहीं है। जीभ को चूसने के लिए कहा जा रहा है। आप देख सकते हैं कि बच्चा हिचकिचा रहा है। इस तरह की बात को सही नहीं माना जा सकता।’
महाजन कहते हैं कि इस मामले में कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। वे कहते हैं, ‘जो हुआ है वो गलत था। एनसीपीसीआर को कानूनी सलाह लेने के बाद इस मामले में कुछ न कुछ कार्रवाई जरूर करनी चाहिए।’
‘स्थानीय संस्कृति के सन्दर्भ को समझना जरूरी
डॉ मृदुला टंडन, साक्षी नाम की एक ग़ैर-सरकारी संस्था से जुड़ी हैं और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करती हैं।
वे कहती हैं कि सामान्य परिस्थितियों में वो ऐसे किसी भी व्यक्ति की निंदा करेंगी जो एक बच्चे से इस तरह की बात करता है लेकिन इस मामले को हमें स्थानीय संस्कृति के संदर्भ में लेना होगा।
वे कहती हैं, ‘जहां तक मैं समझती हूँ, तिब्बती संस्कृति में अपनी जीभ बाहर निकालकर अभिवादन किया जाता है। मैं स्थानीय रीति-रिवाजों से बहुत परिचित नहीं हूँ।’
डॉ टंडन एक छोटे शहर से आए लडक़े का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि वो एक बड़े महानगर में आकर लड़कियों को पश्चिमी कपड़ों या छोटे परिधानों में देखकर अचंभित हो जाता है।
वे कहती हैं, ‘इसका मतलब यह नहीं है कि जब वह किसी को देखता है तो उसे परेशान करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसे चेतावनी दी जानी चाहिए कि इस तरह की जगह में उससे यह उम्मीद नहीं की जाती है।’
डॉ टंडन का मानना है कि इस घटना का मतलब बच्चे का उत्पीडऩ करना नहीं था।
वे कहती हैं, ‘सांस्कृतिक मानदंड को लेकर ग़लतफ़हमी की वजह से ऐसा हो सकता है। लेकिन ये बच्चे के लिए थोड़ा चौंकाने वाला हो सकता है। वहीं वीडियो में बच्चा हैरान होता नहीं दिख रहा है।’
‘कोई और होता तो प्रतिक्रिया कुछ और होती’
शांता सिन्हा एक स्वतंत्र चाइल्ड-राइट्स एक्टिविस्ट हैं। वे नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की पहली अध्यक्ष के तौर पर भी काम कर चुकी हैं।
वे कहती हैं, ‘यह कृत्य अपने आप में काफी अनुचित था, इसमें कोई संदेह नहीं है। लडक़े से जीभ चूसने को कहना बिल्कुल अनुचित था। जो हुआ उससे भले ही बच्चे और उसके माता-पिता को कोई समस्या न हो पर मुझे लगता है कि यह फिर भी अनुचित था।’
शांता सिन्हा का मानना है कि जि़ला अधिकारियों या सरकार के स्तर पर इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया जा सकता था।
वे कहती हैं, ‘पॉक्सो अधिनियम के तहत इस मामले को देखा जा सकता है और आगे बढ़ाया जा सकता है। फिर अदालतें ये तय कर सकती हैं कि ये यौन शोषण था या नहीं।’
शांता सिन्हा कहती हैं कि वो चाहती हैं कि एनसीपीसीआर इस मामले में हस्तक्षेप करे लेकिन वो इस बात से हैरान भी नहीं हैं कि एनसीपीसीआर ने ऐसा नहीं किया।
वे कहती हैं कि इस घटना पर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं उन पर इस बात का असर साफ़ दिख रहा है कि दलाई लामा एक जाने-माने और सम्मानित व्यक्ति हैं।
साथ ही उनका कहना है कि जिस बच्चे का चेहरा उस वीडियो में दिखाया गया उसे इससे सदमा ज़रूर पहुँचा होगा।
वे कहती हैं, ‘मैं उम्मीद करती हूँ कि इससे उसके भविष्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। वीडियो में उसका चेहरा दिखाना बिलकुल गलत था।’
पहले भी विवादों में घिरे हैं दलाई लामा
दलाई लामा को करुणा और शांति पर उनकी शिक्षाओं के लिए जाना जाता है। लाखों लोग उनका सम्मान और अनुसरण करते हैं।
साल 1989 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। साल 1959 में तिब्बत से भागने के बाद से वो भारत में रह रहे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में कई विषयों पर उनकी कुछ विवादास्पद टिप्पणियों ने न केवल क्रोध और आलोचना को जन्म दिया है बल्कि समानता और समावेशिता पर उनके रुख पर सवाल उठाने और बहस करने के लिए भी कई लोगों को मजबूर किया है।
साल 2015 में बीबीसी के क्लाइव मायरी के साथ एक साक्षात्कार में दलाई लामा से पूछा गया था कि क्या अगली दलाई लामा एक महिला हो सकती हैं। उन्होंने अन्य बातों के साथ-साथ यह कहते हुए प्रतिक्रिया दी कि अगर कोई महिला दलाई लामा आती है तो उसे बहुत आकर्षक होना चाहिए।
जब 2019 में बीबीसी की रजनी वैद्यनाथन द्वारा यही सवाल उनसे किया गया तो दलाई लामा ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘अगर कोई महिला दलाई लामा आती है तो उसे और आकर्षक होना चाहिए।’
इन टिप्पणियों पर हंगामे के बाद दलाई लामा के कार्यालय ने माफी मांगते हुए कहा था कि तिब्बती आध्यात्मिक नेता का मकसद किसी का अपमान करना नहीं था और अपने पूरे जीवन में दलाई लामा ने ‘महिलाओं के वस्तुकरण का विरोध किया’ और लैंगिक समानता का समर्थन किया था।
साथ ही बयान में ये भी कहा गया था कि कभी-कभी ऐसा होता है कि अचानक से कही गई कोई बात जो किसी एक सांस्कृतिक संदर्भ में मनोरंजक हो सकती है वो दूसरे सन्दर्भ में लाए जाने पर अनुवाद में अपना हास्य खो देती है। (bbc.com)
दलित उत्पीड़न की प्रकृति पर डॉ बी आर आम्बेडकर का धारदार विश्लेषण। आज (14 अप्रैल को) उनकी जयंती है। इस मौके पर पढ़िए डॉ आम्बेडकर की प्रसिद्ध रचना ‘जाति का उन्मूलन’ के कुछ विशेष अंश।
डॉ बी आर आम्बेडकर
भारत में समाज सुधार का मार्ग स्वर्ग के मार्ग के समान है और इस कार्य में अनेक कठिनाइयां हैं। भारत में समाज सुधार कार्य में सहायक मित्र कम और आलोचक अधिक हैं। आलोचकों के दो स्पष्ट वर्ग हैं। एक वर्ग में राजनीतिक सुधारक हैं और दूसरे में समाजवादी।
एक समय था जब यह माना जाता था कि सामाजिक कुशलता के बिना अन्य कार्य क्षेत्रों में प्रगति असंभव है। कुप्रथाओं से फैली बुराइयों के कारण हिन्दू समाज की कार्यकुशलता समाप्त हो चुकी थी। अब इन बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अथक प्रयास करने होंगे। इस तथ्य को समझ कर ही राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही सामाजिक सम्मेलन की भी स्थापना हुई थी। जहां तक कांग्रेस का संबंध देश के राजनीतिक संगठन में कमजोर तथ्यों को परिभाषित करना था, वहां सामाजिक सम्मेलन हिन्दू समाज के सामाजिक संगठन में कमजोर बातों को दूर करने में लगा हुआ था। कुछ समय तक कांग्रेस और सम्मेलन ने एक सामान्य क्रियाकलाप के दो अंगों के रूप में कार्य किया और उनके वार्षिक अधिवेशन भी एक ही पंडाल में होते थे। किंतु शीघ्र ही ये दो अंग दो दलों में बदल गए- एक राजनीतिक सुधार दल और दूसरा सामाजिक सुधार दल। इनके बीच उग्र विवाद उठ खड़े हुए। राजनीतिक सुधार दल राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन करता था और सामाजिक सुधार दल सामाजिक सम्मेलन का। इस प्रकार दो संस्थाएं दो विरोधी कैंप बन गए। मुद्दा यह था कि क्या सामाजिक सुधार राजनीतिक सुधारों से पहले होने चाहिए। एक दशक तक दोनों शक्तियों का संतुलन समान रूप से बना रहा और उनमें किसी भी पक्ष की विजय के बिना लड़ाई चलती रही। किंतु यह स्पष्ट था कि सामाजिक सम्मेलन का भाग्य तेजी से अस्त हो रहा था।
जिन सज्जनों ने सामाजिक सम्मेलन के अधिवेशनों की अध्यक्षता की थी, वे इस बात से दुखी थे कि बहुसंख्यक शिक्षित हिन्दू राजनीतिक उत्थान के पक्षधर हैं और सामाजिक सुधारों के प्रति उदासीन हैं। कांग्रेस में उपस्थित होने वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी थी। जो लोग उसमें उपस्थित नहीं हुए, उनकी सहानुभूति इसके साथ थी तथा उनकी संख्या और भी बड़ी थी। जो लोग सामाजिक सम्मेलन में उपस्थित हुए, उनकी संख्या बहुत कम थी। इस उदासीनता और कार्यकर्ताओं में हुई कमी के शीघ्र बाद राजनीतिज्ञों की ओर से इसका सक्रिय विरोध आरंभ हो गया। कांग्रेस ने शिष्टता के नाते सामाजिक सम्मेलन को अपने पंडाल का प्रयोग करने की जो अनुमति दे रखी थी, स्वर्गीय श्री तिलक के नेतृत्व में उसे वापस ले लिया गया और शत्रुता की भावना इतनी गहरी हो गई कि जब सामाजिक सम्मेलन ने अपना पंडाल खड़ा करने की इच्छा की तो इसके विरोधियों ने पंडाल को जला डालने की धमकी दी। इस प्रकार समय के साथ-साथ राजनीतिक सुधार के पक्ष वाले दल की जीत हुई और सामाजिक सम्मेलन गायब हो गया और लोग उसे भूल गए। इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के आठवें अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में श्री डब्ल्यू.सी. बैनर्जी ने जो भाषण दिया था, वह सामाजिक सम्मेलन की मृत्यु पर पढ़े गए शोक संदेश जैसा लगता है। वह कांग्रेस की प्रवृत्ति का इतना द्योतक है कि मैं उससे यहां एक उद्धरण दे रहा हूं। श्री बैनर्जी ने कहा थाः
मैं ऐसे लोगों की बात सुनने को बिल्कुल तैयार नहीं हूं जो यह कहते हैं कि हम अपनी सामाजिक प्रणाली में सुधार नहीं करेंगे, जब तक हम राजनीतिक सुधारों के योग्य नहीं हो सकेंगे। मुझे दोनों के बीच कोई संबंध नहीं दिखाई देता। ... क्या हम (राजनीतिक सुधार के लिए) इसलिए उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि हमारी विधवाएं अविवाहित रह जाती हैं और हमारी लड़कियां अन्य देशों की तुलना में बहुत पहले ही विवाह सूत्र में बांध दी जाती हैं। क्योंकि पत्नी और पुत्रियां हमारे मित्रों से मिलने जाने के लिए हमारे साथ कारों में नहीं चलतीं? क्योंकि हम अपनी पुत्रियों को ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज नहीं भेजते?
