संपादकीय
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के खिलाफ संसद पर हमले के लिए लोगों को भडक़ाने और उकसाने के आरोप के साथ निचले सदन में महाभियोग प्रस्ताव खासे बहुमत से पास हो गया है। दस रिपब्लिकन सांसदों ने भी अपनी ही पार्टी के राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग के पक्ष में वोट दिया। अब संसद के उच्च सदन में अगर ट्रंप की पार्टी के 17 लोग साथ देते हैं, तो वहां से भी महाभियोग चलाने का प्रस्ताव पास हो जाएगा। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि यह कई वजहों से मुश्किल रहेगा क्योंकि वहां रिपब्लिकन पार्टी का खासा बहुमत है, और महाभियोग के लिए वहां दो तिहाई वोट लगेंगे। फिर भी ट्रंप के आलोचक उम्मीद कर रहे हैं कि 17 रिपब्लिकन आत्मा की आवाज पर वोट देंगे, और अपने कार्यकाल के आखिरी दो-चार दिनों में ट्रंप को महाभियोग का सामना करना पड़ेगा।
दरअसल अमरीकी राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग को लेकर यहां लिखने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन वहां की इस संसदीय प्रक्रिया के एक हिस्से पर लिखना जरूरी है। ट्रंप की पार्टी के 10 सांसदों ने निचले सदन (भारत की संसद की लोकसभा की तरह) में अपनी पार्टी के राष्ट्रपति के खिलाफ वोट दिया, और उच्च सदन (भारत की संसद की राज्यसभा की तरह) में भी कुछ रिपब्लिकन सांसदों से ऐसी उम्मीद की जा रही है, लेकिन इस पूरे सिलसिले में कहीं भी पार्टी व्हिप जैसे किसी शब्द की कोई चर्चा नहीं है। भारतीय संसद में बात-बात पर पार्टियां अपने सांसदों को व्हिप जारी करती हैं जिसके मुताबिक उन्हें न केवल सदन में मौजूद रहना होता है, बल्कि अपनी पार्टी के कहे मुताबिक वोट भी देना होता है। ऐसा न करने पर उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। लेकिन भारतीय संसदीय व्यवस्था के तीन गुना से अधिक पुरानी अमरीकी व्यवस्था में अब तक हिन्दुस्तानी-बंदिशों की तरह सांसदों को गुलाम नहीं बनाया गया है। अपनी पार्टी के गुलाम, पार्टी की विचारधारा ही नहीं, पार्टी के मनमाने फैसलों को समर्थन करने पर मजबूर गुलाम। इससे यह तो होता है कि सांसदों की खरीदी-बिक्री का खतरा शायद कुछ घट सकता है, लेकिन बिना ऐसे किसी कानून के अमरीकी संसद में किसी सांसद की खरीद-बिक्री की कोई चर्चा कभी सुनाई नहीं पड़ती।
संसदीय लोकतंत्र में अलग-अलग देशों के नियम-कायदों में फर्क हो सकता है, रहता ही है, लेकिन हिन्दुस्तान में दलबदल विरोधी कानून के तहत जिस तरह पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने पर भारत में संसद और विधानसभाओं में सदस्यता जा सकती है, उससे संसद विचारों के आजाद मंच की जगह गिरोहबंदी पर काम करने वाली एक जगह बन चुकी है। यह सिलसिला सदन में सदस्य के अपने विचारों को रखने की संभावनाओं को खत्म कर देता है, और सदस्यों के लिए महज अपनी पार्टी की सोच और फैसले से बंधे रहना एक मजबूरी हो जाती है। ऐसे में सदन को सदस्यों के निजी विचारों का जो फायदा मिलना चाहिए, वह संभावना पूरी तरह खत्म हो जाती है, और अलग-अलग सदस्यों वाला यह सदन खेमों में बंटकर ही काम करता है। एक पार्टी के लोग एक आवाज बोलते हैं, एक ही सोच और फैसला सामने रखते हैं, और इस तरह सदन निर्वाचित व्यक्तियों की पंचायत होने के बजाय उनकी पार्टियों के बीच बहस की सीमित संभावनाओं वाली जगह बनकर रह जाती है।
भारत की ऐसी तंग सीमाओं को देखते हुए अमरीका की आज की व्यवस्था पहली नजर में एक संसदीय आजादी की व्यवस्था लगती है, लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसा सोचते ही तुरंत यह लगता है कि इस किस्म का समर्थन या विरोध खरीदना हिन्दुस्तान में कितना आसान हो जाएगा? यहां तो सांसद और विधायक, सरकार के मंत्री, चुनाव में खड़े होने जा रहे उम्मीदवार, किसी को भी खरीदा जा सकता है, कोई भी अपने आपको बेचने के लिए संसदीय-मंडी में खड़े हो सकते हैं। मजे की बात यह है कि चिल्हर दलबदल पर तो रोक लग गई है, लेकिन थोक में दलबदल एक बहुत आसान काम हो गया है। एक-तिहाई सांसद-विधायक अगर दलबदल को न जुट पाएं, तो कुछ विधायक-सांसद इस्तीफे देकर भी बाकी लोगों में से एक-तिहाई के दलबदल की संभावना पैदा करते हैं, या अपनी सरकार गिरा देते हैं। और यह देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के घमंड में डूबा ही रहता है।
अमरीका की लोकतांत्रिक सोच में, वहां की संसदीय व्यवस्था में दूसरी कई खामियां हो सकती हैं, होंगी, लेकिन पार्टी की नकेल से सांसदों और विधायकों को बांधकर रखने की व्यवस्था नहीं है, और उसके बाद भी सांसद-विधायक बिक नहीं रहे हैं, यह कुछ अटपटी बात जरूर है। पिछले कई दिनों से जब से अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप को बहुमत नहीं मिला, और वे हारते चले गए, तो हिन्दुस्तान में तो ऐसे लतीफे खूब चले कि ट्रंप को अपने हिन्दुस्तानी दोस्तों से सांसद खरीदने की तरकीबें पूछ लेना चाहिए, लेकिन अमरीका के भीतर ऐसे लतीफे का मतलब भी शायद कोई समझ नहीं पाए होंगे।
हर लोकतंत्र में दूसरे देश के लोकतंत्र से कुछ, या कई बातें सीखने की संभावना हमेशा रहती है। अमरीकी सांसद बिना बिके हुए अपनी अंतरात्मा की आवाज पर आज वोट किस तरह दे रहे हैं, और उनकी पार्टी उन्हें कोई चेतावनी भी जारी नहीं कर रही है, और उनके बारे में ऐसी कोई अफवाह भी नहीं है कि उन्होंने अपनी आत्मा बेच दी है, इस नजारे को देखकर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को कुछ सीखने की जरूरत है जो कि हाल के बरसों में लगातार बिकने वाले लोगों की खबरों से पटा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसान आंदोलन को लेकर दो दिन पहले बड़ी हमदर्दी दिखाने वाला सुप्रीम कोर्ट उस शाम से ही शक के घेरे में था, कल आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश उस शक को गहरा कर गया, और शाम होते-होते यह साफ हो गया कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर एक बड़ा ही विवादास्पद आदेश दिया है। कल अदालत ने आंदोलनकारी किसानों से बात करने के लिए चार लोगों की एक कमेटी बनाई, और शाम होते-होते लोगों ने तुरंत ही इन चारों के कई बयान ढूंढकर सामने रख दिए कि किस तरह ये चारों ही सरकार समर्थक लोग हैं, उन तीनों कृषि-कानूनों का खुलकर समर्थन कर चुके लोग हैं जिन कानूनों को खारिज करने के लिए किसानों का आंदोलन चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह खुलासा भी नहीं है कि आंदोलनकारी किसानों से बात करने के लिए बनाई गई कमेटी का नाम किसके सुझाए हुए हैं, या किस आधार पर ये नाम छांटे गए हैं। फिलहाल पहली नजर में ये नाम ऐसे लगते हैं कि आठ लोगों की कमेटी में चार नाम सरकार ने दिए हैं, और चार नाम आंदोलनकारियों की तरफ से आएंगे। दिक्कत बस छोटी सी है कि कमेटी में चार ‘सरकारी’ नामों से परे और कोई नाम नहीं आने वाले हैं। ये तीनों कृषक-कानून पिछले कुछ महीनों के ही हैं, इसलिए उन पर इस कमेटी के मेम्बरान की कही बातें पल भर में सामने आ रही हैं। इन सबने खुलकर इन कानूनों का साथ दिया हुआ है, और उनकी अपनी सोच ही उन्हें ऐसी किसी मध्यस्थ कमेटी में रहने का अपात्र साबित करती है। ऐसे नामों की कमेटी बनाकर सुप्रीम कोर्ट जजों ने अपने आपको एक अवांछित विवाद के कटघरे में खड़ा कर दिया है। ऐसी कमेटी न तो सरकारी ने मांगी थी जो कि किसानों के साथ बातचीत में लगी हुई है, न ही किसानों ने ऐसी कमेटी मांगी थी, बल्कि किसान तो ऐसी कमेटी के खिलाफ थे और उनके वकील ने साफ-साफ कहा है कि किसान इनसे बात नहीं करेंगे।
कमेटी के एक सदस्य कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी को मोदी सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था, वे सरकार की कमेटियों में अध्यक्ष रह चुके हैं, हाल ही में उन्होंने एक लेख लिखकर विवादास्पद कृषि कानूनों का समर्थन का समर्थन किया था, और उनकी वकालत की थी। कमेटी के एक दूसरे सदस्य अनिल घनवत का एक इंटरव्यू आज ही सुबह सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने जब उन्हें कमेटी में रख ही दिया है, तो उसके बाद तो कम से कम उन्हें अपनी निजी सोच अलग रख देनी थी, लेकिन उन्होंने एक समाचार एजेंसी से कहा किसानों को ये भरोसा दिलाया जाना जरूरी है कि जो भी हो रहा है, वो उनके हित में ही हो रहा है। उन्होंने कहा कि ये आंदोलन कहीं जाकर रूकना चाहिए। इसके पहले वे कह चुके हैं कि इन कानूनों को वापिस लेने की कोई जरूरत नहीं है जिन्होंने किसानों के लिए अवसरों के द्वार खोले हैं। कमेटी के एक और सदस्य डॉ. पी.के. जोशी कह चुके हैं कि कृषि-कानूनों में कोई भी नर्मी बरतना भारतीय कृषि को वैश्विक संभावनाओं से दूर करने का काम होगा। अशोक गुलाटी बहुत लंबी-लंबी बातों में इन कानूनों की जरूरत बता चुके हैं। कमेटी के चौथे सदस्य भूपिन्दर सिंह मान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से मुलाकात करके कृषि-कानूनों का समर्थन किया था। उन्होंने द हिन्दू अखबार से बात करते हुए कहा था कृषि क्षेत्र में प्रतियोगिता के लिए सुधार जरूरी हैं लेकिन किसानों की सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए, और खामियों को दुरूस्त किया जाना चाहिए।
कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने उसके सामने पेश मुद्दों से परे जाकर एक ऐसे अप्रिय काम में अपने आपको उलझा लिया है कि उससे उसकी ऐसी पहल की जरूरत पर सवाल उठ रहे हैं। कृषक-कानूनों के मुद्दे पर किसानों ने सरकार के साथ बैठक के हर न्यौते पर अपने टिफिन सहित जाकर हाजिरी दी थी। सरकार के साथ बैठकों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ था। ऐसे में उन्हीं मुद्दों पर किसानों से बात करने के लिए एक ऐसी कमेटी बनाई गई जिसके गठन के भी किसान खिलाफ थे। और फिर उसमें ऐसे नाम रख दिए गए जो कि किसानों के खिलाफ हैं। हाल के बरसों में सुप्रीम कोर्ट ने एक के बाद एक बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जो कि सरकार को तो जाहिर तौर पर सुहा रहे हैं, लेकिन इंसाफ की समझ रखने वाले बहुत से रिटायर्ड जज और संविधान विशेषज्ञ ऐसे फैसलों पर हक्का-बक्का हैं। जैसा कि सोशल मीडिया पर कल से बहुत से लोग लिख रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के कल के अंतरिम आदेश से किसान आंदोलन को खत्म करने का काम होते दिख रहा है, और इससे भारत में न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर आंच आई है। कल से लेकर आज तक चारों कमेटी मेंबरों के जो बयान सामने आए हैं, वे हैरान करते हैं कि क्या मध्यस्थ ऐसे छांटे जाते हैं?
और इस मुद्दे पर एक आखिरी बात और। अदालत ने यह भी कहा है कि इस आंदोलन में बच्चे, बुजुर्ग, और महिलाएं शामिल न हों। क्या हिन्दुस्तान की खेती में महिलाएं शामिल नहीं हैं? सुप्रीम कोर्ट की यह सोच भारी बेइंसाफी की है, और महिला विरोधी है क्योंकि यह ऐसा जाहिर करती है कि भारत में किसानी एक गैरमहिला काम है। सुप्रीम कोर्ट की दिग्गज महिला वकीलों से लेकर देश की प्रमुख महिला आंदोलनकारियों ने भी अदालत की इस बात की जमकर आलोचना और निंदा की है। कल हमने भी इस अखबार में अदालत के इस रूख पर लिखा था। लेकिन क्या आज हिन्दुस्तान की अदालतें दीवारों पर लिक्खे हुए को भी पढ़ पा रही हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कल के रूख के मुताबिक आज केन्द्र सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी है। इसके अलावा अदालत ने किसानों से बात करने के लिए एक कमेटी बनाई है जो उनकी मांगों पर चर्चा करेगी। कल ही इस मुद्दे पर हमने इसी जगह काफी खुलासे से लिखा था कि जजों का जुबानी रूख किसानों के लिए हमदर्दी का था। लेकिन आज का यह अंतरिम आदेश पहली नजर में केन्द्र सरकार के लाए हुए एकतरफा कानूनों पर अमल तो रोक रहा है, किसानों से बात करने की जरूरत भी बता रहा है, लेकिन देश के लोगों के मन में शक की कमी नहीं है। बहुत से लोग यह मान रहे हैं कि इस आदेश के बाद एक किस्म से किसान आंदोलन बेमतलब का दिखने लगेगा, और इससे कुल मिलाकर सरकार की नीयत और हसरत ही पूरी होते दिख रही है।
अभी तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश, और आदेश के पहले की जुबानी चर्चा की जो जानकारी खबरों में आई है, उनके मुताबिक आंदोलन कर रहे किसान तो ऐसी कोई कमेटी बनाने के ही खिलाफ हैं, उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट जजों से कहा कि किसान तो ऐसी किसी कमेटी में पेश भी नहीं होंगे। इस पर अदालत का यह रूख आया है कि अगर किसान समस्या का समाधान चाहते हैं, तो हम ये नहीं सुनना चाहते कि किसान कमेटी के सामने पेश नहीं होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने कृषि अर्थशास्त्र और कृषि से जुड़े हुए चार लोगों की एक कमेटी बनाई है, और यह भी साफ किया है कि अदालत इस कमेटी का काम चाहती है। अदालत ने यह भी कहा है कि कृषि कानूनों पर अमल पर रोक अंतहीन नहीं रहेगी।
कल सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जिस अँदाज में केन्द्र सरकार के वकील की जुबानी खिंचाई सरीखी की थी, अदालत का वही अंदाज नए संसद भवन सहित 20 हजार करोड़ के सेंटर विस्ता निर्माण के खिलाफ बहस के दौरान भी था। लेकिन जब फैसला आया तो केन्द्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ तमाम आपत्तियां खारिज कर दी गईं, और सरकार को निर्माण की इजाजत दे दी गई थी। अभी पिछले पखवाड़े का ही यह फैसला लोगों को भूला नहीं है, और सोशल मीडिया पर कल का अदालती रूख भारी संदेह के साथ देखा जा रहा था, और उसे सरकार की मर्जी का एक जाल माना जा रहा था। आज भी सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश लोगों के मन से शक खत्म नहीं कर पा रहा है, और कई लोगों का यह मानना है कि यह सरकार के पक्ष को मजबूत करने वाला, और किसान आंदोलन को बीच में ही बेअसर कर देने वाला आदेश है।
हम सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर कोई शक नहीं कर रहे, और पहली नजर में उसके शब्दों को ही उसकी भावना भी मानकर चल रहे हैं। लेकिन हाल के महीनों में, बीते एक-दो बरसों में सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले ऐसे आए जो कि सरकार के रूख से सहमति रखने वाले थे, और खुद न्यायपालिका के मौजूदा और भूतपूर्व कई लोगों ने इन फैसलों को बड़ा कमजोर इंसाफ माना था। अभी भी सेंट्रल विस्ता पर सुप्रीम कोर्ट की इजाजत तीन में से एक जज की असहमति वाली है, और इस फैसले में शहरी विकास के बहुत से विशेषज्ञों को निराश भी किया है।
कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के आज के आदेश को किसानों की जीत बता रहे हैं। दूसरी तरफ किसानों के वकील ऐसी किसी कमेटी के खिलाफ थे, और अब अदालत के कहे मुताबिक किसानों को कमेटी के सामने ही अपनी बात रखनी होगी। कुल मिलाकर जो किसान सरकार के साथ अपनी बातचीत से निराश और असंतुष्ट थे, आंदोलन जारी रखने की जिद पर अड़े हुए थे, आज उन्हें सरकार के सामने से हटाकर एक कमेटी के हवाले कर दिया गया है, और यह किसानों की अदालती हार ही हुई है। यह हाल के बरसों का सबसे मजबूत किसान आंदोलन हो गया था, और यह किसान आंदोलन होने के साथ-साथ सिक्खों के मान-सम्मान से भी जुड़ गया था। यह पूरी नौबत अदालत के आज के अंतरिम आदेश से एकदम फीकी पड़ गई है, और इसे किसी भी शक्ल में किसानों की जीत मानना कुछ मुश्किल है। लेकिन यह आदेश केन्द्र सरकार के लिए बड़ी राहत लेकर आया है जिसे अब किसानों सेकिसी तरह की बात करने की जरूरत नहीं रह गई है। इसे कमेटी की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश होने, और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक राह देखनी है क्योंकि उसके बनाए हुए कानून खारिज तो हुए नहीं है, फैसले तक महज उनके अमल पर रोक लगी है जो कि बहुत बड़ी बात नहीं है।
कल सुप्रीम कोर्ट जजों ने जुबानी बातचीत में केन्द्र सरकार के वकील के मार्फत केन्द्र सरकार की काफी खिंचाई की थी, लेकिन आज यह अंतरिम आदेश आने पर यह साफ हो रहा है कि अदालत की नीयत चाहे जो हो, किसान आंदोलन की नियति अब कमजोर हो गई है। आगे देखें क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के सुप्रीम कोर्ट में जब कुछ बुनियादी बातों पर बहस चलती है, तो फिर वह सिर्फ वकीलों के बीच नहीं चलती जज भी उसमें हिस्सेदार रहते हैं। वैसे तो अदालती कार्रवाई में वकीलों का दर्जा जजों से अलग रहता है, लेकिन जज कई बार अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए वकीलों से जिरह करते हैं, और उनका नजरिया, उनका तर्क निकलवाने की कोशिश करते हैं। कई बार वे अदालती कार्रवाई के दौरान किसी औपचारिक फैसले, या आदेश के पहले भी जुबानी अपना रूख साफ करते हैं, और उनकी बातों को सुनकर दोनों पक्षों के वकील अपनी रणनीति में फेरबदल भी करते हैं। कानून की साधारण समझ रखने वाले लोगों को भी किसी अच्छे रिपोर्टर की लिखी गई अदालती कार्रवाई को पढक़र देश के संविधान, लोगों के बुनियादी हक और जिम्मेदारी, के बारे में बहुत कुछ समझने मिलता है।
