विचार / लेख

एक थी गुलाब बाई
17-Jul-2022 1:52 PM
एक थी गुलाब बाई

-ध्रुव गुप्त

नौटंकी सदियों से उत्तर भारत की सबसे लोकप्रिय  लोकनाट्य विधा रही है। यह प्राचीन भारत में खेले जाने वाले स्वांग का लोक द्वारा परिवर्तित रूप माना जाता है। आधुनिक नौटंकी का इतिहास चार सौ साल से ज्यादा पुराना नहीं है। इस विधा की शुरुआत पंजाब से हुई थी जहाँ लोगों की रुचि का ध्यान रखते हुए कथानक में अश्लील और द्विअर्थी संवाद खूब डाले जाते थे। समाज के अभिजात वर्ग द्वारा गंवई और सस्ता घोषित किए जाने के बावजूद अपनी जनप्रियता की वजह से नौटंकी पंजाब की सीमा से निकलकर धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में फैल गई। स्थानीयता के दबाव में उत्तर भारत में इसमें बहुत सारे बदलाव भी हुए। यहां नौटंकी के प्रमुख विषय रहे हैं मिथकीय प्रेम कथाएं, वीरता के किस्से और सामाजिक विसंगतियां। लोगों को इन किस्सों से बांधे रखने के लिए फिलर के तौर पर उनमें हास्य और गीत-संगीत के प्रसंग जोड़े जाते हैं। लोकनाट्य की इस शैली के विकास में बहुत सारे ज्ञात और अज्ञात कलाकारों का योगदान रहा, लेकिन इनमें से अगर किसी एक शख्सियत का नाम निकाल लेने को कहा जाय तो बेशक वह नाम होगा नौटंकी की मलिका कही जाने वाली पद्मश्री गुलाब बाई का।

अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बनी गुलाब बाई का जन्म उत्तर प्रदेश के कन्नौज जनपद के बलपुरवा गांव के एक गरीब बेडिय़ा परिवार में हुआ था। रोजी-रोटी की तलाश में वह गांव की गलियों में नाच-गाकर लोगों का मन बहलाती थी। गुलाब पर एक दिन एक थिएटर मालिक की नजर पड़ गई। उसके नृत्य-गीत से प्रभावित होकर उसने अपनी एक नौटंकी में उसे बाल कलाकार की छोटी-सी भूमिका दे दी। वर्ष 1931 में जब बारह साल की गुलाब ने नौटंकी के मंच पर कदम रखा तो पुरूषों के प्रभुत्व वाले स्टेज पर किसी स्त्री का वह पहला प्रवेश था। तब सिनेमा की तरह नौटंकी में भी  स्त्रियों की भूमिकाएं पुरुष ही निभाते थे। इस छोटी-सी शुरुआत के बाद जो हुआ वह इतिहास है।  

गुलाब जवान हुई तो अपनी अभिनय-क्षमता, अदाओं और विलक्षण लोकगायिकी के बूते वह जल्द ही नौटंकी की बेताज मलिका बन बैठी। उसके पहले नौटंकी में कथ्य और शैली का ही महत्व हुआ करता था, किसी कलाकार की व्यक्तिगत छवि, रूपरंग या ख्याति का नहीं। गुलाब के साथ नौटंकी के उस दौर की शुरूआत हुई जब कलाकार के नाम पर लोग थिएटर की ओर खिंचे चले आते थे। यह नौटंकी में ग्लैमर की पहली धमक थी। गुलाब की लोकप्रियता 1940 तक शिखर पर पहुंच गई थी। उसकी तनख्वाह तब  महीने के दो हजार रुपयों से ज्यादा हुआ करती थी। उस जमाने के हिसाब से यह बड़ी रकम थी जो तब के ज्यादातर फिल्म कलाकारों को भी नसीब नहीं थी।

फिर समय ऐसा भी आया जब बेहतर वेतन और सुविधाओं के बावजूद थिएटर मालिकों की कलाकारों के प्रति संवेदनहीन व्यवहार  से गुलाब क्षुब्ध रहने लगी। अपनी कला के लिए उन्हें सम्मान और अभिव्यक्ति की थोड़ी आजादी की दरकार थी। पांचवे दशक में अपने कुछ साथियों के साथ उन्होंने ‘गुलाब थियेट्रिकल कम्पनी’ की स्थापना की। गुलाब की लोकप्रियता की वजह से थोड़े ही अरसे में उनकी कंपनी उत्तर भारत की सबसे बड़ी थिएट्रिकल कंपनी बन गई। यहां उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की पूरी आजादी थी। सभी प्रमुख स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने के अलावा बहुमुखी प्रतिभा की धनी गुलाब नौटंकी के लिए खुद कहानी, पटकथा और गीत लिखती थीं। नौटंकी का नृत्य-संयोजन भी उन्हीं के जिम्मे था। नौटंकी को उत्तर भारत के गांव-गांव तक ले जाने का श्रेय गुलाब की इसी कंपनी को जाता है। नौटंकी के इतिहास में इस थिएट्रिकल कंपनी का वही योगदान है जो फिल्मों के इतिहास में प्रभात टाकीज और बॉम्बे टाकीज का रहा है।

