विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं-मुुगलकाल इतिहास की लुगदी नहीं है
07-Apr-2023 3:55 PM
कनक तिवारी लिखते हैं-मुुगलकाल इतिहास की लुगदी नहीं है

एनसीईआरटी की ओर से हुए नए बदलावों पर देश में बहस छिड़ी है। बच्चों की किताबों से गांधी, मुगलों का इतिहास तथा निराला और फैज़ अहमद फैज़ आदि की कविताएं हटाने को लेकर देश में गुस्सा और चिंता का इजहार किया जा रहा है। यह बात सामने आई है कि ऐसे परिवर्तन पिछले जून 2022 में कर दिए गए थे लेकिन पिछली किताबें छप गई थीं। इसलिए इन परिवर्तनों को मौजूदा सत्र में लागू किया गया है। एनसीईआरटी को 1961 में केन्द्र ने गठित किया था। उसका काम रिसर्च के आधार पर समय समय पर शिक्षा और इसलिए पाठ्यक्रम में बदलाव करना है। इस प्रक्रिया में काउंसिल को कभी प्रषंसा तो कभी आलोचना का शिकार होना पड़ा है।  कक्षा बारह की किताब से ‘किंग्स एण्ड क्रॉनिकल: द मुगल कोर्स’ चैप्टर को हटाया गया है। इसके अलावा कक्षा सात की किताब से अफगानिस्तान से महमूद गजनबी के आक्रमण और सोमनाथ मंदिर पर हमले की बात को बदला गया है। आलोचकों का कहना है कि मुगलों के इतिहास को हटाने से 200 वर्षों का इतिहास तो जानकारी के अभाव में शून्य हो जाएगा। मुगल शासकों और उनके इतिहास पर आधारित अध्यायों को थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट दो नामक किताब से हटा दिया गया है। इस तरह छात्रों को मुगल साम्राज्य का इतिहास नहीं पढऩा होगा।

एनसीईआरटी ने इसको लेकर अपनी सफाई में कहा है कि भारत में कोविड जैसी महामारी के आक्रमण के बाद पूरे पाठ्यक्रम को रेशनलाइज़ और डिजिटल भी किया जाने का विचार है। इस तरह भी कि छात्रों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ नहीं आए। पूरे का पूरा मुगलकाल इतिहास की जिल्दों से गायब कर दिया जाए। इसकी तो कोई सफाई हो ही नहीं सकती। जिसे भी भारत और इतिहास जैसे विषयों में समझ और दिलचस्पी होगी। वह पूरे मुगलकाल को ब्लैकआउट करने के तर्क को कभी समर्थन नहीं दे पाएगा।

केन्द्र सरकार के फैसले के कारण राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में अब इतिहास के कई परिच्छेद हटा दिये जाएंगे। विद्यार्थी अब उन्हें नहीं पढ़ पाएंगे। शायद सरकार की समझ है कि इतिहास के ऐसे हिस्से अपने आपमें गैरजरूरी अतिरक्तता हैं। शायद यह भी कि वह अन्य देश के भारत में हमलावर होकर बस गए अन्य धर्म के शासकों को गैर आनुपातिक रूप से इतिहासकारों ने ज्यादा महत्व दिया है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाली मौजूदा सरकार वे सब ठनगन कर रही है जिससे भारत पर मसलन मुगलिया सल्तनत के असर की पढ़ाई तो दूर उस पर युवा पीढ़ी में कहीं गुफ्तगू तक नहीं हो सके। तमाम षहरों के नाम सरकार ने बदलकर मानो मुस्लिम कालखंड को भारत से दफा करने का अभियान कायम कर रखा है। उसे औरंगजेब का नाम नहीं चाहिए। बाबर से लेकर बहादुर शाह जफर तक के नाम भी नहीं। मुगलसराय स्टेशन या नगर का नाम तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। पता नहीं मुगलाई खाने का नाम आगे क्या रखा जाएगा? संस्थानों, अकादेमियों, विश्वविद्यालयों और शोध प्रकल्पों के नाम भी धीरे धीरे कथित राष्ट्रवादी टे्रडिंग के जरिए बदले जा रहे हैं। मौजूदा विचारधारा या सरकार से बहस करने का कोई मतलब नहीं है। उसका हिन्दू राष्ट्र बनाने का एजेंडा इसी तरह आगे बढ़ाया जाता रहेगा। हासिल यह तो है कि देष का वोट बैंक उनकी गिरफ्त में आ गया है। अशिक्षित, गरीब, रोजगारविहीन, भावुक, मासूम और हर तरह के तिकड़मी लोग भी उस जमावड़े में शामिल होते जा रहे हैं। उन्हेंं इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मूल्य, भविष्य, अंतरराष्ट्रीय समझ और मजहबविहीन इंसानियत से मतलब ही नहीं है।

