राजपथ - जनपथ
रायपुर के नवनिर्वाचित सांसद सुनील सोनी के स्वागत-अभिनंदन का दौर चल रहा है। मगर, पार्टी का एक खेमा अभी भी इसको लेकर सहज नहीं है। पिछले दिनों एकात्म परिसर में उनकी बड़ी जीत पर शहर जिला भाजपा की तरफ से उनकी जीत पर स्वागत का कार्यक्रम रखा गया। कार्यक्रम से पूर्व मंत्री राजेश मूणत के करीबी लोग दूर रहे। इसी तरह रायपुर उत्तर में भी सुनील सोनी के स्वागत कार्यक्रम में पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी सहित उत्तर के ज्यादातर नेता नहीं आए।
सुनील सोनी को निर्विकार भाव का नेता माना जाता है। उन्हें इस बात से कोई बहुत ज्यादा फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है कि कौन उनका सम्मान कर रहे हैं और कौन उनसे दूरी बना रहे हैं। लेकिन सांसद बनने के बाद बिना किसी प्रचार-प्रसार के जिस तरह स्थानीय समस्याओं को सुलझाने में जुटे हैं, उसकी तारीफ हो रही है। वे पिछले दिनों एम्स गए और वहां जाकर मरीजों की समस्याओं की सुध ली। उन्होंने मरीजों के आने-जाने के लिए एम्स के पिछवाड़े में नया गेट बनवाने के लिए प्रबंधन को राजी किया, साथ ही सरोना रेलवे स्टेशन से मरीजों को एम्स तक पहुंचने में दिक्कत न हो, इसके लिए नगर निगम की मदद से सड़क बनवाने के प्रस्ताव पर सहमति दिलाई।
यह काम छोटा भले दिख रहा हो लेकिन मरीजों को काफी राहत दिलाने वाला है। पहले एम्स अस्पताल आने के लिए टाटीबंध के मुख्य मार्ग से ही होकर आना पड़ता था। इसी तरह सुनील सोनी ने रेलवे अस्पताल में आम लोगों का इलाज सुनिश्चित करने के लिए रेलवे अफसरों से चर्चा की। इसके लिए सहमति भी बन गई है। सुबह से रात तक लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए जिस तरह भाग-दौड़ करते दिख रहे हैं, उनसे से काफी अपेक्षाएं भी हैं।
संन्यासभाव का सांसद-2
राजनांदगांव के सांसद संतोष पाण्डेय का कद पार्टी के भीतर तेजी से बढ़ा है। उन्हें भाजपा संसदीय दल का सचेतक बनाया गया है। यही नहीं, पार्टी ने उन्हें छत्तीसगढ़ में सदस्यता अभियान का प्रभारी बनाया है। संतोष पाण्डेय किसी गुट से नहीं जुड़े हैं। वे संघ के पसंदीदा माने जाते हैं। लोकसभा चुनाव में कई बड़े लोगों ने या तो उनके खिलाफ काम किया या फिर प्रचार से अलग रहे। मगर, संतोष पाण्डेय ने किसी की शिकायत नहीं की। लोकसभा चुनाव के दौरान जैसे ही राजनांदगांव में मतदान खत्म हुआ, वे रायपुर में चुनाव प्रचार के लिए आ गए। उनकी कार्य निष्ठा और समर्पण की पार्टी के कई लोग तारीफ करते नहीं थकते हैं। ऐसे में पार्टी के भीतर उनके बढ़ते कद से हैरानी नहीं हो रही है।
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बहुत बड़ी-बड़ी शादियों में जहां हजारों मेहमान होते हैं, और बहुत से ऐसे लोग भी पहुंचते हैं जो कि वीआईपी कहलाते हैं, वहां स्टेज पर जाने की आपाधापी लगी रहती है। कई लोग घंटे भर तक कतार में लगे रहते हैं, और कातर निगाहों से स्टेज की तरफ देखते रहते हैं जहां दूसरी तरफ की उतरने के लिए रखी गई सीढिय़ों से वीआईपी चढ़ते रहते हैं, और आम लोगों की कतार खिसकने का नाम नहीं लेती। ऐसी आम कतारों में खास लोगों के लिए कैसी भावनाएं रहती हैं, उन्हें अगर खास लोग सुन लेंगे, तो अगली बार कतार में लगना उन्हें सस्ता लगने लगेगा। जिस तरह 25-30 बरस पहले आम सिनेमाघरों में आम दर्जे की टिकट पाने के लिए लोगों को मशक्कत करनी पड़ती थी, आज स्टेज पर जाकर दुल्हा-दुल्हन को लिफाफा या गुलदस्ता, या तोहफा देने में कुछ वैसी ही मशक्कत करनी पड़ती है। इसके अलावा बड़ी शादियों में पार्किंग का जो हाल रहता है, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि शहर से विवाहस्थल के बीच किसी जगह पर बड़ी सी पार्किंग रखनी चाहिए और वहां से मेहमानों को दावत के शामियाने तक ले जाने के लिए आरामदेह बसें चलानी चाहिए। नया रायपुर की खाली जमीनों पर विवाहस्थल के लिए कुछ एकड़ के टुकड़े लंबी लीज पर देने की योजना थी, उसका फिर बाद में पता नहीं क्या हुआ। नया रायपुर प्राधिकरण ने एक बार टेंडर निकाला, लेकिन उसमें किसी ने दिलचस्पी ली नहीं थी। अब शर्तें बदलकर ऐसा फिर से करना चाहिए, और उसके लिए नया रायपुर में शहर के पास की जगह ही तय करनी चाहिए जिससे लोग सामने आ सकें।
पुण्य कमाने का मौका
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भाजपा सरकार के वक्त बनाए गए एक विवादास्पद स्काईवॉक को लेकर आज की कांग्रेस सरकार हैरान-परेशान है कि इसे मार दिया जाए, या छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए? सरकार जो भी फैसला लेगी, उस पर उसकी आलोचना छोड़ कुछ नहीं होगा। ऐसे में किसी ने एक वॉट्सऐप मैसेज पर एक शानदार रास्ता सुझाया है। कोलकाता म्युनिसिपल ने अभी टेंडर निकाला है कि वहां के विख्यात मंदिर कालीघाट में दर्शनार्थियों के चलने के लिए एक स्काईवॉक बनाया जाना है। इसके लिए म्युनिसिपल ने कंपनियों से टेंडर बुलाए हैं। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार चाहे तो यह स्काईवॉक काली मंदिर के दर्शनार्थियों के लिए भेंट में दे सकती है, और चूंकि मामला मंदिर का रहेगा इसलिए भाजपा के लोग भी विरोध कर नहीं पाएंगे, और छत्तीसगढ़ सरकार पुण्य भी कमा लेगी।
गाने वाले कलेक्टर
राजधानी रायपुर के नए कलेक्टर एस.भारती दासन फेसबुक पर सक्रिय रहते हैं, और हिन्दी और तमिल दोनों भाषाओं के गानों के अपने खुद के बनाए हुए वीडियो पोस्ट भी करते रहते हैं। उन्होंने एग्रीकल्चर की पढ़ाई की हुई है, और जिले के ग्रामीण हिस्सों में राज्य सरकार की महत्वाकांक्षी योजना नरुवा-घुरुवा में भी उनकी अतिरिक्त दिलचस्पी हो सकती है। चुनाव के दौरान वे चुनाव आयोग में तैनात रहे, और ऐसा लगता है कि उनका काम ठीक रहा, इसलिए राज्य सरकार ने प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण माना जाने वाला जिला उन्हें दिया, और चुनाव आयोग ने भी तेजी से उन्हें इसके लिए कार्यमुक्त भी कर दिया। ([email protected])
प्रदेश पुलिस ने गांजा तस्करी के जितने भी मामले पकड़े हैं उनमें से अधिकांश गांजा ओडिशा के कालाहांडी और मलकानगिरी जिले से आता मिला है। नक्सल प्रभावित इन दोनों जिलों के जंगलों से गांजा निकलता है, जो ओडिशा सीमा से लगे रायगढ़, सरायपाली, बसना, सांकरा, पिथौरा, कोमाखान, मैनपुर, गरियाबंद, कांकेर, जगदलपुर से होकर छत्तीसगढ़ दाखिल होते हुए दीगर प्रदेशों के लिए निकलता है। इन जिलों में गांजे की खेती शायद इसलिए भी अधिक होती है कि वहां के जंगलों तक पहुंचकर गांजे की फसल को तबाह करने की हिम्मत नक्सलियों की वजह से किसी सरकारी अमले की पड़ती नहीं है।
तस्करी के लिए कई तरीके निकाले जाते रहे हैं। खुफिया चेंबर बने ट्रक पकड़ाते रहे तो अब टमाटर, कटहल, कद्दू आदि सब्जियों के नीचे गांजा रखकर ले जाते तस्कर पकड़े जा चुके हैं। इन दिनों तस्करों ने मौसम के मुताबिक आम को गांजा तस्करी का जरिया बना लिया है। आमों के नीचे गांजे के पैकेट! आम की खुश्बू में गांजे की महक दब जाती है पर इसी ने तस्करों का राज खोल दिया। कोरबा जिले के एक कस्बे में ट्रक पर बंदरों ने धावा बोल दिया। आम की जमकर दावत ली और उधर नीचे रखे गांजे से भरे बोरे सामने आ गए। सत्तर लाख का गांजा पुलिस ने बरामद किया। पुलिस महकमे के लिए अब तक खोजी कुत्ते काम करते आए हैं, यहां अनजाने ही सही, जंगल के इन बजरंगबलियों ने पुलिस की राह आसान कर दी।
महुआ, आदिवासी और हाथी
महुआ आदिवासियों की जीवनरेखा है। फूल-फल से लेकर पत्ते तक इन्हें रोजगार देता है। महुआ का फूल हाथी को लुभाता है, इनका प्रिय आहार भी है। आदिवासियों की तरह हाथियों को भी महुए की शराब काफी पसंद है। इसकी गंध कई कोस दूर से सूंघ लेते हैं। गंध मिलते ही वे उस ओर चलने लगते हैं। प्राय: देखा गया कि गांव की उन झोपडिय़ों और घरों पर हमला करते हैं जहां कच्ची शराब बन रही हो या जहां से शराब की गंध आ रही हो। घर में घुसकर हाथी शराब पी जाते हैं और फिर नशे में अधिक उपद्रव मचाने लगते हैं। सरगुजा-कोरिया के कई आदिवासियों की तब मौत हुई जब वे घर में मदमस्त थे या फिर शराब पीकर हाथियों के सामने आ गए।
बस्तर पहले हाथियों की आमद से महफूज था पर इन दिनों ओडिशा से भटककर कांकेर के परलकोट इलाके, नांदगाव मानपुर के जंगलों में हाथी जोड़े पहुंचने की खबर है। यह इलाका आदिवासी बहुल है और घरों में शराब बनना आम है। यहां के आदिवासियों को इसकी जानकारी कम है कि शराब से हाथी खिंचतेे हैं, उग्र हो जाते हैं। कुछ जनप्रतिनिधियों का कहना है कि वन विभाग को चाहिए कि इसके लिए अभियान छेड़कर बस्तर के आदिवासियों को सचेत करे वरना हाथियों का ऊधम यहां भी शुरू हो जाएगा।
वीडियो ले जाकर योगी को दिखाएं
एक पत्रकार को पुलिस ने केवल इसलिए गिरफ्तार किया कि उसने किसी महिला के उस वीडियो को ट्वीट कर दिया था, जिसमें उसने दावा किया था कि उसने उप्र के मुख्यमंत्री योगी के साथ शादी करने का प्रस्ताव भेजा है। ब्रम्हचर्य का पालन करने वाले संन्यासी योगी को बुरा लगना स्वाभाविक है पर उन्होंने संन्यास व्रत पालन के साथ ही मुख्यमंत्री के रूप में राजकाज के दायित्व की भी शपथ ली है। यह उन्हें ध्यान रखना चाहिए। पौराणिक आख्यानों में संन्यासियों के व्रत तोडऩे तप भंग करने के लिए उर्वशी, मेनका, रंभा जैसी अप्सराओं का जिक्र करते कई कथाएं प्रचलित हैं। स्वामी विवेकानंद को भी विदेश में किसी कन्या ने आमंत्रण दिया था ताकि वह उनसे उनके जैसी ही संतान प्राप्त कर सके। तब विवेकानंद ने इस आमंत्रण का जवाब दिया था कि वह उन्हें ही अपनी संतान स्वीकार कर ले। संन्यास धर्म के साथ राजधर्म का पालन कर रहे योगी आदित्यनाथ को इस तरह की घटना ने उत्तेजित कर दिया, यानी एक तरह से उनकी तपस्या भंग हो गई। यह घटना याद दिलाती है कि एक वक्त देश के सबसे चर्चित संन्यासी-राजनेता, छत्तीसगढ़ के पवन दीवान से जब भी उनके ब्रम्हचारी रहने को लेकर कोई मजाक किया जाता था, तो वे एक आम इंसान की तरह मजाक का खूब मजा लेते हुए इतनी जोरों का ठहाका लगाते थे कि कोई मजाक उन पर चिपकता नहीं था। वे संन्यासी भी थे, मंत्री भी थे, और हास्यबोध से भरपूर भी थे। किसी को पवन दीवान के ठहाकों के वीडियो ले जाकर योगी को सिखाना चाहिए कि ब्रम्हचर्य के साथ हँसना भी मुमकिन है।
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छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में डिप्टी कलेक्टर रैंक के दो लोग एक पब्लिक सेक्टर गेस्ट हाऊस में मिले, और हंगामा हो गया। इनमें से पुरूष अफसर शादीशुदा है, और पत्नी न्यायपालिका में काम करती है। खबरों के मुताबिक उसे शक था कि पति का इस दूसरी महिला अफसर से चक्कर चल रहा है, और उसने छापामार अंदाज में दोनों को बंद कमरे में पकड़ा और पुलिस भी बुला ली। अखबारी खबरों में तो बिना सुबूत नाम और तस्वीरें छापना कुछ कानूनी दिक्कत की बात भी रहती है, लेकिन मैसेंजर की मेहरबानी से अब मोबाइल फोन पर कुछ मिनटों में ही इनके फेसबुक पेज की तस्वीरें तैरने लगीं, और लोग चेहरे देखकर हैरान भी होने लगे कि इतनी सुंदर महिला अफसर इस तरह एक शादीशुदा आदमी के साथ पकड़ाई। लेकिन दिल पर किसका बस चलता है, वह न उम्र देखता, न चेहरा। बड़े-बुजुर्ग पहले से कह गए हैं, दिल लगा गधी से, तो परी क्या चीज है?