मैंने जैसा कि बैनर्जी ने प्रस्तुत किया था, राजनीतिक सुधार का मामला आपके सामने रखा है। अनेक लोग ऐसे थे जो यह जानकर प्रसन्न थे कि कांग्रेस की जीत हुई। किंतु जो लोग समाज सुधार के महत्व में विश्वास रखते हैं, वे पूछ सकते हैं कि क्या श्री बैनर्जी की दलील अंतिम है? क्या इससे यह सिद्ध होता है कि जीत उन्हीं की हुई जो न्यायसंगत थे? क्या निष्कर्ष रूप में इससे यह सिद्ध होता है कि समाज सुधार का राजनीतिक सुधार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता? यदि मैं मामले के दूसरे पहलू पर विचार करूं, तो इससे मामले को समझने में सहायता मिलेगी। मैं अपने तथ्यों के लिए अछूतों के साथ व्यवहार का उल्लेख करूंगा।
मराठा राज्य में पेशवाओं के शासन में यदि कोई हिन्दू सड़क पर आ रहा होता था, तो किसी अछूत को इसलिए उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी कि उसकी परछाई से वह हिन्दू अपवित्र हो जाएगा। अछूत के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी कलाई या गर्दन में निशानी के तौर पर एक काला धागा बांधे जिससे कि हिन्दू गलती से उससे छूकर अपवित्र हो जाने से बच जाए। पेशवाओं की राजधानी पूना में किसी भी अछूत के लिए अपनी कमर में झाड़ू बांधकर चलना आवश्यक था जिससे कि उसके चलने से पीछे की धूल साफ होती रहे और ऐसा न हो कि कहीं उस रास्ते से चलने वाला कोई हिन्दू उससे अपवित्र हो जाए। पूना में अछूतों के लिए यह आवश्यक था कि जहां कहीं भी वे जाएं, अपने थूकने के लिए मिट्टी का एक बर्तन अपनी गर्दन में लटका कर चलें क्योंकि ऐसा न हो कि कहीं जमीन पर पड़ने वाले उसके थूक से अनजाने में वहां से गुजरने वाला कोई हिन्दू अपवित्र हो जाए।
मैं हाल ही के कुछ और तथ्यों का भी यहां उल्लेख करना चाहता हूं। मध्य भारत की बलाई नाम की एक अछूत जाति पर हिन्दुओं द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का जिक्र करना काफी होगा। 4 जनवरी, 1928 के टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट आप देखें। टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता ने समाचार दिया है कि कनरिया, बिचोली-हाफसी, बिचोली-मर्दाना गांवों तथा इंदौर जिले (इंदौर रियासत) के 15 अन्य गांवों की ऊंची जाति के हिन्दुओं ने, अर्थात कालोटो, राजपूतों और ब्राह्मणों जिनमें पटेल और पटवारी भी शामिल हैं, अपने-अपने गांवों के बलाइयों को सूचित किया है कि यदि वे उनमें रहना चाहते हैं तो उन्हें नियमों का अवश्य पालन करना होगाः
(क) बलाई, सुनहरी गोटेदार किनारी की पगड़ियां नहीं बांधेंगे।
(ख) वे रंगीन या फैन्सी किनारी की धोतियां नहीं पहनेंगे।
(ग) वे किसी हिन्दू की मृत्यु पर मृतक के संबंधियों को चाहे वे कितनी भी दूर क्यों न रहते हों, मरने की सूचना देंगे।
(घ) सभी हिन्दुओं के विवाहों में बलाई लोग बारात के आगे और विवाह के दौरान बाजा बजाएंगे।
(च) बलाई स्त्रियां सोने या चांदी के आभूषण नहीं पहनेंगी। वे फैंसी गाउन या जाकेट भी नहीं पहनेंगी।
(छ) बलाई स्त्रियों को हिन्दू स्त्रियों के प्रसव के सभी मामलों में देखभाल करनी होगी।
(ज) बलाई लोगों को बिना कोई पारिश्रमिक मांगे सेवा करनी होगी और हिन्दू उन्हें जो कुछ खुश होकर देंगे, लेना होगा।
(झ) अगर बलाई लोग इन शर्तों का पालन करना स्वीकार नहीं करते हैं, तो उन्हें गांव को छोड़ना होगा।
बलाई लोगों ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया और हिन्दुओं ने उनके विरुद्ध कार्रवाई की। बलाइयों को गांवों के कुओं से पानी नहीं भरने दिया गया। उन्हें अपने पशुओं को चराने के लिए नहीं ले जाने दिया गया। बलाई लोगों को हिन्दुओं की भूमि से गुजरने की मनाही कर दी गई ताकि यदि किसी बलाई का खेत हिन्दुओं के खेतों से घिरा हो तो बलाई अपने ही खेत तक न पहुंच सकें। हिन्दुओं ने अपने पशुओं को भी बलाइयों के खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया। बलाइयों ने इन अत्याचारों के विरुद्ध दरबार में याचिकाएं दायर कीं किंतु चूंकि उन्हें समय पर कोई राहत नहीं और अत्याचार जारी रहा तो सैकड़ों बलाई लोग अपने बाल-बच्चों सहित अपने घरों को जहां वे पीढ़ियों से रहते आ रहे थे, छोड़कर समीपवर्ती रियासतों, अर्थात धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर तथा अन्य रियासतों के गांवों में जाकर बसने के लिए मजबूर हो गए।
एक बहुत ही नई घटना की सूचना जयपुर रियासत में चकवारा से मिली है। समाचारपत्रों में छपी सूचना से पता चलता है कि चकवारा के एक अछूत ने जो तीर्थ यात्रा के बाद घर लौटा था, अपने धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए गांव के अपने अछूत भाइयों को भोज देने की व्यवस्था की थी। मेजबान की इच्छा थी कि मेहमानों को बहुमूल्य भोजन खिलाया जाए और उसमें घी से युक्त व्यंजन भी परोसे जाएं। किंतु जिस समय अछूत लोग भोजन कर रहे थे तो सैकड़ों की संख्या में हिन्दू लाठियां लेकर वहां दौड़े और भोजन को खराब कर दिया तथा अछूतों को बुरी तरह पीटा। परोसे गए भोजन को छोड़ मेहमान अपनी जान बचाने के लिए भाग गए। निःसहाय अछूतों पर ऐसा प्राणघातक आक्रमण क्यों किया गया? इसका जो कारण बताया गया है, वह यह था कि अछूत मेजबान इतना धृष्ट था कि उसने घी का प्रयोग किया और उसके अछूत मेहमान इतने मूर्ख थे कि वे उसे खा रहे थे। घी निःसंदेह अमीरों के लिए एक विलास की वस्तु है। किंतु कोई भी यह नहीं सोचेगा कि घी ऊंचे सामाजिक स्तर का प्रतीक है। चकवारा के हिन्दुओं ने इसका दूसरा अर्थ लिया और उन अछूतों द्वारा उनके साथ की गई गलती के लिए हिन्दुओं के धार्मिक क्रोध में उनसे बदला लिया जिन्होंने अपने भोजन में घी परोसकर उनका अपमान किया था। उन्हें यह जानना चाहिए था कि वे हिन्दुओं के सम्मान की बराबरी नहीं कर सकते। इसका यह अर्थ है कि किसी अछूत को घी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करना हिन्दुओं के प्रति उद्दंडता है। यह घटना पहली अप्रैल, 1936 या उसके आसपास की है।
इन तथ्यों को बताने के बाद अब मैं सामाजिक सुधार के बारे में बात करूंगा। ऐसा करने में मैं जहां तक हो सकता है, श्री बैनर्जी का अनुसरण करूंगा। मैं राजनीतिक प्रवृत्ति के हिन्दुओं से पूछता हूं, “जब आप अपने ही देश के अछूतों जैसे एक बहुत बड़े वर्ग को सार्वजनिक स्कूल का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें सार्वजनिक कुओं का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें आम सड़कों का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें अपनी पसंद के आभूषण और वेशभूषा धारण नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं?” मैं इस प्रकार के अनेक प्रश्न पूछ सकता हूं किंतु ये ही प्रश्न काफी होंगे। मैं व्यग्र हूं यह जानने के लिए कि श्री बैनर्जी क्या उत्तर देते। मुझे यकीन है कि कोई भी समझदार व्यक्ति इसका ‘हां’ में उत्तर देने का साहस नहीं करेगा। प्रत्येक कांग्रेसी को जो श्री मिल के इस सिद्धांत को मानता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन करने योग्य नहीं है, यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर भी शासन करने के योग्य नहीं है।
तब यह कैसे हुआ कि सामाजिक सुधार दल लड़ाई हार गया। इसे सही-सही रूप में समझने के लिए इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि समाज सुधारक किस प्रकार के समाज सुधार के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इस संबंध में यह आवश्यक है कि हिन्दू परिवार के सुधार के अर्थ में समाज सुधार और हिन्दू समाज के पुनर्गठन तथा पुनर्निर्माण के अर्थ में समाज सुधार, इन दोनों में अंतर किया जाए। पहले प्रकार के समाज सुधार का संबंध विधवा विवाह, बाल विवाह आदि से है जबकि दूसरे प्रकार के समाज सुधार का संबंध जाति प्रथा के उन्मूलन से है।
सामाजिक सम्मेलन एक ऐसी संस्था थी जिसका संबंध मुख्य रूप से ऊंची जाति के प्रबुद्ध हिन्दुओं से था जो जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन करना आवश्यक नहीं समझते थे, दूर करने की भारी आवश्यकता को महसूस किया। वे हिन्दू समाज में सुधार करने के लिए खड़े नहीं हुए थे। वह जो लड़ाई लड़ रहे थे, वह परिवार के सुधार के प्रश्न पर ही केन्द्रित थी। इसका संबंध जाति प्रथा को तोड़ने के अर्थ में समाज सुधार से नहीं था। समाज सुधारकों ने इस मुद्दे को कभी नहीं उठाया। यही कारण है कि सामाजिक सुधार दल समाप्त हो गया। (navjivanindia.com)
इमरान कुरैशी
कर्नाटक में 10 मई को होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए उम्मीदवारों को चुनने में भारतीय जनता पार्टी ने कोई जोखिम नहीं लिया। पार्टी ने वहां ‘गुजरात मॉडल’ दोहराने से परहेज किया है।
लेकिन उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद बीजेपी के कई ऐसे नेताओं ने या तो पार्टी छोडऩे का फैसला लिया है या फिर चुनावी राजनीति से संन्यास लेने का फैसला किया है जिन्हें इस बार टिकट नहीं दिया गया। इनमें एक मंत्री और एक पूर्व उप-मुख्यमंत्री भी शामिल हैं।
कर्नाटक चुनाव के लिए टिकटों का बंटवारा करते हुए बीजेपी ने उम्मीदवारों की लगभग उसी फ़ेहरिस्त पर मुहर लगाई है, जिसे पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपना समर्थन दिया था और जिसमें ‘जांचे परखे’ विधायकों के नाम शामिल थे।
बीजेपी को टिकटों के बंटवारे में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से गुरेज करने का ख़्याल उस वक्त आया, जब दो दिन पहले प्रत्याशियों की अपनी लिस्ट केंद्रीय नेतृत्व को थमाने के बाद नाराज येदियुरप्पा बेंगलुरू लौट गए थे।
नाम न बताने की शर्त पर पार्टी के पदाधिकारियों ने बीबीसी हिंदी को बताया कि टिकट देने से पहले केंद्रीय नेतृत्व उम्मीदवारों की तीन सूचियों पर विचार कर रहा था। जब येदियुरप्पा दिल्ली से बेंगलुरू लौट गए तो केंद्रीय नेतृत्व को ये एहसास हुआ कि येदियुरप्पा की सूची काफी हद तक ख़ुद केंद्रीय नेतृत्व द्वारा सर्वे के आधार पर तैयार कराई गई लिस्ट से मिलती-जुलती है।
जिस तीसरी सूची पर विचार किया जा रहा था, वो बाद में घोषित की गई 189 उम्मीदवारों की उस लिस्ट से काफी अलग थी, जिसमें 52 नए चेहरों को मौका दिया गया है।
इस बीच बुधवार देर रात बीजेपी ने 23 और उम्मीदवारों की दूसरी सूची भी जारी कर दी है। इसमें छह मौजूदा विधायकों के नाम शामिल नहीं हैं। इस सूची में गुरमितकल, बिदार, हंगल, हावेरी, दावानगरे, मायाकोंडा, कोलार गोल्ड फील्ड जैसी सीटें शामिल हैं।
लिस्ट जारी होने के बाद उथल-पुथल
बीजेपी के एक पदाधिकारी ने बीबीसी को बताया कि, ‘उम्मीदवारों के नाम का एलान करने में देरी की वजह ये विवाद था कि पार्टी की तरफ़ से किसे टिकट दिया जाए और किसे नहीं। ये साफ हो चुका था कि अगर पार्टी ने कर्नाटक में अपने उम्मीदवार चुनने के मामले में सर्जिकल स्ट्राइक की, तो उससे काफी परेशानियां खड़ी हो सकती हैं।’
अब लिस्ट जारी होने के बाद के हालात ये हैं कि 2019 में उप-मुख्यमंत्री बनाए गए लक्ष्मण सावदी ने पार्टी छोड़ दी है।
पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने पर उन्होंने कहा, ‘मैंने अपना फ़ैसला ले लिया है। मैं भीख का कटोरा लेकर यहां-वहां नहीं घूमता। मैं विधान परिषद की सदस्यता से भी इस्तीफा दे रहा हूं।’
लक्ष्मण सावदी का कहना है कि वो अपनी अगली रणनीति का फैसला अपने समर्थकों से सलाह-मशविरे के बाद करेंगे।
वहीं, बंदरगाह और मत्स्य पालन राज्य मंत्री एस। अंगारा ने भी राजनीति का मैदान छोडऩे का फ़ैसला कर लिया है। अंगारा, दक्षिण कन्नड़ जिले की सुल्लिया सीट से विधायक हैं।
