विचार / लेख
तस्वीर पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर
-डॉ. परिवेश मिश्रा
शाकाहार और मांसाहार के चक्कर में एक समय ऐसा आ चुका है जब छत्तीसगढ़ में गरीबी रेखा (बी.पी.एल.) से नीचे रहने वालों की संख्या में एक झटके में भारी गिरावट दर्ज हो गयी थी।
यह सन् 1999-2000 की बात है। देश का योजना आयोग समय समय पर देश में बी.पी.एल. वालों की संख्या की गिनती करता रहा है। गरीबी नापने के नियमों और तरीकों में भी समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। जैसे कभी आर्थिक आमदनी के आधार पर गरीबी नापी गई, कभी क्रय-शक्ति के आधार पर, आदि।
सन् 1999-2000 में देश में हुए सर्वे में ‘कैलोरी’ को आधार बनाया गया था। तय किया गया कि एक परिवार अपने खानपान में कितनी ‘कैलोरी’ की खपत करता है इसका सर्वे हो। जो भी उत्तर प्राप्त होता, उसकी कैलोरिक वैल्यू की गणना करने की व्यवस्था कम्प्यूटर में की गयी थी।
फॉर्म छापे गये। उनमें प्रश्न तो छपे ही थे, साथ में संभावित उत्तर भी छापे गये थे जो कि आमतौर पर हां और ना में थे। स्कूल के सरकारी शिक्षकों को ट्रेनिंग दी गई, फॉर्म के साथ पेन्सिल दी गइ और सर्वे के लिए रवाना कर दिया गया। उनका काम था गांव गांव और घर घर जाकर प्रश्न पूछना और संभावित उत्तरों में से जो उत्तर प्राप्त हो उस पर निशान लगाना।
गुरुजी लोगों ने सवाल शुरू किये।
प्रतिदिन भोजन करते हो ?
दिन में कितनी बार ?
इसके आगे प्रश्न था ‘शाकाहारी हो या मांसाहारी?’
प्रश्न को सरल और बोधगम्य बनाने के लिए छत्तीसगढ़ में शिक्षक जो आमतौर पर पूछते थे वह था ‘मांस-मच्छी खाथस का?’
छत्तीसगढ़ में, विशेषकर उन इलाकों में जो राजाओं के प्रभाव वाले रहे हैं, पारम्परिक रूप से देवी भक्ति/शक्ति उपासना का बहुत जोर रहा है। विजयदशमी/नवरात्र/दशहरा आदि के अवसरों पर बलि प्रथा सामान्य बात रही है। इसके अलावा इच्छापूर्ति के लिए मंदिरों में या देवी के ‘चरणों’ में बकरे का प्रसाद अर्पित करने का संकल्प भी आम बात रही है। ऐसा संकल्प (मन्नत) आमतौर पर अपेक्षाकृत सम्पन्न लोग लेते हैं।
ऐसे अवसरों पर बाकी ग्रामीण ‘प्रसाद’ ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर और उपलब्ध रहे हैं। सामाजिक जीवनशैली के महत्वपूर्ण हिस्से की तरह। गांव में बड़े किसान की मन्नत पूरी होने पर ‘प्रसाद’ प्राप्ति के लिए सारे गांव वालों का उसके ट्रैक्टर-ट्रॉली में भर कर साथ जाना ‘पैकेज’ का अविभाज्य अंग माना जाता है।
छत्तीसगढ़ तालाबों का इलाका भी है। सन् 1999-2000 में यहां छह हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक की जलसतह थी। कलकत्ता यहां से रात भर की दूरी है और मछली का निर्यात छत्तीसगढ़ की आर्थिक जीवनशैली का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। जिस ग्रामीण के कच्चे घर के पास तालाब या नाला हो, उसके भोजन में अक्सर मछली का समावेश होना सामान्य बात रही है। नदी, नालों और तालाब के साथ साथ पानी भरे खेतों की मेढ़ पर ‘गरी’ लेकर मछली की प्रतीक्षा में बैठना लोकप्रिय ‘पास-टाईम’ रहा है। उंगली से छोटी मछलियां भी यदि मु_ी भर मिल जाएं तो उन्हें नमक और हल्के तेल में भून/तल कर भोजन में शामिल करना प्याज-टमाटर जैसी सब्जियां खरीद कर खाने से सस्ता पड़ता है।
सर्वे वाले शिक्षकों ने जैसे ही सवाल पूछा ‘मांस-मच्छी खाथस का?’, आमतौर पर उत्तर मिला ‘हां’।
और ‘हां’ वाले बॉक्स में पेन्सिल का निशान लग गया। कम्प्यूटर के पास जो जानकारी फीड थी उसमें मांस और मछली की कैलोरी-वैल्यू सब्जियों से अधिक थी।
इस सर्वे के आधार पर जब तक योजना आयोग ने आंकड़े सार्वजनिक किये तब तक मध्यप्रदेश का विभाजन हो चुका था। नये बने राज्य छत्तीसगढ़ के हिस्से में तालाबों का अनुपात बढ़ गया। नक्सली और कुष्ठ रोगियों का अनुपात भी बढ़ गया। किन्तु सरकारी रिकॉर्ड वाले गरीबों का अनुपात कम हो गया।
(यदि प्रश्न के उत्तर में किसी सम्पन्न व्यक्ति ने कहा कि मैं तो न केवल शाकाहारी हूं बल्कि सप्ताह में कुछ दिन उपवास भी रखता हूं, तो उसके ‘गरीब’ गिने जाने की संभावना कम से कम तकनीकी रूप से तो अधिक थी ही।)
गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)