चूंकि इस प्रेम त्रिकोण में तीनों लोग सरकारी नौकरी वाले हैं इसलिए राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि कम से कम प्रेमी-प्रेमिका को तो दूर-दूर तैनात कर दे। छत्तीसगढ़ ऐसे मामले के लिए बड़ी अच्छी जगह इसलिए भी है कि एक को जशपुर और दूसरे को सुकमा में तैनात कर दिया जाए तो मोहब्बत का असली इम्तिहान भी हो जाएगा, और सरकार का कामकाज भी चलता रहेगा। हालांकि लोगों का कहना है कि जियो की मेहरबानी से लोग अब पूरे चौबीस घंटे मोहब्बत निभा भी सकते हैं, कुल चार सौ रूपए महीने में!
उसेंडी-गागड़ा की चुप्पी का राज
आखिरकार भूपेश सरकार ने आदिवासियों के तगड़े विरोध के बाद बैलाडीला के डिपॉजिट-13 में खनन के लिए वृक्षों की कटाई पर रोक लगा दी है। साथ ही परियोजना से जुड़े सारे कार्य भी रोक दिए गए हैं। यहां खनन का ठेका अडानी समूह को मिला हुुआ है। दिलचस्प बात यह है कि आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन में कांग्रेस के नेता तो बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे, लेकिन भाजपा के नेता इससे दूर रहे।
सुनते हैं कि भाजपा के रणनीतिकारों ने प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी और पूर्व मंत्री महेश गागड़ा को इस प्रकरण से जुड़े कुछ दस्तावेज देकर प्रेस कॉन्फ्रेंस लेने के लिए कहा था। दोनों नेताओं ने इसका अध्ययन किया और फिर बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस लेने से मना कर दिया। बैलाडीला के डिपॉजिट-13 के जिस नंदराज पर्वत पर खुदाई होनी थी वह आदिवासियों की आस्था से जुड़ा हुआ है। ये दोनों आदिवासी नेता भी यहां खनन के खिलाफ बताए जाते हैं। चूंकि खदान आबंटन से जुड़ी सारी प्रक्रिया रमन सरकार के समय हुई है और केंद्र में भी भाजपा की सरकार रही है। ऐसे में खदान को लेकर कुछ भी बोलने का मतलब अडानी के पक्ष में बोलने का होता, और अपने लिए परेशानी पैदा करने जैसा होता। यही वजह है कि कुछ बोलने से बेहतर चुप रहना उचित समझा।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल चूंकि 15 बरस के विपक्षी किरदार में गैरसरकारी सामाजिक संगठनों और आंदोलनों के करीब रहे, इसलिए उन्हें आदिवासी मुद्दों की समझ भी बेहतर है। पिछली सरकार अफसरों के काबू की थी, और इस बार की सरकार में सरकार से बाहर की भी कुछ राय चलती है। नतीजा यह हुआ है कि अधिक टकराव के बिना सरकार पीछे हट गई है।
जलते में क्या पहचान?
जंगल में आग लगी। न जाने कितने जंगली जानवर जल-भुनकर मर गए। जंगली जानवरों के गोश्त के शौकीन ताक में थे कि कोई जंगली जानवर जंगल से भागते आए तो पकड़ें और गोश्त का मजा लें। बुरी तरह जला एक जानवर इनकी पकड़ में आ गया। रात का अंधेरा था, पहचान हुई कि यह तो सांभर (हिरण की एक प्रजाति) है। बस कुछ ही मिनट में इनके हाथों इस जानवर को जान गंवानी पड़ी। गोश्त बना, दोस्तों को भी दावत में शामिल किया। परिजनों तक को भिजवाया। छककर खाकर सो गए। सुबह हुई तो एक सिल-लोढ़ा पत्थर बेचने वाला गांव आकर पूछ रहा था मेरे गधे को देखा क्या? कल जंगल की ओर गया था। गोश्त उड़ाने वालों को अब समझ में आया कि खाया क्या? अब गोश्त किसी भी जानवर का हो वह तो पच ही चुका था।
इधर कुआं, उधर खाई
गर्मी बढ़ी, और जंगली जानवरों के शिकार की घटनाएं अक्सर जंगल से लगे गांवों में देखने-सुनने को आने लगती हंै। वन विभाग की पकड़ में आ गए तो जेल जाने का डर। वन विभाग की कार्रवाई से बचने जो न करें सो थोड़ा। झूठ बोलकर वन विभाग की कार्रवाई से बचकर निकले तो बिरादरी की पकड़ में आ गए और शुद्धिकरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। भोज देना पड़ गया। ऐसा ही एक मामला पिथौरा के सुखीपाली जंगल से लगे गांव का है। यहां के कुछ लोगों ने जंगली सुअर का शिकार कर गोश्त खाया। गोश्त बनाते समय जंगली सुअर के एक-दो पैर किसी कुत्ते ने झटक लिए और दूसरे दिन अधखाया यह पैर वन विभाग के किसी कर्मचारी के हाथ लग गया। बस विभाग ने तहकीकात शुरू कर दी। लिहाजा पता लगाया कि गांव में किसके घर क्या पका, और बच्चे मन के सच्चे निकले। गोश्तखोरों से पूछताछ शुरू हुई तो एकमत से बताया गया कि वह जंगली सुअर नहीं था, पाला गया सुअर था। सुअर पालने वाले को गवाह बनाकर पेश कर दिया। वन विभाग के कर्मी मनमसोसकर रह गए। हाथ कुछ नहीं आया।
अब बारी जात बिरादरी वालों की थी, इन गोश्तखोरों को पकड़ पंचायत बैठी कि तुमने पालतू सुअर का गोश्त खाया है , शुद्धिकरण होना होगा,जुर्माना भी भरना होगा, तब तक अछूत, जात-बिरादरी से बाहर। पौनी पसारी बंद। मरता क्या न करे..अगर कहें कि जंगली सुअर का मांस खाया तो जेल। लिहाजा शुद्धिकरण होना बचने की आसान राह थी। पूरे कुनबे के साथ शुद्धिकरण के बाद बिरादरी को बकरा-भात खिलाया। पंच-परमेश्वरों ने भी भोज खाकर मामला गांव में सुलटा लिया।
अच्छे दिन आने वाले हैं-1
एपीसीसीएफ अतुल शुक्ला और राजेश गोवर्धन की पदोन्नति में समय लग सकता है। वजह यह है कि सरकार ने अभी तक केन्द्र को प्रस्ताव नहीं भेजे हैं। वनमंत्री की दखल के बाद जल्द ही प्रस्ताव भेजे जाने की तैयारी चल रही है। पदोन्नति में देरी को देखते हुए सरकार दोनों अफसरों को पीसीसीएफ स्तर के रिक्त पदों पर बिठा सकती है। यानी एक को वाइल्ड लाइफ और दूसरे को लघुवनोपज संघ के एमडी का प्रभार दिया जा सकता है। अभी तक पीसीसीएफ (मुख्यालय) राकेश चतुर्वेदी के पास ही दोनों प्रभार हैं। सुनते हैं कि राकेश चतुर्वेदी ने खुद होकर दोनों अफसरों को एक-एक विभाग का प्रमुख बनाने का प्रस्ताव दिया है। अब प्रमुख पीसीसीएफ अपना बोझ हल्का करना चाहते हैं, तो सरकार को भला क्या दिक्कत हो सकती है।
अच्छे दिन आने वाले हैं-2
फॉरेस्ट में एक बड़े फेरबदल की तैयारी है। चर्चा है कि बरसों से लूप लाइन में रहे छोटे-बड़े अफसरों को मुख्य धारा में आने का मौका मिल सकता है। रमन सरकार में ज्यादातर समय वन विभाग का प्रभार आदिवासी मंत्रियों के पास रहा है, लेकिन ट्रांसफर-पोस्टिंग में सीएम हाऊस की दखल रहती थी। मगर, अब परिस्थितियां बदल गई है। भूपेश सरकार की कई महत्वाकांक्षी योजनाएं वन विभाग से जुड़ी हंै। ऐसे में वनमंत्री मोहम्मद अकबर योजनाओं के क्रियान्वयन में किसी तरह की लापरवाही नहीं चाहते हैं। उन्होंने संकेत दे दिए हैं कि साफ-सुथरी छवि और मेहनती अफसरों को पूरा महत्व दिया जाएगा और काम की पूरी छूट रहेगी। यानी साफ है कि पिछले सालों में जुगाड़ न होने के कारण किनारे बैठे अफसरों को बिना किसी सिफारिश के उनकी साख देखकर काम करने का बेहतर अवसर मिल सकता है।
एक छत्तीसगढ़ी की यादें
अमरीका में बसे हुए एक प्रमुख कारोबारी, छत्तीसगढ़ी वेंकटेश शुक्ला ने गिरीश कर्नाड के गुजरने पर उनके साथ की अपनी एक मुलाकात ताजा की है। उन्होंने लिखा है कि पिछली दिसंबर में बेंगलुरु में एक दोस्त के घर उनसे मुलाकात हुई थी। सांस लेने में दिक्कत की वजह से उनका चलना-फिरना कम था, लेकिन उनका पैना दिमाग और हास्यबोध, दोनों बरकरार थे। वे इस बात को मजे से बता रहे थे कि सलमान खान की फिल्म, टाईगर जिंदा है, में अपने एक किरदार की वजह से वे देश भर में पहचाना हुआ चेहरा बन गए थे, जबकि आलोचकों द्वारा तारीफ पाने वाली कई फिल्मों ने मिलकर भी उन्हें यह दर्जा नहीं दिलाया था। उन्होंने यह भी बताया था कि एक वक्त, 1960-70 के दशक में किसी वक्त हेमा मालिनी की मां उनकी शादी गिरीश कर्नाड से करवाना चाहती थीं। वेंकटेश ने उनसे पूछा कि फिर यह शादी क्यों नहीं हुई? तो उन्होंने बताया कि वे किसी और से प्रेम करते थे, और हेमा मालिनी के दिमाग में भी गरम-धरम थे जिनसे कि आखिर में उन्होंने शादी की। वेंकटेश ने लिखा है कि इतनी शोहरत के बावजूद गिरीश कर्नाड एक बहुत आम इंसान की तरह थे, कला, संस्कृति, राजनीति, या साहित्य, किसी भी विषय पर बहस में शामिल होने के लिए एक पैर पर खड़े हुए। वे पार्टी से जाने वाले आखिरी लोगों में से थे, वह भी तब जब उनकी बेटी उन्हें आराम करने के लिए घसीट ले गई। उनके साथ गुजारे कुछ घंटे यादों की एक धरोहर हैं।
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एक-दो प्रकरणों को छोड़ दें, तो भूपेश सरकार ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामलों में उदार रही है। उन अफसरों को महत्व दिया जा रहा है, जिनकी साख अच्छी है। इनमें से कुछ अफसर जो रमन सरकार के करीबी माने जाते रहे हैं, उनका भी महत्व कम नहीं हुआ है। मसलन, सीएम के ओएसडी अरूण मरकाम को ही लें, वे पुराने सीएम रमन सिंह के भी ओएसडी थे। सरकार बदलने के बाद सचिवालय के दागी-बागी टाइप के अफसरों को बदल दिया गया, लेकिन मरकाम और जनसंपर्क के उमेश मिश्रा का रूतबा बरकरार है।
अरूण मरकाम सरगुजा के पूर्व भाजपा सांसद कमलभान सिंह के दामाद हैं। मगर, इन रिश्तों को जानकर भी भूपेश बघेल ने उन्हें नहीं बदला। मरकाम मिलनसार और मेहनती अफसर माने जाते हैं। इसी तरह उमेश मिश्रा राज्य बनने के बाद से सीएम सचिवालय में हैं। वे अजीत जोगी, फिर रमन सिंह और अब भूपेश बघेल के साथ काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबका साथ-सबका विकास, का नारा सबसे ज्यादा चर्चित रहा। मगर, बहुत कम लोग जानते हैं कि यह नारा छत्तीसगढ़ में तैयार हुआ था और इसे उमेश मिश्रा ने रमन सिंह के लिए गढ़ा था। उमेश मौजूदा सीएम भूपेश बघेल के संयुक्त सचिव के साथ-साथ संवाद के मुखिया भी हैं। रमन सरकार में संवाद भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर कुख्यात रहा और यहां की गड़बडिय़ों की पड़ताल ईओडब्ल्यू कर रही है। ऐसे में संस्था की छवि निखारने की जिम्मेदारी उमेश मिश्रा पर आ गई है। उनके आने के बाद से यहां काम में पारदर्शिता नजर आने लगी है।
राजभवन मेहमान भरोसे...
