विचार / लेख
सुमित सिंह
साल था 2005। इलाहाबाद में एक रेलवे स्टेशन है रामबाग। वहां से सुबह एक पैसेंजर ट्रेन चलती है बनारस के मंडुआडीह के लिए। ट्रेन की हालत ये थी कि सुबह साढ़े छह सात तक निकली ट्रेन मंडुआडीह पहुँचने में शाम के छह बजा देती थी। फऱ भी खचाखच भरी रहती थी। सारी बोगियाँ जनरल। सीट, पहले आओ पहले पाओ। गर्मी के दिन थे और मैं मंडुआडीह जाने कि लिए उस दिन ट्रेन में बैठा था। ट्रेन भरनी शुरू हो गई थी कि एक परिवार हमारे सामने वाली बर्थ पर आकर जम गया। सात आठ लोगों के परिवार की कमान जिन साहब के हाथ में थी वो रुआब वाले आदमी थे। तीन चार नौजवान उन्हें ट्रेन में बिठाने आए थे। आते ही उन्होंने सबका सामान उलट पलट कर इन साहब का सामान जमाना शुरू किया। कऱीब साठ पैंसठ की उम्र वाले इन साहब की क़द काठी अच्छी थी और उस पर कऱीने से बांधा गया साफ़ा, कलफ़ लगा कुर्ता और सदरी वग़ैरह। साथ में एक हम-उम्र महिला थीं और छोटे-बड़े बच्चे। कुर्ते की जेब में नोकिया तैंतीस दस मॉडल मोबाइल क्लिप किया हुआ था। तब इनकमिंग का भी पैसा लगता था।
सामान तो सामान, इनके पास बाक़ायदा अपनी सुराही थी मिट्टी की। जिसे सीट पर बैठे एक बच्चे को उठाकर रखवाया इन्होंने।
आने के दस मिनट के भीतर ही इन्होंने जेब से मोबाइल निकाल कर पहला फोन लगाया ‘भाई’ को। फोन को स्पीकर पर डालकर पूरे कूपे में घूम-घूमकर बार-बार सामने वाले से कहा कि ‘भाई’ को बता देना कि गाड़ी मिल गई, बैठ गए सब लोग। फोन काटने के बाद इन्होंने मुनादी पीट दी कि ये अतीक अहमद उर्फ ‘भाई’ के मौसिया ससुर लगते हैं, उन्हीं के यहाँ बात हो रही थी। उनकी बातें सुनकर लग भी रहा था कि फ़ोन जिसने भी उठाया था वो अतीक का करीबी ही था क्योंकि उसे अतीक अहमद के सारे कार्यक्रम वगैरह मालूम थे, उसने ये भी कहा था कि भाई को उनकी खैरियत बता देंगे।
अब दुनिया की सबसे रद्दी ट्रेन के एक जनरल कूपे में अतीक का इतना करीबी रिश्तेदार क्यों ही आकर बैठा, ये पूरी बोगी के लिए ही रहस्य था। तब अतीक की तूती बोलती थी इलाहाबाद में। बच्चा-बच्चा उसकी कहानियां जानता-सुनता था।
ट्रेन रामबाग से खुलकर दारागंज जाती, उसके बाद झूँसी, फिर रामनाथपुर, सैदाबाद, हंडिया वग़ैरह
वो नासपिटी ट्रेन उस दिन चल पड़ी टाइम से। ऐसा होता नहीं था। आधे से ज्यादा लोगों की ट्रेन छूट ही गई होगी। लेकिन दबी जुबान में लोग इसे अतीक का जलवा बताने लगे। चमत्कार मामूली आदमी के मत्थे मढ़ नहीं सकते।
उस ट्रेन में आमतौर पर टिकट चेक करने वाले आते नहीं थे, जब तक बनारस ना आ जाए। लेकिन उस दिन आधे घंटे दूर झूँसी में ही दनादन टिकट चेकर चढ़ पड़े। क्रक्कस्न के जवान रेलवे स्टाफ़ के साथ खड़े थे। मालूम चला कि पैसेंजर ट्रेन चेक करने का सालाना जलसा आज ही होना है। हमारी बोगी में भी टिकट चेकर आया। जिनके पास टिकट नहीं था उन्हें ‘हिसाब-किताब’ के लिए बाहर उतारा जाने लगा। टीसी के कोट पर नेमप्लेट लगी थी राजीव रंजन। आज पूरे दिन यही कार्यक्रम चलना था तो टीसी जल्दी में भी था। लेकिन उतनी जल्दी में भी नहीं था जितना हमारे सामने बैठे साहब ने समझ लिया था। टिकट मांगने पर उन्होंने कोई हरकत ही नहीं की। जब टीसी ने दोबारा टिकट मांगा तो हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि ‘आगे बढ़ो यार’। अब टीसी बमका। बोला ‘गाना गाकर पैसा मांग रहा हूं क्या, कि बोल रहे हो आगे बढ़ो, टिकट दिखाओ बाहर अधिकारी खड़े हैं’
इस पर उन्होंने जवाब दिया कि ‘बोल दो हाजी साहब बैठे हैं’
टीसी ने खिडक़ी से आवाज़ देकर सीनियर टीसी को बुलाया और बताया कि ये अर्दब दे रहे हैं। सीनियर टीसी के कोट पर सरफराज एस। नाम की नेमप्लेट लगी थी। देखकर हाजी साहब मुस्कुराए। पानदान निकालकर पान बनाने लगे। जूनियर टीसी आगे बढ़ गया।
सीनियर टीसी ने कड़ी आवाज़ में टिकट दिखाने को या टिकट ना हो तो बनवा लेने को कहा। हाजी साहब बोले कि ‘टिकट तो पूरी ट्रेन का बनवा दें हम लेकिन घर के बुजुर्गों से बात करने की ये तमीज है आपकी?’
