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​यूपी के मलियाना में 72 मुसलमानों की हत्या के केस को कैसे किया गया कमजोर
19-Apr-2023 4:19 PM
​यूपी के मलियाना में 72 मुसलमानों की हत्या  के केस को कैसे किया गया कमजोर

कीर्ति दुबे

‘23 मई, 1987 मेरठ के मलियाना गाँव की गलियों में मुन्ना अपनी छह साल की बेटी को लिए भागता है, तभी एक गोली उनकी बेटी के माथे को चीर देती है। लेकिन जब तक मुन्ना कुछ समझ पाता, एक दूसरी गोली उसके सीने में धँस जाती है और दोनों बाप-बेटी वहीं दम तोड़ देते हैं।’

मेरठ के मलियाना गाँव के रहने वाले मोहम्मद याकूब जब ये बात बताते हैं, तो सब कुछ मानों उनकी आँखों के सामने चल रहा हो। जब उन्होंने ये सब देखा था, तो उस वकत उनकी उम्र 30 साल थी और आज वो 66 साल के हो चुके हैं।

साल 1987 में मेरठ के मलियाना गाँव में 72 मुसलमानों की हत्या की गई थी और उनके घर जला दिए गए थे।

17 मई 1987 को मेरठ में हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए और तीन महीने तक मेरठ दंगों की आग में जलता रहा।

23 मई 1987 को दोपहर तक मेरठ के मलियाना में सब कुछ शांत था। लेकिन अचानक दोपहर की नमाज़ के बाद मुसलमानों पर हमले शुरू हो गए और गोलियाँ चलने लगी।

दंगाइयों की भीड़ मुसलमानों को निशाना बना कर उन्हें मारने लगी। मुसलमानों के घरों में आग लगा दी गई। मुसलमानों को निशाना बनाकर आग लगाई गई, बच्चों को जलती आग में फेंक दिया गया।

पीडि़त लोगों ने इस हिंसा के लिए प्रादेशिक आम्र्ड कॉन्टेब्यूलरी यानी पीएसी को जिम्मेदार ठहराया और उस पर गंभीर आरोप लगाया।

हालाँकि इस मामले में जब एफ़आईआर दर्ज हुई, तो इसमें ना तो किसी पुलिसवाले और ना ही पीएससी के लोगों को नामज़द किया गया।

36 साल के इंतज़ार और 900 सुनवाइयों के बाद बीते 31 मार्च को कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया।

अदालत ने सबूतों के अभाव और गवाहों के बयानों में प्रमाणिकता की कमी के कारण सभी 38 अभियुक्तों को बरी कर दिया।

72 मुसलमानों को किसने मारा?

इस हिंसा के बारे में जानने के लिए हम मेरठ के मलियाना पहुँचे, जहाँ ये नरसंहार हुआ।

अब ये गाँव क़स्बे में तब्दील हो चुका है। अगर कुछ नहीं बदला है, तो वो है यहाँ के लोगों के बीच फैला डर और निराशा।

उनके पास एक सवाल भी है- अगर सभी निर्दोष हैं, तो हमारे अपनों को किसने मारा?

ऐसा फ़ैसला क्यों आया? क्यों कोर्ट ने सभी 38 अभियुक्तों को बरी कर दिया?

एक नरसंहार का केस इतना कमज़ोर कैसे हो गया कि इसमें कोई अपराधी ही साबित नहीं हो सका।

हमने यही समझने के लिए इस केस की 35 साल पुरानी चार्टशीट पढ़ी, गवाहों के बयान पढ़े और 31 मार्च को आया सेशन कोर्ट का ऑर्डर पढ़ा।

जब 17 मई को मेरठ में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने यहाँ पीएसी की 11 टुकडिय़ाँ भेजी, ताकि हालात को काबू करने में प्रशासन को मदद मिले।

लेकिन आरोप लगा कि पीएसी ने दंगों के दौरान मुसलमानों को निशाना बनाया।

मलियाना नरसंहार से ठीक एक दिन पहले यानी 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा नरसंहार हुआ था।

इसमें 42 मुसलमानों को गोली मार कर नहर में फेंकने के मामले में 16 पीएसी जवानों को दोषी ठहराया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई।

मलियाना में कई चश्मदीद गवाहों ने बीबीसी को बताया कि उस दिन मुसलमानों के खिलाफ हुई हिंसा में पुलिस और पीएसी शामिल थी।

