संपादकीय
आज जब हिन्दुस्तान में भाजपाशासित कई प्रदेश तथाकथित लव-जेहाद के खिलाफ कानून बनाने की घोषणा कर चुके हैं, और उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में इसे लेकर मुख्यमंत्री एक बैठक ले चुके हैं, तो उसी उत्तरप्रदेश के हाईकोर्ट का एक फैसला लोकतंत्र को मजबूती देने वाला भी आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने एक मुद्दा यह था कि प्रियंका नाम की एक हिन्दू बालिग युवती ने अपनी मर्जी से सलामत अंसारी नाम के नौजवान से शादी की, और शादी के वक्त उसने इस्लाम मंजूर कर लिया। इस पर लडक़ी के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि यह शादी अपहरण करके जबर्दस्ती की गई है। अब हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इन दोनों को हिन्दू और मुस्लिम की तरह देखने से इंकार कर दिया, और कहा कि ये दोनों बालिग नागरिक हैं, और अपनी मर्जी से शादी करना उनका मूल अधिकार है। उनके इस अधिकार को किसी तरह कम नहीं किया जा सकता। यह फैसला देते हुए अदालत ने अपने ही कुछ पिछले फैसलों को गलत बताया जिनमें कहा गया था कि विवाह के लिए धर्मांतरण प्रतिबंधित है, और ऐसे विवाह अवैध हैं।
आज देश में उछाले गए एक नारे से भडक़ी भावनाओं के बीच यह फैसला एक बड़ी राहत की तरह आया है और इससे भारतीय संविधान की यह सोच भी साफ होती है कि दो धर्मों के लोगों के बीच किसी बालिग शादी को लेकर लव-जेहाद विरोधी कानून सरीखा कुछ नहीं किया जा सकता। अब संविधान की इस बुनियादी सोच के खिलाफ जाकर अगर कोई राज्य ऐसा कोई कानून बनाते हैं तो शायद सुप्रीम कोर्ट के रहते हुए वह कानून लागू करने के लिए नहीं बनेगा, बल्कि भावनाओं को भडक़ाने के लिए बनेगा।
हिन्दुस्तान में ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जिनमें भाजपा के ही बहुत से मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू लड़कियों से शादी की है। घनघोर हिन्दुत्व की बात करने वाले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने खुद एक गैरहिन्दू महिला से शादी की है, उनकी बेटी ने एक मुस्लिम से शादी की है, और सोशल मीडिया पर तैर रही बाकी चर्चा अगर सही है तो परिवार में एक-दो और लोग, एक-दो और धर्मों में शादी करने वाले हैं। किसी व्यक्ति के नाम की चर्चा ऐसे संदर्भ में ठीक नहीं है, लेकिन इस लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक व्यवस्था के बीच काम करने वाली, और सत्ता तक पहुंचने वाली पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे सरकारें चला रही हैं, उस संविधान के मूलभूत अधिकारों को बदलना किसी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसलिए दो धर्मों के लोगों के बीच किसी शादी के खिलाफ जिस तरह के कानून का फतवा दिया जा रहा है, वह कानून चुनावी राजनीति के ईंधन की तरह तो बन सकता है, लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट में बिना कलफ के पजामे की तरह फर्श पर गिर पड़ेगा। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में ही नहीं, अमरीका जैसे अधिक पढ़े-लिखे देश में भी लोग इतने कमसमझ रहते हैं कि उन्हें फर्जी मुद्दों के आधार पर भडक़ाना आसान रहता है। मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पिछले चार बरस से यही करते आए हैं। हिन्दुस्तान में भी अलग-अलग कई सरकारें कभी गाय के नाम पर तो कभी पाकिस्तान के नाम पर इसी तरह का काम करते आई हैं। अब सरकारी रिकॉर्ड से परे रहते आए एक शब्द, लव-जेहाद, को लेकर एक कानून बनाने की बात हो रही है। और यह कानून मानो इस देश के प्रति प्रेम, और इसके खिलाफ गद्दारी के बीच एक जनमतसंग्रह होने जा रहा है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला बड़ी राहत देने वाला है, ऐसा नहीं कि उसने संविधान का कोई अनोखा विश्लेषण कर दिया है, और कोई अविश्वसनीय सा निष्कर्ष निकाल दिया है। उसने महज इतना किया है कि लोगों को दो दर्जन शब्दोंं में बतला दिया है कि अपने मर्जी से शादी करना अलग-अलग धर्मों के लोगों के बालिगों का बुनियादी अधिकार है, उस पर न कोई सरकार रोक लगा सकती, और न ही कोई अदालत। अब देखना यह है कि जिस इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह साफ-साफ पारदर्शी आदेश दिया है उस इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र के भीतर लखनऊ में बैठी यूपी सरकार किस तरह इसके खिलाफ एक कानून बनाती है।
कुछ हफ्ते पहले जब करीब दो दर्जन बड़े कांग्रेस नेताओं ने कांग्रेस पार्टी के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए थे, और पार्टी के अनमने मुखिया राहुल गांधी की लीडरशिप का नाम लिए बिना यह बुनियादी सवाल उठाया था कि पार्टी इस तरह कैसे चल सकती है, तो उसके तुरंत बाद कांग्रेस संगठन की सबसे बड़ी कमेटी, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक थी, और उसमें कुछ नहीं किया गया। इतना जरूर हुआ कि सवालिया नेताओं को बागी मानते हुए उनमें से कुछ के पर कतरे गए। लेकिन लोग चुप रहे क्योंकि पार्टी में सुधार की बात करने को बगावत मान लिया गया, और भाजपा के हाथ मजबूत करना करार दिया गया। लेकिन आग दबी भर थी, बुझी तो नहीं थी, इसलिए अभी कपिल सिब्बल ने फिर से यह सवाल उठाया है कि देश की सबसे पुरानी और इतनी बड़ी पार्टी डेढ़ बरस से बिना अध्यक्ष किस तरह रह सकती है? एक सवाल गुलाम नबी आजाद ने भी उठाया है कि फाईव स्टार होटलों से बैठकर चुनाव नहीं लड़े जा सकते।
कुल मिलाकर कांग्रेस में आज पार्टी के तौर-तरीकों को लेकर तीखे सवाल उठ खड़े हो रहे हैं, और जो लोग इन 23 लोगों की चि_ी में दस्तखत करने वाले नहीं थे, उनके मन में भी सवाल उठ रहे हैं। ये सवाल हर उस कांग्रेसी के मन में उठ रहे हैं जिसे कांग्रेस की फिक्र है, और कांग्रेस की हालत आज बहुत बड़ी फिक्र के लायक ही रह गई है। इस पार्टी से देश में सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ एक गठबंधन बनाने की उम्मीद की जाती है क्योंकि एनडीए के अलावा पूरे देश में मौजूदगी वाली यही एक पार्टी है। जिस यूपीए गठबंधन के तहत पिछला आम चुनाव लड़ा गया था, उसमें सिर्फ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसकी मौजूदगी पूरे देश में है। और एनडीए और यूपीए से परे भी कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाले एनडीए के सामने खड़ी हो सके, और कुछ राज्यों में जिसका अस्तित्व हो। अधिकतर पार्टियां एक या दो राज्यों में मौजूदगी वाली हैं, और उन राज्यों से परे किसी और का भरोसा बैठना नहीं है।
दूसरी तरफ एक और बात को समझने की जरूरत है कि यह चर्चा हिन्दुस्तान के इस ऐसे दौर में हो रही है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा के मातहत एनडीए चुनाव जीतने वाली एक ऐसी मशीन बन चुकी है जो या तो मतदान केन्द्र में जीत जाती है, या फिर राजभवन और विधानसभा में। देश में यह तस्वीर अभूतपूर्व है, हिन्दुस्तान के चुनावी इतिहास के 10 बरस पहले तक के दौर में किसी ने ऐसे चुनावी माहौल की कल्पना भी नहीं की थी, जब एक-एक करके तमाम पार्टियां किनारे कर दी जाएंगी, और देश में सिर्फ कमल ही खिलने का माहौल रह जाएगा। आज एनडीए की दूसरी पार्टियां भी देश में जगह-जगह भाजपा की पीठ पर सवार होकर सत्ता तक पहुंच रही हैं, और पूरे देश की चुनावी राजनीति न सिर्फ भाजपा-केन्द्रित हो गई है, बल्कि मोदी-केन्द्रित हो गई है। ऐसे दौर में यूपीए नाम के गठबंधन की मुखिया कांग्रेस पार्टी की लीडरशिप अगर चुनावी मैदान से और देश की राजनीति से गायब सरीखी हो गई है, रोजाना एक या दो ट्वीट तक सीमित हो गई है, तो यह न सिर्फ गैरएनडीए विपक्ष के लिए खतरे की बात है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरे की बात है। किसी भी मजबूत लोकतंत्र में सत्ता जितनी जरूरी होती है उतनी ही जरूरी मजबूत विपक्षी पार्टियां भी होती हैं।
अब मुद्दे की बात पर आएं तो कांग्रेस पार्टी को जिस एडहॉक तरीके से हांका जा रहा है, उससे वह किसी मंजिल तक नहीं पहुंच रही है। जब मोदी की लीडरशिप में भाजपा ने इस देश के चुनाव प्रचार, राजनीतिक और सामाजिक एजेंडे, धार्मिक मुद्दे, और चुनाव प्रचार के तरीके, इन सबके नए पैमाने गढ़ दिए हैं, जब जनधारणा को चिकनी गीली मिट्टी की तरह मोडक़र मनचाहा आकार देना मोदी के बाएं हाथ का खेल हो चुका है, तब कांग्रेस पार्टी इस तरह अपने एक हाथ पर दूसरा हाथ धरे बैठी रहे, तो वह हाशिए के सिरे पर पहुंच जाने से बस दो ही कदम तो दूर है। कांग्रेस पार्टी आज एक बहुत ही अजीब से मुहाने पर पहुंची हुई है, वह सोनिया-परिवार की लीडरशिप को बचाए रखे, या कि कांग्रेस पार्टी को बचाए रखे, यह मुद्दा तय करना है। हम लंबे समय से चली आ रही कुनबापरस्ती की तोहमतों के इतिहास में जाना नहीं चाहते, लेकिन आज हकीकत यह है कि अगर कांग्रेस पार्टी अपने अनमने और अघोषित मुखिया राहुल गांधी से परे कुछ नहीं सोच पाती है, तो उसके पास बहुत जल्द खोने को कुछ नहीं बचेगा।
हम जिस छत्तीसगढ़ में बैठकर यह बात लिख रहे हैं यहां पर हमने पिछले 15 बरसों के भाजपा शासन के दौरान कांग्रेस को संघर्ष करते देखा है। और खासकर आखिरी के शायद 5 बरसों में भूपेश बघेल की अगुवाई में प्रदेश कांग्रेस ने यहां जितनी धारदार और हमलावर विपक्षी लड़ाई की थी, वह देखने लायक थी। और ये हमारे विशेषणों की बात नहीं है, पिछले विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में जिस तरह कांग्रेस ने भाजपा को अपना रोड रोलर चलाकर चपटा कर दिया था, उसे 15 सीटों पर लाकर खड़ा कर दिया था, वह कांग्रेस की एक दमदार मेहनत के बिना नहीं हुआ था। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा देश है, इसलिए यह कल्पना करना आसान या जायज नहीं होगा कि कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में ऐसी लड़ाई लडऩे वाला दमदार मुखिया चाहिए जैसा पिछले विधानसभा चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ कांग्रेस को हासिल था। यह बात भूपेश बघेल के खिलाफ इस्तेमाल भी की जा सकती है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की काबिलीयत के पैमानों में भूपेश बघेल के विपक्ष के कार्यकाल का जिक्र किया जा रहा है। कांग्रेस देश भर में से जिसे चाहे उसको अध्यक्ष बनाए, लेकिन उस व्यक्ति को चौबीसों घंटे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर चौकन्ना रहना होगा। कांग्रेस पार्टी, और उसके अगुवाई वाला गठबंधन आज देश में ऐसी हालत में नहीं हैं कि एक गैरगंभीर मुखिया के तहत वे जिंदा भी रह सकें। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस लीडरशिप के तौर-तरीकों पर गठबंधन के भागीदार दूसरे नेताओं ने सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए हैं। उन्हें सार्वजनिक रूप से उठाना जायज था या नहीं, उस पर हम नहीं जाते, लेकिन वह सवाल तो जायज था। इसलिए इसके पहले कि यूपीए के बाकी साथी ऐसे सवाल उठाएं, वे इधर-उधर तितिर-बितिर हो जाएं, उसके पहले कांग्रेस को अपना घर सम्हालना चाहिए और पार्टी को सोनिया परिवार से बाहर का एक अध्यक्ष देना चाहिए। ऐसा करना राहुल गांधी के साथ भी इंसाफ होगा जिन्होंने पिछले डेढ़ बरस में अपने आपको पार्टी की औपचारिक लीडरशिप से अलग कर रखा है, और रोजाना एक ट्वीट, और बिहार चुनाव में तीन दिन प्रचार तक सीमित रखा है। कांग्रेस को एक पूर्णकालिक, महत्वाकांक्षी, मेहनती, और लीडरशिप की बाकी खूबियों वाला नेता चाहिए। जब पूरा देश नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के कदमोंतले रौंदा जा रहा था, उस वक्त भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने यह साबित किया था कि 15 बरसों की विपक्षी कंगाली के बावजूद वह सत्तारूढ़ भाजपा को, मोदीछाप पार्टी को नेस्तनाबूत कर सकती है। आज देश भर में कांग्रेस को इसी किस्म की मेहनत की जरूरत है, एक विश्वसनीय नेता की जरूरत है जिस पर लोगों को यह भरोसा हो सके कि वे हर वक्त मोर्चे पर डटे रहेंगे, पार्टी के लोगों को हासिल रहेंगे। कांग्रेस पार्टी के मुसाहिबों को यह बात खल सकती है, खलेगी ही, लेकिन सच तो यह है कि पार्टी को एक जीवाश्म (फॉसिल) बनाकर सोनिया परिवार को उसका लीडर बनाए रखना समझदारी नहीं होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट कोरोना-मृतकों के अंतिम संस्कार को सम्मानपूर्ण तरीके से करने के मुद्दे पर खुद होकर सुनवाई कर रहा है। बहुत सी जगहों से खबरें आती हैं कि कोरोना से मरने वाले लोगों का अंतिम संस्कार या उनका कफन-दफन ठीक से नहीं हो रहा है, या परिवार के लोगों को आखिरी बार चेहरा देखने नहीं मिल रहा है। यह लोगों का, और मरने वालों का भी एक बुनियादी हक है, और इसलिए अदालत ने इस पर खुद सुनवाई शुरू की है।
लेकिन कोरोना-मृतकों के अंतिम संस्कार से बहुत से मानवीय पहलू सामने आ रहे हैं। बहुत से मामलों में घरवाले अंतिम संस्कार से इंकार कर दे रहे हैं, और सरकार के इंतजाम में मृतक के धार्मिक रिवाज के मुताबिक अंतिम संस्कार हो रहा है। कई जगहों पर तो सरकार के जो अफसर इस काम में लगे हैं, वे दर्जनों लाशों का अंतिम संस्कार करवाते हुए खुद भी कोरोनाग्रस्त हो रहे हैं। अभी एक वीडियो सोशल मीडिया पर आया है जिसमें जाहिर तौर पर मुस्लिम दिख रहे कई सामाजिक कार्यकर्ता शव वाहन से हिन्दू शव उतार रहे हैं, और हिन्दू विधि से अंतिम संस्कार कर रहे हैं, परिवार के लोग दूर खड़े देख रहे हैं। महामारी ऐसी भयानक है कि परिवार का डरना भी नाजायज नहीं है, और अपनी जिंदगी खतरे में डालकर सरकार या समाज के जो लोग यह काम कर रहे हैं, उनकी बेबसी को भी समझना चाहिए कि वे मृतक का चेहरा दिखाने जैसा अतिरिक्त खतरा उठाने की हालत में नहीं हैं।
फिर भी आज यहां हम मृतकों के बारे में नहीं लिख रहे हैं, जो अब तक मृतक नहीं बने हैं उनके बारे में लिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसी सुनवाई के दौरान दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, और असम की राज्य सरकारों से जवाब मांगा है कि वे इस महामारी की रोकथाम के लिए क्या कर रही हैं। वे अदालत ने कहा है कि गुजरात में हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। अदालत की इस फिक्र से परे भी पिछले कई हफ्तों से हमारा यह अंदाज था कि आने वाले महीनों में हिन्दुस्तान में कोरोना की एक दूसरी लहर आएगी। दरअसल दुर्गा पूजा से लेकर दीवाली तक, और छठ से लेकर कुछ और त्यौहारों तक लोगों ने जिस तरह जमकर लापरवाही दिखाई है, भीड़ में धक्का-मुक्की की है, बाजार पर टूट पड़े हैं, और फिर दीवाली मिलन से लेकर छठ के घाट तक जितनी बेफिक्री दिखाई गई है, उससे कोरोना भी शायद हक्का-बक्का हो गया होगा कि उसकी इज्जत जरा भी नहीं बची है। कल की ही मध्यप्रदेश की तस्वीरें हैं, सत्तारूढ़ भाजपा का एक छोटे से जिले में दीवाली मिलन हो रहा है, और शासन के कोरोना नियमों के मुताबिक दो सौ से अधिक लोग किसी आयोजन में नहीं जुट सकते, लेकिन भाजपा के इस कार्यक्रम में हजार से अधिक लोग थे। और वहां के लोगों ने इसे दीवाली मिलन के बजाय कोरोना मिलन करार दिया है, और अब तस्वीरों के सुबूत के साथ उम्मीद कर रहे हैं कि प्रशासन कार्रवाई करेगा। लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री ने अपने सरकारी निवास पर पोला-तीजा की पूजा की थी, और सैकड़ों महिलाओं की भीड़ वहां जुटी थी। बात किसी एक राजनीतिक दल की नहीं है या किसी एक प्रदेश की नहीं है, जब सरकारी नियमों से हिकारत दिखाने की बात आती है तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत में एक असाधारण एकता दिखने लगती है। यह देश वैसे तो क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, जैसी कई सरहदों से बंटा हुआ है, लेकिन जब सरकारी नियम तोडऩे की बात आती है तो हर तबके के लोग, राजा और प्रजा, तकरीबन सारे ही लोग हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, आपस में सब भाई-भाई बन जाते हैं। (हम इस प्रचलित वाक्य को इस असहमति के साथ लिख रहे हैं कि इसमें बहनों की कोई जगह नहीं रखी गई है)।
ठंड के मौसम को लेकर पहले से यह आशंका थी कि कोरोना इस मौसम में अधिक आक्रामक हो सकता है। दिल्ली की एक अलग दिक्कत यह है कि वहां पर ठंड और प्रदूषण दोनों मिलकर लोगों का जीना हराम कर देते हैं, और बहुत से मरीजों को तो दिल्ली छोड़ देने की सलाह दी जाती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को डॉक्टरी सलाह पर दिल्ली से बाहर चले जाना पड़ा है। अब दिल्ली से बाकी पूरे देश का सरकारी और कारोबारी रिश्ता ऐसा जुड़ा हुआ है कि वहां अगर महामारी की नौबत खतरनाक होती है, तो वहां से बाकी पूरे देश तक उसके जाने का खतरा रहता है। और बाकी देश वैसे भी आज कोई कोरोनामुक्त है नहीं। पिछले एक महीने में अगर कोरोना पॉजिटिव की गिनती कुछ कम बढ़ी थी, तो इसकी एक वजह त्यौहार भी थे। लोग त्यौहारों की खरीदी और बिक्री में लगे थे, ऐसे में वे जांच कराना नहीं चाहते थे, और कोरोना के आंकड़े थोड़े से टले थे, कहीं गए नहीं थे। इस दौरान एक खतरनाक बात यह जरूर हुई कि बिना जांच के कोरोनाग्रस्त लोग घूमते रहे, बाजारों में, मंदिरों और दूसरे धर्मस्थलों में धक्का-मुक्की की नौबत रही, और इन सबका असर अब देखने मिल रहा है, और दिल्ली शहर में लगातार तीन दिन से सौ से अधिक लोग रोज कोरोना से मर रहे हैं।
हिन्दुस्तान में कोरोना को लेकर जो वैज्ञानिक चेतना लोगों में आनी चाहिए थी, जो सावधानी रहनी चाहिए थी, वह कहीं नजर नहीं आ रही। ताली-थाली, दिया-मोमबत्ती जैसे अवैज्ञानिक तरीकों को लोगों ने कोरोना से निपटने का जरिया मान लिया, और महामारी के खतरे की तरफ से बेफिक्र हो गए। धर्म वैसे भी अपने हथियार पर धार करने के बाद सबसे पहले अपने पैदाइशी दुश्मन, विज्ञान को मारने निकलता है। इन दोनों का अस्तित्व साथ-साथ रहना खासा मुश्किल होता है, और हिन्दुस्तान में लोगों की समझ आज विज्ञान से इतनी दूर कर दी गई है, धर्म के रंग में इतनी रंग दी गई है कि लोगों को महामारी के खतरे दिखना बंद हो गया है। कुछ हफ्ते पहले मुस्लिम समाज का एक बड़ा त्यौहार पड़ा तो ट्रकों पर सवार होकर हजारों लोगों का ऐसा जुलूस निकला जिसमें दो-चार फीसदी लोग भी मास्क लगाए नहीं दिख रहे थे। धर्म ने वैज्ञानिक समझ का कीमा बनाकर रख दिया था।
आज जब दुनिया के बहुत सारे देश, हिन्दुस्तान के मुकाबले बेहतर इलाज वाले देश कोरोना की दूसरी, और शायद तीसरी, लहर झेल रहे हैं, तब हिन्दुस्तान एक बड़े खतरे के मुहाने पर पहुंच गया है। बिहार में तो पूरे प्रदेश में चुनाव थे, लेकिन देश के कई प्रदेशों में उपचुनाव थे, और वहां जमकर लापरवाही बरती गई। भारत में महामारी के नियमों को लागू करने का रोजाना का जिम्मा राज्यों का है, इनमें केन्द्र की दखल कम रहती है। और आने वाले महीनों में देश के कई प्रदेश कोरोना की बहुत बुरी मार झेलते दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट राज्यों से जवाब मांगकर एक सैद्धांतिक बहस करे, उससे बेहतर यह है कि पूरे देश से मीडिया में आ रही तस्वीरों और वीडियो बुलवाकर सीधे कुछ हजार लोगों को जेल भिजवाए, ताकि बाकी लोग कुछ सावधान भी हो सकें। वोटों से बनने वाली, और वोटरों की दहशत में चलने वाली सरकारों से किसी कड़े अमल की उम्मीद नहीं की जा सकती। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर यह सुनवाई शुरू की है, इसलिए उसे सरकारों के हलफनामों पर अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए। उसे पुरानी कई मिसालों के मुताबिक ऐसे जांच कमिश्नर बनाने चाहिए जो सरकार से परे सीधे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करे। कुल मिलाकर देश की जनता अगर अपने स्तर पर सावधान नहीं रहेगी, तो शायद चिकित्सा विज्ञान, सरकार, और अदालतें सब मिलाकर भी उसे कोरोना-मौत से नहीं बचा पाएंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हाल के बरसों में हिन्दुस्तानी की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने अनगिनत मामलों में एक ऐसा रूख दिखाया है जो कि देश की सत्ता सम्हाल रहे लोगों की पसंद की फिक्र करते दिखता है। सरकारी एजेंसियों या सरकार के तर्क मानने के लिए अदालत कुछ उत्साही दिखती है, और अदालत की अवमानना का खतरा खड़ा हो जाएगा अगर यह लिखा जाए कि बहुत से मामलों में अदालतें सरकार की असली पसंद के लिए लीक से हटकर भी सुनवाई करने को एक पैर पर खड़ी दिखीं, और एक गाना सा दिल्ली की अदालती हवा में गूंजता सुनाई देता रहा- हो तुमको जो पसंद, वही बात करेंगे।