आज जब सुप्रीम कोर्ट में किसान आंदोलन को लेकर दायर की गईं कई याचिकाओं को एक साथ जोडक़र सुनवाई की जा रही थी, तो अभी-अभी केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए किसान कानूनों को लेकर अदालत ने अपने तेवर दिखाए, और किसान आंदोलन को लेकर केन्द्र सरकार का जो रूख है उस पर तो खासी नाराजगी जाहिर की। सुप्रीम कोर्ट बेंच ने यह साफ कर दिया कि अगर सरकार खुद होकर इन कृषि-कानूनों पर रोक नहीं लगाती है, तो अदालत रोक लगा देगी। इस पर हक्का-बक्का केन्द्र सरकार के वकील ने कहा कि भारत का अदालती इतिहास रहा है कि वह कानून पर रोक नहीं लगा सकती। उन्होंने कहा कि जब तक कोई कानून विधायी क्षमता के बिना पारित न हुआ हो, या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करता हो, तब तक अदालत संसद के कानून पर रोक नहीं लगा सकती। इस पर अदालत ने साफ किया कि वह कानून पर रोक नहीं लगा रही है, लेकिन उसके अमल पर रोक लगा रही है। अब इस बारीक फर्क को लेकर देश के सबसे बड़े सरकारी वकील और जजों के बीच भी खुली बातचीत से यह खुलासा होता है कि कानून को रोकना, और उसके अमल को रोकना दो अलग-अलग बातें हैं।
लेकिन इस एक मुद्दे से परे भी अदालत ने बहुत खुलकर केन्द्र सरकार की खिंचाई की है, और इस किस्म से किसान आंदोलन के दौरान हो रही मौतों पर भारी फिक्र जाहिर की है, और यह साफ किया है कि वह ऐसी मौतों के चलते चुप नहीं रह सकती, और इन मौतों के लहू से वह चुप रहकर अपने हाथ नहीं रंग सकती। अदालत ने किसान आंदोलन के दौरान किसी हिंसा के खतरे पर भी फिक्र जाहिर की, आंदोलनरत किसानों के बीच कोरोना जैसे किसी संक्रमण के फैलने का खतरा भी अदालत ने देखा, और यह साफ किया कि सुप्रीम कोर्ट को किसानों के भोजन-पानी की फिक्र है। अदालत ने सरकार से यह भी पूछा कि जिस तरह किसान खुदकुशी कर रहे हैं, क्या इस कानून को रोका नहीं जा सकता? अदालत ने कहा कि एक भी याचिका ऐसी नहीं है जिसमें कहा गया हो कि ये कानून अच्छे हैं, किसानों के भले के हैं। महीने भर से चल रही बातचीत को लेकर भी अदालत ने खफा होकर सरकार से कहा कि उसे यही समझ नहीं आ रहा है कि सरकार समाधान का हिस्सा है, समस्या का हिस्सा है? जाहिर है कि मीडिया में, और सोशल मीडिया में जिस तरह किसानों की शहादत सामने आ रही है, उन्हें सुप्रीम कोर्ट अनदेखा नहीं कर पाया है।
अभी किसान आंदोलन पर, और किसान कानूनों पर अमल पर अदालत का फैसला बहुत दूर हो सकता है, और यह भी हो सकता है कि आज अदालत यह कड़ा रूख दिखाने के बाद अपने फैसले में सरकार के साथ दिखे, लेकिन आज अदालत का जो रूख है वह भी किसानों के लिए, और उनके हमदर्द हिन्दुस्तानियों के लिए राहत की बात है। अदालत के कहे हुए शब्दों से दो बातें साफ हैं, पहली बात तो यह कि संसद में बाहुबल से पास करवाए गए किसान विधेयकों को लागू करने की हड़बड़ी से सुप्रीम कोर्ट बिल्कुल भी सहमत नहीं है, और उसका कड़ा रूख दिख रहा है कि इनके अमल को रोक दिया जाए। दूसरी बात साफ दिख रही है कि इस आंदोलन में लोग जितनी तकलीफें उठा रहे हैं, जिस तरह बुजुर्ग और महिलाएं इसमें शामिल हैं, जिस तरह मौतें और खुदकुशी हो रही हैं, उनसे सुप्रीम कोर्ट हिला हुआ है। अदालत का ऐसा रूख भी इस देश के लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए मायने रखता है। ऐसा दिख रहा है कि किसानों और सरकार के बीच बेनतीजा सीधी बातचीत को देखते हुए अदालत एक कमेटी भी बना सकती है जो कि दोनों पक्षों से बात करके किसी किनारे पर पहुंच सके। कुल मिलाकर आज अदालत का रूख देश के किसानों और लोकतांत्रिक तबकों के लिए राहत का है, और पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट को लेकर जनता में ऐसी सोच बन रही थी कि वह सरकार के साथ सहमत, या सरकार के फैसलों के प्रतिबद्ध न्यायपालिका है, यह धारणा आज के अदालती रूख से कुछ कमजोर जरूरी होगी। अदालत की जुबानी टिप्पणियों के बाद उसके आदेश, और उसके फैसले से किसानों को कितनी राहत मिलती है यह देखना अभी बाकी है, और उसमें लंबा वक्त लग सकता है। आगे-आगे देखें होता है क्या। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आन्ध्रप्रदेश में 74 साल की एक महिला ने कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से जुड़वां बेटियों को जन्म दिया है। खुद की शादी के 57 साल हो चुके थे, लेकिन बच्चे नहीं हुए थे। अब यह महिला इन बच्चों के साथ बीबीसी की एक वीडियो रिपोर्ट में खुश दिख रही है। बच्चों के जन्म के बाद 6 महीने तक उनके साथ इस बुजुर्ग महिला को भी अस्पताल में ही रखा गया था, और अब वह खेलती-दौड़ती बेटियों संग खुश है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इस महिला के पति को बच्चों का सुख हासिल नहीं हुआ क्योंकि वे गुजर गए। बाकी परिवार का कहना है कि विश्व रिकॉर्ड बना चुकी उनकी यह बुजुर्ग सदस्य 4-5 बरस और जी जाए, तो बच्चियों की अच्छे से परवरिश हो जाएगी।
भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है कि वह लोगों को कोई उम्र गुजर जाने के बाद मां-बाप बनने से रोके। और चिकित्सा विज्ञान की अपनी कोई समझ नहीं है, उसके पास महज तकनीक है, और खासकर आज तो चिकित्सा-कारोबार के हाथ इतनी महंगी-महंगी तकनीकें हैं कि उसका बाजारू इस्तेमाल रोक पाना मुमकिन नहीं है। चौहत्तर बरस की जिस उम्र में यह महिला डेढ़ बरस उम्र की जुड़वां बेटियों के साथ है, वह उम्र हिन्दुस्तान की औसत उम्र से खासी अधिक हो चुकी है। और इस बात की गणितीय संभावना कम है कि वह इन बच्चियों के बालिग होने तक रह सके, और रहे भी तो उनकी देखभाल करने के लायक रह सके। जिस हिन्दुस्तान में अंग-प्रत्यारोपण को लेकर एक बहुत ही कड़ा कानून है जो कि लोगों के अंगदान करने और दूसरों के उन अंगों को पाने को बरसों लंबी जटिल प्रक्रिया बना देता है। उसी हिन्दुस्तान में संतान पाने के लिए कोई कानून नहीं है। कम से कम उम्र की कोई रोक इस पर नहीं है। संविधान में जो बुनियादी हक दिए गए हैं, उन पर चिकित्सा-विज्ञान को लेकर भी कोई रोक नहीं है जबकि संविधान के मूलभूत अधिकारों के तहत किसी को अंग देने और किसी से अंग लेने के फैसलों पर चिकित्सा-विज्ञान की जटिल औपचारिकताएं लागू की गई हैं जो कि अंग देने और पाने पर रोक तो नहीं लगाती हैं, लेकिन उन्हें बरसों की थका देने वाली जटिल प्रक्रिया जरूर बना देती हैं।
ऐसे में आज की यह बात कुछ तो लोगों के निजी फैसले पर है कि वे 74 बरस की उम्र में मां बनना तय करते हैं। इस अकेली महिला ने ही नहीं, बल्कि बाकी परिवार ने भी इस फैसले में चाहे अनमने ढंग से, साथ तो दिया, और हसरत पूरी करने का बाकी काम चिकित्सा-विज्ञान ने कर दिया। लेकिन जिस कृत्रिम गर्भाधान तकनीक को चिकित्सा-विज्ञान ने विकसित किया है, वह चिकित्सा-विज्ञान न तो पौन सदी पर पहुंच रही इस बुजुर्ग महिला की उम्र बढ़ा सकता है, न ही उसे उम्र से जुड़ी, या दूसरी, बीमारियों से बचा सकता है। क्या ऐसे में गर्भाधान के लिए किसी उम्र की शर्त लगाना एक अधिक जिम्मेदारी की सामाजिक व्यवस्था होगी? जो बच्चे ऐसी तकनीक से, इस उम्र में, पैदा हुए हैं, उनका तो कोई बस अपने पैदा होने पर चल नहीं सकता था। वे तो अपनी मर्जी के बिना, अपने किसी फैसले के बिना ऐसे बुजुर्ग मां-बाप की संतान बनी हैं जिनकी अपनी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है। एक बहुत बड़ी आशंका यह है कि ये बच्चियां बालिग होने, और उसके बाद के भी खासे बरस तक रिश्तेदारों की मोहताज रहेंगी। महज रूपए-पैसे का इंतजाम, अगर हो तो भी, काफी नहीं होता क्योंकि बिना मां-बाप के बच्चों की हालत बहुत से मामलों में बदहाल ही रहती है।
चूंकि लोगों के निजी फैसलों पर परिवार के, या आसपास के लोगों का भी अधिक बस तो चलता नहीं है, इसलिए जब तक कोई कानून न रहे, तब तक किसी को ऐसी असाधारण बातों से रोका नहीं जा सकता। भारत में कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से दूसरी मां की कोख से बच्चों के जन्म पर एक सरोगेसी-कानून बनाकर बहुत ही कड़ी रोक लगाई गई है। यह भी सोचने की जरूरत है कि इतनी उम्र में कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से मां-बाप बनने पर क्या कोई रोक नहीं लगाई जानी चाहिए? यह बात ऐसे मां-बाप के अधिकारों की बात नहीं है, यह बात अजन्मे बच्चों के अधिकार की बात है, और चूंकि उनकी तरफ से कोई दूसरे लोग बुजुर्ग दम्पत्ति के ऐसे फैसले के खिलाफ अदालत जाने में दिलचस्पी नहीं रखते होंगे, इसलिए ऐसी नौबत की सोचकर सरकार को ही किसी रोक की बात सोचनी चाहिए कि बच्चों को दुनिया में लाकर मां-बाप जल्द चल बसें, तो उनकी जवाबदेही किसकी होगी, और सरकार को ऐसी नौबत को देखते हुए कैसी रोक लगानी चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया फेसबुक, और सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला मैसेंजर वॉट्सऐप दोनों एक ही मालिक के हाथ हैं। अब वॉट्सऐप में अपनी सर्विस इस्तेमाल करने वाले लोगों से उनकी निजता-गोपनीयता में कई तरह की छूट मांगी है जिससे वह जानकारियों का इस्तेमाल कर सकें। जो लोग ऐसी छूट देने पर सहमति नहीं दे रहे हैं, उनके फोन पर वॉट्सऐप 8 फरवरी को बंद कर देने की जानकारी इस सर्विस की तरफ से दी गई है।
वैसे तो हिन्दुस्तान में लोग निजता और गोपनीयता को पश्चिमी सोच मानते हैं, और किसी का कोई व्यक्तिगत जीवन भी होने की सोच भारत में नहीं है। इसलिए हिन्दुस्तान में अभी वॉट्सऐप की सहूलियत और आदत को छोडऩे का सिलसिला नहीं दिख रहा है, लेकिन एक दिलचस्प बात यह है कि सौर ऊर्जा और सोलर बैटरियों से चलने वाली कारें बनाकर दुनिया के सबसे रईस इंसान बने कारोबारी एलन मस्क ने ट्विटर पर एक दूसरी मैसेंजर सर्विस, सिग्नल, का नाम भर लिखा है, और उसे लाखों लोग देखते चल रहे हैं, आगे बढ़ाते चल रहे हैं। लोग विकसित दुनिया में वॉट्सऐप छोडऩे के पहले दूसरी सेवाओं का इस्तेमाल जोड़ते चल रहे हैं, और अभी से एक महीने बाद पता चलेगा कि दूसरी मैसेंजर सर्विसों को कितने लोगों ने इस्तेमाल करना शुरू किया है। हो सकता है कि ऐसे लोग आगे भी वॉट्सऐप को छोडऩे के बजाय उसे कुछ साधारण कामकाज के लिए बनाए रखेंगे, और सचमुच के निजी संदेशों के लिए दूसरी सर्विस इस्तेमाल करेंगे।
इस बारे में आजकल में ही लिखे गए एक लेख में एक ताजा फिल्म का एक वाक्य लिखा गया है कि अगर आप किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने के लिए पैसे नहीं चुका रहे हैं, तो आप ही वो प्रोडक्ट हैं।
बात सही है क्योंकि दुनिया में कुछ भी बिना प्राइज-टैग के नहीं आ सकता। सोशल मीडिया हो, या ऐसी मैसेंजर सर्विसेज हों, ये कोई समाजसेवा का काम तो है नहीं। इन्हें कारोबारियों ने शुरू किया, और मुफ्तखोरों ने इन्हें लपक लिया। नतीजा यह हुआ कि आज जब आदत डालकर और जरूरत बनाकर सोशल मीडिया और मैसेंजर लोगों की गोपनीयता खत्म कर रहे हैं, तो लोगों को यह भी लग रहा है कि इनके बिना जिंदगी कटेगी कैसे? लेकिन यह बात महज सोशल मीडिया या मैसेंजर के बारे में नहीं है, यह बात तो अखबारों पर भी लागू होती है जिन्हें लोग रद्दी के भाव पर चाहते हैं। अब अखबार उन्हें तकरीबन मुफ्त चाहिए, या लागत के दस फीसदी दाम पर चाहिए, और पाठक अखबार निकालने वाले लोगों से पूरी ईमानदारी की उम्मीद भी करते हैं। सस्ते की चाह का नतीजा यह होता है कि लोग प्रायोजित समाचार-विचार पाते हैं, उन्हीं पर भरोसा करने को मजबूर होते हैं, और फिर उनके असर में ऐसी सरकारें चुनते हैं जो कि उन प्रायोजकों की पसंद रहती हैं। मुफ्त के बारे में हिन्दुस्तान में बहुत पहले से एक बात चली आ रही है कि दान की बछिया के दांत नहीं गिने जाते। मुफ्त में जो मिल जाता है, उसे उसी तरह लेना पड़ता है। अब आज फेसबुक और वॉट्सऐप नाम के दान के बछिया-बछड़ा लोगों के तौलिए खींच रहे हैं, तो लोगों के पास पसंद की कोई अधिक गुंजाइश भी नहीं बची है। आज अगर अपनी गोपनीयता बनाए रखने के साथ फेसबुक और वॉट्सऐप लोगों से कुछ सौ रूपए महीने मांगने लगें, तो कितने लोग उसे देने तैयार होंगे? आज दूसरी कोई सेवाएं गोपनीयता के साथ मैसेंजर देने को खड़ी भी हों, लेकिन वे भी कोई समाजसेवी संस्थान तो है नहीं। कल जब उनका बाजार भी बढ़ जाएगा, तो वे भी यही काम करेंगी, या तो निजी जानकारियां जुटाकर उन्हें बाजार में बेचेंगी, या वे ग्राहकों से भुगतान करने को कहेंगी।
निजता को लेकर एक हल्का-फुल्का किस्सा दशकों से प्रचलन में है। हनीमून मनाने गया एक जोड़ा एक होटल में रूका, तो उससे कोई भुगतान नहीं लिया गया, कहा गया कि यह होटल की तरफ से गिफ्ट है। ऐसी गिफ्ट से खुश यह जोड़ा एक बरस बाद फिर वहीं जाकर रूका, तो निकलते समय उसे बिल थमा दिया गया। सदमे में आकर उसने याद दिलाया कि पिछली बार तो बिल नहीं दिया गया था, तो होटल ने उन्हें बताया कि पिछली बार उन्हें वीडियो कैमरे वाले कमरे में ठहराया गया था, और उनका वीडियो बाकी कमरों के लोग देख रहे थे। अब निजता को छोडक़र कुछ मुफ्त पाना, या निजता बनाए रखने के लिए भुगतान करना, यह लोगों को खुद तय करना है। दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं आता, लोगों को समझौता या भुगतान इन दो में से एक छांटना पड़ता है। उदार बाजार व्यवस्था में बस यही है कि आज एक सर्विस आपकी निजी जानकारी पर कब्जा चाहती है, तो कोई दूसरी सर्विस बिना ऐसी चाहत भी मुफ्त में हासिल है। लोग खुद तय करें कि उन्हें क्या पसंद है।
अमरीका में आज भारतीय मूल के एक व्यक्ति को वहां की फौज में प्रमुख प्रवक्ता बनाया गया तो परंपरानुसार मीडिया और सोशल मीडिया पर भारत के लोगों ने बड़ी खुशी जाहिर की, और गर्व किया। हिन्दुस्तानी नाम, हिन्दुस्तानी जाति-नाम, और हिन्दुस्तानी चेहरा दुनिया में जहां कहीं कामयाबी पाएं, हिन्दुस्तान के लोग खुश हो जाते हैं, और अपनी जमीन पर गर्व करने लगते हैं। आज अमरीका में अगली सरकार के लिए निर्वाचित-राष्ट्रपति ने ऐसे कई भारतवंशी चेहरों को अलग-अलग जिम्मेदारियां दी हैं। लेकिन अमरीकी सरकार से परे भी ब्रिटिश सरकार, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की सरकार, मॉरीशस या दूसरी कई सरकारों में भारतवंशी बड़े महत्वपूर्ण ओहदों पर हैं। अमरीका की तरफ से अंतरिक्ष में जाने वाली सुनीता विलियम्स की जड़ें हिन्दुस्तान के गुजरात में थीं।
अब छोटा सा सवाल यह उठता है कि इन लोगों की कामयाबी पर फख्र करने का हक किसे है? सरकारों से परे भी भारत से अमरीका गए हुए बहुत से बिजनेस मैनेजर दुनिया की सबसे बड़ी-बड़ी कंपनियों, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, पेप्सी के मुखिया बने हैं और अभी भी हैं। इनमें से कई लोगों की पढ़ाई हिन्दुस्तान के आईआईटी या आईआईएम, या इन दोनों में हुई है। लेकिन इनकी सारी संभावनाएं हिन्दुस्तान के बाहर जाने के बाद एक ऐसे देश में सामने आईं जहां पर काम करने का खुला माहौल है, सरकारी दखल शून्य है, राजनीतिक दबाव नहीं हैं, टैक्स एजेंसियों और सरकारों के भ्रष्टाचार से नहीं जूझना पड़ता है। ऐसे लोग भारत से पढक़र जरूर गए हैं, इनके डीएनए में पिछड़ी पीढिय़ों का हिन्दुस्तानी डीएनए जरूर है, लेकिन इनकी कामयाबी उस देश के नियम-कायदों, वहां की सरकारी व्यवस्था, वहां के प्रतिस्पर्धी बाजार की वजह से हुई है। हिन्दुस्तान के आईआईटी और आईआईएम से पढ़े हुए लोग इस देश में भी काम करते हैं, उनमें से बहुत से लोग यहां भी कुछ या अधिक हद तक कामयाब होते हैं, लेकिन उनकी संभावनाओं को इस देश के सरकारी शिकंजों और भ्रष्टाचार का ग्रहण लग जाता है।
जब कभी कोई भारतवंशी भारत के बाहर जाकर कामयाब हो, तो उस पर गर्व करने के बजाय हिन्दुस्तानियों को यह सोचना चाहिए कि क्या भारत में उसकी ऐसी संभावनाओं को एक खुला आसमान मिल सकता था? आज अमरीका की बड़ी से बड़ी कंपनियां वहां के राष्ट्रपति से असहमति रखते हुए काम कर सकती हैं। सरकार के अगुवा का ट्विटर या फेसबुक अकाऊंट ब्लॉक कर सकती हैं, और वहां का कानून उनकी हिफाजत के लिए खड़े रहता है। अमरीका में आज मौलिक और अनोखी सोच की कारोबारी कामयाबी से वह देश आसमान पर पहुंचा है, लेकिन वहां जमीन से आसमान तक के इस सफर में इन कारोबारियों को जगह-जगह सरकारी और राजनीतिक बैरियरों पर रंगदारी टैक्स नहीं देना पड़ता। अपनी राजनीतिक सोच की वजह से उन्हें प्रताडि़त नहीं होना पड़ता। जो हिन्दुस्तानी आज दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं, वे अगर हिन्दुस्तान में ही रह गए होते तो क्या होता? वे आसमान पर कितनी ऊंचाई तक पहुंच पाते?
