विचार / लेख
डॉ. संजय जोठे
परसों रात ट्रेन में कुछ छात्रों से बात हो रही थी। भोपाल से फारेस्ट मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग के पांच छात्र थे, वे सामाजिक मुद्दों और अपनी क्लास में समाज विज्ञान की पढ़ाई को लेकर चिंतित थे।
उनमें से कद्दछ फारेस्ट मैनेजमेंट के छात्रों को लगता था कि उनके शिक्षक समाज विज्ञान पढ़ाते हुए सिर्फ प्रवचन पिला रहे हैं। इंजीनियिंग के छात्रों को समाज विज्ञान शब्द सुनकर ही हंसी आ रही थी, यह भी कहते जा रहे थे कि इंडिया में टीचर्स को पढ़ाना ही नहीं आता, बस लेक्चर पिला के भाग जाते हैं। उनकी इंजीनियरिंग की क्लास में भी प्रवचन ही चलते हैं।
मैंने पूछा कि आपको किस तरह पढऩा पसन्द है? उन्होंने कहा कि केस स्टडी और उदाहरण देकर बहस कराई जाये प्रेक्टिकल कराये जाएँ और छात्रों को इंटरेक्ट करने का मौक़ा दिया जाये तो अच्छा होता है वरना क्लास में नींद आती है। इस उत्तर पर लगभग सभी सहमत थे। उनकी सहमति देखकर लगा कि ये खुले दिमाग के नए जमाने के नवयुवक हैं, ये वैज्ञानिक चित्त के बच्चे हैं।
फिर बात युद्ध और टेक्नोलॉजी विषय पर निकली, मैनेजमेंट के छात्र ने कहा कि महाभारत में एटम बम का प्रयोग हो चूका है, उस जमाने में टेलीपैथी और मानसिक बल से बड़े बड़े हथियार चलाये जाते थे हवाई जहाज भी बन चुके थे। ये सुनकर मैं चौंका और पूछा कि भाई ऐसी तकनीक जिनके पास थी वे घोड़े और बैलों के रथ में क्यों चलते थे? इसका उत्तर इंजीनियरिंग के छात्र ने दिया कि वे इको फ्रेंडली लोग थे प्रदूषण नहीं चाहते थे इसलिए फॉसिल फ्यूल पर आधारित कार इत्यादि नहीं बनाये।
मैंने सहमति में सर हिलाते हुए पूछा कि मान लिया ये ठीक है, अगर उनके पास एटम बम थे तो उनसे बचने के लिए उन लोगों के महलों किलों का मटीरियल भी एटम बम का सामना करने के योग्य रहा होगा, और सामान्य समाज के मकान दूकान इत्यादि भी मजबूत मटेरियल से बने होंगे लेकिन उनके अवशेष नहीं मिलते जबकि उनसे करोड़ो साल पुराने डायनासोर की हड्डियां तक मिल गई, ऐसा क्यों?
इंजीनियरिंग के स्टूडेंट ने कुछ सोचते हुए कहा कि उनका मटीरियल बायोडिग्रेडिबल था यानी कि बहुत जल्दी मिट्टी में घुल मिल जाता था और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचने देता था।
मैंने फिर सहमति दी और पूछा कि इतनी विक्सित टेक्नोलॉजी उनके पास थी तो उन्होंने ताड़ और केले के पत्तों पर ग्रन्थ क्यों लिखे कम्प्यूटर इत्यादि में अपना ज्ञान स्टोर क्यों न किया? कागज क्यों न बनाया? तो उन्होंने तपाक से कहा कि इलेक्ट्रॉनिक कचरा पर्यावरण को खतरा पहुंचाता है इसलिए उन्होंने ताड़पत्र चुने।
मैंने फिर सहमति में सर हिलाया और पूछा कि चलो अंतिम सवाल पूछता हूँ कि इस ट्रेन को ठीक से देखो और बताओ कि इसमें जो भी उपकरण लगे हैं या मटीरियल लगा है उसमे से किसी एक का आविष्कार किसी भारतीय ने किया हो तो बताइये।
पाँचों छात्र गर्दन घुमा-घुमाकर चारों तरफ देखते रहे और अपने दावों पर शर्मिंदा होते रहे।
चर्चा के बाद मैं देर तक सोचता रहा कि ये इस जमाने के बच्चे हैं? क्या ये कभी नई खोज करेंगे या विज्ञान और तकनीक के बाबू ही बने रहेंगे? क्या ये किसी भी व्यवस्था या तकनीक या विचार पर प्रश्न उठा सकेंगे? और इससे भी बड़ी बात यह कि इन्हें बचपन की सुनी हुई कहानियों से कब मुक्ति मिलेगी? ये कब सच में जवान होंगे और उन कहानियों को सही सिद्ध करने की विवशता से कब बाहर निकलेंगे?
लेकिन हालत ये है कि इन कहानियों को दिमाग में गहरे ठूंसा जा रहा है, इनका महिमामण्डन हो रहा है। अब स्वदेशी इंडोलॉजी के सिद्धांतकार इनमे वास्तविक विज्ञान ढूंढकर दिखा रहे हैं। ऐसे सिद्धांतकार भारत में वैज्ञानिक चित्त के जन्म की बची खुची संभावना भी खत्म कर रहे हैं।
शायद हमें रक्षा उपकरण और विज्ञान तकनीक राजनीति प्रशासन चिकित्सा भाषा सहित नैतिकता और कॉमन सेन्स भी सदा सदा तक यूरोप अमेरिका से ही आयात करनी होगी।