वकील अहमद इस मामले में बयान दर्ज कराने वाले पहले शख़्स थे। उन्हें उस दिन कमर पर गोली लगी थी। 36 साल बाद वकील के जख़़्म तो भर गए हैं, लेकिन निशान गहरा है।

वे कहते हैं, ‘यहाँ जो कुछ भी हुआ, उसकी शुरुआत पीएसी ने की। पहले पुलिस और पीएसी ने हमला शुरू किया और फिर दंगाइयों की भीड़ आ गई। मुझे गोली किसने मारी, मैं नहीं देख सका, लेकिन मैंने उन लोगों को जरूर देखा, जो लोग आगजनी कर रहे थे। मैंने उन सबको कोर्ट में पहचाना है। लेकिन हुआ ये कि पुलिस, पीएएसी चूँकि खुद हत्याओं में शामिल थी, तो उसने जितना इस केस को बिगाड़ सकती थी, बिगाड़ दिया ताकि कभी ये केस अंजाम तक ना पहुँचे।’

पेशे से दर्जी वकील अपनी बात कहते-कहते उस स्टूल से उठ खड़े होते हैं जिस पर बैठ कर वह सफेद पायजामा सिल रहे थे।

कुछ देर बाद वो हमें अपनी 36 साल पुरानी मेडिकल की पर्ची दिखाते हैं, जिसमें लिखा है कि 23 मई को उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया और डेढ़ महीने उनका इलाज चला और उनका ऑपरेशन हुआ।

पुलिस और सरकार का पक्ष

बीबीसी पीएसी और पुलिस पर लगे आरोपों का जवाब जानने के लिए मेरठ पीएसी के दफ्तर पहुँचा।

वहाँ हमें बताया गया कि कोई भी अधिकारी इस पर बात करने के लिए उपलब्ध नहीं है।

हमने मेरठ पुलिस के एएसपी रोहित साजवान से भी संपर्क किया, लेकिन उन्होंने भी हमसे बात करने से इनकार कर दिया।

इसके बाद हमने उत्तर प्रदेश सरकार का रुख जानने के लिए राज्य के गृह मंत्रालय के मुख्य सचिव और राज्य की पुलिस से मेल और फोन कॉल के जरिए संपर्क किया लेकिन हमें अब तक कोई जवाब नहीं मिला है।

अचानक नरसंहार की एफआईआर का गायब होना

24 मई, 1987 को मोहम्मद याकूब ने मलियाना में हुए नरसंहार को लेकर एफआईआर दर्ज कराई थी।

चूँकि याकूब लिख नहीं सकते थे, इसलिए एफआईआर की तहरीर मलियाना गाँव के रहने वाले सलीम सिद्दीक़ी ने लिखी थी।

इस मामले में 94 लोगों को नामजद किया गया था।

जिन 94 लोगों के नाम लिखे गए, उनमें से कई लोगों की मौत हो गई और कई का कभी पता ही नहीं लग सका।

इस मामले में कुछ ऐसे लोगों को भी नामजद कर लिया गया था, जो घटना के पहले ही मर चुके थे।

लिहाजा ये ट्रायल 38 अभियुक्तों के खिलाफ चला।

23 जुलाई 1988 को इस मामले में आठ पन्ने की चार्जशीट फाइल की गई।

लेकिन इसके बाद भी लगभग 20 साल तक केस का कोर्ट में ट्रायल ही नहीं शुरू हो सका।

वजह थी एफ़आईआर का बड़े ही रहस्यमय तरीके से गायब हो जाना।

प्राइमरी एफआईआर के गायब होने की सूरत में कोर्ट में ये कह कर सुनवाई टाली जाती रही कि जिस मामले की असल एफ़आईआर ही नहीं है, उस पर आखिर सुनवाई कैसे होगी।

साल 2009 में कोर्ट में पहले चश्मदीद वकील अहमद का बयान दर्ज किया गया।

एफ़आईआर लिखवाने वाले याकूब बताते हैं, ‘उस दिन (23 मई, 1987) जब मैं बाहर आया, तो गोलियों की आवाज और चारों तरफ आग थी। कई लोग जो अपने घरों में छिप गए थे, उनके घरों को बाहर से कुंडी लगा कर उन्हें घर के साथ आग के हवाले किया गया। लेकिन अब जो फैसला आया है, उसके बाद मेरा एक ही सवाल है कि अगर उन लोगों ने हमें नहीं मारा, पुलिस-पीएसी ने कुछ नहीं किया, तो आखिर हमारे लोग कैसे मर गए? क्या हमने ख़ुद को आग लगाई थी?’