वहीं, एक और पूर्व उप-मुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा ने पार्टी नेतृत्व को जानकारी दी है कि चूंकि उनके बेटे को टिकट नहीं दिया गया है, इसलिए वो चुनावी राजनीति को अलविदा कहेंगे।
लेकिन, उम्मीदवार चुनने की इस कवायत में बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व ‘राजनीति में परिवारवाद’ से पल्ला झाडऩे की अपनी कोशिश में पूरी तरह कामयाब नहीं हो सका है। केंद्रीय नेतृत्व ने कई मामलों में मौजूदा विधायकों के बेटे-बेटियों को टिकट देने का फैसला किया है।
सबसे हैरान करने वाला मामला तो पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार का रहा। जगदीश शेट्टार ने लगभग विद्रोह करते हुए निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लडऩे का एलान कर दिया है।
उन्होंने दिल्ली आकर पार्टी के केंद्रीय नेताओं से मुलाकात की जरूर है, लेकिन अभी ये साफ नहीं है कि इन मुलाकातों का नतीजा क्या निकला। हालांकि, इस बात की संभावना कम ही है कि वो मानेंगे।
जगदीश शेट्टार हुबली सेंट्रल विधानसभा सीट से छह बार चुनाव जीत चुके हैं। उनकी मुख्य शिकायत ये है कि पार्टी नेतृत्व को कम से कम कुछ महीने पहले बता देना चाहिए था कि उनको टिकट नहीं दिया जाएगा और उन्हें किसी और के लिए अपनी सीट छोडऩी होगी।
जातीय समीकरण का ख्याल
उडुपि से विधायक रघुपति भट, उस प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज के चेयरमैन थे जहां कुछ महीनों पहले हिजाब का मुद्दा उठा था।
उन्होंने पत्रकारों को बताया, ‘ये जानकर बड़ी तकलीफ होती है कि आपको टिकट नहीं दिया गया है। मेरा कम से कम इतना हक तो बनता था कि मुझे इसके बारे में पहले जानकारी दे दी जाती। मैं अभी भी सदमे में हूं। मैं अभी ये नहीं सोच पा रहा हूं कि आगे क्या करूंगा। हां, मैं पार्टी नहीं छोड़ूंगा।’
रघुपति भट इसलिए भी बहुत परेशान हैं क्योंकि टिकट के बंटवारे में जातिगत समीकरण साधा जाने लगा। उनकी जगह पार्टी ने मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले यशपाल सुवर्ण को टिकट दिया है।
रघुपति भट कहते हैं, ‘पिछले तीन चुनावों से जब लोग मुझे वोट दे रहे थे, तो किसी ने मेरी जाति के बारे में नहीं सोचा कि मैं ब्राह्मण हूं।’
प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज प्रबंधन बोर्ड के उपाध्यक्ष के तौर पर यशपाल सुवर्ण ने हिजाब विवाद में मुख्य भूमिका अदा की थी।
कहा जा रहा है कि उडुपि सीट के लिए उन्हें उम्मीदवार इसलिए बनाया गया क्योंकि पार्टी ने पड़ोस की कुंदापुरा सीट पर एक ब्राह्मण प्रत्याशी को टिकट देने का फैसला किया है। इसीलिए, जातिगत समीकरण साधने के लिए रघुपति भट की जगह यशपाल सुवर्ण को टिकट दिया गया है।
दक्षिण कन्नड़ और उडुपि में बड़े बदलाव
दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी ने उम्मीदवारों के मामले में ज्यादातर बदलाव दक्षिण कन्नड़ और उडुपि के तटीय जिलों में किए हैं।
एस. अंगारा की जगह जिला पंचायत के एक पूर्व सदस्य भागीरथी मुरली को उम्मीदवार बनाया गया है। वहीं, पुत्तुर सीट पर एक नई उम्मीदवार आशा थिमप्पा गौड़ा को उतारा गया है। आशा जिला पंचायत अध्यक्ष कह चुकी हैं।
भोपाल की जागरण लेकसाइड यूनिवर्सिटी के कुलपति और राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर संदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘इसमें कोई दो राय नहीं कि बीजेपी की ये ऐसी लिस्ट है जिस पर सबसे कम विवाद की गुंजाइश थी। इसमें सभी तबकों को खुश करने की कोशिश की गई है। लेकिन दक्षिण कन्नड़ और तटीय जिलों की इतनी सारी सीटों पर उम्मीदवार बदलने का फैसला समझ से परे है।’
संदीप शास्त्री कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि तटीय जिलों में इस बदलाव के पीछे कई कारण हैं। पहला तो ये है कि जो विधायक दो बार चुनाव जीत चुके हैं, उनके खिलाफ काफी नाराजगी थी। दूसरा कारण ये है कि पार्टी कार्यकर्ताओं को ये लग रहा था कि जिन लोगों पर हमले हो रहे थे, खासतौर से प्रवीण नेट्टारू के कत्ल के बाद से जिनको निशाना बनाया जा रहा था, वो चुने हुए प्रतिनिधि नहीं, बल्कि निचली जातियों के लोग थे।’
‘इसी वजह से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ बगावत हो गई थी। शायद इस बार पार्टी टिकटों के बंटवारे में पुरानी गलतियां सुधारने की कोशिश कर रही थी।’
मैसूर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर चांबी पुराणिक के मुताबिक, ‘बीजेपी ने राजनीतिक रणनीति और जीतने वाले उम्मीदवार ही उतारने के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि बीजेपी ने उन लोगों को टिकट दिए हैं जिनके पास चुनाव में खर्च करने के लिए खूब पैसे और संसाधन हैं और जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, खासतौर से बेलगावी जिले में।’
उनका कहना है, ‘टिकटों के बंटवारे में जातिगत समीकरणों का भी ख़ूब ख़्याल रखा गया है। इसीलिए, अन्य पिछड़ा वर्ग के 32, अनुसूचित जाति के 30 और अनुसूचित जनजाति के 16 उम्मीदवार उतारे गए हैं। इसके अलावा, 51 लिंगायत और 41 वोक्कालिगा नेताओं को टिकट दिए गए हैं।’
प्रोफेसर पुराणिक इसके पीछे ‘जांचे-परखे’ उम्मीदवारों को तरजीह देने का फॉर्मूला बताते हैं।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी के संगठन महामंत्री बीएल संतोष की तुलना में येदियुरप्पा एक व्यावहारिक नेता हैं। रणनीति के मामले में संतोष, येदियुरप्पा को मात नहीं दे सकते हैं। बीएल संतोष, आरएसएस से आते हैं और आम तौर पर वो सब कुछ अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। मगर, उन्हें ये बात भी पता है कि लिंगायत समुदाय, येदियुरप्पा के खिलाफ कोई भी कदम बर्दाश्त नहीं करेगा।’ (bbc.com)
डॉ. संजय जोठे
स्टार्टअप का नाम सुनते ही लोग भावुक हो जाते हैं। शार्क टैंक जैसे प्रोग्राम देखकर देश के अधिकांश युवा आज इंटरप्रेन्योर बनने के ख्वाब देखने लगे है ऐसे माहौल का फायदा उठाकर कुछ मॉडर्न ठगो ने डिजीटल मार्केटिंग का सहारा लेकर एंजल इन्वेस्टर, फंडिंग, नेटवर्किंग के नाम पर लोगों को करोड़ों का चूना लगाया गया है।
हम बात कर रहे हैं वर्ल्ड स्टार्टअप कन्वेंशन के प्रोग्राम की जो 24 मार्च से 26 मार्च को नोएडा के एक्सपो मार्ट में आयोजित किया गया।
वल्र्ड स्टार्टअप कन्वेंशन’ को डिजिटल वर्ल्ड में दुनिया का सबसे बड़ा फंडिंग फेस्टिवल (world's biggest investment festival) कहकर प्रचारित किया गया शुरूआत में तो ऐसा दावा किया गया कि, इस इवेंट में सॉफ्टबैंक के सीईओ मासायोसी सोन, गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ,टेस्ला के एलन मस्क, गौतम अडानी, सिकोइया और टाइगर ग्लोबल जैसे बिजनेस लीडर्स इसमें शामिल होंगे। फिर बाद में नितिन गडकरी और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के आने की बात की गई पर सारे दावे खोखले निकले और जब कन्वेंशन वाले दिन 8000 रुपये के टिकट खरीदकर लोग कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे, तो उन्होंने पाया कि ये फंडिंग फेस्टिवल एक बहुत बड़ा घोटाला है।
इस इवेंट के तथाकथित आयोजक ल्यूक तलवार और अर्जुन चौधरी थे इनकी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी से प्रभावित होकर इस इवेंट में भाग लेने के लिए देश भर से 1000 से अधिक स्टार्टअप कंपनियों के प्रतिनिधि पहुंचे, विश्व स्टार्टअप सम्मेलन में निवेश हासिल करने की उम्मीद में बेंगलुरु, मुंबई, चेन्नई, गुरुग्राम, भोपाल, इंदौर लखनऊ, कानपुर, कोलकाता, दिल्ली, ग्रेटर नोएडा समेत देशभर कई शहरों से हजारों यूवा आए और सब ठगा गए क्योंकि जैसा बताया गया था वैसा कुछ भी नहीं था
आयोजकों ने दावा किया था कि इस इवेंट में नए स्टार्टअप में पैसा लगाने को इंटरेस्टेड 1,500 से ज्यादा संस्थागत निवेशक और 9,000 से ज्यादा एंजल इन्वेस्टर शामिल हो रहे हैं और यह सभी निवेशक दुनियाभर के 50 देशों से यहां आ रहे हैं।
इन्वेस्टमेंट का लालच दिखाकर नए बच्चों से इवेंट में में शामिल होने के नाम पर मोटी फीस वसूली की गई है। स्टार्टअप डेलीगेट पास 6,990 रुपये का बेचा गया इन्वेस्टर डेलीगेट पास 25,000 का दिया गया। यहां तक कि सिर्फ देखने आने वाले का विजिटर पास 1,990 रुपये का दिया गया। कार्यक्रम स्थल पर नए स्टार्टअप को एक छोटा सा बूथ या स्टॉल लगाने के लिए 19,990 प्रति वर्गफुट की दर से जगह का किराया चुकाना पड़ा और न्यूनतम 9 वर्गफुट की जगह लेनी अनिवार्य थीं।
यानी कुल मिलाकर करोड़ों की लूट लोगों ने देश भर से आने जाने में जो खर्च किया वो तो अलग ही है। इस इवेंट के स्पॉन्सर्स को भी जमकर चूना लगाया गया बेंगलुरु स्थित ष्ठ2ष्ट स्टार्टअप बैम्ब्रू ने वर्ल्ड स्टार्टअप कन्वेंशन का प्रायोजक बनने के लिए 50 लाख से अधिक खर्च किए।
अब आप पूछेंगे कि इतनी बडी भ्रामक कहानी पर लोगों ने यकीन कैसे कर लिया? जवाब है डिजीटल मार्केटिंग, अखबारों में न्यूज की स्टाइल में इस प्रोग्राम के विज्ञापन छपवाए गए और ये जो नए नए सोशल मीडिया के इंफ्लूएंसर बने है उनसे भी प्रयोजको ने इस इवेंट का खूब प्रमोशन करवाया।
आयोजकों ने लेखक चेतन भगत, अंकुर वारिकू, राज शामनी, और एमबीए चायवाला प्रफुल्ल बिल्लोर जैसे तथाकथित सेलेब्रिटी से अपने इवेंट की मार्केटिंग कराई। लोग इनके झांसे में आ गए और जमकर बेवकूफ बने इसलिए ही बार बार कहते हैं कि इन तथाकथित सेलिब्रिटी लोगों को फॉलो करने के चक्कर में न पड़े अपनी अक्ल का इस्तेमाल करें।
डॉ. संजय जोठे
परसों रात ट्रेन में कुछ छात्रों से बात हो रही थी। भोपाल से फारेस्ट मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग के पांच छात्र थे, वे सामाजिक मुद्दों और अपनी क्लास में समाज विज्ञान की पढ़ाई को लेकर चिंतित थे।
उनमें से कद्दछ फारेस्ट मैनेजमेंट के छात्रों को लगता था कि उनके शिक्षक समाज विज्ञान पढ़ाते हुए सिर्फ प्रवचन पिला रहे हैं। इंजीनियिंग के छात्रों को समाज विज्ञान शब्द सुनकर ही हंसी आ रही थी, यह भी कहते जा रहे थे कि इंडिया में टीचर्स को पढ़ाना ही नहीं आता, बस लेक्चर पिला के भाग जाते हैं। उनकी इंजीनियरिंग की क्लास में भी प्रवचन ही चलते हैं।
मैंने पूछा कि आपको किस तरह पढऩा पसन्द है? उन्होंने कहा कि केस स्टडी और उदाहरण देकर बहस कराई जाये प्रेक्टिकल कराये जाएँ और छात्रों को इंटरेक्ट करने का मौक़ा दिया जाये तो अच्छा होता है वरना क्लास में नींद आती है। इस उत्तर पर लगभग सभी सहमत थे। उनकी सहमति देखकर लगा कि ये खुले दिमाग के नए जमाने के नवयुवक हैं, ये वैज्ञानिक चित्त के बच्चे हैं।
फिर बात युद्ध और टेक्नोलॉजी विषय पर निकली, मैनेजमेंट के छात्र ने कहा कि महाभारत में एटम बम का प्रयोग हो चूका है, उस जमाने में टेलीपैथी और मानसिक बल से बड़े बड़े हथियार चलाये जाते थे हवाई जहाज भी बन चुके थे। ये सुनकर मैं चौंका और पूछा कि भाई ऐसी तकनीक जिनके पास थी वे घोड़े और बैलों के रथ में क्यों चलते थे? इसका उत्तर इंजीनियरिंग के छात्र ने दिया कि वे इको फ्रेंडली लोग थे प्रदूषण नहीं चाहते थे इसलिए फॉसिल फ्यूल पर आधारित कार इत्यादि नहीं बनाये।
मैंने सहमति में सर हिलाते हुए पूछा कि मान लिया ये ठीक है, अगर उनके पास एटम बम थे तो उनसे बचने के लिए उन लोगों के महलों किलों का मटीरियल भी एटम बम का सामना करने के योग्य रहा होगा, और सामान्य समाज के मकान दूकान इत्यादि भी मजबूत मटेरियल से बने होंगे लेकिन उनके अवशेष नहीं मिलते जबकि उनसे करोड़ो साल पुराने डायनासोर की हड्डियां तक मिल गई, ऐसा क्यों?