‘सुल्ताना डाकू’ गुलाब बाई की सर्वाधिक लोकप्रिय नौटंकी थी जिसके द्वारा उन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों के लिए प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश के एक दुर्दांत डकैत सुलतान को लोकमानस का नायक बना दिया। गुलाब द्वारा तैयार और अभिनीत कुछ अन्य प्रसिद्ध नौटंकियां थीं - लैला मजनू, शीरी फरहाद, हरिश्चन्द्र तारामती, भक्त प्रह्लाद, सत्यवान सावित्री, इन्द्रहरण और श्रीमती मंजरी। वर्ष 1960 तक ढलती उम्र और कंपनी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं की वजह से नौटंकी में खुद गुलाब की भागीदारी कम होती चली गई। अपने अभिनय और गायन की उत्तराधिकारी के तौर पर उन्होंने अपनी बहन और बेटी को चुना, लेकिन वे गुलाब की लोकप्रियता को नहीं दुहरा सकीं। तब तक मनोरंजन के साधन के रूप में सिनेमा ने नौटंकी सहित सभी लोककलाओं को विस्थापित करना शुरू कर दिया था। विस्थापन की यह प्रक्रिया इतनी तेज थी कि छठे दशक के अंत तक नौटंकी अपना आकर्षण खो चुकी थी और गुलाब बाई की थियेटर कंपनी भी।

गुलाब अभिनेत्री के अलावा बेहतरीन गीतकार और गायिका भी थीं। उनके बनाए और गाए कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं- पान खाए सैया हमार, नदी नारे न जाओ श्याम पैया परूं मोहे पीहर में मत छेड़, जलेबी बाई, भरतपुर लुट गयो हाय मेरी अम्मा, पटना शहरिया में आओ रानी, मोहे अकेली डर लागे, गोरखपुर की एक बंजारन और  हमरा छोटका बलमुवा। छठे दशक में सुनील दत्त की फिल्म ‘मुझे जीने दो’ में उनके दो गीतों ‘नदी नारे न जाओ श्याम’ और ‘मोहे पीहर में मत छेड़’ और शैलेन्द्र की फिल्म ‘तीसरी कसम’ में कुछ परिवर्तन के साथ ‘पान खाए सैया हमारो’ का इस्तेमाल हुआ था। यह गुलाब के लिए गौरव की बात थी, लेकिन इसका दुखद पक्ष यह था कि उन गीतों के लिए पारिश्रमिक देना तो दूर, क्रेडिट में उनका नाम तक देना जरूरी नहीं समझा गया। गुलाब बॉलीवुड के इस सलूक से मर्माहत हुई थीं।

साल 1996 में सत्तर साल की उम्र में गुलाब बाई का देहावसान हुआ। मरते समय उनका सबसे बड़ा दुख यह था कि अपने जीवन-काल में ही उन्हें नौटंकी को मरते हुए देखना पड़ा था। व्यावसायिक दबाव में धीरे-धीरे उसमें अभद्रता और अश्लीलता का प्रवेश होने लगा था। उनके बाद उनके कुछ शागिर्द उनकी विरासत संभाल तो रहे हैं, लेकिन उत्तर भारत के मेलों-ठेलों में ‘द ग्रेट गुलाब बाई थिएट्रिकल कंपनी’ के नाम से जो दर्जन भर थियेटर कंपनियां सक्रिय हैं, उनके बीच अश्लीलता, अपसंस्कृति परोसने की जिस तरह प्रतियोगिता चल रही है वह किसी भी कलाप्रेमी के लिए शर्मिंदगी का सबब है। जिस मंच पर कभी देर रात गुलाब के दादरे ‘नदी नारे ना जाओ श्याम पैयां परूँ’ का जादू जागता था, वहां अश्लील गीतों पर स्त्रियों के नंगे-अधनंगे जिस्म थिरका करते हैं। नौटंकी के नाम पर अब जो हो रहा है उसे देखते हुए इस जनप्रिय विधा की मौत की घोषणा तो की ही जा सकती है।

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