विचार/लेख
चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट संविधानसम्मत फॉर्म में लौटने की कोशिश में है। पूरा समाज मोदी के प्रशासनिक आतंक के सामने पस्तहिम्मत है। कई वकील जनता की लड़ाई लडऩे के बदले फीस और सरकारी प्रतिष्ठानों की वकालत जुगाडऩे के फेर में ज्यादा लगते हैं। साधारण लोग तो अंकगणित की इकाइयां समझे जाते मर्दुमशुमारी और वोट बैंक में इस्तेमाल किए जाते हैं। कई जज भी संविधान से बैर किए भी लगते हैं। ऐसे माहौल में जस्टिस चंद्रचूड़ की कोशिशें लोगों को उम्मीद की रोषनी दिखाती भी हैं। अहंकारी निजाम फूंक मारकर उसे बुझा देना क्यों नहीं चाहेगा?
मुश्किल हालातों में भारत का संविधान बना और आजादी मिली। बहुत बड़े जनआंदोलन के कारण अंगरेजों से आजादी मिली। पुरखों का इरादा था कि जन अधिकारों का बाइज्जत अहसास कराया जाए। उन्हें अमल में लाने का जिम्मा सरकार को दिया जाए। भारतीयों को आत्ममुग्ध भले हो, लेकिन उनका बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक है। उसे हिन्दू मुसलमान पचड़ा बढ़ाए बिना रोटी हजम नहीं होती। इसीलिए आजाद होता मुल्क नफरत की आरी से चीरकर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान हो गया। मुसलमान सदस्यों ने संविधान सभा में आना कबूल नहीं किया तो हिन्दू सदस्यों का काफी बड़ा बहुमत हो गया। इसी मानसिक घबराहट में मजबूत केन्द्र की अवधारणा संविधान में उभरी। उसका बुनियादी इरादा अन्यथा पूरी तौर पर नागरिक को मजबूत बनाने का था।
अम्बेडकर ने समझाया भले ही केन्द्र सरकार को पहले से ज्यादा मजबूत बल्कि एकाधिकारवादी नस्ल का बना रहे। फिर भी ऐसा करना केवल आपात प्रावधान होगा। राज्यों की स्वायत्तता पूरी तौर पर मजबूत और महफूज रखी जाएगी। यह वायदा बाद की संसदों के कारण हवा में उड़ गया। सांसद और केन्द्र सरकार अधिकारों की लूट-खसोट में गाफिल और आत्ममुग्ध लगातार होते रहे। आज हालत है कि भारत के प्रधानमंत्री को सामंतों और राजाओं से ज्यादा अधिकार और रुतबा मिला हुआ है। संविधान में यह बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई। अब देश में कोई नागरिक केन्द्रीय निजाम के खिलाफ फुसफुसाता भी है। तो उसे सीबीआई, ईडी, इन्कम टैक्स, एनआईए वगैरह की चौकड़ी फुफकार कर डसने दौड़ पड़ती है।
ऐसे माहौल में एक ताजा मामला फिर उठा है। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी कि उसे आधे अधूरे अधिकार संविधान के अनुच्छेद 239 क-क में मिले हैं। उन्हें भी केन्द्र सरकार जजिया कर की तरह वसूले पड़ी है। संविधान के तहत फेडरल लोकतंत्र किस तरह जीवित रहेगा जिसका आष्वासन अम्बेडकर ने दिया था? इसके पहले भी 2018 में ऐसी ही समस्या आने पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दो टूक कहा था कि मनोनीत उपराज्यपाल को चुनी गई विधानसभा के ऊपर या विकल्प में विधायन या कार्यपालिक अधिकार नहीं दिए जा सकते। उसमें एक पूरक फैसला नायाब बुद्धि के जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही लिखा था। एक लोकधर्मी कहावत है मुर्गी की डेढ़ टांग। भारत की राजनीति में उसका मतलब है एक टांग केन्द्र सरकार और आधी टांग दिल्ली (और तमाम केन्द्र शासित प्रदेशों) के लेफ्टिनेंट गवर्नर की। एक चौकड़ी बन जाती है। उसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लेफ्टिनेंट गवर्नर और केन्द्रीय कानून मंत्री आदि वक्तन बावक्तन अपनी भूमिका तलाषते रहते हैं। दिल्ली में यही वर्षों से हो रहा है।
अब आम आदमी पार्टी की सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देनी पड़ेगी। दिक्कत है कि संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची की प्रविष्टि क्रमांक 41 में विधानसभा को अधिकार देते लिखा था ‘‘राज्य लोकसेवाएं, राज्य लोकसेवा आयोग, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेरुख केन्द्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर राज्य की सेवाओं को अनुच्छेद 239 क-क के तहत संशोधित कर दिया है कि वे अधिकार अब केन्द्र सरकार के तहत हो जाएंगे। उनमेंं भी फैसला आखिरकार लेफ्टिनेंंट गवर्नर का ही मान्य होगा। बराएनाम एक दिखाऊ कमेटी बनाई जाएगी। उसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और एक और सचिव होंगे। वह बहुमत से फैसला कर सकती है। मुख्यमंत्री के तहत काम करने वाले मुख्य सचिव और उनके तहत काम करने वाले एक और सचिव मिलकर मुख्यमंत्री की पसंद या सिफारिश का खुलेआम मजाक उड़ा सकते हैं और सुझाव खारिज कर सकते हैं।
यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद को मिली विधायी शक्तियों (मसलन अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन) को कमतर करने का अधिकार नहीं है। लेकिन किन कारणों से अध्यादेश लाया गया है और उससे संविधान की भावनाओं का क्या रिश्ता है। ऐसे कई पेचीदे सवालों को सुलझाते कई साल गुजर जाएंगे। नरेन्द्र मोदी की सरकार को संविधान से क्या लेना देना? इस सरकार में अभी तक बीफ भक्षी कानून मंत्री तो अब पापड़ प्रचारक के मंत्री के जिम्मे संविधान की इबारतें हैं। यह सरकार तो अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए संविधान की बुनियाद को ही खोदकर उसमें सुरंग बना लेती है। उसे बंकर भी समझ सकती है। सुप्रीम कोर्ट के जज तो संविधान के लिए एक षरीफ-संकुल है। वे बहुत नीचे नहीं गिर सकते। जिसके लिए केन्द्र सरकार उसे चुनौती या आमंत्रण दे रही होगी। केजरीवाल ने ठीक किया है कि ज्यादा से ज्यादा विपक्षी पार्टियों को इक_ा कर यदि अध्यादेश राज्यसभा में आता है। तो उसको पारित नहीं होने दिया जाए। इस मामले में सभी विपक्षी पार्टियों को सडक़ पर आकर आंदोलन करना चाहिए।
भारत की सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों के सबसे बड़े फैसले केशवानन्द भारती में धर्मनिरपेक्षता को संविधान का बुनियादी ढांचा कहा गया है। उसका जवाब भाजपा की केन्द्र सरकार बागेष्वर धाम बाबा जैसे लोगों को समाज की भीड़ में छोडक़र ताली बजाती है। भारत की आजादी के वक्त कश्मीर की जनता को वचन दिए गए थे। उनका मजाक उड़ाते कश्मीर का राज्य का ओहदा घटाकर केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट कहता रहे नफरती भाषण नहीं चलेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को ही उसके बिना बोलने की आदत कहां है? मजहब के आधार पर चुनाव नहीं होगा लेकिन प्रधानमंत्री तो खुद मुष्टिका प्रहार करते कर्नाटक में मतदाताओं को खुल्लमखुल्ला बरगलाते रहे कि जोर से बजरंगबली की जय बोलो और फिर वोट के लिए बटन दबा दो। उनसे कांपता, सहमता केन्द्रीय चुनाव आयोग गांधी जी के तीन बंदरों से सीख चुका है कि न तो सरकार की बुराई देखो। न सरकार की बुराई सुनो और न सरकार की बुराई करो। ऐसे माहैाल में यदि आम आदमी पार्टी लोकतंत्र की हिफाजत के लिए लडऩे बढ़ती है। तो उसमें बाकी पार्टियों को वोट बैंक की गणित लगाने के बदले सडक़ पर आकर जनता का साथ देना चाहिए।
कनक तिवारी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिद और पहल से लोकधन का अनापषनाप खर्च कर नया संसद भवन, सेन्ट्रल विस्टा बन गया है। उसका उद्घाटन या लोकार्पण प्रधानमंत्री 28 मई को करेंगे। संयोग खोजा गया कि उस दिन विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन और देष के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार का दिन है। संसद के नए भवन से सावरकर का रिष्ता इतिहास थककर बेहोश हो जाएगा, तो भी ढूंढ़ नहीं सकेगा। संसद का सबसे पहला और लम्बा रिष्ता तो नेहरू से है। फिर भी बेतुका संयोग ढूंढ़ा गया। संविधान के नज़रिए से नए संसद भवन के लोकार्पण का अधिकार और दायित्व किसका है? संविधान के अनुच्छेद 1 के मुताबिक भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ है। भौगोलिक, राजनीतिक और संवैधानिक इकाई भारत राष्ट्रीय एकता में परिभाषित है। अनुच्छेद 52 के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ अर्थात् भारत की कार्यपालिका षक्ति राष्ट्रपति में निहित है। इस अधिकार का प्रयोग राष्ट्रपति संविधान के मुताबिक खुद या मातहत अधिकारियों के ज़रिए करेगा। ‘अधिकारी‘ षब्द की परिभाषा का व्यापक अर्थ यही है कि अनुच्छेद 74 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को सलाह और सहायता देने के लिए मुकर्रर है। मंत्रिपरिषद् का मुखिया प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति द्वारा ही नियुक्त होगा। अनुच्छेद 53 (2) के अनुसार देष के सुरक्षा बल भी राष्ट्रपति के अंतर्गत हैं।
संसद से राष्ट्रपति का रिश्ता तलाशने अनुच्छेद 79 मदद करता है। वह संसद की परिभाषा तय करता है ‘संघ के लिए एक संसद होगी। वह राष्ट्रपति और राज्यसभा तथा लोकसभा से मिलकर बनेगी। ‘बिल्कुल साफ है राष्ट्रपति संसद का अविभाज्य हिस्सा हैं। राष्ट्रपति को अलग करें तो संसद बन ही नहीं सकती। अनुच्छेद 80 में राष्ट्रपति को अधिकार है कि साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के नामचीन लोगों को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर सकें। वे न केवल संसद का बुनियादी हिस्सा हैं, बल्कि व्यक्तियों को मनोनीत करने का भी उन्हेंं अधिकार है। अनुच्छेद 85 कहता है कि राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझें, अधिवेषन के लिए आहूत करें। उसके अभाव में दोनों सदन कार्यसंचालन ही नहीं कर सकते। अनुच्छेद 86 के तहत राष्ट्रपति संसद के किसी एक या दोनों सदनों के सामने एक साथ अभिभाषण कर सकेगा और संसद सदस्यों की हाजिरी की अपेक्षा कर सकेगा। लोकसभा के पहले चुनाव के बाद सत्र की षुरुआत में राष्ट्रपति दोनोंं सदनों में अभिभाषण करेगा और संसद को ऐसा करने के कारण बताएगा। चर्चा के विषयों का निर्धारण भी राष्ट्रपति ही करेगा। संविधान में राष्ट्रपति की यह भूमिका असाधारण रूप से महत्वपूर्ण है। उसकी प्रधानमंत्री के कारण हेठी की जा रही है। राज्यसभा में सभापति के स्थान पर किसी भी सदस्य को राष्ट्रपति ही मनोनीत कर सकता है। संसद के कार्यरत नहीं होने पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 123 के अनुसार अधिकार है कि जरूरी ऑर्डिनेंस या अध्यादेष जारी कर सके। ऐसे अध्यादेष अधिकतम छह माह की अवधि के अंदर संसद द्वारा पुष्ट किए जाएं। इस तरह संसद की आपात षक्ति भी राष्ट्रपति में निहित है।
इन प्रावधानोंं के रहते सेन्ट्रऊल विस्टा (नए संसद भवन) का उद्घाटन या लोकार्पण कोई अन्य कैसे कर सकता है? संवैधानिक प्रावधान एक व्यक्ति की दमित महत्वाकांक्षा के कारण असंवैधानिक किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को संवैधानिक, पारंपरिक या नैतिक अधिकार नहीं है कि संविधान के प्रावधानों के खिलाफ निजी महत्वाकांक्षा को संसदीय कर्म पर लाद दें। प्रधानमंत्री लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य हो सकते हैं। कोई भी सदस्य सदन के सदस्यों के बहुमत से प्रधानमंत्री बन सकता है। प्रधानमंत्री नहीं। लोकसभा या राज्यसभा अध्यक्ष अपने अपने सदन का संचालन करता है। लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और 1951 के तहत पंजीबद्ध राजनीतिक पार्टी बहुमत के आधार पर सदन के अपने नेता का चुनाव करती है। जो प्रधानमंत्री बन सकता है। यही नरेन्द्र मोदी की संवैधानिक सकूनत है। संविधान सीधे देश का प्रधानमंत्री नहीं चुन सकता। राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन लेकिन संसद और विधानसभा सदस्यों के मतदान से ही हो सकता है। अनुच्छेद 75 के तहत राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। फिर प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करेगा। मनोरंजक है कि नियुक्तिकर्ता राष्ट्रपति की सेन्ट्रल विस्टा के कार्यकम में आने की भी स्थिति नहीं है। उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री लोकार्पण कार्यक्रम के सर्वेसर्वा हैं। क्या संसद प्रधानमंत्री के सामने कमतर संवैधानिक संस्था है? संसद के सबसे बुनियादी और अविभाज्य संवैधानिक अधिकारी संसद के लोकार्पण कार्यक्रम में बेगैरत तमाषबीन बना दिए जाएं! संविधान सभा ने राष्ट्रपति के बिना संसद की कल्पना ही नहीं की। उनकी गैरमौजूदगी में संसद का गठन ही नहीं हो सकता। राष्ट्रपति को हटाने संविधान में अनुच्छेद 61 के तहत महाभियोग का प्रावधान है। प्राथमिक आरोप भी संसद में ही लगाया जाएगा और फिर प्रक्रिया का पालन करते उपलब्ध और उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से ही राष्ट्रपति को हटाया जा सकता है। अनुच्छेद 62 के अनुसार राष्ट्रपति की पदावधि समाप्ति होने से रिक्ति को भरने अगले राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसी रिक्ति होने से पहले से ही पूरा कर लिया जाएगा। इसके बरक्स प्रधानमंत्री के समर्थक लोकसभा के सदस्य बहुमत से पार्टी की निजी बैठक में हटा सकते हैं। जिस पार्टी का प्रधानमंत्री सदस्य है, उस पार्टी का अध्यक्ष या संचालक मंडल संसद का सदस्य नहीं भी है, तब भी ऐसी बैठकें करके प्रधानमंत्री को हटाने का प्रस्ताव पारित कर सकता है। संविधान में कई अनिवार्य प्रावधान हैं जिनमेंं राष्ट्रपति पद की उपस्थिति, अनिवार्यता, निरंतरता और संवैधानिकता को लेकर संदेह हो ही नहीं सकता।
संविधान सर्वोपरि है। सांसदों, मंत्रियों बल्कि राष्ट्रपति पर भी संविधान की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। जो अधिकारी संवैधानिक आचरण नहीं करेगा। वह दरअसल अपने पद पर नहीं ही रह सकता। केन्द्रीय मंत्रियों के लिए संविधान की तीसरी अनुसूची में षपथ या प्रतिज्ञा का प्रारूप है। उसके अनुसार उन्हें विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखना जरूरी है। समझ नहीं आता कि राष्ट्रपति को उनकी संवैधानिक हैसियत और जिम्मेदारी से बेदखल करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किस हैसियत में सेन्ट्रल विस्टा के नये भवन का संवैधानिक लोकार्पण करते संवैधानिक निष्टा कैसे कायम रख रहे हैं? संसद में राष्ट्रपति की अनुमति के बिना संसदीय कार्य व्यवहार नहीं हो सकता और न संवैधानिक आदेष पारित हो सकता है। संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्र की सूची के 97 विषय हैं। उनमेंं संसद् कानून बना सकती है। सभी विषयों में बने कानून तब तक लागू नहीं हो सकते, जब तक राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर अनुमति नहीं दें। प्रदेशों में यही स्थिति राज्यपाल की है, लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करते हैं।
ऐसी स्थिति मेंं प्रधानमंत्री की निजी, राजनीतिक, असंवैधानिक महत्वाकांक्षा संविधान की इबारतों और उसके कालजयी संदेश के ऊपर चस्पा कर दी गई है। दुनिया के संसदीय इतिहास में इस तरह का गड़बड़झाला न तो कभी हुआ और न ही कोई संसदीय प्रजातंत्र में विष्वास रखने वाला देश ऐसा घटिया आचरण करने की हिमाकत करेगा। राष्ट्रपति की गैर मौजूदगी या उन्हें बेदखल कर संसद भवन का लोकार्पण संसद भवन का लोकार्पण कैसे कहलाएगा? अभी का लोकार्पण एक मकान का लोकार्पण है। उसमें राष्ट्रपति की संवैधानिक मौजूदगी हो जाने पर ही उसे संसद कहा जा सकेगा। ‘मोदी भारत है, भारत ही मोदी है, का नारा लगाने पर भी प्रधानमंत्री संसद् नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रपति तो परिभाषाधारी संसद हैं।
-अमिता नीरव
जब मैं अखबार में आई थी, तब तक हमारे अखबार में लगभग सारा काम मैनुएल ही होता था। हम मिनिएचर प्रिंट के पिछले खाली हिस्सों में हाथ से खबरें लिखा करते थे, यदि किसी खबर की कॉपी अच्छी होती थी तो हम सिर्फ इंट्रो बनाकर कॉपी में ही एडिट कर दिया करते थे।
हमारे ही सामने कंप्यूटरीकरण शुरू हुआ था। जब हमें कंप्यूटर मिला तो फिर काम करते-करते ही टाइपिंग भी सीखनी थी। चूँकि अखबार के अपने फॉण्ट थे औऱ उस वक्त तक हिंदी टाइपिंग के मामले में तकनीकी विकास धीमा भी था और कुछ अपनी भी अनभिज्ञता थी तो जो अखबार का की-बोर्ड था हमने वही सीखा था।
अखबार के ही एक सहकर्मी थे, जिनसे हर दिन बात हुआ करती थी। एक दिन उन्होंने कहा कि तुम्हारे अंदर इतनी प्रतिक्रिया है, इतने विचार है तो तुम ब्लॉगिंग क्यों नहीं शुरू करती? तब तक रीजनल से फीचर में ट्रांसफर हो गई थी, तो इंटरनेट की उपलब्धता में संस्थान ने उदारता बरती थी।
तकनीक की ज्यादा समझ नहीं थी, जब मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने मुझे ब्लॉग बनाकर दिया। मगर मसला ये आया कि अखबार में हम जिस की-बोर्ड का इस्तेमाल करते थे, उससे ब्लॉग पर नहीं लिखा जा सकता था। इधर-उधर से सब जगह से पता कर लिया।
सबने यही बताया कि यदि ब्लॉग लिखना है तो नया की-बोर्ड सीखना ही होगा। फिर से समस्या आई कि दो-दो की-बोर्ड को निभाएँगे कैसे। एक जो अखबार के लिए सीखा और दूसरा जो ब्लॉग के लिए सीखना होगा। तब आईटी के लड़कों ने बताया कि ब्लॉगिंग के लिए सीखा की-बोर्ड अखबार में भी काम दे देगा।
राहत हुई। नया की-बोर्ड सीखना शुरू किया। जब पहली बार टाइपिंग शुरू की थी तो हफ्ते भर में सीख लिया था और उसके अगले ही हफ्ते में ठीक-ठाक काम लायक स्पीड भी आ गई थी। तो लगा कि उसी स्पीड से नया की-बोर्ड भी सीख लिया जाएगा।
अनुमान पूरी तरह से गलत सिद्ध हुआ। नया की-बोर्ड सीखने में लगभग तीन महीने लग गए। हाँ स्पीड एक हफ्ते में पा ली। मगर सीखने में उम्मीद से ज्यादा वक्त लगा। बाद में समझ आया कि सीखने में उतना वक्त नहीं लगा। हुआ ये कि पहले जो सीखा था पहले उसे अनलर्न करना पड़ा तो अनलर्न करने में ज्यादा वक्त लगा।
मैं जो भी जानती हूँ, उसे मान लेने के बाद भी उस पर संदेह करती हूँ। अपने थोड़े से अनुभवों से जाना है कि कुछ भी जान लेना अंतिम रूप से जान लेना नहीं है। अंतिम रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता है, इसलिए जो भी जानती-समझती हूँ उस पर संदेह भी करती हूँ।
कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जिस जानने के आधार पर मैं कोई विचार बनाती हूँ, कुछ वक्त बाद वो आधार ही मुझे गलत लगने लगता है। इस तरह से बिना मेरी समझ के मेरी लर्निंग और अनलर्निंग की प्रक्रिया चलती रही है औऱ चलती रहती है।
अनलर्न शब्द अभी कुछ वक्त पहले ही सुना था। इस प्रक्रिया से चीजों को समझ रही हूँ फिर भी इस शब्द ने मुझे एकबारगी ठिठका दिया, क्योंकि हमने सीखना ही सीखा है, सीखे हुए को भूलने को तो हम यह मानकर चलते हैं कि वो तो होना ही है। मगर यह भूलना ऐसा नहीं है कि जिसे हम चाहते हैं, यह बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है, हम वो भी भूल जाते हैं, जो हमें याद रखना चाहिए।
इतिहास और विज्ञान यह बताता है कि दरअसल हमारा व्यक्तित्व एक परिवेश में विकसित होता है, हरेक व्यक्ति अलग तो होता है, लेकिन उसके अलग होने में उसके परिवेश की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। हमने यह जाना है कि इंसान की विशिष्टता उसके भूगोल और फिर उसके परिवेश से तय होती है।
फिर भी हम तमाम तरह के विभाजनों को लेकर रूढ़ हैं, क्योंकि हममें से हरेक ने अपने बचपन से उन विभाजनों को जाना है और उसकी सोशल हैरार्की को भी जाना है। हुआ तो यह भी कि कुछ दो-चार लोगों के अनुभव उदाहरण के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाए गए और उन्हें सिद्धांत मान लिया गया।
जैसे कि ब्राह्मण विद्वान होते हैं, राजपूत साहसी, महिलाएँ निर्बुद्धि होती हैं, पढ़ी लिखी महिला खुद को ज्यादा स्मार्ट समझती है, वैश्य की व्यापारिक बुद्धि होती है, शूद्र कम योग्य होते हैं, मुसलमान धोखेबाज होते हैं, अंग्रेजी बोलने वाले समझदार होते हैं, क्रिश्चियन सभ्य होते हैं, आदि-आदि।
हम इन सामान्यीकरणों को सिद्धांत की तरह स्वीकार करते हैं और उसे जस-का-तस मान लेते हैं। कई बार हम लोगों से खुद ही बचने लगते हैं और कई बार हमारे पूर्वग्रह हमें स्थापित मान्यता से अलग को अपवाद मानने की लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे ये सामान्यीकरण सिद्धांत का रूप ले लेते हैं और समाज के विभाजन सख्त से सख्ततर होते चले जाते हैं।
यदि कोई इन्हें चुनौती देता है तो उसे विरोधी सिद्ध कर उसकी बात को अमान्य कर दिया जाता है। जबकि बदले हुए वक्त में इस किस्म का सामान्यीकरण न सिर्फ हानिकारक है, बल्कि बहुत हद तक क्रूरता और असंवेदनशीलता की सृष्टि करता है।
हममें से ज्यादातर लोग स्थापित मान्यताओं को इस कट्टर तरीके से लर्न करते हैं कि उनके पास अनलर्न करने की गुंजाइश ही नहीं बची रहती है। अभी अनलर्निंग को गूगल सर्च कर रही थी तो उसका अर्थ देखकर चौंक गई। मैं जिस दिशा में इसे समझ रही थी, अर्थ ठीक-ठीक उसी दिशा में ले जा रहा है।
गूगल बता रहा है कि, The more you learn about things – be they true or not- the more rigid and the more we compartmentalize our reality. एक मोटी समझ कहती है कि यदि कोई पात्र ऊपर तक भरा हुआ है तो उसमें यदि कुछ और डाला जाएगा तो वह बाहर ही गिरेगा। हमारा दिमाग भी ऐसा ही है।
अनलर्न करना, असल में लर्न करने का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
-मीनाक्षी नटराजन
उच्चतम न्यायालय में केन्द्र सरकार ने समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए कई बिन्दु रखे हैं। उनमें से एक बिन्दु सत्ता व्यवस्था की वास्तविक मानसिकता को प्रकट करता है। उनका कहना है कि विशिष्ट विवाह कानून के तहत हसबैंड या पति की व्याख्या पुरुष के रूप में ही हो सकती है। पत्नी या वाइफ की व्याख्या भी स्त्री के रूप में ही हो सकती है। कानून बनाने वालों की यह मंशा थी और यह सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित है।
यदि ऐसा मान भी लें कि कानूनी प्रावधान तय करते समय विधायिका की यही धारणा थी, तो क्या यह बदलते संदर्भ, समझ के अनुरूप इसे कभी बदला नहीं जाएगा? क्या हर मूल्य को नए वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में नवाचार से महरूम रखा जाएगा? सिर्फ इसलिए कि ऐसा पहले सोचा नहीं गया। खैर, इन सबसे इतर क्या यह सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए कि पति-पत्नी, हसबैंड-वाइफ एक दकियानूसी ख्याल, अल्फाज और संबंध विवेचना है। इसका प्रयोग काल बाह्य हो चला है। इन शब्दों के अर्थ में पितृसत्ता का संपूर्ण प्राधन्य छुपा है।
पति शब्द का उपयोग ऋग्वेद में भी मिलता है। प्रसिद्ध भाषाविद् मोनियर विलियम्स के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार, पति हसबैंड का समतुल्य हिन्दी शब्द है। पति का शाब्दिक अर्थ अधिकारी, मालिक, स्वामी या नियंत्रक है। इसी तरह उसका उपयोग भी किया गया है, वह जिसके पीछे उसका कुनबा चले। उसी के स्वामित्व में पत्नी, संतान को रहना है।
सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यता में पति का दर्जा पुरुष को ही दिया गया है। स्त्री ही पत्नी होती है। पत्नी माने वह जो किसी के स्वामित्व में है। मात्र शाब्दिक अर्थ की भी बात नहीं है। संदर्भ और प्रयोग भी देखा जाना चाहिए। लगभग हर प्राचीन ग्रंथ में यही मालिकत्व का सांस्कृतिक भाव प्रकट होता है। महाभारत में युधिष्ठिर पति होने के नाते पत्नी को अपनी संपत्ति मान दांव पर लगाते हैं। यह प्रसिद्ध श्लोक क्या दर्शाता है?-
‘कार्येषु दासी:, करणेषु मंत्री,
भोजेषु माता, शयनेशु रंबा
रूपेषु लक्ष्मी, क्षमायेषु धरित्री
षट धर्म युक्त:, कुल धर्म पत्नी:’
आदर्श पत्नी का चित्रण हर प्रकार से अपने मालिक या स्वामी को प्रसन्न करने वाली स्त्री का होता है। उसका संपूर्ण जीवन अधीनस्थ है।
पत्नी की भूमिका अपने उत्कृष्ट स्तर पर किसी कनिष्ठ सहायक-सी होती है। निकृष्टतम प्रस्तुति किसी दासी के बतौर होती है। लक्ष्मी देवी सदैव चरण दबाती दिखाई गई हैं। सच में लक्ष्मी जी ने चरण दबाए या नहीं, पता नहीं। इसलिए देवताओं की साकार, सचरित्र, सगुण प्रस्तुति तो मानवीय कल्पना मात्र है। हमारे अपने घरों में भी क्या देखा जाता है? पत्नी माने कनिष्ठ सहायक अथवा दोयम दर्जे की व्यक्ति।
