विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
मुझे मालूम नहीं कि इस बात को किस तरह से देखा जाएगा, मगर सोशल मीडिया ने लेखक की पारदर्शिता और उसकी गरिमा को नष्ट ही किया है। सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स बनते हैं, आपकी प्रशंसा या सराहना करने वाले मिलते हैं, इसकी मदद से आपकी किताबें बिक जाती हैं। लेकिन अंततः यह सब कुछ नंबरों में बदल जाता है। लाइक्स के नंबर, शेयर के नंबर और आपके फॉलोअर्स के नंबर। देखते देखते आप खुद को उस बाजार में खड़ा पाते हैं, जहां हल्का सा धक्का लगता है और कोई आपके सीने पर नंबर का बैज चिपकाकर आगे बढ़ जाता है।
आप चारों तरफ देखते हैं तो हर किसी के सीने पर आप जैसे नंबर चिपके हैं। वहां हर कोई ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा होता है, आप ठिठकते हैं फिर आप भी बोलना शुरू करते हैं। पहले आपकी आवाज़ हल्की होती है। अपने जैसी होती है... फिर आप आप उस टोन को पकड़ लेते हैं, जिसमें दूसरी आवाजें हैं। फिर आप बिल्कुल वैसे ही चिल्लाने लगते हैं... जैसे दूसरे चिल्ला रहे हैं। और अब आपको इस खेल में मजा आने लगता है। पर उस वक्त तक आपकी असल आवाज़ गुम हो चुकी होती है।
किसी पाठक के लिए किताब से लेखक तक पहुँचने का सुख अलग होता है। किताब से लेखक तक पहुँचने के सफर में बहुत सारे मोहभंग भी हुए हैं और होते रहेंगे। कई बार लगता है कि अपने प्रिय लेखक से कभी मिलना ही नहीं चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि लेखक से मिलते ही आप उसे खो देते हैं। जो हर वक्त आपके साथ था, वह किसी शहर का निवासी बन जाता है, उसकी अपनी पसंद, ना-पसंद, पूर्वग्रह, कमजोरियां उसकी अपनी लेखनी से बहुत भिन्न होती हैं। सोशल मीडिया ने इस पूर्वाग्रह के साथ लेखक को आपके सामने खड़ा कर दिया है। हर पाठक और रचना के बीच लेखक खड़ा है, अपने सोशल मीडिया इन्फ्लुएन्स के साथ...
हर रचनाकार के साथ उसका एक अदृश्य पाठक भी मौजूद होता है। जिसके बिना वह लिख ही नहीं सकता। यह पाठक बहुत ही बेचैन चित्त वाला है। यह लेखक के साथ ही परिपक्व होता है और कई बार लेखक से आगे निकल जाता है। बहुत बार लेखक का उपहास भी उड़ाता है, उसके लिए राइटर्स ब्लॉक खड़ा कर देता है। दोनों के बीच दिनों, महीनों, सालों तक शीत युद्ध चला करते हैं और हर बार जब लेखक इस युद्ध में विजयी होता है तो पहले से बेहतर रचनाकार बनकर सामने आता है।
सफेद कागज़ पर लेखक का नाम, उसकी स्पेलिंग, उसके फांट... बस इतनी सी पहचान लेखक को चाहिए। लेखक को इतनी सी पहचान चाहिए कि किताब के फटे हुए पृष्ठ में भी वह नज़र आए। पर वहां नज़र आने के लिए एक ज़िंदगी के बराबर कीमत अदा करनी पड़ती है...
किसी भी लेखक की सबसे बड़ी सफलता इस बात में नहीं है कि वह किसी पत्रिका के कवर पर है, कोई उसका इंटरव्यू ले रहा है या वह किसी मंच पर है। किसी लेखक की सफलता उसके अदृश्य हो जाने में है। इस हद तक सूक्ष्म हो जाने में कि वह सिर्फ एक विचार में बदल जाए।
मैं काफ़्का, कामू या दोस्तोएवस्की से कभी मिला तो नहीं, उनकी निजी ज़िदंगी के बारे में भी बहुत नहीं पढ़ पाया हूँ, पर वे विचार की तरह मेरे भीतर मौजूद हैं।
देह से यह मुक्ति हासिल करना ही तो किसी लेखक की सबसे बड़ी आकांक्षा होती है...
(फेसबुक से)