छत्तीसगढ़ के राज्यपाल की कुर्सी महीनों से अतिरिक्त प्रभार पर चल रही है। मध्यप्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल को ही तब छत्तीसगढ़ का भी प्रभार दिया गया जब यहां के राज्यपाल बलरामजी दास टंडन गुजर गए। तब से अब तक यह राज्य अतिरिक्त प्रभार पर जारी है। लोगों का यह अंदाज था, और है, कि अगर केन्द्र में यूपीए सरकार बनती, तो छत्तीसगढ़ में कोई और राज्यपाल तैनात होते। लेकिन दिल्ली में मोदी सरकार, और राज्य में उसके सामने तनकर खड़ी हुई भूपेश सरकार का टकराव देखते हुए अब अंदाज है कि केन्द्र इस राज्य में पूर्णकालिक राज्यपाल तैनात करेगा, और वे राज्यपाल ऐसे होंगे जो कि राजनीति की समझ रखते भी होंगे।
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में बरसों पहले ई.एस.एल नरसिम्हन छत्तीसगढ़ के राजभवन से जब हैदराबाद ले जाए गए, तो उस वक्त वहां तेलंगाना राज्य बनना था। और 2009 से वे अब तक आन्ध्र और तेलंगाना दोनों के राज्यपाल हैं। उन्हें यूपीए सरकार ने तैनात किया था, लेकिन आईबी में उनके कामकाज की वजह से और इन दोनों राज्यों पर उनकी खास पकड़ को देखते हुए मोदी सरकार ने अपने पिछले पूरे कार्यकाल में नरसिम्हन को नहीं छुआ और वे आज तक दोनों राज्यों को देख रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में भाजपा के नेता राजभवन में कोई भूतपूर्व भाजपाई चाहते हैं ताकि वे वहां जाकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ अपनी बात रख सकें। आनंदीबेन भी गुजरात की भाजपा-मुख्यमंत्री रही हुई हैं, लेकिन वे अतिरिक्त प्रभार की वजह से न तो छत्तीसगढ़ में अधिक समय रहतीं, और न ही यहां की भाजपा को उनसे कोई राहत मिलती है। आने वाले दिनों में जब नरेन्द्र मोदी-अमित शाह भाजपा के कुछ नेताओं का पुनर्वास सोचेंगे, तब छत्तीसगढ़ के राजभवन को कोई स्थायी निवासी मिलेंगे।
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भारतीय पुलिस सेवा के अफसर अमरेश मिश्रा एक बार फिर केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। सुनते हैं कि केन्द्रीय राज्यमंत्री रेणुका सिंह ने अपने सचिव के लिए मिश्रा के नाम की सिफारिश की है। चर्चा यह है कि अमरेश मिश्रा के लिए पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने भी पैरवी की है।
मिश्रा, रायपुर और दुर्ग जैसे बड़े जिलों के एसपी रह चुके हैं। वे आईबी में भी काम कर चुके हैं। दुर्ग एसपी रहते अमरेश मिश्रा की तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री एसएस अहलुवालिया के सचिव के रूप में पदस्थापना भी हो गई थी, लेकिन रमन सरकार ने उन्हें रिलीव नहीं किया। वे रमन सरकार के करीबियों में रहे हैं। सरकार बदलते ही उन्हें पुलिस मुख्यालय में भेज दिया गया। उनके पास कोई अहम जिम्मेदारी नहीं है। ऐसे में संभावना है कि वे रेणुका सिंह के साथ चले जाए। हालांकि, यह सब कुछ आसान नहीं है। पीएमओ की मंत्री-स्टॉफ में पदस्थापना में सीधी दखल रहती है। हाल यह है कि केन्द्रीय मंत्री भी अपनी मर्जी से किसी को अपने स्टॉफ में नहीं रख सकते। रमन सरकार के कई और अफसर केन्द्र सरकार में पद पाने के लिए काफी भाग-दौड़ कर रहे हैं, लेकिन अभी तक किसी की पोस्टिंग तय नहीं हो पाई है।
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भाजपा के पूर्व सांसदों के पीए (निज सचिव) और अन्य कर्मचारी, नए नवेले सांसदों के यहां अपनी संभावनाएं तलाश रहे हैं। कुछ पूर्व सांसद इसके लिए सिफारिश भी कर रहे हैं। सुनते हैं कि इसी सिलसिले में छत्तीसगढ़ के एक पूर्व सांसद का एक कर्मचारी, पिछले दिनों एक नए सांसद से मिलने पहुंचा। सांसद के पास पहले ही उस कर्मचारी के लिए सिफारिश आ चुकी थी। कर्मचारी को लेकर समस्या यह थी कि उसे निजी तौर पर ही रखा जा सकता था। इसके लिए वेतन आदि की व्यवस्था खुद सांसद को करनी पड़ती। सांसद को दुविधा में देख कर्मचारी ने खुद ही कह दिया कि उन्हें (सांसद) वेतन आदि की चिंता करने की जरूरत नहीं है। पूर्व सांसद ने एक कंपनी से उनके लिए हर महीने वेतन की व्यवस्था कर दी है। उन्हें सिर्फ उनके दफ्तर में जगह चाहिए। अब सांसद, ऐसे प्रभावशाली कर्मचारी को लेकर असमंजस में हैं। कंपनी से पुराने सांसद के किस तरह रिश्ते हैं, कोई समस्या तो नहीं आ जाएगी, यह सोचकर परेशान है।
पहला विदेश दौरा
छत्तीसगढ़ के उद्योग मंत्री कवासी लखमा के साथ अफसरों का एक प्रतिनिधि मंडल निवेश की संभावना तलाशने कनाडा जा रहा है। पहले सीएम भी जाने वाले थे, लेकिन मां के अस्पताल में भर्ती होने की वजह से उनके जाने का कार्यक्रम टल गया। नई सरकार के लोगों का यह पहला विदेश दौरा है। जबकि रमन सरकार के लोग दर्जनों बार निवेश की संभावना तलाशने विदेश जा चुके हंै।
सुनते हैं कि पिछली सरकार के पावरफुल लोग जब विदेश यात्रा पर जाते थे, तो अपने साथ सीएसआईडीसी के एक इंजीनियर को ले जाते थे। इंजीनियर अपने नाम पर लाखों रुपये एडवांस ले लिया करता था। इस पैसे से पिछली सरकार के लोग जमकर खरीदारी करते थे। इंजीनियर को फ्री स्टाइल खेलने की छूट रहती थी। महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट उन्हीं के हाथों में होता था। इसलिए इंजीनियर भी खुशी-खुशी से खातिरदारी के लिए तैयार रहता था। अब सरकार बदल गई है, लेकिन विदेश यात्रा की प्रकृति भी पहले जैसी है। ये अलग बात है कि इस बार इंजीनियर साथ नहीं है। अलबत्ता, उससे ऊपर के एक अफसर जरूर साथ हंै। अब वहां इस अफसर का किस तरह उपयोग होता है, यह देखना है।
जांच भी चले और इलाज भी
आखिरकार डीकेएस सुपर स्पेश्यलिटी अस्पताल के अधीक्षक डॉ. केके सहारे को हटा दिया गया। वे अस्पताल निर्माण से जुड़ी अनियमितताओं को लेकर इतने व्यस्त हो गए थे कि मरीजों की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे थे। स्वास्थ्य मंत्री ने गरियाबंद के सुपेबेड़ा में किडनी बीमारी से पीडि़तों को डीकेएस में मुफ्त इलाज की घोषणा की थी, लेकिन मरीजों को इलाज के लिए भटकना पड़ रहा था। जबकि सरकार डीकेएस में ज्यादा से ज्यादा स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास कर रही है। डॉ. सहारे का हाल यह था कि वे पूर्व अधीक्षक डॉ. पुनीत गुप्ता के खिलाफ मामले खोजने में ही पूरा समय दे रहे थे। यह सब देखकर सरकार ने मरीजों के हितों को ध्यान में रखकर डॉ. सहारे को हटाने का फैसला लिया। डॉ. सहारे को डीकेएस घोटाले और जांच के संबंध में नोडल अधिकारी बने रहेंगे। यानी वे अपना पुलिस और जांच का काम पूर्ववत करते रहेंगे, और अस्पताल चलाने के लिए एक दूसरा अफसर तैनात कर दिया गया है।
कलेक्टर-एसपी कॉफ्रेंस के बाद करीब डेढ़ दर्जन आईएएस अफसरों को इधर से उधर किया गया। जिन अफसरों के प्रभार चार माह में दूसरी-तीसरी बार बदले गए हैं, उनमें राजेश सिंह राणा, एलैक्स पॉल मेनन और रजत कुमार व चंद्रकांत उइके जैसे अफसर भी शामिल हैं। मेनन अंत्यवसायी वित्त विकास निगम के एमडी भी थे और उन्होंने निगम की कार्यप्रणाली के सुधार के लिए सलाहकार नियुक्त करने का प्रस्ताव तैयार किया था। इस पर लाखों खर्च होना था। इस प्रस्ताव पर काफी विवाद हुआ। आखिर में सलाहकार नियुक्ति का प्रस्ताव निरस्त करना पड़ा। मेनन जहां भी रहे, विवादों से परे नहीं रहे। ऐसे में फेरबदल की सूची में उनका नाम आने पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उन्हें मंत्रालय में विशेष सचिव बनाया गया, लेकिन अभी उन्हें कोई विभाग नहीं दिया गया है। उनके कार्यकाल में चिप्स में जो काम हुए हैं उनकी जांच में ईओडब्ल्यू को पसीना आ रहा है।
इसी तरह राजेश सिंह राणा के खिलाफ भी कई तरह की शिकायतें रही है। बलौदाबाजार कलेक्टर रहते उनके खुद के प्रचार का वीडियो सार्वजनिक हुआ था, जिसको लेकर उनकी काफी किरकिरी हुई थी और बाद में उन्होंने वीडियो बनाने वाले खिलाफ पुलिस में शिकायत कर मामले को किसी तरह रफा-दफा किया। वे रमन सरकार के चहेते अफसरों में गिने जाते रहे हैं, वे फ्री स्टाइल कार्यप्रणाली के लिए जाने जाते हैं। सुनते हैं कि कुछ साल पहले एक शिकायत हुई थी, जिसमें बताया गया कि जिले के प्रशासनिक मुखिया अलग-अलग विभागों में किराए से गाड़ी चलवा रहे हैं। गाड़ी कागजों पर चल रही है और किराए की राशि खुद हजम कर जा रहे हैं। शिकायतों की कभी जांच नहीं हुई, लेकिन राजेश सिंह राणा चर्चा में जरूर रहे।
बलौदाबाजार कलेक्टर पद से हटने के बाद उन्हें महिला बाल विकास संचालक का दायित्व सौंपा गया था। बाद में उन्हें संयुक्त सचिव वाणिज्य एवं उद्योग का प्रभार दिया गया। अब यहां से भी उन्हें मुक्त कर धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है, जिसे महत्वहीन माना जाता है। इसी तरह रमन सिंह के संयुक्त सचिव रहे रजत कुमार संचालक आर्थिक एवं सांख्यिकी के पद पर पदस्थ किया गया है। हालांकि, उनके पास केंद्र सरकार के जनगणना निदेशालय का दायित्व भी है इसलिए उनका राज्य सरकार का बोझ हल्का किया गया है। जबकि रमन सरकार में वे बेहद पॉवरफुल रहे। उनकी हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे अपने सीनियर अफसरों से भी बैठकों में जवाब-तलब कर देते थे। ऐसा माना जाता था कि उनसे बड़े जो अफसर अपने से भी बड़े जिन अफसरों से सीधे टकराना नहीं चाहते थे, उनके सामने रजत कुमार का खड़ा कर देते थे। सूची में जाना पहचाना नाम चंद्रकांत उइके का भी रहा। उइके को वाणिज्यकर (आबकारी) संयुक्त सचिव के पद से हटाकर संचालक समाज कल्याण और प्रबंध संचालक निशक्तजन वित्त विकास निगम का प्रभार सौंपा गया है। उनके नाम सबसे ज्यादा तबादले का रिकॉर्ड है। उनका पिछले छह महीने में ही चार बार तबादला हो चुका है।
दिलचस्प बात यह है कि उन्हें तबादले से कोई शिकायत नहीं रहती और वे रूकवाने की कोशिश नहीं करते। जहां भी सरकार पोस्टिंग करती है अगले दिन खुशी-खुशी ज्वाइन कर लेते हैं, और अपने तबादलों की लंबी लिस्ट को हँसते-हँसते बताते रहते हैं, और जहां भेजे जाते हैं वहां भी अपने सीनियर को जाते ही बता देते हैं कि वे अधिक दिनों के लिए नहीं आए हैं। एक बार तो उनकी पोस्टिंग एक संवैधानिक दफ्तर में हो गई थी, वे वहां काम संभालने गए तो रिटायर्ड हाईकोर्ट जज ने उन्हें बैठने भी नहीं कहा, और उन्हें खड़े रखकर ही बात की, और कहा कि वे अपना ट्रांसफर कहीं और करा लें। इस पर चंद्रकात उईके ने खुशी-खुशी कहा कि वे खुद भी वहां काम करना नहीं चाहते, और उस दफ्तर में शायद कुर्सी पर बैठे बिना ही वे अगले तबादले पर चले गए।
बैठे-ठाले आलोचना का मौका दिया
ऐसा आमतौर पर नहीं होता है कि कोई सांसद अपनी ही पार्टी की किसी दूसरे प्रदेश की सरकार को अफसर की आलोचना करे, लेकिन मध्यप्रदेश के विवेक तन्खा ने छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव सुनील कुजूर की आलोचना करते हुए ट्वीट किया है। दरअसल मुख्यमंत्री के एक दौरे में एक हैलीपैड पर तैनात पुलिस इंस्पेक्टर ने सुनील कुजूर को नहीं पहचाना, और उनका पहचान पत्र मांग लिया। इस पर सुनील कुजूर ने इलाके के आईजी से शिकायत की, और आईजी ने आनन-फानन इस बुजुर्ग इंस्पेक्टर को निलंबित करके लाईन अटैच कर दिया। इस पर मध्यप्रदेश के कांग्रेस सांसद विवेक तन्खा ने ट्वीट किया है-मुख्य सचिव आप गलती पर हैं।