आधुनिक दौर में यह थोड़ा बदला है। मगर बदलाव अपूर्ण, अपरिपक्व और अधूरा है। घरेलू काम में हाथ बंटाते पति यह मानते हैं कि वह कुछ अतिरिक्त कर रहे हैं। पत्नी का सहयोग कर रहे हैं। जैसे कि घरेलू काम मात्र पत्नी का हो। आजाद ख्याल घरों में भी स्त्री को लगता है कि पति से इजाजत लेनी चाहिए। पति सूचित करते हैं, पत्नी इजाजत लेती है। जहां इजाजत मिल जाती है, वहां स्त्री खुद को खुशनसीब मानती है। यानी आजादी पति के पास गिरवी रहती है और वह अपने विवेकानुसार प्रदान करते हैं।
इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही माना है कि पति-पत्नी क्रमश: पुरुष-स्त्री होंगे। पितृसत्ता को समलैंगिक विवाह में क्या यह कष्ट है कि यदि दोनों पुरुष या स्त्री हुए तो किसे, किसका मालिक माना जाए? समलैंगिक विवाह के अलावा भी पति के पुरुष होने ने सिर्फ स्त्री को ही कैद नहीं किया है। पुरुष भी कैद में है। यदि उसे मालिकत्व चाहिए, तो उसी को आजीविका का जिम्मा लेना होगा। उसका पौरुषेय ही उसका एकमात्र गुण माना जाएगा। यदि उसके पौरुष में किसी तरह की भी कमतरता होगी, तो वह हंसी का पात्र होगा। उसका मर्द होना बेहद जरूरी है। चाहे उसमें उसकी मर्जी न हो।
पत्नी कॅरियरवादी हो और वह नहीं, तो इसे उसके पुरुषत्व या पतित्व पर धब्बा माना जाएगा। किसी प्रकार की भी शारीरिक चुनौतीग्रस्त पुरुष, कुंठित दांपत्य का निर्वहन करने के लिए मजबूर है। आखिर यह किसने तय किया कि पुरुष ही स्वामी होगा? स्त्री का स्वामित्व पहले पिता, भाई या पति और फिर पुत्र का होता है। प्रिया तेंदुलकर की एक प्रसिद्ध कहानी में दादी अपने पोते की उंगली पकडक़र मंदिर की सीढ़ी चढ़ती है, पोती की नहीं।
केन्द्र की मौजूदा व्यवस्था की सोच किसी से छुपी नहीं है। वह प्रेम विवाह का नियमन करना ही चाहती है ताकि तथाकथित तौर पर एक मजहब विशेष की स्त्रियों पर किसी अन्य मजहब का कब्जा न हो जाए। माने उनके जरिये उनकी कोख पर नियंत्रण बना रहे। लव जिहाद की सोच वही दर्शाती है। दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ दल के मंत्री 370 हटते ही कश्मीरी महिला से विवाह की आजादी का भौंड़ा एलान करते हैं। माने स्त्री पर नियंत्रण का हक मिलेगा।
महिला खिलाडिय़ों का संघर्ष जारी है। अब तक केन्द्र ने चुप्पी तोड़ी नहीं है। बलात्कारी संस्कारी कहकर नवाजे जाते हैं। बुली सुली डील साईट बेधडक़ चल रही है। तब सवाल समलैंगिक विवाह पर आपत्ति भर का नहीं है। विवाह को समसंबंध मानने का है। पति- पत्नी जैसी अवधारणा को खारिज कर जीवनसाथी मानने का है। यह कहते ही समलैंगिक विवाह अपने आप कई पेचिदगियों से बचेंगे।
समाज को यह जानना जरूरी है कि लैंगिक पहचान सामाजिक है और यौन व्यवहार नैसर्गिक जैविक मनोवैज्ञानिक है। यह कोई अनाचार नहीं है। यौन व्यवहार का विकल्प हर व्यक्ति को मिलना ही चाहिए ताकि सामाजिक दोगलापन समाप्त हो सके। यह मात्र दो लोगों का निजी मामला नहीं है। निजत्व अपने आप में राजनीतिक है। राजनीति माने सत्ता व्यवस्था को चुनौती।
सदियों की पति के स्वामित्व के सत्ता प्राधन्य को चुनौती मिल रही है। यह समाज के सत्तारूढ़ों के लिए आसान नहीं है। मगर हर चुनौती एक नए सत्ता संबंध, संदर्भ को आकार देती है। कम-से-कम आम प्रचलन में पतित्व का स्थान जीवन साथी ले सकें, तो वह भी प्रगतिगामी कदम ही होगा। (navjivanindia.com)
- कीर्ति दुबे
हर साल यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे आते हैं और इसके साथ ही सामने आते है संघर्ष, लगन और प्रतिभा के नए किस्से।
नतीजे सामने आते ही सैकड़ों लोगों की जि़ंदगी एक पल में बदल जाती है। हर साल इस परीक्षा को टॉप करने वाले लोग और उनकी कहानियां सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए प्रेरणा बन जाती हैं।
सिविल सेवा साल 2022 की टॉपर हैं इशिता किशोर। तो हम आपको बता रहे हैं इशिता के बारे में कुछ दिलचस्प बातें।
27 साल की इशिता किशोर का ये सिविल सेवा परीक्षा का तीसरा प्रयास था। इससे पहले दोनों ही प्रयासों में वो प्रिलिम्स परीक्षा भी क्वालिफ़ाई नहीं कर सकी थीं और तीसरी बार में उन्होंने टॉप किया।
इशिता ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स से अर्थशास्त्र में बीए ऑनर्स किया है। लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में उनका विषय राजनीति शास्त्र और अंतरराष्ट्रीय संबंध था। ये विषय उन्होंने क्यों चुना इस पर वो बीबीसी से कहती हैं, ‘राजनीति शास्त्र ग्रैजुएशन में मेरा एक विषय था तो मुझे इस विषय के बारे में थोड़ा आइडिया तो पहले से था। मुझे लगा कि राजनीति शास्त्र एक ऐसा विषय है जिसमें मैं ख़ुद को बेहतर तरीके से एक्सप्रेस कर सकती हूं और अंतरराष्ट्रीय संबंध समकालीन विषय है, मुझे लगा कि ये विषय मेरे लिए अर्थशास्त्र से बेहतर होगा। मैंने बहुत सोच समझकर अपने मज़बूत पक्ष का इस्तेमाल करने का फ़ैसला लिया।’
इशिता ने ग्रैजुएशन के बाद दो साल तक अर्न्स्ट एंड यंग कंपनी में बतौर रिस्क एनालिस्ट काम किया। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ कर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का फ़ैसला किया। ये फ़ैसला लेने के पीछे की वजह बताते हुए इशिता बीबीसी से कहती हैं, ‘मुझे हमेशा से पता था कि मुझे नौकरी करनी है, लेकिन किस टाइप की नौकरी करनी है मुझे ये तय करना था। मेरे पास बहुत सारे विकल्प थे- एमबीए करूं, मास्टर्स करूं या सिविल सेवा में जाऊं। फिर मैंने सिविल सेवा के बारे में सोचा क्योंकि यहां आपको देश के लिए कुछ करने का मौका मिलता है। मैं एयरफ़ोर्स बैकग्राउंड वाले परिवार से आती हूं तो मेरे भीतर हमेशा ही ये भाव रहा है कि मुझे देश के लिए कुछ करना है और उसके लिए सिविल सेवा ही सही प्लेटफ़ॉर्म है। ये फ़ैसला मैंने अचानक नहीं लिया बल्कि सोच समझ कर तय किया।’
एक सवाल जो हर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले से पूछा जाता है वो ये कि वो कितने घंटे पढ़ाई करते हैं। इशिता बताती हैं कि वह सप्ताह भर में 42 से 45 घंटे तक पढ़ाई करती थीं। जिसका मतलब है कि वो आठ से नौ घंटे हर रोज़ पढ़ाई करती थीं।
आमतौर पर धारणा होती है कि यूपीएससी परीक्षा की तैयारी करने वाले लोग सोशल मीडिया से दूरी बना कर रखते हैं। लेकिन इशिता इसकी ज़रूरत पर बात करती हैं। इशिता सोशल मीडिया अकाउंट चलाती हैं और तैयारी के दौरान भी चलाती रहीं। वह कहती हैं, ‘मैं इसका इस्तेमाल अपने दोस्तों के साथ संपर्क में रहने के लिए करती हूं। मैं इस सफऱ में अलग-थलग नहीं पडऩा चाहती थी और आज मेरे सारे दोस्त मेरेे साथ हैं और मेरे लिए ख़ुश हैं। जि़ंदगी में बैलेंस होना बहुत ज़रूरी है।’
इशिता स्पोर्ट्स की शौक़ीन हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर फ़ुटबॉल खेला है। उन्होंने फ़ुटबॉल टूर्नामेंट सुब्रतो कप साल 2012 में खेला था और अपनी टीम की कप्तान थीं। वह बताती हैं, ‘मैंने कई सारे स्पोर्ट्स खेले हैं और आज भी खेलती हूं।’
इशिता ने अपनी मां और नानी से बिहार की मशहूर मधुबनी पेंटिंग सीखी है और वह मधुबनी पेंटिंग बनाती हैं।
सिविल सेवा के इंटरव्यू में मुश्किल और जटिल सवाल पूछे जाते हैं। परीक्षा में टॉपर की रैंकिंग मेन्स परीक्षा के अंक और इंटरव्यू के अंक के आधार पर तय की जाती ैं। इशिता बताती हैं कि उनसे इंटरव्यू में चीन के साथ संबंधों को लेकर सवाल पूछे गए थे। उनसे पूछा गया कि- अरुणाचल प्रदेश में हो रहे विवाद से कैसे निपटा जाए, उनकी राय में बेहतर निष्कर्ष क्या हो सकते हैं। लेकिन इशिता बताती हैं कि ‘एक सवाल जो मुझे बहुत रोचक लगा और वो ये कि मैं खेल की समझ का ऐडमिनिस्ट्रेशन में कैसे इस्तेमाल कर सकती हूं? ये बिलकुल नया नज़रिया देने वाला सवाल था।’
जिन छात्रों ने सालों की मेहनत करके सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की है, उनके लिए मंगलवार का दिन ख़ुशियां लेकर आया। लेकिन कई छात्र जो इंटरव्यू तक पहुंच कर अपना सपना नहीं जी सके उनके लिए इशिता का संदेश है- ‘मैं आपकी जगह पर रह चुकी हूं, दो बार मेरा भी प्रिलिम्स नहीं निकला था, बहुत निराशा हुई। लेकिन अपनी कमियों को समझ कर ही अगली बार कोशिश करें। अगर ये लगता है कि कुछ नया करना चाहिए तो वो भी ट्राई करें’।
धर्म और सामंतवाद- दोनों ही आज के संसार में अतीत हैं। किसी भी देश की सुई यदि अतीत में ही अटकी रहेगी, तो उस देश को आए दिन अस्तित्व के संकट का सामना करना ही पड़ेगा। जनता तो हर देश में तरक्की चाहती है। आज के पाकिस्तान की समस्या की जड़ यही है।
जफर आगा
जब किसी देश का आधार ही गलत हो, तो वह देश घड़ी-घड़ी संकट से जूझता रहता है। जाहिर है, उसका खामियाजा उस देश की जनता को ही भुगतना पड़ता है। पाकिस्तान भी ऐसा ही देश है जो बार-बार संकट में घिर जाता है और जनता को उस संकट की कीमत चुकानी पड़ती है। यही कारण है कि पाकिस्तान एक बार फिर गहरे संकट में फंस चुका है और इससे निपटारे के लिए जनता सडक़ों पर है।
पिछले कुछ महीनों से पाकिस्तान ऐसे गहरे आर्थिक संकट में डूबा हुआ है कि देशवासियों को रोटी-दाल के लाले हैं। बड़ी मिन्नत-समाजत के बाद आईएमएफ ने कुछ कर्ज दिया, तो थोड़ा-बहुत काम चलना आरंभ हुआ। अभी आर्थिक संकट निपटा भी नहीं था कि देश ऐसे राजनीतिक संकट में डूब गया जिसका हल अभी तो किसी की समझ में नहीं आ रहा है।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को पहले जेल हुई, फिर सुप्रीम कोर्ट ने उनको जमानत पर रिहा किया। इस बीच इमरान की गिरफ्तारी से जनता भडक़ उठी और सडक़ों पर आग लग गई। हद तो उस समय हुई जब जनता ने रावलपिंडी स्थित आर्मी हेडक्वार्टर पर हमला बोल दिया। लाहौर में फौजी कोर कमांडर के घर पर कब्जा कर लिया।
फौज के खिलाफ कोई भी कदम पाकिस्तान में सबसे बड़ा पाप समझा जाता है। फिर भी ऐसा हुआ। उधर, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस उमर अता बंदियाल ने हुक्म दिया कि इमरान को फौरन अदालत में पेश करो, और फिर पूरी पाकिस्तानी व्यवस्था की मर्जी के खिलाफ इमरान को जमानत पर रिहा कर दिया गया।
पाकिस्तान एक सामंती समाज है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से फौज एवं इमरान विरोधी तमाम राजनीतिक दलों की नाक कट गई। जाहिर है कि अब सुप्रीम कोर्ट एवं शहबाज शरीफ सरकार में ठन गई है। देश की संसद सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को हटाने के लिए प्रस्ताव पास कर चुकी है। उधर, इमरान के सहयोगी और विरोधी दल एक दूसरे के खिलाफ सडक़ों पर हैं।
कुल मिलाकर यह कि देश का पूरा सामंजस्य टूट चुका है। फौज, न्यायपालिका और राजनीतिक व्यवस्था के बीच जंग छिड़ चुकी है। संकट इतना गहरा हो चुका है कि राजनीतिक जानकार इसको पाकिस्तान के लिए एक तरह के अस्तित्व का संकट बता रहे हैं। पाकिस्तान बचे या फिर सन् 1971 के समान एक बार फिर टूटे, यह तो समय ही तय करेगा लेकिन समस्या कुछ वैसा ही रूप ले रही है जैसी सन् 1970 के दशक में उस समय के पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच बन गई थी।
उस समय पंजाबी और बंगाली समुदायों के बीच लड़ाई थी। पंजाबियों ने पूर्वी पाकिस्तान के मुजीबुर रहमान के साथ कुछ वैसा ही सुलूक किया था जैसा कि इस समय फौज इमरान के खिलाफ कर रही है। सन 1970-71 में फौज ने बंगालियों का संहार किया था और अंतत: पूर्वी पाकिस्तान ने बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का स्वरूप लेकर पंजाबी फौजी व्यवस्था से दामन छुड़ा लिया था।
अभी इमरान और फौज तथा पंजाबी राजनीतिक व्यवस्था के बीच चल रहा संकट उतना गहरा नहीं है जैसा कि बंगाली-पंजाबी के बीच ठनी स्थिति थी। लेकिन धीरे-धीरे पाकिस्तान की समस्या इस समय पंजाबी एवं कुछ और सामाजिक ग्रुप तथा पख्तून पठानों के बीच चल रही रस्साकशी भी कुछ वैसी ही दिशा ले रही है। अब पाकिस्तान सन 1970 के दशक के समान एक बार फिर टूटता है अथवा रगड़-रगड़ कर किसी प्रकार चलता रहता है, यह तो समय और अंतरराष्ट्रीय स्थितियां ही बताएंगी। लेकिन यह तय है कि पाकिस्तान एक बार फिर टूटने की कगार पर है और इस समस्या का हल कहीं नजर नहीं आ रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर पाकिस्तान आए दिन ऐसे गहरे संकट में क्यों फंस जाता है। मेरी अपनी राय में तमाम पाकिस्तानी समस्याओं का कारण स्वयं उसके आधार में निहित हैं। सन 1940-50 के दशक में जब अधिकांश एशियाई देश अपनी स्वतंत्रता के पश्चात धर्म की राजनीति से छुटकारा हासिल कर आधुनिकता पर आधारित राष्ट्र निर्माण कर रहे थे, उस समय पाकिस्तान ने अपना आधार धर्म एवं भारत विरोध चुना। अर्थात पाकिस्तान अपने निर्माण के समय भविष्य नहीं बल्कि अपने अतीत की ओर देख रहा था। इसका मुख्य कारण था कि मुख्यत: पाकिस्तान का निर्माण भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम जमींदारों का हित बचाने के लिए हुआ था।
भारतीय आजादी के संघर्ष के समय इस देश की मुस्लिम व्यवस्था को दो डर उत्पन्न हुए थे। पहला यह कि क्या आजादी के बाद भारत एक हिन्दू बहुसंख्यावादी देश बन जाएगा। दूसरा भय यह था कि कांग्रेस पार्टी जिस जमींदारी व्यवस्था को आजादी के बाद समाप्त करने की बात कर रही है, उससे मुस्लिम समाज की आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो सकती है। इन्हीं भय के कारण मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की मांग की और वह बंटवारा कराने में सफल रहे। अत: जब सन 1947 में पाकिस्तान का निर्माण हो गया, तो वहां और भारत से गए मुस्लिम सामंतों और पंजाब एवं अन्य प्रदेशों के सामंतों ने मिलकर पाकिस्तान में एक ऐसी सामंती व्यवस्था को जन्म दिया जो अभी तक चल रही है। पाकिस्तानी फौज उसी पंजाबी-सामंती व्यवस्था की निगहबानी करती है।
धर्म और सामंतवाद- दोनों ही आज के संसार में अतीत हैं। किसी भी देश की सुई यदि अतीत में ही अटकी रहेगी, तो उस देश को आए दिन अस्तित्व के संकट का सामना करना ही पड़ेगा। जनता तो हर देश में तरक्की चाहती है। उसके लिए आज के संसार में लोकतंत्र प्रणाली आवश्यक है। पाकिस्तान में जब कभी संकट गहरा होता है, तो फौज दो कदम पीछे हटकर लोकतंत्र का चोला पहन लेती है।
फिर जब लोकतंत्र अपना रंग दिखाता है, तो पाकिस्तानी पंजाबी सामंती व्यवस्था को अपने अस्तित्व का खतरा नजर आने लगता है। बस, फिर फौज का आतंक टूट पड़ता है और लोकतंत्र का खोखला ढांचा तितर-बितर हो जाता है।
सन् 1970 के दशक में मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में बंगालियों ने लोकतंत्र के माध्यम से एक आधुनिक प्रणाली की बात उठाई, तो फौज ने बंगालियों का ऐसा दमन किया कि वे पाकिस्तान का दामन छुड़ाकर बांग्लादेश के रूप में अलग हो गए। फिर, सन 1970 के दशक के अंत में जब जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में सामंतवाद तोडऩे की बात आई, तो फौज ने भुट्टो को फांसी पर चढ़ाकर फिर पंजाबी सामंतवादी व्यवस्था को जिया उल हक के नेतृत्व में जिहादी धर्म का कवच चढ़ा दिया।
देश सिसक-सिसक कर जिहादी अफीम पर चलता रहा। लेकिन विदेशी कर्जों पर चलने वाली आर्थिक व्यवस्था अंतत: चरमरा गई। इधर, इमरान खान ने फौज से लड़ाई के बाद फौज के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। जाहिर है कि यदि सही लोकतंत्र पनपा तो फौज और सामंती पंजाबी व्यवस्था को खतरा बढ़ जाएगा। इसलिए इस समय पाकिस्तानी संकट पंजाबी एवं अन्य सामंती ग्रुप एवं पख्तून पठानों के बीच एक संघर्ष का रूप ले रहा है। यह कुछ वैसी ही स्थिति है जैसी कि बंगालियों एवं पंजाबियों के बीच छिड़े संघर्ष की थी। इस संकट से घिरा पाकिस्तान फिर टूटता है अथवा रो-रोकर चलता रहेगा, यह तो अब अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां ही तय करेंगी। लेकिन यह तय है कि पाकिस्तान फिर अस्तित्व के संकट में फंस चुका है। (navjivanindia.com)
दिल्ली विधानसभा, मंत्रिपरिषद, उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार को लेकर गैरजरूरी, पेचीदा, लोकतंत्र विरोधी और सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी करता मामला आया है। दिल्ली विधानसभा को बाकी राज्यों की विधानसभाओं के मुकाबले बहुत कम अधिकार हैं। किसी तरह मामला चलता रहा। लेकिन दिल्ली में आम आदमी की बार-बार सरकार आने से पार्टी और इसके नेता अरविन्द केजरीवाल को अपनी कमतर स्थिति नागवार गुजरती लगी। उपराज्यपाल दिल्ली सरकार पर लगातार नकेल डालते रहे। चिढक़र आम आदमी पार्टी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख करते संविधान के अनुच्छेद 239 क-क की व्याख्या करने का अनुरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार के खिलाफ फैसला किया। इसके बावजूद मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग कहते केन्द्र सरकार और उपराज्यपाल ने दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दिया। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया। ताजा फैसले में कोर्ट ने लगभग पुराना फैसला (2018) दोहराते हुए उपराज्यपाल और सरकार की खिंचाई करते कहा जितने भी अधिकार विधानसभा को दिए गए हैं। उनका उपयोग दिल्ली सरकार करेगी। उसमें रोड़ा अटकाने की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में गर्मी की छुट्टी होने पर आनन- फानन में केन्द्र सरकार ने संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची के प्रविष्टि क्रमांक 41 को बदलकर वृहत्त दिल्ली परिक्षेत्र में सेवारत षासकीय सेवकों को केन्द्र सरकार के पाले में कर लिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी कर दी। मजबूर होकर आम आदमी सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ेगा। वहां बहुत समय लगने की संभावना है क्योंकि ऐसा ही संविधान का ढांचा है। सुप्रीम कोर्ट को शक्ति है लेकिन कई प्रावधान उसकी प्रविधि के बाहर संसद द्वारा कर दिए जा सकते हैं। मोदी सरकार ने पूरी ढिठाई के साथ संविधान का कचूमर निकालते, लोकतंत्र में फेडरल व्यवस्था का मजाक उड़ाते, सुप्रीम कोर्ट की हेठी करते अपना पुराना ढर्रा कायम रखा। वह लोकतंत्र विरोधी और कॉरपोरेटी सामंतवाद का घिनौना उदाहरण है।
दिल्ली विधानसभा में 70 विधायक चुने जाते हैं। दस प्रतिशत मंत्री बन सकते हैं। बाकी राज्यों में पंद्रह प्रतिशत बन सकते हैं। दिल्ली के चुनाव कराने संसद को अनुच्छेद 324 से 327 तथा 329 के तहत अधिकार हैं। अनुच्छेद 328 के अधिकार दिल्ली विधानसभा को नहीं कि राज्य के विधान-मंडल के चुनाव के लिए कानून बना सके। डॉ. अंबेडकर ने साफ किया था कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना जरूरी होगा, सिवाय उन बातों के जहां संवैधानिक स्वायत्तता हो। अनुच्छेद 239 क क (4) में दिल्ली के पर कतर दिए गए। राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप करते केन्द्र अमूमन कानून नहीं बना सकता लेकिन दिल्ली के लिए कई विषयों पर बना सकता है। ऐसा अनुच्छेद 239 क क (7) (क) में भी है। जितने अधिकार पिछली कांग्रेसी और भाजपाई दिल्ली सरकारों के पास थे। एक के बाद एक आम आदमी पार्टी सरकार से केन्द्र द्वारा छीन लिए गए।
संवैधानिक मजबूरियों के पेंच के कारण दिल्ली को पूर्ण राज्य मिलना ऐसा ही उलझाव है। संविधान गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की तर्जेबयां पर नहीं होता तो लोकतंत्र कई मौलिक सवाल खड़ा कर पाता। अरविंद केजरीवाल परेशानी फितूर के भी हुनरमंद सियासी खिलाड़ी हैं। आम आदमी पार्टी संविधान की मूल इबारत के राजपथ के बनिस्बत पगडंडियों से भी चलकर मुकाम तक जाना चाहती है। केन्द्र के राजपथ पर तो सत्ता की ठसक-गाडिय़ों के कारण जाम लगा है।
दिल्ली असेम्बली का ऊहापोह संविधान के गर्भगृह में जन्मा। वहां पहले से कार्यरत मशरूमी नगरपालिकाओं और नगर निगम अधिकारों में बढ़ोतरी का इरादा हुआ।
महसूस हुआ कि दिल्ली के नागरिक केवल अंकगणित की इकाइयां नहीं हैं। संविधान सभा में ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा था केन्द्र सरकार के बड़प्पन और अभिजात्य के लिए उचित नहीं कि दिल्ली समेत संघ राज्य क्षेत्रों का शासन चलाए। आर. के. सिध्वा ने तीखा सवाल किया कि आजादी के पहले कलकत्ता में भारत की राजधानी और लेफ्टिनेंट गवर्नर की अलग अलग सरकारें क्या नहीं थीं? देश का संविधान बना रहे लेकिन दिल्ली के रहवासियों को नागरिक अधिकारों से वंचित कर रहे। इतिहास याद रखेगा दो मुखर कम्युनिस्ट सदस्यों इंद्रजीत गुप्त और दशरथ देव ने दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य और समस्त अधिकार सम्पन्न विधानसभा की धारदार पैरवी की। कहा चुने गए प्रतिनिधियों और नौकरषाहों के बीच राज्य संचालन की प्राथमिकताओं की तुलना होगी तो विधायिका को संविधान तरजीह देगा।
केजरीवाल भारतीय लोकतंत्र में दिल्ली जैसे राज्य की संभावनाओं को संविधानेतर ढंग से भी बुनना नहीं चाहते। केवल तीन बिन्दुओं पुलिस, विधि तथा व्यवस्था और राजस्व के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार नहीं होने पर भी केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथों विधानसभा, मंत्रिपरिषद और दिल्ली के नागरिकों की अश्वगति की ख्वाहिशों पर सईस की नकेल रही है। राजस्व उगाही के अरबों रुपयों का इस्तेमाल विरोधी पार्टी भाजपा के नुमाइंदे पुलिस, राजस्व उगाही और कानून तथा व्यवस्था के नाम पर अधिकारियों को भडक़ा फुसलाकर राज्य सरकार के खिलाफ काम ही नहीं करने दे रही थी। तो क्या संविधान टुकुर-टुकुर देखता रहता? नौकरशाह उपराज्यपाल को गफलत रही है कि विधानसभा कोई कानून बनाए। वे दखल दे सकते हैं। उन्होंने समझा होगा कि वे फाउल की सीटी बजा देंगे और गेंद को अंपायर राष्ट्रपति के मैदान में ठेल देंगे। इस तरह 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल सरकार का मुर्गमुसल्लम बनाया जा सकेगा।
उपराज्यपाल चूक गए क्योंकि तब सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पकड़ा था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संविधान की समझ के लिए लोकतंत्रीय भावना, सामूहिक नागरिक प्रतिनिधित्व, संवैधानिक चरित्र और सत्ता का विकेन्द्रीकरण को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उपराज्यपाल को अधिकार मिल जाएंगे तो लोकतंत्र की मर्यादा ही नहीं रहेगी। दिल्ली पर संसद की विधायी मर्यादाओं का दबाव भी है।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली विधानसभा, राज्य सरकार और उप राज्यपाल के संवैधानिक रिश्तों को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी पहले 2018 में भी कर दिया था। केजरीवाल सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों की ठीक मीमांसा की है। उपराज्यपाल केन्द्र की कठपुतली हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारें केन्द्र में एक पार्टी की सरकार होने पर भी मिली जुली कुश्ती करती रहीं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं हैं।
अपने पुराने वाले पृथक फैसले में भी समृद्ध पैतृक परंपरा तथा कुशाग्र बुद्धि के जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया था। उन्होंने साफ किया कि आखिरकार जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका एक तर्क यह भी था कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं। जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक महत्वपूर्ण वाक्य यह भी लिखा था कि राज्य मंत्रिपरिषद की शक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिक शक्ति एक दूसरे में अंतर्निहित हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ऐसे में विधानसभा और मंत्रिपरिषद की उपादेयता, अस्तित्व और लोकतांत्रिक भूमिका का क्या होगा? फिर भी अल्लाह जाने क्या होगा आगे! राज्यसभा में सरकार का अध्यादेश गिरा देने की केजरीवाल की कोशिश अगर रंग लाएगी तो लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है।
सुजाता आनंदन
यह उसी साल की बात है। और, मेरे ब्यूरो चीफ को तो शायद 10 या 11 मई 1991 को ही राजीव गांधी को लेकर कुछ आशंका सी हो गई थी। राजीव गांधी अगले दिन मुंबई आने वाले थे और पूरी रात प्रचार करने वाले थे। यह तब की बात है जब टी एन शेषन ने नेताओं पर लगाम नहीं कसी थी। मैं उन दिनों एक न्यूज एजेंसी के लिए काम करती थी और मेरे ब्यूरो चीफ ने साफ कह दिया था, ‘जब तक राजीव गांधी यहां हैं, तुम्हारी नजरें नहीं हटनी चाहिए उन पर से।’
मैंने पूछा, पूरी रात भर....
