विचार / लेख
-रमेश अनुपम
जिन दिनों माधवराव सप्रे नागपुर से 'हिंदी ग्रंथ माला’ का प्रकाशन कर रहे थे, उन्हीं दिनों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का पुणे से प्रकाशित होने वाला पत्र मराठी 'केसरी’ संपूर्ण महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वाधीनता का अलख जगाए हुए था। माधवराव सप्रे तिलक के विचारों से और मराठी 'केसरी’ में प्रकाशित लेखों से बेहद प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने नागपुर से 'हिंदी केसरी’ प्रकाशित करने की योजना पर काम करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने इसके प्रकाशन के लिए एक हिंदी केसरी परिवार की स्थापना की जिसमें जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पंडित लक्ष्मीधर वाजपेई, पंडित लल्ली प्रसाद पांडेय, पंडित सिद्धि नाथ दीक्षित को शामिल किया।
'हिंदी केसरी’ का प्रथम अंक 13 अप्रैल सन 1907 में नागपुर से प्रकाशित हुआ।
'हिंदी केसरी’ के मुखपृष्ठ पर पंडित जगन्नाथ शुक्ल के संस्कृत श्लोक का आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया पद्यमय हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता था :
'स्वामी कुंजर वृंद के इस घने कांतार के भीतर
रे एक क्षण भी न तू ठहरना
उन्माद में आकर
हाथी जान, शिला विदीर्ण करके
पैने नखों निरी
सोता है गिरी गर्भ में यह यही
भीमाकृति केसरी'
केसरी का अर्थ सिंह होता है। सिंह को छेड़ना घातक होता है। तात्पर्य यह कि भारत एक सोये हुए सिंह की तरह हैं जिसे अधिक दिनों तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है।
यह एक तरह से ब्रिटिश हुकूमत के लिए ललकार थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इसे मूल संस्कृत में अपने ' केसरी ’ में पहले से ही प्रकाशित करते चले आ रहे थे।
इसके कुछ ही दिनों बाद आखिर कार जिसका डर था वही सच साबित हुआ । हिंदी केसरी ’ में प्रकाशित लेखों को आधार बनाकर ब्रिटिश हुकूमत ने 22 अगस्त सन 1908 को माधवराव सप्रे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने आई.पी.सी. की धारा 124 (अ) के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया था।
उनसे पहले 3 जुलाई 1908 को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक दुबारा पुणे में गिरफ्तार कर लिए गए थे। ' केसरी ' और ' हिंदी केसरी ' दोनों पर एक साथ गाज गिर चुकी थी। दोनों ही अपने लेखों और विचारों के कारण ब्रिटिश हुकूमत की आंख की किरकिरी बन चुके थे।
सन 1897 में तिलक पहले भी गिरफ्तार किए जा चुके थे तथा बर्मा ( म्यांमार ) स्थित मांडले की जेल में 18 महीने की सजा भुगत चुके थे। इस बार भी उन्हें गिरफ्तार कर मांडले की जेल में भेज दिया गया था।
इधर पहले से ही अस्वस्थ माधवराव सप्रे की हालत नागपुर जेल में बिगड़ती चली गई। जेल में उनकी खुराक कम होती जा रही थी, उनका वजन भी लगातार घटता जा रहा था। इसके बाद भी माधवराव सप्रे विचलित नहीं हुए।
मित्र और परिवार के लोग उन पर दबाव बनाने लगे कि वे माफी मांग कर जेल से छूट जाएं। उनके मित्र और वकील वामनराव बलिराम लाखे जो उनके साथ ' छत्तीसगढ़ मित्र’ में भी प्रोप्राइटर रह चुके थे, वे भी चाहते थे कि माधवराव सप्रे माफीनामा में दस्तखत कर जेल से छूट जाएं।
वामन बलीराम लाखे नागपुर जाकर और इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस से मिलकर माफीनामा का एक ड्राफ्ट पहले ही तैयार कर चुके थे। माधवराव सप्रे के अन्य मित्र केशवराव पाध्ये और माधवराव पाध्ये भी उनकी लगातार बिगड़ती हुई शारीरिक स्थिति को देखकर चिंतित थे, वे भी चाहते कि माधवराव सप्रे माफीनामा में दस्तखत कर जेल से बाहर निकल जाएं।
पर माधवराव सप्रे उनकी बातों को मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। वे किसी भी कीमत में अंग्रेजों से माफी मांगकर जेल से छूटने के लिए तैयार नहीं थे
(शेष अगले हफ्ते)