यह पुलिस की ड्यूटी है कि वे उच्च सुरक्षा के इलाके में आने वाले लोगों के पहचान पत्र की जांच करें। छत्तीसगढ़ एक बहुत ही संवेदनशील राज्य है, मुख्यमंत्री की जेड प्लस दर्जे की सुरक्षा है। ऐसे में आप किसी को उसकी ड्यूटी करने के लिए निलंबित नहीं कर सकते।
आमतौर पर विवादों से परे रहने वाले और सीधे-सरल सुनील कुजूर इस मामले में आलोचना से बच नहीं सकते। सुरक्षा व्यवस्था करने के लिए अगर किसी को निलंबित किया जाता है, तो कल के दिन बड़े लोग ही बड़े खतरे में पड़ेंगे। यह तो राज्य की बात है इसलिए यहां सुरक्षा व्यवस्था तोडऩा शान माना जाता है। केन्द्र सरकार में लोग काम करें, या प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था के भीतर पहुंचें, तो सबको सुरक्षा का सम्मान करना पड़ता है, या वहां से चले जाना पड़ता है। मुख्य सचिव बनने के बाद पहली बार सुनील कुजूर खबरों में आए, और गलत वजहों से आए। कायदे से तो उन्हें खुद ही पुलिस विभाग को मना करना था कि अपनी ड्यूटी करने वाली को कोई सजा न दे।([email protected])
ईद के मौके पर सीएम भूपेश बघेल ने पार्टी के सभी खेमे के नेताओं को साधने की कोशिश की है। वे ईद की बधाई देने अपने मंत्री मोहम्मद अकबर के घर गए। बाद में मोतीलाल वोरा के करीबी शेख निजामुद्दीन के घर जाकर उन्हें ईद की बधाई दी। वे डॉ. चरणदास महंत के करीबी हसन खान के घर भी गए, तो दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी के करीबी अब्दुल हमीद हयात के यहां भी जाकर उन्हें भी ईद की बधाई दी। युवा नेता एजाज ढेबर तो साथ-साथ ही रहे। भूपेश बघेल समय निकालकर भिलाई भी गए और वहां पूर्व मंत्री बदरूद्दीन कुरैशी को भी ईद की बधाई देने घर गए। सभी नेताओं ने भूपेश बघेल का गर्मजोशी से स्वागत किया, सेवाईयां खिलाई। कुल मिलाकर ईद के मौके पर उन्होंने पार्टी के सभी खेमे के नेताओं के यहां जाकर सकारात्मक संदेश दिया।
छह लाख को लडऩे मिलेगा
विधानसभा चुनावों में खासी दखल करने वाली जोगी की पार्टी लोकसभा में घर बैठ गई, और इस पर कहना यह था कि ये राष्ट्रीय चुनाव है इसलिए उसने तमाम सीटें अपने राष्ट्रीय भागीदार बसपा के लिए छोड़ दी हैं। लेकिन कुछ महीने बाद म्युनिसिपल और पंचायतों के जो चुनाव होने हैं उनमें जोगी पार्टी एक बार फिर दखल रखने वाली है, और विधानसभा चुनाव के मुकाबले अधिक दखल। विधानसभा में 90 उम्मीदवार ही रहते हैं लेकिन निगम-पंचायतों में दो लाख से अधिक उम्मीदवार रहेंगे, और छोटे-छोटे वार्डों में भी चुनाव का कड़ा मुकाबला रहेगा, और वहां जोगी का उम्मीदवार बनने के लिए लोग लंबी कतार में रहेंगे। अभी से यह चर्चा शुरू हो गई है कि भाजपा दिल्ली म्युनिसिपल और छत्तीसगढ़ के लोकसभा चुनाव की तरह सभी नए चेहरे उतारेगी। और कांगे्रस के भीतर भी यह सोच चल रही है कि पुराने लोगों को न उतारा जाए। जोगी की तो पार्टी ही नई है, इसलिए नए चेहरे ही रहेंगे। कुल मिलाकर म्युनिसिपल और पंचायतों के चुनाव में छह लाख चेहरे तो इन तीन पार्टियों के रहेंगे। करीब पौने दो लाख पंच-सरपंच पद हैं, और शहरी पार्षद मिलाकर दो लाख पार हो जाएंगे। यह पिछले दोनों चुनावों, विधानसभा और लोकसभा के मुकाबले अधिक कड़ा चुनाव होने जा रहा है क्योंकि जीत एक-दो वोट से भी होगी, और लोगों को अपने घर के वोट भी नहीं मिलने का पता चल जाएगा। ([email protected])
कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया ने पिछले दिनों कई नेताओं से वन-टू-वन मुलाकात की। मुलाकात में एक-दो ने खुद को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांग की। इनमें से एक ब्राम्हण नेता भी थे, जो अविभाजित मध्यप्रदेश में संगठन के कर्ता-धर्ता रह चुके हैं। आर्थिक रूप से सक्षम इस नेता की खासियत यह रही है कि राज्य बनने के बाद जितने भी प्रदेश प्रभारी रहे हैं, वे सभी इस ब्राम्हण नेता को महत्व देते रहे हैं। पुनिया भी पिछले प्रभारियों से अलग नहीं हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि जो पद वे मांग रहे हैं, उसके लिए वे किसी भी सूरत में फिट नहीं बैठ रहे हैं।
ब्राम्हण नेता का अच्छा-खासा जमीन का कारोबार है, लेकिन जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच उनकी पैठ नहीं है। मीडिया जगत से जुड़े पुराने लोग जरूर ब्राम्हण नेता को पसंद करते हैं। वे पद में भले न हों, मीडिया जगत के लोगों का पूरा ख्याल रखते हैं। पुनिया के सामने दिक्कत यह है कि इस ब्राम्हण नेता को निगम-मंडलों में जगह देने के लिए सीएम भूपेश बघेल शायद ही तैयार हो और प्रदेश संगठन में उनके लायक कोई पद नहीं है। पुनिया दुविधा में भले ही हो, ब्राम्हण नेता को उम्मीद है कि सेवा-सत्कार फायदा जरूर मिलेगा। दरअसल टीवी के परदे पर अपने को देखते हुए कई लोगों का ऐसा आत्ममुग्ध हो जाना कुछ अटपटी बात नहीं है।
ताकतवरों के बीच समझौता
पिछले कुछ समय से एक बड़े बंगले को लेकर चल रहा विवाद सुलझ गया है। बंगले के पुराने काबिजदार और आबंटी के बीच सुलह होने की चर्चा है। सुलह इस बात पर हुआ है कि काबिजदार, आबंटी के पैतृक मकान की साज-सज्जा कराएंगे। काबिजदार के लिए कोई बड़ी बात नहीं है, पिछले 15 सालों में वे कईयों को घर दिला चुके हैं। मौजूदा निवास से इतना भावनात्मक रिश्ता कायम हो गया है कि इसे छोडऩे के एवज में कोई भी जायज-नाजायज मांग मानने के लिए तैयार थे। जिन्हें बंगला आबंटित किया गया था उनकी मांग इतनी छोटी है कि उसे मानने में कोई दिक्कत नहीं है। और ऐसा कोई समझौता सरकार को भी प्रशासनिक-भावनात्मक असुविधा से बचा रहा है। इससे सदियों पुराना यह सिद्धांत भी साबित होता है कि ताकतवरों के बीच समझौते होने की गुंजाइश अधिक रहती है, और कमजोरों के बीच कम।
गरीब प्रदेश में ऐसी रईसी?
सरकार में फिजूलखर्ची अगर न हो, तो रिश्वतखोरी कैसे होगी? कमीशनखोरी कैसे होगी? अभी मुख्यमंत्री के अपने गृहजिले दुर्ग में वनविभाग के सबसे बड़े अफसर, वन संरक्षक के दफ्तर की अच्छी-भली चारदीवारी को तोड़कर वहां लोहे की महंगी ग्रिल लगाई जा रही है। आज पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण से जुड़े हुए इस विभाग में यह फिजूलखर्ची जारी है, और इससे धरती पर लोहा, सीमेंट, रेत की गैरजरूरी बर्बादी भी हो रही है। मजे की बात यह है कि मुख्यमंत्री की नजरों वाले जिले में यह काम नेता प्रतिपक्ष का सबसे ही करीबी अफसर करवा रहा है, और अभी चूंकि काम चल रहा है इसलिए सरकार इस बर्बादी की जांच भी कर सकती है।
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार में कई बड़े अफसरों के प्रमोशन की फाईल महीनों रूकी रहती है, और कई अफसरों की पोस्टिंग की फाईल भी। पुलिस के तीन आईजी प्रमोशन पाकर एडीजी बनने की कगार पर खड़े हैं, और महीनों निकल जाने से उन्हें कगार पर खड़े-खड़े चक्कर आने लगा है। इसी तरह वन विभाग में जब कई अफसर प्रमोशन पाकर, और कई अफसर दूसरे विभागों से वापिस भेजे जाने के बाद अरण्य भवन पहुंचे, तो महीनों तक वे बिना किसी पोस्टिंग के कमरों में एक साथ खाली बैठे निराशा में डूबे रहे, फिर धीरे-धीरे कुछ लोगों को काम मिला। अब जून के महीने में तीन पीसीसीएफ रिटायर होने वाले हैं, के.सी. यादव, ए.के. द्विवेदी, और कौशलेन्द्र सिंह। इनमें से एक पद पर अतिरिक्त पोस्टिंग चली आ रही थी, इसलिए अब आगे दो पद ही खाली रहेंगे। पहली जुलाई से खाली होने वाले इन दो पदों पर अतुल कुमार शुक्ला, और राजेश गोवर्धन वरिष्ठता के हिसाब से आ सकते हैं। इनमें से गोवर्धन वैसे भी वन मुख्यालय के बाहर हैं, और अतुल शुक्ला को प्रमोशन के बाद मुख्यालय से बाहर किसी और निगम, या वन्यप्राणी जैसे किसी डिवीजन में भेजा जा सकता है। लेकिन सरकार की जैसी रफ्तार है, हो सकता है कि यह प्रमोशन होने में, और इनकी नियुक्ति होने में भी कई महीने लग जाएं।
ऑपरेशन के बाद दूसरे अस्पताल
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक निजी अस्पताल में पथरी निकालने के झांसे में डॉक्टरों ने किडनी ही निकाल दी, ऐसे आरोप लगे हैं। अब किडनी कोई नाखून तो है नहीं कि जिसके निकलने की जांच न हो सके इसलिए हकीकत तो सामने आ जाएगी, लेकिन लोग अस्पतालों से कुछ डरने लगे हैं। अभी कुछ ही बरस हुए हैं जब स्वास्थ्य बीमा के कार्ड की रकम लूटने के लिए कई निजी अस्पतालों ने जवान महिलाओं के गर्भाशय बिना किसी जरूरत के निकाल दिए थे, और दसियों लाख रूपए की कमाई कर ली थी। उसमें बाद में मामला-मुकदमा भी दर्ज हुआ, प्रैक्टिस पर रोक भी लगी, लेकिन फिर शायद बात आई-गई हो गई। अभी-अभी दांतों को तार से बांधने की साजिश सामने आई, और अस्पतालों ने स्वास्थ्य बीमा कार्ड से मोटी लूटपाट कर ली, और वह बात भी आई-गई हो गई। अब अगर सचमुच ही किडनी निकाल दी गई है, तो यह मामला कुछ अधिक बड़ा है। अगर हाल ऐसा रहेगा तो फिर लोगों को एक अस्पताल में ऑपरेशन के बाद दूसरे अस्पताल जाकर वहां सोनोग्राफी और दूसरी जांच से बदन के हिस्से गिनवाने पड़ेंगे कि क्या-क्या कम है।
सड़क के किनारे दीवारों पर कई जगह लिखा मिला है कि यहां मूतने वाला गधे की औलाद है। लेकिन इसका कोई असर दिखता नहीं है। अभी स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी जब होटल-रेस्त्रां में गंदगी पकडऩे के लिए पहुंचे, तो राजधानी रायपुर में एक रसोईघर में उन्हें एक दिलचस्प नोटिस देखने मिला। सब्जियां रखने के कोल्डस्टोरेज में नोटिस लगा था- कोल्डस्टोरेज में थूकने वाला कुत्ते की औलाद है।
हिंदुस्तान में सीढिय़ों पर लोगों को थूकने से रोकने के लिए देवी-देवताओं के टाईल्स लगा दिए जाते हैं। अब रसोईघर के कोल्डस्टोरेज में सीढिय़ां तो हैं नहीं, इसलिए दीवार पर ऐसा नोटिस सरकारी उम्मीद को भी पूरा करता है कि किसी भी तरह सफाई बनी रहे।
मुस्कुराहट है कि...
लोकसभा चुनाव में 9 सीटें खोने और महज दो सीटें पाने के बाद भी प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के चेहरे से मुस्कुराहट गई नहीं है। दरअसल पौने दो दशक के संघर्ष से जो भरोसा मिला है, वह विपरीत स्थितियों में भी उनके हाव-भाव ठीक बनाए रखता है। अब चुनाव के बाद दूसरा झटका लगा महाधिवक्ता कनक तिवारी को हटाने का। शायद सरकार को यह उम्मीद नहीं थी कि कनक तिवारी उनकी बर्खास्तगी को इतना बड़ा मुद्दा बना लेंगे। उन्होंने मीडिया से बातचीत में बार-बार कहा कि उन्होंने कोई इस्तीफा नहीं दिया है। दूसरी तरफ कैमरों के सामने हँसते-मुस्कुराते भूपेश बघेल ने कहा कि उन्हें इस्तीफा मिल गया है, उसे मंजूर कर लिया गया है, और नया नाम तय कर लिया गया है। इस विवाद के बीच एक कानूनी समाचारों की वेबसाईट से कनक तिवारी ने यह भी कहा कि उनके पास बातचीत की रिकॉर्डिंग भी मौजूद है। यह बात बहुत सनसनीखेज, खतरनाक, और बवाल की हो सकती है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि एक वकील के रूप में महाधिवक्ता के लिए सरकार उसकी मुवक्किल है, और मुवक्किल की वकील के साथ बातचीत गोपनीय रहती है जिस बारे में वकील बाहर कुछ नहीं कह सकते। लेकिन कनक तिवारी प्रदेश के सबसे सीनियर वकील हैं, और अगर वे कुछ कह रहे हैं, तो वे कानून के जानकार तो हैं ही। लोगों का कहना है कि अभी वे एक घायल शेर जैसी दिमागी हालत में हैं, और वे कुछ भी कर सकते हैं। चुनावी नतीजों के बाद यह अगली परेशानी भूपेश बघेल के लिए कुछ जल्दी आ खड़ी हुई है, लेकिन उनकी मुस्कुराहट है कि चेहरे से जाती ही नहीं।
अपना टाईम आएगा?