इसलिए डीएनए पर गर्व कोई अच्छी बात नहीं है। कोई किस देश में पैदा हुए हैं, वह मायने नहीं रखता, किस देश ने उनकी संभावनाओं को खुलकर निखरने का मौका दिया, वह मायने रखता है। हिन्दुस्तानी खून वाली कमला हैरिस की मां अमरीका पहुंची थी, पिता किसी और देश से वहां पहुंचे थे, और वहां पर उनकी यह संतान बिना किसी पुरानी जड़ों के बराबरी के अवसर पाकर आगे बढ़ी, और आज उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो चुकी है। अब अगर वह हिन्दुस्तान के अपने पुरखों के प्रदेश तमिलनाडू में रहती, तो क्या वह अपने दम पर इतनी आगे बढ़ सकती थी? हो सकता है कि हिन्दुस्तान में भी कुछ ऐसी मिसालें हों, लेकिन अधिकतर पार्टियों में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेतागिरी कर रहे हैं। ऐसी कुनबापरस्ती के बिना पश्चिम के जो विकसित और परिपक्व लोकतंत्र लोगों को बराबरी के अवसर देते हैं, वहां पर किसी की कामयाबी पर उसके जन्म के कुनबापरस्त देश को गर्व करने का कोई हक नहीं होना चाहिए।
अमरीका अपनी जिस मिलीजुली संस्कृति की वजह से विकसित हो पाया है, उस संस्कृति को कुचलने में लगे हुए देश भी अगर अमरीका में अपने डीएनए की कामयाबी का जश्न मनाते हैं, तो यह एक बड़ा पाखंड होता है। देश के भीतर उस माहौल का दम घोंट दो जिस माहौल की वजह से अमरीका में दूसरे देशों से आए लोग भी कामयाब होते हैं, और फिर उस कामयाबी पर उनके पुरखों के देश में जश्न मनाया जाए, तो शायद ऐसी ही हरकत के लिए किसी ने लिखा था- बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी समय के मुताबिक बीती रात से अमरीका में जो हिंसा चल रही है उसकी कल्पना सैकड़ों बरस के अमरीकी लोकतांत्रिक और संसदीय इतिहास में भी किसी ने नहीं की थी। मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप चुनाव में अपनी शिकस्त को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, और वे इन नतीजों को झूठा, फर्जी, और गढ़ा हुआ करार देते आए हैं। आज उनके हिंसक समर्थक हजारों की संख्या में अमरीकी संसद भवन के भीतर घुस गए, वे नस्लवादी झंडे लिए हुए थे, हिंसक नारे लगा रहे थे, और ट्रंप को ही अपना अगला राष्ट्रपति बता रहे थे। ट्रंप ने इस मौके पर सोशल मीडिया पर जो कुछ लिखा, उसे सच से परे कहते हुए ट्विटर, फेसबुक, और इंस्टाग्राम, सभी ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के अकाऊंट सस्पेंड कर दिए, उनका कुछ भी पोस्ट करना ब्लॉक कर दिया। अमरीकी संसद के सामने चल रही इस हिंसा में 4 लोग मारे जा चुके हैं, प्रदर्शनकारी झंडे-डंडे लिए हुए संसद के भीतर घूम रहे हैं, और सुरक्षा दस्ते सांसदों को बचाकर सुरक्षित जगह पर ले गए हैं। अमरीकी चुनाव प्रणाली के मुताबिक कुछ इलेक्टोरल वोटों की गिनती संसद भवन में भी होनी थी, और इन वोटों को सुरक्षित हटा लिया गया है। इस हिंसक भीड़ के बारे में यह अंदाज है कि यह संसद की कार्रवाई रोक देना चाहती थी ताकि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन को जीत का सर्टिफिकेट न मिल सके।
यह सब कुछ ऐसा अजीब सिलसिला है कि डोनल्ड ट्रंप की खुद की पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी के बारे में ऐसी खबरें आ रही हैं कि पार्टी के नेता संविधान की एक विशेष धारा का इस्तेमाल करके राष्ट्रपति को हटाने की संभावनाओं पर विचार कर रही है। अमरीकी संविधान का 25वां अनुच्छेद राष्ट्रपति को हटाने का एक प्रावधान रखता है, अगर राष्ट्रपति की दिमागी हालत ठीक नहीं रह जाती। आज की यह हिंसा तब शुरू हुई जब राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने समर्थकों को संसद भवन पर चढ़ाई करके चुनावी नतीजों को पलट देने का फतवा दिया। इसके बाद उनके हिंसक समर्थक हथियारबंद होकर संसद पर चढ़ बैठे, और खिडक़ी-दरवाजे तोडक़र भी भीतर घुसे। इस पूरे दौर में ट्रंप अपने आम सनकी और हिंसक मिजाज के मुताबिक हमलावर भीड़ को बहुत खास बताते हुए उसकी तारीफ करते रहे। उन्होंने चुनावी धांधली का आरोप लगाते हुए हिंसा को जायज ठहराया। तीनों प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने ट्रंप पर लोगों को भडक़ाने और अपने दावों से उन्हें भ्रमित करने का दोषी मानते हुए राष्ट्रपति के अधिकारिक अकाऊंट ब्लॉक कर दिए।
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित अमरीका के बहुत से दूसरे नेताओं का मानना है कि दो महीनों से इस हिंसा के लिए माहौल बनाया जा रहा था, ताकि ट्रंप के समर्थकों को सच्चाई दिखाई ही न दे। वाशिंगटन शहर में पूरी रात के लिए कफ्र्यू लगा दिया गया है, और 15 दिनों की इमरजेंसी लागू कर दी गई है। इस सिलसिले में देखने लायक बात यह भी है कि ट्रंप की बेटी इवांका ने संसद पर हमला करने वालों को देशभक्त कहते हुए ट्वीट किया, और उस पर इतनी आलोचना हुई कि उन्हें खुद ही ट्वीट डिलीट करना पड़ा।
अमरीका का संविधान दुनिया में अनोखा है, और वहां की चुनाव प्रणाली भी। अमरीकी संसदीय इतिहास में पहले भी कुछ राष्ट्रपति ऐसे हुए हैं जिन पर महाभियोग चला, लेकिन ट्रंप जैसा सनकी, बददिमाग, हिंसक, और अश्लील कोई राष्ट्रपति पहले नहीं हुआ था। ट्रंप ने अमरीकी संवैधानिक व्यवस्थाओं को पूरी तरह खारिज करते हुए अपने महत्वोन्माद को देश पर लादने की कोशिश की, और जाहिर तौर पर ट्रंप एक दिमागी मरीज है। ट्रंप ने अमरीका की लोकतांत्रिक-संवैधानिक परंपराओं को कुचलते हुए अपने आपको चुनाव प्रक्रिया और चुनावी नतीजों के ऊपर माना। उन्होंने अपने नस्लवादी, अलोकतांत्रिक समर्थकों को चुनाव के पहले से लगातार एक राष्ट्रवादी उन्माद में डुबाकर रखा।
अमरीकी लोकतंत्र के लिए आज का दिन भारी शर्मिंदगी का काला दिन है जब मौजूदा राष्ट्रपति ही फतवे देकर अपने समर्थकों से चल रही संसद पर हमला करवाता है। किसी भी सभ्य देश में क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है कि आए दिन सोशल मीडिया राष्ट्रपति की पोस्ट को ब्लॉक करता रहे, डिलीट करता रहे, अकाऊंट को लॉक कर दे कि राष्ट्रपति झूठ बोल रहा है, या भडक़ाऊ बातें कर रहा है। अमरीका एक बहुत बड़े खतरे में इसलिए भी है कि वहां हर नागरिक को कई-कई बंदूकें और मशीनगन रखने की छूट है। ऐसे में अगर ट्रंप के राष्ट्रवादी-उन्मादी लोग देश भर में जगह-जगह हथियारों का इस्तेमाल करने लगें तो क्या होगा? जब देश के लोगों को वहां का कोई फतवेबाज नेता संविधान में आस्था से परे ले जाता है, जब संवैधानिक व्यवस्था को खारिज कर देता है, जब हिंसा के लिए फतवे देता है, और अपने आपको कानून से ऊपर साबित करता है, तो फिर उसके समर्थक अपने ही देश के लिए खतरनाक हो जाते हैं। अमरीका जैसा मजबूत-लोकतांत्रिक देश आज इतिहास का पहला ऐसा हमला झेल रहा है। यह पूरा सिलसिला बाकी दुनिया के लिए भी एक सबक है कि जब नेता अपने समर्थकों को कानून से परे ले जाते हैं, तो पूरा देश एक ऐसे खतरे में पड़ता है जिसके अंत का अंदाज मुश्किल रहता है। अमरीका के आने वाले दिन बताएंगे कि ट्रंप के मंत्रिमंडल के सदस्य उसे राष्ट्रपति के पद से हटाने के संवैधानिक प्रावधान का उपयोग करते हैं या नहीं? लेकिन एक बात तय है कि ट्रंप अपनी पार्टी के लिए एक बड़ा कलंक साबित हुआ है, और अमरीकी लोकतंत्र के लिए भी। पार्टी अपनी इज्जत कुछ हद तक बचा सकती है अगर वह ट्रंप को दिमागी-बीमार करार देकर हटा दे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की लिखी एक किताब उनके गुजर जाने के बाद अब छपकर आ रही है, और किसी भी लेखक-प्रकाशक की बाजार की रणनीति के मुताबिक इस किताब के चुनिंदा हिस्से मीडिया में जारी किए जा रहे हैं जो कि खबर बनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं, और खबरों के पाठकों को एक संभावित ग्राहक के रूप में तैयार कर रहे हैं।
प्रणब मुखर्जी का बहुत लंबा राजनीतिक जीवन केन्द्र सरकार और भारत की राजनीति की धुरी के इर्द-गिर्द इतना महत्वपूर्ण रहा है कि उनके मुकाबले कोई दूसरा नाम याद नहीं पड़ता। किसी भी पार्टी में प्रणब मुखर्जी जितने महत्वपूर्ण किसी दूसरे नेता की याद नहीं पड़ती। यूपीए सरकार के समय तो एक वक्त ऐसा था जब प्रणब मुखर्जी 50 से अधिक अलग-अलग मंत्री-समूहों के मुखिया थे। वे प्रधानमंत्री तो नहीं थे, लेकिन प्रधानमंत्री के तुरंत बाद सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति जरूर थे। प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी, राजीव, नरसिंहराव, सोनिया, मनमोहन और राहुल गांधी के साथ सरकार और पार्टी में लंबा काम किया था, और पिछली करीब आधी सदी के भारत के राजनीतिक इतिहास के वे एक प्रमुख किरदार थे। वे इंदिरा गांधी के समय से संसद में रहे, और उनके साथ मंत्रिमंडल में भी रहे। इसलिए उनकी लिखी बातें भारत की समकालीन राजनीति और सरकार की बड़ी अहमियत वाली बातें हैं। इनमें बहुत सी बातें ऐसी होंगी जो गुजर चुके लोगों के बारे में होंगी, लेकिन जब भी कोई इतिहास लिखा जाता है, उसके बहुत से किरदार तो गुजर ही चुके रहते हैं।
सार्वजनिक जीवन में जिन लोगों ने भी लंबा काम किया है, उनकी यह सामाजिक और सार्वजनिक जवाबदेही होती है कि अपने इर्द-गिर्द का इतिहास लिखकर जाएं। कुछ सरकारी ओहदे ऐसे होते हैं जो ऐसा कुछ लिखने पर कानूनी रोक लगाते हैं, लेकिन उनसे परे के लोगों को समाज के प्रति अपनी यह जिम्मेदारी जरूर पूरी करनी चाहिए। बंद कमरों के बीच की बहुत सी बातचीत और बहुत से फैसले ऐसी किताबों के रास्ते ही सामने आते हैं। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले एक किताब खूब खबरों में आई थी जब मौलाना अबुल कलाम आजाद की आत्मकथा का एक सीलबंद हिस्सा अदालती दखल के बाद खोला गया था। मौलाना ने ही 30 पेज का यह हिस्सा प्रकाशक को नहीं दिया था, और सीलबंद करके रखा था कि इन्हें उनकी मौत के 30 बरस बाद खोला जाए। इन पन्नों पर आजादी और विभाजन के दौर का वह हिस्सा था जिसमें वे पटेल और नेहरू सरीखे अपने साथियों के लिए भी आलोचक थे। अबुल कलाम आजाद इन सीलबंद पन्नों को इस शर्त के साथ छोड़ गए थे कि उन्हें मौत के 30 बरस बाद प्रकाशित किया जाए। मौलाना की लिखी बातें सामने आने पर कई लोग उनसे असहमत रहे, और यह माना गया कि उन्होंने 1950 के दशक की लीडरशिप को बदनाम करने का काम किया है।
अभी-अभी कुछ हफ्ते पहले भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के संस्मरणों की एक किताब आई है जिसमें राहुल गांधी के बारे में कुछ आलोचनात्मक बातें हैं। उन्हीं से भडक़कर कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर डाली। लेकिन दो दिनों के भीतर प्रकाशक के जारी किए हुए एक दूसरे हिस्से में ओबामा नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते दिख रहे हैं।
हमारा यह मानना है कि महत्वपूर्ण सार्वजनिक जगहों पर रहने वाले लोगों को अपने संस्मरण लिखकर जाना चाहिए ताकि लोग इतिहास के उस दौर को उनके नजरिये से, उनकी कही बातों के रास्ते देख और समझ सकें। उनका लिखा हुआ सच है या झूठ है, इसे तय करने का काम उस दौर के दूसरे लोग अपने लिखे हुए में कर सकते हैं, लेकिन बहुत सी बातें ऐसे लेखन से ही सामने आती हैं। आपातकाल से लेकर वी.पी. सिंह की सुनामी तक, और फिर नरसिंह राव के ताकतवर मंत्री से लेकर भाजपा जाने तक का अपना राजनीतिक इतिहास विद्याचरण शुक्ल छोडक़र जाना चाहते थे, लेकिन उनके लिखने की बस तैयारी ही तैयारी चलती रही, वे लिखना शुरू भी नहीं कर पाए, और बस्तर के नक्सल-हमले में दूसरे बहुत से कांग्रेस नेताओं के साथ शहीद हो गए। उनके पास के दस्तावेज, उनकी बातें अब कभी सामने नहीं आ पाएंगे। संस्मरण और आत्मकथा लिखना, समकालीन इतिहास लिखना एक हौसले की बात भी होती है क्योंकि उसमें कई लोगों को नाराज करने वाला सच भी रहता है, और झूठ लिखने पर उसके उजागर होने का खतरा भी रहता है। ऐसी किताबों से प्रकाशकों का कारोबार तो चलता ही है, लेकिन यह घटनाओं के पात्र का लिखा इतिहास रहता है जो कि पेशेवर इतिहासकारों से अलग रहता है, और इसीलिए एक अलग महत्व का भी रहता है। प्रणब मुखर्जी की लिखी बातों के टुकड़े अलग-अलग लोगों को खुश और नाराज कर सकते हैं, लेकिन उनका लिखा हुआ आज के राजनीतिक संस्मरण लेखन में एक सबसे महत्वपूर्ण लेखन है, और इससे पिछली आधी सदी की भारतीय राजनीति, और सरकार को बेहतर समझने में आसानी होगी। बाकी नेताओं और दूसरे प्रमुख लोगों को भी लिखने का हौसला जुटाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत में कोरोना-वैक्सीन को लेकर उसकी ट्रायल शुरू होने के पहले से जो हड़बड़ी चली आ रही थी, वह अब तक जारी है। लोगों को अगर यह सिलसिला याद हो, तो जुलाई के पहले हफ्ते में शुरू होने वाले मानव -परीक्षण को लेकर देश की सबसे बड़ी चिकित्सा-विज्ञान संस्था, आईसीएमआर ने एक चिठ्ठी लिखी थी जिसमें वैज्ञानिक संस्थाओं से कहा गया था कि वे परीक्षण तेजी से करें ताकि स्वतंत्रता दिवस पर इसे राष्ट्र को समर्पित किया जा सके। एक वैज्ञानिक संस्था के ऐसे अवैज्ञानिक पत्र को लेकर उसकी जमकर खिंचाई भी हुई थी। अब पिछले चार दिनों से भारत में बनी दो कोरोना-वैक्सीन को लेकर कुछ नए विवाद उठ खड़े हुए हैं। इन्हें बनाने वाली हिन्दुस्तानी कंपनियों के मालिक आपस में भिड़ गए हैं, और एक ने दूसरे की वैक्सीन के बारे में कहा है कि वह सिर्फ पानी की तरह सुरक्षित है। इन दोनों हिन्दुस्तानियों की बहस का जो असर हो रहा है वह इसकी विश्वसनीयता खत्म होने में जो रही-सही कसर थी, वह भी पूरी हो गई।
एक तरफ केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इन दोनों वैक्सीन को लगाने का जो बयान दिया, उसमें हर हिन्दुस्तानी को इसे मुफ्त लगाने की बात कही, और अगले ही दिन उस बयान में जमीन आसमान का फर्क करते हुए यह कहा कि तीन करोड़ स्वास्थ्य कर्मचारियों और फ्रंटलाईन वर्करों को ही यह मुफ्त में लगाई जाएगी। अब देश की बाकी आबादी एक बार फिर अंधेरी सुरंग में छोड़ दी गई है जिसके किसी सिरे पर रौशनी नहीं है। मानो इतना काफी नहीं था, इसके तुरंत बाद एक सरकारी विशेषज्ञ ने यह कहा कि दो हिन्दुस्तानी वैक्सीन में से एक वैक्सीन ही लगाई जाएगी, और उसका असर न होने पर दूसरी वैक्सीन को मानव परीक्षण की तरह लगाया जाएगा। अब सवाल यह है कि वैक्सीन का मानव परीक्षण ही अगर होना है, तो उसे आम लोगों को लगाई जा रही वैक्सीन कैसे कहा जा रहा है? एक तरफ दोनों हिन्दुस्तानी वैक्सीन निर्माता एक-दूसरे की वैक्सीन को पानी बता रहे हैं, दूसरे आरोप लगा रहे हैं, और दूसरी तरफ विशेषज्ञ हिन्दुस्तानी वैक्सीन को लेकर सरकार के पूरे रूख पर अपनी हैरानी जाहिर कर रहे हैं।
वैक्सीन को लेकर दुनियाभर में चिकित्सा विशेषज्ञों के एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन (कोलिशन फॉर इपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस, सेपी) की उपाध्यक्ष डॉ. गगनदीप कांग ने भारत में दो कोरोना-वैक्सीन को मिली मंजूरी पर भारी हैरानी जाहिर करते हुए कहा है कि वे पूरी तरह से भ्रमित हैं। उन्होंने कहा- मैंने आज तक ऐसी कोई मंजूरी नहीं देखी है। वैक्सीन के इस्तेमाल शुरू करने के साथ-साथ कोई क्लिनिकल ट्रायल नहीं होती है। कंपनियां सरकारी नियंत्रकों को अर्जी देने के साथ-साथ दुनिया की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिकाओं में भी अपने ट्रायल के नतीजे प्रकाशित करती हैं ताकि लोग सवाल कर सकें। भारत में भी आईसीएमआर अपनी खुद की पत्रिका में उन्हें छाप सकता था, लेकिन मेरी जानकारी यह है कि इनसे जुड़ी जो जानकारी दाखिल की गई है, उसमें कई कमियां हैं। और सच तो यह है कि जिस वैक्सीन की दो खुराकें एक फासले पर लगाई जानी हैं, उनका तो परीक्षण ही पूरा नहीं हो सकता।
एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार को दिए एक लंबे इंटरव्यू में इस विशेषज्ञ ने कहा कि यह हड़बड़ी इसलिए खतरनाक है कि इतनी हड़बड़ी मेें जांच की जरूरतें पूरी किए बिना वैक्सीन को लोगों पर इस्तेमाल करके एक खतरा खड़ा किया जा रहा है कि जो लोग वैक्सीन-विरोधी हैं, साईंस-विरोधी हैं उनके हाथ एक हथियार दे दिया जा रहा है जिसका वे इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने भारत सरकार और यहां के वैज्ञानिक संगठनों की हड़बड़ी को लेकर एक वैज्ञानिक-आलोचना का इंटरव्यू दिया है।
एक तो वैसे भी यह वैक्सीन 70 फीसदी के करीब कारगर बताई जा रही है। फिर भारत सरकार का अपना किया हुआ दावा यह कहता है कि वह जून 2021 तक 25 करोड़ लोगों के टीकाकरण की कोशिश करेगी। इसका मतलब है देश की एक बड़ी आबादी को यह टीका मिलने में लंबा समय है। टीकाकरण की घोषणा के बाद कल यह बात भी सामने आई है कि बच्चों और गर्भवती महिलाओं को इनमें से एक टीका नहीं लगाया जाएगा। मतलब यह कि बहुत सीमित रफ्तार से इसका सीमित इस्तेमाल होने जा रहा है, और उसका तीन चौथाई से कम लोगों पर असर हो सकता है। फिर मानो ये तमाम सीमाएं काफी न हों, यहां के दो वैक्सीन निर्माता कारोबारी एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी में उतरे हुए हैं, और एक-दूसरे की वैक्सीन पर वे तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं जो कि देश के दवा नियंत्रक को करने थे, दूसरी वैज्ञानिक संस्थाओं को करने थे, या वैज्ञानिक-जर्नलों में छपने के बाद दूसरे वैज्ञानिकों को करने थे।
आखिर में हम याद दिलाना चाहते हैं कि ये वैक्सीन तो बहुत ही हड़बड़ी में बनी हैं, 1950 के दशक में एक जर्मन दवा कंपनी ने गर्भवती महिलाओं में सुबह की मितली रोकने के लिए थेलिडॉमाइड नाम की एक दवा बनाई थी जिसका जादुई असर दिखता था। अमरीका जैसे देश में इसका अंधाधुंध इस्तेमाल शुरू हो गया था। लेकिन जब इन गर्भवती महिलाओं के बच्चे पैदा होने शुरू हुए, तो उनमें से बहुत बिना हाथ-पांव के थे जो कि इस दवा का ही असर था। वह तो किसी महामारी से परे की एक कारोबारी और बाजारू दवा थी, जो प्राणरक्षक नहीं थी, और जो असुविधा घटाने वाली ही थी। लेकिन आज तो सरकारें टीकों को मंजूरी दे रही हैं, उन्हें लेकर राजनीतिक घोषणाएं कर रही हैं, और आधी-अधूरी वैज्ञानिक जांच और जानकारी के आधार पर यह कर रही हैं। यह एक खतरनाक नौबत है। दुनिया को किसी टीके को लेकर ऐसी हड़बड़ी नहीं करना चाहिए। आज तो हिन्दुस्तान में बिना इस टीके के ही कोरोना का फैलाव घट गया है, मौतें एकदम कम हो गई हैं, और सरकार ऐसे किसी दबाव में नहीं है कि गिरती हुई लाशों के बीच उसे आनन-फानन में यह करना ही है, टीके तुरंत लगाना ही है। खुद भारत के विशेषज्ञ चिकित्सा-वैज्ञानिक जितने गंभीर शक इन टीकों के कई पहलुओं पर कर रहे हैं, वे एक खतरे की तरफ इशारा करते हैं। टीकाकरण को एक लोकप्रिय, लुभावना, राजनीतिक मुद्दा बनाना ठीक नहीं है। इस बारे में बहुत सावधानी से वैज्ञानिक फैसला लिया जाना चाहिए जिससे नेता अपनी राजनीति को अलग रखें।
लॉकडाऊन के दौर में हिन्दुस्तान में डिजिटल माध्यम का भरपूर इस्तेमाल भी हुआ, और उसका भरपूर विस्तार भी हुआ। लोगों ने इंटरनेट कंपनियों से बड़े डेटा पैक खरीदे, और घर बैठे ऑनलाईन काम भी अधिक किया, ऑनलाईन मनोरंजन भी अधिक किया। अब देश भर से ऐसी खबरें आ रही हैं कि इंटरनेट पर हार्डकोर कहे जाने वाले पोर्नो पर सरकारी रोक लगने के बाद देश के भीतर बहुत से शहरों में ऐसा सॉफ्ट पोर्नो बन रहा है जिसे देखने में हिन्दुस्तानियों की बड़ी दिलचस्पी दिख रही है। ऐसी सेक्सी वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर देखने के लिए थोक में पैकेज मिल रहे हैं, या हर महीने के, या साल भर के पैकेज भी। इस कारोबार पर अभी छपी एक लंबी रिपोर्ट के मुताबिक उत्तरप्रदेश का मेरठ शहर सॉफ्ट पोर्नो वीडियो बनाने का एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा है। बिना किसी कहानी के जो हार्डपोर्नो रहते हैं उनकी वेबसाईटों पर तो भारत सरकार आसानी से रोक लगाते आई है। लेकिन सॉफ्टपोर्नो तो थोड़ी-बहुत कहानी के साथ लपेटकर परोसे गए बहुत सारे सेक्स का पैकेज रहता है जिसे लेकर आसानी से सरकारी फैसला नहीं हो सकता। इन्हें बनाने वाले इसे असल जिंदगी की कहानियों से जुड़ा हुआ मनोरंजन बताते हैं, और खुद के पोर्नो होने से इंकार करते हैं। दूसरी तरफ जिस रफ्तार से इसके दर्शक बढ़ रहे हैं, यह एक फिक्र का सामान बनता जा रहा है कि क्या जनता के बीच कानूनी रूप से मौजूद मनोरंजन इस तरफ इतना मुड़ रहा है!