बहुत से चर्चित मामलों को लेकर जब देश की जनता यह उम्मीद कर रही थी कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के अधिकारों के बेजा दिखते इस्तेमाल को रोकने के लिए, उस पर सवाल खड़े करने के लिए तनकर खड़ी रहेगी, सुप्रीम कोर्ट के जजों का रूख, फैसलों का अंदाज इस बेजा का हिमायती दिखा। लोकतंत्र में संसद, सरकार, और अदालत, इन तीनों के बीच जो शक्ति संतुलन बनाया गया है, वह खोने में हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत ने खासा योगदान दिया दिखता है। सरकार की मनमानी पर काबू की जिम्मेदारी संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को दी थी, लेकिन एक के बाद दूसरे, और दूसरे के बाद तीसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को मानो अपनी पहुंच से ऊपर का मान बैठी है। इस बारे में देश के बहुत से लोग बहुत कुछ बोल चुके हैं, और लिख भी चुके हैं, हम आज यहां जो लिख रहे हैं, वह पूरी तरह मौलिक और पहली बार नहीं है, लेकिन यह लिखना जरूरी इसलिए है कि लोगों को लोकतंत्र की इस जन्नत की हकीकत समझ पडऩा चाहिए।
हुआ यह है कि हिन्दुस्तान में कोई 45 बरस पहले आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का फतवा दिया था। उस वक्त इंदिरा के झंडाबरदार इस नारे की गूंज को आगे बढ़ाते रहे। उसकी ठोस वजह भी थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था, और सत्ता पर बने रहने के लिए इंदिरा को इमरजेंसी लगानी पड़ी थी, और उस वक्त इंदिरा सरकार की आत्मरक्षा के लिए उसे यह लगना स्वाभाविक था कि न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध रहनी चाहिए। उस वक्त तो बहुत अधिक जज इंदिरा की मनमानी के खिलाफ अपना हौसला नहीं दिखा पाए थे, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट के एक-दो जज तो थे ही जो कि इंदिरा की मनमानी के खिलाफ खुलकर फैसला दे रहे थे। आज जब अर्नब गोस्वामी जैसे तथाकथित पत्रकार की जमानत अर्जी पर सुनवाई की बात आती है, या अर्नब के दूसरे मामले पर अर्जी लगती है, तो सुप्रीम कोर्ट के कोई जज आधी रात घर से सुनवाई को तैयार हो जाते हैं, तो किसी और जज को लगता है कि अर्नब के मामले में सुनवाई में एक दिन की भी देर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। दूसरी तरफ इस देश में सैकड़ों पत्रकार अलग-अलग राज्यों में महीनों से जेलों में सड़ रहे हैं, सामाजिक आंदोलनकारी मौत की कगार पर पहुंच हुए भी जमानत नहीं पा रहे हैं, और इस देश के अर्नबों को रातोंरात जमानत मिल जाती है। हो सकता है कि जज उनके मामले को लेकर सचमुच ही संतुष्ट हों कि उन्हें जमानत का हक है, लेकिन जाहिर तौर पर देश यह देख रहा है कि दूसरे पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और शिक्षक किस तरह महीनों और बरसों तक जेलों में बंद रखे जा रहे हैं, और उनके खिलाफ आखिर में चाहे सरकार की हार क्यों न हो जाए, इतने बरस कैद की सजा तो वे भुगत ही चुके रहेंगे। इसलिए देश के लोगों के बीच आजादी का हक जिस हद तक जजों की मर्जी, सत्ता की पसंद-नापसंद, और सबसे महंगे वकीलों को रखने की ताकत पर टिक गया है, वह हक्का-बक्का करता है। लोगों ने अभी यह भी लिखा है कि देश के सबसे महंगे वकील को रखने की ताकत किस तरह जमानत की संभावना को बढ़ा देती है। लोगों ने सुप्रीम कोर्ट को ही सीधे खुलकर अपने नाम से यह लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट को पसंद लोगों को आनन-फानन सुनवाई का मौका देकर अदालत बाकी आम लोगों के हक का मजाक उड़ा रही है। जिस तरह एक वक्त ताजमहल को लेकर एक शायर ने लिखा था कि इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक..., उसी तरह आज सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकीलों को रखने वाले शहंशाहों को बिजली की रफ्तार से मिलने वाले उनके पसंदीदा इंसाफ को देखकर यही लगता है कि यह उन बाकी तमाम गरीबों का मजाक है।
दुनिया में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि इंसाफ न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। आज लगता है कि सुप्रीम कोर्ट देश के सबसे महंगे वकीलों के क्लाइंट, सत्ता की असली पसंद, और खुद सुप्रीम कोर्ट के जजों के प्रति इंसाफ को फिक्रमंद रह गया है। अपनी अवमानना को लेकर सुप्रीम कोर्ट जितना संवेदनशील हो गया है, उसे ट्विटर पर अपना अपमान देखते हुए उसके ऊपर-नीचे के ऐसे ट्वीट दिखाई नहीं पड़ते जिनमें इसी देश की महिलाओं को अलग-अलग विधियों से बलात्कार करने की धमकियां दी जाती हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट इस देश में इज्जत का हकदार एक ऐसा टापू बन गया है जिसके इर्द-गिर्द समंदर में डूबकर मर जाने के लिए बाकी तमाम नागरिक आजाद हैं? ट्वीट पढऩे के शौकीन सुप्रीम कोर्ट को देश की महिला आंदोलनकारियों, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बलात्कार की खुली धमकियों को अनदेखा करने की जो आदत है, वह आदत बताती है कि सुप्रीम कोर्ट की असली पसंद क्या है।
देश की सबसे बड़ी अदालत में खास और आम के बीच ऐसी गहरी और चौड़ी खाई पहले शायद कभी नहीं रही, और जिसे सत्ता नापसंद करती हो, जो देश के सबसे महंगे वकील रखने की औकात न रखते हों, उनके प्रति न्यायपालिका की अनदेखी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज हो गई है, लेकिन अदालत को इतिहास से अधिक अपने भविष्य की फिक्र है जो कि लोगों को दिख रही है, समझ पड़ रही है, लेकिन अदालत इसकी तरफ से बेफिक्र है।
कर्नाटक सरकार का एक फैसला सामने आया है कि वहां समाज कल्याण विभाग उन गांवों में सरकारी सैलून चालू करेगा जहां दलितों को सैलून में जाने से रोक दिया जाता है। देश भर के गांव-गांव में नाई की दुकान में भेदभाव की शिकायतें आती हैं, और उसका यह आसान इलाज कर्नाटक की भाजपा सरकार ने निकाल लिया है कि ऐसे सरकारी दलित-सैलून में सिर्फ दलितों के बाल काटे जाएंगे और उनकी हजामत की जाएगी। खबर बताती है कि उत्तर और मध्य कर्नाटक के कई जिलों में ऐसे मामले सामने आए हैं जब दलितों के बाल काटने से मना कर दिया गया। सरकार का कहना है कि जातिगत भेदभाव खत्म करने के लिए यह किया जा रहा है। यह फैसला मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा की अगुवाई में एसटीएससी अत्याचार अधिनियम समीक्षा बैठक में लिया गया है।
पहली नजर में यह फैसला दलितों के साथ इंसाफ और उन्हें एक सहूलियत देने वाला दिखता है। लेकिन दूसरी तरफ यह फैसला अपने पर अमल के पहले भी एक प्रस्ताव की शक्ल में जब सामने आया, तभी इसने यह साबित कर दिया कि भारतीय लोकतंत्र में दलितों को इंसाफ मिलना मुमकिन नहीं है। उनके बाल तभी कट सकते हैं जब सरकार उनके लिए अलग से दलित-नाई की दुकान खोले। यह फैसला सरकार का अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराना भी है क्योंकि ऐसा भेदभाव करने वालों को गिरफ्तार करके उन्हें सजा दिलाना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है, और उसे किनारे धकेलकर यह जातिवादी, छुआछूत से भरा सरकारी फैसला लिया जा रहा है। इस फैसले का मतलब तो यही है कि जिन गांवों में दलितों को कुएं से पानी भरने नहीं मिलता, वहां दलितों के लिए अलग कुआं खुदवाने को एक इलाज मान लिया जाए। तो धीरे-धीरे दलितों के लिए अलग थाना, अलग कलेक्ट्रेट, अलग अदालत, और अलग मुख्यमंत्री क्यों न हो? अगर सरकार ही जातिवादी छुआछूत को कुचलने के बजाय उसे मान्यता देकर नीची समझी जाने वाली जातियों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर उनके लिए अलग दलित-सैलून खोले, तो इसका मतलब है कि कानून ने अराजकता के सामने हथियार डाल दिए, हथियार तो क्या हाथ भी डाल दिए।
जो सरकार इस तरह का फैसला ले रही है, उसकी समझ कहीं भी दलितों के साथ इंसाफ की नहीं है। उसकी समझ अपने संवैधानिक दायित्व की भी नहीं है जिसकी कि शपथ लेकर वह सत्ता में आई है। हम कर्नाटक के मुख्यमंत्री या संबंधित मंत्रियों-अफसरों की जाति नहीं जानते, लेकिन यह बात साफ है कि इन लोगों को भारतीय समाज में जाति आधारित छुआछूत की समझ नहीं है, और इस छुआछूत को खत्म करने की इनकी नीयत भी नहीं है। सरकारों के साथ यह आम दिक्कत रहती है कि किसी जटिल समस्या वे एक लुभावना समाधान ढूंढकर उसका अतिसरलीकरण कर देते हैं, और ऐसे में सामाजिक गुनहगार बच जाते हैं। इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा। आगे चलकर स्कूली बच्चों को दोपहर के भोजन में दलित बच्चों का खाना अलग बनने लगेगा, दलितों के हाथ का पका खाना दूसरी जाति के बच्चे नहीं खाएंगे, कहीं पर कोई सरकार या प्रशासन दलित बच्चों के लिए अलग आकार की थाली का इंतजाम कर देंगे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में सरकारी जमीन पर सरकार ने दलितों के लिए एक सभागृह बनवाया है, लेकिन चूंकि उसके बगल के सरकारी बंगले में 20 बरस से मंत्री रहते आए हैं, इसलिए दलितों की शादी तो इस भवन में हो सकती है, उसमें संगीत नहीं बज सकता। इस तरह एक समुदाय के सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एक जगह को इस आधार पर संगीत से वंचित कर दिया गया।
सरकार की जिम्मेदारी भेदभाव को कड़ाई से खत्म करने की है क्योंकि संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जिनमें दलित-आदिवासी तबकों की विशेष सुरक्षा और उनके विशेष अधिकारों की बात की गई है। मध्यप्रदेश में जहां दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढऩे नहीं मिलता वहां पर सरकार इसका एक आसान इलाज ढूंढ सकती है। वह दलित बारातियों के लिए सौ-दो सौ हेलमेट का इंतजाम कर सकती है, और दलित दूल्हे के लिए पुलिस लाईन से घोड़ी का इंतजाम कर सकती है, इसके बाद पुलिस के घेरे में बारात निकाली जा सकती है। लेकिन क्या यह हिफाजत लोकतंत्र की नाकामयाबी का सुबूत नहीं रहेगी? कर्नाटक सरकार का यह फैसला भारी शर्मिंदगी का एक कलंक है, सरकारों को जुर्म के सामने इस तरह घुटने टेकते देखना इस लोकतंत्र में शर्मनाक नौबत है। आने वाले दिनों में हमें उम्मीद है कि भारत में दलितों की हकीकत को समझने वाले कुछ सामाजिक कार्यकर्ता जरूर इस मुद्दे को उठाएंगे, और अगर इसे कोई अदालत तक ले जाए तो यह सरकारी फैसला खारिज होना तय है क्योंकि यह भेदभाव को मान्यता देता है, और उस पर कार्रवाई के बजाय उसके रास्ते से हटकर छुपकर आगे निकल जाने वाला है। यह देखना भी दिलचस्प हो सकता है कि यह फैसला लेने वाली कर्नाटक की कमेटी ने किस दर्जे के कितने दलित थे, और उन्होंने बैठक में क्या राय रखी थी?
मध्यप्रदेश में उपचुनाव में दो तिहाई सीटें जीतकर अपनी सरकार बचाने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आधा दर्जन मंत्रालयों को मिलाकर एक गाय-मंत्रिमंडल बनाया है। पशुपालन, वन, पंचायत, ग्रामीण विकास, गृह, और किसान कल्याण विभागों का गाय के मुद्दे से कुछ न कुछ लेना-देना रहता है, इसलिए इनको मिलाकर एक काऊ-कैबिनेट बना दी गई है ताकि मध्यप्रदेश में गायों की रक्षा हो सके।
पिछले बरसों में देश के अलग-अलग राज्यों ने गोवंश को बचाने की लुभावनी नीति बनाते हुए ऐसे कड़े कानून बनाए कि लोगों के लिए जानवर खरीदकर लाना-ले-जाना, बूढ़े और अनुत्पादक हो चुके जानवरों को बेचना नामुमकिन सा हो गया है। अगर सरकारी विभागों की निगरानी से किसी तरह लोग बच भी निकलते हैं, तो सडक़ों पर गौरक्षक नाम के हिंसक और हथियारबंद जत्थे मौके पर ही भीड़त्या के लिए तैयार रहते हैं। कुल मिलाकर भारत के किसानों से, दूध उत्पादकों से जानवरों का जो रिश्ता था उसे खतरे का एक सामान बना दिया गया है। अब मध्यप्रदेश की सरकार दूसरे राज्यों से गौरक्षा के मामले में आगे बढ़ते हुए एक गाय-मंत्रिमंडल बना रही है। इस प्रदेश में लड़कियों और दलितों को अगर हिफाजत से जीना है, तो उन्हें भी ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन्हें गाय बना दे।
हिन्दुस्तान चुनाव जीतने में मदद करने वाले भावनात्मक और लुभावने मुद्दों से घिरते चल रहा है। अभी 20 बरस पहले तक मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ में भी गाय से जुड़े कुछ फैसले किए गए हैं, लेकिन वे ग्रामीण विकास और रोजगार से जुड़े हुए अधिक हैं, यह एक अलग बात है कि आरएसएस ने जाकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की तारीफ की है कि गाय की रक्षा के लिए उन्होंने जो फैसले लिए हैं, उनके लिए संघ आभार और अभिनंदन करता है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने अपनी परंपरागत लीक से हटकर धर्म और हिन्दुओं से जुड़ी हुई गाय को लेकर काफी कुछ किया है। राम के वनवास के दौरान उनके छत्तीसगढ़ से भी गुजरने की जो प्रचलित कहानी है, उसके मुताबिक भूपेश सरकार राम वन गमन पथ को पर्यटन के मुताबिक विकसित कर रही है। गाय का गोबर खरीद रही है, गाय और दूसरे दुधारू पशुओं को गांवों में गौठान बनाकर रखने की एक मौलिक और महत्वाकांक्षी योजना पर काम बहुत बढ़ चुका है। अब देखना यह है कि हिन्दुओं के इन भावनात्मक मुद्दों पर सरकार की जो रकम खर्च हो रही है, क्या उसका कोई उत्पादक इस्तेमाल भी हो रहा है, या यह सरकारी खर्च पर चलने वाली एक लुभावनी योजना ही रह जाएगी?
आज हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम प्रेमियों के बीच गिनी-चुनी शादियां होती हैं। अगर परिवार और समाज बवाल न करें, राजनीतिक दल मुद्दा न बनाएं, तो ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं कि अंतरधार्मिक शादियों से किसी एक धर्म का नुकसान हो रहा है, या किसी दूसरे धर्म की आबादी बढ़ रही है। लेकिन इसे लवजेहाद का जुबानी तमगा देकर एक के बाद दूसरा भाजपाशासित राज्य इसके खिलाफ कानून बनाने की बात कर रहा है। अभी हमें ऐसे किसी कानून की संवैधानिकता समझ नहीं पड़ी है क्योंकि भारत का संविधान बालिग लोगों को मर्जी से शादी की छूट देता है, और उन्हें कानूनी संरक्षण देता है। ऐसे में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच किसी शादी को लेकर कैसे कोई कानून बन सकता है, यह समझ से थोड़ा परे है। और फिर यह भी हो सकता है कि सरकारें ऐसे किसी कानून की संवैधानिकता की कमजोरी जानते हुए इस पर आगे बढ़ रही है क्योंकि यह बहुसंख्यक समुदाय को खतरा बताकर हिफाजत देने का एक लुभावना काम हो सकता है। जो भाजपा-सरकारें अपने प्रदेशों की हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम लडक़ों से शादी करने से रोकना और बचाना चाहती हैं, वे सरकारें अपने प्रदेशों में हिन्दुओं के हाथों हिन्दू लड़कियों, और दूसरे धर्मों की लड़कियों पर बलात्कार रोकने के लिए पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रही हैं। बहुत से मामलों में तो भाजपा के सांसद और विधायक बलात्कारियों का साथ देते खड़े दिखते हैं। अब सवाल यह है कि लड़कियों को बलात्कार से बचाना प्राथमिकता नहीं है, बल्कि लड़कियों को अपनी मर्जी से शादी करने देने से रोकना राज्य सरकारों की बड़ी प्राथमिकता बन गई है। खुद भाजपा के बड़े-बड़े नेता ऐसे हैं जिन्होंने खुद ने, या परिवार के लोगों ने दूसरे धर्मों में शादियां की हैं, बहुत सी शादियां मुस्लिम युवकों से हिन्दू युवतियों की भी हुई हैं। लेकिन एक सामाजिक खतरा बताते हुए, एक धार्मिक मुद्दा बनाते हुए लवजेहाद नाम के एक शब्द को गढक़र हिन्दू वोटरों के बीच अपनी पैठ बढ़ाई जा रही है। जब कभी किसी अदालत में कुछ कहने की बात आती है, या इन्हीं सरकारों से कोई सूचना के अधिकार में पूछते हैं, तो सरकार का जवाब होता है कि उसके रिकॉर्ड में लवजेहाद नाम का कोई शब्द नहीं है। लेकिन अब कानून बनाकर इसके खिलाफ कुछ करने की मुनादी बहुत से भाजपा राज्यों ने कर दी है।
हम इन दो मुद्दों को एक साथ इसलिए उठा रहे हैं कि गाय का मामला, और हिन्दू लड़कियों का मुस्लिमों से शादी का मामला, ये दोनों ही मामले सरकारों के लोक-लुभावने धार्मिक मुद्दों को कानूनी जामा पहनाने की एक कोशिश अधिक दिख रही है, अपने प्रदेशों में जलते-सुलगते असल मुद्दों से निपटने की कोशिश नहीं दिख रही है। लेकिन जब तक हिन्दुस्तान के वोटरों का एक बड़ा तबका ऐसे ही भावनात्मक मुद्दों पर सरकारें बना रहा है, चतुर पार्टियों को इसी एजेंडा को आगे बढ़ाने में समझदारी दिख रही है।
फिलहाल मध्यप्रदेश में गाय-मंत्रिमंडल बनने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वहां के घूरों पर जिंदा गाय को अब बेहतर क्वालिटी का पॉलीथीन खाने मिलेगा ताकि उसके पेट में जमा होने वाले पॉलीथीन की घटिया क्वालिटी से उसे नुकसान होना बंद हो सके।
उत्तरप्रदेश से बच्चों के सेक्स-शोषण का एक भयानक मामला सामने आया है जिसमें सिंचाई विभाग का एक इंजीनियर, रामभवन सिंह, बच्चों को इधर-उधर से जुटाकर उनका यौन शोषण करता था, और उनके वीडियो बनाकर इंटरनेट पर बेचता था। दस साल से वह यह काम करते आ रहा था, लेकिन उसके रिश्तेदारों को भी इसकी भनक नहीं लगी थी। अब जब किसी सुराग से पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है, तो उसके पास बच्चों के पोर्नो का जखीरा मिला है। अब तक की जांच से पता लगा है कि वह गरीब परिवारों के 5 से 16 बरस तक की उम्र के बच्चों को अपना निशाना बनाता था। उसके पास से इतने डिजिटल सुबूत बरामद हो चुके हैं कि इस मामले में शक की कोई गुंजाइश नहीं है। इसकी जांच सीबीआई कर रही है, और यह अफसर बच्चों को मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने के बहाने बुलाता था और उनका सेक्स-शोषण करता था।
किसी का नाम भगवान के नाम पर रख देने का उस पर कोई असर होता हो ऐसा रामभवन नाम के इस अफसर की हरकतें देखकर नहीं लगता। लेकिन इतने बड़े मामले का भांडाफोड़ होने से इसकी गिरफ्तारी के साथ-साथ अब आगे उन लोगों की गिरफ्तारी भी होनी चाहिए जो कि बच्चों के पोर्नो खरीदते हैं। इंटरनेट के जानकार लोग यह जानते हैं कि इंटरनेट पर आसानी से पकड़ में न आने वाला एक डार्क वेब होता है जिस पर तरह-तरह के मुजरिम काम करते हैं और वहां ऐसे वीडियो की खरीद-बिक्री भी होती है। हिन्दुस्तान में सीबीआई को तलाशते हुए योरप की किसी पोर्नो वेबसाईट पर एक हिन्दुस्तानी बच्चे का ऐसा पोर्नो मिला और वहां से ढूंढते हुए जांच एजेंसी रामभवन तक पहुंची।
इस मामले का भांडाफोड़ होने से हिन्दुस्तान के लोगों की आंखें खुलनी चाहिए कि बच्चों का यौन-शोषण कोई विदेशी सोच नहीं है, यह देशों की सरहदों से परे इंसानों के बीच एक आम बात है, और ऐसे अधिकतर लोग बच्चों का सेक्स-शोषण करने के बाद भी बच निकलते हैं क्योंकि बच्चे अपने घर या स्कूल में अपने शोषण की बात बताते भी हैं तो भी उनके ही लोग उस पर भरोसा नहीं करते। धीरे-धीरे बच्चों में बताने का हौसला खत्म होने लगता है। अब अगर एक अफसर 50 से अधिक बच्चों का शोषण कर चुका है, उसके कब्जे से दर्जनों वीडियो और सैकड़ों तस्वीरें मिली हैं, वह इंटरनेट पर पोर्न साईट्स को ये वीडियो बेच देता था, और बच्चों से सेक्स भी करते रहता था, 10 बरस तक उसका कोई भांडाफोड़ नहीं हो सका, तो यह नौबत भारतीय समाज के एक खतरनाक हाल को बताती है।