इंजीनियरिंग के स्टूडेंट ने कुछ सोचते हुए कहा कि उनका मटीरियल बायोडिग्रेडिबल था यानी कि बहुत जल्दी मिट्टी में घुल मिल जाता था और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचने देता था।
मैंने फिर सहमति दी और पूछा कि इतनी विक्सित टेक्नोलॉजी उनके पास थी तो उन्होंने ताड़ और केले के पत्तों पर ग्रन्थ क्यों लिखे कम्प्यूटर इत्यादि में अपना ज्ञान स्टोर क्यों न किया? कागज क्यों न बनाया? तो उन्होंने तपाक से कहा कि इलेक्ट्रॉनिक कचरा पर्यावरण को खतरा पहुंचाता है इसलिए उन्होंने ताड़पत्र चुने।
मैंने फिर सहमति में सर हिलाया और पूछा कि चलो अंतिम सवाल पूछता हूँ कि इस ट्रेन को ठीक से देखो और बताओ कि इसमें जो भी उपकरण लगे हैं या मटीरियल लगा है उसमे से किसी एक का आविष्कार किसी भारतीय ने किया हो तो बताइये।
पाँचों छात्र गर्दन घुमा-घुमाकर चारों तरफ देखते रहे और अपने दावों पर शर्मिंदा होते रहे।
चर्चा के बाद मैं देर तक सोचता रहा कि ये इस जमाने के बच्चे हैं? क्या ये कभी नई खोज करेंगे या विज्ञान और तकनीक के बाबू ही बने रहेंगे? क्या ये किसी भी व्यवस्था या तकनीक या विचार पर प्रश्न उठा सकेंगे? और इससे भी बड़ी बात यह कि इन्हें बचपन की सुनी हुई कहानियों से कब मुक्ति मिलेगी? ये कब सच में जवान होंगे और उन कहानियों को सही सिद्ध करने की विवशता से कब बाहर निकलेंगे?
लेकिन हालत ये है कि इन कहानियों को दिमाग में गहरे ठूंसा जा रहा है, इनका महिमामण्डन हो रहा है। अब स्वदेशी इंडोलॉजी के सिद्धांतकार इनमे वास्तविक विज्ञान ढूंढकर दिखा रहे हैं। ऐसे सिद्धांतकार भारत में वैज्ञानिक चित्त के जन्म की बची खुची संभावना भी खत्म कर रहे हैं।
शायद हमें रक्षा उपकरण और विज्ञान तकनीक राजनीति प्रशासन चिकित्सा भाषा सहित नैतिकता और कॉमन सेन्स भी सदा सदा तक यूरोप अमेरिका से ही आयात करनी होगी।
बिहार भारत में जन्म दर के मामले में बाकी सब राज्यों से आगे है. किशनगंज में तो बच्चे पैदा करने के सारे रिकॉर्ड टूट रहे हैं. सरकारी कोशिशों के बावजूद वहां जनसंख्या पर नियंत्रण मुश्किल हो गया है.
प्रतिमा कुमारी बिहार में सरकारी स्वास्थ्यकर्मी हैं. अपने मिनी स्कूटर पर वह हर रोज किशनगंज जिले के गांवों के दौरे पर निकलती हैं और दूर-दूर तक जाकर युवा शादीशुदा जोड़ों से मिलती हैं. वह इन युवा जोड़ों को कॉन्डम और गर्भ निरोधक गोलियां मुफ्त में बांटती हैं और उन्हें दो ही बच्चे पैदा करने के फायदे बताती हैं.
लेकिन आंकड़ों की मानें तो प्रतिमा कुमारी एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही हैं. उनका किशनगंज जिला भारत में सर्वाधिक जन्म दर वाला जिला है. कुमारी बताती हैं, "जैसे ही मैं लोगों से कॉन्डम इस्तेमाल करने की बात करती हूं या स्थायी गर्भ निरोध कराने को कहती हूं, वे इसे या तो नजरअंदाज कर देते हैं या फिर बात बदल देते हैं.”
चीन को पीछे छोड़ भारत जल्द ही दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है.देश में दशकों से जनसंख्या नियंत्रण योजनाएं चल रही हैं लेकिन किशनगंज उन योजनाओं के लिए अपवाद साबित हुआ है. 2019-21 के बीच भारत की जन्म दर 2.0 रह गई थी, जो कि आबादी बढ़ते रहने के लिए जरूरी 2.1 से नीचे है. लेकिन सबसे कम विकसित राज्यों में से एक बिहार में यह दर 2.98 है और अधिकारियों का अनुमान है कि किशनगंज में जन्म दर 4.8 या 4.9 है.
राज्य की पिछली विभिन्न सरकारें कहती रही हैं कि वे बिहार और खासकर किशनगंज में अत्यधिक जन्म दर की समस्या के बारे में जानती हैं और इस पर नियंत्रण के लिए अलग-अलग योजनाएं भी लागू करती रही हैं. इन योजनाओं में मुफ्त में कॉन्डम और गर्भ निरोधक गोलियां बांटने के अलावा स्थायी गर्भ निरोध के लिए ऑपरेशन कराने के लिए वित्तीय सहायता देना भी शामिल है. राज्य में स्थायी गर्भ निरोध कराने पर महिलाओं को 3,000 रुपये और पुरुषों को 4,000 रुपये दिए जाते हैं. ऐसा हर केस लाने पर स्वास्थ्यकर्मियों को 500 रुपये मिलते हैं. लेकिन अब तक तो ये योजनाएं नाकाम ही रही हैं.
नसबंदी का डर
किशनगंज के सात स्वास्थ्य केंद्रों में से एक की प्रमुख पार्वती रजक कहती हैं कि डिलीवरी के दौरान वह महिलाओं के साथ ही आपरेशन कराने के बारे में बात करती हैं. वह बताती हैं, "जब वे डिलीवरी के दर्द से गुजर रही होती हैं तभी मैं उनसे ऑपरेशन के बारे में बात करती हूं और डिलीवरी के बाद ही इसे कराने के लिए समझाती हूं. लेकिन फैसला तो आखिर परिवार के साथ ही लिया जाता है.” इस इंटरव्यू से ठीक पहले रजक ने एक महिला की डिलीवरी कराई थी, जो उसका पांचवां बच्चा था.
लोगों में स्थायी गर्भ निरोध को लेकर डर और झिझक बहुत ज्यादा है. चार बच्चों की मां और पांचवें की तैयारी कर रहीं जहां शेख कहती हैं कि वह स्थायी गर्भ निरोध के खिलाफ हैं. शेख बताती हैं कि उनकी मां ने उनसे कहा था कि कि पांच बच्चे तो होने ही चाहिए क्योंकि वे खेत और घर में कामकाज में मदद करेंगे. वह कहती हैं, "पता नहीं, मुझे तो ऑपरेशन के नाम से ही डर लगता है. अगर बाद में कोई दिक्कत हो गई तो? फिर मेरे बच्चों का ख्याल कौन रखेगा?”
2021 में बिहार की योजना और विकास रिपोर्ट ने कहा कि 2020 में राज्य के 8,71,307 लोगों ने स्थायी गर्भ निरोध का ऑपरेशन कराने का लक्ष्य तय किया था लेकिन इसके आधे से भी कम 4,01,693 लोगों ने ही ऑपरेशन कराया. स्वास्थ्यकर्मी कहते हैं कि पुरुष नसबंदी कराने से मना करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी मर्दानगी पर असर पड़ेगा. रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के सिर्फ 0.2 फीसदी पुरुषों ने नसबंदी कराई है जबकि महिलाओं में यह दर 22.8 फीसदी है.
किशनगंज के सरकारी अस्पताल में अपने पांचवें बच्चे को जन्म देने के फौरन बाद एक राज मिस्त्री की पत्नी जमेरुन कहती हैं कि वह ऑपरेशन कराने के बारे में अपने पति से बात करेंगी. उन्होंने बताया, "मेरा शरीर और बच्चे पैदा करने का दबाव नहीं झेल सकता. हर बार मैं किस्मत से ही बची हूं.” हालांकि इस इंटरव्यू के बाद जमेरुन के पति ने मंजूरी दे दी और ऑपरेशन करवा लिया गया.
‘पांच बच्चे तो होने ही चाहिए'
इस रिपोर्ट के लिए रॉयटर्स ने 14 महिलाओं और छह सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों से बात की. 14 में से आठ महिलाओं ने कहा कि उनका परिवार चाहता है कि वे कम से कम 5 बच्चे पैदा करें. बेटों को हमेशा तरजीह दी जाती है. अपनी डिलीवरी के बाद मुश्किल से आंसू रोक पा रहीं 36 वर्षीय चांदनी देवी कहती हैं, "चौथी बार मुझे बेटी हुई है. अब मैं कुछ साल के लिए इंतजार करूंगी और फिर बेटा जन्मने की कोशिश करूंगी.”
सरकारी अधिकारी कहते हैं कि लोगों की सोच को बदलना एक बेहद मुश्किल काम है. बिहार के उप मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि परिवार नियोजन को अनिवार्य तो नहीं बनाया जा सकता. आठ भाई-बहनों के परिवार में पले बढ़े तेजस्वी कहते हैं, "हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन लोकतंत्र में आपकी सीमाएं होती हैं. परिवार नियोजन को थोपा नहीं जा सकता.”
बिहार सरकार में अर्थशास्त्र और सांख्यिकी निदेशालय के निदेशक संजय कुमार पंसारी कहते हैं कि राज्य में भी धीरे-धीरे स्थिति बदल रही है और जन्म दर में गिरावट के संकेत मिल रहे हैं. उन्होंने बताया, "राज्य सरकार का ध्यान यह सुनिश्चित करने पर है कि नीतियां जमीन तक पहुंचें. मुफ्त ऑपरेशन और अस्थायी गर्भ निरोध जैसे उपायों को बढ़ावा दिया जा रहा है.”