भारत में आम लोगों के लिए कानूनी बाजार में उपलब्ध मनोरंजन वैसे भी घटिया माना जाता है। ऐसे में जब उससे और सौ गुना घटिया मनोरंजन बाजार पर कब्जा करते दिख रहा है, तो लगता है कि देश में कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह कारोबार कहां जाकर खत्म होगा? ऐसा मानने वाले लोग भी बहुत हैं कि पोर्नो देख-देखकर सेक्स-अपराध करने वाले लोग कम नहीं हैं, तो फिर देश में बने हुए इस देशी सॉफ्टपोर्नो का असल जिंदगी पर क्या असर होगा? और क्या इसे बनाने वाले लोगों के इस दावे में सचमुच ही कुछ दम है कि ये असल जिंदगी की कहानियां हैं, और असल जिंदगी में ऐसा होता है?
यह सिलसिला कुछ बेचैन करता है। कानूनी प्रतिबंध तो अधिक अश्लील और अधिक हार्डपोर्नो पर लगाना अधिक आसान है, जिन लोगों ने पिछले कुछ महीनों में सॉफ्टपोर्नो के कारोबार को हिन्दुस्तान में सैकड़ों करोड़ रूपए का बना दिया है, और जो रात-दिन छलांगें लगाकर बढ़ रहा है, वे लोग अपने पर लगे किसी सरकारी प्रतिबंध को बिना अदालती चुनौती के बर्दाश्त तो करने वाले है नहीं। अब यह समझना कुछ मुश्किल है कि हर हाथ में स्मार्टफोन वाला जो तबका ऑनलाईन भुगतान कर सकता है, वह सौ रूपए महीने में ऐसे हजारों वीडियो देखने से कैसे रोका जा सकेगा?
अभी-अभी कुछ दिनों में फेसबुक पर भी ऐसे वीडियो छाने लगे हैं जो कि किसी भुगतान के बिना दो-चार वीडियो परोसकर उसके बाद किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म को भुगतान करने के लिए उकसाते हैं ताकि महीने भर या साल भर उसे देखा जा सके। जो लोग इंटरनेट पर हिन्दुस्तान का सॉफ्टपोर्नो ढूंढ भी नहीं रहे हैं, उन्हें भी फेसबुक पर दूसरे वीडियो के बीच ऐसे वीडियो दिख रहे हैं।
इस कारोबार का एक और खतरनाक पहलू यह है कि उत्तरप्रदेश के मेरठ के अलावा देश के दर्जन भर और ऐसे छोटे शहर हैं जहां लोग ऐसे अभिनेताओं को ढूंढ लेते हैं जो आगे चलकर किसी टीवी सीरियल या फिल्म में काम करना चाहते हैं, और फिर कुछ लाख रूपए लगाकर ऐसी छोटी वीडियो फिल्म बना लेते हैं। ऐसे सॉफ्टपोर्नो को एकदम से अश्लील करार देकर उस पर कानूनी रोक भी मुश्किल है, दूसरी तरफ जो महत्वाकांक्षी अभिनेता-अभिनेत्री ऐसे वीडियो में उलझ जाते हैं, उन्हें बचाना भी मुश्किल है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश भर के सिनेमाघरों में फिल्में पहुंचाने वाले डिस्ट्रीब्यूटरों ने सलमान खान से एक खुली अपील की है कि वे अपनी नई फिल्म राधे को इंटरनेट पर, ओटीटी पर जारी करने के बजाय उसे सिनेमाघरों में रिलीज करें ताकि अब तक मंद या बंद पड़े सिनेमाघरों में जिंदगी लौट सके। देश भर के सिनेमाघर ठप्प होने से दसियों लाख लोग बेरोजगार हुए हैं, और उन्हें किसी एक रौशनी की तलाश है। सलमान खान एक कामयाब अभिनेता और निर्माता हैं, और उनकी फिल्में हिन्दू और मुस्लिम, सभी समुदायों के दर्शकों के बीच बड़ी लोकप्रिय रहती हैं। उनकी फिल्में बड़े बजट की भी रहती हैं जिनसे डिस्ट्रीब्यूटरों को अच्छा कारोबार होने की उम्मीद है। सिनेमाघर बंद होने से न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि बाकी दुनिया में भी इंटरनेट पर फिल्मों का कारोबार लगातार बढ़ा है, और लोग घरों में स्मार्ट-टीवी पर, कम्प्यूटर या स्मार्टफोन पर ओटीटी-प्लेटफॉर्म पर फिल्में देखने लगे हैं। इस नए कारोबार ने लॉकडाऊन के दौरान छलांगें लगाकर नए ग्राहक बनाए हैं, और उम्मीद से अधिक कमाई की है। लेकिन सिनेमाघरों के साथ जुड़े हुए दसियों लाख रोजगार हिन्दुस्तान में ऐसे हैं जिनकी कोई जगह इंटरनेट पर आने वाली फिल्मों में नहीं है।
यह तो एक चर्चित कारोबार है इसलिए यह खबरों में भी आया और इसी बहाने हम भी इस पर लिख रहे हैं, लेकिन आज पूरी दुनिया में कोरोना-लॉकडाऊन ने कारोबार के तौर-तरीके बदलकर रख दिए हैं। एक आम और औसत हिन्दुस्तानी शहर की हर संपन्न बस्ती में लोग सुबह उठते बाद में हैं, उनकी कॉलोनियों में फेरी लगाकर फल-सब्जी बेचने वाले, दूसरे कई किस्म के सामान बेचने वाले लोग आवाज लगाने लगते हैं। यह सब लॉकडाऊन के पहले नहीं था, लेकिन लॉकडाऊन ने इतने रोजगार खाए, इतने कारोबार बंद करवाए कि लोगों को दूसरे काम-धंधे तलाशने पड़े। लॉकडाऊन अब खत्म हो गया है, लेकिन कारोबार पटरी पर नहीं लौटा है। स्कूल-कॉलेज बंद चल रहे हैं, और उनमें न फीस आ रही है, न तनख्वाह दे पाना मुमकिन हो रहा है। इमारतों का किराया लग रहा है, न्यूनतम बिजली बिल लग रहा है, बसों या दूसरे ढांचे का बैंक का कर्ज खड़ा है, और अभी तक कोई रास्ता नहीं निकला है। पूरे हिन्दुस्तान में लाखों होटल बंद हो गए हैं, रेस्त्रां अब तक जिंदा रहने लायक कमाई नहीं कर रहे हैं, मनोरंजन के कार्यक्रम करने वाले बेरोजगार घर बैठे हैं, और शादी-ब्याह के जलसे, उनकी पार्टियों का इंतजाम करने वाले लगभग बेरोजगार हैं।
यह तो ठीक है कि कोरोना की दहशत अगले साल-छह महीने में इतनी घट सकती है कि लोग फिर से पुराने ग्राहक बन जाएं, लेकिन जैसा कि कल ही विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने कहा है कि अगला कोई वायरस कोरोना से अधिक खतरनाक भी आ सकता है। ऐसा अगर होगा तो वह एक बार फिर लॉकडाऊन जैसी नौबत लाएगा। आज दुनिया के तमाम काम-धंधों को, कारीगरों से लेकर मजदूर तक लोगों को ऐसे विकल्प ढूंढकर और सोचकर रखने हैं जो कि अगली किसी महामारी के वक्त, या किसी और किस्म की आर्थिक मंदी के दौर में उनको जिंदा रख सकें। आज जब दीवारों पर पेंट करने वाले लोग सब्जी बेचने पर मजबूर हैं, कहीं बैंड पार्टी के लोग झाड़ू बेचते घूम रहे हैं, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षक सडक़ किनारे चाय ठेला लगा रहे हैं, तो दुनिया को एक वैकल्पिक जिंदगी के बारे में सोचकर रखना होगा, और उसके लिए तैयार भी होना होगा।
दुनिया की पिछली महामारी सौ बरस पहले आई थी, और उसके दस बरस बाद दुनिया की सबसे बड़ी मंदी भी आई थी जो कि दस बरस चली थी। अमरीका जैसा सबसे बड़ा कारोबारी देश उस दौरान जितने किस्म के आर्थिक और सामाजिक पतन का शिकार हुआ, वह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। आज दुनिया में जो लोग जिंदा हैं, उनमें से गिने-चुने लोगों ने ही महामारी और मंदी का वह एक के बाद एक चला दौर देखा था। वे अब मौत के इतने करीब हैं कि उस वक्त का तजुर्बा आज किसी के लिए सबक भी नहीं है। इसलिए आज की दुनिया को एक संक्रामक रोग और एक आर्थिक मंदी-बंदी से जूझना पहली बार सीखने मिल रहा है। लोगों को ऐसे और, अगले दौर के लिए तैयार रहना चाहिए, अपने आपको बेहतर तैयार करना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि वह बंदी-मंदी अभी के मुकाबले अधिक कड़ी और बड़ी हो। इस बार भी बड़े कारोबारियों से लेकर छोटे मजदूरों तक तमाम लोगों ने लॉकडाऊन की मार झेली है, इससे सबक लेकर सबको यह सोचना चाहिए कि अगले किसी बुरे दौर में लोगों की कौन सी जरूरतें बुनियादी बनी रहेंगी, और कौन सी जरूरतों को लोग छोडऩे के लिए मजबूर होंगे। इसका कुछ तजुर्बा तो इस बार भी हुआ है, और लोगों को यह सोचना चाहिए कि अगली नौबत आने पर वे, उनका कारोबार, या उनका रोजगार किस तरह जिंदा रहेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने यह बड़ी घोषणा की है कि हर भारतीय को कोरोना वैक्सीन पूरी तरह मुफ्त लगाई जाएगी, इसके लिए किसी तरह का शुल्क नहीं लिया जाएगा। आज देश में जगह-जगह वैक्सीन लगाने का अभ्यास किया जा रहा है। इस मौके पर ही डॉ. हर्षवर्धन ने यह जानकारी दी है। जाहिर है कि सवा अरब से अधिक आबादी के इस देश में कोरोना मोर्चे पर खतरा झेल रहे करीब तीन करोड़ लोगों से शुरुआत होगी, और फिर उम्र या सेहत के हिसाब से बाकी लोगों को पहले या बाद यह टीका लगाया जाएगा। कुछ महीने पहले बिहार विधानसभा चुनाव के समय भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में बिहार के हर किसी को मुफ्त वैक्सीन लगाने का वायदा किया गया था, और उस समय से यह विवाद और असमंजस चल रहे थे कि क्या अलग-अलग राज्यों में लोगों के साथ अलग-अलग बर्ताव होगा? केन्द्र सरकार ने यह बात साफ करने में खासा वक्त तो लिया है, लेकिन हर किसी को मुफ्त वैक्सीन जैसी छोटी सी और साफ बात अब कर दी गई है।
कोरोना वैक्सीन को लेकर बाकी दुनिया की तरह हिन्दुस्तान के लोगों में भी जरूरत से कुछ अधिक आत्मविश्वास दिख रहा है। जबकि अलग-अलग वैक्सीन की कामयाबी के आंकड़े अलग-अलग हैं, और कुछ वैक्सीन 70 फीसदी कामयाबी वाली भी हैं। यह बात भी सामने आई है कि अधिकतर वैक्सीन के एक से अधिक डोज कुछ हफ्तों के फासले पर लगाने के बाद कुछ और हफ्ते गुजरने पर ही लोग सुरक्षित हो सकते हैं। यह पूरा सिलसिला बड़ा जटिल है, और भारत के अलग-अलग प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने ढांचे का पूरा इस्तेमाल करने के बाद भी यह खतरा उठाएंगी कि पहला डोज लगवाने वाले लोग दूसरे डोज के लिए समय पर न पहुंचें, और पहला टीका बेकार चले जाए। यह खतरा भी रहेगा कि राजनीतिक या आर्थिक ताकत वाले लोग अपने और अपने परिवार के लिए दूसरे लोगों की बारी छीनकर टीका जुटाएं, या स्वास्थ्य कर्मचारियों को रिश्वत देकर उसका इंतजाम करें। यह भी हो सकता है कि अपराधियों के गिरोह टीके लूट लें, और फिर उसकी कालाबाजारी करें। यह बात तो है ही कि नकली टीकों को असली बताते हुए उन्हें बेचने की जालसाजी की जाए, ऐसे मामले शुरू भी हो चुके हैं। लोगों ने अब तक टीकाकरण के नाम पर देश का सबसे बड़ा अभियान पोलियो ड्रॉप्स का देखा है जिसकी कोई कमी नहीं थी, जिसे सिर्फ कम उम्र बच्चों को पिलाना था, और स्वास्थ्य कर्मचारियों ने घर-घर जाकर बच्चों को दो बूंद जिंदगी की पिलाई थीं। यह पहला मौका है जब अलग-अलग तबकों की प्राथमिकता के आधार पर उन्हें छांटकर उनका रजिस्ट्रेशन करके, उनकी पहचान का रिकॉर्ड बनाकर उन्हें हफ्तों के फासले पर दो डोज इंजेक्शन से लगाए जाएं। इस हिसाब से कोरोना का टीकाकरण देश के अब तक के किसी भी दूसरे टीकाकरण-अनुभव से बहुत अधिक जटिल है। फिर कोरोना से मौतों की दहशत को भी एक बरस होने आ रहा है, और लोग इस टीके को पाने के लिए अधिक हड़बड़ी में भी हैं।
स्वास्थ्य कर्मचारियों और कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए दूसरे कर्मचारियों की करीब तीन करोड़ की आबादी तो पढ़ी-लिखी है। लेकिन इनके बाद जब ग्रामीण, अशिक्षित, बुजुर्ग आबादी की बारी आएगी, तो एक खतरा यह भी रहेगा कि इनके हिस्से के टीके रिश्वत लेकर किसी और को लगा दिए जाएं, और इन्हें कोरोना-टीके के बजाय कोई और मामूली पानी जैसा इंजेक्शन लगा दिया जाए। ऐसी धोखाधड़ी से बचने के लिए अगर जरूरी हो तो राज्य सरकारों को इसकी पूरी रिकॉर्डिंग भी करवानी चाहिए, और किसी भी तरह के धोखे की आशंका खत्म करनी चाहिए।
आज हिन्दुस्तान एक ऐसे झांसे का शिकार हो गया है कि कोरोना अब हार चुका है, और यह देश जीत चुका है। जबकि देश की पूरी आबादी के टीकाकरण को एक-दो बरस भी लग सकते हैं। तब तक तो कोरोना का खतरा बने ही रहेगा। जरूरत से अधिक आत्मविश्वास घातक साबित हो सकता है। पिछले दिनों हमने इसी जगह लिखा भी था कि सरकार के कुछ नारों से एक ऐसी खुशफहमी पैदा हुई है कि कोरोना का टीका नहीं बन रहा है, उसकी दवा बन रही है। मामूली वैज्ञानिक समझ के मुताबिक भी इन दोनों में बड़ा फर्क है। टीका आगे बीमारी के खतरे को घटाता है, या खत्म करता है। दूसरी तरफ दवाई बीमार हो जाने के बाद इलाज करती है। ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। फिर अमिताभ बच्चन के मुंह से या दूसरे नेताओं के मुंह से लोग रात-दिन सुन रहे हैं कि जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। इससे एक ऐसी सोच बन रही है कि दवा आ जाने के बाद ढिलाई करने में कोई बुराई नहीं रहेगी। जबकि लोगों को कोरोना के टीके के बाद भी किसी भी तरह के संक्रमण के लिए सावधान रहने की नसीहत देना बेहतर होगा। आज दुनिया के कई देशों में कोरोना का दूसरा या तीसरा दौर चल रहा है, वह लौट-लौटकर आ रहा है, और जैसा कि ब्रिटेन में पाया गया है, कोरोना अपने आपको बदलकर भी आया है। कई दूसरे वायरस कई-कई बार अपनी शक्लें बदलते हैं। इसलिए लोग दहशत में चाहे न रहें, सावधानी में ढिलाई खतरनाक होगी। लोगों को साफ-साफ यह समझाने की जरूरत है कि कोरोना का टीका उन्हें कुछ हद तक सुरक्षित रखेगा, लेकिन लोगों को सावधानी को अपनी आदत बना लेना चाहिए।