दुनिया के बाकी तमाम देशों के साथ-साथ हिन्दुस्तान के समाज को जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि गरीब और बेघर बच्चे, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, शिक्षकों और खेल प्रशिक्षकों की पहुंच के भीतर के बच्चे हमेशा ही खतरे में रहते हैं। हिन्दुस्तान में मां-बाप अपने बच्चों की शिकायतों को इसलिए भी सुनना नहीं चाहते क्योंकि ये शिकायतें कई तरह की असुविधा खड़ी करने वाली रहती हैं, रिश्तेदारों या पहचान वालों से रिश्ते बिगड़ते हैं, पुलिस थाने और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगते हैं, और जैसे कि आम हिन्दुस्तानी सोच है, सेक्स-हमले के शिकार लोगों के लिए ही यह मान लिया जाता है कि उनकी इज्जत लुट गई है। इस देश में बलात्कार की इज्जत नहीं लुटती, बलात्कार के शिकार की इज्जत लुटती है। ऐसे देश में शिकायत लेकर किसी बच्चे का सामने आना नामुमकिन सा रहता है।
हिन्दुस्तान अपने डिजिटल विकास पर बड़ा गर्व करता है। लेकिन यहां चारों तरफ साइबर-ठगी चलती रहती है, साइबर-जालसाजी, और साइबर-जुर्म एक बड़ा कारोबार बन चुका है। ये तमाम जुर्म सरकार के काबू के बाहर दिखते हैं। इसी तरह चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर सरकार की पकड़ बहुत कम दिख रही है जबकि कई अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियां और दूसरे संगठन लगातार चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर नजर रखकर संबंधित सरकारों को सावधान करने का काम करते हैं। हिन्दुस्तान सरकार को ऐसे डिजिटल औजार विकसित करने चाहिए जो कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी का किसी भी शक्ल में इस्तेमाल करने वाले लोगों को पकड़े। हाल के महीनों में छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में भी बहुत से लोग दिल्ली से मिली सूचना के आधार पर गिरफ्तार किए गए हैं, लेकिन वॉट्सऐप जैसे तकनीक के चलते लोग दूसरे किस्म के सेक्स-पोर्नो के साथ-साथ बच्चों के सेक्स-पोर्नो भी एक-दूसरे को भेजते रहते हैं। ऐसे लोगों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए ताकि उनकी खबरें पढक़र बाकी लोगों को एक सबक मिल सके।
लेकिन बच्चों के सेक्स-शोषण का मुद्दा एक अलग पहलू भी रखता है। छोटे-छोटे सामानों का लालच, कई बार तो बेघर बच्चों के लिए एक रात सिर छुपाने की जगह या कंबल मिल जाना भी उन्हें अपने बदन का समझौता करने पर मजबूर कर देता है। इस देश में जब तक बच्चों की आम हालत नहीं सुधरेगी, जब तक वे बेघर और अनाथ बने रहेंगे, तब तक मोटेतौर पर उनका शोषण नहीं थम सकेगा। इसलिए चाइल्ड पोर्नोग्राफी का यह मामला बच्चों से बलात्कार के अनगिनत मामलों का एक पुख्ता सुबूत भी है। और सरकार को इस जुर्म का व्यापक प्रचार करके देश के बाकी मां-बाप, समाज के लोगों को सावधान भी करना चाहिए कि उनके इर्द-गिर्द ऐसी कोई हरकत दिखे तो वे तुरंत पुलिस को खबर करें। एक अफसर 10 बरस तक दर्जनों बच्चों का सेक्स-शोषण करते रहा, उसकी रिकॉर्डिंग करते रहा, उसे दुनिया भर में बेचते रहा, और किसी को उसकी खबर नहीं लगी, यह बात भी हैरान करने वाली है।
यह मामला सरकार और समाज दोनों के सावधान और चौकन्ने होने का है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया को पिछली एक सदी में सबसे अधिक तहस-नहस करने वाले कोरोना और उससे जुड़े लॉकडाउन ने न सिर्फ जिंदगी खत्म की है, जीने के तरीके खत्म किए हैं, बल्कि लोगों पर एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक हमला भी किया है। आज दुनिया के बहुत से देशों में लड़कियां और महिलाएं देह बेचने को मजबूर हुई हैं। इसके अलावा बच्चों की तस्करी बढऩे की भी खबरें हैं जिनमें से अधिकतर का इस्तेमाल सेक्स-ट्रेड में होता है। यह तो पूरे वक्त बदन बेचने के धंधे की बात है। लेकिन एक सामाजिक हकीकत को एक सहज समझ से देखें, तो जब-जब कोई बहुत बुरा अकाल पड़ता है, कोई ऐसी प्राकृतिक विपदा आती है जिससे अर्थव्यवस्था और रोजगार तहस-नहस हो जाते हैं, तो वैसे में घर चलाने की बुनियादी जिम्मेदारी ढोने वाली महिलाओं और लड़कियों के बदन पर पहला बोझ पड़ता है, और उनमें से बहुत सी घर के बाकी लोगों का भी पेट भरने के लिए अपना बदन बेचने पर मजबूर होती हैं। आज अफ्रीका के एक देश इथोपिया की एक ऐसी ही रिपोर्ट है कि वहां नाबालिग बच्चियां भी किस तरह मजबूरी में बदन बेच रही हैं क्योंकि उनके जिंदा रहने का और कोई जरिया नहीं बचा है।
लोगों को याद होगा कि हमने पिछले महीनों में एक से अधिक बार इसी जगह पर अमरीका में 1930 के दशक में आई भयानक मंदी के बारे में लिखा था कि उस दौर में अमरीकी समाज में अनगिनत घरेलू लड़कियों और महिलाओं को देह के धंधे में उतरते देखा था। जब जिंदा रहने के लिए, खाने के लिए और कोई भी जरिया न रह जाए, तो दुनिया में तकरीबन तमाम जगहों पर औरतों और लड़कियों पर देह बेचने का दबाव बनने लगता है। बात कहने में बहुत कड़वी लगेगी, लेकिन हकीकत यह है कि परिवार के बाकी लोग भी बुझे हुए चूल्हे को देखते हुए परिवार की शर्मिंदगी की ओर से आंखें बंद कर लेते हैं, और यह देखना बंद कर लेते हैं कि चूल्हा सुलग कैसे रहा है। जब बदन में भूख सुलगती है, तो वह तमाम नाजायज काम करने को मजबूर कर देती है। अमरीका की सदी की सबसे बड़ी मंदी में नए लोगों को देह बेचने के धंधे में उतरते देखा था जिन्होंने कभी खुद के बारे में भी ऐसा नहीं सोचा होगा।
हिन्दुस्तान में चूंकि वर्जित संबंधों से लेकर वेश्यावृत्ति तक ऐसे मामले माने जाते हैं जिन पर चर्चा न करने से ही यह देश गौरवशाली बने रह सकता है। यही वजह है कि दिल्ली और मुम्बई सहित तमाम महानगरों में संगठित रूप से जाने-पहचाने इलाकों में लाखों महिलाएं देह बेचती हैं, और स्थानीय शासन-प्रशासन, कानून और अदालत सब यह मानकर चलते हैं कि हिन्दुस्तान में इनका कोई अस्तित्व नहीं है। आज यह पहला मौका आया है जब हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने खुलकर यह आदेश दिया कि सेक्स-कर्मियों को राज्य सरकारें कोरोना के इस दौर के चलते भूखों मरने से बचाने के लिए मुफ्त अनाज दे। एक किस्म से अदालत ने न सिर्फ इन लोगों का अस्तित्व माना, बल्कि सेक्स का धंधा ठप्प होने की वजह से उनके जीने में खड़ी हुई मुश्किल को भी माना, और जिंदा रहने के लिए अनाज पाने के बुनियादी हक को भी माना। लेकिन आज की यह बात पहले से चले आ रहे सेक्स-ट्रेड के बारे में नहीं है। हम आज उन लड़कियों और महिलाओं, और बच्चों, के बारे में चर्चा करना चाहते हैं जो कि बेरोजगारी और गरीबी के इस दौर में मजबूरी में यह धंधा करने के लिए दुनिया भर में बेबस हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने ऐसी नौबत का अंदाज नहीं लगाया था। जब-जब ऐसी ऐतिहासिक मंदी आती है, जिंदा रहने के लिए लोगों को अपने बदन, और अपने परिवार के दूसरे बदन बेचने के लिए भी मजबूर होना पड़ता है। जो लोग संगठित रूप से किसी चकलाघर में जाकर नहीं बैठते, वे भी अपने काम की जगहों पर, अपने अड़ोस-पड़ोस में, रिश्तेदारी और जान-पहचान में समझौता करके अपने बदन के एवज में जिंदा रहने का जरिया जुटाते हैं। इनमें तकरीबन तमाम मजबूर लड़कियां और महिलाएं ही रहती हैं, और बच्चों को सेक्स-ट्रेड में धकेलने के लिए पूरे वक्त साजिश करते हुए गिरोह रहते हैं।
जिन देशों से अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं या दूसरे जिम्मेदार अखबारनवीस रिपोर्ट बना रहे हैं, वैसे हालात हिन्दुस्तान में न हों, उसकी कोई वजह नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि इस देश के लोग इस देश में देह के धंधे को मानने से बचते हैं, और अपने आत्मगौरव को कायम रखने के लिए ऐसा जाहिर करते हैं कि सेक्स-ट्रेड कोई पश्चिमी संस्कृति है जिससे कि हिन्दुस्तान अछूता है। यह एक अलग बात है कि वात्सायन के भी पहले से इस देश में शहर-कस्बों में नगरवधुओं का चलन रहा है, मंदिरों में देवदासियां रही हैं, और भी तरह-तरह के परंपरागत तबकों को औपचारिक मान्यता देकर इस देश ने वेश्यावृत्ति को चकलों से परे भी एक पर्दा ढांककर जिंदा रखा था, और आज भी रखा हुआ है।
आज की यह भयानक आर्थिक मंदी, और बेरोजगारी हिन्दुस्तान में दसियों लाख लड़कियों और महिलाओं को अब तक कुछ मौकों पर, या पूरी तरह से देह बेचने को मजबूर कर चुकी होगी। ऐसी कोई वजह नहीं है कि ऐसी बदहाली में आत्महत्याओं के बीच लोग ऐसे समझौते न कर रहे हों। सरकार और समाज चूंकि इस नौबत को ही मानने से बचते हैं, बच रहे हैं, इसलिए इस समस्या के किसी समाधान की कोई संभावना नहीं है। लेकिन फिर भी जिन लोगों में थोड़ा-बहुत भी सरोकार है उन्हें इस बारे में सोचना चाहिए, और यह भी सोचना चाहिए कि खुदकुशी से लेकर वेश्यावृत्ति तक पर जो तबका आज मजबूर नहीं है, वह दूसरों को इस नौबत से बचाने के लिए क्या कर सकता है? समाज में ऐसी मजबूरी शुरू कुछ लोगों से हो सकती है, लेकिन वह आसपास के और गैरमजबूर लोगों को भी लपेटे में ले सकती है, और ग्राहक तो कभी मजबूर होते नहीं हैं। इसलिए किसी देश को अपने समाज को ऐसी नौबत से अगर बचाना है, तो उन्हें लोगों की मदद करने के लिए संगठित कोशिशें करनी होंगी। महज सरकार की तरफ देखना कोई हल नहीं होगा क्योंकि सरकारें इस मजबूरी को ही अनदेखा करके अपनी जिम्मेदारी से बचने का लंबा तजुर्बा रखती हैं। लोगों को समाज के कमजोर तबकों की महिलाओं, लड़कियों, और बच्चों को बचाने के लिए गंभीर और ईमानदार कोशिश करनी चाहिए, यह मानकर, यह सोचकर कि उनका खुद का परिवार ऐसी नौबत में रहता, तो वे क्या करते? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस पार्टी के सामने बिहार के चुनावी नतीजों से परे भी एक चुनौती है। बिहार में वह सत्तारूढ़ नहीं थी, सत्तारूढ़ गठबंधन में भी नहीं थी, और वह साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर समान सोच रखने वाली आरजेडी और वामपंथी दलों के साथ एक गठबंधन में भी जो कि सत्ता से दस कदम ही दूर रह गया। और यह बात आंकड़ों से लेकर तर्कों तक से साबित होती है कि कांग्रेस की बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के चलते ही महागठबंधन की सरकार नहीं बन पाई। कांग्रेस ने 70 सीटें हासिल करके उम्मीदवार खड़े किए थे, और उनमें से कुल 19 जीत पाए। जबकि कुल 29 सीटों पर लडऩे वाले वामपंथी उम्मीदवारों ने 16 सीटें हासिल की। महागठबंधन की अगुवा पार्टी, आरजेडी के एक नेता शिवानंद तिवारी ने कांग्रेस को महागठबंधन पर बोझ बताते हुए कहा कि उसने प्रत्याशी तो 70 उतारे थे, लेकिन इतनी भी रैलियां चुनाव प्रचार के दौरान नहीं कीं। राहुल गांधी महज तीन दिनों के लिए प्रचार में आए, और प्रियंका गांधी नहीं आईं। शिवानंद तिवारी ने कहा कि जब चुनाव प्रचार अपने चरम पर था तब राहुल गांधी शिमला में प्रियंका के घर पर पिकनिक कर रहे थे, पार्टी को क्या ऐसे चलाया जाता है?
यह बात सही है कि बिहार चुनाव प्रचार की खबरों के बीच जब यह खबर आई थी कि राहुल गांधी शिमला में छुट्टी मना रहे हैं, तो वह बड़ी हैरानी की बात थी। बिहार में उसके 70 उम्मीदवार लड़ रहे थे, और बाकी देश में जगह-जगह उपचुनावों में कांग्रेस उम्मीदवार थे, लेकिन राहुल किसी और प्रदेश में नहीं गए थे। वे महज बिहार प्रचार में शामिल हुए थे, और जैसा कि शिवानंद तिवारी ने कहा है कि वे तीन दिनों के प्रचार पर पहुंचे थे। बिहार के नतीजे आए ही थे कि खबरों में बने हुए अमरीका से राहुल गांधी के बारे में एक खबर आई। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की एक किताब छपकर आ रही है जिसमें उन्होंने राहुल से अपनी मुलाकात और अपने तजुर्बे के बारे में लिखा है- राहुल गांधी में एक तरह की घबराहट और अपरिपक्वता नजर आते हैं, जैसे किसी छात्र ने अपने शिक्षक को प्रभावित करने के लिए खूब पढ़ाई तो की हो लेकिन उस विषय की पूरी योग्यता उसके पास न हो। ओबामा ने राहुल गांधी को नर्वस बताया था और जुनून की कमी बताई थी।
ओबामा की ऐसी कोई निजी वजह नहीं है कि वे भारत की कांग्रेस पार्टी या उसके भविष्य के नेता राहुल गांधी पर कोई अवांछित हमला करें। उन्होंने बस अपने विचार सामने रख दिए। लेकिन ओबामा से परे खुद राहुल की पार्टी के एक बड़े नेता, यूपीए सरकार में पूरे दस बरस मंत्री रहने वाले कपिल सिब्बल ने कल एक अंग्रेजी अखबार, इंडियन एक्सप्रेस, को दिए गए इंटरव्यू में बिहार के चुनावी नतीजों के साथ-साथ देश भर में हुए उपचुनावों के नतीजों की बात की, और कांग्रेस पार्टी में इस पर आत्मविश्लेषण की जरूरत बताई। लोगों को याद है कि सिब्बल उन 23 कांग्रेस नेताओं में थे जिन्होंने अगस्त में पार्टी लीडरशिप को पार्टी के तौर-तरीके बदलने के लिए एक चिट्ठी लिखी थी। उस चिट्ठी को भी गिनाते हुए सिब्बल ने कहा कि पार्टी के पास अब आत्मचिंतन का भी समय खत्म हो गया है। उन्होंने कहा कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी का विकल्प है, वहां भी जनता ने कांग्रेस के प्रति विश्वास नहीं जताया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में इतना साहस और इच्छा होने चाहिए कि सच्चाई को स्वीकार करें। उन्होंने यह भी कहा कि इतने लोगों ने जो चिट्ठी लिखी थी, पार्टी के भीतर तब से अब तक उस पर कोई चर्चा नहीं हुई और पार्टी लीडरशिप की ओर से किसी चर्चा की कोशिश होते भी नहीं दिख रही है।
हम शिवानंद तिवारी या बराक ओबामा की कही बातों को अनदेखा करते हुए भी यह लिखना चाहेंगे कि बिहार चुनाव प्रचार के बीच जब राहुल के शिमला जाने की बात आई, तो हमें हैरानी हुई थी कि कुल 14 दिन चलने वाले चुनाव प्रचार में भी अगर राहुल गांधी अपने उम्मीदवारों पर मेहनत नहीं कर रहे हैं, तो वे जाहिर तौर पर और निश्चित रूप से गठबंधन के साथ भी ज्यादती कर रहे हैं जिसने कांग्रेस को अनुपातहीन ढंग से अधिक, 70 सीटें दी थीं। सीटें पाने के लिए कांग्रेस ने दबाव डाला था, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान जिन भरोसेमंद अखबारनवीसों ने मैदानी रिपोर्टिंग की थी, उनका यह मानना था कि कई सीटों पर तो कांग्रेस चुनाव लड़ते ही नहीं लग रही थी। कपिल सिब्बल की यह बात ध्यान देने लायक है कि एक वक्त जिस उत्तरप्रदेश पर कांग्रेस ने राज किया था, जहां से एक के बाद दूसरे प्रधानमंत्री भेजे थे, उस उत्तरप्रदेश में आज कांग्रेस कुछ सीटों पर दो फीसदी वोट भी नहीं पा सकी।
कांग्रेस पार्टी चुनावी राजनीति से परे किसी देश सेवा या समाज सेवा में लगी हुई संस्था नहीं है। उसकी नीयत चाहे देश सेवा और समाज सेवा की हो, हालांकि उसके नेताओं को देखें तो ऐसा भी नहीं लगता है, कांग्रेस का अस्तित्व चुनाव लडऩे और जीतने पर टिका हुआ है। और कांग्रेस पार्टी ने पिछले छह बरस में लगातार संसद में मौजूदगी खोई है, और एक-एक करके अधिकतर राज्य खोए हैं। शिवानंद तिवारी, ओबामा, और कपिल सिब्बल सहित 23 कांग्रेस नेता, इन सबकी जरूरत भी नहीं है यह समझने के लिए कि कांग्रेस लीडरशिप किस तरह एक मकसद खो चुकी, जुनून खो चुकी, जवाबदेही खो चुकी लीडरशिप हो गई है जिससे इतने बड़े देश और उसके दो दर्जन से अधिक प्रदेश के मोर्चों को सम्हालने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस आज अपना संगठन भी नहीं सम्हाल पा रही है क्योंकि जैसा कि कपिल सिब्बल ने याद दिलाया है, कांग्रेस कार्यसमिति एक मनोनीत मंच है जिससे कि मनोनयन करने वाले के खिलाफ सोचने की भी उम्मीद नहीं की जा सकती, किसी आलोचनात्मक नजरिये की भी नहीं।
लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि कांग्रेस के पास खोने को बचा ही क्या है। एकबारगी ही हमें तीन ऐसे राज्य याद पड़ते हैं जहां पर कांग्रेस की सरकार है, और कम से कम एक ऐसा राज्य याद पड़ता है जहां वह गठबंधन में है। इसलिए कांग्रेस के पास आज भी खोने के लिए तीन-चार राज्य तो बचे हैं ही, लेकिन क्या कांग्रेस इसी में खुश है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज देश में केन्द्र की मोदी सरकार के कामकाज के मीडिया कवरेज में सबसे खास दर्जा पाई हुई समाचार एजेंसी एएनआई ने जम्मू-कश्मीर से तस्वीरों सहित एक खबर पोस्ट की है। उधमपुर की इस खबर में बताया गया है कि किस तरह एक मुस्लिम परिवार पिछले 25 बरसों से हर त्यौहार पर फूल बेचते आ रहा है। तस्वीरों में दिखाया गया है कि यह परिवार दीवाली पर भी फूल बेच रहा है, और इस पर एक दुकानदार ने कहा है कि इनकी त्यौहार मनाने की भावना साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है।
ऐसी खबरें बहुत से बड़े और प्रमुख अखबारों या टीवी चैनलों पर भी अजब-गजब जैसी हैरानी के साथ दिखती हैं। कभी कोई रिक्शेवाला किसी सवारी का छूटा हुआ बैग लौटाने की मशक्कत करता है, तो उसे लेकर भी ईमानदारी अभी जिंदा है किस्म की सुर्खियां अखबारों में देखने मिलती हैं। ऐसी हैडिंग से लगता है कि ईमानदारी अमूमन मर चुकी है, और गिने-चुने लोगों में ही यह जिंदा है। हकीकत यह है कि आमतौर पर सुर्खियां बटोरने वाले नेताओं, अफसरों, कारोबारियों में जरूर ईमानदार लोगों का अनुपात घट गया है, लेकिन मेहनतकश आम लोगों में तो लोग ईमानदार ही हैं। इसलिए जब कोई गरीब किसी पाए हुए सामान को पहुंचाने की कोशिश करते हुए थाने पहुंचते हैं, या सडक़ किनारे राह देखते खड़े रहते हैं, तो वे अपने बुनियादी चरित्र के मुताबिक काम करते हैं।
अब जिस खबर को लेकर आज की बात लिखी जा रही है, वह खबर हैरान नहीं करती, उसे खबर बनाया गया है, यह हैरान करता है। लोग दूसरे धर्म के त्यौहारों या जलसों पर अपने सामान बेचते हैं, या अपनी सेवाएं बेचते हैं, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव से भी पहले अपने खुद के जिंदा रहने की एक कोशिश होती है। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं की शादियों में मेहंदी लगाने वाली से लेकर दुल्हन के कपड़ों को सिलने, उनमें जरी-गोटा लगाने, उसके लिए लाख की चूडिय़ां बनाने जैसे दर्जनों काम आमतौर पर मुस्लिम ही करते दिखते हैं। शादी की घोड़ी मुस्लिम लेकर आते हैं, बैंडपार्टी में बड़ी संख्या में मुस्लिम होते हैं, आतिशबाजी, लाउडस्पीकर, और जनरेटर से लगाने वाले सेट मुस्लिम ही होते हैं। यह तो हुई शादी-ब्याह की बात, लेकिन लोगों ने रूबरू देखा हुआ है कि अमरनाथ यात्रा से लेकर दूसरी अनगिनत तीर्थयात्राओं तक कांवर ढोने के काम में मुस्लिम लगे रहते हैं, और तीर्थयात्री तो जिंदगी में दो-चार बार अमरनाथ जाते होंगे, ऐसे कांवर उठाने वाले, घोड़े वाले मुस्लिम तो तीर्थयात्रा के दिनों में रोजाना ही यात्रियों को ले जाते हैं। अभी दो दिनों से दिल्ली के बहुत से लोगों ने हजरत निजामुद्दीन दरगाह की तस्वीरें पोस्ट की हैं जहां दीवाली पर खास साज-सज्जा की गई है, और वहां के लोग बताते हैं कि दीवाली मना रहे हिन्दू भी साल के इस खास दिन दरगाह पर भी प्रार्थना करने आते हैं। पूरा देश हाल के बरसों तक अलग-अलग धर्मों के तानों-बानों से बुना हुआ एक कपड़ा रहा है जिसे अब तार-तार करने की बहुत सी कोशिशें हो रही हैं।
लोगों को एक मुस्लिम फूल वाले को हिन्दू त्यौहार पर फूल बेचते देखने के लिए जम्मू-कश्मीर जाने की जरूरत नहीं है, अपने ही शहर में देख लें, जैन-मारवाड़ी, या गुजराती मेवे वाले रमजान और ईद के वक्त क्या खजूर सामने सजाकर नहीं रखते, या मुस्लिम मेवे वाले हिन्दू त्यौहारों के समय मेवे की खास पैकिंग बनाकर नहीं सजाते? यह तो बिना किसी साम्प्रदायिक सद्भाव के भी कारोबारी समझदारी है कि ग्राहक किसी भी धर्म के हों, उनके नोट का तो एक ही धर्म होता है। ऐसा कौन सा शहर होगा जहां फूल बेचने वाले अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग होंगे? एक कारोबारी समझदारी को जब मीडिया एक साम्प्रदायिक सद्भाव समझ ले, तो यह जाहिर है कि देश की हवा दिल्ली के बाहर भी बहुत खराब हो चुकी है, और दिमाग पर भी असर कर चुकी है।
हिन्दुस्तान गंगा-जमुनी तहजीब का देश रहा है, और बीच के इन कुछ बरसों को छोड़ दें, तो शायद आगे भी रहेगा। दिक्कत यह है कि जिन पेशों में लोगों से समझदारी और जिम्मेदारी की उम्मीद की जाती है, उनकी अपनी कमसमझी उनकी खबरों में सिर चढक़र बोलती है। और यह तो दिखने वाली खबरों में बोलती है, न दिखने वाली खबरों में, न लिखी जाने वाली खबरों में असली सद्भाव की जाने कितनी ही बातें दब जाती होंगी। इसलिए मीडिया के कारोबार में लगे लोगों में, समाचार और विचार लिखने वाले लोगों में, व्याकरण चाहे कमजोर हो, लोकतंत्र और इंसानियत की बुनियादी समझ मजबूत रहना चाहिए। इस देश में हिन्दुओं का कोई त्यौहार मुस्लिमों के बनाए सामानों, और उनके किए गए कामों के बिना पूरा नहीं होता है, और तो और हिन्दुओं के उपवास में आम नमक से परे जिस सेंधे नमक का इस्तेमाल होता है, वह भी पाकिस्तान के सिंध के इलाके से निकलकर आता है, और उसके बिना तो यहां हिन्दुओं का उपवास न हो सके।
