विचार / लेख
-डाॅ. परिवेश मिश्रा
ऊंचे पद और उसके साथ पैकेज में प्राप्त होने वाली शक्ति के मोह से ग्रसित व्यक्ति नैतिकता की सीमा लांघने से भी गुरेज़ नहीं करता है, इसका अहसास फ़ौज से सेवानिवृत्त होकर मंत्री बने एक जनरल ने हाल में करवाया था। उन पर आरोप लगे थे कि सेवाकाल के दौरान उन्होंने अपने सर्विस रिकाॅर्ड में हेराफेरी की ताकि रिटायरमेंट को अधिक से अधिक टाला जा सके और वे अधिक से अधिक समय सेनाध्यक्ष के पद पर टिके रहें। उनके इस कृत्य के साथ जुड़ी अनैतिकता उतना बड़ा मुद्दा नहीं बनी जितनी शायद कुछ दशक पहले बनी होती। अभी कुछ दशकों पहले तक जीवन के मूल्य कितने अलग थे। आदमी जितना ऊपर जाता था, उससे नैतिकता की अपेक्षाएं उतनी ही बढ़ जाती थीं। अधिकांश मौकों पर वे निराश नहीं करते थे। कुछ लोग तो अनूठे और अनुकरणीय उदाहरण पीछे छोड़ जाते थे।
यह सब याद आया जब कल पत्नी डाॅ. मेनका देवी के साथ हाल ही में दिवंगत हुए छत्तीसगढ़ के विधायक स्वर्गीय (राजा) देवव्रत सिंह जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने खैरागढ़ पहुंचना हुआ।
भारत जब आज़ाद हुआ था तब फ़ौजों में शीर्ष नेतृत्व में अचानक आये खालीपन ने देश के सामने एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी थी। जब तक अंग्रेज़ थे उन्होंने भारतीय अधिकारियों को फ़ौज में नेतृत्व करने का मौका नहीं दिया था। 1857 के अनुभव के बाद अंग्रेज़ों की यह नीति स्वाभाविक थी। कर्नल के.एम. करियप्पा पहले हिन्दुस्तानी थे जो 1945 में ब्रिगेडियर के पद तक पहुंचे थे। उन दिनों कर्नल (बाद में पाकिस्तान के फील्ड मार्शल) अयूब खान, करियप्पा के मातहत थे। विभाजन के बाद के सालों में भारत और पाकिस्तान दोनों की फ़ौजों के कमांडर अंग्रेज़ थे। 1947-48 में जब कश्मीर में पाकिस्तान के साथ पहला युद्ध हुआ तब भी।
1949 की शुरुआत में अंग्रेज़ जनरल बुचर की भारत से बिदाई का समय नज़दीक आया तो भारतीय सेना के मुखिया की नियुक्ति को लेकर हलचल तेज हुई। पहली बार एक भारतीय इस पद पर नियुक्त होने जा रहा था। देश के नव-निर्माण की प्रक्रिया में यह भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर था। बहस का एक विषय यह भी था कि सेनाध्यक्ष के चयन का आधार क्या हो। वरिष्ठता या काबिलीयत? या दोनों ? तीन वरिष्ठतम अधिकारियों की शॉर्टलिस्ट बनाकर मंथन शुरू हुआ।
इससे पहले 1947 में हिन्दुस्तानी सेना के तीन ब्रिगेडियरों को मेजर जनरल के पद पर प्रमोट कर शीर्ष नेतृत्व की ट्रेनिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया था। इनमें से एक पाकिस्तान के हिस्से के थे। बचे दो भारतीयों में एक थे जनरल करियप्पा, और दूसरे थे जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंहजी। शॉर्टलिस्ट में इन दो भारतीयों के अलावा एक जनरल नाथू सिंह भी थे। लेकिन काफी जूनियर होने के कारण तथा इंग्लैंड की ट्रेनिंग से वंचित रहने के कारण जनरल नाथू सिंह एक तरह से रेस से बाहर ही थे। चयन पहले दो में से ही होना था।
मेजर जनरल बनने की तिथि के आधार पर दोनों जनरल बराबरी पर थे। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अनेक लोगों से इस विषय पर राय मशविरा किया। रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल करियप्पा के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। पलड़ा स्वाभाविक था जनरल राजेंद्र सिंहजी की ओर झुक गया। नियुक्ति से पहले पंडित नेहरू ने जनरल राजेंद्र सिंहजी से उनकी राय पूछी। जनरल राजेंद्र सिंहजी ने बिना पलक झपके अपनी राय दे दी : "काबिलीयत बराबर हो सकती है किन्तु जनरल करियप्पा उम्र में मुझसे कुछ माह वरिष्ठ हैं, यह अवसर पहले उन्हें ही दिया जाना चाहिए". और 15 जनवरी 1949 के दिन जनरल करियप्पा भारतीय फ़ौज के पहले "कमान्डर-इन-चीफ" बने। तब से यह दिन हर साल "आर्मी-दिवस" के रूप में मनाया जाता है। और तब से वरिष्ठता को वरीयता देने की परम्परा आज तक चल रही है। उस स्तर पर काबिलीयत तो कमोबेश उन्नीस-बीस ही रहती है।