फिलहाल यह देश काफी हद तक कामयाब टीका लगाने के करीब है, यह दुनिया का एक सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान भी होगा और लोगों को इसे कामयाब करने के लिए इसकी तमाम शर्तों को बहुत गंभीरता से मानना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नए साल का पहला दिन यूरोपीय यूनियन के लिए बहुत अलग किस्म का है क्योंकि ब्रिटेन आज उससे अलग है। यूनाईटेड किंगडम, यूके, नाम से प्रचलित ब्रिटेन 1973 में यूरोपीय समुदाय में शामिल हुआ था, और आधी सदी के जरा से पहले वह उससे अलग हो गया। दुनिया में देशों के कई किस्म के संगठन हैं, मुस्लिम देशों का अलग संगठन हैं, दक्षिण एशिया के देशों का अलग संगठन हैं, पेट्रोलियम उत्पादक देशों का अलग संगठन हैं, अमरीका की अगुवाई में सैनिक संधि वाला देशों का एक संगठन हैं, लेकिन यूरोपीय यूनियन, ईयू, सबसे ही अलग और सबसे वजनदार संगठन है। इस मायने में कि इसके सदस्य देशों के बीच आवाजाही के लिए कोई वीजा नहीं लगता था, एक-दूसरे में टैक्स-मुक्त कारोबार हो सकता था, और भी कई किस्म की ऐसी बातें ईयू में थीं कि वह एक संगठन से अधिक, प्रदेशों का एक देश सरीखा लगता था। अब अपने एक सबसे बड़े और ताकतवर सदस्य को खोकर ईयू के लिए भी एक नई दिक्कत की शुरुआत है, और ब्रिटेन के लिए भी। यूनाईटेड किंगडम के भीतर ब्रिटेन के साथी-देशों में भी ईयू से अलग होने पर असहमति है, और जिस ब्रिटेन ने बहुमत से अलग होने का जनमतसंग्रह किया था, वह ब्रिटेन भी इससे हिला हुआ है।
यूरोपीय यूनियन का मानना है कि अलग होने के इस फैसले, ब्रेग्जिट से ईयू और ब्रिटेन दोनों कमजोर होंगे। पूरे योरप में कम से कम दो पीढिय़ां ऐसी निकल चुकी हैं जिन्होंने ब्रिटेन और ईयू को एक ही देखा था, और इस एकता के तमाम फायदे पाए थे। अब इतने बड़े और संस्थापक देशों में से एक, ब्रिटेन के बाहर होने से ईयू भी कमजोर होगा जो कि पश्चिमी दुनिया में अमरीकी एकाधिकार के मुकाबले एक अलग किस्म की ताकत बनकर खड़ा हुआ था।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ब्रेग्जिट के मुद्दे पर ही जीतकर सत्ता पर आए थे, और उन्होंने कहा है कि अब ब्रिटेन के हाथों में आजादी आई है। बाकी यूरोपीय यूनियन भी यह मानता है कि ब्रिटेन से किसी न किसी किस्म के संबंध ईयू के बने रहेंगे, लेकिन ब्रिटेन और बाकी ईयू के बीच कामकाज कैसे चलेगा, नए व्यापार-नियम कैसे काम करेंगे, यह सब अभी असमंजस में डूबा रहस्य ही है। इस बारे में लिखने की जरूरत आज इसलिए हो रही है कि दुनिया के और दूसरे देशों में जहां ऐसे लचीले संबंधों वाले संगठन बनाने की बात होती है, उन्हें भी इससे सबक लेना चाहिए कि हर देश के लोगों की अलग-अलग महत्वाकांक्षाएं होती हैं, और जब किसी बड़े संगठन का हिस्सा बनकर अपनी संभावनाओं को दूसरों के साथ बांटना पड़ता है, तो अपने देश की सरकार पर, सत्तारूढ़ पार्टी पर एक बड़ा दबाव पड़ता है। हिन्द महासागर के भारत वाले इलाके में पड़ोसी देशों के साथ अधिक गहरे कारोबारी, और आवाजाही संबंधों की बात बहुत से आशावादी लोग हमेशा ही करते हैं। लोगों को लगता है, और सही लगता है, कि भारत और पाकिस्तान के बीच फौजी-सरहदी तनाव कम हो, तो दोनों देशों की अपनी फौजों पर बड़ी बर्बादी भी घटेगी जो कि सरहद के दोनों तरफ के गरीबों के काम आएगी। ब्रिटेन और ईयू के रिश्ते टूटने को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे रिश्ते चाहने वालों को निराश होने की जरूरत नहीं है। अखंड भारत का फतवा देने वाले युद्धोन्मादियों से परे कोई भी ऐसी संभावनाएं नहीं देखते कि भारत और पाकिस्तान की सरहद मिट जाएगी। पाकिस्तान एक हकीकत है जो कि मिट नहीं सकती। और भारत और पाकिस्तान के बीच अपनी-अपनी घरेलू वजहों से सरहदी तनाव बनाए रखने की राजनीतिक मजबूरी भी दोनों सरकारों के सामने रहेगी, इसलिए भी भ्रष्ट हथियार खरीदी जारी रहेगी। ईयू से ब्रिटेन के अलग होने की कोई तुलना भारत और पाकिस्तान के अलग होने से नहीं की जा सकती, लेकिन जिस तरह ईयू एक संगठन बना था, वैसा कोई संगठन भारत के इर्द-गिर्द मुमकिन नहीं है। जिस तरह अलग होने के बाद भी ईयू और ब्रिटेन के बीच सभ्य समाज जैसे रिश्ते बचे रहेंगे, वही एक मिसाल भारत और पाकिस्तान के काम आ सकती है कि विभाजन के बाद भी एक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व संभव है। जो लोग अपनी तंगसमझ, अपने तंगनजरिए, और अपने बहुत सीमित-स्वार्थी एजेंडा से परे दुनिया को देखना जानते हैं, वे दुनिया की आज की घटनाओं के तजुर्बे का फायदा उठा सकते हैं। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की सोच दुनिया के बहुत से देशों के बीच एक समझदारी स्थापित कर सकती है। सरहदें मिटना न आसान है, और न हर मामले में समझदारी ही है, लेकिन सरहद के दोनों तरफ एक-दूसरे की मौत की कामना किए बिना जीना तो मुमकिन है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश के एक प्रमुख और बड़े शहर जबलपुर में म्युनिसिपल ने बगीचे में आने पर टिकट लगाई है। किसी बगीचे में दस रूपए, किसी में बीस रूपए की टिकट लगाई गई है, दुपहिया खड़े करने के लिए बीस रूपए से लेकर पचास रूपए तक देने होंगे, और महीने भर बगीचे में जाने के लिए तीन सौ रूपए का मासिक पास बनवाना पड़ेगा। इसे ऑक्सीजन टैक्स कहा गया है। जाहिर है कि जबलपुर के लोग इसका जमकर विरोध कर रहे हैं।
कोई स्थानीय संस्था इस कदर बेवकूफ हो सकती है, यह उसकी एक गजब की मिसाल है। अभी कुछ ही समय पहले तक तो देश भर में म्युनिसिपल दवाखाने भी चलाती थीं, और कई जगहों पर अस्पताल भी। किसी शहर को साफ रखना, वहां पर बगीचा बनाना, तालाब साफ रखना, और लोगों के घूमने-फिरने की जगह विकसित करना, मैदान का रख-रखाव करना म्युनिसिपल की बुनियादी जिम्मेदारियों में आता है। यह सिलसिला अंग्रेजों के समय से चले आ रहा है। आज हालत यह है कि जबलपुर में अगर कोई परिवार अपने चार लोगों के साथ बगीचे में घूमने जाए तो उसे बारह सौ रूपए महीने का पास बनवाना पड़ेगा। इसे ऑक्सीजन टैक्स करार दिया गया है। अब एक तरफ तो मध्यप्रदेश की सत्तारूढ़ भाजपा के नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री की हैसियत से इंडिया को फिट रहने का आव्हान करते हैं, और दूसरी तरफ उन्हीं की पार्टी के प्रदेश में बगीचे की खुली हवा में सांस लेने के लिए टैक्स लगाया जा रहा है।
जब शासन-प्रशासन अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों से दूर हो जाए, सरकारी स्कूलें बंद करने लगे, सरकारी अस्पताल बंद करने लगे, हाईवे पर टोल-टैक्स के बाद अब शहरों में ऑक्सीजन टैक्स लगाने लगे तो मान लेना चाहिए कि यह जनकल्याणकारी सरकार नहीं रह गई, यह कारोबारी सरकार रह गई है जो कि इंसानी फेंफड़ों का टेंटुआ मरोडक़र उससे उगाही कर रही है। किसी म्युनिसिपल को पैसों की कमी पड़ रही है तो उसे अपनी फिजूलखर्ची में किफायत बरतनी चाहिए, अपने भ्रष्टाचार को घटाना चाहिए, शहर के बड़े महंगे कारोबारियों से अधिक टैक्स लेना चाहिए, कमाई के दूसरे साधन जुटाने चाहिए जिनका बोझ संपन्न तबका उठा सके। आज शहरों में संपन्न तबका तो सैकड़ों या हजारों रूपए महीने की फीस देकर महंगे एयरकंडीशंड जिम में जा सकता है, लेकिन मध्यमवर्गीय और गरीबों के जाने के लिए तो सिर्फ सरकारी बगीचे, तालाब के किनारे, और खेल के मैदान रहते हैं। वहां पर इस किस्म का मनमानी टैक्स लगाकर जबलपुर म्युनिसिपल अपनी बेवकूफी के अलावा कुछ उजागर नहीं कर रहा।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से जबलपुर प्रदेश के हाईकोर्ट का शहर रहा है। आज भी मध्यप्रदेश का हाईकोर्ट जबलपुर में है। वहां के लोगों को इस ऑक्सीजन या फेंफड़ा टैक्स के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर करनी चाहिए ताकि अदालत से म्युनिसिपल को फटकार लग सके। एक तरफ तो शहरों को भट्टी में तब्दील करने वाले बढ़ते चले जा रहे एयरकंडीशनरों पर म्युनिसिपल कोई टैक्स नहीं लगातीं। अपने आपको ठंडा रखने के लिए शहर की हवा में जलती-सुलगती लपटों को फेंकने वाले एसी पर्यावरण को बिगाडऩे के एक सबसे बड़े जिम्मेदार हैं। लेकिन शहर की गर्मी को सीधे-सीधे बढ़ाने वाले ऐसे एसी पर म्युनिसिपल या पर्यावरण का कोई टैक्स नहीं लगता। आबादी का एक फीसदी से भी कम हिस्सा एसी का इस्तेमाल करता है, और बाकी 99 फीसदी आबादी पर गर्म हवा झोंक देता है। अगर जबलपुर या किसी और म्युनिसिपल को कोई मौलिक टैक्स लगाकर अपने खर्चों की भरपाई करनी भी थी, तो उन्हें सिर्फ संपन्न तबके के इस्तेमाल वाले एसी या ऐसे दूसरे सामानों पर टैक्स लगाना था। अपनी सेहत ठीक रखने के लिए बगीचे जाने वाले हर आय वर्ग के लोगों पर ऐसा भारी-भरकम फेंफड़ा-टैक्स लगाना मूर्खता की पराकाष्ठा है। हमें जरा भी शक नहीं है कि जबलपुर हाईकोर्ट तुरंत ही इस टैक्स को खारिज कर देगा। लोगों को थोड़ी सी मशक्कत करनी पड़ेगी, और एक जनहित याचिका लगानी पड़ेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन में कोरोना की एक नई किस्म सामने आने के बाद हडक़म्प मचा हुआ है। इससे लोगों को सीधे तो खतरा उतना ही है जितना कि कोरोना की अभी तक चल रही किस्म से है, लेकिन इसका संक्रमण बहुत तेज रफ्तार से दूसरों तक होता है इसलिए यह अधिक खतरनाक है। यह बात खबरों में दस दिनों से चली आ रही है, और दुनिया के दर्जनों देशों ने ब्रिटेन से विमानों की आवाजाही बंद कर दी है। लेकिन हिन्दुस्तान में ब्रिटेन से उड़ान बंद होने के पहले जो मुसाफिर यहां पहुंचे हैं उनमें दर्जनों लोग कोरोना की इस नई किस्म से संक्रमित मिले हैं। और सैकड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपने फोन बंद कर लिए हैं, और राज्य सरकारें उन्हें ढूंढ नहीं पा रही हैं। जो लोग अंतरराष्ट्रीय हवाई सफर करके आ रहे हैं, उन्हें कोरोना की पिछली और नई किस्म दोनों के खतरे मालूम हैं, लेकिन वे जांच से भाग रहे हैं, सरकार से भाग रहे हैं।
लोगों को याद होगा कि जब यह बात स्थापित हो गई थी कि हिन्दुस्तान में कोरोना दूसरे देशों से आया है, और हवाई मुसाफिर इसे लेकर आए हैं, तब एक तीखी लाईन इस्तेमाल हो रही थी कि पासपोर्ट वाले इसे लेकर आए, और राशन कार्ड वालों को थमा दिया। आज फिर वही नौबत हो रही है कि देश का गरीब तबका किसी तरह कोरोना, और उससे कहीं अधिक खतरनाक लॉकडाऊन, से उबरने की कोशिश कर रहा है, और विदेशों से लौट रहे संपन्न लोग गैरजिम्मेदारी दिखा रहे हैं। दिक्कत यह भी है कि जब सरकारी अस्पतालों में जांच और इलाज की बात आती है तो विदेशों से लौटने वाले लोग अपनी संपन्नता या दूसरे किसी किस्म की ताकत के चलते पहले बारी पाते हैं, और गरीब वहां भी पिछड़ जाते हैं।
आज ट्विटर पर एक महिला मुसाफिर ने एक फोटो पोस्ट की है जिसमें भारत के एक यात्री विमान की एक कतार दिख रही है, और यह पूरी कतार ही बिना मास्क के बैठी हुई है। इस महिला ने लिखा है कि विमान के कर्मचारी किसी को मास्क पहनने नहीं कह रहे थे। और यह बात सही इसलिए लग रही है कि अब तक चली आ रही मास्क, और उसके ऊपर फेस-शील्ड वाली तस्वीरें आज लागू नहीं लग रही हैं। लोग अब सावधानी बरतते हुए थक चुके हैं, वैक्सीन आने की खबरों से उनका भरोसा जरूरत से अधिक बढ़ गया है, और बिना मास्क के नेताओं को देख-देखकर उन्हें यह लग रहा है कि अब सावधानी फिजूल है। एक तरफ तो प्रदेशों में मुसाफिर बसों में क्षमता से आधे मुसाफिर ले जाने का नियम लादा गया है जिसके चलते बसों ने किराया बढ़ा दिया है। दूसरी तरफ तंग सीटों वाले विमानों की हर सीट पर मुसाफिर बिठाने की छूट दी गई है जिससे खतरा अधिक दिखता है। हिन्दुस्तानी रेलगाडिय़ों में अभी चुनिंदा स्टेशनों से चुनिंदा रेलगाडिय़ां चल रही हैं जिनमें रिजर्वेशन से ही चढ़ा जा सकता है। आम मुसाफिरों के लिए बिना रिजर्वेशन वाली रेलगाडिय़ां नहीं चल रही हैं।
इन तमाम बातों को एक साथ लिखने का मकसद यह है कि हिन्दुस्तान की सरकार से लेकर अदालतों तक, और राज्य सरकारों तक, सबके फैसलों में संपन्न तबके और विपन्न तबके के बीच एक बड़ा साफ फर्क दिखाई पड़ता है। पासपोर्ट वालों और राशन कार्ड वालों में भेदभाव किया जा रहा है। आम जनता को तो बिहार के चुनाव से लेकर हैदराबाद के चुनाव तक, और बंगाल की राजनीतिक रैलियों तक झोंका जा रहा है, लेकिन कुल 540 सदस्यों वाली लोकसभा, और उससे भी छोटी राज्यसभा पर कोरोना का खतरा बताते हुए उनका सत्र टाल दिया गया है। अगर तमाम सहूलियतों और चिकित्सा सुविधाओं, सावधानियों के बीच संसद में सदस्यों के बैठने में भी कोरोना का खतरा है, तो फिर चुनावी और राजनीतिक रैलियों में लोगों का रेला जुटाना खतरे से परे कैसे हो गया?