आखिर याक़ूब थाने तक कैसे पहुँचे थे, इस पर वे विस्तार से जानकारी देते हैं।

वे कहते हैं, ‘पीएसी के लोगों ने मेरे कपड़े उतरवाएँ और हाथ बाँध कर मुझे गाँव के बाहर लेकर गए, शायद मैं भी मर जाता, लेकिन एक पुलिस वाले ने मुझे गाड़ी में बिठाया और टीपी नगर थाने लेकर गया। वहाँ रात भर तो मैं अचेत पड़ा रहा, लेकिन अगले दिन सुबह मैंने थानेदार से कह कर अपनी शिकायत सलीम भाई के हाथों लिखवाई। लेकिन ये एफआईआर पता नहीं कैसे गायब हो गई। कई सालों तक कोर्ट थाने के चक्कर लगाए, लेकिन वो एफआईआर नहीं मिली।’

ना मेडिकल रिपोर्ट, ना गवाहों से सही तरीके से बयान

इस केस में 35 गवाहों के नाम थे, लेकिन कोर्ट में सिर्फ 14 गवाह पेश किए गए।

लेकिन कोर्ट के सामने भारतीय दंड संहिता 161 के तहत इनमें से कई गवाहों के दर्ज बयानों को पेश ही नहीं किया गया।

या यूँ कहें कि 161 के तहत कई गवाहों के बयान पुलिस ने लिए ही नहीं।

आईपीसी के तहत दर्ज बयान का मतलब है, वो बयान जो पुलिस अधिकारी के सामने दर्ज किया गया हो।

ये बयान वैसे तो कोर्ट में कानूनी रूप से वैध नहीं होते।

लेकिन सेशन जज लखविंदर सिंह सूद ने अपने फैसले में कहा है कि कई गवाहों के 161 के तहत बयान ना होने से इतने पुराने केस में जब लगभग 30 साल बाद बयान दर्ज होने शुरू हुए, तो ये समझना मुश्किल हो गया कि उस वक़्त गवाह ने पुलिस से क्या बताया था।

मलियाना नरसंहार का मामला यूपी राज्य बनाम 38 अभियुक्तों के खिलाफ था। लिहाजा इस केस में मुसलमानों की पैरवी सरकारी वकील कर रहे थे।

इस केस में जिन लोगों को चोट आई थी और जिन्होंने गवाही दी, उनकी मूल मेडिकल रिपोर्ट तक कोर्ट में पेश नहीं हुई। इसे इस तरह समझिए कि इस मामले में पहले चश्मदीद गवाह वकील अहमद को गोली लगी, लेकिन अभियोजन पक्ष ने कोई मेडिकल दस्तावेज नहीं दिखाए।

इतना ही नहीं जिन भी गवाहों ने अपने चोटिल होने की बात बताई, उसके समर्थन में कोई भी मेडिकल रिपोर्ट नहीं दी जा सकी।

ना ही पीडि़तों का इलाज करने वाले डॉक्टरों की गवाही हुई।

इस मामले में मेरठ सेशन कोर्ट के सरकारी वकील सचिन मोहन ने बीबीसी को बताया, ‘ये मामला काफ़ी साल पुराना है, ऐसे में पुलिस ने जो उस वक्त नहीं किया उसकी वजह से ये केस कमजोर हुआ। इस मामले में डॉक्टर जिंदा ही नहीं हैं, तो उनका गवाह कैसे हो पाता। जाँचकर्ता को ये सारे कागज़ उस वक़्त ही जुटाने चाहिए थे।’

जिन लोगों की मौत गोली लगने से हुई थी, उस मामले में हथियार कभी बरामद ही नहीं किए और लिहाजा ये साबित भी नहीं हो सका कि गोली किसने चलाई या ये लोग किसकी गोली से मारे गए।

उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डायरेक्टर जनरल विभूति नारायण राय मेरठ दंगों के दौरान 1987 में गाजियाबाद से एसपी थे।

विभूति नरायाण वो पुलिस अधिकारी हैं, जिन्होंने हाशिमपुरा मामले की शुरुआती जाँच की और एफआईआर दर्ज की। इस मामले में 16 पीएसी वालों को आजीवन कारावास हुई।