सेनाध्यक्ष बनने का ऑफर सामने पाकर भी वह अवसर अपनी जगह दूसरे को देने वाले जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंहजी सौराष्ट्र (गुजरात) के नवानगर ( वर्तमान जामनगर) राजघराने के सदस्य थे। उसी राजघराने से जिसके महाराज (जाम साहब) रणजीत सिंहजी और भतीजे दलीप सिंहजी क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी हुए थे। उनके नाम पर ही रणजी ट्राॅफी और दलीप ट्राॅफी मैच खेले जाते हैं।
जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंहजी की बेटी रश्मि देवी सिंहजी का विवाह खैरागढ़ के राजपरिवार में हुआ तथा आगे चलकर वे रानी बनीं। रश्मि देवी जी के बेटे थे देवव्रत सिंह जी, जिनके चित्र के सामने हाथ जोड़कर जब आज मैं खड़ा हुआ तो सारी स्मृतियां ताजी हो गयीं।
जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंहजी भारतीय सेना के दूसरे सेनाध्यक्ष बने, किन्तु इस बार भी वे एक और अनूठा उदाहरण पीछे छोड़ गये। भारत के अब तक के सेनाध्यक्षों में वे अकेले रहे हैं जिन्होंने नियत तारीख से पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति। इसके पीछे का कारण बहुत कुछ बताता है उस काल के लोगों के जीवन मूल्यों के बारे में।
सेना में सेनाध्यक्ष के लिए नियत सेवाकाल अन्य जनरलों की अपेक्षा अधिक होता है। जनरल राजेंद्र सिंहजी जब सेनाध्यक्ष थे तब सेना में उनके बाद वरिष्ठतम अधिकारी थे जनरल श्रीनागेश (जनरल नाथू सिंह रिटायर हो चुके थे)। जब तक जनरल राजेंद्र सिंहजी अपना कार्यकाल पूरा करते, जनरल श्रीनागेश रिटायर हो चुके होते। ऐसा हो पाता इससे पहले ही जनरल राजेंद्र सिंहजी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली ताकि उनके पुराने मित्र और साथी जनरल श्रीनागेश के लिए भारतीय फ़ौज के तीसरे अध्यक्ष बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके।
स्व. देवव्रत सिंह जी के दादा राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह और दादी रानी पद्मावती भी इतिहास बनाने में पीछे नहीं थे। नवम्बर 1956 में मध्यप्रदेश में जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो देवव्रत जी के दादा और दादी दोनों उसमें मंत्री के रूप में शामिल किये गये। इस बात पर यदि "परिवारवाद" शब्द याद आये तो "महिला सशक्तिकरण" को भी याद करना सामयिक होगा। मंत्रिमंडल में दादी रानी पद्मावती केबिनेट मंत्री थीं, और दादा राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह राज्य मंत्री। मंत्रिमंडल के उस वक़्त के ग्रुप फोटो में रानी पद्मावती सामने कुर्सी पर बैठी और राजा साहब पीछे कतार में खड़े नज़र आते हैं। परम्परा आगे जारी रही। देवव्रत जी के पिता राजा रवेन्द्र बहादुर सिंह ने जीवन में कभी चुनाव नहीं लड़ा, किन्तु मां रानी रश्मि देवी सिंह चार बार विधायक चुनी गयीं।
स्वर्गीय देवव्रत सिंह जी का दुखद निधन असामयिक था। देवव्रत अपने अल्प जीवन में एक बेहद लोकप्रिय सामाजिक और राजनीतिक शख्सियत के रूप में स्थापित हो गये थे। खैरागढ़ में उनके अपने तथा विस्तृत परिवार के साथ भेंट कर हमने दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।
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नोटः * अंग्रेज़ों के समय फ़ौज के मुखिया को कमान्डर-इन-चीफ कहा जाता था। तब तक वायु सेना और नौसेना का अलग अस्तित्व विकसित नहीं हुआ था। दिल्ली में इनके निवास को आम भारतीय "जंगी लाट की कोठी" के नाम से जानता था। यही भवन आज़ादी के बाद तीन मूर्ति भवन के नाम से प्रधानमंत्री का आवास बना। राष्ट्रपति भवन "बड़े लाट की कोठी" थी। अंग्रेजी शब्द "लाॅर्ड" के अपभ्रंश को "लाट-साहब" बनाकर हमने अपना लिया।
* जनरल करियप्पा इसी अंग्रेज़ी परम्परा में कमान्डर-इन-चीफ बने थे। दूसरे सेनाध्यक्ष जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंहजी की सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के साथ ही पदनाम में परिवर्तन हुआ और वे भारत के प्रथम चीफ-ऑफ-आर्मी-स्टाफ बने। तब से यही पदनाम आज तक जारी है।