टीसी सुबह सुबह काम पर आकर वैसे ही झल्लाया हुआ था उसने कहा कि ‘हमारे घर के बुजुर्ग बिना टिकट ट्रेन में चढऩे की बदतमीजी नहीं करते हैं आपकी तरह’
अब हाजी साहब ने खेला अतीक कार्ड। बताया कि भाई घर के ही हैं। टीसी को इतना सब्र था नहीं, उसने हाजी साहब का हाथ पकडक़र उन्हें खींच कर सीट से उठा दिया और सामने खड़ा करके कहा ‘तो गोली मरवा दोगे? कि हमारी जगह जमीन कब्जा करवा दोगे?’
इतने के लिए हाजी साहब तैयार नहीं थे, झेंप कर मोबाइल निकाला और किसी को फोन मिलाकर कहा कि ‘यार ये टीटी से बात करो ये बदमाशी कर रहा है हम ही से’
टीसी ने सेकेंड भर के अंदर मोबाइल पकड़ा और फ़ोन काटकर मोबाइल ट्रेन की खिडक़ी से बाहर फेंक दिया। हाजी साहब अरे-अरे कहके बाहर लपके।
इसके बाद शुरू हुई बहसा बहसी। हाजी साहब इस बात पर बमके कि ‘अतीक के बाप को हाथ कैसे लगा दिया।’ टीसी ने जवाब दिया कि ‘अभी कायदे से हाथ लगाया कहाँ है, अभी तो चालान करके भेजूँगा जेल।’
आखऱिी पत्तों के तौर पर हाजी साहब ने कहा कि ‘तुम जैसों की वजह से क़ौम की हँसी उड़ती है।’ जवाब आया कि ‘हँसी उन जैसों की वजह से उड़ती है जो खुद तो करोड़ों की गाड़ी में चलते हैं लेकिन उनका बाप सौ रुपए का टिकट नहीं खऱीद सकता।’
उसी रोज़ मैंने पहली बार सरफराज एस। के मुंह से सुना कि मुसल्लम ईमान का मतलब मुसलमान होता है, और चोरी से सफर करने वाले को कम अज कम खुद को मुसलमान तो नहीं ही कहना चाहिए।
बात की बात में हाजी साहब ने धमकाते हुए कहा कि ‘एक फोन पर गाड़ी घेर कर ‘उनके लोग’ खड़े हो जाएंगे, तब अपनी जिम्मेदारी ख़ुद लेना।’
इस पर सरफराज एस। ने छाती ठोंक के कहा (वाक़ई ऐसे ही कहा था) कि ‘यहीं खड़ा हूँ, मरवा दो, लेकिन मैं मरा तो घरवाली को इज्जत से पेंशन मिलेगी, बच्चे पढ़ते रहेंगे, और जिनके नाम पर गुंडई बता रहे हो उनकी मौत पर कोई पानी नहीं पूछेगा।’
आखिरकार इस पूरे तमाशे के बीच अब तक चुप रहीं हाजी साहब के साथ की महिला ने एक बच्चे को भेजकर सीनियर टीसी सरफराज एस। को बुलवाया, अपने पास से रुपए दिए और टिकट बनाने को बोला।
हाजी साहब ने ऐलान किया कि ‘ना टिकट बनेगा और ना हम उतरेंगे गाड़ी से, बात भाई की इज्जत की है।’
पर्ची लिखना शुरू कर चुका टीसी महिला की तरफ मुड़ा, उन्होंने इशारा किया कि तुम बनाओ टिकट।
हाजी साहब खिडक़ी के सामने रूठकर बेंच पर जा बैठे।
एक लडक़े को भेजकर महिला ने बुलवाया तो कहने लगे कि हम नहीं जाएंगे अब कहीं।
महिला ने लडक़े को वापस बुलाया, सामने रखी सुराही हाजी साहब के सुपुर्द करवाई और तसल्ली से बैठ गईं। इतनी हील हुज्जत के बाद ट्रेन खुली। आखऱिी बार जब देखा तो बेंच पर सुराही के बगल में बैठे हाजी साहब चायवाले को रोककर चाय लेते दिखे। सरफऱाज एस। वापिस बोगी में चढ़ लिए।
ये वही साल था जब अतीक अहमद राजू पाल मर्डर केस में आरोपी बनकर ख़बरों में था, लेकिन ये वो साल भी था जब एक टिकट चेकर सरफऱाज एस। ने पर्याप्त ख़तरा दिखते हुए भी अपने काम में कोताही नहीं बरती। नजऱ फेर लेने से उसका कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन वो ईमान के साथ खड़ा था और तन के खड़ा था।
आप तय कीजिए कि रीढ़ का धर्म क्या होता है?