आम मुसाफिरों के लिए बसें घट गईं, ट्रेनें बहुत ही कम रह गईं, लेकिन खास मुसाफिरों के लिए हवाई जहाज की तंग सीटें भी महफूज मानी जा रही हैं। राज्यों में उन लोगों की गिरफ्तारियां हो रही हैं जो कोरोना पॉजिटिव मिले थे लेकिन होम क्वारंटीन में रहते हुए बाहर घूम रहे थे। ऐसी कोई गिरफ्तारी किसी हवाई मुसाफिर की नहीं सुनी गई है जबकि विदेशों से लौटकर वे गायब हुए जा रहे हैं।
जैसा कि कोरोना के हमले के शुरू के महीनों में ही देखा गया था कि विदेशों से आने वाले आम मुसाफिरों से लेकर ट्रंप की अहमदाबाद की चुनावी सभा में आने वाले हजारों विदेशियों से खतरा आया, और गरीब हिन्दुस्तानियों की जिंदगी को तबाह कर गया। आज भी वही सिलसिला जारी है। मास्क न लगाने पर देश भर में कई शहरों में सडक़ों पर आम लोगों को रोक-रोककर सैकड़ों रूपए जुर्माना लिया जा रहा है, और खास लोग विमान से लेकर रेस्त्रां और बार तक हर किस्म की लापरवाही की आजादी का मजा ले रहे हैं। हालत यह है कि हिन्दुस्तान में आम लोग तो चूसी हुई गुठली जितने महत्वपूर्ण भी नहीं रह गए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कैलेंडर बदलने के अलावा नए साल का दूसरा बड़ा इस्तेमाल अपने-आपसे कई किस्म की कसमें खाने का होता है। बहुत से लोग पहली जनवरी से दारू, सिगरेट, या तम्बाकू छोडऩे की कसम खाते हैं, बहुत से लोग कसरत, सैर, या जिम शुरू करने की कसम खाते हैं। वजन अधिक हो तो घी-मक्खन, और मीठा छोडऩे की कसम खाई जाती है। लेकिन इनमें से अधिकतर कसमें रेतीली मिट्टी पर खोदी जा रही खदानों की तरह धसक जाती हैं। साल आगे बढऩे लगता है, और लोग पुराने ढर्रे को जारी रखते हैं। दो-चार दिन सोशल मीडिया पर नए साल के संदेश लिखना और पढऩा चलते रहता है, और जनवरी का पहला हफ्ता गुजरने तक श्मशान वैराग्य की तरह नए साल का यह वैराग्य भी चल बसता है।
लेकिन ऐसा भी नहीं कि थोड़े से लोग भी थोड़ी दूरी तक कामयाब न होते हों। जो लोग अपने-आपसे ईमानदार रहते हैं वे कोशिश जारी रखते हैं, और वे कुछ हद तक कामयाब भी हो जाते हैं। नए साल के संकल्प एकदम ही फिजूल के नहीं होते, वे अपनी कमियों और खामियों की पहचान का मौका देते हैं, बेहतरी और सुधार सुझाते हैं, और उस राह पर दो-चार कदम आगे भी बढ़ाते हैं। लेकिन जिस तरह किसी भी कड़े और लंबे सफर के साथ होता है, संकल्पों के साथ नए साल में आगे बढऩा कुछ उसी तरह मुश्किल रहता है।
लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि खाने-पीने और कसरत-किफायत से परे नए साल के बारे में और कौन सी बातें तय की जा सकती हैं। लोग इसके लिए सोशल मीडिया भी देख सकते हैं जहां पर लोग, प्रधानमंत्री के अलावा बाकी लोग भी, मन की बात लिखते हैं। अभी एक किसी ने लिखा कि उन्हें बहुत शर्म है कि अपनी खरीदी हुई किताबों में से वे बहुत कम पढ़ पाती हैं, और बाकी किताबें अनछुई धरी रह जाती हैं। उन्होंने यह संकल्प किया है कि इस बरस वे उनके पास इक_ा हो गईं तमाम अनछुई किताबें पढक़र खत्म कर लेंगी। किताबों की इस चर्चा से यह याद पड़ता है कि लोगों को अपने पास की पढ़ी हुई, और आगे न पढऩे वाली किताबों को दूसरों को देना भी सीखना चाहिए। एक किताब के लिए एक पेड़ कटता है, और उस पेड़ की शहादत की इतनी तो इज्जत होनी चाहिए कि उससे बने कागज पर छपी किताब अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें। डिक्शनरी और सामान्य ज्ञान की किताबों को छोडक़र किस्सा-कहानी की कम ही किताबें ऐसी रहती हैं जिन्हें लोग बार-बार पढऩा चाहें। यह भी समझने की जरूरत है कि बार-बार पढऩे में लगने वाला वक्त नई और दूसरी किताबों को पढऩे के लिए खाली रखना चाहिए। ये तमाम बातें सुझाती हैं कि लोग किताबों को पूरी तरह दान चाहे न कर दें, कम से कम दूसरों को पढऩे के लिए देते चलें। पढ़-पढक़र घिसी हुई, पुरानी पड़ गई किताब अधिक इज्जत का सामान होती है, बजाय जुड़े हुए पन्नों के आलमारी में कैद किताब के।
लोगों के खाने-पीने और कसरत के संकल्पों के बारे में हमें अधिक कुछ नहीं कहना है क्योंकि उनका अपना भला उससे जुड़ा रहता है। लेकिन यहां बाकी दुनिया के भले के कोई फैसले होते हैं, तो उन्हें तो आगे बढ़ाना चाहिए। लोगों को अपने पास के गैरजरूरी हो चुके इक_ा सामानों से छुटकारा पाना भी आना चाहिए। यह आसान नहीं होता क्योंकि लोग इस दबाव में रहते हैं कि किसी भी दिन इनमें से किसी चीज की जरूरत पड़ जाएगी। दरअसल जिंदगी की जरूरतें बड़ी सीमित रहती हैं, इनसे अधिक जो कुछ रहता है वह शौक रहता है। लोग अगर चाहें तो अपने शौक में कुछ कटौती करके आसपास के जरूरतमंद लोगों के काम आ सकते हैं, और वही नए साल को बेहतर बनाने का एक तरीका हो सकता है।
निजी संकल्पों से परे लोगों को अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए अधिक करना चाहिए। अपनी चर्बी छांटना जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक जरूरी है सार्वजनिक जगहों को साफ-सुथरा रखना। हिन्दुस्तानियों की आम सोच यह है कि गंदगी करना उनका हक है, और उसे साफ करना म्युनिसिपल की जिम्मेदारी। जब तक इस सोच को नहीं बदला जाएगा तब तक इस देश में सफाई कर्मचारी नालियों और गटर में उतरकर काम करते रहेंगे, और बेमौत मरते रहेंगे। कुछ लोग अपने पहचान के लोगों के साथ रोजाना की सार्वजनिक जगहों पर ऐसे सामूहिक संकल्प ले सकते हैं कि किस तरह सार्वजनिक सम्पत्ति अपनी मानी जाए, और किस तरह उसे साफ और सुरक्षित रखा जाए।
इन दिनों मोबाइल फोन कैमरे का काम भी करते हैं, घड़ी का भी, कैलेंडर का भी, और डायरी का भी। इसलिए अब नए साल पर कैलेंडर-डायरी का कोई महत्व नहीं रह गया है। अब लोगों को दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जागरूकता दिखानी चाहिए। पहले लोग अपने कारोबार के कैलेंडर, उसकी डायरी दूसरों को बांटते थे, अब उसकी जरूरत नहीं रह गई तो लोग अच्छी किताबें बांट सकते हैं।
नए साल के संकल्पों की फेहरिस्त का कोई अंत नहीं होता। लेकिन लोगों को सामाजिक जिम्मेदारी को इसमें ऊपर रखना चाहिए। सार्वजनिक जगहों पर वे अगर कोई गुंडागर्दी या जुर्म देखते हैं, तो उसे अनदेखा करके आगे निकलने का मिजाज छोडऩा चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि किसी दिन ऐसी गुंडागर्दी के शिकार उनके परिवार के लोग होंगे, तो और लोग भी उसे अनदेखा कर सकते हैं। लोग अपने-अपने दायरे में इस नए साल में दूसरों के लिए क्या कर सकते हैं यह सोचना चाहिए, इसकी चर्चा करनी चाहिए, और अपने करीबी लोगों को इसके लिए तैयार भी करना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के बारे में दो दिन पहले एक अटपटी खबर आई कि वहां किसी वाहन पर अगर धर्म या जाति का स्टिकर लगा होगा, या इनका जिक्र लिखा होगा तो गाडिय़ों को जब्त कर लिया जाएगा। योगी सरकार ऐसा करेगी उस पर भरोसा करना मुश्किल था, और अगले ही दिन सरकार के आला अफसरों ने ऐसी सोशल मीडिया पोस्ट और खबरों को गलत करार दिया। अफसरों ने कहा कि गाडिय़ों पर जाति के स्टिकर लगाने पर पहले से जुर्माना तय है, इसी आधार पर एक लिखित शिकायत आई थी जिस पर विभाग के अधिकारियों ने नियमानुसार कार्रवाई की बात कही थी, और उसे लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में ऐसी खबरें उड़ गईं।
योगी सरकार ऐसा कुछ कर सकती है इस पर भरोसा नहीं हो रहा था, और मामला वैसा ही निकला। यह सरकार पहले से चले आ रहे एक नियम के तहत जातियों का जिक्र लिखाने पर कभी-कभार जुर्माना कर देती है, और मामला वहीं खत्म हो जाता है। महाराष्ट्र के एक शिक्षक ने प्रधानमंत्री को शिकायत की थी कि उत्तरप्रदेश में बड़ी संख्या में वाहनों पर जातियां लिखी जाती हैं, और यह समाज के लिए खतरा है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने शिकायत यूपी सरकार को भेज दी, और विभाग ने एक निर्देश जारी किया जिससे चारों तरफ खलबली मची।
जातियों का प्रदर्शन न तो कोई नई बात है, और न ही यह अकेले उत्तरप्रदेश तक सीमित है। जातिवाद और साम्प्रदायिकता के ताजा सैलाब के चलते उत्तरप्रदेश में यह मामला कुछ बढ़ गया होगा, वरना जातिवाद तो हिन्दुस्तान के लोगों में कूट-कूटकर भरा है। किसी एक जाति या किसी एक तबके की जातियों के लोग जब जुटते हैं, तो पहला मौका मिलते ही दूसरी जातियों के खिलाफ जहर के झाग उनके मुंह से निकलने लगते हैं। आबादी का छोटा तबका ऐसा होगा जो जातिवाद से परे होगा, वरना हिन्दुस्तान जातियों के ढांचे के बोझतले पिस गया है।
सरकारी अमले के भीतर ही जाति और धर्म का जिक्र बहुत आम है। सरकारी दफ्तरों में दीवारों पर और मेज के कांच के नीचे धर्म और आध्यात्म के अपने आराध्य लोगों की तस्वीरें सजाना आम बात है। देश के बहुत से हिस्सों में पुलिस थानों में बजरंग बली का मंदिर रहता ही है। पुलिस जैसे संवेदनशील का वाले विभाग में भी दीवारों पर आस्था का खुला प्रदर्शन होता है जिससे यह जाहिर हो जाता है कि उस आस्था से परे के लोगों को पुलिस से कोई निष्पक्ष बर्ताव नहीं मिल सकता। फिर चतुर लोग ऐसी आस्था की शिनाख्त करके आनन-फानन में अपने को उससे जुड़ा बता देते हैं, और अगली बार उस तीर्थ का प्रसाद लेकर हाजिर भी हो जाते हैं। नेता या अफसर अगर मुस्लिम होते हैं, तो उनके सरकारी फोन नंबर से लेकर उनके कार्यकाल में खरीदी नई गाडिय़ों के नंबर तक मुस्लिमों के शुभ अंक के दिखने लगते हैं।
उत्तरप्रदेश में ऐसे जुर्माने का जिक्र किया है, तो वह देश के दूसरे प्रदेशों में भी लागू होगा क्योंकि मोटर व्हीकल एक्ट पूरे देश के लिए एक सरीखा है। लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कभी ऐसी बातों के लिए गाडिय़ों पर जुर्माना होने की खबर याद नहीं पड़ती। बड़ी संख्या में गाडिय़ां जाति और धर्म के जिक्र वाली रहती हैं, लेकिन उन पर कोई रोक-टोक नहीं होती। किसी भी धर्मनिरपेक्ष और जिम्मेदार सरकार को चाहिए कि गाडिय़ों पर ऐसा लिखने पर मोटा जुर्माना लगाया जाए, और सरकारी दफ्तरों में धर्म और जाति के किसी भी तरह के प्रतीक के प्रदर्शन पर कड़ी कार्रवाई की जाए। हिन्दुस्तान में धर्म और जाति ने लोगों के बीच खाई खोदी है, हिंसा बढ़ाई है, और निष्पक्ष इंसाफ की संभावनाओं को घटाया है। यह भी एक वजह है कि देश की जेलों में बंद लोगों में नीची समझी जाने वाली जातियों के लोग अधिक हैं, और ऊंची समझी जाने वाली ताकतवर जातियों के लोग जांच और अदालत की प्रक्रिया से ही बच निकलते हैं।
उत्तरप्रदेश को लेकर यह जिक्र अधिक प्रासंगिक इसलिए है कि वह देश में सबसे बुरे जातिवाद का शिकार प्रदेश है। यूपी पुलिस पहले साम्प्रदायिक रहती है, उसके बाद वह जातिवादी भी हो जाती है। ऐसे प्रदेश में एक ही धर्म या एक ही जाति के मुजरिम, पुलिस, और अदालती कर्मचारी भी एक किस्म से अघोषित गिरोहबंदी कर लेते हैं।
देश के बाकी प्रदेशों में भी धर्मांधता और जातिवाद के खिलाफ जो सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्हें सरकार को नोटिस देकर या जनहित याचिका दायर करके गाडिय़ों और दफ्तरों के धर्म-जाति प्रदर्शन के खिलाफ कार्रवाई करवानी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसान आंदोलन को लेकर उसके आलोचक, और फिर चाहे किसके समर्थक, जिस तरह इस आंदोलन पर हमला कर रहे हैं वह देखने लायक है। किसान इस ठंड में सडक़ों पर डेरा डाले बैठे हैं, और उनके समर्थक उनके खाने-पीने का, इलाज का जिस तरह ख्याल रख रहे हैं उसे लेकर सोशल मीडिया पर किसान-विरोधी जमकर लिख रहे हैं। उनके खाने-पीने को लेकर लिखा जा रहा है, उनके लिए गर्म पानी के इंतजाम को लेकर लिखा जा रहा है, और एक ऐसी तस्वीर पेश की जा रही है कि ये किसान इतने संपन्न हैं कि इन्हें किसी हड़ताल की क्या जरूरत है, इन्हें किसी रियायत या हक की मांग करने का क्या हक है?
हिन्दुस्तानी लोग अपने किसान को आमतौर पर बैलों के साथ भूखा मरते देखने के आदी हैं, और आए दिन किसी पेड़ की डाल से फंदे पर टंगा हुआ देखने के भी। नतीजा यह है कि जब खाते-पीते किसान मोदी सरकार किसान-कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, तो मोदी प्रशंसकों को यह लग रहा है कि खाते-पीते लोगों का आंदोलन कैसे हो सकता है? यह एक पूरी तरह से शहरी, संपन्न, और राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त सोच है जो कि किसान को गरीब ही देखना चाहती है।
आलोचक इस बात को भूल जा रहे हैं कि आज आंदोलन के सामने सबसे अधिक सक्रिय पंजाब के वे सिक्ख किसान हैं जो कि अपने धर्म की सीख के मुताबिक किसी भी धर्म पर आई मुसीबत को घटाने के लिए उसके लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं। दुनिया में जहां कहीं प्राकृतिक या मानवनिर्मित मुसीबत आती है, यही सिक्ख समुदाय राहत और बचाव में, मदद में सबसे आगे रहता है। और यह समाज दान का चेक काटकर किसी पीएम फंड में नहीं भेजता, वह अपने हाथ-पैरों के साथ मदद करते खड़े रहता है। अपने घर का पैसा भी लगाता है, और अपने वक्त के साथ अपना बदन भी झोंकता है। ऐसा समाज क्या आज अपने किसानों की मदद के लिए आगे नहीं आएगा? शहरी-संपन्न सोच ने 80-85 बरस की बुजुर्ग सिक्ख आंदोलनकारी किसान-महिला को बदनाम करने के लिए कंगना रनौत की अगुवाई में जितनी हमलावर मुहिम चलाई, वह भी इस देश के लिए एक बड़े कलंक की बात थी। इस बुजुर्ग महिला को शाहीन बाग की एक दूसरी बुजुर्ग मुस्लिम महिला बताकर सौ-सौ रूपए में उपलब्ध महिला बताना मोदी के प्रशंसकों की एक बहुत ही किसान-विरोधी सोच थी जिसमें देश की एक सबसे हौसलामंद बुजुर्ग आंदोलनकारी को लाठी टेककर सफर करते हुए देखकर भी शर्म नहीं आई थी, इस गंदी सोच ने इस महिला को भाड़े पर चलने वाली आंदोलनकारी लिखा था, और कंगना रनौत ने इस हमले की अगुवाई की थी।
हिन्दुस्तान को लेकर जो लोग यह कहते हैं कि यह विविधता में एकता वाला देश है, तो उनकी वह बात महज परदेसियों के बीच देश की तस्वीर बेहतर बनाने के लिए लगाया गया नारा है। सच तो यह है कि इस तथाकथित एकता के भीतर हिन्दुस्तान में फर्क की ऐसी चौड़ी और गहरी खाई है कि संपन्न शहरियों को किसान-आंदोलन देश का गद्दार लग रहा है, खालिस्तानी, पाकिस्तानी, और चीनी लग रहा है। यह देश पहले जितना बंटा हुआ था, अब उससे कहीं अधिक बंटा हुआ है। और अब बांटने को इस देश के पास पाकिस्तान नहीं रह गया है इसलिए अब यह देश किसानों को बांटने में लगा है, सिक्खों को गैरसिक्खों से बांटने में लगा है, संपन्न किसानों को विपन्न किसानों में बांटने लगा है। यह सिलसिला जाने कहां जाकर थमेगा, और तब तक जाने कितने और लोग गद्दार करार दिए जाएंगे। अभी सोशल मीडिया पर किसी ने लिखा है कि देश के गद्दार तय करने के जो अलग-अलग पैमाने आज पढ़ाए जा रहे हैं, उन सबके आधार पर अगर तय किया जाए, तो 70 फीसदी आबादी गद्दार साबित की जा सकेगी।
जब किसी की अंधभक्ति में डूबे हुए लोग इस तरह देश के गद्दार तय करते हैं, तो वे किसी नेता, पार्टी, या विचारधारा के प्रति अपनी वफादारी तो साबित करते हैं, लेकिन दूसरे तबकों को गद्दार करार देते हुए वे देश के भीतर एक खाई खोदने का काम करते हैं। आज जिन लोगों को किसान-आंदोलन का विरोध करने के लिए किसानों को गद्दार करार देने में जरा भी हिचक नहीं लग रही है, उन्हें याद रखना चाहिए कि एक दिन उनके मां-बाप, वे खुद, या उनके बच्चों के पेशे भी इसी तरह निशाने पर हो सकते हैं। उस दिन उन पर जब नाजायज हमले होंगे, तो फिर उन्हें कौन बचाएगा? अंधभक्ति और पूर्वाग्रह से लोगों की अपनी सोचने-समझने की ताकत किस हद तक खत्म होती है, यह देखना हो तो किसान-आंदोलन की बूढ़ी महिला पर हुए हमलों को देखना चाहिए।
जिन लोगों ने जरा भी नैतिकता बाकी है, उन्हें अंधभक्ति से परे यह भी सोचना चाहिए कि नाजायज हमलों का यह सिलसिला उनकी अपनी अगली पीढ़ी को कैसा भविष्य देकर जाएगा? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बड़े शहरों में जब बड़े जुर्म होते हैं, तो उनकी गूंज बाकी दुनिया में भी फैलती है। दिल्ली में कुछ बरस पहले एक ऐसा बलात्कार हुआ, जिसने पूरे हिंदुस्तान को झकझोर कर रख दिया। देश में नया कानून बना, हजार करोड़ का एक निर्भया फंड बना, और भी बहुत कुछ हुआ, संसद से लेकर सरकार तक, और अदालतों से लेकर मीडिया तक, महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन-हमलों पर लोगों की सोच बदली, एक नई जागरूकता आई। कुछ लोग इसे शहर-केंद्रित, या राजधानी-केंद्रित सोच भी कह सकते हैं, लेकिन हम अभी उस पर न जाकर यह देख रहे हैं कि ऐसे मामलों का असर कहां तक होता है, और क्या-क्या होता है। ऐसा ही एक मामला है अमरीका में कुछ बरस पहले एक भारतीय अफसर पर वहां के कानून के तहत दर्ज मुकदमे का, जिसमें उसे घरेलू कामगार के शोषण का कुसूरवार करार दिया गया था। वहां पर भारतीय और बाकी देशों के ऐसे घरेलू कामगारों ने प्रदर्शन भी किया था और पूछा था कि भारत सरकार सिर्फ अपने आरोपी अफसर को बचाने में क्यों लगी है, और भारत की ही नागरिक, शोषण की शिकार, शिकायतकर्ता के हक भारत सरकार के लिए मायने क्यों नहीं रखते हैं?