राजनांदगांव लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भी जिले के पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के समर्थक अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतित हैं। वजह यह है कि नवनिर्वाचित सांसद संतोष पाण्डे वैसे तो रमन सिंह के ही खेमे के माने जाते रहे हैं, लेकिन उन्हें टिकट मिलने के बाद कई प्रमुख लोगों ने उनसे दूरियां बना ली थी। इन पदाधिकारियों को पद से हटाए जाने की संभावना जताई जा रही है। रमन सिंह, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं, लेकिन उन्हें कोई बहुत ज्यादा महत्व मिलता नहीं दिख रहा है। इससे रमन समर्थक चितिंत हैं।
सुनते हैं कि पिछले दिनों जिले के इन पदाधिकारियों ने रमन सिंह से मुलाकात की थी। और उनके भावी राजनीति कदमों पर चर्चा की। रमन सिंह ने उन्हें आश्वस्त किया कि अपना टाईम जल्द आएगा। दरअसल, अमित शाह के केन्द्र में मंत्री बनने के बाद जगतप्रकाश नड्डा को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा चल रही है। नड्डा के रमन सिंह से करीबी रिश्ते हैं। रमन से मुलाकात के बाद उनके समर्थकों भरोसा है कि आने वाले दिनों में न सिर्फ रमन सिंह बल्कि अभिषेक का भी कद बढ़ेगा।
कांग्रेस के छत्तीसगढ़ के एक प्रवक्ता आर.पी. सिंह को एक अखबार के संपादक के साथ-साथ छह महीने कैद सुनाई गई है। आर.पी. का बयान इस अखबार में छपा था जिस पर उस वक्त छत्तीसगढ़ सरकार के सबसे ताकतवर अफसर अमन सिंह और उनकी पत्नी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे, और उनके दुबई भाग जाने की बात कही गई थी। रायपुर की अदालत में यह तीसरा या चौथा ऐसा मामला है जिसमें अमन सिंह मानहानि का मुकदमा जीते हैं, और उन पर आरोप लगाने वाले लोगों को सजा हुई है। उनका दायर किया हुआ ताजा मुकदमा भोपाल की एक अदालत में है जिसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस के एक और प्रवक्ता विकास तिवारी पर मानहानि का केस किया है।
अदालतों का रूख सरकार से परे का भी रहता है, और चर्चाएं चाहे जो हों, अदालतों के फैसले कई बार सरकार या सत्तारूढ़ लोगों के खिलाफ भी आते हैं। ऐसे में कांगे्रस और भाजपा को, दोनों को अपने प्रवक्ताओं को मानहानि के कानून की थोड़ी सी समझ देना चाहिए। दोनों ही पार्टियों में बहुत से वकील हैं, और अदालतों से फैसले भी बहुत से होते रहते हैं, इसलिए मिसालें कम नहीं हैं। पार्टी के विधि प्रकोष्ठ और मीडिया प्रकोष्ठ को एक साथ बिठाकर दस-बीस फैसलों पर चर्चा होनी चाहिए। पार्टियों की बयानबाजी सुधर जाए तो उनके चक्कर में साथ में पिसने वाले अखबार भी बचेंगे। आमतौर पर लोगों के दिए गए बयानों पर अखबार भी कुछ लापरवाही बरततें हैं, और बातों को ज्यों का त्यों छाप देते हैं। मानहानि का कानून टीवी या अखबार को कोई रियायत नहीं देता है, इसीलिए बड़े-बड़े अखबारों के संपादक भी कम से कम जिला अदालतों से तो सजा पा ही जाते हैं, बाद में ऊपरी अदालत में पहुंचने तक या तो समझौते का रास्ता निकाला जाता है, या फिर फैसले पलटते भी हैं। कांग्रेस और भाजपा इन दोनों को चाहिए कि अपने प्रवक्ताओं और नेताओं को फिजूल की कानूनी दिक्कत में पडऩे से बचना सिखाएं क्योंकि सजा के लायक बयानबाजी हवा में गंदगी भी घोलती है।
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एक समय था जब दिल्ली में रमेश बैस की तूती बोलती थी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री तो थे ही, पार्टी के कर्ता-धर्ता लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज के करीबी रहे। उन्हें राज्य बनने के बाद प्रदेश की राजनीति में भेजने पर विचार भी हुआ था तब बैस मंत्री पद छोड़कर राज्य इकाई का अध्यक्ष पद सम्हालने के इच्छुक नहीं थे। बाद में रमन सिंह को यह जिम्मेदारी दी गई और फिर जो भाजपा सरकार बनने के बाद सीएम बने।
खैर, रमेश बैस का रूतबा तब भी कम नहीं हुआ। कुछ लोग याद करते हैं कि वीआईपी रोड स्थित एक होटल में पार्टी के बड़े नेता जुटे थे। इनमें मौजूदा पीएम नरेन्द्र मोदी भी थे जो कि उस वक्त गुजरात के सीएम थे। होटल में रमेश बैस ने विहिप नेता रमेश मोदी का परिचय नरेन्द्र मोदी से कराया और कहा कि आप दोनों मोदी हैं। बैसजी का अंदाज कुछ ऐसा था कि नरेन्द्र मोदी को पसंद नहीं आया। बात हंसी ठहाके में निकल गई। बाद में मोदी के पीएम बनने के बाद बैस को मंत्री बनने की उम्मीद थी। बड़ी संख्या में उनके समर्थक भी दिल्ली पहुंच गए थे, लेकिन उनका नंबर नहीं लगा। मोदी-अमित शाह के आने के बाद भाजपा की राजनीति में आडवानी के करीबी लोग हाशिए पर चले गए हैं। सुषमा स्वराज को दोबारा मंत्री नहीं बनाया गया। सात बार के सांसद बैसजी की टिकट ही कट गई। शत्रुघन सिन्हा को पार्टी छोडऩी पड़ी, राजीव प्रताप रूडी जैसे कुछ नेताओं ने जरूर समझदारी दिखाई और वक्त की नजाकत को समझते हुए आडवानी से दूरी बनाकर अमित शाह कैंप से जुड़ गए। इसका प्रतिफल उन्हें मिला और वे अभी भी सांसद हैं।
शपथ ग्रहण के न्यौते की मारमारी
प्रधानमंत्री-केन्द्रीय मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए राज्यों के नेताओं को भी आमंत्रण भेजा गया था। प्रदेश के कुल 78 नेताओं को ही निमंत्रणपत्र जारी किया गया था जिसमें विधायक और अन्य पदाधिकारी थे। कई को निमंत्रणपत्र नहीं मिल पाए तो कई राष्ट्रीय नेताओं की सिफारिश पर निमंत्रणपत्र पा गए। इन्हीं में से एक भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष संजू नारायण सिंह ठाकुर भी थे, जिनके लिए कैलाश विजयवर्गीय ने सिफारिश की थी और उन्हें निमंत्रणपत्र मिल गया।
सुनते हैं कि जब वे निमंत्रणपत्र लेने पीएमओ दफ्तर गए तो वहां पीयूष गोयल पहले से ही बैठे थे। सामान्य परिचय के बाद संजू नारायण ने उन्हें बताया कि वे पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। कैलाश विजयवर्गीय वहां के प्रभारी हैं। फिर क्या था पीयूष गोयल ने वहां तैनात अधिकारी को कहा कि सबसे पहले बंगाल में काम करने वालों को निमंत्रणपत्र दें। हिंसा के बीच बंगाल में काम करने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं की काफी पूछ-परख हुई। प्रदेश के कई नेता निमंत्रणपत्र नहीं मिल पाने के कारण शपथ ग्रहण में शामिल नहीं हो पाए। इनमें देवजी भाई पटेल भी थे। जबकि लाभचंद बाफना दूसरे का निमंत्रणपत्र लेकर शपथ ग्रहण में शामिल हुए।
पुनिया हारे वहां, समीक्षा यहां
खबर है कि प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी पीएल पुनिया के खिलाफ भी कई पार्टी नेताओं ने हाईकमान से शिकायत की है। यह कहा गया कि पुनिया लोकसभा चुनाव में बिल्कुल भी सक्रिय नहीं थे। वे पूरे चुनाव में यहां सिर्फ दो बार आए। उनका पूरा ध्यान उत्तरप्रदेश के बाराबंकी में लगा रहा, जहां उनके पुत्र चुनाव लड़ रहे थे। पुनिया के पुत्र की जमानत भी नहीं बच पाई। अलबत्ता, उन्होंने छत्तीसगढ़ के कई नेताओं से वहां खूब बेगारी कराई। अब वे यहां लोकसभा चुनाव में हार की समीक्षा करने आए हैं।
लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद प्रदेश भाजपा के कुछ समीकरण बदल गए हैं। पहले यह तकरीबन तय माना जा रहा था कि सौदान सिंह से छत्तीसगढ़ प्रभार वापस ले लिया जाएगा। सौदान के पास छत्तीसगढ़ के साथ-साथ ओडिशा, तेलंगाना और झारखंड का भी प्रभार है। इन सभी राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन बहुत बेहतर रहा है। हालांकि विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद छत्तीसगढ़ में कार्यकर्ताओं ने जिस तरह उन्हें हटाने की मांग की थी, वह काफी चौंकाने वाला था। आमतौर पर संगठन मंत्री पार्टी की गुटीय राजनीति से परे रहते हैं, लेकिन सौदान सिंह पर कुछ लोगों को ही महत्व देने का आरोप लगता रहा है। अब नतीजे अनुकूल आ गए हैं, तो उन्हें हटाने की आशंका भी खत्म हो गई है। सौदान सिंह से अब भी नाराज चल रहे कार्यकर्ता कहने लग गए हैं-बॉस इज बैक।
पंचतत्व भी लौटकर आते हैं...