हां...ब्यूरो चीफ का जवाब था। ‘वी पी सिंह ने उनकी सुरक्षा कम कर दी है। अगर उनका बाल भी बांका हुआ या किसी अजनबी ने उन्हें हलका सा धक्का भी दिया, तो यह खबर सबसे पहले हमारे पास होनी चाहिए और हमारे जरिए ही दुनिया को मिलनी चाहिए...जब तक राजीव यहां हैं, तुम इस असाइनमेंट से नहीं हटोगी...’
उस वक्त शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। मैंने उनके दफ्तर में फोन करके पूछा कि क्या मैं उनके काफिले के साथ आ सकती हूं, इससे मुझे राजीव की प्रचार यात्रा को नजदीक से देखने का मौका मिल जाएगा। और जब मैंने बताया कि ऐसा क्यों चाहती हूं तो शरद पवार झल्ला उठे थे। उन्होंने गुस्से से कहा, ‘तुम्हें क्या लगता है, मैं उन्हें अपनी जमीन पर कुछ होने दूंगा। मैंने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए हैं...और उन्हें मुंबई या महाराष्ट्र के किसी भी हिस्से में खरोंच तक नहीं आ सकती।’
लेकिन, यह बात अलग है कि राजीव गांधी को काफी खरोंचे आईं...यहां तक की उनके कुर्ते की आस्तीन तक फट गई थी। राजीव गांधी मुलुंड से लेकर नागपाड़ा तक जिस तरह लोगों से मिल रहे थे, लोग उन्हें गले लगा रहे थे, अपने बच्चों को उनकी गोद में दे रहे थे...महाराष्ट्र पुलिस की हालत खराब थी क्योंकि राजीव ने साफ कह दिया था कि उनके पास कोई आना चाहता है तो आने दिया जाए।
मैं करीब 13 घंटे तक राजीव गांधी के आसपास ही रही, और यह 13 घंटे मेरी जिंदगी से आज भी बेहद नजदीकी से जुड़े हुए हैं। आधी रात होते-होते ज्यादातर रिपोर्टर घर चले गए थे, मैं और एक और एजेंसी रिपोर्टर ही वहां रह गए थे। रात 11 बजे के आसपास मैं नजदीक के एक रेस्त्रां में गई और अपनी पहली कॉपी फाइल की। इस दौरान मुझे लगातार लगता रहा कि मेरी नजरें राजीव गांधी पर नहीं है। इसलिए बाकी रिपोर्टर जहां कुछ खाने में मशगूल थे मैं वापस उस काफिले की तरफ दौड़ी।
रात 2 बजे के आसपास कुर्ला में राजीव की सभा खत्म हुई। उस समय शरद पवार और उस वक्त के मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष मुरली देवड़ा भी राजीव के साथ थे। तभी राजीव गांधी की नजर मुझ पर पड़ी। वह जब स्टेज से उतर रहे थे तो मैं सडक़ किनारे अकेली खड़ी थी। उनके मुंह से अचानक निकला, ‘ओह माय गॉड...।’ मेरी तरफ बढ़ते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, ‘तुम अभी तक यहां क्या कर रही हो?’ मैंने सीधा जवाब दिया कि मैं एक न्यूज एजेंसी के साथ काम करती हूं और आपके प्रचार को आधे रास्ते में तो छोडक़र नहीं जा सकती... राजीव मुस्कुराए और पूछा, कुछ खाया या नहीं...?’ मैंने न में सिर हिलाया तो उन्होंने मुरली देवड़ा की तरफ मुड़ते हुए कहा, ‘तुम जो सैंडविच मेरे लिए लाए थे, इसे दे दो। ‘ और फिर वे बोले, अगले स्टॉप पर पूछूंगा मैं इस बारे में।’ इसके बाद वह कार में बैठ गए।
मुरली देवड़ा कुछ परेशान से हो उठे...कहने लगे, ‘रात के 2 बजे सैंडविच कहां से लाऊं...जो थे वह खत्म हो गए हैं...।’ मैंने कहा कोई बात नहीं...लेकिन तभी देवड़ा बोले...‘नारियल पानी पिएगी?’ उन्होंने मुझे नारियल दिया और मैंने उसकी मलाई खाकर अपनी भूख को कुछ हद तक शांत किया...तभी देवड़ा ने कहा, ‘राजीव से बोलना नहीं कि सैंडविच हीं दिए वह पूछेंगे जरूर।’
और हुआ भी ऐसा ही राजीव गांधी ने अगले स्टॉप पर मुझसे पूछा, ‘मुरली ने तुम्हें खाने को कुछ दिया?’ मैंने ईमानदारी से सिर हिला दिया।
इस रात के सिर्फ 10 दिन बाद ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई...मैं कांप उठी कि वह श्रीपेरुंबदुर में जिस तरह सुसाइड बॉम्बर से मिले, ठीक उसी तरह तो वह 10 दिन पहले मुंबई में सारे बैरियर तोडक़र लोगों से मिल रहे थे।
मैं कभी लुटियन दिल्ली की रिपोर्टर नहीं रही, लेकिन उन दिनों राजीव गांधी अकसर बॉम्बे आया करते थे...और मेरा परमामेंट असाइनमेंट उन्हें कवर करना था...कभी वह किसी आर्ट शो में आते, कभी नेवल बेस पर, कभी भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, अगस्त क्रांति मैदान, सब जगह मैं मौदूज रही।
मुझे याद है कि एक बार जहांगीर आर्ट गैलरी में वह किस तरह सोनिया गांधी का हाथ थामे किस तरह उन्हें डिवाइडर पार करवा रहे थे या फिर उनकी फोटो खींचते फोटोग्राफर के अचानक गिरने पर वह मदद के लिए आगे आए थे।
राजीव अपनी कार खुद चलाते, अपना विमान खुद उड़ाते थे...और जिस सुबह वह मुंबई से आखिरी बार रवाना हुए तो वे अपना विमान खुद उड़ाकर त्रिवेंदरम गए थे...ऐसा वह इसलिए भी करते थे, ताकि उनका पायलट लाइसेंस बना रहे।
जब तक मैं उनींदी आंखों के साथ दफ्तर पहुंचकर अपनी रिपोर्ट फाइल कर रही थी, तब तक राजीव गांधी के केरल पहुंचने की खबरें आने लगी थीं...राजीव पूरी रात नहीं सोए थे...और शरद पवार के साथ नाश्ता करने के बाद केरल के लिए रवाना हो गए थे।
जिस दिन राजीव गांधी की हत्या हुई, उस दिन पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि राजीव गांधी जैसा प्रधानमंत्री देश को नहीं मिलेगा और भारत भी पहले जैसा भारत नहीं रह जाएगा...मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा पूर्वाभास सच साबित होगा। (www.navjivanindia.com/)
प्रमिला कृष्णन
विग्नेश (बदला हुआ नाम) अभी सात साल के नहीं हैं, उन्हें बिहार के सीतामढ़ी जिले से चेन्नई लाया गया था।
सीतामढ़ी के छोटे से गांव रूपाली के विग्नेश ने चेन्नई आने से पहले ट्रेन नहीं देखी थी और ना ही रेलवे स्टेशन के बारे में सुना था। उन्हें ये भी नहीं मालूम था कि पहली ट्रेन यात्रा करके वे चेन्नई के एक वर्कशॉप में बंधुआ मजदूरी करने जा रहे हैं।
विग्नेश पिछले एक साल से सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक एक स्कूल बैग फैक्ट्री में किसी बंधुआ मज़दूर की तरह काम कर रहे थे। जब एक जांच में पता चला कि विग्नेश जैसे 29 लडक़े वहां काम कर रहे हैं, तब जाकर सरकारी अधिकारी उन्हें बचाने के लिए पहुंचे।
वहां विग्नेश सहित कई छोटे लडक़े ढेर सारे स्कूली बैग और रूई के बीच मानो फंसे हुए थे।
विग्नेश ने बताया, ‘मैं साँस नहीं ले सकता। सेठ ने कहा है कि कुछ मत बोलना। मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी मां के पास ले चलो। मुझे जल्दी से ले चलो।’
विग्नेश उस व्यक्ति का नाम भी नहीं जानते जिसने यहां काम पर रखा था। विग्नेश ने बताया, ‘एक दिन एक अंकल आए और उसे ट्रेन में ले आए और कुछ दिनों बाद ही उसे पता चला कि वह चेन्नई आ पहुंचा है।’
उसने बताया, ‘यहां आपको घंटों एक जगह बैठना पड़ता है और एक-एक जि़प सिलना पड़ता है। मेरे हाथ बुरी तरह से जख़्मी हो गए हैं।’ इसके बाद वो शांत होकर बैठ गया।
एक हफ्ते में 400 बैग बनाने का टारगेट
विग्नेश सहित सभी 29 बच्चों को अस्थायी रूप से चेन्नई के रायपुरम में सरकारी किशोर गृह में रखा गया है।
बीबीसी तमिल ने इन बाल श्रमिकों से मुलाकात की। आठ से 15 वर्ष के बीच के कई बच्चे कभी स्कूल नहीं गए।
बैग के लिए जि़प सिलने, बैग के लिए कपड़ा काटने और सिलने जैसे काम में लगे बच्चों की उंगलियों पर कैंची से कटने के निशान हैं। बच्चों के हाथ में छाले भी पड़े हुए थे।
विग्नेश जैसे लडक़े एक हफ्ते में करीब 400 बैग की सिलाई करते थे। विग्नेश जैसे कई बच्चे पैसा कमाने के लिए बिहार के सीतामढ़ी जिले के रूपाली गांव से चेन्नई आए हैं।
श्रम कल्याण विभाग के अधिकारियों के अनुसार, कई सौ बाल श्रमिक कोरोना लॉकडाउन के बाद छोटे समूहों में तमिलनाडु में प्रवेश कर चुके हैं। साथ ही उनका कहना है कि उनका सर्वे करना बहुत मुश्किल है।
13 वर्षीय सुभाष (बदला हुआ नाम) को इन मज़दूरों में शामिल हुए तीन महीने हो चुके हैं। जैसे ही दोनों बड़ी बहनों की शादी हुई, सुभाष और बड़े भाई दोनों चेन्नई में काम करने आ गए।
सुभाष ने बताया कि उन्हें पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए काम पर आए, लेकिन यहां आने के बाद ही एहसास हुआ कि वो फंस गए हैं।
वो बताते हैं, ‘हम हफ्ते में एक बार माता-पिता से बात करते हैं, लेकिन मैं इस तरह काम नहीं करना चाहता। आराम के बिना, मेरे दोस्तों के बिना और माँ के हाथ से बने खाने के बिना, मुझे काम करना पसंद नहीं है।’
सुभाष ने यह भी बताया कि घर जाने के बाद अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलेंगे और टीवी पर मोटू पतलू सीरियल देखेंगे।
उन्होंने कहा, ‘कई दिन हो गए चैन से सोए। हमारे पास छुट्टियां नहीं थी। हम एक ही कमरे में काम करते थे, वहीं एक तरह शौचालय था और दूसरी तरफ़ रसोई। जिस दिन हमें वहां से निकाल कर किशोर गृह में भर्ती कराया गया उस दिन हम शांति से सोए थे।’
कोरोना के बाद बाल श्रम बढ़ा
श्रम कल्याण विभाग के चेन्नई जोन की असिस्टेंट कमिश्नर जयालक्ष्मी ने उस वर्कशॉप की जांच की थी, जहां विग्नेश और सुभाष काम कर रहे थे।
उन्होंने बीबीसी तमिल को बताया, ‘मुझे नहीं पता कि एक जगह इतने सारे बच्चे कैसे काम कर रहे थे। वे बहुत खराब कामकाजी परिस्थितियों में रहे थे। ना तो रहने की जगह थी, और ना ही अच्छा खाना। उन्हें लगातार काम करना पड़ रहा था।’
पिछले एक साल में अकेले चेन्नई शहर में 113 बाल मजदूरों को रेस्क्यू किया गया है। बड़ी संख्या में बच्चे उत्तरी राज्यों से हैं।
अधिकारियों ने कहा कि अप्रैल में बचाए गए 29 बच्चों में से 28 बिहार राज्य के थे, जबकि एक नेपाल से। तमिलनाडु में पिछले साल बाल श्रम के 160 से अधिक मामले दर्ज किए गए थे। अधिकारियों ने बताया कि 40।46 लाख रुपये जुर्माना वसूला गया है।
जयालक्ष्मी ने बीबीसी तमिल को बताया, ‘हम कॉलेज के छात्रों को प्रशिक्षित कर रहे हैं और शहरों और गांवों में बाल श्रमिकों का पता लगा रहे हैं।’
‘बाल मजदूरों की पहचान करने में समस्या होती है क्योंकि वे उन्हें समूह में लाकर घर में रखते हैं। हमारे बचाव के समय, ये 29 बच्चे दूसरी मंजिल पर एक छोटे से कमरे में ठूंसे गए थे। कुछ बच्चे रुई के ढेर के बीच छिपे हुए थे।’
उनका यह भी कहना है कि राज्य सरकारें खुद यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि छुड़ाए गए बच्चों को उनके माता-पिता को सौंप दिया जाए और वे फिर से बाल मज़दूर न बनें।
उन्होंने कहा, ‘29 बच्चों को रोजग़ार देने वाले दो लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। जब हम बच्चों को छुड़ाने गए तो उन्होंने हमें धमकी दी थी।’
देश में 81 लाख बाल मजदूर
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 तक दुनिया भर में बाल श्रमिकों की संख्या बढक़र 16 करोड़ हो गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना काल के लॉकडाउन के चलते बाल मज़दूरों की संख्या बढ़ी है।
भारत में बाल श्रम को लेकर काम कर रहे कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रन ऑर्गेनाइजेशन द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, भारत में आने वाले सालों में बाल मजदूरों की संख्या में कमी होगी।
बाल मजदूरों की संख्या 2021 में 81.2 लाख थी, इसके 2025 में घटकर 74.3 लाख होने की संभावना है। लेकिन रिपोर्ट कहती है कि इस संख्या को केवल तभी कम किया जा सकता है जब लगातार प्रयास न केवल बच्चों को बचाने पर केंद्रित हों, बल्कि उन्हें स्कूल भेजने और उन्हें काम पर लौटने से रोकने पर भी ध्यान दिया जाए।
बच्चे जो बिहार से तमिलनाडु पहुंचे
बीबीसी तमिल से बात करते हुए एक बाल मज़दूर की मां 35 साल की रंजू देवी ने बताया कि रुपाली गांव में बच्चों को काम पर भेजना कोई नई बात नहीं है।
फोन पर बात करते हुए रंजूदेवी ने कहा, ‘हमारे गांव में गरीब परिवार वाले अपने पहले बच्चे को इस तरह बाहर के शहरों में भेज देते हैं। (बाकी पेज 8 पर)
मेरे पति को बुखार से मरे आठ साल हो चुके हैं। मुझे चार बच्चों का पेट भरना है। इसलिए, मैंने अपने पहले बेटे को चेन्नई भेजा। उन्होंने मुझे 30 हजार रुपये दिए, इसलिए मैंने भेजा था।’
अब जब उनके बेटे की बरामदगी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि दो हफ्ते पहले काम वाली जगह से फोन आया था कि अधिकारियों ने उनके बेटे को बरामद कर लिया है।
वह कहती हैं, ‘और क्या कर सकती हूं? परिवार में गरीबी है, खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। तो, मैंने इसे भेज दिया। मुझे डर है कि उन्हें लेने वाले एजेंट वापस आएंगे और पैसे वापस मांगेंगे।’
सरकारी चिल्ड्रेन होम शेल्टर
संसद में राष्ट्रीय बाल श्रम उन्मूलन कार्यक्रम पर 2021 में पेश की गई रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश सहित राज्यों में 2018 से 2021 तक एक भी बाल मजदूर को मज़दूरी के दुष्चक्र से नहीं निकाला गया।
इसी अवधि के दौरान तमिलनाडु में हर साल कम से कम 1,500 बच्चों को इस दलदल से बाहर निकाला गया। साल 2019-2020 के दौरान तमिलनाडु में 3,928 बाल मजदूरों को बचाया गया है।
हमने सीतामढ़ी के जि़लाधिकारी मनीष कुमार मीणा से संपर्क करने की कई बार कोशिश की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
दोनों राज्यों के लिए समस्या
अन्य राज्यों से बाल श्रम को रोकने के उपायों के बारे में बात करते हुए, बाल कल्याण कार्यकर्ता, देवनियन कहते हैं कि दो बिहार और तमिलनाडु के अधिकारी इसका समाधान ढूंढ सकते हैं।
उन्होंने बताया, ‘जब बड़ी संख्या में बच्चों को बचाया जाता है, तो संबंधित राज्य के अधिकारियों और तमिलनाडु के अधिकारियों को तुरंत बात करनी चाहिए और बचाए गए बच्चों को काम पर वापस जाने से रोकने के प्रयास करने चाहिए।’
‘बिहार राज्य के अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चे कम से कम तीन साल तक स्कूल में रहें। जहां तक तमिलनाडु का सवाल है, अगर उत्तर भारत के बच्चे ट्रेन और बस स्टेशनों पर समूहों में आते हैं, तो उनसे पूछताछ की जानी चाहिए कि वे किसके साथ हैं और क्यों यहां आए हैं।’
देवनियन कहते हैं, ‘कई बार, हम इस जांच में तुरंत बाल श्रम का पता लगा सकते हैं।’
उनका कहना है कि चूंकि प्रवासियों की संख्या दर्ज नहीं की जाती है, इसलिए बाल श्रमिकों के आगमन की निगरानी नहीं होती।
उन्होंने बताया, ‘अगर बच्चों को बचाया जाता है और वे काम पर वापस नहीं जाते हैं, तो इसका मतलब है कि हम सफल हुए हैं। कई बार, ऐसे बच्चों को फिर से दूसरे शहरों में काम करने के लिए भेजा जाता है।’
उन्होंने यह भी कहा कि बाल श्रम की समस्या को दोनों राज्यों के लिए एक समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए और यदि समस्या का समाधान खोजने की दृष्टि से देखा नहीं गया तो बच्चों को महज आंकड़ों के रूप में देखा जाएगा।
बाल श्रम की सूचना देने के लिए हेल्पलाइन नंबर: 1098
शिकायत दर्ज करने के लिए: आप www.ebaalnidan.nic.in पर पंजीकरण करा सकते हैं। (www.bbc.com/hindi)
अभिजीत श्रीवास्तव
आईपीएल में शुक्रवार को राजस्थान रॉयल्स और पंजाब किंग्स ने अपने आखिरी लीग मैच खेले। राजस्थान रॉयल्स ने पंजाब किंग्स को हराते हुए जहां प्लेऑफ में पहुंचने की अपनी थोड़ी सी संभावना बरकरार रखी है। वहीं अब सनराइज़र्स हैदराबाद और दिल्ली कैपिटल्स के साथ-साथ पंजाब किंग्स की टीमें प्लेऑफ की रेस से बाहर हैं।
हार्दिक पंड्या के नेतृत्व वाली गुजरात टाइटंस की टीम पहले ही आईपीएल के प्लेऑफ में पहुंच चुकी है लेकिन अन्य तीन टीमें कौन-सी होंगी इसका फैसला आज यानी शनिवार और रविवार को खेले जाने वाले अंतिम चार लीग मैचों से होगा।
शनिवार को चेन्नई सुपर किंग्स बनाम दिल्ली कैपिटल्स और लखनऊ सुपर जायंट्स बनाम कोलकाता नाइट राइडर्स के मुकाबले होंगे।
तो रविवार को मुंबई इंडियंस बनाम सनराइजर्स हैदराबाद और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर बनाम गुजरात टाइटंस का मुकाबला है।
प्लेऑफ के लिए अब तीन टीमें ही क्वालिफाई कर सकेंगी। जबकि अब भी सात टीमें गणित के समीकरणों के मुताबिक प्लेऑफ में अपनी जगह बना सकती हैं। तो चलिए आपको बताते हैं कि कौन-सी टीमों के प्लेऑफ़ में खेलने की कितनी संभावना है?