इसलिए मीडिया के लोगों को साम्प्रदायिक सद्भाव नाम के शब्दों को एकदम हल्का भी नहीं बना लेना चाहिए कि दीवाली पर हिन्दुओं को फूल बेचना मुस्लिम कारोबारी का कोई साम्प्रदायिक सद्भाव है। साम्प्रदायिक सद्भाव की असली मिसालें हमारी जिंदगी में कदम-कदम पर भरी हुई हैं, और मीडिया में आमतौर पर सुर्खियों पर काबिज नेताओं को छोड़ दें, तो साम्प्रदायिक सद्भाव तो इस देश की बुनियादी समझ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के साथ कल दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में लक्ष्मी पूजा करने जा रहे हैं। पूरा मंत्रिमंडल लक्ष्मी पूजा करे ऐसा देश का यह पहला मौका रहेगा, और वे किसी निजी प्रार्थना के साथ नहीं, बल्कि दिल्ली के कल्याण की सार्वजनिक प्रार्थना के साथ यह पूजा करेंगे। भारत का संविधान हर मुख्यमंत्री को इस किस्म की लचीली आजादी देता है कि वे अपने धर्म का सार्वजनिक रूप से भी प्रदर्शन कर सकें। वे पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने मंत्रिमंडल जैसी एक औपचारिक संवैधानिक शक्ति को लेकर एक धार्मिक अनुष्ठान करना तय किया है। फिर भी दीवाली की लक्ष्मी पूजा को हम धार्मिक परंपरा के साथ-साथ एक सांस्कृतिक परंपरा भी मानते हैं, और इसमें हम कोई बुराई नहीं देखते। नेहरू के वक्त भी भारत के सरकारी दफ्तरों और सरकारी कारखानों में लक्ष्मी पूजा होती थी जो कि धार्मिक होने से अधिक सांस्कृतिक होती थी, और अनगिनत मामलों में सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों के मुस्लिम या ईसाई, या किसी और धर्म के गैरहिन्दू भी पूजा में बैठते थे। कभी किसी धर्म को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई थी। इसलिए हम भारत की एक मजबूत सांस्कृतिक परंपरा की एक कड़ी के रूप में ही केजरीवाल की इस पहल को ले रहे हैं, और इसमें बुनियादी रूप से आलोचना के लायक कुछ नहीं है।
लेकिन एक दूसरा सवाल यहां उठ खड़ा होता है, अक्षरधाम मंदिर में इस पूजा को करने का। दिल्ली में मंदिरों की कोई कमी तो है नहीं, और लक्ष्मी पूजा मंदिरों में होती भी नहीं है, लोग अपने घर-दफ्तर, दुकान-कारोबार में ऐसी पूजा करते हैं। इसलिए केजरीवाल यह पूजा कहीं भी कर सकते थे, इसके लिए अक्षरधाम मंदिर की जरूरत नहीं थी। अब अक्षरधाम मंदिर के साथ कुछ दिक्कतें हैं जिनको समझना जरूरी है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय का यह मंदिर दिल्ली में एक दर्शनीय ढांचा तो है, लेकिन बहुत लोगों को यह बात नहीं मालूम है कि पूरे का पूरा स्वामीनारायण सम्प्रदाय महिलाओं से परले दर्जे का भेदभाव करता है। इससे सन्यासी या स्वामी किसी महिला को देख भी नहीं सकते, सुन भी नहीं सकते। इसके प्रमुख स्वामी जिस सभागार में बैठते हैं, उसके खुले दरवाजे के सामने से किसी महिला को भी निकलने की इजाजत नहीं होती है। लंदन में बसे एक लेखक ने इंटरनेट पर लिखा है कि उसकी चार बरस उम्र की बेटी लंदन में स्वामीनारायण स्कूल में पढ़ती है। स्कूल के सभागार में सम्प्रदाय के एक संत का कार्यक्रम था। तमाम लड़कियों को हॉल के पीछे बिठाया गया था। जब बच्चों से कहा गया कि वे कोई सवाल कर सकते हैं, तो इस बच्ची ने कुछ पूछने के लिए हाथ उठाया। उसे अनदेखा कर दिया गया, और उसे बिठा दिया गया। बाद में एक लडक़े के पूछे गए सवाल का जवाब संत ने दिया, लेकिन इस बच्ची की तरफ देखा भी नहीं। एक और मौके पर जब यही लेखक स्वामीनारायण मंदिर में अपनी छह महीने की बेटी को गोद में लेकर गया तो उसे वहां सभागार में भीतर जाने नहीं मिला क्योंकि उसकी गोद में लडक़ी थी, फिर चाहे वह छह महीने की थी। इस सम्प्रदाय के कार्यक्रमों में जाने के बाद भी इस लेखक ने लिखा कि शुरूआत से सम्प्रदाय के स्कूलों में और कार्यक्रमों में यह सीख मिल जाती है कि लड़कियां और महिलाओं का दर्जा नीचा है।
स्वामीनारायण सम्प्रदाय को लेकर यह विवाद कोई नया नहीं है, बहुत बार महिलाओं के साथ इस सम्प्रदाय के भेदभाव सामने आते रहते हैं, लेकिन जैसे कि कोई भी सम्प्रदाय अपनी कट्टर बातों पर ही जिंदा रहता है, यह सम्प्रदाय भी महिलाओं के खिलाफ परले दर्जे का भेदभाव करते हुए अपनी शुद्धता को इस तरह साबित करते रहता है जिससे बिना कहे यह बात साबित होती है कि महिलाएं नीचे दर्जे की हैं। अगर इसके पीछे सम्प्रदाय के संत-सन्यासी का ब्रम्हचर्य कायम रखने की कोई नीयत है, तो इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है कि चार बरस या छह महीने की बच्ची की ओर देखने से भी अगर इसके स्वामी और सन्यासी का ब्रम्हचर्य खतरे में पड़ता है, तो इनको अपने इलाज की जरूरत है, न कि किसी अनुशासन की।
ऐसा भी नहीं है कि केजरीवाल सरकार किसी दूसरे देश से आकर दिल्ली के इस मंदिर में पूजा कर रही है, और उसे इस सम्प्रदाय से जुड़े ऐसे विवादों की खबर नहीं है। हिन्दुस्तान में किसी भी जागरूक व्यक्ति को इसके बारे में मालूम है, और राजनीति में देश की राजधानी की मुख्यमंत्री को इसकी खबर न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। ऐसे में एक देवी, लक्ष्मी, की पूजा के लिए ऐसे मंदिर को छांटना जहां महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, उन्हें हिकारत और नीची नजर से देखा जाता है, यह एक बहुत खराब फैसला है। ऐसे भेदभाव वाले सम्प्रदाय का सरकार को सरकारी स्तर पर बहिष्कार करना चाहिए, केजरीवाल चाहें तो निजी स्तर पर वे किसी भी साधू, सन्यासी, या तथाकथित संत के भक्त हो सकते हैं। इस देश में इंदिरा गांधी ने जाकर मचान पर लटके बैठने वाले देवरहा बाबा के लटके हुए पैर के नीचे अपना सिर टिकाकर आशीर्वाद लिया था, इस देश में बलात्कारी आसाराम के भक्तों में नरेन्द्र मोदी से लेकर दिग्विजय सिंह तक हजारों नेता थे। निजी स्तर पर केजरीवाल किन पैरों पर अपना सिर टिकाते हैं, यह उनका निजी हक हो सकता है, हालांकि इस देश के एक सबसे महान नेता जवाहरलाल नेहरू ने पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के धार्मिक कर्मकांडों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर असहमति और नाराजगी जाहिर की थी, लेकिन नेहरू के वक्त की समझदारी नेहरू के साथ खत्म हो गई, उनकी ही अगली पीढ़ी ने, उनकी ही पार्टी ने उस समझदारी को नेहरू की पहली बरसी के पहले ही कबाड़ी को बेच दिया था। इसलिए अब तमाम लोग, वामपंथियों को छोडक़र, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। हैरानी यह है कि सोशल मीडिया, और बाकी मीडिया पर केजरीवाल की लक्ष्मी पूजा की घोषणा के बाद से अभी तक ऐसे कोई सवाल हमको तो नहीं दिखे हैं जो कि उनके पूजास्थल की पसंद को गलत बता रहे हों। हो सकता है आगे जाकर कुछ लोग इस पर लिखें, लेकिन हम इस मंदिर में जाकर पूरे मंत्रिमंडल द्वारा पूजा करने के सख्त खिलाफ हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश की अर्थव्यवस्था कितनी ही खराब क्यों न हों, महीनों बाद ठीक से खुले बाजार, और दीवाली जैसा बड़ा त्यौहार, इन दोनों के चलते कुछ खरीददारी होते दिख रही है। और इसके साथ ही लोगों के घरों में तरह-तरह से पैकिंग पहुंच रही है। संपन्न तबका ऑनलाईन खरीदी कर रहा है क्योंकि बाजार जाने से बचना हो जाता है, समय बचता है, और बहुत से सामान बाजार के मुकाबले ऑनलाईन सस्ते मिलते हैं। ये सारे सामान खासी पैकिंग सहित आते हैं। संपन्न तबकों में दीवाली पर तोहफों का लेन-देन भी होता है, और तोहफे ऐसी पैकिंग में ही रखे जाते हैं कि वे खासे बड़े लगें, उनमें माल कम होता है, पैकिंग अधिक होती है। कुल मिलाकर यह वक्त लोगों के घरों में उनकी खरीदी, और तोहफे पाने की क्षमता के अनुपात में कागज, पुट्ठे, और पॉलीथीन के इकट्ठा होने का है।
घरों के बाहर डाल दिए गए कचरे को देखें, या म्युनिसिपल की कचरा गाडिय़ों को देखें, इनमें फ्रिज-टीवी जैसे बड़े सामानों के बड़े बक्से भी दिखते हैं, और कई दूसरे किस्म की पैकिंग भी। जो राज्य सभ्य और समझदार हैं, या जिन शहरों की म्युनिसिपल जागरूक और जिम्मेदार है, वहां पर घरों में ही कचरे की छंटनी लागू की गई है, और अलग-अलग किस्म का कचरा सीधे री-साइकिलिंग तक चले जाता है, दुबारा इस्तेमाल हो जाता है।
त्यौहार के इस मौके पर लोगों को कचरे की चर्चा बुरी लग सकती है क्योंकि अभी तो घर को सजाने, रौशन करने, पूजा की तैयारी करने, और मिठाई बनाने का मौका है। यह भी भला कोई वक्त है कचरे की चर्चा करने का? लेकिन हमारे हिसाब से यही वक्त कचरे की चर्चा का है क्योंकि इसी वक्त घर पर पैकिंग जैसा कचरा खूब सा निकल रहा है, या निकल सकता है, घरों की सफाई में भी सूखा कचरा निकल सकता है, और इन सबको अगर कचरा बीनने वालों को सीधे ही बुलाकर दे दिया जाए, तो धरती पर कचरे का निपटारा भी अच्छे से हो सकता है, और कचरा बीनकर धरती को जिंदा रहने लायक रखने वाले लोगों की दीवाली भी हो सकती है। जब ये लोग घूरे पर मिले-जुले कचरे में से बीन-बीनकर कागज और पु_े के सामान अपने बोरों में भरते हैं, पॉलीथीन और प्लास्टिक दूसरे बोरे में भरते हैं, तो इन्हें अगर घूरे से परे लोगों के घरों से सीधे ही यह कचरा मिल जाए, तो उनकी भी जिंदगी बदल सकती है, और धरती की भी। जिन लोगों को यह लगता है कि धरती की जिंदगी अनदेखी की जा सकती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि धरती की जिंदगी से बेहतर जिंदगी इंसानों की कभी भी नहीं हो सकती। धरती जितनी बर्बाद रहेगी, इंसानों की जिंदगी उससे कुछ अधिक ही बर्बाद रहेगी।
दीवाली पर जो भयानक कबाड़-कचरा घूरों पर पहुंचता है, कचरा ले जाने वाली गाडिय़ों पर लदता है, उसे देखकर समझ आता है कि जो कंपनियां भारी-भरकम पैकिंग में सामान बेचती हैं, उन पर पैकिंग का एक गार्बेज-टैक्स (कचरा-टैक्स) क्यों नहीं लगाना चाहिए? हर प्रदेश को चाहिए कि अपने प्रदेश में आने वाले सामानों में से इस्तेमाल होने वाले सामान, और पैकिंग के सामान का अलग-अलग वजन लिखना अनिवार्य करे, और पैकिंग के सारे सामान पर एक निपटारा-टैक्स लगाए कि धरती पर लादे जा रहे इस प्रदूषण से निपटना भी सामान बनाने और बेचने वालों की जिम्मेदारी है। एक इत्र की शीशी 50 एमएल इत्र की होती है, लेकिन उसकी बोतल का कांच, उसका ढक्कन, उसका पु_े का डिब्बा 200 ग्राम से अधिक का होता है। बहुत सी चीजों में इसी तरह गैरजरूरी पैकिंग रहती है, और कारोबार की गैरजिम्मेदारी तोडऩे के लिए राज्यों को इस तरह का कचरा-निपटारा-टैक्स लागू करना चाहिए। समझदार राज्य यह नहीं देखेंगे कि शुरूआत में कारोबार को दिक्कत होगी, टैक्स बहुत कम मिलेगा, और मेहनत अधिक करनी पड़ेगी। समझदार राज्य यह देखेंगे कि धरती पर इस किस्म की पहल करने वाले वे पहले राज्य की तरह दर्ज हो सकते हैं, और ऐसा रिकॉर्ड बनाने से परे वे अपने प्रदेश में कचरे के बोझ को घटा भी सकते हैं।
लेकिन यह तो हुई सरकार की बात, हम त्यौहार के मौके पर जनता की बात कर रहे हैं, और धरती को साफ रखने वाले, खतरा उठाकर मेहनत करने वाले लोगों की बात कर रहे हैं। लोगों को चाहिए कि अपनी बाकी जिंदगी, और अपनी अगली पीढ़ी की पूरी जिंदगी के लिए एक जिम्मेदार नागरिक बनकर रहें। इंसान की कोई औकात नहीं है कि वह धरती को खत्म कर सके, लेकिन कुछ सौ बरस में वे धरती को इतना बर्बाद जरूर कर सकते हैं कि धरती उनके खुद के रहने लायक न रह जाए। लोगों को दीवाली की साफ-सफाई में घर के गैरजरूरी सामानों को निकालकर आसपास के उन लोगों को देना चाहिए जिन्हें कि उनकी जरूरत है, और जो पुराने सामानों को इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करेंगे। इसके अलावा किसी भी किस्म के घूरे को बढ़ाना अपने खुद के लिए आत्मग्लानि का काम होना चाहिए क्योंकि फिजूल के सामान और कचरे को अलग-अलग करके आसपास से निकलने वाले कचरा बीनने वालों को देकर सबका भला किया जा सकता है। घर के एक कोने में कागज-पु_े, प्लास्टिक, पॉलीथीन जैसे सामानों को इक_ा करके रखना चाहिए, और कचरा बीनने वालों को बुलाकर दे देना चाहिए। उन्हें अगर एक बार बता देंगे कि हर महीने-पन्द्रह दिन में आते-जाते वे कचरे का पूछ लिया करें, तो आपका खुद का, कचरे वालों का, और धरती का, सबका भला हो सकता है, होगा।
दीवाली का मौका मरम्मत का रहता है, सुधार का रहता है, और लोगों के घर-दुकान से बहुत सारा बिल्डिंग-मलबा भी निकलता है। आमतौर पर लोग गैरजिम्मेदार रहते हैं, और ऐसे मलबे को भी घूरे पर डाल देते हैं जो कि म्युनिसिपल पर बहुत बड़ा बोझ रहता है। ऐसे कचरे को अलग से निपटाना चाहिए, और कोई कल्पनाशील और जिम्मेदार म्युनिसिपल हो तो वह शहरों में कई जगहों पर ऐसे छोटे क्रशर लगा सकती हैं जो कि मलबे को फिर से रेत-गिट्टी जैसा बारीक बनाकर पाटने या भवन निर्माण के किसी काम के लायक बना दे।
देश में ही कई प्रदेशों में जिम्मेदार म्युनिसिपल कार्पोरेशनों ने ऐसा किया है। एक तरफ तो इंदौर जैसा शहर सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च करके सबसे साफ शहर का तमगा हासिल करता है, दूसरी तरफ दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल ऐसे हैं जिन्होंने कचरे को छांटना और उसे म्युनिसिपल की तय जगह तक पहुंचाना नागरिकों की ही जिम्मेदारी बना दिया है। वे कचरे पर खर्च करने के बजाय उससे सिर्फ कमाई कर रहे हैं, और वहां के नागरिक जिम्मेदार बनने के बाद अब अगली पीढ़ी को भी जिम्मेदारी सिखा रहे हैं। लेकिन देश के बाकी अधिकतर प्रदेशों में राज्य सरकारों से लेकर म्युनिसिपलों तक लोग लुभावने और फिजूल के कामों में लगे हैं, और बुनियादी काम किनारे खिसका दिए गए हैं।
एक बार फिर आखिर में हम लोगों से कहना चाहते हैं कि किसी गैरजिम्मेदार सरकार और म्युनिसिपल के तहत जीते हुए भी जिम्मेदार नागरिक बना जा सकता है। जो गरीब लोग कचरा बीनकर जिंदा रहते हैं, उनकी मदद भी की जा सकती है, और यह सब करते हुए इस धरती को भी अपनी अगली पीढ़ी के जिंदा रहने लायक छोड़ा जा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार के इस बार के चुनावी नतीजे बीती रात आधी रात के बाद तक आते रहे, और आज सुबह अलग-अलग पार्टियों की सीटों और उनके वोटों की तस्वीर साफ हुई। वैसे तो भाजपा ने अपने राष्ट्रीय नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दम पर यह चुनाव लड़ा था, और एक किस्म से मोदी ही चुनाव मैदान में थे, इसलिए जीत के हकदार मोदी ही हैं। उनकी पार्टी ने कई किस्म से कई मोर्चों पर शानदार प्रदर्शन किया और सत्ता पर अपने गठबंधन की वापिसी सुनिश्चित की। दूसरी तरफ बिहार में सरकार बनाने का मोदी से भी अधिक श्रेय कांग्रेस को जाता है जिसने गठबंधन में 70 सीटें हासिल कीं, और उनमें से 51 सीटें हार गई। मोटेतौर पर यही 51 सीटें तेजस्वी को सत्ता से दूर रखने वाली रहीं। अगर कांग्रेस कम सीटों पर लड़ी होती, और उन सीटों पर वामपंथियों को मौका दिया गया होता, तो आज तेजस्वी मुख्यमंत्री होता। वामपंथियों को 28 सीटें दी गईं जिनमें से 16 सीटें उन्होंने जीतकर गठबंधन को दीं। ऐसा अनुपात अगर कांग्रेस की जीत का होता तो फिर बात ही क्या थी।
सीटों के आंकड़े कई मायनों में बहुत दिलचस्प हैं। भाजपा ने अपनी 21 सीटें बढ़ा लीं, और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सीएम घोषित किया था, लेकिन नीतीश की पार्टी जेडीयू की सीटें 28 घट गईं। अब रामविलास पासवान के गुजरने के बाद उनके बेटे चिराग ने नीतीश के खिलाफ खुली बगावत करते हुए एनडीए छोड़ दिया था, और सिर्फ एक मुद्दे पर पूरा चुनाव लड़ा कि वे अगली सरकार बनाकर नीतीश कुमार को जेल भेजेंगे। अब चिराग पासवान ने 135 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, और उनका एक उम्मीदवार जीता भी है। लेकिन जिस दम-खम के साथ उन्होंने अपना सीना चीरकर मोदी की छवि दिखाने का दावा किया, और मोदी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार की पार्टी को जमकर हराया भी, वह देखने लायक था। आंकड़े बताते हैं कि करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर नीतीश की पार्टी की हार चिराग पासवान की पार्टी की वजह से हुई है। अब मोदी का नाम जपने वाले चिराग ने अपने समर्थकों से भाजपा के पक्ष में वोट डालने कहा होगा, और नीतीश के खिलाफ वोट डालने कहा होगा। यह भी एक वजह है कि भाजपा को फायदा हुआ, और जेडीयू को नुकसान हुआ। ऐसी चर्चा चारों तरफ हर राजनीतिक विश्लेषक की कलम से कुछ हफ्तों से आ रही थी कि भाजपा नीतीश कुमार का कद काटकर छोटा करने जा रही है, भाजपा की ऐसी कोई साजिश अगर थी, तो वहां तक तो हमारी पहुंच नहीं थी, लेकिन चुनावी नतीजे आज यह सवाल भी खड़ा कर रहे हैं कि क्या अब भी भाजपा को नीतीश को सीएम बनाना चाहिए? और यह सवाल भी कि क्या नैतिकता के नाते नीतीश को खुद ही पीछे नहीं हट जाना चाहिए? कुल मिलाकर आज नीतीश की हालत यह है कि सुबह से एक दर्जन कार्टूनिस्ट नीतीश को मोदी की जेब में, मोदी के कंधे पर सवार, मोदी की उंगली पकडक़र चलते हुए बना चुके हैं। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं तो भी यह हार रहेगी, और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री नहीं भी बनते हैं तो भी वे जीते हुए हैं क्योंकि वे विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन चुके हैं। इस मौके पर बेमौके की एक बात यह है कि खुद तेजस्वी यादव के लिए नेता प्रतिपक्ष का एक कार्यकाल, जिसमें वामपंथी उनके करीबी सहयोगी रहेंगे, वह उनके लिए निजी रूप से मुख्यमंत्री के कार्यकाल के मुकाबले बेहतर होगा।
बिहार चुनाव के विश्लेषण में वहां के अधिक जानकार लोगों ने दो बातें लिखी हैं जिन पर गौर करना चाहिए। पहली बात तो यह कि दलितों के वोट वाली पार्टी को जब तेजस्वी के गठबंधन से निराशा हुई, तो वे छोडक़र निकल गए, और एनडीए जाकर मोदी से कुछ सीटें पाईं, कई सीटें जीतकर दीं, और जाहिर है कि बहुत सी दूसरी सीटों पर उन्होंने एनडीए को अपने समुदाय के वोट भी दिलवाए होंगे। बिहार के जानकार लोगों का यह भी मानना है कि मुस्लिम समाज की राजनीति करने वाले ओवैसी ने तेजस्वी यादव के गठबंधन को मिलने वाले मुस्लिम वोटों में खूब घुसपैठ की, और खुद भी 5 सीटें पाईं, और कुछ दर्जन सीटों पर वोट पाकर गठबंधन की संभावनाएं खत्म कीं। ओवैसी से राजनीतिक विश्लेषकों को यही उम्मीद थी, और उन्होंने उसे पूरा किया। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने आज सुबह ही ओवैसी को वोटकटवा कहकर उन्हीं अटकलों और आरोपों को आगे बढ़ाया है कि ओवैसी गालियां तो बीजेपी को देते हैं, लेकिन उनकी हरकतों से फायदा भी बीजेपी को ही मिलता है।
कुल मिलाकर बिहार का यह चुनाव वामपंथियों के शानदार प्रदर्शन का रहा, उन्होंने अपनी सीटें बढ़ाईं, अपने वोट बढ़ाए, उन्हें मिली सीटों पर जीत का प्रतिशत शानदार रहा। तेजस्वी यादव ने हाशिए पर से जीत से दस कदम पीछे तक का यह सफर शानदार तरीके से तय किया। मोदी के करिश्मे और चुनाव जीतने की उनकी तकनीक के बारे में हम कल भी इसी जगह लिख चुके हैं।