जो लोग कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर फूहड़ मजाक करने में मजा पा रहे हैं उनको छत्तीसगढ़ देखना चाहिए। एक वक्त बेताज बादशाह की तरह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बनने वाले अजीत जोगी किस तरह पहले ही चुनाव में प्रदेश खो बैठे, पार्टी से निलंबित हो गए, और छह महीने बाद वे न सिर्फ पार्टी में वापिस थे, बल्कि लोकसभा के उम्मीदवार भी थे। सांसद बने, लेकिन उसके पहले ही सड़क दुर्घटना में वे इतना नुकसान पा चुके थे कि बाकी की जिंदगी पहियों की कुर्सी पर आ गई। जिन लोगों ने उनकी सेहत को लेकर ओछी अटकलें लगाई थीं, उन सबको गलत साबित करते हुए वे एम्बुलेंस में पूरे प्रदेश को नापते रहे, और राजनीति में कांग्रेस से निकलने के बाद भी बने रहे। दूसरी तरफ जोगी सरकार में मंत्री रहते हुए भी विपक्षी की तरह जीने को मजबूर भूपेश बघेल ने बाद के पन्द्रह बरस भी विपक्ष में गुजारे, और आज जोगी कहीं नहीं हैं, और भूपेश बेताज बादशाह की तरह चल रहे हैं। दो बरस पहले तक इस छत्तीसगढ़ में जिन अफसरों को मुख्यमंत्री रमन सिंह से भी अधिक ताकतवर कहा जाता था, वे आज थाने और कोर्ट में खड़े हैं।
इसलिए 68 बरस के नरेन्द्र मोदी के मुकाबले ठीक एक पीढ़ी छोटे 48 बरस के राहुल गांधी को एकदम से खारिज कर देना ठीक नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव आते-जाते रहते हैं, सत्ता आती-जाती रहती है, लोग आते-जाते रहते हैं। भारत की राजनीति में उन लोगों को भी दुबारा सत्ता में आते देखा गया है जो कि पंचतत्वों में विलीन मान लिए गए थे। इसलिए कब राख माथे का तिलक बन जाए, इसका कोई ठिकाना नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में रेणुका सिंह को भाजपा ने टिकट के लायक भी नहीं पाया था, लेकिन इस बार वे सौ फीसदी कांग्रेसी साबित सरगुजा से शान से जीतकर सांसद बनी हैं, और राज्य से अकेली केन्द्रीय मंत्री भी। अब भाजपा के भीतर भी जिन लोगों ने रेणुका सिंह को तिरस्कार से देखा था, वे आज सोशल मीडिया पर अपनी पहले की लिखी हुई बातों को मिटाने में लगे हैं। दुनिया में मिटाने के ऐसे काम के लिए पेशेवर एजेंसियां मौजूद हैं, लेकिन लोगों को उनकी सेवाएं न लेना पड़े तो ही बेहतर है। इसलिए कांग्रेस हो, या राहुल गांधी, या कि कोई और, किसी को पूरी तरह खारिज कर देना ठीक नहीं है।
लोग एक वक्त कहते थे कि जिनके घर शीशे के हों, उन्हें दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। अभी रेलवे रिजर्वेशन की वेबसाईट पर किसी एक सज्जन को बार-बार महिलाओं के भीतरी कपड़ों की बिक्री के कुछ विज्ञापन दिखे। उन्होंने ट्विटर पर रेलवे रिजर्वेशन से इसकी शिकायत की, तो उन्होंने एक सही तकनीकी जवाब पोस्ट कर दिया। उन्होंने लिखा- कि हम गूगल की एड सर्विस का टूल इस्तेमाल करते हैं जो कि वेबसाईट इस्तेमाल करने वालों की पहले की सर्च को दर्ज करते चलता है, और उनकी पसंद और उनके देखे हुए नेट-पेज के आधार पर उन्हें विज्ञापन दिखाता है। आप कृपया अपने कम्यूटर के ब्राऊजर से कुकीज और ब्राऊजिंग हिस्ट्री को मिटा दें ताकि ऐसे विज्ञापनों से बचें।
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देश के कुछ चुनिंदा मीडिया में इनकम टैक्स के हवाले से ऐसी एक बातचीत की खबर छपी है जो कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके सहयोगियों के बीच की बताई जा रही है। इसमें करोड़ों रुपये इधर से उधर मंगवाने या भेजने की चर्चा चल रही है। जिस अखबार में यह बातचीत छपी है, उसने इस इनकम टैक्स से हासिल करना बताया है। यह भी जाहिर है कि यह बातचीत कमलनाथ के सहयोगियों पर छापे पडऩे के पहले की है, यानी केंद्र सरकार की एजेंसियां लोगों पर निगाह इस तरह रख रही हैं कि छापों के पहले भी उनके खिलाफ सुबूत जुट जाएं।
आज सुबह जब वॉट्सऐप पर इस पूरी बातचीत का ब्यौरा फैला, तो छत्तीसगढ़ में भी कुछ अफसर और कुछ नेता मामूली फिक्र में आ गए कि अगर ऐसी निगरानी उनके फोन की भी रखी जाएगी, तो फिर वे पता नहीं कौन सी बात कर पाएंगे, और कौन सी नहीं। कुछ लोगों ने वैसे भी यह सावधानी बरतनी शुरू कर दी है कि नाजुक बात महज वॉट्सऐप पर की जाए, लेकिन पिछले दिनों यह खबर भी आई थी कि इजराइल की एक कंपनी ने ऐसी तकनीक इस्तेमाल की है जिससे वह वॉट्सऐप के रास्ते किसी के भी फोन में घुसकर उसकी तमाम जानकारी हैक कर सकी। दुनिया भर में, और खुद वॉट्सऐप कंपनी में इसे लेकर फिक्र खड़ी हो गई है।
छत्तीसगढ़ में पिछली रमन सरकार के वक्त कुछ अफसरों ने अंधाधुंध फोन टैपिंग की थी, जिसमें कानूनी भी थी, और गैरकानूनी भी थी। अब जब नई सरकार के पास फाईलें हैं, तो यह बात सामने आई कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के आज के सलाहकार, रूचिर गर्ग के फोन भी टैप किए गए थे, और उसके लिए सरकार ने इजाजत भी दी थी। जबकि पिछली सरकार लगातार यह दावा करती थी कि वह मीडिया के फोन टैप नहीं कर रही है, लेकिन जाहिर है कि यह एक ऐसी ताकत रहती है जिसके इस्तेमाल का लालच शायद ही किसी से छूटता हो।
मोदी सरकार ने पिछले बरस केंद्र सरकार की 10 एजेंसियों को फोन टैपिंग का अधिकार दिया, और अब इस तरह छत्तीसगढ़ में 12 अलग-अलग लोग तमाम फोन टैप कर सकते हैं। दस एजेंसियां केंद्र सरकार की, एक एजेंसी राज्य सरकार की, और एक अवैध फोन टैपिंग मशीन।
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विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद प्रदेश में लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से भाजपा हाईकमान खुश है। सुनते हैं कि पीएम नरेन्द्र मोदी ने विष्णुदेव साय की पीठ थपथपाई और कहा कि आप लोगों ने कमाल कर दिया। दरअसल, हाईकमान को इतने बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी। विधानसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी में हताशा का वातावरण था। पार्टी कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं की मौजूदगी लगातार कम हो रही थी।
कार्यकर्ताओं की नाराजगी भांपकर पार्टी ने सभी सांसदों की टिकट काटकर नए चेहरों को चुनाव मैदान में उतारा। पार्टी का यह प्रयोग सफल रहा। खास बात यह रही कि टिकट कटने के बाद भी सांसदों का गुस्सा नहीं फूटा। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह तक ने भी अपने बेटे अभिषेक की टिकट कटने का विरोध नहीं किया। जबकि पिछली बार अभिषेक की टिकट के लिए अड़ गए थे। और पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं की नाराजगी मोल ले ली थी। और तो और देश में पिछड़ा वर्ग को सबसे सीनियर सांसदों में से एक, और छत्तीसगढ़ के सबसे सीनियर सांसद रमेश बैस ने भी पूरे वक्त मुंह में गुटखा बनाए रखा, और नाराजगी का एक शब्द भी नहीं कहा।
ये अलग बात है कि मोदी फैक्टर की वजह से प्रदेश में भाजपा को बड़ी जीत मिली है, लेकिन टिकट नहीं मिलने के बावजूद पूर्व सांसदों के अनुशासित रहने की जमकर तारीफ भी हो रही है। इसका प्रतिफल भी मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री रमेश बैस को राज्यपाल बनाने जाने की चर्चा है। बाकी पूर्व सांसदों को भी संगठन में अहम जिम्मेदारी मिल सकती है।
रणविजय का क्या होगा?
कोरबा सीट से भाजपा प्रत्याशी ज्योतिनंद दुबे को कम मतों से हार का सामना करना पड़ा। पार्टी के कई लोग यह मानते हैं कि दुबे की जगह राज्यसभा सदस्य रणविजय सिंह को प्रत्याशी बनाया जाता, तो परिणाम पक्ष में आ सकता था। रणविजय पिछले तीन-चार साल से कोरबा लोकसभा क्षेत्र में काफी घूम रहे थे। उन्होंने कोरबा के सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपनी टीम खड़ी कर ली थी, लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दी।
जशपुर राजघराने के प्रमुख रणविजय शालीन और मिलनसार हैं। पार्टी ने उन्हें भविष्य की राजनीति को देखते हुए राज्यसभा में भेजा था, लेकिन विधानसभा चुनाव में जशपुर की तीनों सीट हाथ से निकल गई। इससे रणविजय की साख को भी धक्का लगा। राज्यसभा में बोलने लायक भी उनके पास कुछ था नहीं और वे वहां मूकदर्शक बने रहे। यही सब वजह है कि पार्टी ने उन्हें लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ाया। इन सबके बावजूद रणविजय ने रायगढ़ से भाजपा प्रत्याशी गोमती साय के लिए भरपूर मेहनत की। उनके प्रयासों को पार्टी हल्कों में काफी सराहा जा रहा है। रणविजय के राज्यसभा सदस्य के रूप में कार्यकाल को एक साल ही बाकी रह गया है। ऐसे में पार्टी उन्हें संगठन में कोई अहम जिम्मेदारी देकर उनका कद बढ़ा सकती है।
भारतीय चुनावी राजनीति इतने दिलचस्प रहती है कि उस पर रोजाना अनगिनत लतीफे बनते हैं, और लाखों लोगों को मौका मिलता है कि वे उन्हें अपने नाम से आगे बढ़ाते चलें। अब हरियाणा को लेकर एक लतीफा तीन दिन पहले सामने आया, और उसके देखा-देखी लोगों ने बाकी प्रदेशों पर भी ऐसे लतीफे गढ़ लिए।
हरियाणा
हरियाणा के बारे में किसी मजेदार इंसान ने लिखा-
सुरजेवाला खुश है कि हुड्डा नाम का कांटा निकाल दिया।
हुड्डा खुश है कि अशोक तंवर हार गया।
अशोक तंवर खुश है कि शैलजा हार गई।
शैलजा खुश है कि कुलदीप विश्नोई का बेटा हार गया।
कुलदीप विश्नोई खुश है कि सारी चौटाला फैमिली हार गई।
चौटाला फैमिली खुश है कि राहुल गांधी भी हार गया।
नवीन जिंदल खुश है कि चुनाव नहीं लड़ा।
हारी गई तमाम सीटों पर बाकी कांग्रेसी खुश हैं कि अगली बार उनकी बारी उम्मीदवारी के लिए आ सकती है।
कुल मिला के हरियाणा में खुशी का माहौल है।
मध्यप्रदेश
इसके बाद किसी ने मध्यप्रदेश के ऊपर इसे ढाल दिया और लिखा-
कमलनाथ खुश हैं कि दिग्विजय और ज्योतिरादित्य दोनों निपट गए, और अपना बेटा किसी तरह खींचतान कर निकल गया।
दिग्विजय सिंह खुश हैं कि ज्योतिरादित्य चुनाव में निपट गया, और कमलनाथ का पूरा प्रदेश निपट गया, और राहुल गांधी के सामने बेटे की वजह से कमलनाथ खुद भी निपट गया।
ज्योतिरादित्य खुश हैं कि दिग्विजय भी निपटे, और मुख्यमंत्री की हैसियत से कमलनाथ भी। पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से भी कमलनाथ निपट गए, और अर्जुन सिंह का बेटा राहुल भी निपट गया। आखिर में उनके खुद के अध्यक्ष बनने के आसार भी आ गए।
दिग्विजय, ज्योतिरादित्य, राहुल सिंह, सभी खुश हैं कि कमलनाथ के बेटे की लीड एकदम शर्मनाक है, और मुख्यमंत्री पर पुत्रमोह में अंधे होने की तोहमत कांग्रेस कार्यसमिति में लगी है।
ये सभी नेता खुश हैं कि राहुल गांधी भी हार गए, और अब किसी का भी कुछ बोलने का मुंह बचा नहीं है, और अगर नया कांग्रेस अध्यक्ष बनना है तो हर कोई अपनी बारी मानकर चल रहा है।
कांग्रेस के सभी उम्मीदवार खुश हैं कि बाकी सभी 28 में से 27 उम्मीदवार भी हार गए हैं, और अकेले वे नाकामयाब नहीं रहे।
हारी गई तमाम सीटों पर बाकी कांग्रेसी खुश हैं कि अगली बार उनकी बारी उम्मीदवारी के लिए आ सकती है।
कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव रिजल्ट के बाद से मध्यप्रदेश में सभी कांग्रेस नेता खुश हैं, और चारों तरफ खुशी का माहौल है।
छत्तीसगढ़
अब छत्तीसगढ़ को देखें, तो यहां टी.एस. सिंहदेव खुश हैं कि भूपेश बघेल और ताम्रध्वज साहू के गृह जिले में कांग्रेस सबसे बुरी तरह हारी है, और पौने चार लाख से अधिक की लीड भाजपा को मिली है।
भूपेश बघेल खुश हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव की एक सीट को उन्होंने दोगुना कर दिया है, जबकि मध्यप्रदेश में दो सीटें घटकर एक हो गई हैं। वे इसलिए भी खुश हैं कि टी.एस. सिंहदेव के सरगुजा में भी कांग्रेस निपट गई, और ताम्रध्वज साहू कहीं भी साहू वोट कांग्रेस को नहीं दिला पाए, धनेन्द्र साहू और भोलाराम साहू दोनों हार गए। वे इसलिए भी खुश हैं कि टी.एस. सिंहदेव को जिस ओडिशा का प्रभारी बनाया गया था, वहां कांग्रेस का सफाया हो गया है।
ताम्रध्वज साहू इसलिए खुश हैं कि भूपेश बघेल की पसंद पर प्रतिमा चंद्राकर और अटल श्रीवास्तव को टिकट मिली थी, और दोनों हार गए। वे इसलिए भी खुश हैं कि सरगुजा और ओडिशा दोनों जगह कांग्रेस की हार की तोहमत टी.एस. सिंहदेव पर लगेगी। वे इसलिए भी खुश हैं कि राहुल गांधी के सामने अब यह आसानी से साबित हो जाएगा कि एक साहू को मुख्यमंत्री न बनाने से नाराज लोगों ने कांगे्रस को करीब-करीब हर सीट पर हरा दिया। वे और टी.एस. सिंहदेव इसलिए भी खुश हैं कि पूरे राज्य का जिम्मा मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल का है जो 11 में से नौ सीटें गंवा बैठे हैं।
मुख्यमंत्री पद के चौथे दावेदार या हकदार रहे चरणदास महंत इसलिए खुश हैं कि उनकी पत्नी ऐसी मोदी-सुनामी में भी सांसद बन गई हैं, और इसके लिए वे अकेले तारीफ के हकदार हैं, और बाकी तीनों सीएम-दावेदारों के इलाकों में कांग्रेस निपट गई।
सभी उम्मीदवार और सभी नेता इसलिए भी खुश हैं कि राहुल गांधी भी हार गए हैं, तो अब उन्हें कोई उलाहना देने वाला कोई बचा नहीं है।
हारी गई तमाम सीटों पर बाकी कांग्रेसी खुश हैं कि अगली बार उनकी बारी उम्मीदवारी के लिए आ सकती है।
कुल मिलाकर पूरे राज्य में कांग्रेस में खुशी का माहौल है।
भोपाल को कांग्रेसी सांसद नसीब
कांग्रेस भले ही भोपाल लोकसभा सीट नहीं जीत सकी, लेकिन उसे एक सांसद जरूर मिल गई। छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत की पत्नी और कोरबा की सांसद श्रीमती ज्योत्सना महंत भोपाल की ही रहने वाली हैं। ज्योत्सना की शिक्षा-दीक्षा भोपाल में हुई। उनके पिता रामसिंह मध्यप्रदेश सरकार में अफसर थे। ज्योत्सना का मायका भोपाल के अरेरा कॉलोनी में है। डॉ. महंत, दिग्विजय सिंह के ही सबसे करीबी साथियों में गिने जाते हैं। ऐसे में भोपाल से भले ही दिग्विजय सिंह की हार हो गई है, लेकिन ज्योत्सना महंत के रूप में भोपाल को कांग्रेसी सांसद मिल गया है।
भूपेश कैबिनेट के एक रिक्त पद के लिए कई विधायकों की दावेदारी मजबूत हो गई है। इनमें से अमरजीत भगत और रामपुकार सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। दोनों ही लोकसभा चुनाव में अपनी सीट से पार्टी प्रत्याशी को बढ़त दिलाने में सफल रहे। वैसे तो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू, सत्यनारायण शर्मा और अमितेश शुक्ल का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता रहा है। तीनों कैबिनेट में जगह नहीं मिलने पर नाराजगी भी जता चुके हैं। मगर, लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उनकी दावेदारी कमजोर कर दी है।
धनेन्द्र लोकसभा का चुनाव हार गए। जबकि सत्यनारायण शर्मा के क्षेत्र से पार्टी प्रत्याशी बुरी तरह पिछड़ गए। सत्यनारायण के क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी को सर्वाधिक 63 हजार से अधिक मतों की बढ़त मिली। इसी तरह अमितेश भी अपने यहां से बढ़त दिलाने में विफल रहे। और शायद इसी बात को ढांकने के लिए राजिम विधानसभा के बहुत से कांगे्रस पदाधिकारियों ने धनेन्द्र पर ही आरोप लगाते हुए पद छोड़ दिए हैं।
सुनते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष पद पर भी जल्द नियुक्ति होगी। भूपेश ने पार्टी हाईकमान को अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त करने का आग्रह किया है। ऐसे में माना जा रहा है कि अमरजीत भगत को कोई अहम जिम्मेदारी मिल सकती है।
जीत से दिक्कत टली
मी टू मामले में फंसे नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक को फिलहाल राहत मिल गई है। वजह यह है कि प्रदेश में लोकसभा चुनाव में अच्छी सफलता मिली है। आरोप लगने के बाद से कौशिक मीडिया के सामने नहीं आ रहे थे, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद पार्टी दफ्तर में चहकते दिखे। पार्टी हाईकमान के पास कौशिक के खिलाफ शिकायतों पर चर्चा की फुर्सत नहीं है। पार्टी के रणनीतिकार केन्द्र में सरकार गठन की तैयारियों में जुटे हैं। इन सबके बावजूद प्रदेश संगठन के एक प्रमुख पदाधिकारी ने महामंत्री (संगठन) को कौशिक के प्रकरण को गंभीरता से लेने की सलाह दी है और उन्हें पार्टी हाईकमान से चर्चा करने का आग्रह किया है। हालांकि, कौशिक के खिलाफ आरोपों से जुड़ी वीडियो और अन्य सामग्री पहले ही हाईकमान को भेजी जा चुकी है। भाजपा विधायक दल के कई सदस्य कौशिक को तुरंत पद से हटाने के पक्ष में बताए जाते हैं। बावजूद इसके हाईकमान तुरंत कोई फैसला लेगा, यह नजर नहीं आ रहा है। देश और प्रदेश में भाजपा की भारी जीत कौशिक को किसी खतरे से फिलहाल तो बचा ले गई है।
जांच के बाद भी कुसूरवार...