चेन्नई सुपर किंग्स के प्लेऑफ का समीकरण
शनिवार का पहला मुकाबला चेन्नई सुपर किंग्स का आखिरी लीग मैच है जो वो दिल्ली कैपिटल्स के खिलाफ खेल रही है।
धोनी की टीम के अभी 15 अंक हैं। इस मैच को जीतने की स्थिति में उनकी टीम प्लेऑफ के लिए क्वालिफाई कर जाएगी।
वैसे दिल्ली कैपिटल्स पहले ही प्लेऑफ़ की रेस से बाहर है, लेकिन उसने पिछले मैच में पंजाब किंग्स को हराकर उनके प्लेऑफ में पहुंचने की संभावना को धूमिल किया था।
चेन्नई सुपर किंग्स से वो इस सीजन में हार चुके हैं लेकिन अगर उन्होंने ये मुकाबला जीत लिया, तो धोनी की टीम के लिए प्लेऑफ में पहुंचने की संभावना अन्य टीमों पर टिक जाएगी।
चेन्नई सुपर किंग्स हारी और अगर लखनऊ सुपर जायंट्स, मुंबई इंडियंस और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर की टीमें अपना आखिरी लीग मैच जीत गईं, तो धोनी की टीम प्लेऑफ में नहीं दिखेगी।
वहीं चेन्नई सुपर किंग्स हारी और मुंबई इंडियंस या रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर में से कोई एक टीम भी हारी तो चेन्नई की टीम प्लेऑफ खेलेगी।
अगर चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स की टीमें हार गई लेकिन रविवार को मुंबई इंडियंस और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर की टीमें जीते गईं तो चौथी टीम कौन होगी?
ऐसी स्थिति में चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स में से कोई एक टीम प्लेऑफ में पहुंचेगी।
ये फैसला नेट रन रेट से होगा जो फिलहाल चेन्नई सुपर किंग्स का 0.381 और लखनऊ सुपर जायंट्स का 0.304 है।
वहीं अगर ये चारों टीमें अंतिम लीग मैच हार गईं तो चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स की टीमें प्लेऑफ में पहुंच जाएंगी।
लखनऊ सुपर जायंट्स की संभावना
ठीक चेन्नई सुपर किंग्स की तरह अगर ये भी अपना आखिरी लीग मैच जीते तो प्लेऑफ़ में पहुंचेंगे, हारे तो अन्य टीमों के नतीजे पर निर्भर हो जाएंगे।
शनिवार को कोलकाता नाइट राइडर्स से हारने की स्थिति में वे मुंबई इंडियंस और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर में से किसी एक टीम के हारने पर ही प्लेऑफ में सीधे जगह बनाएंगे।
अगर ये दोनों टीमें और चेन्नई सुपर किंग्स भी जीती, तो लखनऊ सुपर जायंट्स की टीम प्लेऑफ नहीं खेलेगी।
वहीं लखनऊ सुपर जायंट्स हारे लेकिन धोनी की टीम भी हार गई और अगर रोहित और विराट की टीमें जीत गईं तो नेट रन रेट ये चौथी टीम का फैसला होगा। जो चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स में से एक होगी।
मुंबई इंडियंस के लिए प्लेऑफ की राह आसान नहीं
लखनऊ सुपर जायंट्स के खिलाफ अपना पिछला मैच हारने से मुंबई इंडियंस के लिए आगे की राह मुश्किल हो गई है।
पॉइंट टेबल में मुंबई इंडियंस के भी 14 अंक हैं लेकिन नेट रन रेट -0।128 है। तो रविवार को मुंबई इंडियंस को न केवल सनराइजर्स हैदराबाद को हराना होगा बल्कि नेट रन रेट सुधारने के लिए बड़े अंतर से जीत हासिल करनी होगी।
अगर चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स में से कोई टीम मैच हारी और मुंबई इंडियंस जीत गई तो वो प्लेऑफ़ खेलेगी।
वहीं मुंबई इंडियंस जीती लेकिन ये दोनों टीमें भी जीत गईं तो रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के मैच का नतीजा उसके भाग्य का फैसला करेगा।
ऐसी स्थिति में अगर विराट की टीम भी जीत गई तो फैसला नेट रन रेट के आधार पर होगा। वहीं अगर रोहित और विराट की टीमें रविवार को हार जाती हैं तो फिर प्लेऑफ की रेस में अन्य टीमों के लिए भी संभावनाएं बन जाएगी, हालांकि ये तब भी इस बात पर निर्भर करेगा की रोहित, कोहली की टीमें कितने बड़े अंतर से हारती हैं।
वहीं अगर रोहित शर्मा की टीम अपना आखिरी लीग मैच हार जाती है तो उसके प्लेऑफ में पहुंचने की संभावना उस सूरत में खत्म हो जाएगी जब विराट की टीम अपना आखिरी लीग मैच जीत जाए। लेकिन विराट, डुप्लेसी की टीम भी अपना आखिरी लीग मैच हार जाए तो फिर कम से कम तीन टीमों के 14 अंक होंगे। अगर कोलकाता नाइट राइडर्स भी जीते तब इस रेस में चौथी टीम भी शामिल हो जाएगी।
ऐसी सूरत में प्लेऑफ की चौथी टीम कौन-सी होगी ये इस पर ये निर्भर करेगा कि कौन-सी टीम कितने बड़े अंतर से हारी और उससे उसका नेट रन रेट कितना और गिरा।
केजीएफ क्या पहुंचा पाएंगे रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर को?
जिस एक टीम के लिए प्लेऑफ की राह मुंबई इंडियंस, राजस्थान रॉयल्स और कोलकाता नाइट राइडर्स के मुकाबले थोड़ी आसान है वो विराट कोहली की रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर है।
हालांकि ये भी उस हालत में जब कोहली, ग्लेन और फाफ (यानी केजीएफ़) की ये टीम अपना अंतिम मुकाबला जीत जाए। वैसे ये आसान भी नहीं है क्योंकि ये मुकाबला टेबल टॉपर गुजरात टाइटंस से है।
हालांकि जीतने पर रॉयल चैलेंजर्स के नेट रन रेट में सुधार आएग जो फिलहाल 0.180 है।
वैसे तो आखिरी लीग मैच जीतने पर उसके 16 अंक हो जाएंगे लेकिन चेन्नई सुपर किंग्स, लखनऊ सुपर जायंट्स और मुंबई इंडियंस भी जीते तो फिर चौथी टीम का फैसला नेट रन रेट से ही होगा।
ऐसी स्थिति में चेन्नई सुपर किंग्स और लखनऊ सुपर जायंट्स के एक समान 17 अंक हो जाएंगे और वो नेट रन रेट के आधार पर दूसरे और तीसरे पायदान पर काबिज होंगे।
वहीं चौथे पायदान के लिए रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर और मुंबई इंडियंस के बीच नेट रन रेट के आधार पर फैसला होगा क्योंकि दोनों जीते तो दोनों के एक समान 16 अंक हो जाएंगे।
अगर रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर और मुबई इंडियंस भी आखिरी लीग मैच हारी तो फिर नेट रन रेट ही प्लेऑफ की चौथी टीम का फैसला करेगी। तब इसमें राजस्थान रॉयल्स और (आखिरी मैच बड़े अंतर से जीतने की स्थिति में) कोलकाता नाइट राइडर्स की टीमें भी शामिल हो सकती हैं।
कोलकाता नाइट राइडर्स और राजस्थान रॉयल्स को कितनी है उम्मीद?
कोलकाता नाइट राइडर्स और राजस्थान रॉयल्स की टीमों के प्लेऑफ में पहुंचने की संभावना पूरी तरह अन्य टीमों पर निर्भर है।
इस मामले में सबसे निचले पायदान पर कोलकाता नाइट राइडर्स की टीम है, जिसे शनिवार को लखनऊ सुपर जायंट्स के साथ अंतिम लीग मैच खेलना है।
हारने की स्थिति में वो प्लेऑफ की रेस से बाहर हो जाएगी लेकिन जीतने पर भी उसके लिए प्लेऑफ में पहुंचना आसान नहीं होगा क्योंकि उसका नेट रन रेट अभी -0.256 है।
दूसरी तरफ़ राजस्थान रॉयल्स की टीम 14 अंकों के साथ पॉइंट टेबल में +0।148 नेट रन रेट के साथ पांचवे पायदान पर है। यह टीम भी तब ही प्लेऑफ की रेस में दिखेगी जब मुंबई इंडियंस और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर दोनों अपने अपने मैच बड़े अंतर से हार जाएं। (bbc.com/hindi)
अभी लोकसभा चुनाव होने में लगभग एक साल बाकी है। जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे विपक्षी दलों के मेल मिलाप की बैठकों का दौर भी बढ़ेगा। नीतीश कुमार और ममता बनर्जी भले ही ज्यादा मुखरता से इस अभियान को हवा दे रहे हैं लेकिन इसकी मजबूती के लिए कांग्रेस पर ही निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि वही एक ऐसी पार्टी है जिसकी जड़ें अभी भी पूरे देश में फैली हैं।
डॉ. आर.के.पालीवाल
विपक्षी दलों के भाजपा मुक्त अभियान में दो सबसे प्रमुख किरदार हैं। भाजपा ने कांग्रेस मुक्त अभियान चलाया था लेकिन भाजपा मुक्त अभियान में कांग्रेस अभी फ्रंट पर नहीं है। इसके एक प्रवक्ता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश यादव और दूसरी ममता बनर्जी हैं। नीतीश यादव के साथ उपग्रह की तरह तेजस्वी यादव भी रहते हैं। दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े, कांग्रेस के सबसे शक्तिशाली नेता राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के दौरान भी तेजस्वी यादव मौजूद थे और कोलकाता में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ मुलाकात में भी नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी थी। ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार के लिए अब बिहार के प्रशासन पर ध्यान देने से ज्यादा जरूरी भाजपा मुक्त भारत अभियान हो गया है।
कांग्रेस की भी धीरे धीरे यह समझ में आने लगा है कि वह अगले आम चुनाव में अपने बूते सरकार बनाने के आसपास दूर दूर तक नहीं है। यही कारण था कि महाराष्ट्र में उसने अपनी धुर विरोधी रही शिव सेना के साथ गठबंधन की सरकार में तीसरे दर्जे पर शामिल होना स्वीकार किया था। यदि कांग्रेस को केंद्र की सत्ता में वापसी करनी है तो वह किसी बड़े गठबंधन के साथी के रूप में ही हो सकती है। यह लोकसभा में सीट संख्या पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस की स्थिति नेतृत्व प्रदान करने की रहेगी या किसी और दल के नेतृत्व में सरकार में प्रवेश पाने की।
अरविंद केजरीवाल भी अब समझ गए हैं कि उन्हें भी अब केंद्र की सत्ता में शिरकत करने के लिए और भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार से दो दो हाथ करने के लिए अपनी अब तक की एकला चलो की नीति में बदलाव करना पड़ेगा। शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया के जेल जाने और खुद पर गिरफ्तारी की तलवार लटकने के बाद आम आदमी पार्टी की आंतरिक स्थिति काफ़ी कमजोर हुई है , इसलिए उन्हें भी निकट भविष्य में गठबंधन की बैसाखियों के सहारे की सख्त जरूरत महसूस हो रही है।
जिस तरह से नीतीश कुमार उत्तर भारत की हिंदी बेल्ट में विपक्षी एकता के लिए प्रयास कर रहे हैं उसी तरह ममता बनर्जी पड़ोसी उड़ीसा के साथ अपने क्षेत्रीय गठबंधन को ज्यादा विस्तार देने की कोशिश कर रही हैं और इस सिलसिले में नवीन पटनायक से उनकी मुलाकात हुई है। नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की तरह दक्षिण में भी भाजपा के सामूहिक विरोध की सुगबुगाहट है।दक्षिण में जिस तरह कभी आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा प्रभावी भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा रखते थे कुछ वैसी ही महत्वाकांक्षा तेलंगाना के काफ़ी समय से मुख्यमंत्री रहे के चंद्रशेखर राव में दिखाई देती है। वे भी अरविंद केजरीवाल सहित अन्य विपक्षी नेताओं से संपर्क साध रहे हैं। उन्होंने अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का विस्तार कर भारत राष्ट्र समिति के लिए अभियान शुरू कर दिया है।
मजबूत विपक्ष निश्चित रूप से लोकतंत्र के सही क्रियान्वयन और विशेष रूप से लोकतंत्र को तानाशाही की तरफ बढऩे से रोकने के लिए बहुत आवश्यक है। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का विजय रथ लगातार आगे बढ़ा है उसे देखते हुए बिना एकजुट हुए अकेले अकेले लड़ता विपक्ष मजबूत नहीं हो सकता। इस लिहाज से विपक्षी एकता अधिकांश दलों की मजबूरी भी है। लगातार दो बार केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता थोडी ढलान पर तो है लेकिन इसमें अभी इतनी कमी दिखाई नहीं देती जिससे विपक्षी दल एंटी इनकंबेंसी फैक्टर की नैया के सहारे लोकसभा की चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद कर सके। अभी लोकसभा चुनाव होने में लगभग एक साल बाकी है। जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे विपक्षी दलों के मेल मिलाप की बैठकों का दौर भी बढ़ेगा। नीतीश कुमार और ममता बनर्जी भले ही ज्यादा मुखरता से इस अभियान को हवा दे रहे हैं लेकिन इसकी मजबूती के लिए कांग्रेस पर ही निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि वही एक ऐसी पार्टी है जिसकी जड़ें अभी भी पूरे देश में फैली हैं।
प्रभाकर मणि तिवारी
01 दिसंबर, 2021 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार से मुलाकात के बाद पत्रकारों से बातचीत में यह बयान दिया था।
उस समय ममता बनर्जी के इस बयान को कांग्रेस के साथ उनकी बढ़ती दूरियों से जोड़ कर देखा गया था। लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के दो दिन बाद ममता बनर्जी का एक और बयान आया।
‘कांग्रेस जहां मज़बूत है, वहां लड़े। हम उसका समर्थन करेंगे। इसमें कुछ ग़लत नहीं है। लेकिन उसे भी (कांग्रेस को) दूसरे दलों का समर्थन करना होगा।’
15 मई, 2023 को ममता बनर्जी के दिए इस बयान को कांग्रेस की तरफ़ तृणमूल के बढ़ते हाथ की तरह देखा जा रहा है।
इन दोनों बयानों में मात्र 17 महीनों का फासला है, लेकिन दोनों बयान एक दूसरे के बिल्कुल उलट हैं और सियासी रूप से अहम हैं।
ममता बनर्जी के इन दोनों बयानों के बीच 180 डिग्री का अंतर होने के पीछे की वजहों को समझने के लिए उनके अब तक के राजनीतिक सफर को समझना जरूरी है।
ममता का राजनीतिक सफर साल 1976 में कांग्रेस से ही शुरू हुआ था। उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 21 साल थी।
साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें पहली बार टिकट दिया।
अपने पहले ही चुनाव में इंदिरा गांधी की मौत के कारण वोटरों की सहानुभूति का लाभ उठाते हुए उन्होंने सीपीएम के दिग्गज नेता सोमनाथ चटर्जी को पटखनी दे दी।
इस तरह एक धमाके के साथ उन्होंने अपनी संसदीय पारी शुरू की थी।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्हें युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया।
हालांकि कांग्रेस-विरोधी लहर में 1989 में वो लोकसभा चुनाव हार गई थीं। लेकिन इससे हताश होने की बजाय उन्होंने अपना पूरा ध्यान बंगाल की राजनीति पर केंद्रित कर लिया।
साल 1991 के चुनाव में वो लोकसभा के लिए दोबारा चुनी गईं।
उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। पीवी नरसिंह राव मंत्रिमंडल में उन्हें युवा कल्याण और खेल मंत्रालय का जिम्मा दिया गया।
केंद्र में महज दो साल तक मंत्री रहने के बाद ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में एक विशाल रैली का आयोजन करके मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। उस समय उनकी दलील थी कि वो राज्य में सीपीएम के अत्याचार के शिकार कांग्रेसियों के साथ रहना चाहती हैं।
उनके अनुसार, पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सोमेन मित्रा की सीपीएम को लेकर राय अलग थी।
ममता और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ती गईं। उन्होंने आखऱिकार कांग्रेस से पूरी तरह नाता तोड़ लिया और पहली जनवरी, 1998 को तृणमूल कांग्रेस नाम से अपनी नई पार्टी बना ली।
ममता बनर्जी 1998 से 2001 के बीच एनडीए के साथ रहीं। रेल मंत्री बनने वाली वो देश की पहली और एकमात्र महिला हैं।
हालांकि तहलका कांड के कारण महज़ 17 महीने बाद ही इस पद से इस्तीफा देकर वो एनडीए सरकार से अलग हो गईं।
कुछ लोग कहते हैं कि उनके इस्तीफे की असल वजह 2001 में पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर में हिंसा थी।
इस हिंसा में उनकी पार्टी टीएमसी के 11 लोग मारे गए थे। उन्होंने एनडीए की केंद्र सरकार से राज्य सरकार को बर्ख़ास्त करने की माँग की।
उनकी माँग नहीं मानी गई, तो इसके विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। लेकिन सितंबर, 2003 में बिना किसी मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री के तौर पर वो दोबारा एनडीए सरकार में शामिल हुईं।
चार महीने बाद नौ जनवरी, 2004 को उन्हें कोयला और खनन मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई।
2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के हार जाने के कारण ममता की यह पारी भी छोटी ही रही। उसके बाद केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी। और ममता ने यूपीए का दामन थाम लिया।
ममता बनर्जी ने ऐसा क्यों किया, इसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है।
ममता बनर्जी के करियर को नज़दीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी बताते हैं, ‘ममता की सीपीएम से दुश्मनी जगज़ाहिर थी। परमाणु समझौते के मुद्दे पर वाम मोर्चे ने 2008 में जब यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तब अपनी पार्टी की इकलौती सांसद रही ममता बनर्जी ने सरकार का समर्थन किया था।’
उसके बाद 2009 का लोकसभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने साथ मिल कर लड़ा और 42 में से 26 सीटें जीत लीं। दोनों के बीच का वो साथ 2012 तक चला।
तापस मुखर्जी कहते हैं, ‘ममता बनर्जी को लगा कि केंद्र में मित्र सरकार होने की स्थिति में उन्हें राज्य में विकास परियोजनाएं सुचारू रूप से चलाने में मदद मिलेगी।’
लेकिन ‘मां माटी मानुष’ की राजनीति करने वाली ममता को धीरे-धीरे यूपीए सरकार के कई फैसलों से दिक्कत होने लगी।
वरिष्ठ पत्रकार पुलकेष घोष के अनुसार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफड़ीआई) और गैस सिलेंडरों पर सब्सिडी जैसे मुद्दों पर यूपीए सरकार से उनकी दूरियां बढ़ती गईं।
ममता और यूपीए के बीच रह-रहकर बनते-बिगड़ते संबंधों के बीच एक बात जो हमेशा जगजाहिर रही, वो है उनके और सोनिया गांधी के रिश्ते। ममता जब एनडीए का हिस्सा थीं तब भी सोनिया गांधी के साथ उनके रिश्ते बहुत अच्छे थे। ममता अपने दिल्ली दौरे के दौरान नियमित रूप से सोनिया गांधी से मुलाकात करती थीं।
साल 2021 में भाजपा के खिलाफ तमाम विपक्ष को एकजुट करने की क़वायद के तहत भी उन्होंने दिल्ली में सोनिया के साथ बैठक की थी।
लेकिन कुछ मुद्दों पर असहमति के कारण ममता ने गैर-कांग्रेसी दलों के गठबंधन के एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया। उसके बाद पूर्वोत्तर राज्यों- त्रिपुरा और मेघालय में उन्होंने कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी पार्टी में शामिल करा लिया।
2022 के गोवा विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। इसी दौरान कांग्रेस के कई अन्य नेता भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए।
गोवा में अपने चुनाव अभियान के दौरान दोनों दलों ने एक-दूसरे पर जमकर हमले किए। नतीजों के बाद कांग्रेस ने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा की जीत में मदद की है।
इस साल मार्च में मुर्शिदाबाद जि़ले की सागरदीघी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में सीपीएम के समर्थन से कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई।
कांग्रेस की इस जीत से चिढ़ कर ममता बनर्जी ने साफ कह दिया था कि अगले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी अकेले ही लड़ेगी। लेकिन कांग्रेस को लेकर उनका नज़रिया फिर बदल ही गया।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस के प्रति ममता के रुख़ और तृणमूल कांग्रेस की नीति में बदलाव का एलान उन्होंने भले अब किया हो, इस पर मंथन मार्च महीने में शुरू हो गया था।
ममता बनर्जी के राजनीतिक सफर को करीब से देखने वाले जानकार प्रोफ़ेसर समीरन पाल कहते हैं, ‘मुर्शिदाबाद उपचुनाव के नतीजे और ‘एकला चलो’ की नीति का एलान करने के बावजूद ममता ने राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खारिज होने के मुद्दे पर केंद्र सरकार की आलोचना की थी।’
वो आगे कहते हैं, ‘इस बीच, तृणमूल कांग्रेस से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी छीन गया। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के बाद कांग्रेस की मज़बूत होती ज़मीन और उसके बाद कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे ने ममता को उसके प्रति अपना नज़रिया बदलने पर मजबूर कर दिया है।’
बंगाल में कांग्रेस की गिरती साख
प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, ‘रुख बदलने के पीछे एक वजह पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का लगातार कमज़ोर होना भी है। साल 2019 के लोकसभा में बंगाल में कांग्रेस दो सीटों पर सिमट कर रह गई। बाक़ी तमाम सीटों पर चौथे नंबर पर रही थी। तब भाजपा ने जो 18 सीटें जीतीं, वहाँ तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही थी।’
कुछ दिनों पहले ही जनता दल-एस के एचडी कुमारस्वामी, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने विपक्षी एकता के मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए ममता बनर्जी से मुलाकात की थी। उसके बाद अपने ओडिशा दौरे के दौरान ममता ने वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से मुलाक़ात की थी।
तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘नीतीश कुमार समेत कई नेताओं ने ममता से मुलाकात में कहा था कि कांग्रेस को साथ लिए बिना भाजपा के खिलाफ कोई ठोस गठबंधन संभव नहीं है। उन नेताओं के रवैए ने भी ममता का मन बदलने में अहम भूमिका निभाई है।’
चुनावी फायदे के लिए ही ममता ने ऐसा किया है?
तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, ‘सागरदीघी के उपचुनाव के बाद ममता की ‘एकला चलो’ टिप्पणी का आशय ये था कि बंगाल में हमें किसी के साथ गठजोड़ की जरूरत नहीं है और भाजपा को हराने के लिए हम अकेले ही काफी हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ गठबंधन बनाना तो हमारी पुरानी नीति रही है।’
दूसरी ओर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने ममता के ताज़ा बयान को अपमानजनक कऱार दिया है।
ममता के बयान के बाद स्थानीय अंग्रेज़ी दैनिक ‘द टेलीग्राफ’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘दीदी के पास अब ऐसा कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। तृणमूल कांग्रेस से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छीन चुका है। गोवा से लेकर त्रिपुरा और मेघालय तक वे मौक़ा मिलते ही कांग्रेस को नुक़सान पहुंचाने का प्रयास करती रही हैं। तृणमूल कांग्रेस से लोगों का मोहभंग हो रहा है और ममता की लोकप्रियता में तेज़ी से गिरावट आ रही है।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. लखन चौधरी
छत्तीसगढ़ में लोक सेवा आयोग यानि पीएससी की प्रतिष्ठा एक बार फिर दांव पर लग चुकी है या लगती दिखती है। आरक्षण की पेंच की वजह से कोर्ट में फंसे होने के कारण परीक्षा परिणाम जारी करने में लगभग दो साल का विलंब हुआ है, और इसके बाद जब परिणाम जारी किया गया तो मामला विवादित होता दिख रहा है। परीक्षा परणिाम को लेकर जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप लगाये जा रहे हैं, उससे तो लगता है कि कहीं पूरा परीक्षा परिणाम फिर से लटक न जाए ? खबर तो यहां तक है कि मामले का कोर्ट जाना तय है और जारी परिणाम का कुछ महिनों/सालों के लिए लटकना भी तय है।
राज्य सेवा परीक्षा-2021 के अंतर्गत विभिन्न 20 सेवाओं हेतु 171 पदों के लिए विज्ञापित मुख्य परीक्षा परिणामों, जिसमें 170 पदों की चयन/अनुपूरक सूची जारी की गई है, को लेकर राज्य में कोहराम मच गया है। दरअसल में 2021 की यह सूची दो साल बाद सूची घोषित हुई है, और परिणामों को लेकर जिस तरह से संदेह का वातावरण उत्पन्न हुआ है, वह लोक सेवा आयोग के लिए कतई उचित नहीं है। कहा जा रहा है कि सूची के शीर्ष के 15 में अधिकतर चयनित अभ्यार्थियों का संबंध कहीं न कहीं प्रदेश के शीर्षस्थ अधिकारियों या सत्ता के करीबियों से है। इसे लेकर ही प्रदेश के राजनीतिक एवं अकादमिक गलियारों में हलचल तेज हो गई है। परीक्षा परिणामों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप के बीच अब धरना-प्रदर्शन और घेराव तक की स्थिति निर्मित हो गई है।
इधर छत्तीसगढ़ राज्य सेवा आयोग के चयन पर उठ रहे सवाल के बीच मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा है कि चयनित उम्मीदवारों में से किसी के नौकरशाहों और राजनीतिक परिवारों से संबंधित होना कोई अपराध नहीं है। पूर्व यानि बीजेपी के समय में भी इस तरह के चयन हुए हैं। सीएम ने कहा कि भाजपा, प्रदेश में माहौल खराब करने में लगी है। यदि उनके पास कोई तथ्यात्मक जानकारी है, या चयन में कोई गड़बड़ी हुई है, तो इसे प्रमाणित करें, इसकी जांच कराएंगे। मुख्यमंत्री ने कहा कि सोशल मीडिया में जो बातें उठायी जा रही हैं, वो दुर्भाग्यजनक हैं। उनका तर्क है कि भाजपा नेताओं के बच्चों को अगर विधानसभा या लोकसभा में टिकट दिया जाता है, तब कहा जाता है कि योग्यता के आधार पर दिया गया है, लेकिन जब अधिकारियों और नेताओं के बच्चों का पीएससी की परीक्षा में सिलेक्शन हो रहा है, तब सवाल उठाए जा रहे हैं। यह बीजेपी का दोहरा चरित्र है।
दरअसल में मुद्दे की बात यह है कि क्या चयन सूची में वाकई विसंगतियां हैं ? क्या चयन सूची में जारी उम्मीदवारों के नामों को लेकर जो सवाल उठाए जा रहे हैं, उनमें दम है ? इधर मुख्यमंत्री की बातों को गौर करने से लगता है कि उनकी बातें भी आधारहीन नहीं हैं ? तो क्या 2023 में 2003 की विसंगतियों या कहें कि गलतियों की एक बार पुन: पुनरावृत्ति हुई है ? 20 साल बाद छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग फिर उसी तरह के कारनामें करता क्यों दिख रहा है ? कहीं यह मामला भी 2003 की तरह ही ना हो जाए ? यदि इस बार के परीक्षा परिणाम निरस्त होते हैं, जो कि 2003 के नहीं हुए थे, तो फिर क्या होगा ? कई तरह के सवाल हैं।
बात जहां तक 2003 की विसंगतियों की है, तो वह प्रकरण आज भी सुप्रीमकोर्ट में लंबित है। स्केलिंग की खामियों की वजह से चयन सूची की विसंगतियों को लेकर आज तक कोई निर्णय नहीं आया है। लिहाजा कम नंबर वाले अभ्यर्थी डिप्टी कलेक्टर एवं डीएसपी जैसे बड़े पदों पर काबिज हो गये। अब तो इन अधिकारियों को आईएएस एवं आईपीएस भी अवार्ड हो चुके हैं। अब उच्चतम न्यायालय का कोई भी निर्णय इनकी सेवाएं खा नहीं सकता है, क्योंकि इनकी सेवाएं इतनी अधिक या सेवा अवधि इतनी लंबी हो चुकी है कि इस पर कोर्ट या सरकार द्वारा निर्णय लेना ही असंभव लगता है। यदि इस प्रकरण में इनके विरूद्ध कोई निर्णय लिया जाता भी है तो दूसरी अन्य विसंगतियां पैदा होगीं। इसका तात्पर्य है कि 2003 के जिन अभ्यर्थियों के साथ अन्याय हुआ था उनके साथ न्याय होना भी असंभव लगता है।
सवाल उठता है कि क्या इस बार इस पर कोई ठोस निर्णय हो सकेगा ? यानि 2023 के जारी परीक्षा परिणाम निरस्त किये जायेंगे ? क्या पीएससी अपनी गलती कबूलेगी ? जैसा कि 2003 के मामले में पीएससी ने अपनी गलती कार्ट में कबूली थी। क्या 2021 के जारी परीक्षा परिणाम में सुधार किया जायेगा ? योग्य उम्मीदवारों को क्या इस बार भी न्याय मिल सकेगा ? क्या कुछ दिनों बाद यह मामला भी पहले की तरह ही रफ़ादफ़ा हो जायेगा ? चूंकि कुछ महिनों बाद राज्य में विधानसभा और उसके बाद लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, लिहाजा इस बार का मामला इतना आसानी से सुलझने वाला दिखता नहीं है। कांग्रेस, भाजपा को 2003 के मामले की याद दिला रही है, तो भाजपा को लगता है कि सरकार के विरूद्ध बड़ा मुद्दा मिल गया है।
इस बीच सबसे बड़ा सवाल यही है कि राज्य के लाखों बेरोजगार युवाओं एवं योग्य उम्मीदवारों की मानसिक स्थिति पर क्या गुजरेगी या क्या गुजर रही होगी? पिछले मामले में तमाम गड़बडिय़ों के लिए पीएससी के परीक्षा नियंत्रक को जिम्मेदार पाया गया था। क्या इस बार भी कुछ इसी तरह की बात सामने आयेगी ? हालांकि इस बार भी पीएससी के अध्यक्ष पर उंगलियां उठ रहीं हैं, क्योंकि एक चयनित अभ्यर्थी तो उनका दत्तक पुत्र बताया जा रहा है। जबकि पिछली बार के अध्यक्ष के उपर इस तरह के व्यक्तिगत आरोप कतई नहीं थे। मामले को लेकर सरकार और राजभवन पर भी सवाल खड़े किये जा रहे हैं। राज्य के नौकरशाहों पर सवाल तो उठते रहे हैं।
बहरहाल, सरकार को इस प्रकरण को गंभीरता से लेना चाहिए। सवाल केवल पीएससी या सरकार की साख का नहीं है, अपितु पिछले साढ़े चार साल में बनी सरकार की पहचान एवं इमेज का है। चुनाव के ऐन पहले विपक्ष यदि मामले को तूल देने में कामयाब हो जाता है तो इससे सरकार की छवि पर भी असर पडऩा तय है। वहीं इस प्रकरण से राज्य के युवाओं के बीच भी सरकार की नकारात्म्क इमेज बनने की आशंका बनती दिख सकती है ? इसलिए सरकार को तत्काल इसकी निष्पक्ष जांच करानी चाहिए।
श्रेया ने डीपीएस आरके पुरम से 12वीं की पढ़ाई की है और 99 फीसदी अंक हासिल किए हैं.
कीर्ति दुबे
17 साल की श्रेया का 12वीं का नतीजा चार दिन पहले आया। सीबीएसई बोर्ड से 99 फीसदी अंक लाने वाली श्रेया डीयू के सेंट स्टीफंस या श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से अर्थशास्त्र पढऩा चाहती हैं।
दो साल पहले इतने अंक पाने वाले छात्र को मनचाहा कॉलेज मिल जाता, लेकिन अब तो 99त्न अंक बस चंद लम्हों की खुशी मनाने के ही काम आते हैं।
श्रेया से बीबीसी की मुलाकात दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर की क्लास में हुई। यहां वो अपनी कॉमन यूनिवर्सिटी इंट्रेस टेस्ट यानी ष्टश्वञ्ज की क्लास का इंतजार कर रही थीं।
ष्टश्वञ्ज यानी दिल्ली यूनिवर्सिटी समेत देश के लगभग सभी केंद्रीय और कई निजी विश्वविद्यालयों में दाखिले की प्रवेश परीक्षा।
दो साल पहले तक दिल्ली यूनिवर्सिटी के नामचीन कॉलेजों में दाखिला पाने के लिए 12वीं में 97-98 फीसदी अंक लाने पड़ते थे। 90-95 फीसदी अंक लाकर भी छात्र डीयू के अपने मनचाहे कॉलेजों की वेटिंग लिस्ट में ही पड़े रहते थे।
लेकिन 2022 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी त्रष्ट ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने की प्रक्रिया बदल दी गई।
ये तय किया गया कि अब ष्टश्वञ्ज के तहत ही दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला मिलेगा। यानी 12वीं में आपके कितने नंबर आए हैं इससे तय नहीं होगा कि आपका कॉलेज कौन सा होगा। ये अब इससे तय होगा कि छात्र ने ष्टश्वञ्ज की प्रवेश परीक्षा में कितने अंक हासिल किए।
श्रेया बताती हैं, ‘जिस दिन मेरा 12वीं का रिज़ल्ट आया और मुझे 99 फीसदी अंक मिले तो मेरे घर वाले खुश थे, मैं भी खुश थी, लेकिन कुछ घंटे बाद ही मैं पढऩे बैठ गई क्योंकि मुझे पता था कि इन अंकों से मेरा कॉलेज डिसाइड नहीं होगा।’
‘मुझे तो मेरे 12वीं के नंबर पर सेंट स्टीफंस या एसआरसीसी में आराम से दाखिला मिल जाता, लेकिन सीयूईटी के आने के बाद मेरे लिए 99 फीसदी अंक लाने के कोई खास मायने नहीं है।’
श्रेया ने एक महीने पहले दिल्ली के एक कोचिंग संस्थान में ष्टश्वञ्ज के क्रैश कोर्स में दाख़िला लिया है। ये ज़रूर है कि 12वीं के अच्छे नतीजों ने उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है।
कुछ छात्रों के लिए बदली हुई प्रक्रिया ने 12वीं पास होने और कॉलेज में दाखिला लेने के बीच प्रतिस्पर्धा की एक नई लेयर जोड़ दी है। लेकिन ऐसे भी छात्र हैं जिन्हें लगता है कि इस बदलाव से उन्हें करियर को बेहतर दिशा देने का मौका मिलेगा।
प्रथम गुप्ता ने 12वीं में 85 फीसदी अंक हासिल किए हैं।
वो बताते हैं कि उनके नंबर उतने अच्छे नहीं आए जितनी उन्हें या उनके घर वालों को उम्मीद थी। लेकिन वो चिंतित नहीं हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनके पास ‘मेहनत करके बेहतर कॉलेज पाने का रास्ता खुला हुआ है।’
17 साल के प्रथम कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि जिस तरह की प्रतिक्रिया मुझे मेरे घरवालों से मिली, वैसी ही मिलती अगर इन अंकों से मेरा कॉलेज तय होता। लेकिन सबको पता था कि मेरे रास्ते अभी बंद नहीं हुए हैं और मैं अपनी मर्जी का कॉलेज पा सकता हूं। इससे मुझे मनमाफिक नंबर न आने का पछतावा कम हो रहा था।’
CUET की कोचिंग का फलता-फूलता बिजनेस
दिल्ली के कनॉट प्लेस से लेकर जिया सराय, कटवरिया सराय, मुनिरका की गलियों में ऐसे कोचिंग संस्थानों की भरमार है, जो ष्टश्वञ्ज के फुल टाइम कोर्स से लेकर दो महीनों के क्रैश कोर्स चला रहे हैं।
क्रैश कोर्स की फ़ीस 25 हजार से लेकर 30 हजार रुपये के बीच में है। वहीं एक साल और दो साल के भी कोर्स हैं जिनकी फीस एक लाख रुपए तक है।
प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाली जानी-मानी कोचिंग करियर लॉन्चर के दिल्ली-एनसीआर के बिजनेस हेड दीपक मदान बताते हैं, ‘बीते साल के मुकाबले करियर लॉन्चर में छात्रों के रजिस्ट्रेशन की संख्या दोगुनी हुई है और ये संख्या लाखों में है।’
‘ये देश का दूसरी सबसे बड़ी प्रवेश परीक्षा है। पहले स्थान पर मेडिकल कॉलेजों में दाखिले की परीक्षा है। अगर महज दो साल में ही ये देश की दूसरी सबसे बड़ी प्रवेश परीक्षा बन गई है तो सोचिए आने वाले वक्त में क्या होगा।’
प्रथम कहते है कि उन्होंने ष्टश्वञ्ज की तैयारी की कोचिंग के लिए 37 हजार रुपये भरे हैं। ऐसे में उनके ऊपर आर्थिक दबाव भी है कि उन्हें इस परीक्षा को अच्छे रैंक से पास करें।
दिल्ली स्थित एप्टप्रेप इंस्टीट्यूट के सीनियर मेंटॉर रितेश जैन मंहगी फीस के सवाल पर कहते हैं, ‘एक ही तरह का कोर्स पढक़र सीबीएसई के एक छात्र को कम नंबर मिलते हैं लेकिन वही कोर्स पढक़र केरल बोर्ड के छात्र को कहीं ज्यादा नंबर मिलते हैं। तो ऐसे में दक्षिण के छात्रों को सीट मिल जाया करती थी। अब ये नहीं होगा। माता-पिता ष्टश्वञ्ज की कोचिंग में पैसे लगाकर कम से कम ये तो तय कर सकते हैं कि उनके बच्चे कम फीस में बेहतर कॉलेज में पढ़ें।’
‘अगर ऐसा नहीं करेंगे तो फिर उन्हें मंहगे कॉलेजों में दाखिला लेना होगा। ये किसी अभिभावक के लिए ज़्यादा मंहगा होगा। इससे बेहतर है कि वो अपने बच्चों को ष्टश्वञ्ज की कोचिंग दें। ’
कैसे आया CUET और क्या है इसका मॉड्यूल
साल 2009 में एक कॉमन एक्ट के तहत देश में कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। ऐसे में 2010 में सात नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश देने के लिए एक कॉमन प्रवेश परीक्षा ष्टष्टश्वञ्ज (सेंट्रल यूनिवर्सिटीज कॉमन इंट्रेस टेस्ट) शुरू की गई।
इस प्रवेश परीक्षा को हर साल अलग-अलग विश्वविद्यालय आयोजित करते थे। साल 2021 में इस प्रवेश परीक्षा को राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (हृञ्ज्र) ने कंडक्ट किया था। बाद में हृञ्ज्र को लगा कि ये एक सही तरीक़ा है और इसे देश के बाक़ी विश्वविद्यालयों के लिए भी लागू किया जा सकता है।
इसके बाद 2022 में इस प्रक्रिया में कई बड़े बदलाव करते हुए ष्टश्वञ्ज (कॉमन यूनिवर्सिटी इंट्रेस टेस्ट) के नाम से लॉन्च किया गया। इस प्रवेश परीक्षा के ज़रिए देश के अधिकांश सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ के साथ-साथ कई निजी विश्वविद्यालयों को भी जोड़ दिया गया।
इस बार ष्टश्वञ्ज में 54 सेंट्रल यूनिवर्सिटीज के साथ 250 से अधिक निजी विश्वविद्यालय या कॉलेज जुड़े हैं।
इस बार ये परीक्षा 21 मई से 31 मई के बीच हो रही है। इसके लिए परीक्षा के तीन हिस्से होते हैं। परीक्षा ऑनलाइन होती है। इसे सीबीटी (कंप्यूटर बेस्ड टेस्ट) कहा जाता है।
पहले हिस्से में भाषा की परीक्षा होगी। इनमें हिंदी, अंग्रेजी जैसी 13 भाषाएं होंगी। पहले हिस्से का एक और खंड है। जिसमें 20 भाषाएं शामिल हैं। छात्रों को उस भाषा की परीक्षा देनी होगी जिसमें वो आगे की पढ़ाई करना चाहते हैं।
दूसरे हिस्से में ‘डोमेन स्पेसिफिक’ विषय होंगे, यानी वे विषय, जिनकी किसी विश्वविद्यालय के चुने हुए कोर्स में प्रवेश पाने के लिए परीक्षा देने की आवश्यकता होगी।
इसमें 27 विषयों का विकल्प दिया गया है। यानी अगर कोई इतिहास में या अर्थशास्त्र के कोर्स में दाखिला चाहता है तो ये उसका ‘डोमेन’ होगा।
छात्रों से तीसरे हिस्से में सामान्य ज्ञान, गणित और रीजनिंग के सवाल पूछे जाएंगे। इन तीनों हिस्सों में से अधिकतम 10 चुने हुए विषयों की परीक्षा दी जा सकती है। (bbc.com/hind)
संजीव खुदशाह
पिछले दिनों मरम्मत का अधिकार यानी राइटटूरिपेयर का वेबसाइट सेंट्रल गवर्नमेंट के द्वारा जारी किया गया। इस पर लेकर कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच अधिकारों को लेकर चर्चा जोरों पर है। दरअसल अब तक होता यह रहा है कि उपभोक्ता किसी यंत्रों की खरीदी के बाद अगर वह यंत्र बिगड़ जाए तो उसे सुधार करने में या सुधार करवाने में एड़ी चोटी एक करना पड़ता था। कंपनी ने एक नियम बना रखा है कि यदि आप अनाधिकृत सुधारक से सुधार करवाते हैं तो उसकी वारंटी खत्म हो जाएगी। कंपनी ऐसा करके उपभोक्ताओं के अधिकारों का हनन करती है और उपभोक्ता परेशान होते हैं। कंपनी के रिपेयर सेंटर कुछ खास बड़े शहरों में ही होते हैं। इसीलिए उन शहरों तक जाना, रिपेयर हो जाने के बाद, फिर लेने जाना, इस प्रक्रिया में उपभोक्ता का बहुत पैसा बर्बाद हो जाता है। कंपनियां सुधार करने का मोटा चार्ज भी वसूल करती है। मजबूरन उसे नया प्रोडक्ट लेना पड़ता है।
इसी प्रकार कई कंपनियां उपभोक्ताओं को खराब हुए कलपुर्जे उपलब्ध नहीं कराती है। कलपुर्जे नहीं मिलने के कारण उपभोक्ताओं को परेशानी झेलनी पड़ती है और उनको अपना प्रोडक्टऔने पौने दामों में कबाड़ी को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
इससे कंपनी एवं दुकानदारदोनो मुनाफा कमाते हैं। आम जनता को नुकसान होता है। आम जनता की इसी परेशानी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इस वेबसाइट को जारी किया है। जिस पर जाकर उपभोक्ता अपने प्रोडक्टरिपेयर करा सकता है या उसके कलपुर्जे मंगवा सकता है।
https://righttorepairindia.gov.in/inde&.php
क्या है कानून?
इस प्रकार के कानून अमेरिका समेत विकसित देशों में पहले से लागू है और इसका कड़ाई से पालन किया जाता है। लेकिन भारत में इस प्रकार के कानून की मांग बहुत समय से होती रही है।
हमारे देश में उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय (एमसीए) ने ‘मरम्मत के अधिकार’ ढांचे के साथ एक समिति गठित की है। ‘राइटटूरिपेयर’ से लोग इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोबाइल सहित कई उत्पादों को सस्ते दाम पर रिपेयर करवा सकते हैं। इससे उत्पादों की वारंटी प्रभावित नहीं होगी।
कानून प्रक्रियाधीन है लेकिन राइटटूरिपेयर नाम के वेबसाइट से सरकार ने आम जनता को जागरूक करने और अधिकार देने का काम शुरू कर दिया है।
अब तक क्या होता था?
इसे दो काल्पनिक घटनाओं से समझना जरूरी है
1. एक उपभोक्ता ने क्रह्र वाटरप्यूरीफायर मशीन खरीदा 1 साल के बाद उस मशीन में खराबी आ गई और कलपुर्जे नहीं मिलने के कारण उसे अपनी मशीन को कबाड़ी में बेचना पड़ा। अब कंपनियों की जिम्मेदारी होगी कि वह उपभोक्ताओं को जरूरी कलपुर्जे उपलब्ध कराएं।
2. एक उपभोक्ता का महंगा मोबाइल खराब हो गया, जिसे वह सुधरवाना चाहता है। कंपनी के सर्विस सेंटर ने बहुत महंगे दामों में मोबाइल सुधारने की पेशकश की। लेकिन स्थानीय दुकान में बहुत ही सस्ते में वह मोबाइल सुधर सकता था। कंपनियों ने ऐसे नियम बना रखे हैं कि यदि आप अधिकृत सर्विस सेंटर से रिपेयर नहीं करवाते हैं तो वारंटी खत्म हो जाएगी।
मरम्मत का अधिकार के अंतर्गत कंपनियों को क्या करना होगा?
1 कंपनियों को अपने प्रोडक्ट के साथ ऐसे यूजरमैन्युअल बनाने होंगे जिससे स्थानीय मैकेनिक उसे सुधार सकें।
2 अनधिकृत सर्विस सेंटर से रिपेयर कराने पर वारंटी खत्म होने की शर्त को हटाना होगा।
3 कंपनियां ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए प्रोडक्टआउटडेटेड हो गया है कह कर उसके कलपुर्जे उपलब्ध नहीं कराती है। अब उन्हें यंत्रों के समस्त कलपुर्जे बाजार में उपलब्ध कराने होंगे।
4 अब कंपनियों को राइटटूरिपेयर वेबसाइट पर उपलब्ध होना पड़ेगा।
मरम्मत के अधिकार के फायदे
1 अब उपभोक्ता अपने यंत्रों को मरम्मत करवा सकेंगे नया यंत्र खरीदने की मजबूरी नहीं होगी।
2 खराब यंत्रों के कबाड़ बन जाने (स्क्रैप) में कमी आएगी। इससे प्रदूषण भी कम होगा।
3 छोटे दुकानदारों और मैकेनिक को रोजगार मिलेगा।
4 यह उपकरणों के जीवन काल, रखरखाव, पुन: उपयोग, उन्नयन, पुनर्चक्रण और अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करके चक्रीय अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों में योगदान देगा।
5 पार्ट्स बनाने वाली कंपनियों को बल मिलेगा।
कौन-कौन से उत्पाद शामिल हैं?