बिहार के ये चुनाव खासे जटिल थे, एनडीए में बड़ी फूट थी, गठबंधन को छोडक़र लोग निकले थे, ओवैसी ने भारतीय राजनीति में अपनी एक चर्चित उपयोगिता जमकर साबित की, और आखिर में कांग्रेस के बारे में यह कहना होगा कि उसने इतना बड़ा कौर मुंह में भर लिया था कि जो उसकी चबाने की क्षमता से अधिक बड़ा था। जिन 70 सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवार खड़े किए, उतनी जगह चुनाव लडऩे की उसकी तैयारी भी नहीं थी, ऐसा भी एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है, और चुनावी नतीजे भी साबित करते हैं कि यह अंदाज हो सकता है सच हो। अधिक सीटें हासिल करने में तो कांग्रेस गठबंधन के भीतर जीत गई, लेकिन मतदाताओं के सामने इनमें से बड़ी संख्या में सीटें भी हार गई, और तेजस्वी की मुख्यमंत्री बनने की मजबूत संभावना को भी हरा दिया। फिर भी एक बात है, भाजपा के लोग नाशुकरे नहीं हैं, बहुत से भाजपा नेता खुलकर इस बात को मंजूर कर रहे हैं कि कांग्रेस ने एक बार फिर भाजपा को सरकार में आने में पूरी मदद की। अब यह बात कांग्रेस की नीयत में तो नहीं होगी, लेकिन यह उसकी नियति जरूर बन गई है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नाम में चाणक्य होने से, या किसी के लिए चाणक्य का विशेषण इस्तेमाल करने से चाणक्य की कहानियां सच नहीं होने लगतीं। टुडेज चाणक्य नाम की एक चुनावी सर्वे या ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसी ने बिहार के आखिरी मतदान के बाद तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले महागठबंधन को एनडीए गठबंधन से तीन गुना अधिक सीटें मिलने का अनुमान घोषित किया था। और एनडीए जिस दम-खम से, स्पष्ट बहुमत से बिहार पर काबिज होते दिख रहा है, उससे एग्जिट पोल नाम की सर्वे-तकनीक अधकचरी साबित हो रही है। बहुत सारे एग्जिट पोल तेजस्वी-गठबंधन के पक्ष में दिखने से पिछले तीन दिनों में देश के मीडिया और सोशल मीडिया में तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया था, लेकिन क्रिकेट में आखिरी रन और चुनाव में आखिरी वोट की गिनती के पहले हड़बड़ी में कोई नतीजे निकालने से साख चौपट होती है।
बिहार में वोटों की गिनती अभी चल ही रही है लेकिन तमाम सीटों पर गिनती जारी है, और भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन की लीड 129 सीटों पर दिख रही है, और तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले गठबंधन की लीड 104 सीटों पर दिख रही है। सीटों का यह फासला पिछले कई घंटों से बना हुआ है, और यह इतना बड़ा है कि इसे पाटकर महागठबंधन का फिर से आगे आना अब नामुमकिन सा लग रहा है। एक बार फिर एनडीए बिहार की सत्ता पर दिख रहा है, जो कि पिछले चुनाव में नहीं जीता था, लेकिन नीतीश कुमार के गठबंधनबदल की वजह से सत्ता पर आ गया था। उस हिसाब से एनडीए वहां दुबारा नहीं जीता है, वह सत्ता पर काबिज जरूर रहते दिख रहा है।
बिहार के नतीजों ने बहुत सारी बंधी-बंधाई राजनीतिक जुमलेबाजी को फ्लॉप कर दिया है। लेकिन लोगों को आज रात तक पूरे नतीजे आ जाने के बाद यह सोचना पड़ेगा कि एनडीए के भीतर मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कद और कितना छोटा हो गया है क्योंकि उनकी पार्टी की सीटें न सिर्फ अपने गठबंधन के भीतर भाजपा से काफी कम है, बल्कि तेजस्वी की आरजेडी से भी कम हैं। ऐसी नौबत में भाजपा अपने चुनाव पूर्व के वायदे और घोषणा के मुताबिक नीतीश कुमार को दुबारा मुख्यमंत्री बनाए तो यह भाजपा का नीतीश पर एक किस्म का अहसान होगा जिसके चलते सरकार के भीतर नीतीश मौजूदा कार्यकाल के मुकाबले कमजोर रहेंगे, और नैतिक रूप से दबे रहेंगे।
बिहार के चुनावों में एनडीए और भाजपा की अगर हार हुई रहती, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नाकामयाब करार देने की तैयारी में बहुत सारे लोग बैठे थे। और लोगों को यह भी लग रहा था कि यह लालू यादव को तीखे साम्प्रदायिकता-विरोधी तेवरों को जनसमर्थन की वापिसी दिख रही है, तकलीफ के साथ हजारों किलोमीटर पैदल चलकर बिहार लौटने को मजबूर मजदूरों की बद्द्ुआ एनडीए को लगी है, बिहार के नौजवान बेरोजगारों की नाउम्मीदी ने एनडीए को हराया है। ऐसी बहुत सी बातें लोगों ने पिछले चार दिनों में ट्वीट भी की थीं, बयानों में भी कही थीं, और आज टीवी चैनलों के विश्लेषणों के लिए राजनीति के तथाकथित विशेषज्ञों ने ऐसे जुमलों की तैयारी भी कर रखी होगी, लेकिन उनमें से किसी को इस्तेमाल करने की नौबत नहीं आई।
बिहार विधानसभा चुनाव के साथ-साथ देश के बहुत से राज्यों में विधानसभा और लोकसभा के उपचुनाव भी हुए, जहां पर बिहार से परे के मुद्दे थे, लेकिन जहां-जहां के नतीजे सामने दिख रहे हैं, वे सारे के सारे एनडीए या भाजपा के पक्ष में दिख रहे हैं। चूंकि बिहार का घड़ा मोदी के सिर पर फोडऩे की तैयारी थी, इसलिए सेहरा भी उन्हीं के सिर बंधना चाहिए क्योंकि बिहार में भी नीतीश तो डूब चुके हैं, वे कमल के फूल को थामकर किसी तरह सतह पर बने हुए हैं, और उसी की मेहरबानी से एक बार और मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
बहुत से लोगों ने अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ मोदी के गहरे सार्वजनिक रिश्तों को लेकर ट्रंप के चुनावी नतीजों से बिहार के नतीजों को जोडक़र अटकलें लगाई थीं। लेकिन यह जाहिर है कि ट्रंप तो भारतवंशी वोटों के लिए मोदी के मोहताज थे, मोदी बिहार के वोटों के लिए किसी तरह अमरीका पर आश्रित नहीं थे। आज बिहार के अलावा देश भर में बिखरे हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा आगे रही है, उन सबके पीछे अगर कोई एक अकेली वजह हो सकती है, तो वह सिर्फ मोदी है।
मतलब यह कि भारत के चुनावी फैसले तय करने में आज अगर कोई ब्रांड सबसे अधिक असर रख रहा है, तो वह मोदी का है। फिर चाहे मोदी कार्टूनिस्टों के पसंदीदा निशाना क्यों न हों, चाहे उनकी दाढ़ी से लेकर उनके कपड़ों के रंग तक का मजाक क्यों न बनाया जा रहा हो, नाम तो चुनावों में एक ही नेता का चल रहा है, और वह मोदी का है। आज बिहार चुनाव और बाकी प्रदेशों के उपचुनावों में मोदी के मुकाबले जो भी पार्टियां और जो भी नेता थे, उन सबके लिए यह आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन का एक समय है कि क्या मोदी ब्रांड के चुनावी-मुकाबले के लिए कोई हथियार और औजार अभी बाकी हैं, या फिर बाकी पार्टियां बिल्ली की तरह छींका टूटने के इंतजार में बैठी रहेंगी कि एक दिन मोदी अपने करमों से ही डूबेंगे, और उस दिन उनकी बारी आएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने दिल्ली समेत पूरे राजधानी क्षेत्र में आज आधी रात से 30 नवंबर तक के लिए पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल पर पूरी रोक लगा दी है। यह आदेश देश के और दर्जनों शहरों-कस्बों पर भी लागू हो रहा है जहां पिछले बरस नवंबर में वायु प्रदूषण से जीना मुश्किल हो रहा था। इसके लिए वैज्ञानिक पैमाने तय किए गए हैं जिन पर अधिक चर्चा यहां जरूरी नहीं है।
हमने दो दिन पहले इसी जगह इस बात पर लिखा है कि पटाखों पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला मानने वाले नेता अपनी बकवास से हिन्दुओं का ही अधिक नुकसान कर रहे हैं क्योंकि बारूदी धुएं का पहला हमला तो अमूमन हिन्दू फेंफड़ों पर ही होता है। आज भी कुछ प्रदेशों में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है, और कई प्रदेशों में लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि बारूद के धुएं का जहर किसी धार्मिक परंपरा को नहीं देखता, और अपने दायरे में आने वाले तमाम फेंफड़ों पर हमला करता है।
अब सवाल यह है कि जिस प्रदेश में जो पार्टी विपक्ष में रहती है, आमतौर पर उसे ही सरकार के किसी भी तरह के प्रतिबंध नाजायज लगते हैं। और बात सिर्फ पटाखों पर रोक की नहीं है, कभी लोगों को हेलमेट पहनाने की कोशिश हो, तो भी ऐसा ही होता है। विपक्ष की पार्टी तुरंत ही सडक़ों पर उतर आती है, और पुलिस की कार्रवाई के लिए तानाशाही, लोगों पर जुल्म जैसे नारे लगने लगते हैं। उस वक्त नेतागिरी करती पार्टियां और उसके नेता यह नहीं देखते कि हेलमेट पहनने से नुकसान किसी का नहीं होता, लेकिन किसी सडक़ हादसे की नौबत आने पर सिर पर चोट लगने से मौत या स्थाई विकलांगता का खतरा घट जाता है, तकरीबन मिट ही जाता है। लेकिन लोगों की जिंदगी और मौत की फिक्र किए बिना यह नेतागिरी चलती रहती है।
ऐसी नेतागिरी धार्मिक विसर्जन पर भी अड़ी रहती है, फिर चाहे उससे नदी और तालाब प्रदूषण से खत्म ही क्यों न हो जाएं। ऐसी नेतागिरी शहरों की खासी चौड़ी सडक़ों को किनारे की दुकानों के बाहर फैले सामानों से पटवाने में लगी रहती है, फिर चाहे उसकी वजह से रात-दिन ट्रैफिक जाम क्यों न होता रहे, और थमी हुई गाडिय़ों की वजह से प्रदूषण ही क्यों न बढ़ जाए।
विपक्ष से सत्ता में आने के लिए कुछ नेता तो ऐसी नेतागिरी में लगे रहेंगे, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार में बैठे लोगों को यह भी देखना चाहिए कि उनका कार्यकाल पूरा होने तक प्रदेश में अराजकता को और कितना बढ़ाया जाएगा? प्रदेश सरकारों के सामने एक बड़ी चुनौती यह रहती है कि जनता पर नियम-कायदों का अनुशासन लागू करने से कुछ तो लोग नाराज होते हैं, और बाकी लोगों को विपक्ष अपने भडक़ावे से नाराज कर देता है। ऐसे में सत्ता इस बात से हड़बड़ा जाती है कि आने वाले चुनाव में नाराज वोटर कहीं सत्तारूढ़ पार्टी को न निपटा दें। अब छत्तीसगढ़ जैसा राज्य जिसमें विधानसभा चुनाव के बाद बनने वाली राज्य सरकार अगले करीब एक बरस में लोकसभा चुनाव और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव, दोनों से फारिग हो जाती है। इसके बाद साढ़े तीन बरस का एक लंबा कार्यकाल ऐसा मिलता है जिसमें सरकार जनता की भलाई के लिए जनजीवन पर कड़ाई लागू कर सकती है, और अपने प्रदेश को बेहतर बना सकती है। ऐसे चुनावों का कैलेंडर हर प्रदेश में अपना-अपना रहता है, लेकिन चुनावों के बीच के वक्त को हर किसी को नियम-कायदे लागू करके जनता का व्यापक भला करने की कोशिश करनी चाहिए। इसमें ट्रैफिक के नियम भी लागू होते हैं, शहरों में अवैध कब्जे और अवैध निर्माण पर कार्रवाई भी लागू होती है, और छोटे-छोटे दूसरे सार्वजनिक नियम भी लागू होते हैं। अगर कोई सरकार पूरे पांच बरस लोकलुभावन-मोड पर ही काम करती रहेगी तो वह अपने को मिले प्रदेश को बर्बाद करके अगली सरकार को देगी। चुनावी-राजनीति की यह मजबूरी तो हो सकती है कि सत्तारूढ़ पार्टी चुनावों के कुछ महीने पहले से जनता पर सरकार की कड़ाई को रूकवा दे, लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से प्रदेशों का यह तजुर्बा रहा है कि जब व्यापक जनकल्याण के लिए बिना भेदभाव नियम-कायदे लागू किए जाते हैं, तो लोग उनका बुरा नहीं मानते।
छत्तीसगढ़ से लगे हुए महाराष्ट्र के नागपुर में बहुत बरस पहले एक म्युनिसिपल कमिश्नर तैनात किए गए थे। चन्द्रशेखर नाम के इस अफसर की साख कड़ाई बरतने वाले की थी। राज्य सरकार ने शहर को सुधारने के लिए उसे खुली छूट भी दी थी। कुछ महीनों में चन्द्रशेखर ने शहर की तमाम बड़ी सडक़ों के किनारे के अवैध निर्माण और अवैध कब्जे हटाकर शहर को एक बिल्कुल नई शक्ल दे दी थी। जनता की सहूलियत स्थाई रूप से हमेशा के लिए बढ़ गई थी जो कि आज कुछ दशक गुजर जाने पर भी बेहतर बनी हुई है।
महाराष्ट्र के नागपुर में इस अफसर की तैनाती के पहले भी म्युनिसिपल और शासन के नियम वही थे जिनका इस्तेमाल करके इसने शहर को एकदम सुधार दिया था। आज हालत यह है कि जिन राज्यों में कोई चुनाव नहीं है, वहां भी सरकारें हेलमेट, या मास्क, या गाड़ी चलाते मोबाइल के इस्तेमाल जैसे नियम-कायदे लागू नहीं कर पा रही हैं, लागू नहीं करना चाहती हैं। वोटरों को इस तरह गुदगुदाते हुए रहना ठीक नहीं है, खुद उनके लिए ठीक नहीं है क्योंकि मजबूत हो चुकी बदइंतजामी वोटरों की ही अगली पीढ़ी को एक बुरी जिंदगी देकर जाएगी। इसलिए राज्य सरकारों को चुनावों के बीच के वक्त का इस्तेमाल करके बिना भेदभाव की कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अगले चुनाव आने के पहले वोटरों को उसका फायदा भी दिख सके। देश के जिन प्रदेशों या शहरों में हेलमेट अनिवार्य रूप से लागू है, वहां सिर की चोट से सडक़ों पर मौतें बहुत घट जाती हैं। सरकारों को अपनी इस कानूनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि लोगों को अगर लापरवाह और गैरजिम्मेदार बनाया जाता है, तो वह लापरवाही और गैरजिम्मेदारी महज हेलमेट के मामले में नहीं रहती, वह कोरोना और मास्क जैसे मामलों में भी हावी हो जाती है। वोटरों को खुश रखने के दो तरीके हो सकते हैं, एक तो यह कि उन्हें तमाम नियम तोडऩे की छूट देकर खुश रखा जाए, और दूसरा यह कि उनके भले के नियमों को लागू करके उनकी जिंदगी पीढिय़ों के लिए महफूज और बेहतर बनाई जाए। सरकारों को जनता की समझ पर इतना बड़ा शक नहीं करना चाहिए कि वह अपनी भलाई के लिए सरकार की कड़ाई के फायदे भी नहीं देख पाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका का राष्ट्रपति चुनाव वैसे तो हर बार ही दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी-खबरें गढ़ता है क्योंकि बाकी दुनिया की जिंदगी में अमरीका का जितना अहम किरदार है, उतना किसी और देश का नहीं। फिर हकीकत हो, या फसाना, यह माना जाता है कि अमरीकी राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान होता है। इसलिए इस बार जब इस कुर्सी पर काबिज मौजूदा इंसान अपने तमाम बावलेपन, अपनी बदचलनी, अपनी बदमिजाजी, अपनी बदतमीजी, अपने झूठ, और अपने घटियापन के बावजूद चुनाव मैदान में था, तो लोगों की धडक़नें बढ़ी हुई तो थीं ही। पिछली बार भी डोनल्ड ट्रंप ने पहली नजर में अपने मुकाबले अधिक समझदार दिखने वाली हिलेरी क्लिंटन को हरा ही दिया था, और इस बार भी अगर अमरीकी वोटरों का एक हिस्सा फिर वैसी ही चूक कर बैठता, तो किया ही क्या जा सकता था। लेकिन बेहतर समझ काम आई, और ट्रंप का विसर्जन कर दिया गया। वैसे तो ट्रंप अब तक बावलों की तरह बकवास करते हुए अदालतों के चक्कर लगा रहा है कि जो बाइडन की हासिल की चुकी जीत में कुछ कानूनी अड़ंगा लगाया जाए, लेकिन वैसे कोई आसार अब बचे नहीं हैं।
इस चुनाव में हिन्दुस्तानियों की अधिक दिलचस्पी इसलिए थी कि जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीका गए, तो वहां उनके एक प्रायोजित भीड़भरे जलसे में पहुंचकर डोनल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार का काम किया था। इसके बाद कोरोना के चलते हुए भी हिन्दुस्तान के अहमदाबाद में मोदी ने डोनल्ड ट्रंप को प्रवासी भारतीय वोटरों और भारतवंशियों को लुभाने का एक और मौका दिया, और बेमौके का नमस्ते-ट्रंप करने का खतरा उठाया जिसके बाद ट्रंप को वोट चाहे जितने मिले हों, अहमदाबाद को कोरोना भरपूर मिला था। लोगों ने कल से तंज कसते हुए मोदी का वह वीडियो पोस्ट करना शुरू कर दिया है जिसमें वे अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगाते दिख रहे हैं। पिछले हफ्ते भर से लगातार यह विश्लेषण भी हो रहे हैं कि ट्रंप के चुनाव में मोदी की वैसी जाहिर और घोषित मदद के बाद अब राष्ट्रपति जो बाइडन का हिन्दुस्तान के लिए, मोदी सरकार के लिए क्या रूख रहेगा? इस विषय के अधिक जानकार लोग इस पर बहुत सारा लिख रहे हैं, इसलिए हमें इस पर अपनी सीमित समझ को झोंकने की जरूरत नहीं है।
लेकिन कल शाम से रात तक की दो बातों को देखने की जरूरत है। शाम हुई और बिहार में वोटों का आखिरी दौर निपटा। इसके तुरंत बाद टीवी चैनलों ने अपने-अपने एक्जिट पोल दिखाने शुरू कर दिए। इन एक्जिट पोल्स को मिलाकर जो नतीजा निकल रहा है, वह बिहार से एनडीए के सफाए का है, और तेजस्वी यादव के सत्ता में आने का है। हालांकि देश के एक सबसे बड़े अखबार, भास्कर, का एक्जिट पोल अगर सच निकलता है, तो तेजस्वी यादव का सफाया हो रहा है, और एनडीए भारी बहुमत से बिहार की सत्ता पर लौट रही है। लेकिन दूसरे किसी सर्वे का ऐसा कहना नहीं है, बल्कि चाणक्य नाम के एक नामी-गिरामी सर्वे ने तो एनडीए के मुकाबले तेजस्वी-गठबंधन को तीन गुना सीटें दी हैं। कुल मिलाकर कल शाम से माहौल यह बना है कि बिहार से नीतीश-भाजपा का सफाया हो रहा है, और तेजस्वी की ताजपोशी हो रही है। अब वैसे तो कोई वजह नहीं है कि बिहार के नतीजों को अमरीका के नतीजों से जोडक़र देखा जाए, लेकिन चूंकि घंटों के भीतर ही ये दोनों नतीजे आए हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इन्हें एक साथ तो देखा ही जा सकता है। बिहार में जो हार होते दिख रही है, और अमरीका में जो हार हुई है, इन दोनों के पीछे महत्वोन्मादी आत्ममुग्धता जिम्मेदार दिख रही है, इन दोनों के पीछे सार्वजनिक जीवन की सद्भावना के प्रति भारी हिकारत दिख रही है, इन दोनों के पीछे वोटरों को बंधुआ समझकर मनमानी करने की बददिमागी दिख रही है। किन्हीं दो मिसालों की तुलना करना बड़ा खतरनाक होता है, और उनमें कौन-कौन सी चीजें एक जैसी नहीं है, उसकी लंबी फेहरिस्त बन सकती है। लेकिन दुनिया में उदारता, सद्भावना, सज्जनता, और बेहतर मूल्यों पर भरोसा रखने वाले जो लोग बिहार और अमरीका दोनों को जानते हैं, उनके बीच ये कुछ घंटे एक बड़ी राहत के थे। 2020 का यह साल लॉकडाऊन और कोरोना से लदा हुआ चले आ रहा था, और लोग 2021 का इंतजार कर रहे थे, बहुत बेसब्री से। ऐसे में बिहार और अमरीका के लोगों के लिए कल शाम से रात के बीच के कुछ घंटे बहुत राहत लेकर आए हैं। बिहार और अमरीका इन दोनों ही जगहों पर बहुत ईमानदार चुनावी मुद्दों, जमीनी हकीकत से जुड़े मुद्दों ने चुनावी रूख तय किया, और समझदार लोगों का बहुतायत इससे बहुत राहत में हैं कि धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, विदेशी खतरा, विधर्मी दुश्मन, सरहद पर शहादत जैसे फर्जी चुनावी मुद्दों से राहत मिली। उधर अमरीका को देखें तो डोनल्ड ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनाव अभियान से ही सरहद से लगे हुए मैक्सिको के खिलाफ जिस भयानक हिंसक तरीके से एक नफरती हमला बोला था, जिस तरह वहां दीवार बनाने और उसकी लागत मैक्सिको से वसूलने की बात कही थी, वह न केवल चार बरस के कार्यकाल में फ्लॉप शो साबित हुई, बल्कि इस चुनाव में तो ट्रंप के मुंह से दीवार का नाम तक नहीं निकला। इसलिए बिहार और अमरीका इन दोनों में इस बार चुनावी मुद्दे असली रहे, और दोनों के नतीजों का रूख मतगणना से और मतदान-बाद के एक्जिट पोल से एक सरीखा दिख रहा है।
अमरीका के राजनीतिक विश्लेषकों का शुरूआती घंटों का यह मानना है कि मोदी-ट्रंप की तमाम गलबहियों, और संग-संग चुनाव प्रचार के बावजूद अमरीका के भारतवंशी वोटरों की पसंद जो बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति-प्रत्याशी कमला हैरिस रहे। इसके पीछे कमला का भारतवंशी होना ही वजह नहीं रही, और भारतवंशियों ने बड़ी संख्या में, बहुतायत में जो बाइडन को भी पसंद किया।
कुछ लोगों को जो बात पसंद नहीं आएगी, उसे भी कमला हैरिस के संदर्भ में कह देना ठीक है। कमला के नाना नेहरू सरकार में अफसर थे, उन्होंने अपनी बेटी श्यामला को पढऩे के लिए अमरीका के बर्कले विश्वविद्यालय भेजा था जो कि अपने कट्टर वामपंथी रूझान की वजह से जेएनयू की याद दिलाता है। श्यामला की बेटी कमला अपने नाना की महिला-अधिकारवादी सोच से बहुत प्रभावित थी, और हर कुछ बरस में हिन्दुस्तान उनके पास रहने आती थी। महिला अधिकार, और वामपंथी रूझान से मिलकर कमला हैरिस बनी है। और इधर सुनते हैं कि बिहार के चुनाव में भी वामपंथियों वाले तेजस्वी-गठबंधन को लीड मिल रही है, और वामपंथियों की सीटें बढ़ रही हैं। अमरीका और बिहार, इन दो जगहों के नतीजे और रूख से अगर लोगों को कुछ समझ पड़ता है, तो वे समझ लें।
अमरीका में तो अब चार बरस कोई चुनाव नहीं होने हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में इस दौरान कई चुनाव होंगे, और अगला आम चुनाव भी होगा।
भारत की राजधानी दिल्ली एक बार फिर बुरे प्रदूषण से घिर गई है। और ऐसे में दिल्ली सरकार ने पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया है। आज 7 नवंबर से 30 नवंबर तक लगाए गए इस प्रतिबंध के खिलाफ दिल्ली के एक चर्चित और विवादास्पद भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने सरकार पर हमला बोला है, और कहा है कि हर साल दीवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध क्या जायज है? सरकार को हिन्दू धर्म के त्यौहारों पर तो बैन लगाना आता है, लेकिन क्या सरकार कभी यह हुक्म दे सकती है कि ईद और क्रिसमस कैसे मनाए जाएंगे?