वीके/एए (रॉयटर्स)
प्रकाश दुबे
असम को काटकर मेघालय बनाने वालों के मन की बिजली कौंधती तो वे असमंजस में पड़ जाते। मेघ गर्जना की डरावनी कर्कश ध्वनि पर ध्यान दें या सबसे ज्यादा बारिश के विश्व कीर्तिमान पर? मेघालय के पूर्व खासी पहाडिय़ों में बसे लोगों ने असमंजस का हल बहुत पहले ढूंढ लिया। कोंग्थोंग जिले के गांव में नामों तक में कोयल की कूक का सुरीलापन है। सोहरा विधानसभा क्षेत्र में बोली भाषा खासी में नामकरण किया जाता है और परिवार की परंपरा के मुताबिक संगीत मयनाम रखा जाता है। यूं समझ लें। नौ अप्रैल को दुनिया से अलविदा कहने वाले संपादक राजेन्द्र माथुर को प्यार करने वाले सिर्फ रज्जू बाबू कह कर पुकारते रहे।
खासी भाषा की अपनी लिपि नहीं है। न बोलचाल का कानूनी नाम लिखना संभव है और न लय में कूक पैदा करने वाला संक्षिप्त या पूरा नाम। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा केशव बलिराम हेडगेवार के जीवनी लेखक राकेश सिन्हा को राष्ट्रपति ने साल 2018 में सचिन तेंडुलकर की जगह राज्य सभा में नामजद किया। सिन्हा शिलांग से साठ किलोमीटर दूर स्थित गांव पहुंचे। नामकरण की मधुरा शैली सुनकर इतने प्रभावित हुए कि सांसद आदर्श ग्राम योजना में दत्तक ले लिया। बिहारी सिन्हा बार बार जिंगुवाई लावबेई( मधुर तानें) सुनते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को गांव के विकास की रपट ही नहीं सौंपी, नरेंद्र भाई का सुर तान वाला नाम भी बनवा लिया। सिन्हा को हाल ही में राज्य सभा से भारतीय प्रेस परिषद सदस्य नामजद किया गया है।
निकले जाते हैं रोज़ जहां
कुछ लोग प्रवाह के साथ बहने में विश्वास नहीं रखते। इन दिनों देश के भाग्य विधाता की जोड़ी के पास ही नहीं, उनकी ड्योढ़ी पर जयकारा करने वालों के पास भी संवाद सेवा की चाकरी करने वालों की गुहार की भरमार है -हमें भी कहीं फिट कर दो। संसद से लेकर सलाहकार समिति तक में घुसने के उतावले जानें कि बरसों सांसदी करने वाले तथागत सत्पथी अब पूरा समय ओडिय़ा दैनिक धरित्री को देते हैं। संपादकों की संस्था एडिटर्स गिल्ड आफ़ इंडिया के आजीवन सदस्य तथागत ने मानहानि के अस्सी से अधिक मुक़दमों का सामना किया। सब जीते। संपादक बिरादरी की परेशानी समझी। मानहानि का प्रावधान समाप्त करने के लिए उन्होंने बरसों पहले लोकसभा में अशासकीय विधेयक पेश किया। उनकी पहली आपत्ति यह है कि शिकायतकर्ता दीवानी और फौजदारी दोनों तरह के मुकदमे कर कर सकते हैं। राहुल गांधी समेत सांसदों का समर्थन नहीं मिला। वक्त निकल गया। वरना सूरत के फैसले से राहुल की सदस्यता न जाती। दर्जनों अखबार और पत्रकार चैन की सांस लेते।
सुख की नित्य प्रतीक्षा
फुटबॉल का हर मुकाबला खबर नहीं बनता। भारत कभी दुनिया में 173 वें स्थान पर खिसक गया था। अब 101 वें क्रम पर है। फिर भी देश में वह जोश नहीं है जो किसी और खेल की मोहल्ला टीमों के मुकाबले में दिखाई देता है। मेरी बात पर जबरन यकीन मत करना। हाथ कंगन को आरसी क्या? म्यांमार और किर्गिज़स्तान को हराकर भारत 106 से 101 पर आया। फीफा ने ऐलान किया। देश की फुटबॉल की बेहतरी में जबर्दस्त योगदान करने वाले बाइचुंग भूटिया सिक्किम में लगभग उसी समय पुलिस थाने के सामने धरना दे रहे थे। फुटबॉल वालों का राजनीतिक प्रेम तभी समझ में आ गया था, जब फेडरेशन चुनाव में बाइचुंग को आधा दर्जन वोट नहीं हुए। धरना प्रदर्शन का कारण अलग है। बाइचुंग ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पुलिस मौजूदगी में पिटाई का विरोध किया। वे चाहते हैं कि निर्दयता से मारपीट करने वाले गुंडों को गिरफ्तार किया जाए। 25 साल खेल को देने वाले बाइचुंग को इस बात पर जबर्दस्त नाराजगी है कि गुंडों को रोकने के बजाय पुलिस ने हमलावरों को रास्ता दिया ?।
रह जाता कोई अर्थ नहीं
आरोप और असलियत का पता लगाना आसान नहीं है। जिसे देखो वही कहता है कि भारत में संघीय व्यवस्था की अनदेखी हो रही है। राज्य के अधिकार छिन रहे हैं। केंद्र की पकड़ मजबूत हो रही है। शिक्षा में विविधता को कम किया जा रहा है। ममता बनर्जी, स्टालिन पर आरोप है कि वे केंद्र से टकराने में अधिक दिलचस्पी रखते हैं ?। पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति पर खींच-तान के बाद राज्य सरकार ने कुलपति चयन के अधिकार राज्यपाल से छीन लिए। राज्यपालों ने विधेयक फाइल में दबा दिए।
छत्तीसगढ़ में राज्यपाल बदल गए परंतु विधेयक को मंजूरी नहीं मिली। तीन वर्ष पूर्व विधानसभा ने विधेयक पारित किया था। दिलचस्प बात यह है कि कुलपति नियुक्त करने का अधिकार राज्य को देने का विधेयक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में विधानसभा में मंजूरी के बाद लागू किया जा चुका है। छत्तीसगढ़ को गुजरात की राह पर ले जाने की मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कोशिश राजभवन में क़ैद है।
(छोटी छोटी खुशियों के क्षण, निकले जाते हैं रोज़ जहां। फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।
- रामधारी सिंह दिनकर की कविता का अंश।)
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम से यह हटाया गया:-‘‘गांधी उन लोगों द्वारा विशेष रूप से नापसंद थे जो चाहते थे कि हिन्दू बदला लें या जो चाहते थे कि भारत हिन्दुओं के लिए एक देश बने। जैसे पाकिस्तान मुसलमानों के लिए था। उन्होंने गांधी जी पर मुसलमानों और पाकिस्तान के हितों में काम करने का आरोप लगाया। गांधी जी को लगा कि ये लोग गुमराह हैं। उन्हें विष्वास था कि भारत को केवल हिन्दुओं के लिए एक देश बनाने का कोई भी प्रयास भारत को नष्ट कर देगा। हिन्दू मुस्लिम एकता के उनके दृढ़ प्रयास ने हिन्दू चरमंथियों को इतना उकसाया कि उन्होंने गांधी जी की हत्या के कई प्रयास किए।’’ यह भी हटा दिया गया:-‘‘गांधी जी की मृत्यु का देश में सांप्रदायिक स्थिति पर लगभग जादुई प्रभाव पड़ा। विभाजन से संबंधित गुस्सा और हिंसा अचानक कम हो गई। भारत सरकार ने नफरत फैलाने वाले संगठनों पर कड़ी कार्यवाही की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ समय के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। सांप्रदायिक राजनीति ने अपनी अपील खोनी शुरू कर दी।’’
पहले गांधी की हत्या वाले हिस्से में लिखा था:-‘‘30 जनवरी की शाम को उनकी दैनिक प्रार्थना सभा में गांधी जी को एक युवक ने गोली मार दी थी। बाद में आत्मसमर्पण करने वाला हत्यारा पुणे का एक ब्राम्हण था। जिसका नाम था नाथूराम गोडसे। जो एक चरमपंथी हिन्दु अखबार का संपादक था। जिसने गांधी जी को मुसलमानों का तुष्टीकरण करने वाला बताया था।’’ अब लिखा है:-‘‘तीस जनवरी की शाम को उनकी दैनिक प्रार्थना सभा में गांधी जी को एक युवक ने गोली मार दी थी। बाद में आत्मसमर्पण करने वाला हत्या नाथूराम गोडसे था। ऐसे गांधी को तबाह करने के लिए नई जुगतें ढूंढी जा रही हैं। इस बात की षर्म आ रही है कि लिखें कि गांधी का हत्यारा ब्राह्मण था। यह भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उनकी हत्या के आरोप में प्रतिबंध लगा था। नाथूराम गोडसे के अपराध को हल्का करने भाषायी छेड़छाड़ की जा रही है।
गांधी के लिए संघ और हिन्दू महासभा में बेसाख्ता नफरत आज पके घाव की तरह है। भले ही उस पर राजनीतिक सत्ता मिलने से पपड़ी पड़ी दिखती है। लगभग सौ वर्षों से संघ विचारधारा गांधी के मुकाबले देश को सांप्रदायिक नफरत का मरुस्थल बनाना चाहती रही है। औसत हिन्दू के मन में दूसरी सबसे बड़ी कौम द्वारा मुसलमान के लिए लगातार नफरत रहे। तो संघ विचारधारा को लगता एक दिन यही चिनगारी दहकता शोला बन जाएगी। फिर सत्ता पाने राजनीतिक रोटी सेंकना बहुत आसान हो जाएगा। वही हुआ। हिन्दुत्व का शुरुआती पाठ सावरकर को उनके गुरु समझे जाने वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर निवासी डॉ. बी. एस. मुंजे ने पढ़ाया। मुंजे और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापनाकार हेडगेवार कांग्रेस सदस्य रहकर नफरत का बगूला उगाना चाहते थे। वह गांधी की शख्सियत के कारण मुमकिन नहीं हुआ। दोनों हिन्दुत्ववादी आजादी के आंदोलन में अपनी अंगरेजपरस्ती छिपाए रहते थे। इसलिए कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। मुंजे शायद पहले भारतीय हैं जो इटली जाकर तानाशाह मुसोलिनी से मिले और गुफ्तगू की। उसका प्रामाणिक आधिकारिक ब्यौरा नहीं मिलता। मुंजे की इटली यात्रा के पीछे क्या आकर्षण हो सकता था?
इस पर बहुत बावेला मचा कि गांधी की हत्या करने में क्या संघ और सावरकर का हाथ था? अंगरेजों के बनाए साक्ष्य अधिनियम में अपराध सिद्ध करना बहुत मुष्किल है। आज भी अपराधियों के छूटने का प्रतिशत काफी है। गांधी की हत्या को लेकर जानकारियां जुटाई गईं लेकिन अदालती कार्यवाही में आरोप सिद्ध करना बहुत कठिन होता रहा। सावरकर और संघ विचारधारा में गांधी के लिए प्रशंसा या झुकाव का सवाल हो नहीं सकता था। हत्यारे नाथूराम गोडसे का सावरकर का शिष्य और संघ का स्वयंसेवक भी हो रहना पब्लिक डोमेन में है। फिलवक्त राहुल गांधी पर मुकदमा चल रहा है। जब उन्होंने गांधी जी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेदार ठहराया। आरोप से तकनीकी तौर पर बचने की संघ की कोषिष रही लेकिन जनधारणा में उससे फारिग हो जाना बहुत मुश्किल है। चुन्नीलाल वैद्य की पुस्तिका इस सिलसिले में अकाट्य है।
संघ विचारधारा की पेंचदार समझ में किसी भी कांग्रेस नेता के मुकाबले गांधी के लिए घृणा का पैमाना अलग तरह का है। गांधी के बाद ही नेहरू का नंबर आता है। संघ विचारधारा ने शुरू से ही मुसलमान को अपना टारजेट बनाकर राजनीतिक वितंडावाद शुरू किया। नरती गुब्बारे की हवा गांधी के कारण बार-बार निकल जाती थी। कई प्रतीक चुनकर हिन्दुत्व की पाठशाला में नफरत की कक्षाएं अब भी चलाई जा रही हैं। वे सब प्रतीक अहिंसक गांधी ने जीवन और कर्म के जरिए उदार हिन्दू मन मेंं जज्ब कर दिए थे। दुर्भाग्य है गांधी के समकालीनों ने अपने वारिसों को गांधी का जतन से सिरजा हुआ भारतीय मन जज्ब नहीं किया। मसलन गाय संघ परिवार के लिए वोट बैंक का हथियार है। बीफ कारखाने पर ज्यादातर भाजपाइयों की मालिकी है। गंगा को अपनी मां कहते उसकी सफाई अभियान में करोड़ों खर्च करने वाली उमा भारती का अता पता नहीं है। गंगा सफाई अभियान के बदले गंगा गंदगी अभियान सरकार के स्तर पर शबाब में है। गंगा की पवित्रता में कोविड की बीमारी में मरते लाखों लोगों की लाशें डूबने तैरने लगीं। गंगा की छाती पर वाराणसी में ऐय्याशी का एक बहुत बड़ा क्रूज शुरू किया गया है जिसमें प्रवेश का शुल्क हजारों में है। यह गंगा का अजीबोगरीब मोदीपरस्त सांस्कृतिक सम्मान है। कालजयी गीता को भी कब्जे में ले लिया गया है। उसमें केवल उतना हिस्सा रटाया जाता है जो कृष्ण की बानगी को समझाने के बदले हिंसा का ताजा राजनीति शास्त्र पढ़ाने लगता है। इतिहास का सच है कि जितनी बार गांधी ने राम के नाम का उल्लेख किया उतना तो हिन्दुत्व के सभी पैरोकारों ने मिलकर नहीं किया। गांधी के जाने के बाद उत्तराधिकारी कांग्रेसियों ने इन सांस्कृतिक प्रतीकों की अनदेखी शुरू की। उसके भी कारण राम के नाम पर संघ परिवार ने एकाधिकार कर लिया। राम राम, सीता राम, जय सियाराम जैसे संबोधन लोक जीवन के आह्वान हैं। हर हिन्दू के जीवन के अंत में ‘राम नाम सत्य है‘ का नारा आज भी मुखर है। राम के लोकतंत्रीय चरित्र को बदलकर उनमें जयश्रीराम के हुंकार का विकार भर दिया गया है कि यह आदिपुरुष अल्पसंख्यकों और असहमतों को डराने का कंधा बनाया जा रहा है।
गांधी ने तो ‘हरिजन’ और ‘दरिद्र नारायण’ शब्दों का भी आविष्कार किया। कहा था नेताओं से जब कोई काम करो तो पहले सोचो तुम्हारे काम का असर समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति पर क्या होगा। वह अंतिम छोर का व्यक्ति आज मुफ्त अनाज की योजना में अस्सी करोड़ के पार है। इससे ज़्यादा उसकी कोई हैसियत या पहचान नहीं है। इतिहास में सबसे महंगे कपड़े पहनने वाला राजनेता चरखे में घुसकर अपनी तस्वीर खिंचाते कॉरपोरेटी अदानी का रक्षक बनने लगा। गांधी को लगभग चिढ़ाने के अंदाज में शौचालयों का चौकीदार बना दिया। साबरमती आश्रम पर पूरी तौर पर कब्जा करने के बाद उसे एक रिसॉर्ट और पिकनिक स्पॉट में बदला जा रहा है। बीच-बीच में राजघाट गांधी स्मारक पर मत्था टेकने ठनगन जारी है। गांधी गांव की आत्मा थे और गांव गांधी की आत्मा। भारत के अब तक के सबसे बड़े किसान आंदोलन में गांधी की अहिंसा दिखाई पड़ी। तो सरकार ने उसे कुचलने में नरमी नहीं दिखाई। व्हाट्सऐप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टीट्यूशन और फेसबुक सहित सोशल मीडिया में गांधी को भारत विभाजन का दोषी ठहराया ही जाता है और मुसलमानों का हमदर्द भी। भारत विभाजन का सच्चा इतिहास छिपाकर रखा जाता है। कूढ़मगज विचारक समझते हैं एनसीईआरटी की किताबों में गांधी के लोकयश का सच धूमिल कर दिया जाए। तो गांधी इतिहास की यादों से धीरे-धीरे गुम हो जाएंगे। वे नहीं जानते गांधी अब विश्व मानव हैं। वे ही असली विश्व गुरु है, जो बनने की कुछ गुरुघंटाल भी कोशिश कर रहे होंगे। गांधी वे भारतीय हैं जो हर देश, हर कौम, हर मुसीबतजदा और जम्हूरियतपसंद मनुष्य के मन में स्थायी हो गए हैं। यह श्रेय और भविष्य तो उनकी हत्यारी विचारधारा के किसी व्यक्ति को कभी नहीं मिल सकता। बेचारी पाठ्य पुस्तकेंं तो गांधी रामायण की पैरौडी क्यों बनाई जा रही हैं?