किसी देश का इतिहास या कोई कालखंड किसी बादशाह या सम्राट की सनक या तुनक पर नहीं तामीर होता। बीते इतिहास का बाद की पीढिय़ां मूल्यांकन करती हैं। भारत में मुगलकाल का इतिहास भी इस मूल्यांकन का अपवाद नहीं है। भारतीय पस्तहिम्मत, बिखरे हुए और नाकाबिल नहीं होते तो दुनिया के कई मुल्क और जातियां षक, कुषाण, हूण, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, अंगरेज, मुगल, तुर्क, यूनानी आदि भारत पर हमला नहीं करते। इनमें केवल मुगल हुए हैं जिन्होंने हमलावर होने के बावजूद भारत में अपना सांस्कृतिक समास ढूंढ़ा। वे इसी देश के लोगों और उनकी परंपराओं के साथ रच, बस, खप गए। वे भले आए होंगे शायद लुटेरों की शक्ल में, लेकिन जेहनियत में वे भारतीय होने का अहसास पाकर फिर लौटकर नहीं गए। ऐसे मुगलकाल का इतिहास दूध की मक्खी की तरह निकालकर इतिहासविहीन लोगों द्वारा फेंका जा रहा है। उन्हें इतिहास के बदले अफवाहों, चुगलखोरी, झूठ, फरेब वगैरह से लगाव होता है। वे चाहे कुछ करें इतिहास की पुख्ता पीढ़ी दर पीढ़ी बौद्धिक जमीन उर्वर होती है। बहुत पुराना इतिहास ही तो बाद में मिथक में तब्दील हो जाता है। उसकी इतिहास के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वीकार्यता भी हो जाती है। मसलन राम और कृष्ण या त्रेता और द्वापर की कहानियां भारतीय संस्कृति की समझ का अनिवार्य हिस्सा हैं।

मुगलकाल में भारतीय मध्ययुगीनता रचनात्मकता के उफान पर थी। भारत वैसे तो कभी भी औपचारिक इतिहास लेखन का देश नहीं रहा। इतिहासकारों से कहीं ज्यादा कवियों ने इस देश को जीवन्त और उर्वर किया है। कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान को मुगलकालीन होने के कारण नहीं पढ़ाया जाएगा, तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बताए कि उनके वर्णन की राम और कृष्ण कथाओं को अवाम की यादों से कैसे निकाल फेंका जा सकेगा। इन छह कवियों में चार तो मुसलमान हैं। इस देश का सबसे बड़ा मध्यकालीन कवि कबीर अंतर्राष्ट्रीय शोहरत का है। अकबर के समकालीन तुलसीदास ने वाल्मिीकी से कहीं आगे बढक़र रामचरित मानस को घर घर की आवाज बना दिया। पोंगा पंडितों ने तुलसीदास की रामचरित मानस को अवाम की पुस्तक बनाने का विरोध किया। तब तुलसी भीख मांगकर खाते रहे। उन्हें रचनारत रखने के लिए मंदिरों ने नहीं मस्जिदों ने पनाह दी। रसखान के लिखे कृष्ण के बाल चरित्र को कोई कैसे खारिज कर सकेगा। बीरबल तो  मुहावरा बनकर लोगों की जवाब पर चस्पा हैं। बीरबल की खिचड़ी जैसा मुहावरा भारतीय जुबान से क्या नोच लिया जाएगा? तानसेन और बैजूबावरा संगीत का व्यक्तिवाचक नहीं भाववाचक नाम हो गए हैं।