यह सवाल बेवकूफों और साम्प्रदायिक लोगों के लिए तो जायज हो सकता है जिन्हें दीवाली और क्रिसमस-ईद में सरकार का प्रतिबंध का फर्क साम्प्रदायिक दिखेगा, और हिन्दुओं पर आसानी से मार करने की बात समझ आएगी। यह सवाल उठाने वाले कपिल मिश्रा पहले भी घोर भडक़ाऊ और साम्प्रदायिक बयान देते आए हैं, और केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की मेहरबानी से बचते आए हैं। अब एक बार फिर उन्होंने अलग-अलग धर्मों को लेकर यह सवाल उठाया है और केजरीवाल सरकार के साथ-साथ ईद और क्रिसमस पर भी हमला बोला है।
लेकिन जो तथ्य देश की सतह पर तैर रहे हैं, उनको न छूकर केवल ऐसा बयान देना एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी की बात है जिसके लिए कपिल मिश्रा को भारी शोहरत हासिल है। आज देश में कम से कम दो भाजपा सरकारें, कर्नाटक और हरियाणा में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है। तो क्या ये दोनों सरकारें ईद और क्रिसमस पर कोई और रोक लगा रही हैं? दोनों ही राज्यों में खासे वक्त से भाजपा की सरकारें हैं, और कई ईद, कई क्रिसमस निकल चुकी हैं, अब तक तो ईद और क्रिसमस पर कोई रोक सुनाई नहीं पड़ी है, तो कपिल मिश्रा के पैमाने पर इन सरकारों को दीवाली के पटाखों पर रोक का कोई नैतिक अधिकार तो होना नहीं चाहिए। लेकिन दिल्ली की बात करते हुए कपिल मिश्रा भाजपा के इन राज्यों के लगाए प्रतिबंध को अनदेखा कर रहे हैं, और भेदभाव फैलाने वाले बयानों की यही खूबी होती है।
अब पल भर तो कपिल मिश्रा से अलग होकर बात करें, तो दीवाली के पटाखे किन बस्तियों और इलाकों में अधिक जलेंगे? कौन लोग उन्हें अधिक जलाएंगे? किनकी सांसों में बारूद का जहरीला धुआं सबसे पहले जाएगा? ये तमाम लोग हिन्दू समाज के होंगे, या कम से कम पटाखे जलाने वालों में हिन्दुओं की बहुतायत होगी। जो साम्प्रदायिक लोग दीवाली को एक हिन्दू त्यौहार मानते हैं, और इस हकीकत को अनदेखा करते हैं कि भारत में इसका एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक पहलू भी है, और सभी धर्मों के लोग इसमें शामिल होते हैं, हम उन्हीं के तर्क का इस्तेमाल करके पटाखों से होने वाले सीधे नुकसान से हिन्दुओं की बहुतायत को जोड़ रहे हैं। अभी कोरोना के खतरे के बीच जिस धर्म के भी त्यौहार अराजकता के साथ मनाए गए, कोरोना का संक्रमण और खतरा उन्हीं धर्मों के लोगों पर अधिक आया। अब ऐसी रोक को अगर किसी धर्म पर नाजायज प्रतिबंध माना जाए, तो अराजकता को बढ़ाने वाले लोग उन्हीं धर्मों के लोगों का नुकसान कर रहे हैं, उन्हीं की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं। अगर किसी प्रतिबंध का विरोध अपने लोगों को खतरे से बचाने के लिए होता है, उनको नुकसान से बचाने के लिए होता है, तो वह जायज होगा। लेकिन जो दिल्ली प्रदूषण से जूझने के सौ किस्म के उपाय कर रही है, जो आसपास के प्रदेशों में खेतों में फसल के बचे हुए ठूंठ, पराली, को जलाने पर भी कानूनी कार्रवाई करने की अपील कर रही है, उस दिल्ली में अगर प्रदूषण घटाने के लिए पटाखों पर रोक लगाई जा रही है तो उसे एक धर्म से जोडक़र उसका विरोध करना अराजकता को बढ़ाना और साम्प्रदायिकता को भडक़ाना है।
जो लोग पटाखों को हिन्दू धर्म से जोडक़र देखते हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि रावण को मारकर जिस दिन राम अयोध्या लौटे थे, उस दिन अयोध्या में रौशनी करके लोगों ने दीवाली मनाई थी। क्या उस दिन हिन्दुस्तान में बारूद था? क्या उस दिन, उस युग में बारूद का आविष्कार भी हुआ था? क्या तुलसीदास से लेकर वाल्मीकि तक किसी ने पटाखों का जिक्र किया है? जो बात दीवाली की बुनियाद की असली पौराणिक कथा में नहीं है, आज उसे उस धर्म का अनिवार्य हिस्सा क्यों बना देना? मस्जिदों पर लगे हुए लाउडस्पीकरों पर अजान दी जाती है, और उसे लेकर भी यह सवाल उठाया जाता है कि जिस दिन कुरान लिखी गई थी, जब इस्लाम और अजान शुरू हुए, उस दिन क्या लाउडस्पीकर थे? और यह सवाल जायज है, सभी धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर हटने चाहिए क्योंकि आमतौर पर धर्मस्थलों के इर्द-गिर्द उन्हीं धर्मों को मानने वाले अधिक रहते हैं, और किसी भी किस्म के धार्मिक शोरगुल से उन्हीं का नुकसान अधिक होता है। दीवाली के पटाखे वैसे तो आसपास के सौ-दो सौ किलोमीटर तक प्रदूषण बढ़ाते हैं, लेकिन सबसे अधिक प्रदूषण तो उन्हें जलाने वाले लोगों को ही शिकार बनाएगा।
आज देश में बहुत से लोगों को धर्मान्धता बढ़ाने और साम्प्रदायिकता खड़ी करने के लिए ऐसे बखेड़े खड़े करने की आदत है, यह उनका पेशा है, और यह अपने संगठनों के बीच अपनी जगह मजबूत करने की उनकी स्थाई और लगातार कोशिश बनी रहती है। लेकिन देश की सरकारों को सख्ती से यह रोक लगानी चाहिए। आज कोरोना से उबरे हुए लोगों को भी सांस की कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना के बाद की यह पहली दीवाली है, और हर शहर में ऐसे दसियों हजार लोग हैं जो कोरोना से तो बच गए हैं, लेकिन सांस की दिक्कतों को झेल रहे हैं। जिन लोगों को भी यह लगता है कि लोगों की सांसों से अधिक अहमियत हिन्दू त्यौहार पर पटाखों की है, उन्हें बारूद के धुएं वाले गैस चेम्बर में कुछ घंटे बंद रखना चाहिए, और उसके बाद उनसे दुबारा राय लेनी चाहिए। कपिल मिश्रा जैसे लोग ऐसे कुछ घंटों के बाद कलपते मिश्रा बनकर निकलेंगे, और हिन्दू-मुस्लिम भडक़ाऊ बातें बोलना भूल जाएंगे। लोकतंत्र का मतलब लोगों को खतरे में डालने का हक नहीं होना चाहिए। कपिल मिश्रा कल तक अरविंद केजरीवाल की पार्टी में थे, आज वे एक राष्ट्रीय पार्टी भाजपा में हैं, उनकी पार्टी को भी यह सोचना चाहिए कि जब खुद की दो राज्य सरकारों ने पटाखों पर रोक लगाई है, तो उसके बाद देश की राजधानी के अपने नेता को भडक़ाऊ बातें करने से रोके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
स्वीडन की एक नाबालिग लडक़ी पिछले कुछ बरस से पर्यावरण की फिक्र करते हुए लगातार खबरों में है। ग्रेटा थनबर्ग का नाम कुछ लोग पिछले बरस नोबल पुरस्कार के लायक भी मान रहे थे जब उसने लोगों का ध्यान खींचने के लिए अपने स्कूल के बाहर सडक़ किनारे धरना दिया था, और पूरी दुनिया के स्कूली बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की थी। पाकिस्तान में आतंकियों की गोली से बुरी तरह जख्मी होकर देश छोडऩे को मजबूर हुई मलाला यूसफजाई को नोबल पुरस्कार मिला, और वह तालिबानी हमला झेलने वाली लड़कियों की शिक्षा के लिए लगातार कोशिश करती हुई एक पाकिस्तानी लडक़ी थी। जब उस पर उसके काम की वजह से हमला हुआ तब वह कुल 15 बरस की थी। और इसी के आसपास उम्र में ग्रेटा ने समंदर पर बोट में अकेले सफर करके पर्यावरण की तरफ ध्यान खींचा था, और पर्यावरण के पक्के दुश्मन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ सोशल मीडिया पर खुली बहस में उलझी। आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए सूझा कि सोशल मीडिया पर अपनी हार के माहौल के बीच अपनी जीत के दावे कर रहे डोनल्ड ट्रंप पर तंज कसते हुए ग्रेटा ने लिखा है- डोनल्ड, चैन से बैठो।
अमरीकी राष्ट्रपति के साथ सार्वजनिक रूप से लगातार इस तरह उलझने वाली यह पहली और अकेली लडक़ी है। इसी तरह लड़कियों के हक के लिए काम करते हुए तालिबानी गोली खाने वाली मलाला भी पहली लडक़ी थी। दुनिया के बाकी लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके 15 बरस के बच्चे क्या करते हैं, क्या कर रहे हैं, क्या पढ़ते हैं, उनके सामाजिक सरोकार क्या हैं? जिन दो मिसालों को लेकर हम यहां लिख रहे हैं वे एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग हैं। एक तरफ ग्रेटा एक विकसित और संपन्न, परिपक्व लोकतंत्र स्वीडन के, शायद, खाते-पीते परिवार की लडक़ी है जिसे एक उदार लोकतंत्र में पैदा होने और किशोरावस्था तक पहुंचने का मौका मिला। दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे कमजोर और नाकामयाब लोकतंत्र में महिलाओं से भेदभाव के धर्मान्ध और आतंकी माहौल के बीच मलाला ने अपने बूते अकेले संघर्ष किया था, और जान गंवाने के खतरे तक पहुंची। बाकी दुनिया इन दोनों के बीच के किसी माहौल में होगी, इनसे अधिक कमजोर और खतरनाक कुछ देश होंगे, और इनसे अधिक बड़े भी कुछ देश होंगे। इसलिए हम इस उम्र के बच्चों के बारे में सोच रहे हैं कि उनकी सोच, उनकी समझ, और उनके सामाजिक सरोकार उन्हें कहां तक पहुंचाते हैं, उनसे क्या करवाते हैं?
इस उम्र, इससे कम, और इससे अधिक उम्र के बच्चों वाले तमाम मां-बाप को कुछ देर बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनके बच्चे मोबाइल और मोबाइक, जेब खर्च, और इंटरनेट के डेटा पैकेज के अलावा किस किस्म के सरोकार रखते हैं? वे औरों के लिए क्या करते हैं इस बारे में सोचें, आसपास की जरूरतें क्या हैं, और उनके लिए उनके मन में फिक्र क्या है यह भी सोचें। और सोचते हुए इन दो लड़कियों से अपने बच्चों की तुलना करें। महंगे ब्रांड के सबसे महंगे मोबाइल से किसी बच्चे का भविष्य नहीं बनता। महंगी मोबाइक से हासिल कुछ नहीं होता सिवाय जिंदगी पर खतरे के। और दुनिया का इतिहास महंगे सामानों वाले बच्चों से नहीं लिखाता, दुनिया का इतिहास महान काम करने वाले लोगों से लिखाता है।
हिन्दुस्तान के इतिहास में एक नौजवान हुआ था, भगत सिंह। हिन्दुस्तान की आजादी के लिए उसने बरसों अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, हथियारबंद लड़ाई लड़ी, और 23 बरस की उम्र में फांसी पर चढ़ गया। इस दौरान और इस उम्र के पहले भगत सिंह ने दुनिया के साम्राज्यवाद, हिन्दुस्तान की आजादी के हक, धर्म के नुकसान जैसे मुद्दों पर जितना लिखा, उतना आज के हिन्दुस्तान के 23 बरस के नौजवान औसतन पढ़े भी नहीं रहते हैं। नौजवान पीढ़ी में शायद दो-चार फीसदी ही ऐसे होंगे जो कि भगत सिंह के शहीद हो जाने की उम्र तक उतना पढ़ पाएं जितना भगत सिंह लिख गया था।
लोग आज अपने उस उम्र के बच्चों को बात करके देख सकते हैं कि दुनिया की राजनीति, कारोबार, आजादी, क्रांति, और समाजवाद जैसे मुद्दों पर उनका क्या सोचना है? धर्म और उसके नुकसान के बारे में उनकी कोई समझ है या नहीं है? लोग इस तरह से अपने बच्चों के बारे में इसलिए नहीं सोच पाते क्योंकि वे खुद अपने वक्त, और आज भी, इस तरह से नहीं सोच पाते हैं। उनकी खुद की समझ कमजोर रहती है इसलिए अपने बच्चों से उनकी उम्मीदें भी कमजोर ही रहती हैं। हर किसी को मलाला या ग्रेटा की तरह, या भगत सिंह की तरह इतिहास रचना जरूरी नहीं है, लेकिन अपने आसपास के सरोकारों की समझ रखना तो जरूरी है। आज हिन्दुस्तान में औसत बच्चे और नौजवान अपनी महंगी निजी जरूरतों के लिए अपने मां-बाप से संघर्ष करने में इतने जुटे हुए रहते हैं कि उन्हें अपनी दुनिया के, अपने करीब के लोगों के संघर्ष के बारे में सोचने और समझने का न वक्त होता, और न ही उन्हें ऐसी जहमत उठाने की जरूरत लगती। ऐसी आत्मकेन्द्रित और ऐसी मतलबपरस्त पीढ़ी पैदा होती है, बड़ी होती है, खाती-पीती है, और खत्म हो जाती है, वह इस धरती पर कुछ भी जोडक़र नहीं जाती।
दुनिया के सबसे विकसित, संपन्न, और साफ-सुथरे देशों में से एक स्वीडन में इस लडक़ी को पर्यावरण से खुद कोई तकलीफ नहीं थी, लेकिन उसका हौसला था कि उसने न्यूयार्क के पर्यावरण के सम्मेलन तक पहुंचने के लिए वह 60 फीट लंबी एक बोट पर अकेले समंदर का सफर करके पहुंची थी। पन्द्रह दिनों का यह सफर उसने 15 बरस की उम्र में अकेले तय किया था, और आज दुनिया पर मंडराए हुए एक बड़े पर्यावरण-खतरे को मुद्दा बनाने की अपील पूरी दुनिया से की थी।
ये तीन अलग-अलग लोग थे, इन तीनों ने अपने वक्त से आगे बढक़र, अपनी उम्र से आगे बढक़र, अपनी जिम्मेदारियों से बहुत आगे बढक़र ये काम किए। बाकी लोग भी सोचें कि वे अपने आसपास कौन से सरोकार से जुड़ सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसान कई हफ्तों से पटरियों पर बैठे हैं, और रेलगाडिय़ां बंद हैं। कुछ हफ्ते गुजरे और अब राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलनकारियों ने पिछले बरसों की तरह पटरियों पर डेरा डाल दिया है, और रेलगाडिय़ां राह बदल-बदलकर चल रही हैं। हिन्दुस्तान अभी लॉकडाऊन के असर से उबर नहीं पाया है, कोरोना का खतरा टला नहीं है, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर लाई जाने वाली कोरोना-वैक्सीन का 26 जनवरी गणतंत्र दिवस तक भी कोई आसार नहीं है, और देश के दो बड़े राज्यों में रेलगाडिय़ों की आवाजाही इस तरह बंद है। दिल्ली की एक सडक़ के किनारे चल रहे शाहीन बाग आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक कड़ा रूख दिखाया था कि सार्वजनिक जगहों को इस तरह रोका नहीं जा सकता, और प्रशासन अपनी कार्रवाई करे। दूसरी तरफ कुछ राज्यों में तकरीबन आदतन रेलगाडिय़ों को रोककर देश का ध्यान खींचने की संस्कृति विकसित हो गई है जिनमें राजस्थान शायद सबसे आगे है।
आज पूरे देश में किसान जगह-जगह चक्काजाम कर रहे हैं क्योंकि मोदी सरकार के नए किसान-कानूनों से वे दहशत में हैं। लेकिन ये चक्काजाम कुछ घंटों तक चलेंगे, और उसके बाद गाडिय़ां अपने रास्ते चलने लगेंगी। लोकतंत्र में प्रदर्शनों का प्रतीकात्मक महत्व भी होता है, और सार्वजनिक जगहों पर जब जनजीवन अस्त-व्यस्त होता है, तो ऐसे प्रतीकों का आकार छोटा भी रहना चाहिए। किसी राज्य से गुजरने वाली रेलगाडिय़ों को रोक देना बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया जाना चाहिए। बहुत से लोग उन रेलगाडिय़ों में इलाज के लिए जाने वाले रहते हैं, बहुत से लोग घर लौटने वाले रहते हैं, और बहुत से लोग नौकरी के इंटरव्यू के लिए, किसी दाखिला-इम्तिहान के लिए जाते रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों की जिंदगी को तबाह करके उनके सीमित मौकों को खत्म करने का हक किसी आंदोलनकारी को नहीं होना चाहिए। जो राजनीतिक दल या जो सामाजिक संगठन किसी आंदोलन के लिए रेलगाडिय़ों को प्रतीकों से अधिक देर तक रोकते हैं, वे समाज के व्यापक हितों के खिलाफ काम करते हैं। अगर लोगों को रोकना ही है तो उन्हें नेताओं और मंत्रियों की लालबत्ती लगी हुई मुसाफिर कारों को रोकना चाहिए क्योंकि किसी भी किस्म के फैसले तो उन्हीं के हाथों होने हैं। रोकना ही है तो बड़ी अदालतों के जजों की कारें रोकना चाहिए क्योंकि फैसले तो उन्हीं अदालतों से होने हैं। इनके बदले आम जनता की आवाजाही से अदावत निकालना निहायत नाजायज बात है। किसी को यह अंदाज नहीं है कि कई-कई हफ्तों तक या महीनों तक जब रेलगाडिय़ां बंद रहती हैं, तो उनसे गरीबों की जिंदगी पर कैसा बुरा असर पड़ता है। पूरे इलाकों और आगे के राज्यों की अर्थव्यवस्था चौपट होती है, बना हुआ सामान निकल नहीं पाता, कच्चा माल आ नहीं पाता, सडक़ों से आवाजाही महंगी पड़ती है, कारखाने बंद होने की नौबत आ जाती है, और बड़े पैमाने पर कारोबार तबाह होते हैं। लोगों को याद होगा कि उत्तर-पूर्व में कुछ जगहों पर महीनों तक आर्थिक नाकाबंदी की जाती थी। उससे किसी की मांग जल्दी पूरी नहीं होती थी, बल्कि पूरे इलाकों का इतना नुकसान होता था कि जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। उत्तर-पूर्व घूमने जाने वाले सैलानी तक वहां के आंदोलनों से कतराने लगे थे, कोई वहां व्यापार करना नहीं चाहते थे। अगर केन्द्र सरकार की कई किस्म की रियायतें उत्तर-पूर्वी राज्यों को नहीं मिलती रहतीं, तो वहां की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से पनपी और बढ़ी बदहाली सिर चढक़र बोलती।
जिन राज्यों में ऐसे अराजक आंदोलनों की संस्कृति विकसित हो जाती है, उनका नुकसान जल्द खत्म नहीं होता, उनकी साख जल्द नहीं लौटती। पंजाब और राजस्थान के इन दो अलग-अलग आंदोलनों के पीछे जो भी राजनीतिक ताकतें हैं, या इन मुद्दों से सरकार की फजीहत होते देखते जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्हें अपनी ऐसी राजनीतिक मतलबपरस्ती से उबरना चाहिए। इस देश की संसद में जब भी बहस हो, तमाम राजनीतिक दलों को इस बात पर एकमत होना चाहिए कि देश में कहीं भी ट्रेन नहीं रोकी जाएगी। इसी तरह सडक़ों पर होने वाले आंदोलनों में एम्बुलेंस-फायरब्रिगेड को रास्ता देने पर सहमति होनी चाहिए।
सरकारों के खिलाफ हो, या किसी और किस्म के मुद्दों को लेकर आंदोलन हो, इन आंदोलनों को लंबे समय तक अराजक बने रहने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। अगर कुछ लोगों को आंदोलन का हक है, तो बाकी लोगों को भी सार्वजनिक जगहों पर अपनी आवाजाही का एक बुनियादी हक है। इसलिए आज चल रहे इन दो रेल रोको आंदोलनों को खत्म होना ही चाहिए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस पार्टी की राज्य सरकारें हैं, पंजाब में तो कांग्रेस पार्टी और राज्य सरकार घोषित रूप से केन्द्र के कृषि कानूनों के खिलाफ हैं, और जाहिर है कि इस वजह से राज्य सरकार का रूख किसानों के आंदोलन के साथ ही होगा। लेकिन राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन राज्य सरकार की फजीहत भी कर रहा है। इन दोनों प्रदेशों में रेल रोको आंदोलन की वजहें अलग-अलग हैं, कुछ और राज्यों में अलग-अलग समय पर दूसरी वजहों से ऐसे आंदोलन हुए हैं, लेकिन हम इन सभी को एक साथ गिनते हुए इस सिलसिले को खत्म करने की जरूरत महसूस करते हैं। पटरियों पर प्रतिरोध रेलगाडिय़ों को तो रोक देता है, लेकिन देश को गड्डे में ले जाता है, और ऐसी किसी भी नौबत की सबसे बुरी मार सबसे गरीब और सबसे असंगठित पर सबसे अधिक पड़ती है। इसलिए यह सिलसिला खत्म किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई में आज सुबह से हडक़म्प मचा हुआ है क्योंकि रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी को पुलिस ने आत्महत्या के लिए प्रेरित करने की एक शिकायत पर गिरफ्तार किया है। अर्नब गोस्वामी का मामला इसलिए कुछ अधिक तूल पकड़ रहा है कि वे देश में सत्तारूढ़ भाजपा के भक्त हैं, रात-दिन सोनिया गांधी और कांग्रेस से नफरत पर जिंदा रहते हैं, वे पड़ोस के पाकिस्तान से जंग की भरसक कोशिश करते हैं, हिन्दुस्तान के भीतर साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए रात-रात जागते हैं, और खुद को नापसंद लोगों के बारे में आमतौर पर ऐसी जुबान में अपने टीवी पर रात-दिन चीखते हैं जिस जुबान को लोग सडक़छाप कहकर बदनाम करते हैं। हमने तो सडक़ पर किसी आम इंसान को कभी इतनी नफरत फैलाते नहीं देखा है। अर्नब की गिरफ्तारी इस वजह से भी अधिक तूल पकड़ रही है कि पिछले महीनों में उनका महाराष्ट्र की शिवसेना की अगुवाई वाली राज्य सरकार से बहुत बुरा टकराव चल रहा है, मुम्बई पुलिस के साथ उनका कुकुरहाव चल रहा है। ऐसे में उनकी गिरफ्तारी के कुछ मिनटों के भीतर यह जायज ही था कि केन्द्र सरकार के बड़े-बड़े कई मंत्री उन्हें बचाने के लिए ट्विटर पर टूट पड़े।
अब सवाल यह है कि आपातकाल में मीडिया पर हुए हमले से इसकी तुलना करना जो शुरू हो गया है, क्या वह तुलना सचमुच जायज है? आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का यह मामला एक इंटीरियर डेकोरेटर के भुगतान का है। उसकी आत्महत्या की चिट्ठी में लिखा मिला था कि अर्नब गोस्वामी ने उसके कई करोड़ रूपए का भुगतान नहीं किया, और उसी तकलीफ में वह आत्महत्या कर रहा है। खुदकुशी करने वाले की मां ने भी आत्महत्या कर ली थी। इंटीरियर डेकोरेटर की पत्नी ने पुलिस में 2018 में रिपोर्ट दर्ज कराई थी और मृतक की चिट्ठी भी लगाई थी जिसमें अर्नब और दो दूसरे लोगों द्वारा 5.04 करोड़ रूपए का बकाया भुगतान न करने की बात लिखी थी, और आर्थिक तंगी की वजह से आत्महत्या करने की।
अब सवाल यह उठता है कि क्या अर्नब गोस्वामी के हक आत्महत्या करने को मजबूर हुए मां-बेटे के, या उनके बाद रह गए लोगों के हक से अधिक हो सकते हैं? क्या एक टीवी चैनल के मालिक और उसकी जोर-जोर से चीखकर बोलने की ताकत के मुकाबले दो मुर्दों की जुबान, और उनके पीछे जिंदा बाकी परिवार की जुबान बंद कर देना जायज होगा? क्या देनदारी के विवाद के बाद हुई आत्महत्या पर इसलिए कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए कि देनदार एक टीवी चैनल का मालिक है, जो अपने को जर्नलिस्ट भी बताता है? आज हिन्दुस्तान में श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन खत्म हो चुका है जो कि आजादी के बाद से अपने मरने तक इस देश में पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत और पैमाने तय करता था। अब उसकी जगह जगह-जगह प्रेस क्लब बने हैं, या एडिटर्स गिल्ड जैसे दूसरे संगठन। एडिटर्स गिल्ड ने भी आज एक बयान जारी करके इस गिरफ्तारी का विरोध किया है।
हम अभी इस मामले में अपनी कोई राय इस पहलू पर देना नहीं चाहते कि देनदारी का झगड़ा जायज था या नाजायज। लेकिन इतना तो है कि दो आत्महत्याओं के बाद मिली ऐसी चिट्ठी के बाद कोई कानूनी कार्रवाई तो होनी थी, और किसी को कानूनी कार्रवाई से इस वजह से तो छूट मिल नहीं सकती कि वह अपने को पत्रकार बता रहा है, या टीवी चैनल का मालिक है, या उसका सरकार के साथ कोई झगड़ा चल रहा है। देश में अगर अखबार या बाकी मीडिया के लोग ईमानदारी से अपना काम करते हैं, तो राज्य या केन्द्र की सरकारों के साथ उनका कोई न कोई झगड़ा तो हो ही सकता है। लेकिन क्या ऐसे में उनके खिलाफ दूसरी किसी भी शिकायत पर कोई कार्रवाई करना नाजायज होगा?