राइटटूरिपेयर के तहत आप मोबाइल, टैबलेट, वायरलेसहेडफोन, ईयरबड्स, लैपटॉप, यूनिवर्सलचार्जिंगपोर्ट, यूनिवर्सलचार्जिंगकेबल, बैटरी, सर्वर और डेटास्टोरेज, प्रिंटर जैसे उपकरणों का लाभ उठा सकते हैं। इसके अलावा वाटरप्यूरिफायर, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, इंटीग्रेटेड/यूनिवर्सल रिमोट, डिशवॉशर, माइक्रोवेव, एयरकंडीशनर, गीजर, इलेक्ट्रिककेटल, इंडक्शनकुकटॉप, मिक्सरग्राइंडर और इलेक्ट्रिकचिमनी, कार, बाइक, कृषि यंत्र जैसे उत्पाद भी शामिल हैं।
निश्चित रूप से सरकार के इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। क्योंकि इस तरह के कदम से जहां एक ओर आम जनता को फायदा मिलेगा, वही दूसरी ओर रोजगार भी बढ़ेगा, साथ ही साथ प्रदूषण को नियंत्रण करने में भी मदद मिलेगी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है उपभोक्ताओं की जागरूकता। यह तभी हो पाएगा जब उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होंगे और अपने अधिकार को समझेंगे उस अधिकार को लेने के लिए आगे आयेंगे।
-डॉ आर के पालीवाल
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ की रफ्तार रिवर्स गियर में आ गई। हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक ने डबल इंजन सरकार के जुमले को सिरे से नकार दिया।यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा था। यह घोषणा गृह मंत्री अमित शाह ने खुद चुनाव पूर्व सार्वजनिक सभा में जोर शोर से की थी, इसलिए इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार और उनके तथाकथित चमत्कार की ढलान माना जा सकता है। इसका दो तरफा असर होने की संभावना है, एक, इससे विपक्ष को यह विश्वास होगा कि केन्द्र में भी भारतीय जनता पार्टी को तगड़ा झटका दिया जा सकता है। दूसरे भारतीय जनता पार्टी के अंदर भी नरेंद्र मोदी की अजेय छवि टूटेगी और उनसे नाखुश लॉबी इसका लाभ उठाने की कोशिश करेगी।
कर्नाटक ने बजरंग दल के रूप में प्रस्तुत कट्टर हिंदुत्व को भी नकार दिया। भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी ने बजरंग दल को बजरंग बली का प्रतिनिधि बना कर चुनावी सभाओं में लाभ उठाना चाहा था जो फ्लॉप रहा। राहुल गांधी की पदयात्रा को कर्नाटक में काफी समर्थन मिला था। इन चुनावों में कर्नाटक कांग्रेस के नेताओं के साथ राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा, सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की सामूहिक मेहनत का असर भी साफ दिखाई देता है।कर्नाटक के विधानसभा चुनाव नतीजों ने एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का परिचय दिया है। उन्होंने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत देकर हॉर्स ट्रेडिंग, सामूहिक दल बदल और सत्ता के भूखे गठबंधन की गुंजाइश खत्म कर दी। जनता दल को जिस तरह से हंग असेंबली में किंगमेकर की संभावित भूमिका में दिखाया जा रहा था उसे भी कर्नाटक के मतदाताओं ने सिरे से नकार दिया।
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार, आपसी आंतरिक खींचतान और प्रशासनिक अक्षमता के तीन कारणों से काफी अलोकप्रिय हो गई थी। दक्षिण भारत के अन्य राज्यों की तुलना में कर्नाटक काफी प्रगतिशील राज्य माना जाता है जहां के मतदाता भावनात्मक मुद्दों में कम बहते हैं। कर्नाटक हाथ से निकलने से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली भाजपा खुद दक्षिण भारत से सत्ता मुक्त हो गई।भले ही भारतीय जनता पार्टी अपनी हार के ऊल जलूल कारण बताने की कोशिश करे लेकिन कर्नाटक के बाद अन्य राज्यों के चुनावों में उसका सफ़र निश्चित रूप से कठिन होगा। दूसरी तरफ हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में भी कांग्रेस की सरकार बनने से कांग्रेस के सूखते वृक्ष में नई कोपलें फूटी हैं जो निश्चित तौर पर उसकी हौसला अफजाई करेंगी, हालांकि कांग्रेस के लिए अभी भी केंद्र सरकार की गद्दी काफी दूर है।
हमारे देश की जनता में लाख़ कमियां हों लेकिन कुछ मामलों में उसकी अच्छाईयां कमियों पर भारी पड़ती हैं। भारतीय जनता ने आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस आदि कई नेताओं को सर आंखों पर बिठाया था क्योंकि उन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था। आजादी के बाद भी उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेई और नरेंद्र मोदी पर वैसा ही विश्वास जताया था। जिस इंदिरा गांधी को जनता ने जबरदस्त सफलता दी थी उसी जनता ने आपातकाल की एक बड़ी गलती से इंदिरा गांधी को शिकस्त देकर जय प्रकाश नारायण को हीरो बना दिया था। कालांतर में जनता ने कुछ वैसा ही सम्मान अन्ना हजारे को भी दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए आगामी एक साल बहुत कड़ी अग्नि परीक्षा का है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में उन्हें पूरी भागदौड़ के बावजूद नकार दिया। यह उनकी लोकप्रियता के लिए खतरे की घंटी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इसे सुनकर अपनी सरकारी और चुनावी रणनीतियों में सकारात्मक बदलाव करेंगे।
डॉ. संजय शुक्ला
छत्तीसगढ़ में इन दिनों लगातार सडक़ हादसों से हो रहे मौत की खबरें मीडिया की सुर्खियां बन रही है। पिछले पखवाड़े धमतरी के पास सडक़ दुघर्टना में 11 लोगों की मौत के बाद एक ही दिन कोरबा के जिले में कार और ट्रक के बीच भिड़ंत से कार सवार पुलिस सब इंस्पेक्टर और उनकी पत्नी सहित दो बच्चों की मौत और सूरजपुर के सोनगरा में ट्रक और बोलेरो के भिड़ंत में 4 लोगों की मौत और 9 लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर ने सरकार, प्रशासन और समाज को सडक़ सुरक्षा पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए विवश कर दिया है।
गौरतलब है कि सडक़ दुर्घटनाओं के मामले में भारत दुनिया भर के शीर्ष तीन देशों में शामिल है। देश में प्रत्येक वर्ष अमूमन 5 लाख सडक़ हादसे होते हैं जिसमें 1 लाख 5 हजार लोगों की मौत हो जाती है। छत्तीसगढ़ सडक़ हादसों में देश के शीर्ष राज्यों में शामिल है। छत्तीसगढ़ एक औद्योगिक राज्य है जहां उद्योग-धंधों से लेकर खनिज परिवहन और अधोभूत संरचना व शहरीकरण के चलते सडक़ों पर यातायात का भारी दबाव है फलस्वरूप यहां सडक़ दुर्घटनाएं लगातार बढ़ रही है।
आंकड़ों के मुताबिक राज्य में बीते वर्ष 13279 सडक़ दुघर्टनाएं हुई जिसमें 5834 लोगों की मौत हुई और 11695 लोग घायल हुए जिसमें अनेक लोग स्थायी और पार्शियल अपंगता के शिकार हुए हैं। राज्य की बात करें तो इन दुर्घटनाओं में तकरीबन 70 फीसदी मौतें दोपहिया वाहन की हुई जिसमें बिना हेलमेट पहने वाहन चालकों की संख्या ज्यादा है। इसी तरह चार पहिया वाहन दुर्घटनाओं के लिए प्रमुख तौर पर तेज गति से वाहन चालन, मालवाहकों से भिड़ंत और सीट बेल्ट नहीं लगाने जैसे कारण जिम्मेदार हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ‘एनसीआरबी’ के सडक़ हादसों पर जारी रिपोर्ट चिंताजनक और निराश करने वाली है। सडक़ हादसों को लेकर राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ‘एनसीआरबी’ के रिपोर्ट मुताबिक साल 2021 में कुल 4,03,116 सडक़ दुघर्टनाओं में डेढ़ लाख से अधिक लोगों की जान गई।एनसीआरबी के मुताबिक तेज रफ्तार और लापरवाही से वाहन चलाना सडक़ दुघर्टनाओं के सबसे प्रमुख कारण हैं। बीते साल 59.7 फीसदी सडक़ हादसे तेज गति से वाहन चलाने के कारण हुई। आंकड़ों के अनुसार तेज रफ्तार वाहन चलाने से 87,050 लोगों की तथा लापरवाहीपूर्वक वाहन चालन से 42,853 लोगों की मौत हुई। नशे में वाहन चलाना सडक़ हादसों की प्रमुख वजह है रिपोर्ट में बताया गया है कि 1.9 फीसदी दुर्घटनाओं का का कारण शराब या मादक पदार्थों का सेवन है। नशीले पदार्थों के सेवन के बाद ड्राइविंग के कारण 2,935 लोगों की जानें गईं जबकि 7,235 लोग घायल हुए। सरकार के आंकड़े के अनुसार साल 2021 में सीट बेल्ट नहीं लगाने वाले 16397 लोगों की मौतें सडक़ हादसे में हुई, इसमें 8438 ड्राइवर थे और 7959 यात्री थे।
बहरहाल यह आंकड़े उस देश के हैं जहां हर साल ‘सडक़ सुरक्षा सप्ताह’ मनाया जाता है तथा तमाम संचार माध्यमों में यातायात नियमों के पालन करने के लिए हजारों करोड़ रूपयों के विज्ञापन प्रसारित और प्रकाशित किया जाते हैं। एनसीआरबी के ताजा आंकड़े यह बताते हैं कि उक्त सरकारी आयोजन और प्रयास सडक़ हादसों को रोकने में नाकाम हो रहे हैं क्योंकि कुछ साल पहले तक सडक़ दुर्घटनाओं में मरने वालों के आंकड़े तकरीबन एक लाख थी। आश्चर्यजनक तौर पर भारत में बीमारी से ज्यादा मौतें सडक़ दुघर्टनाओं में होती है और इन मौतों में उत्पादक युवा वर्ग की संख्या लगभग 69 फीसदी है। रिपोर्ट के मुताबिक सडक़ दुघर्टनाओं में दोपहिया वाहन चालकों की संख्या ज्यादा है। देश में अपंगता के लिए सडक़ दुघर्टना प्रमुख कारण है।
भारत में सडक़ हादसों के लिए सीधे तौर पर तेज रफ्तार वाहन चालन, असावधानी पूर्वक ओवरटेकिंग, नशे के हालत में वाहन चालन, वाहन चलाते समय ट्रैफिक रूल्स का उल्लंघन, सडक़ों की जर्जर हालत, सडक़ों पर वाहन पार्किंग, वाहनों के फिटनेस परीक्षण में अनियमितता या भ्रष्टाचार, वाहन चालकों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण नहीं होना, चालक को नींद की झपकी लगना, यात्री बसों और भारी वाहनों में ओवरलोडिंग, सडक़ और पुल-पुलिया निर्माण में तकनीकी त्रुटि, पुल पर बाढ़ होने के बावजूद वाहन पार, वाहन चालन के समय मोबाइल फोन पर बात करने जैसी प्रवृत्ति और मौसम की खराबी जैसे कारण जिम्मेदार हैं। हादसों के लिए सडक़ों की गुणवत्ता भी मुख्य वजह है गुणवत्ता के मामले में भारतीय सडक़ें पूरी दुनिया में 46 वें पायदान पर है।
देश में सडक़ हादसों को रोकने के लिए मोटर व्हीकल एक्ट के साथ ही तमाम तरह के यातायात नियम लागू हैं तथा इन कानूनों व नियमों के पालन सुनिश्चित कराने के लिए सभी राज्यों में भारीभरकम अमला है बावजूद सडक़ दुघर्टनाएं तथा यातायात नियमों के उल्लंघन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। इन दुर्घटनाओं के लिए व्यवस्थागत खामियों के साथ आम लोगों में यातायात नियमों के पालन के प्रति स्व अनुशासन में कमी भी समान रूप से जवाबदेह हैं। प्राय: यह देखने में आ रहा है कि लोगों में यातायात नियमों के पालन की जगह इनके अवहेलना पर जुर्माना पटाने या रिश्वत देने की मानसिकता होती है। शहरों में सिग्नल जंपिंग करना तो आम बात है।
दोपहिया और कार चालन के दौरान हेलमेट और सीट बेल्ट लगाना अनिवार्य है परंतु आम लोगों द्वारा इसके प्रति लगातार लापरवाही बरती जाती है।अनेक हादसों में यह पता चला है कि दुर्घटनाओं के वक्त यदि वाहन चालक हेलमेट या सीट बेल्ट लगाया होता तो मौत से बचा जा सकता था। हालांकि प्रशासन द्वारा इनके उपयोग के लिए बीच बीच में सख्ती दिखाई जाती है लेकिन बाद में फिर ढाक के तीन पात जैसी स्थिति बन जाती है। राष्ट्रीय राजमार्गो और अन्य सडक़ों में बिना पार्किंग लाइट के भारी वाहनों के पार्किंग से भी हादसे हो रहे हैं। आजकल हाईस्पीड कार और बाइक का चलन बढ़ा है जिसे युवा वर्ग बड़ी तेजी से चला रहे हैं फलस्वरूप हादसे हो रहे हैं। शहरों में बाइकर्स ग्रुप बने हुए हैं जो सडक़ों पर तेज रफ्तार से धमाल मचा रहे हैं इनकी वजह से आम राहगीर हादसों की चपेट में आ रहे हैं। इन बाइकर्स गैंग पर अंकुश लगाने में यातायात पुलिस पूरी तरह से नाकाम है अथवा रसूखदारों के सामने आत्मसमर्पण की मुद्रा में है।
बहरहाल सडक़ हादसों के कारण परिवार के कमाऊ सदस्यों की मौत या अपंगता ही नहीं हो रही है बल्कि इससे देश की प्रतिमाएं भी छीन रही है और अर्थव्यवस्था का भी नुकसान हो रहा है। गौरतलब है कि भारत में सडक़ दुघर्टनाओं के चलते हर साल 5.96 लाख करोड़ यानि कुल जीडीपी के 3.14 फीसदी के बराबर नुकसान होता है। इसके अलावा इन हादसों में देश के नामचीन उद्योगपतियों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों एवं संस्कृति कर्मियों, खिलाडिय़ों, राजनेताओं सहित प्रतिभा संपन्न युवाओं की मौत हो रही है जो बौद्धिक संपदा के नुकसान के साथ-साथ समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। बहरहाल भारत में बढ़ती वाहनों की संख्या के साथ सडक़ हादसों को रोकना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। यातायात नियमों के स्व-अनुपालन और प्रशासनिक अमले के निरंतर सजगता से सडक़ हादसों में अंकुश लगाया जा सकता है। इसके लिए सरकार, प्रशासन और आम नागरिकों को अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करना होगा आखिरकार ‘जान है तो जहान है’।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव भरी गर्मी कांग्रेस के लिए लहलहाती फसल उसके गोदाम में भर गया। पार्टी और नेता एक स्वर से जनता और मतदाताओं का शुक्रिया अदा कर रहे कि कर्नाटक में मजहबपरस्ती को धता बताकर धर्मनिरपेक्षता का साथ दिया है। कांग्रेस के मुताबिक 40 प्रतिषत की दर से की जा रही सरकारी कमीशनखोरी, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, महिला विरोधी आचरण और पूरी जनता में निराषा भर देने की हरकतों के खिलाफ वोट देने से लोकतंत्र का चेहरा उजला हुआ है। इसमें कहां शक है कांग्रेस को पिछले चुनाव की 80 सीटों के मुकाबले 57 सीटों का इजाफा हुआ। भाजपा को 38 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। तीसरी पार्टी जनता दल सेक्युलर पिछले चुनाव में विधानसभा में 39 विधायक भेज सकी थी। उसकी ही मदद से पहले सरकार बनी और उसके पहले जुगत बिठाकर उसकी भी सरकार बनी थी। पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा के बड़े बेटे एच. डी. कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने थे। कांग्रेस का खुश होना स्वाभाविक है। उसके नेताओं ने ही करीब 120 सीटें जीतकर बहुमत का आंकड़ा पाने का दावा तो किया था, लेकिन सीटें उससे ज्यादा आईं।
चुनाव में सबसे अजीब बात हुई कि प्रधानमंत्री होकर भी नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के लिए दस दिनों तक पार्टी का ट्रंपकार्ड बनकर गली गली, मोहल्ले मोहल्ले तूफानी प्रचार किया। किसी प्रधानमंत्री ने इतिहास में ऐसा नहीं किया क्योंकि प्रधानमंत्री को ऐसा करना भी नहीं चाहिए। वह संविधान की भावना के खिलाफ है। प्रधानमंत्री का चयन केन्द्र सरकार के मुखिया के रूप में होता है। संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर ने बार बार कहा कि केन्द्र भले मजबूत हो लेकिन उसका चरित्र फेडरल अर्थात् प्रदेशों की समानांतर अहमियत है। यही चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ ने दिल्ली सरकार बनाम लेफ्टिनेन्ट जनरल के मामले में कहा कि संविधान के फेडरल चरित्र की रक्षा करनी है क्योंकि कुछ दायित्व स्वायत्त रूप से प्रदेषों को दिए गए हैं। प्रधानमंत्री को भाजपा की कर्नाटक इकाई को ताकतवर बनाकर प्रचार कार्य का सर्वेक्षण और निरीक्षण कर सकना था। गोदी मीडिया ने जहरीला प्रचार सत्ता के इशारे पर किया कि भाजपा की हालत जहां कहीं चुनाव में खराब होगी, नरेन्द्र मोदी जाकर देवदूत की तरह माहौल पलट सकते हैं। वे अपराजेय योद्धा हैं। उनका जाना ही जीत की गारंटी है। इस मिथक के रचे जाने में मोदी, अमित शाह और जे.पी. नड्डा सहित प्रधानमंत्री कार्यालय और गोदी मीडिया की संयुक्त साजिशी भूमिका रही। यही साफ साफ दिखाई पड़ा। प्रधानमंत्री की देह पर कई टन फूलों की बारिश कराई गई। एक चुनाव प्रचारक के ऊपर उतने फूल तो विजेता के ऊपर भी नहीं बरसाए जाते। पता नहीं अयोध्या लौटने पर राजा राम को भी ऐसा नसीब हुआ भी होगा।
कांग्रेस ने अलबत्ता सांप्रदायिक माहौल उकसाने वाले बजरंग दल पर बैन लगाने की बात कही। इसे भी फूहड़ तरीके से धार्मिक उन्माद में बदलते मोदी और भाजपा ने कह दिया कांग्रेस हिन्दुओं के आराध्य देव बजरंग बली के नाम पर प्रतिबंध लगाने की बात करती है। उसे बजरंग नाम से एलर्जी है। यह अलग बात है कि मध्यप्रदेष के मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने पिछले बरसों में बजरंगबली की सार्वजनिक तौर पर इतनी पूजा की कि नेशनल रिकॉर्ड बन गया है। चुनाव जीतने के बाद प्रियंका गांधी भी हिमाचल में बजरंगबली के मंदिर जाकर पूजा अर्चना कर आईं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने कर्नाटक चुनाव में कहा मैंने अपने जीवन में सौ से अधिक हनुमान मंदिर बनवाए होंगे। कुल मिलाकर कट्टर हिन्दुत्व और सॉफ्ट हिन्दुत्व में भक्ति के अखाड़े में मल्लयुद्ध होता रहा। धर्मनिरपेक्षता कराहती रही। प्रधानमंत्री ने चुनाव नियमों की धज्जियां उड़ाते अपराधिक कृत्य कर दिए। कहा वोट का बटन दबाते समय सबको जय बजंरगबली के नाम लेकर वोट डालना है। ऐसी ही समानान्तर परिस्थितियों में महाराष्ट्र के दमदार नेता बाला साहब ठाकरे को चुनाव कानून के तहत अपात्र भी घोषित किया गया था। मौजूदा चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री के आचरण को लेकर आंख कान सब स्थायी रूप से बंद कर लिए हैं। मामला हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर दस्तक दे सकता है। पक्षकार भी ढूंढ़ रहा होगा। अचरज है और संतोष है प्रधानमंत्री के उन्मादी आचरण और आह्वान का अनुकूल असर नहीं हुआ।
वोटों की अंकगणित में बीजगणित के सवाल सांप की तरह फुफकार रहे हैं। एक समीक्षक ने लिखा 2018 के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक में भाजपा को उतने ही प्रतिशत वोट मिले जितने 2023 के चुनाव में मिले। भाजपा के वोटों में घट बढ़ नहीं हुई। वे जस के तस रहे। कांग्रेस को मिले वोटों में इजाफा उतना ही हुआ जितना जनता दल सेक्युलर के वोट घट गए। जनता दल से करीब 20 सीटें कांग्रेस की ओर खिसकी भी हैं। तब भी कांग्रेस को वोटों की कांट-छांट के कारण कुल 57 सीटों का लाभ हुआ। उसमें से कुछ बीजेपी के खाते में जा सकती थीं। यक्ष प्रश्न है जब तक बीजेपी के वोटों में सेंध लगाकर उनमें कमी नहीं होती। तब तक कांग्रेस की जीत का तात्विक या आर्गेेनिक क्या महत्व हैै? कर्नाटक चुनाव के वक्त उत्तर प्रदेश में नगरपालिका निर्वाचन हुए। नगरपालिक निगम के चुनाव में किसी अन्य पार्टी को एक मेयर तक नहीं मिला। भाजपा ने षत प्रतिशत जीत दर्ज की। उत्तरप्रदेश में हिन्दुत्व और कर्नाटक में धर्मनिरपेक्षता भारतीय लोकतंत्र का अद्भुत लक्षण है।
शायद कांग्रेस ने चुनाव अभियान में प्रो. एम. एन. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं की भूमिका पर चर्चा नहीं की होगी। वे ही घटनाएं कर्नाटक में भाजपा को नफरत के शिखर पर ले जाती सत्ता तक पहुंचाती रहीं। श्रीराम सेना जैसे संगठन के अध्यक्ष प्रमोद मुतालिक आतंक का पर्याय कहे गए। उन्हीं की पार्टी भाजपा की गोवा सरकार ने श्रीराम सेना पर अभी भी प्रतिबंध लगा रखा है। इसी तरह महाराष्ट्र के नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पानसरे की हत्या भी की गई। वह राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी। महिलाओं, बेरोजगार, नौजवानों, पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों की समस्याएं उठाकर उन्हें अपनी पारी में लाने की कांग्रेस की कोशिशें महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यही काफी नहीं है। जब तक हिन्दू मुस्लिम नफरत के सांप्रदायिक घाव का इलाज कर उसे सुखाया नहीं जाएगा। तब तक गैर भाजपाई वोटों को एक साथ लाकर भाजपा का मुकाबला करना फौरी तौर पर इलाज हो सकता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र संविधान के उसूलों को लेकर कैसे मजबूत होगा? मिथकों के अनुसार भी कर्नाटक ही रामायणकालीन किश्किंधा कांड में हनुमान के चरित्र के जरिए संजीवनी बूटी लाने का ब्यौरा रेखांकित करता है। इसलिए बजरंगबली का संदर्भ कर्नाटक के लिए सभी को मुफीद नजऱ आया। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व के जरिए कौशल्या का मायका राजिम में तलाषा है। भाजपा ‘जय श्री राम’ का नारा लगाएगी तो छत्तीसगढ़ में राम को अपनी ननिहाल में ऐसा करने में कैसा लगेगा? यह कांग्रेस का सोच होगा। इक्कीसवीं सदी की राजनीति में संविधान को किनारे रखकर मिथकों, धर्मग्रंथों और नफरती हिंसा के सहारे सियासती दांव पेंच होंगे तो कैसा हिन्दुस्तान बनेगा?
इन सब घटनाओं के बीच सबसे कारगर बात राहुल गांधी ने कही कि हम नफरत के वक्त और जगह में मोहब्बत की फसल उगा रहे हैं। यही हमारी कोशिश है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कर्नाटक में ही भारी बरसते पानी में भीगते राहुल गांधी ने एक लंबी तकरीर की थी। उसे हजारों कर्नाटकवासी खुद भी भीगते हुए सुनते रहे। कांग्रेस के पक्ष में होने वाले विधानसभा चुनाव का परिणाम उसी दिन खामोशी में भविष्य ने सुन लिया होगा। वही वक्त की सही आवाज है। चालीस प्रतिशत सरकारी कमीशन की बात तो एक भाजपा कार्यकर्ता सह ठेकेदार ने बुलन्द की थी। श्रेय उसको तो मिलना चाहिए।
अजीब समय है। भाजपा का ही एक मंत्री चुनाव के दौरान कह गया हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए। नरेन्द्र मोदी, जे. पी. नड्डा और अमित शाह खंडन कर सकते थे, लेकिन नहीं किया। भाजपा कई बार कई प्रदेशों में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारती नहीं। कर्नाटक में ही स्कूली बच्ची को लेकर हिजाब प्रकरण की हिंसा और दंगा फैलता रहा था। हाई कोर्ट में मुकदमा हारने के बाद सुप्रीम कोर्ट से आंशिक राहत मिली। वहां जज सुधांशु धूलिया ने एक नायाब मौलिक फैसला किया। जिस व्यक्ति ने हिजाब का विरोध किया था, वह उम्मीदवार कर्नाटक चुनाव में हार भी गया। कांग्रेस ने भाजपा के वोट बैंक में सेंध तो मारी है। वरना आंकड़ों की अंकगणित में इतनी सफलता कैसे मिलती। जरूरी लेकिन यही है कि जो विचारधारा राजनीति को संविधान के घोषित मकसद और मूल्यों के खिलाफ भडक़ा रही हो, उस पर सार्थक प्रतिबंध लगाने के साथ साथ धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को मैदानी स्तर पर धार्मिक चोचलों से अलग हटकर मुकाबला करने का ढांचा तैयार करना होगा। धर्म एक उन्माद के रूप में फलता फूलता तो है, लेकिन उसकी लंबी उम्र नहीं होती। कर्नाटक ने इसका भी इशारा किया है। नरेन्द्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री को आगामी चुनावों में ताबड़तोड़ प्रचार के जरिए धार्मिक उन्माद फैलाने की देश का अवाम यदि इजाजत नहीं देता। तो लोकतंत्र की मजबूती की उम्मीद तो होनी चाहिए। चुनाव आयोग जैसी लाचार, पक्षपाती और मजबूर संस्था को प्रताडऩा की जरूरत है। यह बात भी सुप्रीम कोर्ट के इजलास तक पहुंचनी चाहिए। सुनते हैं कि मतदान गणना के दिन 13 मई को पिछले दस साल में पहली बार नरेन्द्र मोदी किसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं दिखे।
ध्रुव गुप्त
मेरे कई मित्रों ने देवी-देवताओं और पौराणिक प्रसंगों की मेरी मानवीय, समाजशास्त्रीय और वैज्ञानिक व्याख्याओं से नाराज होकर मुझे सनातन-द्रोही घोषित किया हुआ है। ये वो लोग हैं जिन्हें सनातन का अर्थ तक नहीं पता है। हमारी संस्कृति में सनातन अर्थात शाश्वत वेदों को कहा गया है। वेदों को मानने वाले लोग सनातनी कहे जाते हैं और वेदों का सूत्र वाक्य है -एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति नेह ना नास्ति किंचन’। अर्थात एक ही ईश्वर है और उसके सिवा कोई दूसरा नहीं है - नहीं है, नहीं है, किंचित भी नहीं है। इस सत्य के सिवा वेदों में कोई पूजनीय नहीं है। वेदों में प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की प्रशंसा भर गाई गई हैं। जैसे अग्नि, वायु, नदी, सूर्य, उषा, पृथ्वी, सोम, अदिति, पूषा, वनस्पति, चिकित्सक अश्विन कुमार, वर्षा और बिजली के प्रतीक के रूप में इंद्र, समुद्र के प्रतीक के रूप में वरुण आदि। वेदों के सार उपनिषदों में भी शक्तिपुंज के रूप में एक ही ईश्वर की मान्यता है जिसके हम सब बहुत छोटे-छोटे अंश हैं। उनके अनुसार आत्मसाक्षात्कार द्वारा यदि स्वयं के ऊर्जा की पहचान हो जाय तो ईश्वर की पहचान हो जाएगी क्योंकि जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है। जिन देवी-देवताओं की हम आज पूजा करते हैं उनका कोई उल्लेख वेदों या उपनिषदों में नहीं हैं। ये देवी और देवता वेदों की नहीं, परवर्ती पुराणों की उपज हैं जो हमारे इतिहास के गुप्त काल से लेकर मध्यकाल तक लिखे गए। मैं यह नहीं कहता कि ये सभी देवी-देवता काल्पनिक हैं। इनमें कुछ ऐतिहासिक पात्र भी रहे होंगे जिनके उज्ज्वल चरित्र या कारनामों के कारण उन पर अतिरिक्त चमत्कार आरोपित कर उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया होगा। उनके प्रति मेरे मन में सम्मान की भावना है, लेकिन वे मेरे लिए ईश्वर नहीं हैं।
