राजनांदगांव

देवव्रत ने कमउम्र में ही हासिल कर लिए थे ऊंचे राजनीतिक मुकाम
06-Nov-2021 12:12 PM
देवव्रत ने कमउम्र में ही हासिल कर लिए थे  ऊंचे राजनीतिक मुकाम

प्रदीप मेश्राम

राजनांदगांव, 6 नवंबर (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। खैरागढ़ राजघराने के सदस्य और विधायक देवव्रत सिंह का बेसमय गुजर जाना राजनीतिक जगत के लिए एक बड़ा झटका है। मौजूदा समय की सियासत में देवव्रत उन युवा चेहरे में सबसे प्रभावशाली राजनीतिज्ञ थे, जिनकी जमीनी पकड़ बरकरार रही। 52 साल के देवव्रत ने खैरागढ़ विधानसभा का लगभग दो दशक तक प्रतिनिधित्व किया। 1995 में देवव्रत ने अपनी माता रश्मिदेवी सिंह के आकस्मिक निधन से खाली हुए खैरागढ़ सीट से राजनीति में कदम रखा। खैरागढ़ की सियासत पर पकड़ बनाने के बाद कांग्रेस में रहते देवव्रत के इर्दगिर्द ही राजनीतिक गतिविधि रही।

देवव्रत सिंह ने कम उम्र में सियासी दांव-पेंच में माहिर होने के बाद जिले की राजनीति में दखल मजबूत की। देवव्रत सिंह के लिए एक वक्त संघर्ष की स्थिति बन गई, जब वह 2009 के लोकसभा में बुरी तरह से हार गए। उनके लिए एक दूसरा कठिन समय 2008 का विधानसभा चुनाव रहा, जब कांग्रेस ने उनकी जगह मोतीलाल जंघेल को प्रत्याशी बना दिया। हालांकि उस दौरान सिंह सांसद के तौर पर जमे रहे।

कांग्रेस ने लोधी वोटों को साधने के लिए फिर से 2013 के विस में गिरवर जंघेल को मौका दिया। गिरवर ने भाजपा से सीट छीनते हुए शानदार बाजी मारी। दो विधानसभा में पार्टी की बेरूखी की वजह से देवव्रत ने 2018 के विधानसभा में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की टिकट से आजमाया। इस चुनाव में मिली जीत से देवव्रत ने अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। इस जीत से देवव्रत की काबिलियत पर उठते सवाल जहां सिमट गए। वहीं उन्होंने यह भी दिखाया कि सियासी राह में गिरकर संभलकर उठना उनकी खूबी है।

देवव्रत सिंह ने कांग्रेस को अलविदा कहने के बाद अपने निजी और राजनीतिक रिश्तों के स्तर को गिरने नहीं दिया। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं के बीच देवव्रत को अप्रत्यक्ष रूप से पसंद किया जाता रहा। नतीजतन उन्होंने कांग्रेस वापसी के लिए संभावना के द्वार को बंद नहीं रखा। चार बार के विधायक रहे देवव्रत अच्छे अंग्रेजी के जानकार होने के साथ ही क्रिकेट की बेहतरीन समझ भी रखते थे। कांग्रेस की राजनीति में देवव्रत को युवा चेहरे में अव्वल दर्जे का माना जाता था।

छत्तीसगढ़ गठन के बाद युवक कांग्रेस के पहले अध्यक्ष के तौर पर देवव्रत ने समूचे राज्य में अपनी आकर्षक शैली से युवाओं को पार्टी से जुडऩे के लिए आगे लाया। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कार्यकाल में हुए 2003 के विस चुनाव में एक ओर कई धाकड़ नेताओं का सुपड़ा साफ हो गया, लेकिन देवव्रत की जीत पर प्रतिकूल असर नहीं रहा। पूर्व सांसद प्रदीप गांधी के प्रश्न के बदले नोट के मामले में रिक्त हुए लोकसभा उपचुनाव में देवव्रत ने बंपर जीत के साथ राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखा। हालांकि उनकी यह जीत कुछ महीनों के बाद 2009 के आम चुनाव में हार में बदल गई। लोकसभा में मिली हार के बाद से करीब 10 साल तक देवव्रत ने जनता कांग्रेस के बैनर में विजयी हासिल कर राजनीति में फिर से वापसी की।

देवव्रत को एक तरह से राजनीति विरासत में मिली थी। उनके दादा वीरेन्द्र बहादुर, चाचा शिवेन्द्र बहादुर और चाची गीतादेवी सिंह भी कांग्रेस सरकार में सांसद और मंत्री रहे। खैरागढ़ राजघराने के एक बड़े नामचीन हस्ती रहे देवव्रत का गुजरा डेढ़ दशक निजी जीवन पारिवारिक कलह से भी सुर्खियों में रहा। पहली पत्नी से तलाक के बाद कुछ साल पहले देवव्रत ने दोबारा शादी रचाई। दूसरा विवाह के बाद भी देवव्रत का घरेलू मसला खत्म नहीं हो पाया। एक युवा राजनेता देवव्रत ने कम उम्र में ही कई ओहदों पर कब्जा किया। उनके उम्र के कुछ राजनेता ही रहे जिन्होंने लंबा सियासी सफर तय किया।

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