पाकिस्तान अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर काबू पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है. स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कर्मचारियों का कहना है कि मौलवियों का प्रभाव, पितृसत्तात्मक समाज और गर्भ निरोधक तक पहुंच की कमी इसकी मुख्य वजह है.
पाकिस्तान के पश्चिमी प्रांत बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के निवासी 50 वर्षीय सरदार जन मुहम्मद खिलजी को गर्व है कि उनके कई बच्चे हैं. कथित तौर पर जनवरी महीने में उनके 60वें बच्चे का जन्म हुआ. खिलजी ने बताया कि उनकी तीन पत्नियां हैं और इन तीनों पत्नियों से उनके इतने बच्चे हुए हैं. हालांकि, उन्होंने इस बारे में डीडब्ल्यू से और अधिक बात करने से इनकार कर दिया.
अफगानिस्तान की सीमा से सटे पाकिस्तान के कबायली इलाके उत्तरी वजीरिस्तान के रहने वाले मस्तान खान वजीर ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनके कुल 22 बच्चे हुए, जिनमें से कुछ की मौत हो चुकी है. 70 वर्षीय वजीर ने कहा कि वे खुद को अभी भी जवान मानते हैं और चौथी शादी करना चाहते हैं.
उन्होंने कहा कि उनकी सभी पत्नियां एक ही कबीले से हैं. उनमें से एक उनके छोटे भाई की विधवा है. उनके भाई भारतीय सैनिकों से लड़ते हुए भारत प्रशासित कश्मीर में मारे गए थे.
वह कहते हैं, "मैं और बच्चे पैदा करना चाहता हूं, ताकि वे काफिरों और दुश्मनों से लड़ सकें. मुझे गर्व है कि मेरे एक दर्जन से अधिक बच्चे हैं.” वजीर ने कहा कि वह अपनी तीनों पत्नियों को अलग-अलग रखते हैं. एक उत्तरी वजीरिस्तान में है, दूसरी डेरा इस्माइल खान में है और तीसरी पत्नी रावलपिंडी में है. अगर मैं उन्हें साथ रखूंगा, तो वे आपस में झगड़ा करेंगी.
वजीर ने कहा कि इतने बच्चे होने के बावजूद परिवार नियोजन से जुड़ी टीम कभी उनके इलाके में नहीं आयी. उन्होंने कहा, "अगर वे आए भी होते, तो कोई उनकी बात नहीं सुनता. वे हमें और बच्चे पैदा करने से नहीं रोक सकते. ये बच्चे अल्लाह की नेमत हैं.”
पाकिस्तान की बढ़ती आबादी
पाकिस्तान दुनिया का पांचवां सबसे अधिक आबादी वाला देश है. विश्व बैंक के अनुसार, 2021 में इसकी आबादी लगभग 23.14 करोड़ तक पहुंच गई. 2022 में, संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने गणना की कि पाकिस्तान की प्रजनन दर प्रति महिला लगभग 3.3 बच्चे हैं.
रूढ़िवादी इस्लामिक देश पाकिस्तान, दुनिया में सबसे अधिक जन्म दर वाले देशों में से एक है. यहां हर 1,000 व्यक्ति पर जन्म दर 22 है. वर्ल्ड पॉप्युलेशन रिव्यू का अनुमान है कि 2092 में देश की जनसंख्या 40.468 करोड़ तक पहुंच जाएगी.
ज्यादा बच्चे क्यों पैदा कर रहे परिवार
पश्चिमी बलूचिस्तान प्रांत की राजनीतिज्ञ और पूर्व विधायक यास्मीन लहरी का मानना है कि पाकिस्तान के लोग ज्यादा से ज्यादा लड़के पैदा करना चाहते हैं. इस वजह से वे कई बच्चे पैदा करते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि कबायली समाज में लड़कों का होना रुतबे और ताकत का प्रतीक होता है. जिन परिवारों में ज्यादा बच्चे होते हैं उनके पास ज्यादा ताकत और प्रभाव होता है.
लहरी ने कहा, "पुरुष तब तक बच्चे पैदा करते हैं, जब तक उन्हें बेटा पैदा न हो. अगर उन्हें पहली या दूसरी पत्नी से बेटा पैदा नहीं होता है, तो वे तीसरी और चौथी शादी भी करते हैं.”
वहीं पाकिस्तानी सांसद किश्वर जेहरा ने कहा कि कुछ परिवारों का मानना है कि अधिक बच्चे होने से उनकी आय में वृद्धि हो सकती है. उन्होंने कहा, "यही कारण है कि वे ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. लड़के कारखानों और फैक्टरियों में काम करते हैं और लड़कियां घरों में काम करती हैं.”
पंजाब में नेशनल प्रोग्राम हेल्थ एम्प्लॉइज एसोसिएशन की केंद्रीय अध्यक्ष रुखसाना अनवर धार्मिक मौलवियों को परिवार नियोजन में सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखती हैं. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया कि ज्यादातर महिला स्वास्थ्य कर्मियों को विरोध का सामना करना पड़ता है, क्योंकि मौलवियों का तर्क है कि परिवार नियोजन इस्लाम विरोधी है. इस वजह से परिवार नियोजन को सामाजिक कलंक के तौर पर माना जाता है.
हालांकि, राजनीतिक दल जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम इस तर्क का खंडन करते हैं कि मौलवी जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के उद्देश्य से किए गए प्रयासों को रोकने के लिए जिम्मेदार हैं. पार्टी के एक नेता मुहम्मद जलाल-उद-दीन ने डीडब्ल्यू को बताया कि उनकी पार्टी लोगों को परिवार नियोजन के लिए मजबूर करने में विश्वास नहीं करती है.
उन्होंने कहा, "मौलवी परिवार नियोजन का विरोध नहीं करते हैं. हर कोई अपनी इच्छा से परिवार नियोजन कर सकता है, लेकिन अगर कोई परिवार ऐसा नहीं करना चाहता है, तो उसे मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.”
महिलाओं पर जनसंख्या वृद्धि का बोझ
आर्थिक संकट की वजह से पाकिस्तान सरकार के पास धन की कमी है. देश का जनसंख्या विभाग भी इस संकट से अछूता नहीं है. सरकारी कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें वेतन भी देरी से मिल रहा है.
नेशनल प्रोग्राम हेल्थ एम्प्लॉइज एसोसिएशन की रुखसाना अनवर ने डीडब्ल्यू को बताया कि सरकार महिला स्वास्थ्य कर्मियों को गर्भ निरोधक मुहैया नहीं करा रही है. संबंधित सरकारी विभागों के पास
गर्भ निरोधक गोलियों, इंजेक्शन और कंडोम की कमी है. उनका कहना है कि इन्हें खरीदने के लिए उनके पास धन नहीं है.
स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने कहा कि पाकिस्तान मातृत्व संबंधी मौतों को रोकने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहा है. अनवर ने कहा, "हम यह नहीं कहते कि ऐसी मौतों को रोकना जरूरी नहीं है, लेकिन जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना भी महत्वपूर्ण है.”
कराची में रहने वाले स्वास्थ्य विशेषज्ञ और पाकिस्तान मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष टीपू सुल्तान का मानना है कि अधिकारी परिवार नियोजन को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. उन्होंने कहा, "कुछ लोग चाहते हैं कि जनसंख्या वृद्धि का यह मुद्दा यूं ही बना रहे, ताकि देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुदान और धन मिल सके.”
पाकिस्तान में महिलाओं को बच्चे पैदा करने और बड़े परिवारों का भरण-पोषण करने का खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसका नतीजा यह होता है कि उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
2018 के पाकिस्तान पोषण सर्वेक्षण का हवाला देते हुए यूनिसेफ की पाकिस्तान मातृ-पोषण रणनीति रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि मां बनने की उम्र वाली महिलाओं में से 14.4 फीसदी का वजन कम है, 24 फीसदी से अधिक ज्यादा वजन वाली हैं, 13.8 फीसदी मोटापे से ग्रसित हैं, 41.7 फीसदी को खून की कमी है और 22.4 फीसदी में विटामिन ए की कमी है.
सुल्तान ने कहा, "मैंने देखा है कि बेहद कमजोर महिलाएं भी बार-बार गर्भधारण कर रही हैं. कमजोर महिलाएं कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं और वे कुपोषित बच्चों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं. इस वजह से वे सामान्य बच्चों की तरह विकसित भी नहीं हो पाते.” (dw.com)
रामनवमी के मौके पर जिस तरह पश्चिम बंगाल और बिहार में हिंसा हुई, वो दिखाती है कि वोट पाने के लिए राजनीतिक किस हद तक गिर सकती है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
पश्चिम बंगाल में हावड़ा, हुगली और उत्तर दिनाजपुर व बिहार में सासाराम और बिहार शरीफ- दो अलग-अलग राज्यों में स्थित इन शहरों में सिर्फ एक समानता है. और वह है इस साल रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर यह तमाम इलाके सांप्रदायिक हिंसा की आग में जलते रहे हैं. यूं तो गुजरात के बड़ोदरा और महाराष्ट्र के संभाजी नगर में भी इस मुद्दे पर सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था. लेकिन खासकर बंगाल और बिहार में तो यह हिंसा और इसके साथ होने वाली आगजनी भयावह रही.
इस मौके पर निकलने वाली शोभायात्राओं पर अब धर्म की बजाय सियासत का रंग चटख होने के आरोप लगते रहे हैं. इस हिंसा के लिए प्रशासन की लापरवाही पर भी सवाल उठ रहे हैं. खुद ममता बनर्जी इस मामले में पुलिस की भूमिका की सार्वजनिक आलोचना करते हुए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कह चुकी हैं.
आखिर पश्चिम बंगाल समेत विभिन्न राज्यों में रामनवमी के त्योहार राजनीति का हथियार क्यों बनते जा रहे हैं? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि हाल के वर्षों में त्योहारों के मुद्दे पर होने वाले इन दंगों के सियासी निहितार्थ हैं. दंगों से किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का ही फायदा होता है. यही वजह है कि दंगे कराने और उसकी आग में घी डालने में सत्तारूढ़ से लेकर विपक्षी पार्टी तक कोई पीछे नहीं रहती. जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर जहां जिसकी चलती है वह अपनी चलाता है. दंगे शुरू होते ही आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो जाती है जो दंगों की आग ठंडी होने के बाद भी महीनों चलती रहती है. और अगर कोई चुनाव नजदीक हो तो तमाम पक्ष इस मुद्दे को येन-केन-प्रकारेण चुनावी नतीजों तक जीवित रखने के प्रयास में जुटे रहते हैं.
बिहार के दंगे
बिहार में रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर आखिरी बार दंगे वर्ष 2018 में हुए थे. लेकिन इस साल रामनवमी के मौके पर बिहार के दो शहरों- बिहार शरीफ और सासाराम में हिंसा भड़की. बिहार शरीफ की हिंसा में एक युवक की मौत हो गई जबकि सासाराम में कई परिवार हिंसा के डर से घर छोड़कर सुरक्षित स्थान पर चले गए. इस हिंसा में लाखों की संपत्ति का नुकसान हुआ है. दोनों शहरों में अब तक दहशत का माहौल है.