मैं वेद और उपनिषद वाले ईश्वर को ही मानता हूं। विशुद्ध और निराकार ब्रह्मांडीय ऊर्जा। उसे जानने या उससे एकाकार होने के कई रास्ते हैं, लेकिन मेरा रास्ता यह है कि हमें इस सोच को अपने भीतर उतारना होगा कि हम सब एक ही ईश्वर अथवा ब्रह्मांडीय ऊर्जा के अंश हैं और इसीलिए यह समूची सृष्टि हमारे परिवार का विस्तार है। सृष्टि से संपूर्ण तादात्म्य और उस एकत्व से उत्पन्न संवेदना, प्रेम और करुणा ही ईश्वर से एकाकार होने का रास्ता है। इस अर्थ में मैं सनातन-द्रोही नहीं, आजकल के ज्यादातर सनातनियों से कुछ ज्यादा ही सनातनी हूं।
दिनेश आकुला
कर्नाटक में हाल के चुनाव परिणामों ने दक्षिण भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने की भाजपा की योजनाओं को एक महत्वपूर्ण झटका दिया है। कर्नाटक उस क्षेत्र का एकमात्र राज्य था जहां भाजपा ने एक मुकाम हासिल किया था, और वे तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, केरल और तमिलनाडु जैसे अन्य राज्यों में पैठ बनाने के लिए एक स्प्रिंगबोर्ड के रूप में अपनी सफलता का उपयोग करने की उम्मीद कर रहे थे।
हालांकि, कर्नाटक चुनाव के नतीजों ने उन उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। यह विशेष रूप से भाजपा के लिए चिंता का विषय है क्योंकि आगामी विधानसभा चुनाव दक्षिण भारत के एक अन्य महत्वपूर्ण राज्य तेलंगाना में होने की उम्मीद है। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना था कि कर्नाटक में शानदार जीत से तेलंगाना में भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा और मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में मदद मिलेगी।
अपनी व्यापक योजना में कर्नाटक के चुनावों के महत्व को स्वीकार करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सहित भाजपा के नेतृत्व ने राज्य में पार्टी नेताओं के साथ बैठक के दौरान कर्नाटक में जीत की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने इसे पार्टी का ‘मिशन साउथ’ कहा और इसके महत्व पर बल दिया।
2024 में राष्ट्रीय चुनावों को देखते हुए, भाजपा स्वीकार करती है कि दक्षिण भारत के पांच राज्य-कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना-महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन राज्यों में सामूहिक रूप से 129 लोकसभा सीटें हैं, और इन राज्यों में जीत भाजपा की अगली सरकार बनाने की संभावनाओं के लिए महत्वपूर्ण है। पार्टी का उद्देश्य इन राज्यों में एक साथ कई उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अपनी स्थिति को मजबूत करना था।
इस बीच उत्तरप्रदेश और बिहार में अपने खराब प्रदर्शन से निराश कांग्रेस पार्टी दक्षिण भारत में क्षमता देखती है और इस क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य में खुद को मजबूत करने की उम्मीद करती है। इसके अतिरिक्त तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव का इस क्षेत्र में प्रभाव है।
वाम मोर्चा, हालांकि पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता खो दी, फिर भी केरल पर नियंत्रण बना रहा। तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद, उनकी पार्टी एआईएडीएमके के मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने की संभावना है। हालांकि, बीजेपी का मानना है कि तमिलनाडु में एक मजबूत विपक्षी नेता की कमी है और वह विस्तार के अवसर देखती है। अन्नाद्रमुक के साथ अपने गठबंधन के बावजूद भाजपा तमिलनाडु में प्राथमिक विपक्षी दल की स्थिति के लिए प्रयास करना जारी रखती है।
कर्नाटक के अलावा दक्षिण भारत के शेष चार राज्यों में भाजपा की मजबूत उपस्थिति का अभाव है। कर्नाटक में महत्वपूर्ण हार ने पार्टी के लिए एक नई चुनौती पेश की है।
हालाँकि, एक प्रमुख दक्षिण भारतीय राज्य के एक प्रमुख नेता ने स्वीकार किया कि कर्नाटक की हार एक झटका है, लेकिन यह भाजपा के ‘मिशन दक्षिण’ में किसी भी तरह से बाधा नहीं बनेगी। इसके बजाय उन्होंने जोर देकर कहा कि पार्टी अपने प्रयासों में तेजी लाएगी।
अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा और पार्टी के अन्य नेता दक्षिण भारत के और राज्यों का दौरा करेंगे।
रश्मि सहगल
चारधाम यात्रा से मोटी कमाई होती है और इसी लालच में सरकार ने नाजुक हिमालयीन क्षेत्र में विभिन्न निर्माण गतिविधियों को लेकर चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया है।
अमृतसर के बलजीत सिंह अपने साथियों के साथ 24 अप्रैल को केदारनाथ पहुंचे। उन्हें पता था कि इस साल से तीर्थयात्रियों के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन जरूरी कर दिया गया है और उन्होंने अपने और अपने साथियों का रजिस्ट्रेशन करा लिया। लेकिन बलजीत सिंह और उनकी तरह के तमाम ‘रजिस्टर्ड’ श्रद्धालु बाहर ही रह गए क्योंकि बिना ‘टोकन’ वाले हजारों लोग मंदिर में घुस गए थे। उत्तराखंड के लोगों को रजिस्ट्रेशन से छूट है लेकिन यह पता लगाने का कोई तरीका नहीं था कि कौन राज्य का है और कौन बाहरी। इसके अलावा, तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ का एक असर यह भी हुआ कि केदारनाथ में होटल की दरें आसमान पर पहुंच गईं। एक-एक रात के लिए 15,000 रुपये तक वसूले गए।
बलजीत सिंह ने वहां की अव्यवस्था को बताने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया। उन्होंने कहा, ‘कहां है उत्तराखंड पुलिस जिसे भीड़ को नियंत्रित करने के लिए यहां होना चाहिए था? गरीब तीर्थयात्री भला इतने पैसे कैसे देंगे? उनके पास एक ही रास्ता बचता है- शून्य से नीचे तापमान में खुले आसमान के नीचे रात गुजारते हुए ठंड में कुल्फी बनें। बलजीत कहते हैं, ‘इससे तो अच्छे हमारे गुरुद्वारे हैं। वहां इस तरह की लूट नहीं होती।’
रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी मयूर दीक्षित कहते हैं कि ‘22 अप्रैल को चार धाम यात्रा शुरू होने के बाद रोजाना 15,000 लोग केदारनाथ पहुंच रहे हैं जबकि यहां केवल 7.5 हजार के रहने का इंतजाम है।’
इसके अलावा, मौसम ने भी लोगों की मुसीबतों को बढ़ा रखी है। चारों धाम में भारी हिमपात हुआ है। उत्तराखंड मौसम विभाग के निदेशक बिक्रम सिंह ने हाल ही में लोगों को सुझाव दिया कि फिलहाल वे यात्रा स्थगित कर दें, क्योंकि ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में भारी बर्फबारी का अनुमान है। स्थानीय प्रशासन भी श्रद्धालुओं से यात्रा स्थगित करने की अपील कर रहा है, लेकिन तीर्थ यात्रा को लेकर जिस तरह से प्रचार किया गया है, उसका नतीजा है कि 1 मई को 30,000 तीर्थयात्रियों ने केदारनाथ जाने के लिए पंजीकरण कराया। स्थिति यह है कि 28 अप्रैल तक 22 लाख से ज्यादा लोगों ने चारधाम यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन कराया।
तमाम लोगों ने शिकायत की कि खराब मौसम के बारे में उन्हें कोई पूर्व चेतावनी नहीं मिली जबकि जिलाधिकारी दीक्षित का दावा है कि वह तीर्थयात्रियों से लगातार अपील कर रहे हैं कि अगर उनके पास होटल की कन्फर्म बुकिंग है, तभी यात्रा पर आएं, वर्ना नहीं। इस साल यात्रा शुरू होने के बाद से केदारनाथ में हृदय गति रुक जाने से अब तक तीन लोगों की मृत्यु हो चुकी है जबकि एक अन्य तीर्थयात्री की फिसलकर गौरीकुंड में गिर जाने से मौत हो गई।
एक तीर्थयात्री ने बताया कि गौरीकुंड से केदारनाथ का रास्ता बेहद संकरा है और उसी रास्ते से चलने वाले घोड़े से चोट लग जाने का खतरा होता है। अगर इस घुमावदार रास्ते को छोडक़र शॉर्टकट लें तो सीधी चढ़ाई वाले रास्तों पर चलना और भी मुश्किल होता है। यात्रा के अंतिम 8-10 किलोमीटर कम ऑक्सीजन और तापमान में अचानक गिरावट बुजुर्गों, बीमार और हाई बीपी से पीडि़त लोगों के लिए घातक साबित हो रहे हैं।
चारधाम यात्रा उत्तराखंड के लिए मोटी कमाई और रोजगार का बड़ा मौका होता है। सालाना इससे 7,500 करोड़ की कमाई होती है। पिछले साल लगभग 45 लाख लोगों ने चार धाम की यात्रा की जबकि 1.4 लाख अन्य लोगों ने केदारनाथ यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर सेवा का लाभ उठाया। लेकिन यह सब राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन की कीमत पर हो रहा है। 24 अप्रैल को देहरादून की पर्यावरणविद रीनू पॉल ने देहरादून से केदारनाथ तक 65 हेलीकॉप्टरों की उड़ानें गिनाईं। पॉल ने बताया, ‘बार-बार हेलीकॉप्टर के उडऩे से कार्बन का ज्यादा उत्सर्जन होता है, जो ग्लेशियरों के पिघलने की गति को तेज कर देता है। ध्वनि प्रदूषण होता है, वह अलग।’
पर्यावरण विशेषज्ञ और चार धाम परियोजना पर सर्वोच्च न्यायालय की उच्चस्तरीय समिति के पूर्व सदस्य हेमंत ध्यानी ने चेताया था कि राज्य सरकार नाजुक हिमालय का उसकी वहन क्षमता से अधिक दोहन कर रही है। इस व्यावसायिक शोषण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस साल बड़े पैमाने पर पेटीएम क्यूआर कोड केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिरों के बाहर लगाए गए हैं।
10,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित बदरीनाथ धाम में भी स्थिति बेहतर नहीं है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चाहते हैं कि वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर और उसके आसपास किए गए पुनर्विकास की तर्ज पर केदारनाथ और बदरीनाथ का पुनर्विकास हो। काशी विश्वनाथ विकास परियोजना अहमदाबाद स्थित आर्किटेक्चरल फर्म आईएनआई डिजाइन स्टूडियो को सौंपी गई थी। उन्हें केदारनाथ और बदरीनाथ- दोनों का भी मेकओवर करने को कहा गया है।
पुनर्निर्माण के लिए 1,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि उपलब्ध कराई गई है और इसका इंतजाम मुख्य रूप से सार्वजनिक उपक्रमों से किया गया है। आईएनआई डिजाइन स्टूडियो ने 2022 में केदारनाथ मंदिर के पीछे आदि शंकराचार्य की बड़ी प्रतिमा की परिकल्पना करने में मदद की जिसका उद्घाटन पीएम मोदी ने किया था। पुनर्निर्माण में केदारनाथ मंदिर को सीधे केदारपुरी उपनगर से जोडऩे वाली 70 फीट चौड़ी और 840 फीट लंबी कांक्रीट की सडक़ का निर्माण शामिल है। चूंकि 2013 की बाढ़ शहर के साथ बहती सरस्वती और मंदाकिनी नदियों के कारण आई थी, सरस्वती नदी के साथ 850 फुट लंबी तीन स्तरीय रिटेनिंग वॉल और मंदाकिनी के किनारे 350 फुट के सुरक्षा कवर का निर्माण किया गया है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के विशेषज्ञ नदियों के किनारे दीवार बनाने को गलत बताया है। जाने-माने भूविज्ञानी डॉ. एस सती ने कहा, ‘इन दीवारों पर सैकड़ों करोड़ खर्च किए जा रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र को तबाह कर सकने वाले भूस्खलन या बाढ़ का सामना भला कौन दीवार कर सकती है?’ 21 सितंबर, 2022 को प्रधानमंत्री के दर्शन के बाद बद्रीनाथ में पुनर्निर्माण कार्य तेजी से हो रहा है।
आवास, पार्कों, होटलों के लिए जगह और वाहनों की पार्किंग के लिए भूमिगत सुरंगों के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है। इन साइटों पर काम की निगरानी पीएमओ द्वारा बिना किसी स्थानीय इनपुट के की जा रही है।
जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के प्रमुख अतुल सती बताते हैं कि बदरीनाथ में पुनर्निर्माण कार्य के तहत पुरानी धर्मशालाओं को तोड़ दिया गया है। इससे कई हजार गरीब यात्री फंसे हुए हैं। उन्होंने कहा, ‘जब मैं दर्शन के लिए कतार में खड़ा हुआ, तो बद्रीनाथ मंदिर के बाहर 30,000 लोगों की कतार थी। घंटों इंतजार के बावजूद कई लोग दर्शन नहीं कर पाए।’ सती ने बताया कि ‘पहले लोगों को जोशीमठ के होटलों में ठहराया जाता था। इस वर्ष प्रशासन लोगों को जोशीमठ में ठहरने नहीं दे रहा। देर रात तक बद्रीनाथ तक सडक़ यातायात जारी रहता है जो अपने आप में जोखिम भरा है। दोनों शहरों को जोडऩे वाला गोबिंद घाट मार्ग मरम्मत के लिए अक्सर बंद रहता है।’
भारी बारिश के कारण भूस्खलन बढ़ गया है जिससे तीर्थयात्रियों और स्थानीय लोगों को भारी असुविधा हुई है। सरकार पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इन पहाड़ों पर अचानक इतनी संख्या में लोगों के आने को लेकर बेफिक्र रहती है। इससे भी बुरी बात यह है कि तीर्थयात्री पहाड़ों के किनारों और नदियों में धड़ल्ले से कूड़ा-कचरा फेंकते हैं।
मुख्यमंत्री धामी बुनियादी सेवाओं और सुविधाओं में सुधार के प्रकृति अनुकूल उपाय की बजाय केदारनाथ और बदरीनाथ की तर्ज पर और मंदिर बनाने की योजना बना रहे हैं ताकि बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित किया जा सके। सरकार समझ नहीं रही कि पर्यावरण अनुकूल आचरण का पालन करना उसके दीर्घकालिक हित में है। इस पवित्र देवभूमि का हो रहा राक्षसी दोहन ही इसे नष्ट करने का काम करेगा। (navjivanindia.com)
प्रमोद भार्गव
विकास के मौजूदा तौर-तरीकों के चलते दिन-दूनी, रात-चौगुनी बढ़ती गर्मी ने हमें हलाकान कर दिया है। ऐसे में उसके प्रकोप से बचने के अलावा हमारे पास और क्या रास्ता है? प्रस्तुत है, भीषण गर्मी में अपने को बचाए रखने की तजबीज पर प्रमोद भार्गव का यह लेख।-संपादक
देश में भीषण गर्म हवाएं चल पड़ी हैं। ये हवाएं मुंबई में कहर बनकर टूट भी पड़ी हैं। यहां आयोजित 'महाराष्ट्र भूषण' पुरस्कार समारोह के दौरान तेज धूप के कारण हुई तेरह लोगों की मौत की जानकारी स्वयं मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने दी है। इस आयोजन में भागीदारी करने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह आए थे। खारघर में एक खुले मैदान में अप्पासाहेब धर्माधिकारी को सम्मानित किया गया था। इसी बीच 38 डिग्री तापमान में बैठे लोग तेज धूप की तपन से व्याकुल होने लगे और देखते-देखते सात लोग काल के गाल में समा गए। 24 का उपचार अस्पताल में चल रहा है।
दिल्ली में भी गर्मी बेहाल करने के हालात पैदा करने लगी है। 40.4 डिग्री सेल्सियस से 42.4 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचे तापमान ने पूरी दिल्ली में लू के हालात उत्पन्न कर दिए हैं। पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में भी यह गर्मी कहर बरपा रही है। इसी समय हैदराबाद विश्वविद्यालय के मौसम विभाग के 'जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस' में प्रकाशित अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि पिछले 49 साल में भारत में गर्मी का प्रकोप निरंतर बढ़ा है। लू चलने की घटनाएं हर दशक में बीते दशक से 0.6 बार अधिक हुई हैं, जबकि इसके विपरीत शीत लहर चलने की घटनाएं प्रत्येक दशक में बीते दशक से 0.4 मर्तबा कम हुई हैं। गर्मियों में जब लगातार तीन दिन औसत से ज्यादा तापमान रहता है तो उसे 'लू' कहते हैं। यदि सर्दियों में तीन दिन तक निरंतर औसत से कम तापमान रहता है तो उसे 'शीतलहर' कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार तेज गर्मी या प्रलय आने पर सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर, समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से रस यानी नमी खींचकर सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएं चलने का कारण बनता है। यही हवाएं लू कहलाती हैं। आज कल मौसम का यही हाल है। जब हवाएं आवारा होने लगती हैं तो लू का रूप लेने लगती हैं, लेकिन हवाएं भी भला आवारा होती हैं? वे तेज, गर्म व प्रचंड होती हैं। जब प्रचंड से प्रचंडतम होती हैं तो अपने प्रवाह में समुद्री तूफ़ान और आंधी बन जाती हैं। सुनामी जैसे तूफ़ान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं।
इसके ठीक विपरीत हवाएं ठंडी और शीतल भी होती हैं। हड्डी कंपकंपा देने वाली हवाओं से भी हम रूबरू होते हैं, लेकिन आजकल हवाएं समूचे उत्तर व मध्य भारत में मचल रही हैं। तापमान 40 से 44 डिग्री सेल्सियस के बीच पहुंच गया है, जो लोगों को पस्त कर रहा है। हरेक जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल आमफहम हो गए हैं, हालांकि लू और प्रचंड गर्मी के बीच भी एक अंतर होता है।
मौसम की इस असहनीय विलक्षण दशा में नमी भी समाहित हो जाती है। यही सर्द-गर्म थपेड़े लू की पीड़ा और रोग का कारण बन जाते हैं। किसी भी क्षेत्र का औसत तापमान, किस मौसम में कितना होगा, इसकी गणना एवं मूल्यांकन पिछले 30 साल के आंकड़ों के आधार पर की जाती है। वायुमंडल में गर्म हवाएं आमतौर से क्षेत्र विशेष में अधिक दबाव की वजह से उत्पन्न होती हैं। वैसे तेज गर्मी और लू पर्यावरण और बारिश के लिए अच्छी होती हैं। अच्छा मानसून इन्हीं आवारा हवाओं का पर्याय माना जाता है। तपिश और बारिश में गहरा अंतर्सबंध है।
धूप और लू का यह जानलेवा संयोग सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ा देता है। इसे समय रहते ठंडा नहीं किया तो यह बिगडा अनुपात व्यक्ति को बौरा भी सकता है। शरीर में प्राकृतिक रूप से तापमान को नियंत्रित करने का काम मस्तिष्क में ‘हाइपोथैलेमस’ करता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कार्य ‘पीयूष ग्रंथि’ के माध्यम से ‘तंत्रिका तंत्र’ को ‘अंत:स्रावी प्रक्रिया’ के जरिए तापमान को संतुलित बनाए रखना होता है। इसे चिकित्सा-शास्त्र की भाषा में ‘हाइपर-पीरेक्सिया’ कहते हैं। यानी शरीर के तापमान में असमान वृद्धि या अधिकतम बुखार का बढ़ जाना। इसकी चपेट में बच्चे और बुजुर्ग आसानी से आ जाते हैं।
बाहरी तापमान जब शरीर के भीतरी तापमान को बढ़ा देता है, तो ‘हाइपोथैलेमस’ तापमान को संतुलित बनाए रखने का काम नहीं कर पाता। नतीजतन शरीर के भीतर बढ़ गई अनावश्यक गर्मी बाहर नहीं निकल पाती है, जो लू का कारण बन जाती है। इस स्थिति में शरीर में कई जगह प्रोटीन जमने लगता है और शरीर के कई अंग एक साथ निष्क्रियता की स्थिति में आने लगते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी यानी ‘डी-हाईड्रेशन’ के कारण भी होता है। दोनों ही स्थितियां जानलेवा होती है। इसके निर्माण हो जाने पर बुखार उतारने वाली साधारण गोलियां काम नहीं करतीं। ये दवाएं दिमाग में मौजूद ‘हाइपोथैलेमस’ को ही अपने प्रभाव में लेकर तापमान को नियंत्रित करती हैं, जबकि लू में यह स्वयं शिथिल होने लग जाता है। ऐसे में यदि पानी कम पीते हैं तो हालात और बिगड़ सकते हैं, इसलिए पानी और अन्य तरल पदार्थ ज्यादा पीने की जरूरत बढ़ जाती है। रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन लू को नियंत्रित करता है। लू लगे ही नहीं इसके लिए जरूरी है कि गर्मी के संपर्क से बचें और हल्के रंग के सूती कपड़े या खादी के वस्त्र पहने। सिर पर तौलिया बांध लें और छाते का उपयोग करें। आम का पना, म_ा, लस्सी, शरबत जैसे तरल पेय और सत्तू का सेवन लू से बचाव करने वाले हैं। ग्लूकोज और नींबू पानी भी ले सकते हैं।
हवाएं गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढऩा है। इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पांचवां तत्व यूं ही नहीं माना गया है। (बाकी पेज 5 पर)
सच्चाई है कि यदि आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं होती, तो संभवत: आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते।
हम देख रहे हैं कि कुछ एकाधिकारवादी देश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां भूमंडलीकरण का मुखौटा लगाकर ‘ग्रीन-हाउस गैसों’ के उत्सर्जन से दुनिया की छत यानी ओजोन की परत में छेद को चौड़ा करने में लगे हैं। यह छेद जितना विस्तृत होगा, वैश्विक तापमान उसी अनुपात में अनियंत्रित व असंतुलित होगा। नतीजतन हवाएं ही आवारा नहीं होंगी, प्रकृति के अन्य तत्व मचलने लग जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है और जलीय स्रोतों पर दोहन का दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में प्रकृति से उत्पन्न कठिन हालातों के साथ जीवन यापन की आदत डालनी होगी तथा पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा। (सप्रेस)
श्री प्रमोद भार्गव स्वतंत्र लेखक और पत्रकार हैं।
टी.नवीन
‘कश्मीर फाइल्स’ से प्रेरित होकर फिल्मों और फिल्म निर्माताओं की एक नई नस्ल उभर रही है। एक सरकार जो ‘गुजरात फाइल्स’, ‘गोडसे फाइल्स’ को छिपाना और बंद करना चाहती है, वह चाहती है कि ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरल स्टोरी’, ‘दिल्ली फाइल्स’ और ‘रजाकार फाइल्स’ जैसी फिल्में सामने आएं। ‘द केरला स्टोरी’ नाम की यह फिल्म 5 मई को रिलीज हुई है। फिल्म सुदीप्तो सेन द्वारा निर्देशित और विपुल अमृतलाल शाह द्वारा निर्देशित है। फिल्म का टीजर पिछले साल 2 नवंबर को रिलीज हुआ था और ट्रेलर 27 अप्रैल को रिलीज हुआ था। ये दोनों इस बात का संकेत देने के लिए काफी हैं कि फिल्म किस बारे में है। मैं ‘द केरला स्टोरी’ क्यों नहीं देखना चाहता, इसके ये कारण हैं-
एजेंडा और प्रचार से संचालित फिल्म
अपने पूर्ववर्ती फिल्मों के अनुरूप, यह फिल्म भी एजेंडा और प्रचार से संचालित है। इसका उद्देश्य ‘मुस्लिम’ पुरुषों द्वारा प्रेम के नाम पर ‘निर्दोष हिंदू लड़कियों’ को फंसाने और उन्हें इस्लाम में ‘धर्मांतरित’ करने की साजिश रचने का आख्यान गढऩा है। यह योगी आदित्यनाथ द्वारा गढ़े गए ‘लव जिहाद’ के विचार को अपनाता है और यह दिखाने की कोशिश करता है कि अंतरराष्ट्रीय इस्लामी कट्टरपंथी नेटवर्क की सहायता से केरल में इस साजिश को किस तरह अंजाम दिया जा रहा है। ‘लव जिहाद’ के विचार के निर्माण के अलावा, केरल को एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में दिखाने का भी लक्ष्य है, जहां ‘इस्लामी कट्टरपंथियों’ को पैदा किया जा रहा है।
आधारहीन और तथ्यहीन
टीजऱ और ट्रेलर में दावा किया गया है कि केरल की लगभग 32,000 महिलाओं को इस्लाम में धर्मांतरित किया गया है और आईएसआईएस (ढ्ढस्ढ्ढस्) की सहायता के लिए यमन और सीरिया में भेजा गया है। इस संख्या का स्रोत स्पष्ट नहीं है। इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (आईडीएसए) के डॉ. आदिल रशीद का एक पेपर है, जिसका शीर्षक है ‘व्हाई फ्यूअर इंडियंस हैव जॉइन आईएसआईएस’ (क्यों बहुत ही कम भारतीय आईएसआईएस में भर्ती होते हैं?) है। इसमें कहा गया है कि दुनिया भर में आईएसआईएस के लगभग 40,000 रंगरूट हैं। भारत से 100 से कम प्रवासी सीरिया और अफगानिस्तान में आईएसआईएस क्षेत्रों के लिए रवाना हुए हैं और लगभग 155 को आईएसआईएस से संबंधों के कारण गिरफ्तार किया गया है। विश्व भर में आईएसआईएस भर्ती की विश्व जनसंख्या समीक्षा के आंकड़ों से पता चलता है कि आईएसआईएस रंगरूटों में बड़े पैमाने पर इराक, अफगानिस्तान, रूस, ट्यूनीशिया, जॉर्डन, सऊदी अरब, तुर्की, फ्रांस आदि देशों से भर्तियां हुई थी। सबसे ज्यादा भर्ती मध्य-पूर्व और इसके बाद यूरोपीय संघ के देशों से हुई थी।
केरल के विशिष्ट मामले और आईएसआईएस में शामिल होने वाली केरल की धर्मांतरित महिलाओं को भूल जाईये, तो आईएसआईएस में जाने वाले भारतीय संख्या में नगण्य थे। अपने समकक्ष ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह, यह केवल एक आख्यान का प्रचार करने के लिए बिना किसी आंकड़े और स्रोत के संख्याओं को बढ़ाता है।