वे कहते हैं, ‘मलियाना नरसंहार में पुलिस और राज्य दोनों की पीडि़तों को न्याय दिलाने की मंशा नहीं थी। अगर हथियार सीज किए गए होते, तो बंदूकों का बैलिस्टिक टेस्ट होता और पता चल जाता कि किस फायरआम्र्स से गोलियाँ चली हैं। लेकिन जब ये हुआ ही नहीं, तो ये कैसे पता चलता। मलियाना नरसंहार दिन के उजाले में हुआ और हाशिमपुरा को रात के सन्नाटे में अंजाम दिया गया। लेकिन फिर भी हमने एक्शन लिया और एक सर्वाइवर हमें मिला, जिसके बयान से हाशिमपुरा के 42 मुसलमानों को न्याय मिला लेकिन मलियाना में सबूतों की कोई कमी ना होने के बावजूद जाँच से लेकर केस लडऩे तक के स्तर पर ढिलाई का नतीजा ये है कि आज कोर्ट ने किसी को उन उन मुसलमानों का गुनहगार नहीं माना।’

इस केस में किस स्तर की ढिलाई पुलिस और अभियोजन पक्ष के स्तर पर की गई, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि इस केस में पीडि़त परिवारों की पैरवी कर रहे सरकारी वकील सचिन मोहन ने बीबीसी को बताया कि ‘एफआईआर लिखने वाले शख्स सलीम सिद्दीक़ी को कोर्ट की ओर से तीन बार समन किया गया, लेकिन वो कहाँ हैं, इसका कोई पता नहीं, उन्हें भी ट्रेस नहीं किया जा सका।’

लेकिन जब हम मलियाना गाँव पहुँचे, तो बड़ी आसानी से हमें सलीम का घर मिला, जहाँ वे अपने परिवार के साथ रहते हैं।

सलीम ने बताया कि उन्हें कभी कोर्ट ने समन नहीं किया।

23 मई, 1987 के बारे में वे कहते हैं, ‘कई लोग जख़़्मी थे और टीपीनगर थाने में थे। मेरी उम्र उस वक्त 35 साल थी और मैंने हाल ही में वकालत पूरी की थी। मैं गाँव के उन चंद लोगों में से एक था, जो हिंदी पढ़ लिख सकता था। इसलिए थाने में मुझे बलाया गया। जिन 93 लोगों के नाम मैंने तहरीर में लिखे थे, वो थाने में मौजूद कई पीडि़तों ने लिए थे और सबको मिलाकर एक तहरीर तैयार की गई थी।’

न्यायिक जाँच की रिपोर्ट कभी सामने नहीं आई

27 मई 1987 को यूपी के तत्कालीन सीएम वीर बहादुर सिंह ने मलियाना नरसंहार की न्यायिक जाँच के आदेश दिए और इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जीएल श्रीवास्तव को रिपोर्ट बनाने का काम दिया गया।

जस्टिस श्रीवास्तव ने 84 चश्मदीदों के बयान के आधार पर रिपोर्ट तैयार की, लेकिन वो रिपोर्ट कोर्ट में पेश ही नहीं हुई और ना ही कभी सार्वजनिक की गई।

मलियाना मामले में वकील अल्लाउद्दीन सिद्दीकी सरकारी वकील के साथ काम कर रहे थे।

चूँकि मलियाना हिंसा के पीडि़त आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं, ऐसे में अल्लाउद्दीन उनकी ओर से पैरवी बिना पैसों के ही कर रहे थे।

अल्लाउद्दीन सिद्दीकी ने जस्टिस श्रीवास्तव के साथ भी रिपोर्ट बनाने के दौरान काम किया था।

वो कहते हैं, ‘जस्टिस श्रीवास्तव की रिपोर्ट में क्या था वो आज तक ना तो कोर्ट में बताया गया और ना ही प्रशासन के जरिए सामने लाया गया।’

सिद्दीक़ी ये भी बताते हैं कि अब जस्टिस श्रीवास्तव का निधन हो चुका है, तो ऐसे में कोई ये सामने नहीं ला सकता कि उस वक्त न्यायिक जाँच में उन्हें क्या मिला।

जब कोर्ट ने बीते 31 मार्च को अपना फ़ैसला सुनाया, तो उस वक्?त अलाउद्दीन सिद्दीकी कोर्ट में मौजूद ही नहीं थे। पीडि़त पक्ष की ओर से केवल सरकारी वकील ही मौजूद थे।

इस फैसले पर सिद्दीकी कहते हैं, ‘अभी तो गवाहों के बयान पूरे नहीं हुए थे। लेकिन कोर्ट ने अचानक फैसला सुना दिया। सीआरपीसी 313 के तहत कोर्ट अभियुक्तों से उनके खिलाफ पाए गए सबूतों पर सवाल करता है, जो यहाँ हुआ ही नहीं। आज फैसला देते हुए जज साहब ने बयानों पर संदेह जताया, लेकिन जब बयान हो रहे थे, तभी जज ने क्यों नहीं बोल दिया कि ये कैसे बयान है?’