रामनवमी की शोभा यात्रा में अब एक बदलाव यह आया है कि इसका आयोजन बड़े स्तर पर होने लगा है. बिहार शरीफ और सासाराम में पहले भी कई धार्मिक आयोजन होते रहे हैं. लेकिन वहां हाल के वर्षों में कभी ऐसी हिंसा नहीं हुई. सासाराम में इससे पहले वर्ष 1989 में आखिरी बार सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. दूसरी ओर, बिहार शरीफ में पिछली बार सांप्रदायिक हिंसा वर्ष 1981 में हुई थी.
बिहार में इन दंगों के बाद बड़े पैमाने पर राजनीतिक बयानबाजी शुरू हो गई है जो दंगे की आग शांत होने के बावजूद जारी है.
पश्चिम बंगाल में हिंसा
पश्चिम बंगाल में रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर उसी दिन हावड़ा से सटे शिवपुर में पथराव, हिंसा और आगजनी हुई. उसके दो दिनों बाद उससे सटे हुगली जिले के रिसड़ा में भी यही घटना दोहराई गई. यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि वर्ष 2018 में कोयलांचल के नाम से मशहूर आसनसोल-रानीगंज इलाके में रामनवमी के जुलूस से ही बड़े पैमाने पर दंगा भड़का था. उनमें जान-माल का काफी नुकसान हुआ था.
तृणमूल कांग्रेस ने हिंसा और आगजनी को भाजपा की सुनियोजित साजिश करार दिया है. तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता जयप्रकाश मजूमदार ने सवाल किया है कि आखिर रामनवमी के दो दिनों बाद शोभायात्रा निकालने की क्या जरूरत थी? उनका आरोप है, "दरअसल, भाजपा अपने सियासी हितों के लिए दंगे भड़का कर राज्य में अस्थिरता पैदा करना चाहती है." यही सवाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी उठाया है. उनका सवाल है कि आखिर रामनवमी के पांच दिनों बाद जुलूस निकालने की क्या तुक है?
राज्य के मंत्री अरूप राय कहते हैं, "हमने तो बचपन से ही रामनवमी के जुलूस देखे हैं. लेकिन लाठी, तलवार और पिस्तौल के साथ रामनवमी का जुलूस निकालते कभी नहीं देखा था. ऐसा वही लोग करना चाहते हैं जिनको हिंदू और मुसलमान के विभाजन से फायदा होगा."
दूसरी ओर, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष, जो रिसड़ा के जुलूस में शामिल थे, ने कहा है कि राज्य में हिंदू डरे हुए हैं. उन पर दोबारा हमले हो सकते हैं. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने तो ममता पर गलतबयानी करने का भी आरोप लगाया है.
त्योहारों का सियासी इस्तेमाल
पश्चिम बंगाल में यूं तो त्योहारों का सियासी इस्तेमाल बहुत पहले से होता रहा है. लेकिन राज्य में भाजपा के उभार के बाद खासकर रामनवमी के जुलूस के मुद्दे पर सत्तारूढ़ पार्टी के साथ टकराव तेज हुआ है. वर्ष 2014 से पहले कभी रामनवमी के मौके पर बड़े पैमाने पर जुलूस और हथियार रैलियों का आयोजन राज्य के लोगों ने नहीं देखा था. यह परंपरा वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुई और वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव से ठीक पहले जिस तरह रामनवमी के जुलूस पर कथित हमले के बाद आसनसोल के कई इलाको में सांप्रदायिक हिंसा हुई उसने इस आयोजन के मकसद को तो उजागर किया ही, त्योहारों पर होने वाली सियासत में हिंसा का एक नया अध्याय भी जोड़ दिया.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल, रामनवमी और हनुमान जयंती उत्सवों के बहाने विहिप और संघ ने वर्ष 2014 से ही राज्य में पांव जमाने की कवायद शुरू की थी. हर बीतते साल के साथ आयोजनों का स्वरूप बढ़ने के साथ इन संगठनों के पैरों तले की जमीन भी मजबूत होती रही. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अगर तमाम राजनीतिक पंडितों के अनुमानों को झुठलाते हुए 42 में से 18 सीटें जीत ली तो इसमें इन आयोजनों की अहम भूमिका रही है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "मुर्शिदाबाद के सागरदीघी सीट पर उपचुनाव के नतीजे से साफ है कि अल्पसंख्यक वोटर सीपीएम और कांग्रेस के पाले में लौट रहे हैं. ऐसे में हिंदू वोटरों को एकजुट करने के लिए ही शायद भाजपा, संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने इस साल बड़े पैमाने पर रामनवमी और राम महोत्सव मनाने का फैसला किया था."
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर सब्यसाची बसु रायचौधरी कहते हैं, "वर्ष 2018 में राज्य में पंचायत चुनाव से पहले इसी तरह रामनवमी के मुद्दे पर ऐसी घटनाएं हुई थी. अब हम 2023 में भी इसी मुद्दे पर हिंसा देख रहे हैं. अगले कुछ महीनों में पंचायत चुनाव होने हैं और अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं. तमाम सांप्रदायिक हिंसा एक ही तय पैटर्न पर हो रही है. धर्म के आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण दोनों पक्षों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए हिंसा की इन घटनाओं को महज संयोग नहीं कहा जा सकता." (dw.com)
इमरान कुरैशी
मई में होने जा रहे कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में मिलने वाली जीत या हार से राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की तुलना में कांग्रेस के प्रभावित होने की उम्मीद ज़्यादा है।
हालांकि जानकारों की मानें तो इसका ये मतलब कतई नहीं है कि बीजेपी को इस चुनाव में चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ रहा है।
चुनाव विश्लेषक संजय कुमार और राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव की मानें तो कर्नाटक में यदि कांग्रेस को जीत मिली तो, यह इस साल दूसरे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के लिए बूस्टर डोज़ साबित हो सकती है।
दक्षिणी भारत के राज्यों ने अक्सर उत्तरी भारत के राज्यों की तुलना में अलग तरीके से मतदान किया है। वैसे कर्नाटक के चुनाव महाराष्ट्र या तेलंगाना जैसे पड़ोसी राज्यों को प्रभावित नहीं करते। हालांकि जानकार इससे बिल्कुल राय रखते हैं।
बीजेपी से ज़्यादा कांग्रेस के लिए अहम
सेंटर फॉर डेवलपिंग सोसाइटीज़ (ष्टस्ष्ठस्) के पूर्व निदेशक डॉ। संजय कुमार कहते हैं, ‘मान लें कि इस चुनाव में बीजेपी हार जाती है, तो इससे कांग्रेस और विपक्ष को एक नया जीवन मिलेगा। इन दलों को इससे और ऊर्जा मिलेगी।’
उनके अनुसार, ‘यह हार हालांकि बीजेपी के लिए एक झटका होगी, लेकिन उस पर इसका ज्यादा असर नहीं होगा। दूसरी ओर, 2024 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से यह हार कांग्रेस के लिए एक तरह का गतिरोध साबित होगी।’
उनका मानना है, ‘कांग्रेस को जल्द से जल्द एक नैरेटिव तैयार करना होगा। यदि वो चुनाव दर चुनाव हारती जाती है, तो वो अपने पक्ष में पॉजिटिव नैरेटिव तैयार नहीं कर पाएगी। यही कारण है कि ये चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत अहम है।’
कर्नाटक में इस बार 10 मई को मतदान होना है और इसके नतीजे 13 मई को आएंगे। ये चुनाव तय करेगा कि क्या बीजेपी को 2019 की तरह इस बार भी ‘ऑपरेशन कमल’ चलाना पड़ेगा या नहीं।
बीजेपी ने चार साल इस ऑपरेशन के सहारे ही विधायकों का दल बदल करवाकर कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) की सरकार को सत्ता से बाहर किया था।
बीजेपी ने 2008 में 110 और 2018 में 104 सीटें जीती थीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों के बीजेपी में शामिल हो जाने के बाद जेडीएस-कांग्रेस का गठबंधन टूटा था।
वैसे डॉ. योगेंद्र यादव का मानना है कि कर्नाटक में चुनाव परिणाम के मायने बहुत बड़े होंगे।
वो कहते हैं, ‘कर्नाटक में बीजेपी को कभी भी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। यदि इस बार ऐसा हो गया, तो वो पूरे देश में ढिंढोरा पीटेगी कि उसके पास दक्षिण भारत में चुनावी स्वीकार्यता का सबूत है। वो ये साबित करने की कोशिश भी करेगी कि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का कोई असर नहीं हुआ।’
वो कहते हैं, ‘इससे समूचे विपक्ष का मनोबल गिरेगा, ठीक वैसे ही जैसे उत्तर प्रदेश के विधानसभा नतीजों का उनके मनोबल पर पड़ा था।’
योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘सबसे अहम बात ये होगी कि इससे देश में सकारात्मक राजनीति का रास्ता साफ होगा। इससे साबित होगा कि मतदाताओं को हिजाब और अजान से विचलित नहीं किया जा सकता। उनके लिए आम जनजीवन से जुड़ा शासन ही मायने रखता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये एक बहुत ही अहम चुनाव है।’
बीजेपी के लिए चुनौती
कांग्रेस की तुलना में बीजेपी के लिए इस चुनाव की अहमियत कम होने की बात समझाने के लिए डॉ. संजय कुमार एक उदाहरण का सहारा लेते हैं।
वो कहते हैं कि कैसे कोई टॉपर किसी विषय में अच्छा प्रदर्शन न करने के बावजूद अपनी टॉप पोजीशन नहीं खोता।
वहीं अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर ए नारायण भी डॉ संजय कुमार की राय से सहमत हैं। वो कहते हैं कि इस चुनाव में यदि कांग्रेस की हार होती है, तो ये उसके लिए बहुत बड़ा झटका साबित हो सकती है।
नारायण कहते हैं, ‘यदि इस चुनाव में बीजेपी हारती है, तो इसका मतलब ये होगा कि वो दक्षिण भारत में कोई प्रगति नहीं कर पाई है। लेकिन यदि बीजेपी जीतती है, तो इस जीत से दक्षिणी पड़ोसी राज्यों तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त ऊर्जा मिलेगी।’
वो कहते हैं, ‘दक्षिणी भारत के दरवाजे बीजेपी के लिए अभी ठीक से नहीं खुले हैं। वो कर्नाटक के छोर से इस दरवाजे को सिर्फ धकेलने की कोशिश कर रहा है।’
कर्नाटक के मतदाता कुछ समय बाद हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग दलों को जीत दिला चुके हैं।
बीजेपी अब उतनी मजबूत नहीं
1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी को पूरे देश में जोरदार जीत मिली थी, लेकिन उसके कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में उन्हीं वोटरों ने जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े का चुनाव किया।
ऐसे में इस बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कितना फायदा होने की उम्मीद है?