प्रदेश में सबसे कमाऊ कुर्सियों में से एक, दुर्ग के आरटीओ एक मुसीबत में फंसे। अपने बेटे की एक फिल्म पूरे दफ्तर को दिखाने के लिए दफ्तर में ताला डालकर सबको ले गए, और इसकी शिकायत पर परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर ने जांच के आदेश दिए हैं। जांच हो गई, रिपोर्ट आ गई, लेकिन कार्रवाई के आदेश होने पर भी वह फाईल ऊपर, नीचे, दाएं, बाएं, कई जगह सोच-समझकर भेजी जाती रही, और कुल मिलाकर आरटीओ को फिलहाल तो जानबख्शी मिल गई दिखती है। अगर कोई फाईल को देखे, तो साफ समझ आ जाएगा कि कैसे-कैसे इस कुसूरवार अफसर को बचाया गया। और बचाने में फाईल से परे की ताकतें भी लगी रहीं जिसका एक ऑडियो-सुबूत दुर्ग जिले में ही मौजूद है। हो सकता है कि चुनाव आचार संहिता के चलते यह काम भी थमा हुआ हो, लेकिन यह ऑडियो रिकॉर्डिंग फैली, तो सवाल उठेगा कि ऐसे अफसर को हटाने में आचार संहिता तो आड़े आ नहीं रही थी। मुख्यमंत्री का अपना जिला ऐसा मामला दर्ज कर रहा है। आगे-आगे देखे होता है क्या।
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नरेन्द्र मोदी ने शनिवार को अपने भाषण में नवनिर्वाचित सांसदों को मंत्री पद के लिए किसी तरह लाबिंग नहीं करने की नसीहत दी है। उन्होंने कहा कि इस देश में कई ऐसे नरेंद्र मोदी बैठ गए हैं जिन्होंने मंत्रिमंडल बना दिया है, ये सबसे बड़ा संकट है। मंत्री बनाने के नाम पर किसी के बहकावे में नहीं आइए। मीडिया वाले जो नाम चला रहे हैं भेद पैदा करने, अफवाह फैलाने के लिए, बदनीयत से कर रहे हैं। दायित्व बहुत कम लोगों को ही दे सकते हैं, कोई पहुंच जाए कि मेरा खास है, कर देता हूं। फोन करके कहते हैं कि मंत्री बना दिया है, ऑफिशियल कॉल भी आए जाए तो वैरिफाई करें।
उन्होंने एक किस्सा सुनाया कि दिल्ली में एक बार रमन सिंह अपने कैबिनेट के सदस्यों का नाम तय कर रहे थे। इस दौरान उनके पास एक सिफारिश आई, जिसमें कहा गया कि मोदीजी ने फलां विधायक को मंत्री बनाने के लिए कहा है। बाद में वह विधायक मेरे पास गुजरात आ गया। तब मैं मुख्यमंत्री था। उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया कि मोटा भाई मैं आपकी सिफारिश से मंत्री बन रहा हूं। जबकि मैंने किसी की सिफारिश ही नहीं की थी। उन्होंने सांसदों को सतर्क किया कि संगठन के लोग या फिर कोई सांसद, कोई यह कहे कि मैंने आपके लिए मंत्री पद की सिफारिश की है तो उनकी बात भी न मानें। बिजनेसमैन से लेकर हर तरह के लोग ऐसे मौके पर सक्रिय हो जाते हैं। मोदी ने कहा कि सिर्फ अनुभव और योग्यता के आधार पर मंत्री बनाए जाएंगे। इसके लिए किसी तरह की भागदौड़ की जरूरत नहीं है। मोदी का भाषण सुनने के बाद प्रदेश के पार्टी नेता उस विधायक का नाम जानने के उत्सुक हैं जो कि मोदी का नाम लेकर यहां रमन मंत्रिमंडल का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहा था। मोदी ने सांसदों को खुद के प्रचार-प्रसार से दूर रहने की सलाह दी।
सुनील सोनी को बधाई मिली
पहली बार संसद पहुंचे सुनील सोनी से पार्टी के बड़े नेताओं ने गर्मजोशी से मुलाकात की। राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने उन्हें देखते ही कहा, अच्छे दिन आ गए। जगत प्रकाश नड्डा और धर्मेन्द्र प्रधान ने भी सुनील सोनी को बधाई दी। प्रदेश के अन्य नवनिर्वाचित सांसद भी अन्य राष्ट्रीय नेताओं से मेल-मुलाकात और जान-पहचान बढ़ाने में लगे रहे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय ने सभी सांसदों को अपने निवास पर भोज का न्यौता दिया। इसमें सांसदों के अलावा दोनों राज्यसभा सदस्य भी पहुंचे थे। प्रदेश से मंत्री कौन बनेगा, इसको लेकर पार्टी में चर्चा चल रही है, लेकिन नवनिर्वाचित सांसद शांत हैं। क्योंकि मोदी ने सभी को किसी तरह की लाबिंग नहीं करने की सख्त हिदायत दे रखी है।
भाजपा के लिए कांकेर लोकसभा सीट कठिन रही है। पिछले तीन चुनाव में पार्टी प्रत्याशी मामूली अंतर से जीतते रहे हैं। इस बार का चुनाव पहले की तुलना में ज्यादा कठिन था। विधानसभा चुनाव में यहां की सारी सीटें हाथ से निकल गई, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वापसी की। पार्टी प्रत्याशी मोहन मंडावी किसी तरह चुनाव जीतने में सफल रहे। मोहन मंडावी को चुनाव जिताने में मोदी फैक्टर के अलावा प्रदेश अध्यक्ष विक्रम उसेंडी की अहम भूमिका रही है।
सुनते हैं कि महामंत्री (संगठन) पवन साय ने प्रचार के शुरूआती दौर में पार्टी प्रत्याशी का बुरा हाल देखकर विक्रम उसेंडी को कांकेर लोकसभा से बाहर कदम नहीं रखने की सलाह दी थी। उसेंडी ने पवन साय का कहा माना और आखिरी दिन तक कांकेर लोकसभा में ही डटे रहे। मोहन मंडावी को सबसे ज्यादा बढ़त अंतागढ़ विधानसभा सीट से मिली, जहां से उसेंडी चार बार विधायक रहे हैं। उसेंडी की मेहनत रंग लाई और सीट पर भाजपा का कब्जा बरकरार रहा।
रामविचार उम्मीद से
राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम काफी खुश हैं। वजह यह है कि सरगुजा से भाजपा प्रत्याशी रेणुका सिंह ने अपनी जीत का श्रेय मोदी सरकार की नीतियों और रामविचार नेताम को दिया है। सरगुजा जिले की राजनीति में रामविचार और रेणुका सिंह एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते रहे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में रामविचार ने रेणुका को जिताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। इससे पहले विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी सिद्धनाथ पैकरा और रामकिशुन सिंह ने अपनी हार के लिए रामविचार नेताम को जिम्मेदार ठहराया था और इसकी शिकायत पार्टी हाईकमान से की थी।
रामविचार आदिवासी मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। ऐसे में उन्हें अपनी साख बचाने के लिए सरगुजा में पार्टी उम्मीदवार को जिताना जरूरी भी हो गया था। विपरीत परिस्थितियों में भाजपा की जीत से रामविचार का कद बढ़ा है और जिस अंदाज में रेणुका ने उनकी तारीफों के पुल बांधे हैं, उससे अब उनके समर्थक उनके लिए केंद्र में मंत्री पद की आस संजोए हुए हैं।
अडानी की भी बधाई
रेणुका सिंह को जीत के बाद बधाई देने वालों का तांता लगा है। सुनते हैं कि बधाई देने वालों में अडानी समूह के प्रमुख गौतम अडानी भी थे। यह बात खुद रेणुका ने अपने आसपास के लोगों को बताई। वैसे अडानी का सरगुजा में काफी काम है। ऐसे में समूह के लोग स्थानीय नेताओं से व्यवहार खूब निभाते हैं। इसी चक्कर में टीएस सिंहदेव का कुछ नुकसान भी हो गया था। सिंहदेव सीएम पद के दावेदार रहे हैं, जब उनका नाम प्रमुखता से चल रहा था तब गुजरात के एक कांग्रेस विधायक ने सिंहदेव का नाम लिए बिना ट्वीट किया कि अडानी का मित्र सीएम बनने वाला है। इससे पार्टी हल्कों में खलबली मच गई और सिंहदेव को नुकसान उठाना पड़ा।
सिंहदेव ने गिनाया दुर्ग संभाग
लोकसभा चुनाव में सरगुजा राजघराने के मुखिया टीएस सिंहदेव अपनी विधानसभा सीट अंबिकापुर से पार्टी प्रत्याशी खेलसाय सिंह को बढ़त नहीं दिला सके। लेकिन उनके विरोधी माने जाने वाले अमरजीत भगत ने अपनी सीट सीतापुर से कांग्रेस प्रत्याशी को अच्छी खासी बढ़त दिलाई। सीतापुर अकेली सीट थी जहां से कांग्रेस प्रत्याशी को बढ़त मिली है। ऐसे में मंत्रिमंडल में अमरजीत का दावा काफी पुख्ता हो गया है। टीएस सिंहदेव के लिए राहत की बात यह रही कि सीएम भूपेश बघेल और गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू के क्षेत्र से भी पार्टी प्रत्याशी को बढ़त नहीं मिल पाई। सिंहदेव ने नतीजों के बाद यह गिना भी दिया है कि दुर्ग संभाग में राज्य के आधे मंत्री हैं, और फिर भी नतीजे ऐसे क्यों आए इस पर सोच-विचार होना चाहिए। दुर्ग संभाग में दुर्ग और राजनांदगांव, दोनों लोकसभा सीटें भाजपा ले गई है, और बात फिक्र की तो है ही।
कोई और बहाना ढूंढ लें...
आमसभा के चुनावी नतीजे तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इज्जत बढ़ा गए, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भाजपा की इज्जत बचा भी गए। लेकिन सबसे बड़ी इज्जत अगर किसी की बची है, तो वह ईवीएम की है, जिसे जालसाजी का सामान बताया जा रहा था, और जिसे हटाकर फिर से कागज का वोट लाने की बात हो रही थी। अभी-अभी चुनाव आयोग के इक_ा किए हुए आंकड़े बताते हैं कि 542 लोकसभा सीटों के तहत आने वाले तमाम चार हजार से अधिक विधानसभा सीटों पर जिन 20625 वीवीपैट मशीनों से कागज की पर्चियां निकालकर ईवीएम में दर्ज वोटों से मिलाकर देखा गया, तो उनमें एक वोट का भी फर्क नहीं आया। उम्मीद है कि अब किसी के शक के आधार पर ईवीएम को घरनिकाला नहीं दिया जाएगा। बीस हजार से अधिक मशीनों पर डले वोटों में एक वोट का भी फर्क न आए, इससे अधिक कठिन अग्निपरीक्षा और क्या हो सकती है? हारने वाले नेताओं और पार्टियों को अगले चुनाव के पहले किसी और बहाने की तलाश करनी चाहिए। वैसे भी झूठे बहानों का नफा पाने वाले लोग आगे चलकर नुकसान के सिवाय और कुछ नहीं पाते।
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कांग्रेस विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन लोकसभा चुनाव में नहीं दोहरा सकी। जिस तरह विधानसभा चुनाव में जबरदस्त सफलता मिली थी, लोकसभा चुनाव में उसी अंदाज में हार का सामना करना पड़ा। ये अलग बात है कि पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में पार्टी की एक सीट बढ़ी है। जबकि विधानसभा चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन के बाद प्रदेश के नेताओं की पूछ परख काफी बढ़ गई थी। सीएम भूपेश बघेल पार्टी के स्टार प्रचारक थे। वे उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। इसी तरह टीएस सिंहदेव को ओडिशा में चुनाव का प्रभारी बनाया गया था। सिंहदेव ने सरगुजा से ज्यादा समय ओडिशा में दिया, लेकिन वहां पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई। सीएम भूपेश बघेल भी लाव-लश्कर लेकर अमेठी में राहुल गांधी के चुनाव प्रचार के लिए गए थे, लेकिन राहुल को पहली बार हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं, प्रदेश के नेता प्रभारी पीएल पुनिया के बेटे बाराबंकी में चुनाव प्रचार में भी लगे रहे, लेकिन पुनिया के बेटे तनुज पुनिया की जीत तो दूर, उनकी जमानत भी नहीं बच पाई। कुल मिलाकर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को न सिर्फ छत्तीसगढ़ में, बल्कि दूसरे राज्यों में भी झटका लगा है।
बैस के जाने से फर्क नहीं पड़ा
सुनील सोनी की रिकॉर्ड वोटों से जीत से भाजपा के ही दिग्गज नेता हैरान हैं। इतनी बड़ी जीत की उम्मीद किसी को नहीं थी। वह भी तब जब सात बार के सांसद रमेश बैस की टिकट काटकर सुनील सोनी को दी गई। बैस की ग्रामीण इलाकों में अच्छी पकड़ है, और रायपुर संसदीय सीट का जातिगत समीकरण भी बैस के पक्ष में माना जाता था, इसलिए उनकी टिकट कटने से नुकसान का अंदेशा जताया जा रहा था। मगर, मोदी लहर ने इतनी बड़ी लीड दी जितनी कि राज्य बनने के बाद के तमाम लोकसभा चुनावों की रमेश बैस की लीड जोड़ दिया जाए तो भी वह सुनील सोनी की लीड 3 लाख 48 हजार तक नहीं पहुंचती है। पिछले चुनाव में बैस ने सत्यनारायण शर्मा को पौने 2 लाख वोटों से हराया था, लेकिन इस चुनाव में पिछले चुनाव की तुलना में जीत का अंतर दोगुना रहा है। वैसे भी बैस की नैय्या कभी अटल लहर या कांग्रेस विरोधी लहर के सहारे पार होती रही है, इस बार सुनील सोनी ने रायपुर सीट को बैस के मुकाबले एक नौजवान चेहरा दे दिया है जो इतनी लीड के सहारे अगले चुनाव में जारी भी रह सकता है।
यह जीत संघ की मेहनत से...