‘इसे साबित कैसे करेंगे, वकील से तभी जज साहब ने ये बात क्यों नहीं कह दी? सबसे बड़ा सवाल तो ये होना चाहिए कि अगर गवाह कोर्ट में सबूतों के आधार पर साबित नहीं हो पाए तो, ये किसकी गलती है, जाहिर सी बात है कि सरकारी वकील, जो इस केस में पीडि़त मुसलमानों के लिए लड़ रहे थे, उनकी जि़म्मेदारी थी कि वो कोर्ट में अपने गवाहों को सच साबित करें। कोई नहीं चाहता था कि इस केस में किसी को सजा मिले।’

शिनाख़्त परेड तक नहीं हुई

पुलिस ऐसे मामलों में गवाहों के सामने उन अभियुक्तों को पेश करती है, जिन पर अपराध में शामिल होने का शक होता है। गवाह कई बार अभियुक्त का नाम ना जनने की सूरत में उसे देख कर पहचान लेता है।

लेकिन मलियाना नरसंहार की जाँच करते वक्त पुलिस ने शिनाख़्त परेड भी नहीं कराई। पहली बार गवाहों के सामने अभियुक्त सीधे 30 साल बाद कोर्ट में आए। कोर्ट ने अपने आदेश में इसे भी गवाहों के कमजोर होने का कारण माना।

70 मुसलमानों के परिवारों को भले ही न्याय ना मिला हो, लेकिन कैलाश भारती मानते हैं कि उन्हें 36 साल के मुश्किल वक्त के साथ अब जा कर न्याय मिला है।

कैलाश भारती इस मामले में मुख्य अभियुक्त थे।

पेशे से वकील कैलाश भारती अपने कमरे में रखे पलंग पर बैठे हुए थे। सामने कुछ पत्रकार थे, जिनसे वो बात कर रहे थे। घर में राहत का महौल था।

कैलाश भारती कहते हैं, ‘36 साल तक मुझ पर दंगाई होने का दाग लगा रहा। मेरी उम्र 35 साल थी जब मुझ पर मुक़दमा हुआ। इन सालों में जहाँ बेटी का रिश्ता लेकर गया वहाँ मुझे शर्मिंदगी के घूँट पीने पड़े। 36 साल के बाद हमें न्याय मिला है। मुझे नहीं पता किसके साथ अन्याय हुआ है, लेकिन हमें न्याय मिला।’

कैलाश भारती के वकील छोटेलाल बंसल ये तो मानते हैं कि उसके मुवक्किल को न्याय मिला, लेकिन वो ये भी मानते हैं कि मलियाना के मुसलमानों के साथ न्याय नहीं हुआ।

वो कहते हैं, ‘पुलिस ने पीएसी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया होता, तो शायद कुछ होता। पुलिस ने तो वोटर लिस्ट से निकाल कर नाम एफआईआर में चढ़ा दी। कैसे कुछ साबित होता। कई लोगों के जीवन के 36 साल बर्बाद हुए।’

कितना भयावह था मंजर

मलियाना में पीएसी की जिस कंपनी को तैनात किया गया था, वो थी 44वीं बटालियन जिसके कमांडर थे आरडी त्रिपाठी।

29 मई 1987 को यूपी की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने आरडी त्रिपाठी को सस्पेंड करने का ऐलान किया था, लेकिन आरडी त्रिपाठी पर कभी कोई एक्शन नहीं हुआ।

बदले में उन्हें प्रमोशन मिला और वो रिटायर होने तक विभिन्न पदों पर बने रहे।

कुरबान अली ने बतौर पत्रकार 1987 में मेरठ में तीन महीने तक चले सांप्रदायिक दंगे को कवर किया था।