स्थापत्य कला में फतेहपुर सीकरी, आगरा और सबसे बढक़र ताजमहल के बारे में सरकारी हुक्म के कारण नहीं पढऩा दुनिया के सांस्कृतिक इजलास में भारत को अभियुक्त की श्रेणी में खड़ा कर देगा। ताजमहल जैसी कृतियां तो विष्व धरोहर हैं। जहांगीरी न्याय जैसा मुहावरा तो 75 वर्षों में भारतीय सुप्रीम कोर्ट भी हासिल नहीं कर सका है। अकबर ने दीन-ए-इलाही मजहब चलाया था। धर्मनिरपेक्षता तो यूरोपीय बुद्धि से उत्पन्न होकर संविधान निर्माताओं ने शामिल की है। मुगलों ने हिन्दुओं के साथ रोटी बेटी के तमाम संबंध बराबरी के स्तर पर किए। मौजूदा सत्ता विचार के लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य दलों के फारुख अब्दुल्ला और सचिन पायलट वगैरह के परिवार इस परंपरा से अछूते कहां हैं। कितनी भी कोषिष करें, हिन्दी में कम से कम एक तिहाई उर्दू शब्द हैं जिन्हें अवाम की जबान से निकालकर फेंका ही नहीं जा सकता। अजीब किस्म का नफरती अभियान चलाया जा रहा है जो भारत की मजबूती की बुनियाद पर हर वक्त बुलडोजर चलाता रहता है। देश के सत्तापरस्त बुद्धिजीवी तो चुप ही रहते हैं। भारत में मूल्य-क्षरण का नया युग आ गया है। उसे संविधान के मकसद से भी लेना देना नहीं है। बल्कि वह संविधान के मकसद को ही कुचल देना चाहता है।

बादशाह अकबर खुद को मुसलमानों का न तो नुमाइंदा समझता था और न ही इस्लाम के प्रचार प्रसार को अपने जीवन का मूल मकसद मानता था। पहले वह बादशाह और उसके बाद मुसलमान होता था। देशवासियों के बीच फैली मजहबी कट्टरता को खत्म करना चाहता था। उन्हें ऐसे धर्म का अनुयायी बनाना चाहता था जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातेें शामिल हों। धार्मिक विद्वेष जैसी बुरी बातें दूर कर दी जाएं। उसे पितामह बाबर की वसीयत याद रही होगी जो उसने अपने पुत्र हुमायूं को दी थीं। ‘ऐ मेरे बेटे। हिंदुस्तान में अलग अलग मजहबों के लोग रहते हैं। खुदा का शुक्र अदा करो कि बादशाहों के बादशाह ने इस मुल्क की हुकूमत तुम्हारे सुपुर्द की है। ‘इन नसीहतों के कारण हुमायूं ने रानी करुणावती की भेजी राखी स्वीकार की थी। मुगलों ने भारत को अपना वतन और दिल्ली, आगरा आदि को अपना घर बना लिया था। सूफी आंदोलन की अगुआई मुस्लिम सूफी व शेखों और हिंदू साधु संतों के हाथों में रही है। नतीजतन बहादुरशाह जफर के वक्त तक पहुंचते पहुंचते हिंदुस्तानियत का खून मुगलों और दूसरे मुसलमानों की रगों में ईरान और तूरान से ज्यादा जोर मार रहा था। वे देशज संस्कृति में रंगे जा चुके थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुहम्मद हबीब ने लिखा है,’’ राजा छत्रसाल भी र्कुआन शरीफ  क ा उतना ही सम्मान करता था जितना कि वेद और पुराणों का। उसके दरबार में एक तरफ ऊंची चौकी पर पुराण और दूसरी तरफ  र्कुआन रखी रहती थी। विशेषकर मुगलों की सल्तनत को लेकर हिंदूवादी  भारतीय एक तरह का तनाव या दबाव महसूस कर रहे थे। मुगलों की प्रजा के रूप में पीढिय़ों तक हिंदू कायम रहे। मुगल इस तरह भारत में आए थे कि बस यहां रम गए। उन्हें किसी भी तरह हिंदुस्तान के इतिहास की स्मृतियों से कभी भी उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा, ऐसी परिकल्पना तक उन्होंने नहीं की थी।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news