यह बात महज महाराष्ट्र की नहीं है, देश के बहुत से प्रदेशों में पत्रकारों पर तरह-तरह की कार्रवाई चल रही है। छत्तीसगढ़ में भी बहुत से पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज हुई है। ऐसे मामलों में यह समझने की जरूरत है कि किसी पत्रकार पर कार्रवाई पत्रकारिता की वजह से हुई है, या पत्रकारिता से परे की किसी वजह से हुई है? इस देश में श्रमजीवी पत्रकारों में शुमार के लिए यह जरूरी होता था कि उसकी आय का कोई और जरिया न हो। केन्द्र और बहुत से राज्यों में ऐसे कई नियम हैं जो कि अखबारों के मैनेजमेंट देखने वाले लोगों को मान्यता प्राप्त पत्रकार बनने से रोकते हैं। जाहिर है कि अखबार और बाकी मीडिया के कारोबार में लगे लोगों में भी उनके पत्रकार होने, और गैरपत्रकार मीडिया कर्मचारी होने पर फर्क किया जाता है। ऐसे में मीडिया के मालिक, या मैनेजमेंट में दखल रखने वाले और साथ-साथ समाचार-विचार का काम भी देखने वाले लोग पत्रकारिता से परे के अपने सौदों के लिए कितनी सुरक्षा के हकदार माने जा सकते हैं? आज देश भर में बहुत सी जगहों पर ईमानदार और मेहनतकश, पेशेवर पत्रकारों के खिलाफ भी ज्यादती हो रही है, लेकिन बहुत सी जगहों पर पत्रकारों या दूसरे मीडियाकर्मियों के गैरपत्रकारीय कामकाज की वजह से उन पर जुर्म दर्ज हो रहे हैं, और उनके वैसे कामकाज को अगर मीडिया अपने ऊपर ढोने का शौक पालेगा, तो मीडिया की रही-सही जरा सी बाकी इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी। अर्नब गोस्वामी के केस की सच्चाई जो होगी उसमें उनको अपना पक्ष रखने में सुप्रीम कोर्ट तक बड़े-बड़े वकील हासिल हैं, और ऐसे जज भी जो कि आधी रात उनका केस सुनने तैयार हो जाते हैं। इसलिए कानूनी बचाव उनके सामने कोई समस्या नहीं है। उनकी देनदारी के किसी झगड़े की कोई समस्या है, तो उससे एडिटर्स गिल्ड अपने आपको किस तरह जोड़ रहा है, उसे वह जाने।
जिस तरह किसानों की आत्महत्या के मामले में बहुत सी सरकारें हाथ झाड़ लेती हैं कि वह गैरकिसानी वजहों से की गई आत्महत्याएं हैं। अब किसी किसान का पड़ोस की किसी दूसरी शादीशुदा महिला से प्रेम या देहसंबंध रहा हो, और उसका विवाद होने के बाद वह आत्महत्या कर ले, तो इसे किसानी-कर्ज की आत्महत्या से अलग गिनना ठीक होगा। इसी तरह मीडिया के कर्मचारी या मालिक के गैरमीडिया कामकाज पर हुई कार्रवाई को कानूनी नजरिए से ही देखना ठीक होगा, वरना मीडिया से जुड़े संगठन अपने से जुड़े एक इंसान के हिमायती होकर उसके कथित शिकार मृतक के साथ ज्यादती ही करेंगे।
अभी तक इस मामले में जो जानकारी सामने आई है, वह किसी समाचार या टेलीकास्ट को लेकर की गई कानूनी कार्रवाई नहीं बता रही, और यही बता रही है कि यह आत्महत्या के मामले से जुड़ी हुई गिरफ्तारी है। मीडिया के संगठनों को, और मीडियाकर्मियों को यह तय करना होगा कि वे अपने पेशे और कारोबार के मालिकों और कर्मियों के कितने और कैसे-कैसे गैरमीडिया कामकाज के साथ खड़े रहेंगे। और जब इस मामले पर बात चल ही रही है, तो यह भी बात हो जानी चाहिए कि एडिटर्स गिल्ड इस देश में मीडिया के नाम पर फैलाई जा रही नफरत और गंदगी के बारे में क्या सोचता है? क्या जिन लोगों को बचाने के लिए वह आज आगे आया है, क्या महज उन्हें बचाना ही एक पेशेवर संगठन के रूप में उसकी जिम्मेदारी है, या मीडिया के नाम पर जो हिंसा, बेइंसाफी, नफरत और गंदगी फैलाई जा रही है, उस पर भी उसे मुंह खोलना चाहिए? देश का कोई भी हिस्सा हो, अखबारनवीस या दूसरे किस्म के मीडियाकर्मी, उनके कामकाज की जिम्मेदारी और जवाबदेही एक सीमा तक ही उनके हिमायती पेशेवर संगठनों को लेनी चाहिए, उनकी दीगर गतिविधियों पर उन्हें बचाते हुए ऐसे पेशेवर संगठन अपनी साख खो बैठने का खतरा उठाएंगे, उठा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले एक-दो महीने में दुनिया के तमाम देशों से, अंतरराष्ट्रीय संगठनों से, भारत के भी देश-प्रदेश से आर्थिक आंकड़े सामने आए हैं। उनसे एक सुनहरी सी तस्वीर सामने आ रही है। छत्तीसगढ़ में आज के एक आंकड़े से पता लगता है कि जमीन की रजिस्ट्री में पिछले बरस के अक्टूबर महीने के मुकाबले इस महीने कितना अधिक टैक्स मिला है। भारत सरकार के बहुत तरह के आंकड़े बतलाते हैं कि पिछले कुछ महीनों के मुकाबले जीएसटी कलेक्शन कितना बढ़ा है, या औद्योगिक उत्पादन कितना बढ़ा है। बहुत सी खबरों में तो लापरवाही से इस बात को भी छोड़ दिया जाता है कि यह तुलना कब से हो रही है, पिछले बरस के इन्हीं महीनों से हो रही है, या अभी पिछले कुछ महीनों से हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारें अपने-अपने हिसाब से इन आंकड़ों को पेश कर रही हैं, और अपनी मनचाही तस्वीर दिखा रही हैं।
आंकड़ों का विश्लेषण आसान नहीं होता है। उनके साथ कोई विशेषण नहीं होते हैं, उनकी अपनी कोई समझ नहीं होती है। वे ईंट की तरह होते हैं जिनसे मंदिर भी बन सकता है, मजार भी, और शौचालय भी। लोग, और आम लोग नहीं, मीडिया के लोग या अर्थशास्त्री, सरकारें और दूसरे आर्थिक संगठन आंकड़ों का विश्लेषण करके जब एक तस्वीर पेश करते हैं, तो उससे कुछ सही नतीजा मालूम होने की उम्मीद होती है, लेकिन वैसा कई बार हो नहीं पाता है।
अब आज छत्तीसगढ़ में ऑटोमोबाइल की जमकर बिक्री के आंकड़ों से सरकार भी खुश है कि उसे टैक्स मिल रहा है। इन आंकड़ों को कई तरह से समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि पिछले कई महीनों से बंद चल रहे बाजार के बाद अब अगर त्यौहार के वक्त पर, नवरात्रि से लेकर दशहरे और दीवाली तक दुपहिया और चौपहिया अधिक बिक रहे हैं, तो यह पिछले महीनों की बकाया खरीदी भी है। इस खरीदी को पिछले बरस के त्यौहारी सीजन या इन महीनों की खरीदी से तुलना करना ठीक नहीं होगा क्योंकि पिछले बरस तो त्यौहारी सीजन के पहले के महीनों में भी बिक्री हुई थी जो कि इस बरस नहीं हो पाई थी, और लोगों की बकाया खरीदी अब हो रही है। इसलिए आज अगर बिक्री को लेकर लोग यह सोच रहे हैं कि अर्थव्यवस्था सुधर गई है, तो इस महीने के आंकड़े ऐसी गलत तस्वीर दिखा रहे हैं। लॉकडाऊन और कोरोना के चलते, आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते, ठप्प कारोबार की वजह से यह मुमकिन ही नहीं है कि लोगों की खरीदी इतने जल्दी पटरी पर आ सके, उनके पास खरीदी की ताकत लौट सके। इसे पिछले महीनों के बकाया के साथ जोडक़र ही सही नतीजा निकाला जा सकता है।
आंकड़ों की ईंटों से मनचाही इमारत बनाई जा सकती है। हिन्दुस्तान में आज हकीकत यह है कि खोई हुई नौकरियां लौट नहीं रही हैं, क्योंकि गया हुआ कारोबार ही नहीं लौट रहा है। और यह हाल सिर्फ हिन्दुस्तान का हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे संपन्न और विकसित देशों में भी आर्थिक संकट छाया हुआ है, और लोगों के जिंदा रहने में मुश्किल आ रही है। महाराष्ट्र के एक बड़े अखबार समूह ने बहुत से लोगों को नौकरी से निकाल दिया, और ऐसा करने वाला यह अकेला मीडिया हाऊस नहीं है, चारों तरफ ऐसा ही हुआ है। कुछ रहमदिल मालिकों ने कर्मचारियों को निकाला नहीं, तो उनकी तनख्वाह आधी तक कर दी है, उनके काम के घंटे बढ़ा दिए हैं। महाराष्ट्र के जिस अखबार की यहां चर्चा की जा रही है, उसकी छंटनी के बारे में दिल्ली की एक समाचार वेबसाईट ने खबर पोस्ट की तो उसे अखबार ने 65 करोड़ रूपए का मानहानि का नोटिस भेजा है। अब यह एक नोटिस तो ठीक है, लेकिन देश भर में बड़ी अदालतों से लेकर छोटी अदालतों तक के जूनियर वकीलों ने अदालत और सरकार के सामने अपील की है कि उनके भूखों मरने की नौबत आ गई है, इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाए। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई भी हुई है, लेकिन सवाल यह है कि वकीलों के किसी संगठन के पास जमा रकम से इनकी मदद चाहे हो जाए, लेकिन देश में तो कोई दूसरे पेशेवर संगठन ऐसे नहीं हैं जो अपने सदस्यों की मदद करने की हालत में हों। आज जब कोर्ट-कचहरी नहीं चल रहे हैं, आम दिनों के मुकाबले एक चौथाई मामले वीडियो सुनवाई से हो रहे हैं, तो लोगों की कमाई तो गिर ही गई है। और तो और रावण बनाने वाले तक भूखों मर रहे हैं कि दर्जन भर की जगह अब एक-दो रावण ही बने हैं, यही हाल गणेश और दुर्गा की प्रतिमाओं का रहा, और यही हाल तकरीबन तमाम कारोबार का है।
ऐसे में हिन्दुस्तान के लोगों को बिक्री के या निर्यात के, या औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों को देखकर किसी सरकारी झांसे में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह हकीकत नहीं है, और आम लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वे खबरों के भीतर की बारीक जानकारी तक भी पहुंचना नहीं चाहते, और अब वे टीवी स्क्रीन पर नीचे चलती हुई पट्टी को ही पूरा सच मानने की हड़बड़ी में रहते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों को यह धोखा हो सकता है कि हालात सुधर रहे हैं, जबकि सच यह है कि अभी न कोरोना का खतरा टला है, न लॉकडाऊन के घाटे से लोग उबर पाए हैं, और ऐसे कोई संकेत नहीं है कि लोग मार्च के पहले की अपनी हालत तक भी पहुंच पाएंगे। सच तो यह है कि मार्च में जब लॉकडाऊन शुरू हुआ तब तक भी हिन्दुस्तानी आर्थिक मंदी ऊंचाई पर थी, और लोगों को उसके असर का पूरा अहसास हो नहीं पाया था। इन महीनों में अंधाधुंध तबाही हुई है, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि रोजगार लौटे बिना, कारोबार लौटे बिना, नौकरियां लौटे बिना बाजार में जमकर खरीदी होने लगे। आज की बिक्री पिछले महीनों की बकाया बिक्री भी है, त्यौहारी बिक्री भी है, इस बात को भूलना अपने आपको धोखा देना होगा। सरकार, और हो सकता है बाजार भी, अंकों की बाजीगरी करके लोगों को एक खुशफहमी में बनाए रखना अपनी खुद की हस्ती बचाए रखने के लिए जरूरी समझ रहे हों। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मथुरा के एक मंदिर में दो मुस्लिम नौजवानों ने भीतर जाकर वहां के आंगन में नमाज पढ़ी, और उनकी तस्वीरों को एक मुस्लिम-मामले के वकील ने फेसबुक पर पोस्ट किया। कुछ हिन्दुओं और मंदिर में इसके खिलाफ पुलिस रिपोर्ट की और अब इस पर जुर्म दर्ज किया गया है। यह पूरा सिलसिला मासूमियत से परे का लग रहा है। नमाज पढऩे वाले मुस्लिम तो फुटपाथ पर, रेलवे प्लेटफॉर्म पर नमाज पढ़ लेते हैं, किसी बाग-बगीचे में पढ़ लेते हैं, लेकिन किसी धर्मनगरी के मंदिर में जाकर इस तरह नमाज पढ़ें, यह बात कुछ अटपटी है। खासकर आज के तनाव में जहां उत्तरप्रदेश में ही कई मंदिर-मस्जिद विवाद अदालत में चल रहे हैं, और बाबरी मस्जिद पर अदालत के फैसले के बाद एक अलग किस्म का तनाव भरा सन्नाटा भी चल रहा है।
आज हिन्दुस्तान में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच रिश्ते वैसे तो बहुत अच्छे हैं, लेकिन अधिकतर धर्मों में कुछ ऐसे बवाली नेता भी हैं जो ऐसी किसी भी बात को लेकर बखेड़ा खड़ा करने की ताक में रहते हैं। उत्तरप्रदेश में पिछले दो-चार दिनों से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यह धमकी भी चल रही है कि ‘लव जेहाद’ के मामले में न थमे तो ऐसा करने वाले लोगों का राम नाम सत्य कर दिया जाएगा। कई लोग इसे एक संवैधानिक शपथ लेकर ओहदे पर आए व्यक्ति की गैरकानूनी धमकी भी बतला रहे हैं क्योंकि भारत की जुबान में राम नाम सत्य के मायने एकदम साफ हैं। ऐसे प्रदेश में इस तरह का बवाल न तो मुस्लिमों के साम्प्रदायिक सद्भाव की तरह देखा जाएगा, और न उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखाना हिन्दू संगठनों की ज्यादती कहलाएगी।
जिन्हें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करना होता है, उनके तेवर अलग होते हैं। हिन्दुस्तान में सैकड़ों बरस से ऐसे सैकड़ों मुस्लिम संत और कवि हुए हैं जिन्होंने राम और कृष्ण की आराधना में जाने कितना लिखा है। दर्जनों ऐसे मशहूर कव्वाल हैं जो कृष्ण की कहानियां गाते हैं। हिन्दुस्तान में खुदा की इबादत गाने वाले हिन्दुओं का कोई नाम शायद याद भी नहीं आएगा, लेकिन हिन्दू देवी-देवताओं को गाने वाले, उन पर लिखने वाले मुस्लिम शायर, कवियों, संतों, और कव्वालों की कोई कमी नहीं है। लेकिन वे लोग हवा में तैरते हुए तनाव के बीच इस तरह की कोई नाटकीय हरकत नहीं करते हैं।
आज जब फ्रांस की एक कार्टून पत्रिका से शुरू हुआ धार्मिक तनाव पूरी दुनिया में मुस्लिमों को प्रभावित कर रहा है, उत्तेजित कर रहा है, जिस वक्त हिन्दुस्तान का एक मशहूर शायर खुलेआम यह कह रहा है कि फ्रांस में वह होता तो वह वही करता जो वहां पर एक मुस्लिम ने कार्टून का विरोध करते हुए एक का सिर धड़ से अलग कर दिया था। यह वक्त एक अजीब से तनाव का है, यह वक्त हिन्दुस्तान के एक हमलावर तबके के बीच मुस्लिमों को पाकिस्तान के साथ जोडक़र देखता है, आज यहां के तनाव में बात-बात में लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात की जाती है, मानो पाकिस्तान का वीजा देना वहां के उच्चायोग का काम न होकर इस देश के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठनों के हाथ आ गया है। यह वक्त बहुत सम्हलकर चलने का है, और यहां एक-एक शब्द लोगों के देशप्रेम और उनकी गद्दारी तय करने के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। ऐसे सामाजिक और राजनीतिक माहौल में किसी को भी गैरजिम्मेदारी का कोई काम नहीं करना चाहिए।
फ्रांस में एक इस्लामी आतंकी ने जितने खूंखार तरीके से कार्टून का विरोध करते हुए एक बेकसूर का गला काट डाला, और उसके बाद फिर हमले हुए, उन पर भारत सरकार ने बहुत ही रफ्तार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए फ्रांस की सरकार के साथ खड़े रहने की घोषणा की है। भारत सरकार की यह घोषणा लोगों को चौंकाने वाली रही क्योंकि देश के भीतर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का साथ देने का ऐसा कोई रूख इन बरसों में केन्द्र सरकार का दिखा नहीं है। भारत के कुछ शहरों में फ्रांस के कार्टूनों के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं, फ्रांस सरकार के खिलाफ भी प्रदर्शन हुए हैं, और शायर मुनव्वर राणा का ताजा बयान तो इन तमाम प्रदर्शनों से आगे बढक़र आतंकी की वकालत करने वाला है जो कि हिन्दुस्तान के मुस्लिमों की एक खराब तस्वीर पेश कर रहा है। यह पूरा माहौल बहुत तनाव का चल रहा है, और दूसरे देशों में कुछ गिने-चुने मुस्लिम आतंकी भी जैसी हिंसा कर रहे हैं, उनसे भी हिन्दुस्तान में मुस्लिम-विरोधी लोगों को इस धर्म और इस बिरादरी के खिलाफ कहने को तर्क मिल रहे हैं। इसलिए आज लोगों को दूसरे धर्मों के प्रति अपना कोई प्रेम है, तो उसे बड़ी सावधानी से ही इस्तेमाल करना चाहिए। आज कोई मंदिर में जाकर नमाज पढ़े, कल कोई मस्जिद में जाकर हवन करने लगे, और परसों किसी गुरूद्वारे में जाकर कोई बपतिस्मा करने लगे, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव कम रहेगा, यह एक नया तनाव, एक नया बखेड़ा खड़े करने की हरकत अधिक रहेगी।
हम इसे एक बड़ी गैरजिम्मेदारी की हरकत मानते हैं, और मंदिर में जाकर नमाज पढऩे के पीछे चाहे जो भी नीयत रही हो, उससे इन दोनों धर्मों के बीच सद्भाव खत्म करने की नीयत रखने वाले लोगों के हाथ एक ताजा ईंधन लग गया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जेम्स बांड की फिल्मों में इस किरदार को अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग बहुत से लोगों ने निभाया, लेकिन उनमें से एक शॉन कॉनरी अधिक शोहरत पाने वाले अभिनेता थे। कल वे गुजरे तो इनकी फिल्मों का मजा लेने वाले लोगों के बीच अफसोस का दौर शुरू हो गया। लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ महिलाओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देने से मना कर दिया, और लिखा कि इसी आदमी ने महिलाओं के बारे में घोर अपमानजनक बातें भी कही थीं। इंटरनेट पर कुछ भी ढूंढना आसान हो जाता है, और 1965 में शॉन कॉनरी का प्लेबॉय पत्रिका को दिया गया एक इंटरव्यू पल भर में सामने आ गया जिसमें उसने कहा था- मैं नहीं समझता कि किसी महिला को पीटने में कोई खास बुराई है, हालांकि मैं ऐसा करते हुए यह सलाह दूंगा कि वैसे नहीं पीटना चाहिए जैसे किसी मर्द को पीटा जाता है। खुले हाथ का एक झापड़ उस वक्त सही होगा जब बहुत सी चेतावनियों के बावजूद कोई महिला न समझे। एक तो यह इंटरव्यू 1965 के उस वक्त का है जब महिलाओं की इज्जत करना अधिक चलन में नहीं था। फिर जेम्स बांड के किरदार का एक अनिवार्य हिस्सा खूबसूरत और ग्लैमरस महिलाओं से सेक्स रहता था, और ऐसी फिल्में कर-करके किसी का भी दिमाग थोड़ा सा खराब होना स्वाभाविक था। फिर यह इंटरव्यू अमरीका की एक मर्दाना ग्लैमरस नग्न पत्रिका प्लेबॉय को दिया गया था, और जाहिर है कि उसके सवाल और उससे बात करने वाले के जवाब मर्दाना तो रहने ही थे।
लेकिन हम जिन बातों के आधार पर यह विश्लेषण कर रहे हैं उनसे ठीक परे का एक इंटरव्यू अभी हिन्दुस्तान में भी सामने आया है। एक वीडियो इंटरव्यू में मुकेश खन्ना नाम के एक औसत दर्जे के चर्चित अभिनेता ने महिलाओं के अपमान की ढेर सारी बातें कही हैं। यह अभिनेता महाभारत में भीष्म पितामह बना था, और बच्चों के टीवी सीरियल शक्तिमान में यह एक सुपरमैन की तरह का किरदार, शक्तिमान, बनता है। अब इन दोनों ही किरदारों में किसी किस्म के सेक्स की कोई गुंजाइश तो थी नहीं, लेकिन इसने अभी वीडियो पर दर्ज इस इंटरव्यू में फिल्म उद्योग में सेक्स-शोषण के खिलाफ शुरू हुए मी-टू (मेरे साथ भी) अभियान को लेकर परले दर्जे की घटिया बातें कही हैं। उसका कहना है- औरत का काम है घर सम्हालना, प्रॉब्लम कहां से शुरू हुई है मी-टू की, जब औरत ने भी काम करना शुरू कर दिया। आज औरत मर्द के साथ कंधे से कंधा मिलाने की बात करती है। लोग महिलाओं की आजादी की बात करेंगे, लेकिन मैं आपको बता दूं औरत के बाहर काम करने से सबसे पहले घर के बच्चों का नुकसान होता है जिनको मां नहीं मिलती। जब से शुरूआत हुई (महिला के बाहर काम करने की) तब से यह भी शुरूआत हुई कि मैं भी वही करूंगी जो मर्द करता है। नहीं, मर्द मर्द है, और औरत औरत है।