इस सवाल के जवाब में डॉ. संजय कुमार कहते हैं, ‘लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक के बाद एक जीतते रहने की बीजेपी की क्षमता दो-तीन साल पहले बहुत मजबूत थी। लेकिन उसकी यह क्षमता अब कम हो गई है।’
उनके अनुसार, ‘राज्य सरकार ने चाहे अच्छा प्रदर्शन किया हो या नहीं, लगातार विधानसभा चुनाव जीतने के मामले में बीजेपी अब उतनी मजबूत नहीं रही। वैसा दौर 2015 से 2019 के बीच का था। सरकार ने यदि अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, तो उसे चुनौती का सामना करना पड़ा है।’
कर्नाटक में लोकसभा की 28 सीटें हैं। 1999 से अब तक के हर चुनाव में बीजेपी वहां दोहरे अंकों में सीटें जीतती रही है। उस समय अपनी लोक शक्ति पार्टी को एनडीए में शामिल करके हेगड़े ने अपना लिंगायत वोट बैंक बीजेपी को ट्रांसफर करवा दिया था। 1999 में 13 सीटों से बढ़ते बढ़ते 2019 में बीजेपी 25 सीटों तक जा पहुंची।
बीजेपी और कांग्रेस दोनों के शासनकाल में कर्नाटक को केंद्रीय मंत्रिमंडल में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलता रहा है। विदेशी मामलों के अलावा उसे रेलवे, सामाजिक न्याय, श्रम, खाद्य प्रसंस्करण जैसे कई अहम मंत्रालय मिल चुके हैं।
लोकतंत्र के लिए कर्नाटक चुनाव का महत्व
योगेंद्र यादव कर्नाटक विधानसभा चुनावों के कहीं अधिक व्यापक प्रभाव देखते हैं।
वो कहते हैं, ‘मेरा एक गंभीर दावा है कि हम अपने गणतंत्र का विघटन होता देख रहे हैं। समान नागरिकता का संवैधानिक प्रावधान पहले ही नकारा जा चुका है। स्वतंत्रता के अधिकार से पहले से ही समझौता कर लिया गया है।’
‘संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है। इसलिए, अभी लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि गणतंत्र के लिए भी चुनौती है। क्योंकि अभी भारत कही जानी मानी राजनीतिक इकाई को ही तोड़ा जा रहा है।’
उन्होंने कहा, ‘यही कारण है कि गणतंत्र को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है। और यह होना तभी शुरू हो सकता है, जब कर्नाटक में बीजेपी की निर्णायक हार हो जाए। ‘भारत जोड़ो’ यात्रा ने एक गति तो पैदा की है। इसने एक तरह से बीजेपी के एकछत्र राज पर सवाल उठाकर प्रभुत्व और विध्वंस की प्रक्रिया रोक दी। उस गति को आगे बढ़ाने का फैसला कर्नाटक के मतदाताओं द्वारा तय होगा।’ (bbc.com)
एनसीईआरटी की ओर से हुए नए बदलावों पर देश में बहस छिड़ी है। बच्चों की किताबों से गांधी, मुगलों का इतिहास तथा निराला और फैज़ अहमद फैज़ आदि की कविताएं हटाने को लेकर देश में गुस्सा और चिंता का इजहार किया जा रहा है। यह बात सामने आई है कि ऐसे परिवर्तन पिछले जून 2022 में कर दिए गए थे लेकिन पिछली किताबें छप गई थीं। इसलिए इन परिवर्तनों को मौजूदा सत्र में लागू किया गया है। एनसीईआरटी को 1961 में केन्द्र ने गठित किया था। उसका काम रिसर्च के आधार पर समय समय पर शिक्षा और इसलिए पाठ्यक्रम में बदलाव करना है। इस प्रक्रिया में काउंसिल को कभी प्रषंसा तो कभी आलोचना का शिकार होना पड़ा है। कक्षा बारह की किताब से ‘किंग्स एण्ड क्रॉनिकल: द मुगल कोर्स’ चैप्टर को हटाया गया है। इसके अलावा कक्षा सात की किताब से अफगानिस्तान से महमूद गजनबी के आक्रमण और सोमनाथ मंदिर पर हमले की बात को बदला गया है। आलोचकों का कहना है कि मुगलों के इतिहास को हटाने से 200 वर्षों का इतिहास तो जानकारी के अभाव में शून्य हो जाएगा। मुगल शासकों और उनके इतिहास पर आधारित अध्यायों को थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट दो नामक किताब से हटा दिया गया है। इस तरह छात्रों को मुगल साम्राज्य का इतिहास नहीं पढऩा होगा।
एनसीईआरटी ने इसको लेकर अपनी सफाई में कहा है कि भारत में कोविड जैसी महामारी के आक्रमण के बाद पूरे पाठ्यक्रम को रेशनलाइज़ और डिजिटल भी किया जाने का विचार है। इस तरह भी कि छात्रों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ नहीं आए। पूरे का पूरा मुगलकाल इतिहास की जिल्दों से गायब कर दिया जाए। इसकी तो कोई सफाई हो ही नहीं सकती। जिसे भी भारत और इतिहास जैसे विषयों में समझ और दिलचस्पी होगी। वह पूरे मुगलकाल को ब्लैकआउट करने के तर्क को कभी समर्थन नहीं दे पाएगा।
केन्द्र सरकार के फैसले के कारण राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में अब इतिहास के कई परिच्छेद हटा दिये जाएंगे। विद्यार्थी अब उन्हें नहीं पढ़ पाएंगे। शायद सरकार की समझ है कि इतिहास के ऐसे हिस्से अपने आपमें गैरजरूरी अतिरक्तता हैं। शायद यह भी कि वह अन्य देश के भारत में हमलावर होकर बस गए अन्य धर्म के शासकों को गैर आनुपातिक रूप से इतिहासकारों ने ज्यादा महत्व दिया है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाली मौजूदा सरकार वे सब ठनगन कर रही है जिससे भारत पर मसलन मुगलिया सल्तनत के असर की पढ़ाई तो दूर उस पर युवा पीढ़ी में कहीं गुफ्तगू तक नहीं हो सके। तमाम षहरों के नाम सरकार ने बदलकर मानो मुस्लिम कालखंड को भारत से दफा करने का अभियान कायम कर रखा है। उसे औरंगजेब का नाम नहीं चाहिए। बाबर से लेकर बहादुर शाह जफर तक के नाम भी नहीं। मुगलसराय स्टेशन या नगर का नाम तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। पता नहीं मुगलाई खाने का नाम आगे क्या रखा जाएगा? संस्थानों, अकादेमियों, विश्वविद्यालयों और शोध प्रकल्पों के नाम भी धीरे धीरे कथित राष्ट्रवादी टे्रडिंग के जरिए बदले जा रहे हैं। मौजूदा विचारधारा या सरकार से बहस करने का कोई मतलब नहीं है। उसका हिन्दू राष्ट्र बनाने का एजेंडा इसी तरह आगे बढ़ाया जाता रहेगा। हासिल यह तो है कि देष का वोट बैंक उनकी गिरफ्त में आ गया है। अशिक्षित, गरीब, रोजगारविहीन, भावुक, मासूम और हर तरह के तिकड़मी लोग भी उस जमावड़े में शामिल होते जा रहे हैं। उन्हेंं इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मूल्य, भविष्य, अंतरराष्ट्रीय समझ और मजहबविहीन इंसानियत से मतलब ही नहीं है।
किसी देश का इतिहास या कोई कालखंड किसी बादशाह या सम्राट की सनक या तुनक पर नहीं तामीर होता। बीते इतिहास का बाद की पीढिय़ां मूल्यांकन करती हैं। भारत में मुगलकाल का इतिहास भी इस मूल्यांकन का अपवाद नहीं है। भारतीय पस्तहिम्मत, बिखरे हुए और नाकाबिल नहीं होते तो दुनिया के कई मुल्क और जातियां षक, कुषाण, हूण, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, अंगरेज, मुगल, तुर्क, यूनानी आदि भारत पर हमला नहीं करते। इनमें केवल मुगल हुए हैं जिन्होंने हमलावर होने के बावजूद भारत में अपना सांस्कृतिक समास ढूंढ़ा। वे इसी देश के लोगों और उनकी परंपराओं के साथ रच, बस, खप गए। वे भले आए होंगे शायद लुटेरों की शक्ल में, लेकिन जेहनियत में वे भारतीय होने का अहसास पाकर फिर लौटकर नहीं गए। ऐसे मुगलकाल का इतिहास दूध की मक्खी की तरह निकालकर इतिहासविहीन लोगों द्वारा फेंका जा रहा है। उन्हें इतिहास के बदले अफवाहों, चुगलखोरी, झूठ, फरेब वगैरह से लगाव होता है। वे चाहे कुछ करें इतिहास की पुख्ता पीढ़ी दर पीढ़ी बौद्धिक जमीन उर्वर होती है। बहुत पुराना इतिहास ही तो बाद में मिथक में तब्दील हो जाता है। उसकी इतिहास के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वीकार्यता भी हो जाती है। मसलन राम और कृष्ण या त्रेता और द्वापर की कहानियां भारतीय संस्कृति की समझ का अनिवार्य हिस्सा हैं।
मुगलकाल में भारतीय मध्ययुगीनता रचनात्मकता के उफान पर थी। भारत वैसे तो कभी भी औपचारिक इतिहास लेखन का देश नहीं रहा। इतिहासकारों से कहीं ज्यादा कवियों ने इस देश को जीवन्त और उर्वर किया है। कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान को मुगलकालीन होने के कारण नहीं पढ़ाया जाएगा, तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बताए कि उनके वर्णन की राम और कृष्ण कथाओं को अवाम की यादों से कैसे निकाल फेंका जा सकेगा। इन छह कवियों में चार तो मुसलमान हैं। इस देश का सबसे बड़ा मध्यकालीन कवि कबीर अंतर्राष्ट्रीय शोहरत का है। अकबर के समकालीन तुलसीदास ने वाल्मिीकी से कहीं आगे बढक़र रामचरित मानस को घर घर की आवाज बना दिया। पोंगा पंडितों ने तुलसीदास की रामचरित मानस को अवाम की पुस्तक बनाने का विरोध किया। तब तुलसी भीख मांगकर खाते रहे। उन्हें रचनारत रखने के लिए मंदिरों ने नहीं मस्जिदों ने पनाह दी। रसखान के लिखे कृष्ण के बाल चरित्र को कोई कैसे खारिज कर सकेगा। बीरबल तो मुहावरा बनकर लोगों की जवाब पर चस्पा हैं। बीरबल की खिचड़ी जैसा मुहावरा भारतीय जुबान से क्या नोच लिया जाएगा? तानसेन और बैजूबावरा संगीत का व्यक्तिवाचक नहीं भाववाचक नाम हो गए हैं।
स्थापत्य कला में फतेहपुर सीकरी, आगरा और सबसे बढक़र ताजमहल के बारे में सरकारी हुक्म के कारण नहीं पढऩा दुनिया के सांस्कृतिक इजलास में भारत को अभियुक्त की श्रेणी में खड़ा कर देगा। ताजमहल जैसी कृतियां तो विष्व धरोहर हैं। जहांगीरी न्याय जैसा मुहावरा तो 75 वर्षों में भारतीय सुप्रीम कोर्ट भी हासिल नहीं कर सका है। अकबर ने दीन-ए-इलाही मजहब चलाया था। धर्मनिरपेक्षता तो यूरोपीय बुद्धि से उत्पन्न होकर संविधान निर्माताओं ने शामिल की है। मुगलों ने हिन्दुओं के साथ रोटी बेटी के तमाम संबंध बराबरी के स्तर पर किए। मौजूदा सत्ता विचार के लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य दलों के फारुख अब्दुल्ला और सचिन पायलट वगैरह के परिवार इस परंपरा से अछूते कहां हैं। कितनी भी कोषिष करें, हिन्दी में कम से कम एक तिहाई उर्दू शब्द हैं जिन्हें अवाम की जबान से निकालकर फेंका ही नहीं जा सकता। अजीब किस्म का नफरती अभियान चलाया जा रहा है जो भारत की मजबूती की बुनियाद पर हर वक्त बुलडोजर चलाता रहता है। देश के सत्तापरस्त बुद्धिजीवी तो चुप ही रहते हैं। भारत में मूल्य-क्षरण का नया युग आ गया है। उसे संविधान के मकसद से भी लेना देना नहीं है। बल्कि वह संविधान के मकसद को ही कुचल देना चाहता है।
बादशाह अकबर खुद को मुसलमानों का न तो नुमाइंदा समझता था और न ही इस्लाम के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का मूल मकसद मानता था। पहले वह बादशाह और उसके बाद मुसलमान होता था। देशवासियों के बीच फैली मजहबी कट्टरता को खत्म करना चाहता था। उन्हें ऐसे धर्म का अनुयायी बनाना चाहता था जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातेें शामिल हों। धार्मिक विद्वेष जैसी बुरी बातें दूर कर दी जाएं। उसे पितामह बाबर की वसीयत याद रही होगी जो उसने अपने पुत्र हुमायूं को दी थीं। ‘ऐ मेरे बेटे। हिंदुस्तान में अलग अलग मजहबों के लोग रहते हैं। खुदा का शुक्र अदा करो कि बादशाहों के बादशाह ने इस मुल्क की हुकूमत तुम्हारे सुपुर्द की है। ‘इन नसीहतों के कारण हुमायूं ने रानी करुणावती की भेजी राखी स्वीकार की थी। मुगलों ने भारत को अपना वतन और दिल्ली, आगरा आदि को अपना घर बना लिया था। सूफी आंदोलन की अगुआई मुस्लिम सूफी व शेखों और हिंदू साधु संतों के हाथों में रही है। नतीजतन बहादुरशाह जफर के वक्त तक पहुंचते पहुंचते हिंदुस्तानियत का खून मुगलों और दूसरे मुसलमानों की रगों में ईरान और तूरान से ज्यादा जोर मार रहा था। वे देशज संस्कृति में रंगे जा चुके थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुहम्मद हबीब ने लिखा है,’’ राजा छत्रसाल भी र्कुआन शरीफ क ा उतना ही सम्मान करता था जितना कि वेद और पुराणों का। उसके दरबार में एक तरफ ऊंची चौकी पर पुराण और दूसरी तरफ र्कुआन रखी रहती थी। विशेषकर मुगलों की सल्तनत को लेकर हिंदूवादी भारतीय एक तरह का तनाव या दबाव महसूस कर रहे थे। मुगलों की प्रजा के रूप में पीढिय़ों तक हिंदू कायम रहे। मुगल इस तरह भारत में आए थे कि बस यहां रम गए। उन्हें किसी भी तरह हिंदुस्तान के इतिहास की स्मृतियों से कभी भी उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा, ऐसी परिकल्पना तक उन्होंने नहीं की थी।