विचार / लेख
-रोहित देवेन्द्र
स्कूल के दिनों में टीवी पर देखी फिल्म का एक सीन अब भी याद है। गोविंदा की कोई फिल्म थी। गोविंदा गांव से मुंबई आते हैं। आंख उठाकर वह ऊंची-ऊंची इमारतें चौंकने के अंदाज से देख रहे होते हैं कि तभी सडक़ पर उन्हें भगवान शंकर की तरह दिखने वाला एक इंसान दिखता है। गोविंदा उसके पैरों में गिर जाते हैं। भगवाननुमा वह आदमी उन्हें उठाता है। आशीर्वाद देने के साथ पूछता है कि ‘एक बीड़ी है क्या बच्चा?’ सीन के उसी हिस्से में भगवान के गेटअप वाले कुछ और किरदार बीड़ी-सिगरेट जैसा कुछ पी रहे होते हैं। कुछ चाय पी रहे होते हैं। मुझे फिल्म याद नहीं। वह उम्र निर्देशक याद करने की थी नहीं।
यह याद है कि इस सीन पर हम हॅंसे थे। हम बच्चे थे पर हमें पता था कि कॉस्ट्यूम पहने यह व्यक्ति भगवान शंकर नहीं बल्कि उनका किरदार करने वाला एक आर्टिस्ट है। बेशक, भगवान के बीड़ी पीने के अब तक कोई साक्ष्य नहीं हैं लेकिन उनकी वेशभूषा पहने हुए व्यक्ति तो ऐसा कर ही सकता है। हमें इससे ऐतराज नहीं था। तब तक हमने रामायण-महाभारत देख ली थी और मालूम चल गया था कि अरुण गोविल राम नहीं हैं और नितीश भारद्वाज कृष्ण नहीं। भले ही अरुण गोविल बने राम वाले पोस्टर शिवरात्रि और कार्तिक पूर्णिमा के मेलों में बिकने लगे थे।
हिंदी फिल्मों में ही शोले का वह सीन हम सबको याद है जिसमें धर्मेंद्र मंदिर के पीछे छिपकर भगवान की आवाज में हेमा मालिनी को बेवकूफ बना रहे थे। हेमा मालिनी उस आवाज को भगवान शंकर की आवाज समझकर जैसा वो कहें करने के लिए कह रही हैं। हम इस सीन पर भी हॅंसे थे। हमने यह लोड नहीं लिया था कि भगवान शिव के मुंह से हल्की-फुल्की बातें निकाली जा रही थीं। हम तब भी तैश में नहीं आए थे जब हमें यह पता चला था कि धर्मेंद्र मुसलमान बन गए हैं।
कुछ सालों पहले दिलीप कुमार की 50 के दशक में रिलीज हुई एक फिल्म दाग देखी। दाग फिल्म में दिलीप एक शराबी का रोल करते हैं। जो एक रात शराब के नशे में आकर भगवान की मूर्ति को यह कहकर फेंक देते हैं कि ‘भगवान सिर्फ सेठों का है, गरीबों का नहीं’ मुझे उस सीन पर कोई दिक्कत नहीं हुई थी। जाहिर है कि जब यह फिल्म रिलीज हुई होगी तब भी लोगों को दिक्कत नहीं हुई होगी। जबकि उस समय देश में ताजा-ताजा बंटवारा हुआ था और संसार जानता है कि दिलीप कुमार पाकिस्तान से आए मुसलमान थे। ?
कुछ सालों पहले आई पीके में भगवान शिव के गेटअप वाले आदमी के साथ आमिर खान का बाथरुम सीन तो अभी ताजा-ताजा है। हम उस पर भी हॅंसे थे। ऐसी कोई फिल्म याद नहीं है जो भगवान या उनके कॉस्टयूम को पहने व्यक्ति पर हल्का-फुल्का मजाक करे और घर आकर भगवान के प्रति आपकी आस्था में तोला भर का अंतर भी आ जाए।
मुझे नहीं पता कि काली फिल्म के पोस्टर को उसकी निर्देशक ने किस सोच के साथ बनाया है। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि दुर्गा या उसके अन्य स्वरुपों में आस्था रखने वाले किसी भी व्यक्ति की आस्था में इस पोस्टर की वजह से कोई तब्दीली नहीं आई होगी। हां, हमारी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक जरूर हो सकती हैं, इधर से भी और उधर से भी।
काली के पोस्टर बस इतना ही कहना था...