अब अगर जेम्स बांड का सेक्सभरा किरदार करने से, और 1965 के वक्त में, और प्लेबॉय पत्रिका से बात करने से शॉन कॉनरी की वैसी सोच हो गई थी, तो फिर भीष्म पितामह और बच्चों का शक्तिमान बनने वाले की सोच तो ऐसी नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन अपनी ही बात को काटते हुए हम यह भी सोच रहे हैं कि महाभारत में जिस तरह भीष्म पितामह ने बेकसूर महिला पर जुर्म को अनदेखा किया था, हो सकता है कि भीष्म पितामह का किरदार करते-करते इस बहुत ही साधारण अभिनेता की सोच उस कहानी के जमाने की हो गई हो, जिस वक्त महिलाओं के लिए हिकारत ही रहती थी।
लेकिन इस मुद्दे पर आज लिखना इसलिए तय किया था कि किसी वक्त लापरवाही में कही गई कोई बात किस तरह लोगों की याददाश्त में भी दर्ज हो जाती है, और इतिहास में भी। आधी सदी के भी पहले 1965 में न तो इंटरनेट था, और न ही सोशल मीडिया। लेकिन लोग उस वक्त के इंटरव्यू में उस अमरीकी अभिनेता की कही हुई बातों को आज भी भूले नहीं हैं, और घटिया-हिंसक बातों की वजह से आज भी उसे श्रद्धांजलि देने से इंकार कर रहे हैं। अब तो वक्त बदल गया है, लोगों के वीडियो पल भर में ट्वीट हो जाते हैं, और बाद में मुकरना नामुमकिन भी हो जाता है। आज किसी को उसकी हिंसक और गलत बातों के लिए धिक्कारना आसान हो गया है। यही मुकेश खन्ना छत्तीसगढ़ में स्कूलों के एक फर्जीवाड़े में ब्रांड एम्बेसडर था, जालसाजों से उसकी यारी थी, और उसके नाम और चेहरे, और मौजूदगी का सहारा लेकर इस प्रदेश के हजारों बच्चों के मां-बाप को धोखा दिया गया था। ऐसा आदमी आज महिलाओं के सेक्स-शोषण के मुद्दे पर अगर यह कह रहा है कि चूंकि वे काम करने बाहर निकलती हैं, इसलिए उनके साथ ऐसा होता है, तो इस आदमी को महाभारत के भीतर ही दफन कर देना चाहिए। ऐसा बयान देने वाला महाभारत काल के बाद कम से कम लोकतंत्र में तो रहने का हकदार नहीं है। यह तो अच्छा है कि इनके मन की गंदगी ऐसे इंटरव्यू में सामने आती है, और लोगों को इन्हें धिक्कारने का मौका मिलता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक वक्त हिन्दुस्तान की जनता में राजनीतिक चेतना का यह हाल था कि क्यूबा से चे गुएरा का भारत आना हुआ था, और गांवों में किसानों के बीच जाना हुआ था, तो लोगों को क्यूबा का महत्व मालूम था। उसके भी और पहले आजादी के पहले से खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत में गांधी के दोस्त होने के नाते जो इज्जत मिली, वह दुनिया के इतिहास में कम ही लोगों को मिलती है, और इसी इज्जत के तहत उन्हें सीमांत गांधी का नाम दिया गया। हिन्दुस्तान ने ऐसा दौर देखा है जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू दुनिया के सभी बड़े मुद्दों पर अपनी राय रखते थे, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के हितों से परे भी उनका दखल रहता था। जहां भारत का कोई लेना-देना नहीं रहता था, वहां भी विश्वकल्याण के लिए, विश्वशांति के लिए नेहरू खुलकर बोलते थे, खुलकर लिखते थे, और दुनिया के बारे में उनकी सोच किताबों की शक्ल में दर्ज है जो कि समकालीन इतिहास की अहमियत रखने वाली किताबें मानी जाती हैं। वह वक्त था जब नेहरू हिन्दुस्तान के तमाम मुख्यमंत्रियों को चि_ी लिखते थे और देश और दुनिया के मामलात पर उन्हें अपनी राय बताते थे।
आज हिन्दुस्तान कंगना रनौत से जान और समझ रहा है कि गांधी ने क्या गलतियां की थीं, और किस तरह नेहरू प्रधानमंत्री बनने के लायक नहीं थे। यह हैरानी की बात है कि गांधी को मारने वालों से लेकर आज नेहरू के खिलाफ झूठ फैलाकर नफरत पैदा करने वाले लोगों तक के बीच बहुत से लोगों के पढ़े-लिखे होने का भी दावा किया जाता था। ऐसे में एक फिल्म अभिनेत्री जिसकी तमाम शिक्षा-दीक्षा नफरत और साम्प्रदायिकता की हुई दिखती है, उसको नेहरू और गांधी को निपटाने के लिए तैनात कर दिया गया है! क्या नेहरू और गांधी से नफरत करने वाले लोग, उनकी स्मृतियों की हत्या करने में लगे लोग कंगना से अधिक गंभीर कोई और आलोचक नहीं ढूंढ पाए? यह सवाल छोटा इसलिए नहीं है कि कल के दिन इस देश की अर्थव्यवस्था के गंभीर विश्लेषण करने का जिम्मा कॉमेडियन कपिल शर्मा पर आ जाए, इस देश की संस्कृति-नीति को तय करने का जिम्मा शक्ति कपूर पर आ जाए, तो क्या वह राजनीतिक और सामाजिक नेतागिरी में आधी-आधी सदी गुजार चुके लोगों का दीवाला निकल जाना नहीं होगा?
आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से चर्चित और नामी या बदनाम किसी भी किस्म के लोग अपनी अच्छी और बुरी बातों से दसियों लाख लोगों तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोगों में अमिताभ बच्चन जैसे लोग भी हैं जो कि अपनी बेमिसाल लोकप्रियता के बावजूद जलते हुए हिन्दुस्तान के बीच अपने पिता की कोई कविता पोस्ट करते हुए पूरी चौथाई सदी गुजार सकते हैं, और किसी आत्मग्लानि में भी नहीं पड़ते। कुछ लोग सोनू सूद सरीखे हैं जो कि सोशल मीडिया को समाज सेवा की जगह बनाकर चल रहे हैं, और रात-दिन लोगों की मदद जाने कहां से करते चले जा रहे हैं। बहुत से लोग देश की साम्प्रदायिक हिंसा, देश में बढ़ती असहिष्णुता, देश में बेइंसाफी के खिलाफ खुलकर लिखने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। वहीं धूमकेतु की तरह पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र और फिर देश की राजनीति में वन वूमैन आर्मी की तरह उतरी हुई कंगना रनौत अब गांधी की गलतियां गिना रही हैं।
देश की राजनीतिक ताकतों, और देश के विख्यात सांस्कृतिक संगठनों में पूरी जिंदगी गुजारने वाले लोग क्या पूरी तरह दीवालिया हो चुके हैं कि उन्हें विवादों पर जिंदा रहने वाली एक बकवासी और खालिस हिंसक अभिनेत्री की जरूरत हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई और आजाद हिन्दुस्तान की व्याख्या करने के लिए पड़ रही है? गांधी को कोसना, नेहरू को गालियां देना जिनका पसंदीदा शगल है, उन्हें कम से कम अपनी इज्जत का तो ख्याल रखना चाहिए कि अगर उनके यह काम भी कंगना कर लेगी, तो वे क्या करेंगे? सिर्फ नफरती जहर को फैलाकर अगर किसी विचारधारा को इतिहास में इज्जत मिलने वाली है, तब तो उसे इस देश में कंगनाओं को शहीद का दर्जा भी दे देना चाहिए, जो कि आज उनके हाथ में हैं।
टीवी के स्टूडियो में बैठकर दूसरे लोगों की जान ले लेने की हद तक नफरत और हिंसा जो लोग फैला रहे हैं, उनकी नौकरी खतरे में दिख रही है। अगर कंगनाएं उनकी जगह बिठा दी गईं, तो आज के नफरतियों के मुकाबले उनके दर्शक अधिक होंगे, वे अधिक हिंसक बातों को अधिक दर्शनीय मौजूदगी के साथ सामने रख सकेंगी, और नेहरू-गांधी की क्या औकात कि वे अपनी इज्जत बचा सकें। खैर, यह देश इतिहास के एक दिलचस्प मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां इस देश के इतिहास की सबसे बड़े नायकों की चरित्र-हत्या, उन्हें घटिया और बेवकूफ साबित करने का जिम्मा अब ऐसे नाजुक कंधों पर आ टिका है, और गांधी-नेहरू के तमाम वैचारिक विरोधी आज बेअसर साबित किए जा रहे हैं। अब इस देश की जनता को भी सोचना है कि जिसके नजरिए को एक दिन गांधी और नेहरू ने बड़ी मेहनत और ईमानदारी से वैश्विक बनाया था, आज उसे कहां ले जाकर पटका गया है। गांधी के संपादित किए गए अखबारों के पुराने अंक देखें, तो देश के किसी गांव के सरपंच का पोस्टकार्ड पर पूछा सवाल मिलता है जिसमें वह फिलीस्तीन और इजराईल के तनाव को समझना चाहता है, और उसके सवाल के साथ गांधी खुलासे से इस अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी सोच लिखते थे। आज इस देश की जनता को चकाचौंधी सनसनी के नशे में उतारकर पूरी तरह गैरजिम्मेदार बना दिया गया है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में बढ़ती हुई राजनीतिक कटुता के चलते हुए अलग-अलग पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में अलग-अलग विचारधाराओं को लेकर, अलग-अलग लोगों को लेकर जिस तरह एफआईआर हो रही है, उस पर सुप्रीम कोर्ट को सोचने की जरूरत है। अनगिनत मामलों में राज्यों की हाईकोर्ट एफआईआर को कहीं खारिज कर रही हैं, कहीं उन पर रोक लगा रही हैं, लेकिन यह काफी नहीं है। किसी मामले में एफआईआर करना है, या नहीं करना है, इसके बीच का फासला उस प्रदेश या उस शहर की राजनीतिक ताकतों के हाथ में रहता है। मामला अगर राजनीति और नेताओं से जुड़ा हुआ नहीं है, और किसी नेता या सत्ता की उसमें दिलचस्पी नहीं है, तो पुलिस अपने स्तर पर आमतौर पर उसमें कमाई की गुंजाइश देखती है। जब इनमें से कोई भी बात नहीं रहती, तब जाकर कोई-कोई एफआईआर सच्ची वजहों से भी दर्ज हो जाती है। हालांकि ऐसी नौबत कम आती है क्योंकि आमतौर पर पुलिस निचुड़े हुए गन्ने जैसी हालत में पहुंचे लोगों का भी रस निकालने की काबिलीयत रखती है।
अब सुप्रीम कोर्ट को यह सोचना चाहिए कि एफआईआर दर्ज हो या न हो, इसमें अगर विवेक से तय करने का हाथी सरीखा विशाल और विकराल हक अगर राजनीति, सत्ता, और पुलिस के हाथ दिया जाता है, तो बेकसूरों कापिस जाना आम से भी आम बात होना तय ही है। जिसे नेता, सत्ता, और रिश्वत लेने के लिए पुलिस, इनकी मेहरबानी, और सरपरस्ती हासिल हो, उसके खिलाफ एफआईआर के लिए लोगों को अदालत तक जाना पड़ता है, और अदालतों में फिर सत्ता, नेता, और रिश्वत की ताकत से लड़ते हुए एफआईआर हो सकती है। इसके बाद भी सिलसिला थमता नहीं है, कल ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश पर रोक लगा दी है जिसमें हाईकोर्ट ने उत्तराखंड सीएम के खिलाफ एफआईआर करने, और जांच करने का हुक्म सीबीआई को दिया था। अब पल भर को यह सोचने की जरूरत है कि जहां हाईकोर्ट एफआईआर दर्ज करने का हुक्म दे रहा है, वहां पर सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के हुक्म को गलत पा रहा है, उसकी आलोचना कर रहा है। यहां पर अभी इसी हफ्ते ही सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट द्वारा यूपी पुलिस को लगाई गई फटकार पर भी गौर करने की जरूरत है जिसमें अदालत ने कहा है कि आईटी एक्ट की जिस धारा को सुप्रीम कोर्ट पिछले बरस असंवैधानिक करार दे चुका है, उस धारा के तहत यूपी पुलिस अब तक एफआईआर दर्ज कर रही है, जुर्म कायम कर रही है।
कुल मिलाकर नौबत यह है कि राज्यों की राजनीतिक ताकतों, या रिश्वतखोर पुलिस-अफसरों की जिसके खिलाफ मर्जी हो, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज होने से कोई रोक नहीं सकते। एफआईआर के बाद आगे की कार्रवाई में पुलिस तब तक ईश्वर जैसी ताकत रखती है जब तक कोई अदालती दखल न हो। और इसी ईश्वरीय ताकत का इस्तेमाल वे राजनीतिक ताकतें करती हैं जो पुलिस की ताकतवर कुर्सियों पर पसंदीदा या भुगतानशुदा लोगों को बिठाती हैं। ऐसे में किसी बेकसूर की गुंजाइश कहां बचती है? इसकी एक सबसे जलती-सुलगती मिसाल पिछली भाजपा सरकार के दौरान छत्तीसगढ़ के आईजी कल्लुरी के स्वायत्तशासी बस्तर में सामने आई थी। देश के कुछ प्रमुख प्राध्यापकों, और छत्तीसगढ़ के ईमानदार और संघर्षशील वामपंथी नेताओं के खिलाफ हत्या के लिए उकसाने का जुर्म कायम कर दिया गया था जिसे अभी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा खारिज करके नाजायज करार दिया गया, और नंदिनी सुंदर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते, इन तमाम लोगों को मुआवजा भी दिलवाया गया है। लेकिन क्या एफआईआर करने और करवाने वाले पुलिस अफसरों पर कुछ हुआ? कुछ भी नहीं। इस देश में हर दिन दसियों हजार बेईमान और नाजायज एफआईआर होती हैं, जिनमें से सैकड़ों आगे जाकर किसी न किसी अदालत में गलत साबित होती हैं, लेकिन एफआईआर करने वाले भ्रष्ट या बदनीयत, या दोनों, अफसरों पर भूले-भटके ही कोई कार्रवाई हो पाती है। यह सिलसिला लोकतंत्र के हिसाब से बहुत ही भयानक है क्योंकि हिन्दुस्तान में पुलिस को आज भी अंग्रेजीराज की तरह के मनमाने हक हासिल हैं जिनके सामने किसी गरीब या कमजोर, या सत्ता का नापसंद इंसान के बचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती है।
मोदी सरकार ने पिछले बरसों में देश के ऐसे हजार-दो हजार कानूनों को खारिज किया है जो एक-डेढ़ सदी पहले किसी तानाशाह मकसद से बनाए गए थे, जो मनमाने और अलोकतांत्रिक थे, और जो अब किसी काम के नहीं रह गए थे, या लोकतंत्र विरोधी साबित हो रहे थे। लेकिन भारत की न्यायव्यवस्था का सिलसिला जिस पुलिस थाने से शुरू होता है, वहां थानेदार की कुर्सी को अब तक एक अंग्रेज बहादुर की कुर्सी जैसी ताकत हासिल है, एफआईआर के मामले में। यह थोड़ी सी हैरानी की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने पुलिस, या दूसरी जांच एजेंसियों के एफआईआर करने के मनमाने अधिकारों के खिलाफ कोई मामला क्यों नहीं चल रहा है। आज देश भर में किसी प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ, किसी प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ, किसी प्रदेश में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का अंतहीन सिलसिला चला हुआ है। और तो और जो हिन्दुस्तान आज फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए खड़ा है, अपने देश में दुनिया की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी की हकीकत के बाद भी फ्रांस के साथ खड़ा है, उस देश में खुद केन्द्र सरकार चला रही पार्टी की राज्य सरकारों में जगह-जगह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज हो रही है। फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत, और अपने देश में अपनी सत्ता के प्रदेशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जेल! लेकिन यह महज भाजपा की सोच नहीं है, अभी कल ही सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रदेश की मालकिन ममता बैनर्जी को हडक़ाया है कि वहां लोकतंत्र कायम रहने दें। मामला सोशल मीडिया पोस्ट पर ममता बैनर्जी की आलोचना करने पर दर्ज एफआईआर का था। सोशल मीडिया पर दिल्ली के एक महिला ने बंगाल सरकार की आलोचना की थी, तो इस पर बंगाल पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके उसे पूछताछ के लिए कोलकाता बुलवाया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को जमकर फटकार लगाई और कहा कि उसे दिल्ली से कोलकाता बुलवाना उस पर जुल्म के अलावा कुछ नहीं है, कल चार अलग-अलग राज्यों से पुलिस किसी को कुछ लिखने पर बुलावा भेजेगी, और उसका एक ही संदेश होगा, कि अगर तुम कुछ लिखोगे तो हम तुम्हें सबक सिखाएंगे।
लेकिन ममता बैनर्जी की बर्दाश्त की कमी, और पुलिस के बेजा इस्तेमाल का यह अकेला मामला नहीं था, ऐसे कई मामले पहले भी दर्ज हुए हैं, और कम से कम एक मामले में तो जाधवपुर विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक के खिलाफ एफआईआर करके उसे गिरफ्तार भी किया गया।
सुप्रीम कोर्ट को जनता के सबसे कमजोर तबके के हक के लिए एफआईआर की मनमानी, गिरफ्तारी की मनमानी के साथ जोडक़र यह भी देखना चाहिए कि निचली अदालतें अपने भ्रष्टाचार के लिए कितनी बदनाम हैं, और उन अदालतों के पास भी नाजायज एफआईआर, नाजायज गिरफ्तारी के मामलों में जमानत न देने का कितना भयानक विवेकाधिकार है, मनमर्जी है। सुप्रीम कोर्ट को यह भी देखना चाहिए कि पुलिस की एफआईआर आगे जाकर अगर नाजायज साबित होती है तो ऐसे अफसरों पर क्या कार्रवाई होती है, अगर कोई कार्रवाई होती है तो। सुप्रीम कोर्ट यह भी देखना चाहिए कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाकर नाजायज एफआईआर और गिरफ्तारी के जो मामले खारिज होते हैं, उनमें राज्य सरकारें अपने जवाबदेह-जिम्मेदार पुलिस अफसरों पर कोई कार्रवाई करती हैं या नहीं? इसके लिए एक बहुत आत्मनिर्भर मैकेनिज्म विकसित करने की जरूरत है कि फर्जीवाड़े के जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई ठीक उसी तरह हो जिस तरह हर हिरासत मौत के बाद मजिस्टीरियल जांच होती ही होती है, किसी नवविवाहिता के शादी के सात बरस के भीतर अस्वाभाविक मौत होने पर उसकी जांच होती ही होती है। कुछ ऐसा ही एफआईआर की मनमानी को लेकर भी करने की जरूरत है।
आज जब समाज के खास और आम, सभी किस्म के लोग सोशल मीडिया पर अपने मन की (असली) बात लिखने लगे हैं, और ताकतवर लोगों का बर्दाश्त खत्म हो चुका है, तो ऐसे में राजनीतिक दबावतले काम करने वाली अमूमन भ्रष्ट पुलिस के हाथ एफआईआर जैसा अंधाधुंध ताकत वाला हथियार कैसे दिया जा सकता है?
थोड़ी सी हैरानी की बात यह है कि अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग पार्टियों के लोग वहां की सत्ता की नाराजगी का ऐसा हमला झेल रहे हैं, लेकिन किसी पार्टी ने एफआईआर के सिलसिले को चुनौती देने का काम न संसद के भीतर किया, न ही सुप्रीम कोर्ट जाकर किया। चूंकि देश के सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया के लोग बड़े पैमाने पर ऐसी मनमानी के शिकार हैं, इसलिए कम से कम इस तबके के कुछ लोगों को एक जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए, और एफआईआर की जवाबदेही, और उसके अधिकार सीमित करने की मांग करनी चाहिए।