राजनांदगांव सीट से संतोष पाण्डेय की जीत काफी चौंकाने वाली रही है। वजह यह है कि राजनांदगांव में दूसरे चरण में मतदान हुआ था। तब वहां मोदी फैक्टर प्रभावी होगा, ऐसा नहीं लग रहा था। वैसे भी पार्टी ने पूर्व सीएम रमन सिंह के पुत्र अभिषेक सिंह की टिकट काटकर संतोष पाण्डेय को प्रत्याशी बनाया था। सरल स्वभाव के संतोष पाण्डेय आरएसएस के पसंदीदा रहे हैं। उस समय पार्टी के भीतर यह भी चर्चा रही कि अभिषेक की टिकट कटने की दशा में रमन सिंह, राजिन्दरपाल सिंह भाटिया को टिकट चाहते हैं। होली के बाद रमन निवास पर जनता कांग्रेस के विधायक देवव्रत सिंह और राजिन्दरपाल सिंह भाटिया की मीटिंग भी हुई थी। उससे भी यही संकेत गया था। खैर, संतोष पाण्डेय को आरएसएस के सुझाव पर टिकट दी गई। आरएसएस ने सबसे ज्यादा मेहनत राजनांदगांव में ही की थी। वैसे तो अभिषेक को चुनाव संचालक बनाया गया था, लेकिन रमन सिंह समर्थकों की अरूचि को देखकर समानान्तर संचालन भी होता रहा। चुनाव प्रबंधन में माहिर पूर्व मंत्री मोहम्मद अकबर कांग्रेस प्रत्याशी के चुनाव संचालक थे और कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में जातिगत अंकगणित भी था। फिर भी आरएसएस की सक्रियता के चलते मतदान के पहले तक शहर और कस्बों में मोदी लहर दिखने लग गया था। आखिरकार संतोष पाण्डेय एक बड़े अंतर से चुनाव जीतने में सफल रहे।
मी टू में फंसे नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। प्रदेश संगठन जरूर कौशिक का बचाव कर रहा है, लेकिन पार्टी हाईकमान इसको लेकर गंभीर दिख रहा है। सुनते हैं कि हाईकमान ने महिला के आरोपों की वीडियो क्लिप मंगवाई है और देर शाम तक सारी जानकारी भेज भी दी गई। यही नहीं, मंगलवार को दिल्ली में अमित शाह के रात्रि भोज के मौके पर भी कुछ नेता इस प्रकरण पर बतियाते रहे। हाईकमान इस पूरे प्रकरण को लेकर गंभीर इसलिए है कि नेता प्रतिपक्ष के चयन के दौरान कौशिक की गैरमौजूदगी में एक पूर्व मंत्री ने उनके आचरण को लेकर काफी कुछ कहा था तब पार्टी नेता सन्न रह गए थे।
कौशिक का यह बयान भी लोगों को हजम नहीं हो रहा है कि दो साल तक महिला क्या कर रही थी। इस पर महिला के वकीलों का कहना है कि कौशिक के करीबी प्रकाश बजाज के खिलाफ पुलिस से लेकर तत्कालीन सीएम डॉ. रमन सिंह से भी मिलकर महिला ने छेड़छाड़ की शिकायत की थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। जब प्रकाश बजाज जैसे मामूली नेता पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी तो कौशिक जैसे बड़े प्रदेशाध्यक्ष पर क्या कार्रवाई होती? सरकार बदली तो उनकी शिकायत पर अब जब प्रकाश बजाज पर कार्रवाई हुई, तो इसके बाद शिकायतकर्ता महिला का हौसला बढ़ा। खैर, कांग्रेस ने यह कह दिया कि कौशिक जिस एजेंसी से जांच कराना चाहे, वे इसके लिए तैयार हैं। अब कौशिक के अगले कदम पर निगाहें टिकी हुई है। अभी जब तक दिल्ली में एनडीए की सरकार बन न जाए, तब तक तो कौशिक के हिमायती यह चुनौती भी नहीं दे सकते कि मामले की सीबीआई से जांच करा ली जाए। महिलाओं की शिकायत मनमाने तरीके से खारिज करने के नुकसान देश भर में जगह-जगह समय-समय पर आते रहे हैं, और छत्तीसगढ़ में धरम कौशिक को लेकर पहले से कई अप्रिय चर्चाएं हवा में रही हैं, इसलिए इस शिकायत को खारिज करना भाजपा के कई लोगों के गले नहीं उतर रहा है। फिलहाल भाजपा नेत्री हर्षिता पांडेय महिला आयोग के अध्यक्ष पद पर नहीं हैं, इसलिए बखेड़ा बढऩे पर इसी आयोग से कोई नोटिस भी आ सकता है।
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के दामाद, एक सरकारी डॉक्टर को प्रदेश का एक वक्त का अकेला मेडिकल कॉलेज अस्पताल सौंप दिया गया था कि उसे सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बनाया जाए। दाऊ कल्याण सिंह दानदाता थे, और उनके नाम पर इसे डी.के. अस्पताल नाम से जाना जाता था। बाद में मेडिकल कॉलेज का नया अस्पताल बना तो छत्तीसगढ़ राज्य बनने पर इसी इमारत में मंत्रालय खुला और एक दशक से ज्यादा चलता रहा। जब मंत्रालय नया रायपुर गया, तो एक बार फिर इसे अस्पताल बनाने का काम हुआ। ऐसे में मेडिकल कॉलेज में नेफ्रोलॉजी के विशेषज्ञ डॉ. पुनीत गुप्ता को यह जिम्मा दिया गया, और जाहिर है कि सीएम का दामाद होने की वजह से उन्हें खुली छूट भी दी गई कि वे तेज रफ्तार से इसे एक शानदार अस्पताल बनाएं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से ऐसा कोई भी वक्त नहीं रहा जब स्वास्थ्य विभाग प्रदेश का सबसे भ्रष्ट विभाग न रहा हो। हाल ही में यह तस्वीर बदली है जब कांगे्रस सरकार के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव अस्पतालों पर अपनी जेब का पैसा खर्च कर रहे हैं बजाय अस्पतालों के पैसों से जेब भरने के। रमन सरकार में एक सबसे ताकतवर मंत्री अजय चंद्राकर स्वास्थ्य मंत्री थे, और सुब्रत साहू जैसे स्वास्थ्य सचिव थे जिनके पिता ओडिशा में चीफ सेक्रेटरी रह चुके थे। ऐसे लोगों के रहते हुए उनके विभाग में खूब चर्चित डी.के. अस्पताल में जिस रफ्तार से नियम-कायदे तोड़कर करोड़ों खर्च हुए, और बैंक से फर्जी कागजातों पर कर्ज लिया गया, उनमें से कोई भी बात इन दोनों लोगों की अनदेखी से हो नहीं सकती थी। जिस पंजाब नेशनल बैंक से करीब पौन सौ करोड़ रुपये का यह कर्ज लिया गया, वहां के उस वक्त के मैनेजर ने खुलासा किया है कि इस कर्ज के पीछे सरकार की मंजूरी थी, सरकार की गारंटी थी, और अस्पताल की कमेटी में स्वास्थ्य मंत्री, स्वास्थ्य सचिव, और रायपुर के कलेक्टर मेंबर थे। वैसे तो आज पुलिस की जांच डॉ. पुनीत गुप्ता को घेरे में लेकर चल रही है, और अभी बैंक के एजीएम को भी पुलिस ने गिरफ्तार किया है, लेकिन सरकार में जिम्मेदारी महज पुनीत गुप्ता पर खत्म नहीं हो सकती, उसके ऊपर के कई और लोगों की सीधी जिम्मेदारी इसमें बनती है। जब सरकार का कोई विभाग इतनी तेजी से कर्ज लेता है और खरीददारी करता है तो उसके लिए वित्त विभाग की कई तरह की इजाजत लगती है जो कि छोटी-छोटी बातों पर आपत्ति करने वाला विभाग रहता है। ऐसे में डी.के. अस्पताल को एक स्वतंत्र देश की तरह चलाने का यह काम कैसे हुआ यह हैरान करने वाला है। मीडिया में लगातार तस्वीरें आती भी थीं कि मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री इस अस्पताल की बदलती हुई शक्ल को देखने के लिए जाते थे। और स्वास्थ्य विभाग में हजारों करोड़ की खरीदी जिस तरह होती थी, उसकी जानकारी प्रदेश के आम लोगों को भी थी, इसलिए ऐसा तो हो नहीं सकता कि जानकार स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर इससे नावाकिफ रहे हों। देखना है कि पुलिस के हाथ कहां तक पहुंचते हैं।
पुनीत की बुलेटप्रूफ जैकेट
डीकेएस घोटाले में फंसे पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के दामाद डॉ. पुनीत गुप्ता के खिलाफ कई प्रकरण दर्ज तो हैं, लेकिन पुलिस उनसे कोई राज नहीं उगलवा पाई। पुनीत को अग्रिम जमानत मिली हुई है और बयान देने के लिए वकीलों की फौज लेकर पहुंचते हैं। पुलिस का कोई भी सवाल रहे, उनका एक ही जवाब होता है कि फाइल देखकर ही कुछ बता पाएंगे। फाइलें तो गायब हैं, और अस्पताल प्रबंधन ने इसको लेकर एफआईआर दर्ज करा रखी है।
पुनीत ने पुलिस को छकाने के लिए बकायदा आरटीआई लगाकर फाइलों की छायाप्रति मांग लिया है। अब फाइलें तो गुम हैं इसलिए उन्हें कोई जानकारी नहीं मिल सकती। ऐसे में पुनीत गोलमोल जवाब देकर पुलिस कार्रवाई से बच रहे हैं। अब सवाल यह है कि आखिर घोटाले की फाइलें कहां गर्इं। पुलिस की मानें तो इसके बारे में सिर्फ पुनीत गुप्ता ही कुछ बता सकते हैं। पुलिस के हाथ बंधे हैं क्योंकि पुनीत ने कानूनी कानूनी बुलेटप्रूफ जैकेट पहन रखी है। उनकी अग्रिम जमानत खारिज करने के लिए पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है। कोर्ट ने चार हफ्ते के भीतर पुनीत से जवाब मांगा है। इस पर जुलाई में सुनवाई होगी। यह साफ है कि जब तक पुलिस पुनीत को रिमांड में लेकर पूछताछ नहीं करेगी तब तक फाइलों के राज से पर्दा नहीं उठ पाएगा। यह सब आसान भी नहीं दिख रहा है, क्योंकि पुनीत के लिए देश के नामी-गिरामी वकील पैरवी कर रहे हैं, और पुलिस को अदालत में इसका मुकाबला करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है।
महिला की शिकायत और धरम कौशिक
नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक से पार्टी के कई बड़े नेता नाराज बताए जा रहे हैं। वजह यह है कि कौशिक, छेड़छाड़ के आरोपी प्रकाश बजाज के समर्थन में बयानबाजी करने और आंदोलन छेडऩे के लिए पार्टी नेताओं पर दबाव बनाए हुए हैं। प्रकाश, धरम कौशिक के बेहद करीबी माने जाते हैं, और उनके राजदार भी बताए जाते हैं। सुनते हैं कि सालभर पहले रमन सिंह सरकार के रहते यह मामला प्रकाश में आया था। तब भी धरम कौशिक के दबाव की वजह से आगे कोई पुलिस-कार्रवाई नहीं हो पाई। चूंकि यह महिला से जुड़ा मामला है और महिला अत्याचार को लेकर पार्टी संवेदनशील होने का दावा करते रही है। ऐसे में कौशिक का आरोपी को बिना किसी जांच के क्लीन चिट देकर सरकार पर बदलापुर की राजनीति करने का आरोप लगाना पार्टी नेताओं को गले नहीं उतर रहा है। कुछ नेताओं ने तो कौशिक के बयान की कटिंग पार्टी हाईकमान को भेजी है और उनकी गतिविधियों पर रोक लगाने का आग्रह किया है।
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