ऐसी घटनाओं को याद करते हुए हम आज भारत में घरेलू कामगारों की हालत पर कुछ चर्चा करना चाहते हैं। देश भर में यह सबसे बड़े असंगठित मजदूर-कर्मचारी तबकों में से एक है, और ऐसे करोड़ों लोग सरकार के किसी कानून के तहत न कोई हिफाजत पाते, न कोई हक पाते। उनकी तनख्वाह को लेकर कोई कानून नहीं है, काम के घंटे, हफ्तावार छुट्टी जैसी कोई बात भी नहीं है। देश के मजदूर संगठनों की नजरों में भी घरेलू कामगार शायद मौजूद नहीं हैं, इसलिए इस असंगठित वर्ग की जरूरतों पर कोई चर्चा भी नहीं होती। यही तबका बाल मजदूरों का भी है, बंधुआ मजदूरों का भी है, हिंसा का शिकार भी है, और देह-शोषण का सबसे बड़ा खतरा भी झेलता है। आज हिंदुस्तान में घरेलू कामगारों की हालत अधिक चर्चा की जरूरत है, और ऐसा न करके राज्य सरकारें और केंद्र सरकार ऐसे कामगारों के मध्यम और उच्च वर्गीय लोगों पर तो मेहरबानी कर रही है, लेकिन उनसे अधिक बड़ी संख्या में जो कामगार और मजदूर हैं, उनको अनदेखा भी कर रही है।
भारत में मजदूर संगठनों की एक दिक्कत यह भी है कि वे संगठित मजदूरों के आसानी से पहचाने जाने वाले तबके पर परजीवी की तरह पलते हैं, और उसी संगठित मजदूर आंदोलन को वे अपनी जिम्मेदारी और कामयाबी दोनों बताते हैं। देश में निजीकरण के साथ-साथ मजदूर आंदोलन कमजोर हुआ, और आर्थिक मंदी के साथ-साथ वह एक किस्म से अप्रासंगिक सा हो चला है। जबकि जरूरत की हकीकत इसके ठीक उल्टे है, और जैसी-जैसी सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र का दखल कारखानों-कारोबारों से कम होते चल रहा है, वैसे-वैसे निजी शोषण के खिलाफ मजदूर आंदोलन की जरूरत पहले के मुकाबले अधिक है। इसी तरह घरेलू कामगारों जैसे बड़े तबके को संगठित करने की भी जरूरत है ताकि लोग अपने आराम के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दूसरों की मजदूरी का सही दाम देने पर मजबूर किए जाएं। आज लोगों के गंदे कपड़ों को धोने, उनके जूठे बर्तनों को मांजने, उनकी फर्श पोंछने वाले लोगों को भी साधारण मजदूरी भी नसीब नहीं होती है। इसी तरह जब सरकार कर्मचारियों को बढ़ी हुई तनख्वाह मिलती है, तो वे अपने कामगारों को अधिक तनख्वाह देने की जरूरत नहीं समझते।
न्यूयॉर्क से ही सही, जागरूकता का मुद्दा कहीं से भी शुरू हो, उस पर आगे बात होनी चाहिए। और भारत के भीतर के घरेलू कामगारों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, ऐसा इसलिए भी अधिक जरूरी है क्योंकि समाज में जाति, ओहदे, और कमाई की वजह से जो तबके ताकतवर हैं, वे कभी भी ऐसी जिम्मेदारी न खुद निभाते, न ही वे चाहते कि सरकार ऐसा कुछ करे। बिना किसी छुट्टी या रियायत, बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने वाले घरेलू कामगारों को भी इंसान और भारतीय नागरिक समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका मतलब है कि हर काले बादल में चांदी की तरह चमकती एक लकीर भी होती है। हिन्दुस्तान में इन दिनों उसे आपदा में अवसर भी कहा जा रहा है। पिछले पौन बरस से बाकी दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान पर कोरोना का जितना खतरा मंडराया है, और अभी जारी भी है, उसे अगर लॉकडाऊन के साथ जोड़ दिया जाए तो यह एक सदी का इस देश का सबसे बुरा दौर चल रहा है। 1920 के पहले की महामारी भी शायद इससे अधिक बुरा वक्त था। लेकिन हिन्दुस्तान, और बाकी दुनिया के लिए इस अवांछित बीमारी और खतरे के बीच भी कई ऐसी बातें हो रही हैं जो कि कम से कम जिंदगी और सेहत के मामले में कोरोना से हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकती हैं।
दुनिया में हिन्दुस्तान जैसे लापरवाह और भी बहुत से देश होंगे जहां या तो सरकार ने लोगों के हाथ धोने लायक बहते पानी का इंतजाम नहीं किया है, या लोग खुद ही लापरवाह हैं, और अधिक हाथ धोने में उनका भरोसा नहीं है। कोरोना के इस दौर में बहुत से लोगों ने हाथ धोना शुरू किया है, और इससे कोरोना से परे की और भी बहुत सी छोटी-मोटी बीमारियां टल सकती हैं, कम हो सकती हैं। दूसरी अच्छी बात जो कि इस दौर में हुई है, हिन्दुस्तान में जांच और इलाज का ढांचा 9 महीने पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुका है। हर प्रदेश ने अपनी-अपनी क्षमता और सोच के मुताबिक जांच की सहूलियतें बढ़ाईं, अस्पतालों में सावधानी बढ़ाईं, और कोरोना जैसे संक्रमण के मरीजों के इलाज के लिए साधन-सुविधाएं जुटाए। यह काम सरकारी अस्पतालों में भी हुआ, और निजी अस्पतालों में भी बढ़ा। इस बढ़े हुए ढांचे का नियमित और स्थाई इस्तेमाल अगर तय किया जाए तो आने वाली जिंदगी में अधिक जिंदगियां बचाई जा सकेंगी।
यह दौर अस्पतालों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए एक अभूतपूर्व प्रशिक्षण का भी रहा, और सबने एक बुरे संक्रामक रोग से बचते हुए अधिक से अधिक काम करना सीखा है। यह कहा जा सकता है कि अस्पताल और स्वास्थ्यकर्मी पौन बरस पहले के मुकाबले अधिक तजुर्बेकार हो चुके हैं, उन्होंने लगातार विपरीत परिस्थितियों में काम करने की अपनी ताकत को तौल लिया है, और उनकी बाकी कामकाजी जिंदगी में अगर ऐसी कोई और नौबत आती है, तो वे बेहतर तैयार रहेंगे। किसी मरीज के दिल की क्षमता की एक जांच स्ट्रेस टेस्ट (टीएमटी) भी होती है जिसमें मशीन के एक दौड़ते हुए पट्टे पर मरीज को चलाकर उसकी क्षमता आंकी जाती है। हिन्दुस्तान के अच्छे या बुरे, जैसे भी हो, चिकित्सा-ढांचे का स्ट्रेस टेस्ट इन 9 महीनों में हो गया है, और अब राज्य सरकारों को चाहिए कि वे इन महीनों के तजुर्बे का एक ऑडिट करवाएं, अपनी खूबियों को पहचानें, और खामियों को, कमियों को दूर करने की योजना बनाएं।
कारोबार ने भी इस दौर में मंदी भी देखी, कच्चे माल और पुर्जों की कमी झेली, कामगारों और मजदूरों के न रहने की नौबत भी देखी, और बाजार में ग्राहकी की कमी, और ग्राहकों में खपत की कमी भी देखी। बैंकों से मिली मामूली तात्कालिक रियायतों से परे भी भारतीय कारोबार ने बहुत कुछ सीखा है, और यह सबक आगे के बुरे वक्त उसके बड़े काम आएगा। सरकारी दफ्तरों, जनसुविधाओं के दूसरे दफ्तरों, बैंकों और सार्वजनिक जगहों के मैनेजमेंट ने भी संक्रामक रोग की हालत में काम करना सीखा है, और दुबारा ऐसी किसी नौबत में इन तमाम लोगों के सामने छोटी और बड़ी सभी बातों के लिए एक सबक और मिसाल साथ रहेंगे।
हिन्दुस्तान पिछले कई बरस से डिजिटल इंडिया का ढिंढोरा पीटते आ रहा है। लेकिन इस पौन बरस ने यह साबित कर दिया कि हिन्दुस्तान में डिजिटल समानता की कितनी कमी है, और संपन्न और विपन्न तबकों के बीच कितनी चौड़ी और गहरी डिजिटल खाई है। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई को ऑनलाईन करने की कोशिश ने यह साबित किया है कि देश के अधिकतर शिक्षकों को ऑनलाईन पढ़ाई करवाने की तकनीकी दक्षता हासिल नहीं है, और इनमें से अधिकतर के पास ऑनलाईन पढ़ाई के लिए जरूरी औजार भी नहीं है। दूसरी तरफ आबादी के तीन चौथाई से अधिक लोग ऐसे हैं जिनके पास परिवार के बच्चों की रोजाना घंटों की ऑनलाईन पढ़ाई के लिए अलग से स्मार्टफोन नहीं है, इंटरनेट की सहूलियत नहीं है, और बच्चे डिजिटल-अनाड़ी शिक्षकों से ऑनलाईन पढक़र समझने के लायक भी नहीं हैं। इस नौबत को सुधारने के लिए अगली ऐसी किसी नौबत के आने के पहले केन्द्र और राज्य सरकारों को देश के सबसे गरीब बच्चों के बारे में तैयारी करनी होगी, सबसे कम सहूलियतों वाले स्कूली-शिक्षकों को तैयार करना होगा, सबसे दूर बसे इलाकों तक डिजिटल कनेक्टिविटी की तैयारी करनी पड़ेगी, और पढ़ाई की सामग्री का डिजिटलीकरण करके रखना होगा। अब इन महीनों के खराब तजुर्बे का यह फायदा भी उठाया जा सकता है कि देश की हर पढ़ाई की सामग्री का डिजिटल रूपांतरण करके रखा जाए, और ऐसी सामग्री कोरोना के किसी भाई-बहन के आने के अलावा भी किसी भी नौबत में या नियमित रूप से काम आ सकती है। इस बरस ने हिन्दुस्तान के सामने एक बड़ी डिजिटल चुनौती पेश की है, और एक बहुत बड़ी संभावना भी सामने रखी है कि स्कूल के स्तर पर, गांव या कस्बे के स्तर पर, पंचायत भवन या किसी सामुदायिक केंद्र के स्तर पर अलग-अलग पालियों में अलग-अलग बच्चों को बड़ी स्क्रीन पर किस तरह पढ़ाया जा सकता है, और कैसे उन्हें स्थानीय क्लासरूम की संभावनाओं से ऊपर जाकर ऊंची तकनीकी तरकीबों वाली पढ़ाई करवाई जा सकती है। ऐसी डिजिटल पढ़ाई किसी भी तरह स्थानीय स्कूल और क्लास का विकल्प नहीं रहेगी, लेकिन उसमें वेल्यूएडिशन जरूर कर सकेगी।
कोरोना और लॉकडाऊन के इस दौर ने लोगों को कम सफर करके भी काम चलाने का कुछ तजुर्बा दिया है। लोगों ने घरों से काम किया है, ऑनलाईन काम किया है, दफ्तर में एक वक्त पर कम लोगों ने मौजूद रहकर भी दफ्तर का काम चलाया है। आज सरकारों और दूसरे गैरसरकारी संस्थानों को चाहिए कि ऐसे अनुभव का अध्ययन करके कटौती और किफायत के सबक लें, और अपने खर्च घटाएं।
इस दौर में यह जरूर हुआ है कि लोगों का बाहर घूमना-फिरना एकदम ही खत्म हो गया, बाहर खाना-पीना बहुत ही कम हो गया, अपने पर खर्च करना भी खासा कम हो गया है, और इससे बाजार की अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हुई है। लेकिन लोगों की निजी अर्थव्यवस्था खर्च के मामले में सम्हली है, और लोगों ने पहली बार यह पहचाना है कि उनके कौन-कौन से खर्च गैरजरूरी हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि लोग आगे भी फिजूलखर्ची से बच सकते हैं, और इससे धरती पर खपत का बोझ भी घटेगा। यह बात अर्थव्यवस्था का चक्का घूमने के हिसाब से तो कुछ नुकसान की लगती है, लेकिन किफायत से पर्यावरण का बड़ा फायदा भी हो सकता है। इसलिए पर्यावरण और कारोबार के बीच एक नए संतुलन का भी यह वक्त है, और यह तय है कि दुनिया इस अनुभव का कम या अधिक हद तक फायदा उठाएगी।
यह लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है, और जिस तरह हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में बहुत सारी चीजों को विभाजन के पहले और विभाजन के बाद के अलग-अलग दौर में बांटकर देखा जाता है, उसी तरह कोरोना के पहले, और कोरोना के बाद के दौर में यह दुनिया बंटी रहेगी, और लोगों को अगली किसी बुरी नौबत के लिए अच्छी तरह तैयार करके रखेगी। आपदा से होने वाले नुकसान को तो कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन उससे सबक लेकर कुछ दूसरे मोर्चों पर एक अलग भरपाई की जा सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में आज एक बड़े आईएएस अफसर रहे बाबूलाल अग्रवाल को ईडी ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। अपने कार्यकाल में उन पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे और अभी जिस मामले में देश की एक सबसे ताकतवर जांच एजेंसी, ईडी, ने उन्हें गिरफ्तार किया है वह भ्रष्टाचार से और आगे बढक़र एक साजिश से किया गया जुर्म है। कालेधन को सफेद करने के लिए ग्रामीण-गरीबों के नाम से बैंक खाते खोले गए, उनमें नगद रकम जमा की गई, और फिर वह रकम बाबूलाल अग्रवाल के परिवार के लोगों की कंपनी में भेज दी गई। इस पूरे सिलसिले से वे गरीब नावाकिफ रहे जिनके नाम से फर्जी खाते खोले गए थे। ऐसे सैकड़ों खाते बिना बैंक की साजिश के तो खुल नहीं सकते थे, और बहुत बड़ा होने की वजह से यह मामला उजागर हुआ। बाबूलाल अग्रवाल को केन्द्र सरकार ने पहले ही अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी है और अब नौकरी के दौरान के अपने काम उन्हें जेल पहुंचा रहे हैं।
आईएएस देश की सबसे ताकतवर नौकरी मानी जाती है। केन्द्र सरकार की दर्जनों नौकरियों में से जो सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती हैं उनके लिए यूपीएससी का एक मुकाबला होता है, और उसमें सबसे कामयाब नौजवानों को आईएएस की नौकरी मिलती है। इसके बाद फिर आईपीएस, आईएफएस, और कई दूसरी नौकरियां। बाबूलाल अग्रवाल न तो भ्रष्ट मामलों में फंसे हुए पहले आईएएस अफसर हैं, और न ही आखिरी। और ऐसा भी नहीं कि भ्रष्टाचार सिर्फ इसी नौकरी के लोग करते हैं, और बाकी नौकरियों के लोग दूध के धुले रहते हैं। यहां पर यह भी कहना जरूरी है कि भ्रष्टाचार सरकारी नौकरियों तक सीमित नहीं हैं, भारतीय समाज के हर तबके में भ्रष्टाचार अलग-अलग शक्लों में मौजूद है, और देश के एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण के लगाए खुले आरोपों को भूलना नहीं चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के कितने जज भ्रष्ट हैं। इसे लेकर प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का मुकदमा भी झेल रहे हैं, लेकिन वे अपने आरोपों पर कायम हैं।
ऐसे देश में जब आईएएस एक सबसे ही संगठित नौकरी है, सबसे ताकतवर तो है ही, तब इस नौकरी के लोगों के एसोसिएशन को अपने लोगों के बारे में सोचना चाहिए। हिन्दुस्तान में बाकी पेशेवर लोगों या कारोबारी लोगों के संगठनों का आम चरित्र यही रहता है कि जब उनके किसी सदस्य पर कोई हमला होता है, या उसके खिलाफ कोई नाजायज दिखती कार्रवाई होती है, तो ऐसी कार्रवाई के खिलाफ एकजुट होकर खड़े होना, बयान जारी करना, और सत्ता से जाकर मिलना। कुछ ऐसा ही काम पत्रकारों के संगठन भी अपने सदस्यों को लेकर करते हैं कि जब उन पर कोई हमला होता है, या नाजायज लगती सरकारी कार्रवाई होती है, तो वे बैनर लेकर सडक़ों पर उतरते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि हिन्दुस्तान में कोई भी संगठन अपने सदस्यों के जाहिर तौर पर दिखते नाजायज कामों को लेकर आंख और मुंह सब बंद कर लेते हैं। ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर आईएएस एसोसिएशन रोजाना सक्रिय रहता है, देश भर में अपने सदस्य अफसरों के किए हुए अच्छे कामों की तारीफ करता है, उनसे जुड़ी खबरों के लिंक पोस्ट करता है, लेकिन अपने सदस्यों के किए हुए गलत कामों को लेकर कुछ भी नहीं कहता। यह बात अपनी जगह सही है कि सरकारी कार्रवाई शुरू होने के बाद अदालती सजा मिलने के बीच में बहुत बड़ा फासला रहता है, और अधिकतर ताकतवर लोग सजा से बच निकलते हैं, इसलिए जांच एजेंसियों की कार्रवाई शुरू होने से किसी को मुजरिम नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन एसोसिएशन को कुछ सैद्धांतिक बातें तो जाहिर तौर पर करनी ही चाहिए। अपने नए सदस्यों को सावधान करने के लिए, उन्हें भ्रष्टाचार में शामिल होने से बचाने के लिए एसोसिएशन को सार्वजनिक रूप से भी कुछ बातें करनी चाहिए ताकि आम जनता का भी ऐसे संगठनों पर विश्वास हो सके। अपने लोगों की महज तारीफ करने वाले संगठन अगर अपने भ्रष्ट सदस्यों के बारे में कोई सैद्धांतिक बात भी नहीं कहते, तो उनकी विश्वसनीयता कुछ नहीं रहती। लेकिन यह बात महज अफसरों के संगठनों के साथ नहीं है। भारत के संपादकों के संगठन देखें, या पत्रकारों के या टीवी चैनलों के संगठनों को देखें तो रात-दिन नफरत फैलाने, हिंसा भडक़ाने, लोगों के सामने सोची-समझी उकसाऊ-उत्तेजना परोसने वाले कुख्यात हो चुके साम्प्रदायिक लोगों के लिए उनके संगठनों के पास कोई नसीहत नहीं रहती, और जब ऐसे लोग किसी कानूनी मामले में फंसते हैं, तो ये संगठन उनके बचाव के लिए किसी फायर ब्रिगेड की तरह दौड़ पड़ते हैं।
किसी भी पेशे के लोगों के संगठनों को अपनी जिम्मेदारी बढ़ानी चाहिए। अपने लोगों को सिर्फ बचाने का काम जो करते हैं, और गलत कामों पर अगर रोकते नहीं हैं, तो इन संगठनों का महत्व किसी मुजरिम को बचाने वाले पेशेवर वकील से अधिक नहीं हो सकता। जब देश में एक के बाद एक दर्जनों आईएएस अफसर भ्रष्टाचार के पुख्ता दिखते मामलों में गिरफ्तार होते हैं, और उसके बाद भी उनके संगठन मुंह भी नहीं खोलते तो फिर वे संगठन अपने सदस्यों के प्रचार के लिए भाड़े पर ली गई जनसंपर्क एजेंसी से अधिक नहीं रह जाते। हर संगठन के लोगों को अपने भीतर यह बात भी करना चाहिए कि वे अपने सदस्यों को न सिर्फ बाहरी हमलों से बचाने का काम करेंगे, बल्कि भीतर से अगर वे भ्रष्टाचार से खोखले हो रहे हैं तो उसे रोकने की कोशिश भी वे करेंगे। ये संगठन कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने पेशे से जुड़े हुए मामलों में जो सदस्य भ्रष्टाचार की एक दर्जे से ऊपर की कार्रवाई में उलझते हैं, तो उनकी सदस्यता निलंबित की जाए। ऐसा न करके ये संगठन अपनी इज्जत खोते हैं।
डॉक्टरों और वकीलों के संगठनों को, सीए और टैक्स सलाहकारों के संगठनों को अपने-अपने लोगों के बारे में सोचना चाहिए, और उनको गलत काम से रोकने की एक तरकीब ढूंढनी चाहिए। जिस तरह बलात्कार जैसे किसी बड़े जुर्म में फंसने वाले किसी राजनीतिक व्यक्ति को उनकी पार्टी तुरंत ही निलंबित या निष्कासित कर देती है, देश के संगठनों को अपने सदस्यों पर कम से कम इतनी कार्रवाई करने का तो हौसला दिखाना चाहिए ताकि संगठन की साख बची रहे। आज तो नर्सिंग होम्स के मालिक जिस तरह सुरक्षा एजेंसियां रखकर अपने कारोबार की हिफाजत करती हैं, और कोई दिक्कत आने पर सारे मालिक एक-दूसरे की मदद के लिए एकजुट हो जाते हैं, वैसा चरित्र किसी अच्छे संगठन के लिए ठीक नहीं है। चूंकि आईएएस देश की सबसे बड़ी नौकरी मानी जाती है, और सरकारी कामकाज का सबसे बड़ा जिम्मा आईएएस लोगों पर रहता है, इसलिए इनके संगठन को एक मिसाल पेश करनी चाहिए। वैसे तो मिसाल संसद और अदालतों से निकलकर नीचे आनी चाहिए, लेकिन इन दोनों ने तो अपने आपको विशेषाधिकार, और अवमानना के कानून बनाकर इस तरह सुरक्षा चक्र के भीतर सुरक्षित रख लिया है कि उनके बारे में बाहरी लोग मुंह भी न खोल सकें। इसलिए जो संगठन ऐसे कानूनों से लैस नहीं हैं, उन्हीं से हम बात शुरू कर सकते हैं, और कर रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो दिन बाद ईसाईयों का सबसे बड़ा त्यौहार क्रिसमस मनाया जाने वाला है, और ईसाईयों की खासी आबादी वाले केरल में एक नन की हत्या के एक मामले में कल 28 बरस बाद अदालती फैसला आया है जिसमें चर्च के एक पादरी और एक नन को उम्रकैद सुनाई गई है। यह हिन्दुस्तान में सबसे लंबे समय तक चलने वाला हत्या का मामला है, और यह कई मायनों में एक ऐतिहासिक मामला रहा जिस पर केरल का ईसाई समुदाय बंट गया था, और राज्य की पुलिस से लेकर सीबीआई तक इस मामले की जांच में बार-बार बेनतीजा हो रही थीं।