सच्चाई को आसानी से छुपाता है
केरल अच्छे कारणों से अधिक चर्चा में रहा है। यह ‘मानव विकास’ के मोर्चे पर अग्रणी राज्य रहा है और एचडीआई मापदंडों पर लगातार शीर्ष पर रहा है। इसके एचडीआई पैरामीटर कई यूरोपीय देशों के बराबर हैं। विकास के ‘केरल मॉडल’ ने नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन सहित प्रमुख अर्थशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया है। यह 100त्न साक्षरता प्राप्त करने वाला पहला राज्य था। कोविड के चरम के दौरान, इसने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि कैसे राज्य और नागरिक समाज द्वारा सहयोगात्मक कार्रवाई से घातक महामारी को रोका जा सकता है।
इसने प्रवासी मुद्दे से निपटने के दौरान एक मानवीय दृष्टिकोण प्रदर्शित किया। कोविड की दूसरी लहर के दौरान जब देश के अन्य हिस्सों में बेतहाशा मौतें हुई, ऑक्सीजन संयंत्रों के निर्माण की दूरदर्शी कार्रवाई से यहां कई मौतों को रोका गया। सामाजिक सद्भाव के मोर्चे पर, धार्मिक बहुलवाद और सांप्रदायिक सद्भाव केरल के अभिन्न अंग हैं। इसलिए केरल में मॉब लिंचिंग, साम्प्रदायिक हिंसा और साम्प्रदायिक दंगों की घटनाएं कम ही सुनने को मिलती हैं। यदि सामाजिक समरसता पर कोई सूचकांक विकसित किया जाता है, तो शायद यह शीर्ष में हो सकता है। इसके बावजूद, यह फिल्म केरल में समाज की सच्चाई को छिपाना चाहती है और इसे इस्लामिक कट्टरपंथी तत्वों द्वारा इस्लामिक राज्य में बदलने के उद्देश्य से कब्जा करने के मामले के रूप में पेश करने की कोशिश करती है।
घातक और विषैला
यह फिल्म केरल के समाज की कोई सकारात्मक सेवा नहीं करती है। इसके बजाय, यह केरल में धार्मिक घृणा के जहर को फैलाने की कोशिश करती है, जो घातक है। एक मुसलमान के इर्द-गिर्द झूठी कहानी गढक़र ऐसा करने की कोशिश की जा रही है, जैसा कि कश्मीर की फाइलों में किया गया था। इसका उद्देश्य इस आख्यान का निर्माण करना है कि एक मुस्लिम होने का मतलब है-एक कट्टरपंथी होना, धर्म परिवर्तन के लिए प्रेरित करने वाला होना और साजिशकर्ता होना। जबकि इससे इंकार नहीं है कि सभी धर्मों में कट्टरपंथी तत्व होंगे, लेकिन यहां कोशिश यह दिखाने की है कि हर मुसलमान कट्टरपंथी है।
दीवारें खड़ी करना और पुलों को हटाना
फिल्म का इरादा धार्मिक समुदायों के बीच दीवारें खड़ा करना है। ‘कश्मीर फाइल्स’ ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दीवारें खड़ी करके ऐसा ही प्रयास किया है। उसी को ‘द केरल स्टोरी’ में दोहराया गया है। दूसरी ओर, यह धार्मिक समुदायों को जोडऩे वाले पुलों को खत्म करना चाहता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि एक विचारधारा, जो धर्म और जाति जैसी कृत्रिम दीवारों को नष्ट करने में विश्वास नहीं करती है, वे उन दीवारों का निर्माण करना चाहेंगी। जबकि अंतर-धार्मिक और अंतरजातीय विवाह के उदाहरण एक अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज के निर्माण की दिशा में एक आंदोलन हो सकते हैं, हिंदुत्व विचारधारा के लिए यह एक साजिश है।
उपरोक्त कारणों के आधार पर, मैं ‘द केरला स्टोरी’ नहीं देखना चाहता और इसका बहिष्कार करूंगा। ऐसी फिल्में केवल बहुसंख्यक धर्म के सदस्यों को कट्टरपंथी बनाने के हिंदुत्व के समर्थकों के उद्देश्य को पूरा करती हैं। ‘कश्मीर फाइल्स’ की तरह ही मैं इस फिल्म को खारिज करता हूं।
(countercurrents.org से साभार, टी नवीन स्वतंत्र लेखक हैं।)
टोक्यो की एक निजी कंपनी आईस्पेस द्वारा हुकाटो-आर मिशन (एम-1) नामक पहला व्यावसायिक ल्यूनर मिशन 11 दिसंबर 2022 को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल से स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। 21 मार्च को इसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। 25 अप्रैल को इसके लैंडर को चंद्रमा की सतह पर उतरना था, लेकिन कुछ तकनीकी समस्या के कारण यह मिशन विफल हो गया। चंद्रमा की सतह से लगभग 90 मीटर ऊपर लैंडर से पृथ्वी का संपर्क टूट गया और नियोजित लैंडिंग के बाद दोबारा संचार स्थापित नहीं हो पाया। संभावना है कि एम-1 लैंडर उतरते वक्त क्रैश हो गया। फिलहाल पूरे घटनाक्रम की जांच जारी है।
गौरतलब है कि 2.3 मीटर लंबा लैंडर सतह पर उतरने के अंतिम चरण में खड़ी स्थिति में था लेकिन इसमें ईंधन काफी कम बचा था। लैंडर से प्राप्त आखिरी सूचना से पता चलता है कि चंद्रमा की सतह की ओर बढ़ते हुए यान की रफ्तार बढ़ गई थी। किसी भी लैंडर के लिए यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें लंबवत रूप से उतरते समय इंजन चालू रखे जाते हैं ताकि वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सतह से तेज़ रफ्तार से न टकराए।
आईस्पेस टीम के प्रमुख टेक्नॉलॉजी अधिकारी रयो उजी बताते हैं कि सतह पर उतरने के अंतिम चरण में ऊंचाईमापी उपकरण ने शून्य ऊंचाई का संकेत दिया था यानी उसके हिसाब से लैंडर चांद की धरती पर पहुंच चुका था। जबकि यान सतह से काफी ऊपर था। ऐसी भी संभावना है कि लैंडर के नीचे उतरते हुए यान का ईंधन खत्म हो गया और गति में वृद्धि होती गई। टीम अभी भी यह जानने का प्रयास कर रही है कि अनुमानित और वास्तविक ऊंचाई के बीच अंतर के क्या कारण हो सकते हैं। इस तरह के यानों में विशेष सेंसर लगाए जाते हैं जो लैंडर और सतह के बीच की दूरी को मापते हैं और उसी हिसाब से लैंडर नीचे उतरता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इन सेंसरों में कोई गड़बड़ी हुई या सॉफ्टवेयर में कोई समस्या थी।
लैंडर के क्रैश होने के कारण उस पर भेजे गए कई उपकरण भी नष्ट हो गए हैं। जैसे संयुक्त अरब अमीरात का 50 सेंटीमीटर लंबा राशिद रोवर जिसका उद्देश्य चंद्रमा की मिट्टी के कणों का अध्ययन और सतह के भूगर्भीय गुणों की जांच करना था; जापानी अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा विकसित एक दो-पहिया रोबोट; और कनाडा की कनाडेन्सिस एयरोस्पेस द्वारा निर्मित एक मल्टी-कैमरा सिस्टम।
मिशन की विफलता के जो भी कारण रहे हों लेकिन यह साफ है कि चंद्रमा पर सफलतापूर्वक लैंडिंग काफी चुनौतीपूर्ण है। फिर भी इस लैंडिंग प्रक्रिया के दौरान प्राप्त डैटा से उम्मीद है कि आईस्पेस के भावी चंद्रमा मिशन के लिए टीम को बेहतर तैयारी का मौका मिलेगा।
(स्रोत फीचर्स)
वंदना
क्या आज की तारीख़ में सिनेमा समाज में प्रोपेगैंडा का एक हथियार बन गया है? हाल ही में आई फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के रिलीज़ होने के बाद ये बहस दोबारा छिड़ गई है, इससे पहले ऐसा कश्मीर फाइल्स के रिलीज के समय हुआ था।
हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी जब कर्नाटक में चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उनका ये बयान खूब वायरल हुआ।
उन्होंने कहा, ‘कहते हैं कि केरला स्टोरी सिर्फ एक राज्य में हुई आतंकवादियों की छद्म नीति पर आधारित है। देश का एक राज्य जहाँ के लोग इतने परिश्रमी और प्रतिभाशाली होते हैं, उस केरल में चल रही आतंकी साजिश का खुलासा इस ‘द केरला स्टोरी’ फिल्म में किया गया है।’
विपक्ष के कई नेताओं का कहना था कि ‘इस्लाम-विरोधी प्रचार’ कुछ फिल्मों का मुख्य नैरेटिव बन गया है जिसका ‘राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश’ सत्ताधारी पार्टी कर रही है।
पश्चिम बंगाल ने फिल्म पर बैन लगा दिया है और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। कुछ राज्यों ने इसे अपने यहां टैक्स फ्री करने का भी एलान किया है। कुछ जगहों पर फिल्म की स्क्रीनिंग राजनेताओं के लिए भी की गई है।
फिल्मों के प्रोपेगैंडा का हथियार बनने के आरोप पर प्रोफेसर इरा भास्कर कहती हैं, ‘अब कई फि़ल्में सिफऱ् बहुसंख्यकों की बात करती हैं। केरला स्टोरी मैंने देखी नहीं है लेकिन जितना उसके बारे में पढ़ा यही लगता है कि वो इस्लाम के खिलाफ खौफ पैदा करने के लिए बनी है।’
वे कहती हैं, ‘कश्मीर पर पहले भी फिल्में बनी हैं-‘मिशन कश्मीर’, लम्हा जिसमें भारत, पाकिस्तान सबकी आलोचना है।’
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सिनेमा के बारे में पढ़ाने वाली प्रोफेसर भास्कर कहती हैं, ‘ये वो फिल्में थीं जो सत्ता के खिलाफ आवाज उठाती थीं लेकिन वो फिल्में इस्लामोफोबिक फिल्में नहीं हैं।’
‘वो दिखाती थीं कि जो कुछ भी हो रहा है वो सही नहीं है, न हिंदुओं के साथ, न मुसलमानों के साथ, लेकिन आज के राजनीतिक हालात में सिनेमा को प्रोपेगैंडा का हथियार बना लिया गया है। इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश हो रही है, चाहे किताबें हों या फिल्में।’
वहीं ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माता विपुल शाह प्रोपेगैंडा के आरोप पर फिल्म के आँकड़ों और प्रधानमंत्री मोदी को अपनी ढाल बनाते हुए कहते हैं, ‘जवाब लोगों ने दे दिया है । शुक्रवार के मुकाबले सोमवार को फिल्म ने और भी ज्यादा कमाई की है।’
निर्माता विपुल शाह कहते हैं, ‘हमारी फिल्म किसी भी समुदाय के खिलाफ नहीं है। हमारी फिल्म आतंकवाद के खिलाफ है।’
विपुल शाह सवाल उठाने वालों पर आरोप लगाते हैं, ‘ये सवाल बार-बार पूछकर आप भडक़ा रहे हैं। हम शुक्रगुजार हैं जेपी नड्डा ने हमारी फिल्म देखी और तारीफ की।’
‘ये कहना बेवकूफी वाली बात होगी, कि चूंकि उन्होंने फिल्म देखी है इससे साबित होता है कि हम बीजेपी के प्रोपेगैंडा वाली फि़ल्म बना रहे हैं।’
क्या कोई नई बात है?
प्रोपेगैंडा की बहस को समझने के लिए अतीत में झाँकना ज़रूरी है। किस्सा 1975 के आस-पास का है जब भारत में इमरजेंसी का दौर था। ये वो वक़्त भी था जब अभिनेता मनोज कुमार अपनी ख़ास तरह की फि़ल्मों की वजह से ‘भारत कुमार’ के तौर पर पहचान बना चुके थे।
मनोज कुमार इंदिरा गांधी के लिए ‘नया भारत’ नाम की फिल्म बना रहे थे लेकिन फिर इमरजेंसी को लेकर आलोचना बहुत बढ़ गई और मनोज कुमार ने फिल्म बनाने से इंकार कर दिया।
इसके बाद मनोज कुमार की आने वाली फिल्म ‘शोर’ रिलीज से पहले ही दूरदर्शन पर दिखा दी गई जिससे थिएटर में रिलीज होने पर फिल्म के कारोबार पर बुरा असर पड़ा। इतना ही नहीं, उनकी एक और फिल्म ‘दस नंबरी’ के रिलीज में भी दिक्कत हुई।
अगर इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की पसंद की फिल्म बनी होती तो वो प्रोपगैंडा फिल्म होती या नहीं, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
सिनेमा बना राजनीति की ढाल?
अभी तो बहस इस बात पर छिड़ी है कि क्या राजनेता ‘द केरला स्टोरी’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों का इस्तेमाल प्रोपेगैंडा के लिए करते हैं या ये कि कई फिल्मकार जान-बूझकर प्रोपगैंडा वाली फिल्में बनाते हैं, प्रोपेगैंडा वाली बहस के बीच ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज के वक्त लेखक राहुल पंडिता ने बीबीसी से बात की थी।
उनका कहना था, ‘कश्मीर फाइल्स फिल्म को इतनी जोरदार सफलता मिली क्योंकि कश्मीरी पंडितों को लगता रहा है कि उनकी कहानी को हमेशा दबाया गया है।’ अगर मैं इस शब्द का इस्तेमाल कर सकूँ तो मैं कहना चाहूँगा कि फिल्म(द कश्मीर फाइल्स) के जरिए कश्मीरी पंडित भावनात्मक मंथन से गुजर रहे हैं।
राहुल ने कहा, ‘मेरी किताब को छपे 10 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी मेरे पास रोज लोगों के ईमेल आते हैं कि उन्हें इस त्रासदी के स्तर का अंदाजा ही नहीं था।’
कश्मीर पर दो चर्चित किताबें लिख चुके अशोक कुमार पांडेय का कहना है, ‘कश्मीरी पंडितों की तकलीफ़ से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कश्मीर फ़ाइल्स एक इकहरी फि़ल्म थी जिसमें यह बात पूरी तरह से गोल कर दी गई कि घाटी के मुसलमान भी आतंकवाद से प्रभावित हुए थे।’
‘दरअसल, आतंकवाद के दौर में घाटी में मारे गए कुल लोगों में अधिक तादाद मुसलमानों की थी लेकिन फिल्म का मक़सद कश्मीर के दर्द को दिखाना कम, और हिंदुओं के पीडि़त होने की भावना को उभारना अधिक था।’
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म में सभी मुसलमानों को खलनायक की तरह पेश किया गया था जबकि सच्चाई यह है कि ढेरों पंडितों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने ही बचाया था।
बहरहाल, सत्ता पक्ष से जुड़े अनेक लोगों ने जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल थे, ‘कश्मीर फाइल्स’ को पूरी तरह सच्ची घटना पर आधारित बताया था।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी फिल्म के कलाकारों को बधाई दी थी।
यह भी दिलचस्प है कि जैसे इस वक्त ‘द केरला स्टोरी’ को कई भाजपा शासित राज्यों ने टैक्स-फ्री कर दिया है। उसी तरह कश्मीर फाइल्स को भी हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में टैक्स से मुक्त कर दिया गया था।
प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं कि नेहरू और दूसरी पार्टियों के शासनकाल में भी विचारधारा से जुड़ी फि़ल्में बनी हैं लेकिन वो क्रिटिकल फिल्में कही जा सकती हैं।
मसलन, कुछ साल पहले जब मनोज कुमार सेहतमंद थे तो उन्होंने बीबीसी से खास बातचीत की थी। उन्होंने बताया था कि ‘उपकार’ फिल्म की प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिली थी।
लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री आवास पर निमंत्रित करके कहा था कि क्या वो ‘जय जवान-जय किसान’ की अवधारणा के इर्द-गिर्द फिल्म बना सकते हैं।
1950 और 60 का दौर नेहरू का था जब देश में उनका कद बहुत ऊँचा था और उनकी नीतियों और आदर्शों की छाप राज कपूर या दिलीप कुमार और दूसरों की फिल्मों पर देखी जा सकती थी।
वहीं जब फिल्म जागृति (1954) में स्कूल का टीचर बच्चों को ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ सुनाता है तो बीच गाने में कैमरा नेहरू की फोटो पर ज़ूम होता है और बोल हैं, ‘देखो कहीं बर्बाद न होवे ये बगीचा।’
हम हिंदुस्तानी (1960) में सुनील दत्त पर फिल्माया गाना ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’। इस गाने में भी आप नेहरू को किसी सम्मेलन में देख सकते हैं जो कांग्रेस का अधिवेशन लगता है।
सॉफ्ट प्रोपेगैंडा बनाम उग्र प्रचार?
तो सवाल उठता है कि क्या ये आदर्शों से प्रभावित फि़ल्में थीं या ये भी एक तरह का सॉफ्ट प्रोपेगैंडा था और अब ‘द केरला स्टोरी’ में जो हो रहा है वो उसी का बड़ा और उग्र रूप है?
इरा भास्कर अपनी बात कुछ यूँ रखती हैं, ‘पहले की फि़ल्में किसी समुदाय के खिलाफ नहीं होती थीं, वो विकास से जुड़ी हुई या समुदायों को जोडऩे वाली फिल्में थीं। दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ ऐसी ही फिल्म थी जिसमें विकास की बात थी।’
मेघनाद देसाई ने तो इस पर एक किताब भी लिखी है नेहरूज हीरो-दिलीप कुमार इन द लाइफ ऑफ इंडिया।
वो लिखते हैं, ‘दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ नेहरूवियन फिल्म थी। फिल्म दिखाती है कि लोगों में देश को लेकर एक तरह का गौरव का भाव था, जब वो गाते हैं, ‘ये देश है वीर जवानों का’। इसमें जैसे तांगे और मोटर गाड़ी का टकराव है, वो नेहरू के दौर में आधुनिकीकरण और गांधी की सोच को दर्शाता है।’
आज के दौर की बात करें तो जब 2022 में विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ रिलीज हुई जिसने समाज को दो फाड़ कर दिया।
कश्मीर फाइल्स एक यूनिवर्सिटी छात्र की काल्पनिक कहानी है जिसे पता चलता है कि उसके कश्मीरी हिंदू माता-पिता की हत्या इस्लामिक चरमपंथियों ने की थी।
मोदी के भाषण में केरला स्टोरी का जिक्र क्यों?
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में फि़ल्म का जिक्र करते हुए कहा था, ‘कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया गया है उस सत्य को सालों तक दबाने का प्रयास किया गया। कुछ लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात करते हैं। आपने देखा होगा, इमरजेंसी इतनी बड़ी घटना, कोई फिल्म नहीं बना पाया।’
‘कई सत्य को दबाने का लगातार प्रयास किया गया। जब हमने भारत विभाजन के दिन 14 अगस्त को हॉरर डे के रूप में याद करने का फैसला लिया तो कई लोगों को बड़ी मुसीबत हो गई। कैसे भूल सकता है देश। क्या भारत विभाजन पर कोई ऑथेंटिक फिल्म बनी?’
इससे पहले विवेक अग्निहोत्री द ‘ताशकंद फाइल्स’ की भी इस बात की आलोचना हुई थी कि उसमें अफवाहों को तथ्य के तौर पर दिखाया गया जिसके बाद शास्त्री के पोते ने कानूनी नोटिस भेजा।
सवाल ये भी उठ रहा है कि एक प्रधानमंत्री का बार-बार यूँ विवादित फिल्मों का उल्लेख करना कहाँ तक सही है।
‘द केरला स्टोरी’ के ट्रेलर को लेकर ही विवाद हो गया था जब ये दिखाया गया था, ‘केरल की 32 हजार महिलाएँ जिहाद में शामिल हो गई हैं।’
जब अदालत ने फिल्म के निर्माता से पूछा कि 32 हजार का आँकड़ा कहाँ से आया, तो वो जिसे अब तक ‘तथ्य’ बता रहे थे, उसका जिक्र ट्रेलर से हटाने को राज़ी हो गए।
फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी कहते हैं, ‘इन फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों का दावा है कि ये फिल्में सत्य घटनाओं पर आधारित हैं, लेकिन ये घटनाएँ ज़्यादा पहले की नहीं हैं इसलिए कई बातें लोगों की जानकारी में हैं जिसकी पुष्टि वो खुद कर सकते हैं।’
वे कहते हैं, ‘कोई भी ये समझ सकता है कि फिल्ममेकर्स का मकसद आम आदमी को उकसाकर, उसका राजनीतिक फायदा उठाना है। इसमें दिए गए तथ्य आधे-अधूरे हैं और विषय-वस्तु को जान-बूझकर भगवा रंग देने की कोशिश की गई है।’
‘मुसलमानों को खलनायक या समाज में बुराई की एकमात्र जड़ के रूप में दिखाया गया है।’
रौनक कोटेचा दुबई में फिल्म समीक्षक हैं जहाँ केरल समुदाय भी बसा हुआ है। वे कहते हैं, ‘यहाँ बसे भारतीयों का मकसद सिर्फ रोजी-रोटी कमाना और शांति से रहना है।’ ‘इसलिए। ज़्यादातर लोग यहाँ पर इन सब बातों पर चुप ही रहते हैं। यहाँ के मीडिया में भी आपको ‘द केरला स्टोरी’ पर ज़्यादा कुछ सुनाई नहीं देगा।’
सिनेमा और राजनीति का उलझा रिश्ता
वैसे सिनेमा और राजनीति का उलझा हुआ नाता रहा है। जहाँ कुछ फिल्मों को राजनीतिक प्रोपेगैंडा के हथियार बनाने का आरोप लगा तो कुछ फि़ल्मों ने सत्ता को चुनौती दी।
जब फि़ल्म 'किस्सा कुर्सी का' आई तो संजय गांधी पर आरोप था कि इमरजेंसी के दौरान 1975 में बनी फि़ल्म के प्रिंट उनके कहने पर जला दिए गए थे।
इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को इस मामले में दोषी पाया था और कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया हालांकि बाद में फ़ैसला पलट दिया गया ।
फि़ल्म में संजय गांधी और उनके कई करीबियों का मज़ाक बनाया गया था। शबाना आज़मी गूँगी जनता का प्रतीक थी, उत्पल दत्त एक बाबा के रोल में थे और मनोहर सिंह एक राजनेता के रोल में थे जो एक जादुई दवा पीने के बाद अजब-गज़़ब फ़ैसले लेने लगते हैं।
इसी तरह 1978 में आईएस जौहर की फिल्म ‘नसबंदी’ भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का मज़ाक उड़ाती थी जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेट ने काम किया था। फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसबंदी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया।
फिल्म का एक गाना था ‘गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’ जिसके बोल कुछ यूँ थे, ‘कितने ही निर्दोष यहाँ मीसा के अंदर बंद हुए/अपनी सत्ता रखने को जो छीने जनता के अधिकार/गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’
इसे इत्तेफाक कहिए या सोचा-समझा क़दम कि ये गाना किशोर कुमार ने गाया था। दरअसल, इमरजेंसी के दौरान किशोर कुमार उस वकत बहुत नाराज हो गए थे जब उन्हें कांग्रेस की रैली में गाने के लिए कहा गया।
प्रीतिश नंदी के साथ छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।’
जब इमरजेंसी के दौरान कलाकारों ने उठाई आवाज
किशोर कुमार और देव आनंद ने जिस तरह इमरजेंसी का विरोध किया इसके किस्से तो जगज़ाहिर हैं।
देव आनंद तो इतने नाराज थे कि उन्होंने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया नाम की राजनीतिक पार्टी तक बनाई थी। शिवाजी पार्क में इसका बड़ा जलसा भी हुआ।
मैं समझ गया था कि मैं उन लोगों के निशाने पर हूँ, जो संजय गांधी के करीब हैं।
सिनेमा, कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट, प्रोपेगैंडा ।।ये तार उलझे हुए लगते हैं लेकिन इसमें कई अपवाद भी रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने सिनेमा प्रेम के लिए जाने जाते रहे हैं। फिल्म ‘कोई मिल गया’ की खास स्क्रीनिंग राकेश रोशन ने वाजपेयी के लिए रखी थी लेकिन उस वक्त कोई विवाद नहीं हुआ था।
इतना ही नहीं, आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ (2007) की ख़ास स्क्रीनिंग लालकृष्ण आडवाणी के लिए रखी थी जिसके बाद ये सुर्खी मशहूर हुई थी कि फिल्म ने फिल्म क्रिटिक रहे आडवाणी को रुला दिया था।
जबकि इससे पहले 2006 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण आमिर संघ परिवार के निशाने पर थे और आमिर की फिल्म ‘फना’ गुजरात में बैन भी कर दी गई थी।
प्रोपैगैंडा बनाम मनोरंजन
पिछले कई सालों से भारत में ऐसी फि़ल्में बन रही हैं जो देश में लोकप्रिय मुद्दों और सरकार की नीतियों के अनुरूप कहानियाँ चुन रही हैं।
स्वच्छ भारत को देखते हुए ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ और उद्यम को बढ़ावा देने की सरकार की नीति को ध्यान में रखकर बनी ‘सुई-धागा’ सरकारी योजनाओं के प्रचार पर आधारित लगती हैं।
देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर में ऐसी ऐतिहासिक फि़ल्मों की बाढ़ आ गई है जिनमें हिंदू सेनानियों की वीरता और ‘मुसलमान आक्रांताओं’ की क्रूरता को दिखाया जा रहा है, जैसा कि फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी ने भी कहा। तानाजी, पृथ्वीराज, पद्मावत, पानीपत और बाजीराव मस्तानी वगैरह ऐसी फिल्में हैं।
धर्म, समुदाय, दंगों और जातीय हिंसा को लेकर भी फिल्में बनती रही हैं। पंजाब के हालात को लेकर 90 के दशक में गुलजार ने ‘माचिस’ बनाई। राहुल ढोलकिया की ‘परज़ानिया’ आई।(बाकी पेज 5 पर)
पंजाब में दंगों पर ‘पंजाब 1984’ आई। बँटवारे से पहले हुई धार्मिक हिंसा पर ‘तमस’ जैसी टेलीफि़ल्म बनी। ‘गर्म हवा’ में बँटवारे के बाद का दर्द दिखाया गया। 1959 में जब यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म निर्देशित की तो एक ऐसे मुसलमान व्यक्ति पर बनाई जो एक नाजायज हिंदू बच्चे को गोद लेता है और दो साल बाद ही वो ‘धर्मपुत्र’ बनाते हैं जो बँटवारे के बाद एक हिंदू युवक, उसकी धार्मिक कट्टरता और बदलाव की कहानी है।
इन पर प्रोपेगैंडा के आरोप नहीं लगे, लेकिन आज के बँटे हुए समाज में ये अंतर धूमिल-सा होता दिखता है कि किस फिल्म में समाज की सच्चाईयों को दिखाने की कोशिश की गई है, कहाँ केवल कोरा प्रोपेगैंडा है।
जैसा कि कश्मीर फाइल्स से जुड़ी एक बातचीत में डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सिद्धार्थ काक ने कहा था, ‘कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर कहा गया कि यही सच है। लेकिन कश्मीरी पंडितों की कहानी आप तब तक नहीं बता सकते जब तक आप पिछले 30 सालों के कश्मीर की कहानी न बताई जाए।’
‘शायद यही वजह है कि फिल्मों में इनकी कहानी पहले नहीं दिखाई गई क्योंकि इन जटिल मुद्दों को जिस तरह परत-दर-परत दिखाने की जरूरत है, उसे कहने का शायद स्पेस ही नहीं है।’
अंत में जिक्र मनोज कुमार का, उन्होंने राज्यसभा टीवी को दिए गए इंटरव्यू में कहा था, ‘मुझे राग दरबारी बहुत पसंद है लेकिन मैं इंसान दरबारी नहीं हूँ। मैं किसी नेता के ड्राइंग रूम में बैठने वाला नहीं हूँ। मेरी नेता मेरी पब्लिक है।’ (bbc.com/hindi)