आंखों देखे मंजर को बयां करते हुए वे कहते हैं, ‘मलियाना में जो नरसंहार हुआ था, उसके तीन दिन बाद मैं वहाँ पहुँचा। उन दिनों मैं एक अख़बार के लिए काम किया करता था। पूरा गाँव जैसे भूतिया हो चुका हो, जले हुए मकान और एक अजीब सा सन्नाटा था। कहीं एक-दो बच्चे घरों के बाहर रोते-बिलखते दिख जाते थे। कई सारी ताज़ी क़ब्रें थीं जिनकी मिट्टी तक गीली थी। वहाँ से आने के बाद भी कई महीनों तक मैं मानसिक रूप से परेशान रहा। वो सब कुछ आज भी आँखों और दिल के धँसा हुआ है। मैं कई कोशिशों के बाद भी उस मंजर को नहीं भूल सकता।’

साल 2021 में जब हाशिमपुरा नरसंहार मामले में पीएसी के जवानों को दोषी ठहराया गया, तो उसके बाद कुरबान अली, विभूति नारायण राय और एक पीडि़त इस्माइल ने इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की कि 'मलियाना नरसंहार मामले में कोर्ट की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए और एसआईटी गठित कर मामले की दोबारा जाँच शुरू की जाए।

इस्माइल ने मलियाना नरसंहार में अपने परिवार के 11 लोगों को खोया था।

कुरबान अली बताते हैं, ‘इस याचिका के खिलाफ यूपी सरकार ने 800 पेज का हलफनामा दायर कर कहा था कि इससे जुड़ी एफआईआर गायब थी, लेकिन अब वो मिल चुकी है और उस पर सुनवाई चल रही है।’

लेकिन अब ये फैसला आने के बाद क्या 36 साल पुराने केस में दोबारा जाँच शुरू करना संभव है।, क्या अब मलियाना नरसंहार के सबूत जुटाए जा सकेंगे?

कुरबान अली कहते हैं, ‘आखिर पीएससी का रिकॉर्ड तो होगा कि उस दिन कौन से अधिकारी ड्यूटी पर थे। ये सभी चीज़े रिकॉर्ड से निकाली जा सकती हैं लेकिन अगर न्याय दिलाने की मंशा हो तो।’

वहीं खुद यूपी पुलिस में शीर्ष अधिकारी रह चुके विभूति नारायण मानते हैं कि अब अगर इस केस को ऊपरी अदालत में भी ले जाया गया, तो भी जिस तरह के सबूत हैं उससे कोई अलग फैसला कोर्ट के लिए दे पाना मुश्किल होगा।

वो कहते हैं, ‘36 साल बाद सबूतों को जुटाना बहुत मुश्किल है, मेरा मानना है कि राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी मानते हुए लोगों के बेहतर मुआवजा देना चाहिए।’

हिंसा के बाद इस मामले में सरकार की ओर से पीडि़त परिवारों को 20 हज़ार का मुआवजा मिला था।

हालाँकि विभूति नारायण न्याय मिलने की उम्मीद को पूरी तरह खारिज नहीं करते।

वे जर्मनी के न्यूरेमबर्ग ट्रायल का उदाहऱण देते हुए कहते हैं, ‘हमने देखा है कि कैसे 50 साल बाद न्यूरेमबर्ग ट्रायल मामले में उन नाज़ी लोगों को खोज-खोज कर सजा मिली, जो यहूदियों की हत्या में शामिल थे, लेकिन सवाल मंशा का ही है।’

लेकिन वो लोग ख़ुद इस हिंसा की ज़द में आए और अपनी आँखों के सामने अपनों को मरते देखा, उन्हें अब न्याय की कितनी उम्मीद है?

रईस अहमद को 23 मई की उस दोपहर चेहरे के बाएँ हिस्से में गोली लगी।

देरी से ही सही इलाज ने उन्हें बचा लिया, लेकिन उनके पिता जो 23 मई 1987 को कानपुर से मेरठ आ रहे थे उनकी रास्ते में ही दंगाइयों ने लिचिंग की। आज तक रईस को अपने पिता का शव नहीं मिला।

वह कहते हैं, ‘मेरे पिता का जनाज़ा नहीं उठ सका, मुझे लगता था कि सभी तो ना सही लेकिन कुछ लोगों को तो सजा मिलेगी, लेकिन सबको छोड़ दिया गया। हमारे साथ अब सरकार भी नहीं खड़ी है न्याय की क्या उम्मीद करूँ।’ (bbc.com)

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