कत्ल का यह मामला चर्च के भीतर के लोगों को अवैध संबंधों को उजागर करने वाला भी है क्योंकि अदालत में आखिरकार यह साबित हुआ कि जिस नन, सिस्टर अभया, की जख्मी लाश कुएं में मिली थी, वह सुबह 4 बजे पढ़ाई के लिए उठी थी, और रसोईघर में जाने पर उसकी हत्या हो गई थी। सीबीआई ने अदालत में कहा कि उसने रसोई में दो पादरियों और एक नन को अनैतिक स्थिति में देखा, और वह कहीं भांडाफोड़ न कर दे, इसलिए इन तीनों ने मिलकर उसका गला घोंटा, उस पर कुल्हाड़ी से वार किया, और चर्च के हॉस्टल के अहाते में ही उसे कुएं में फेंक दिया। लेकिन जैसा कि ईसाई चर्च अनैतिक संबंधों और देह शोषण के, बच्चों के यौन शोषण के अधिकतर मामलों में करते आया है, उसने इस मामले में संदिग्ध पाए गए पादरियों और नन को काम पर से नहीं हटाया, उन्हें निलंबित नहीं किया, और उनसे रिश्ता नहीं तोड़ा। जो लोग यौन शोषण पीडि़त ननों के हक के लिए केरल में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं वे चर्च के इस रूख पर बहुत ही निराश हैं, और उनका कहना है कि अभी भी एक चर्च प्रमुख के खिलाफ एक नन से बलात्कार का मुकदमा चल रहा है, और बरसों तक चर्च ने उसे हटाया भी नहीं।
केरल में इस मामले की जांच खासी मुश्किल इसलिए भी थी कि कई जांच अफसर ईसाई समुदाय के थे, और यह खतरा बना हुआ था कि धर्म के प्रति आस्था उनके निष्पक्ष नजरिए को प्रभावित कर सकती थी। राज्य में मतदाताओं पर चर्च के प्रभाव को देखते हुए भी राज्य सरकार का रूख गड़बड़ा सकता था, और आखिर में जाकर सीबीआई को यह मामला दिया गया। अलग-अलग वक्त पर इस मामले से जुड़े सुबूतों को बर्बाद करने की कोशिश की गई, इस कत्ल को खुदकुशी साबित करने की कोशिश की गई, और केरल के जागरूक लोगों का यह कहना है कि यह मामला इस मायने में भी ऐतिहासिक था कि इसे बेनतीजा बंद करने की सबसे अधिक कोशिशें हुईं।
अब भारत में जुर्म की जांच और अदालती कार्रवाई की बदहाली का यह एक पुख्ता नमूना है कि ऐसे एक जलते-सुलगते मामले पर सीबीआई अदालत का फैसला आने में 28 बरस लग जाएं। इस बीच हाईकोर्ट को कई बार इस मामले में दखल देनी पड़ी तब जाकर इसकी जांच से छेड़छाड़ बंद हुई। जांच और अदालत में 28 बरस लग जाना अपने आपमें बेइंसाफ इंतजाम है। भारतीय लोकतंत्र में जांच एजेंसियां ताकतवर के खिलाफ तकरीबन बेअसर साबित हो जाती हैं। बची-खुची नौबत अदालती कार्रवाई में खराब हो जाती है क्योंकि वहां सुबूतों और गवाहों से छेड़छाड़, दबाव, और खरीद-बिक्री आम बात है। फिर बहुत से मामलों में अगर जज रिश्वत लेने को तैयार है, तो ताकतवर लोग रिश्वत देने के लिए उतावले रहते हैं, और एक पैर पर खड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अदालती फैसला आने तक अलग-अलग स्तरों पर इंसाफ की संभावना की भ्रूण हत्या होते चलती है।
जिस नन का कत्ल हुआ था, उसके मां-बाप भी इंसाफ का इंतजार चौथाई सदी तक करते रहे, और अभी कुछ बरस पहले मरे। इस मुद्दे पर लिखने का हमारा मकसद यह है कि धर्म-संस्थान अपने मुजरिमों को किस हद तक जाकर बचाने की कोशिश करते हैं, ऐसा बहुत से धर्मों में सामने आता है। दूसरी तरफ धर्म-संस्थान से जुड़े रहने की वजह से किसी पर नैतिकता लागू नहीं हो जाती, और वे हर किस्म का जुर्म करने के लायक बने रहते हैं, हर किस्म की हिंसा कर सकते हैं, करते हैं। एक आखिर बात यह कि आसाराम (बापू) से लेकर (बाबा) राम रहीम तक इतने बलात्कारी धार्मिक व्यक्ति समाज में देखने में आते हैं कि उनके पैरों पर गिरने वाले नेता, अफसर, जज अनगिनत रहते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ किसी शिकायत को जगह नहीं मिलती, इनके खिलाफ शिकायत दर्ज हो जाए तो गवाह सडक़ों पर एक के बाद एक मारे जाते हैं, और ऐसे हजारों लोगों में से दो-चार को ही सजा हो पाती है। धर्म का हिंसक और अनैतिक रूप केरल के चर्च के इस मामले में जितना सामने आया है, उतना ही बहुत से दूसरे धर्मों के मामलों में भी सामने आते रहता है। इसलिए लोगों का भला इसमें है कि धर्मान्ध की तरह आंखें और मुंह बंद रखने के बजाय एक तर्कवादी की तरह आंखें खुली रखनी चाहिए, और सवाल तैयार रखने चाहिए। धर्म उसी वक्त तक पटरी पर चल सकता है, जब तक समाज के भीतर उससे पीछे सवाल करने का हौसला रखने वाले लोग हों, और ऐसे सवालों के लिए माहौल भी हो। लेकिन ताकत के तमाम ओहदों पर बैठे हुए लोगों में बहुतायत ऐसे लोगों की होती है जो कि धर्मान्ध होते हैं, और बेहौसला होते हैं। क्रिसमस के ठीक पहले केरल में ईसाई समुदाय के भीतर, चर्च के भीतर के इस जुर्म से वे सारे मामले भी याद आते हैं जिनमें बड़े-बड़े पादरियों के हाथों बच्चों के यौन शोषण के अनगिनत मामलों को कैथोलिक चर्च मुख्यालय, वेटिकन ने दबाने की हर कोशिश की थी। लोगों को अपने-अपने धर्मों के भीतर सुधार इसलिए करना चाहिए क्योंकि अगला हमला उनके परिवार पर भी हो सकता है। यह बात भूलना नहीं चाहिए कि धर्म-संस्थानों के लोगों के शिकार अनिवार्य रूप से उसी धर्म के, उनके भक्तों के परिवार ही होते हैं। आसाराम के बलात्कार की शिकार लडक़ी आसाराम के भक्त परिवार की बच्ची ही थी। लोग अपने परिवार को बचाना चाहते हैं तो अपने धर्म पर निगरानी रखें, और अपने परिवार को ऐसे खतरों से दूर रखें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के खतरों को लेकर यह अखबार इस जगह पर जितनी बार लोगों को आगाह कर चुका है, उससे बहुत से लोग थक भी चुके होंगे। लेकिन हर कुछ हफ्तों में ऐसी बात सामने आती है कि हमारा लिखा हुआ जायज साबित होता है। पिछले एक पखवाड़े में कम से कम दो-तीन बार हमने लोगों को सावधान रहने के लिए आगाह किया, और अब ब्रिटेन की ताजा खबर है कि वहां कोरोना ने अपने आपमें एक ऐसा बदलाव कर लिया है कि वह मौजूदा दवाओं और वैक्सीन के काबू से परे का हो गया है। साल के सबसे बड़े त्यौहार, क्रिसमस के ठीक पहले ब्रिटेन ने न सिर्फ लॉकडाऊन किया है बल्कि वहां सरकार की इमरजेंसी बैठकें चल रही हैं। बाकी योरप और दुनिया के बहुत से और देशों ने ब्रिटेन से अपने यहां विमानों की आवाजाही बंद करवा दी है। एक बार फिर ब्रिटेन को एक नए सुरक्षाचक्र में टापू की तरह जीना पड़ेगा। यह हाल दुनिया के एक विकसित देश के संपन्न समाज का है, इसलिए यह खतरा कब किसी और देश पर किसी और तरह से नहीं पहुंच पाएगा इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। यह लड़ाई अब तक प्रचलित कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीन के भरोसे चल रही थी, लेकिन जिस तरह ब्रिटेन में कोरोना ने एक नया अवतार धर लिया है, उससे यह वैक्सीन भी वहां बेअसर हो सकती है। अगर ऐसा होता है तो कोरोना की इस नई नस्ल के खिलाफ वैक्सीन विकसित करने की एक नई लड़ाई सिरे से शुरू करनी पड़ेगी, और वह जाने कितना वक्त लेगी।
हिन्दुस्तान में सार्वजनिक जगहों पर लोगों को देखें तो लगता है कि वे कोरोना से जंग जीत चुके हैं, और दशहरे के रावण की तरह उसे जलाकर अब सोनपत्ती बांटने के लिए निकले हैं। लोगों के चेहरों से मास्क गायब हैं, सार्वजनिक जगहों पर लोग गैरजरूरी चीजें खाने-पीने के लिए टूट पड़े हैं, कमसमझ सरकारों ने बाजार के खुलने के घंटों को सीमित करके यह मान लिया है कि दुकानों पर होने वाली धक्का-मुक्की के बजाय दुकानों के बंद शटर अधिक महत्वपूर्ण हैं। तम्बाकू के शौकीन हिन्दुस्तान में आधी आबादी सार्वजनिक जगहों पर तम्बाकू की पीक उगलते दिखती है, और इसे देख-देखकर तम्बाकू न खाने वाले भी सडक़ों पर हर कुछ मिनट में थूककर यह गारंटी कर लेते हैं कि सार्वजनिक सम्पत्ति उनकी अपनी है, और उन्हें कोई रोक नहीं सकते। लोगों ने शादी-ब्याह, राजनीतिक जलसे, और धार्मिक भीड़ में महीनों की कसर पूरी करना शुरू कर दिया है। लोगों को वैक्सीन की घोषणा सुनकर ही बदन में वैक्सीन लग जाने का एहसास हो रहा है। यह लग ही नहीं रहा है कि आखिरी व्यक्ति को वैक्सीन लगते हुए 2024 पूरा गुजर जाने का एक अंदाज अभी सामने आया है। और अंग्रेजों पर आई इस नई मुसीबत से हिन्दुस्तानियों का भल क्या लेना-देना कि कोरोना का यह नया अवतार इस वैक्सीन की ताकत से बाहर का हो सकता है।
जब किसी देश की सोच अवैज्ञानिक होने लगती है, तो वहां पर लोगों का बर्ताव ऐसा ही गैरजिम्मेदारी का रहता है। जिस वक्त चेचक का टीका इस देश में हर बच्चे को लग रहा था, उस वक्त भी चेचक से बचाव के लिए लोग माता पूजा करने में लगे हुए थे। तब से अब तक धर्म पर आस्था बढ़ते-बढ़ते धर्मान्धता पर आस्था की शक्ल ले चुकी है, और लोग कोरोना के खतरे से बेफिक्र हो गए हैं। पूरे हिन्दुस्तान में अगर कोई अकेली जगह कोरोना की दहशत से सहमी हुई है, तो वह संसद है जो कि टल गई है। बाकी तो हैदराबाद से लेकर बंगाल तक आमसभाओं की जंगी भीड़ और धक्का-मुक्की तक देश के लिए फिक्र की बात नहीं है। आज इस वक्त छत्तीसगढ़ में विधानसभा चल रही है, दूसरे कई प्रदेशों में संसदीय काम चल रहा है, महज इस देश की संसद कोरोना की फिक्र में डूबी हुई है, और काम करने से कतरा रही है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह संसद काम करने से नहीं, देश के जलते-सुलगते मुद्दों का सामना करने से कतरा रही है, और किसानों से बचने के लिए कोरोना एक सहूलियत बनकर आ गया है। खैर, जब संसद चल भी रही थी, तब भी किसानों के हक कुचलने वाले कानून बनने से कौन रोक पाए?
मुद्दे से भटकना ठीक नहीं है, इसलिए हम भयभीत संसद छोडक़र वापिस कोरोना पर आते हैं, और हिन्दुस्तानी मिजाज की बात करते हैं। हिन्दुस्तानी अंधविश्वास में जिस तरह डूबे हुए हैं, वैज्ञानिक सोच से जितने दूर हो गए हैं, दूसरों के हक को कुचलने के लिए जिस तरह बेताब रहते हैं, जिस तरह सार्वजनिक जगहों को गंदा करना उन्हें राष्ट्रवाद लगता है, उससे यह जाहिर है कि कोरोना का मौजूदा दौर चाहे नीचे चला गया हो, कोरोना का अगला कोई दौर अगर आएगा, तो हो सकता है कि वह समंदर की अगली लहर की तरह मौतों को बहुत ऊपर भी ले जाएगा। कोरोना की वैक्सीन हिन्दुस्तान में अगले महीने से लगना शुरू हो सकती है, लेकिन आबादी का बहुत थोड़ा हिस्सा शुरू में इसे पा सकेगा। फिर वैज्ञानिक सोच यह भी कहती है कि मौजूदा वैक्सीन जितनी आपाधापी में बनाई गई हैं, उससे हो सकता है कि वे उम्मीद पर खरी न भी उतरें। यह सब साबित होते-होते साल-दो साल का वक्त लग सकता है, और इस बीच हो सकता है कि कोरोना के कई नए अवतार आ जाएं। इसलिए सावधानी का जो दर्जा हिन्दुस्तानियों को बचाने के लिए चाहिए, इस देश के राजनेता उस सावधानी को कचरे की टोकरी में डालने की मिसालें रात-दिन पेश कर रहे हैं। ऐसे में आसपास के लोग, परिचित और रिश्तेदार चाहे कितनी ही खिल्ली उड़ाएं, लोगों को बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे देश में सरकारें खतरे को आसानी से मानने को भी तैयार नहीं होंगी। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
वैसे तो कम्प्यूटर तकनीक और मशीनों को इंसान ने बनाया है, लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि खुद ने जो बनाया है उससे हमेशा सबक भी लिया जा सके। कम्प्यूटर की जितनी खूबियां हैं, उनसे इंसानी दिल-दिमाग बहुत सी चीजें सीख सकते हैं, और इंसान का दिमाग जिस हद तक लचीला है, उसके लिए अपने आपको ऐसा ढालना नामुमकिन तो बिल्कुल नहीं है।
अब कम्प्यूटर की एक खूबी तो यह है कि उसकी याददाश्त से चीजों को हटाया जा सकता है। जैसे-जैसे कम्प्यूटर की हार्डडिस्क या किसी और किस्म की मेमोरी भरती जाती है, उसका काम धीमा होते जाता है। जब वह पूरी तरह भरने लगती है, तो कम्प्यूटर जटिल हिसाब-किताब नहीं कर पाता, और उसकी मेमोरी खाली करनी होती है। ऐसा ही मोबाइल फोन के साथ भी होता है जो कि एक छोटा कम्प्यूटर ही है, और जब उसमें फोटो और वीडियो भरते-भरते गले तक भर जाते हैं, वह काम करना लगभग बंद कर देता है।
लोगों की याददाश्त पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर किसी नए विचार पर काम करना है, तो दिमाग में पहले से चल रहे बहुत से विचारों को रोकना या कम करना जरूरी होता है। ऐसा करने से बहुत सी तकलीफों से भी बचा जा सकता है, और कुछ बातों को भूले बिना आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। यह बात कुछ उसी तरह की है कि कार को चलाते हुए अगर आगे ले जाना है, तो पीछे का दिखाने वाले आईने में झांकना बंद करना पड़ता है। यह मुमकिन नहीं होता कि पूरे वक्त पीछे देखते चलें, और आगे बढ़ते चलें। यह कुछ इस किस्म का भी है कि क्लासरूम का ब्लैकबोर्ड, या स्कूल के बच्चे की स्लेट-पट्टी, इनपे लिखे हुए को जब तक मिटाया नहीं जाता, तब तक इन पर आगे कुछ लिखा भी नहीं जा सकता। कम्प्यूटरों की चर्चा के बिना भी यह बात कही जाती है कि कोई नया काम करना हो तो क्लीन स्लेट से शुरूआत करनी चाहिए। पुराने जमाने की एक कहावत भी है, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले।
बीते वक्त की यादों की भारी-भरकम टोकरी को सिर पर लादे हुए आगे का बड़ा और लंबा सफर मुमकिन नहीं होता। लोगों को पुराने रिश्तों या रंजिशों के बोझ से छुटकारा पाकर ही अपने को आगे के सफर के लिए तैयार होने का मौका मिलता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि दिमाग की याददाश्त की क्षमता और सोचने की क्षमता दोनों का कोई मुकाबला कम्प्यूटर नहीं कर सकते, लेकिन जिस तरह कम्प्यूटर में अलग-अलग बिखरी हुई बातों को एक साथ करने से भी उसकी क्षमता बढ़ती है, ठीक उसी तरह इंसानी दिमाग को डीफ्रेगमेंट करना सबके लिए तो मुमकिन नहीं है, लेकिन योग-ध्यान करने वाले, प्राणायाम करने वाले अपने सोचने पर कुछ या अधिक हद तक काबू कर पाते हैं।
प्राणायाम में जिस तरह बाहरी दुनिया से धीरे-धीरे अपने को अलग करते हुए अपनी ही सांसों के साथ, उसी पर ध्यान देते हुए कुछ वक्त रहने का काम होता है, वह दिमाग पर एक किस्म से काबू पाने की एक तकनीक भी है। और बाकी सबको भूलकर कुछ वक्त के लिए अपने में जीना, महज अपने साथ जीना, यह भी उतने वक्त के लिए बाकी यादों से परे जीने का काम होता है। जिस तरह कम्प्यूटर की मेमोरी खाली करने पर उसका प्रदर्शन बेहतर होने लगता है, वैसा ही इंसानों के साथ भी होता है, फिर चाहे वे उसे मानें, या न मानें। होता यही है कि यादों में बहुत उलझे हुए लोग, बीती जिंदगी की गलियों में ही भटकते हुए लोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाते।
अपने ही बनाए हुए कम्प्यूटर से सीखने की बहुत सी बातें इंसानों को और भी मिलती हैं। गैरजरूरी पन्नों को बंद करना, गैरजरूरी एप्लीकेशन बंद करना बेहतर कामकाज के लिए कितना जरूरी है, यह भी कम्प्यूटर से सीखने की जरूरत रहती है। लोग मल्टीटास्टिंग करते हुए बहुत सारे काम शुरू कर देते हैं जिन्हें वे साथ-साथ करते चलते हैं, लेकिन कम्प्यूटर की भी ऐसा करने की एक सीमा रहती है। लोग कई बार अपनी सीमाओं को नहीं पहचान पाते, और एक साथ बहुत से काम छेड़ देते हैं, और फिर उनमें से कोई भी काम किसी किनारे नहीं पहुंच पाता। अपनी खुद की क्षमता की सीमाओं को पहचानना, और फिर उसके भीतर-भीतर काम करना, यह कामयाब होने की कई शर्तों में से एक शर्त रहती है।
जिस तरह इंसान बाकी कुदरत से, जंगलों और पेड़ों से, नदियों के बहाव से, समंदर के फैलाव से, आसमान और पंछियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, उसी तरह अपनी बनाई मशीनों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर प्रेरणा का एक पोस्टर पोस्ट किया था जिसमें सीढिय़ों के सामने खड़े एक इंसान के सामने पहली सीढ़ी बाकी के मुकाबले चार-छह गुना अधिक ऊंचाई की थी, और लिखा था कि पहला कदम ही सबसे भारी होता है। इस बात को लोगों ने कई अलग-अलग तरह से लिखा है, और कुछ ने हौसला बढ़ाने वाली यह बात भी लिखी है कि हजार मील का सफर भी पहला कदम बढ़ाने के बाद ही शुरू होता है। किसी भी बड़े और कड़े काम की शुरूआत कुछ मुश्किल होती है। जो लोग किसी भी तरह की कार या मोटरसाइकिल चलाते हैं, वे जानते हैं कि खड़ी गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए जो पहला गियर लगता है, वही इंजन की सबसे अधिक ताकत होती है, और फिर जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, अगले गियर कम ताकत के रहते हैं। जब गाड़ी पूरी रफ्तार पर आ जाती है, तो टॉप गियर सबसे ही कम ताकत का रहता है। असल जिंदगी में भी इंसान अगर देखे तो किसी भी चुनौती का शुरूआती वक्त सबसे कठिन होता है, और इसके बाद धीरे-धीरे कठिनाई कम होते चलती है, जब लोग मंजिल की तरफ अपने सफर पर कुछ आगे बढ़ निकलते हैं, तो जिंदगी का गियर भी कम ताकत वाला टॉप गियर लगता है।
ये तमाम चीजें बनाई हुई तो इंसानों की हैं, लेकिन इन सबकी जो सीमाएं या खूबियां हैं, उनको देखकर सभी लोग पहले की देखी-भाली बातों को भी एक नए नजरिए से देख सकते हैं, और सीख सकते हैं। यहां पर हम कुल दो-तीन चीजों की मिसाल दे रहे हैं, लेकिन लोग अपने-अपने दायरे में अपने काम आने वाली बाकी मशीनों, बाकी चीजों को याद करके उनसे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। फिलहाल जिस बात से शुरू किया था, उसी पर लौटें तो वह यह है कि लोगों को गैरजरूरी यादों से छुटकारा पाना सीखना चाहिए। लोगों को सुबह उठने के बाद रात के सपनों के बारे में सोचने के बजाय दिन में क्या-क्या करना है इस बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के बहुत से दार्शनिकों ने दुश्मनी को भुला देने, दर्द को भुला देने की नसीहत भी हजारों बरस से दी है। जहां से निकलकर आगे बढ़ चुके हैं उसे भी भुला देने को कहा है। और मशीनें भी कुछ-कुछ वैसा ही सुझाती हैं और हमारे सामने अधिक ठोस तरीके से यह सामने रखती हैं कि ऐसा करने से काम कैसे आसान हो जाता है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)