विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
लाहौर षड़यंत्र केस में भगत सिंह और साथियों पर मुख्य आरोप था राजा के खिलाफ युद्ध. उन्हें फांसी की सजा मिली. भगत सिंह सहित तीनों साथियों की मांग थी उन्हें युद्ध बंदी माना जाए और फांसी की बजाय गोली से मारा जाए.
भगत सिंह ने शहादत के रास्ते का सोच समझ कर चुनाव किया पर उनके जाने के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) को और इसके कमांडर आज़ाद को उनकी कमी बहुत महसूस होती रही क्योंकिभगत सिंह HSRA के सबसे प्रमुख क्रांतिकारी थे, विचारक थे.
HSRA ने भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बनाई कोशिश की पर क्रांतिकारी भगवतीचरण की बम विस्फोट में शहादत और इसके बाद बहावलपुर के बंगले में हुए विस्फोट के बाद योजना पर पानी फिर गया.
भगत सिंह को छुड़ाने की योजना में शामिल क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन ने लिखा है कि भगत सिंह को छुड़ाने की योजना के असफल हो जाने से आज़ाद को गहरा धक्का लगा था.
ठीक इसके बाद आज़ाद की शहादत के बाद HSRA करीब-करीब निष्क्रिय होकर ख़त्म हो गया.
ये इसलिए बताया कि कई बार प्रमुख संगठन कर्ताओं के जेल जाने से संगठन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है.
वहीं कर्तार सिंह सराभा की शहादत के तरीके और अदालत से निपटने के अंदाज़ ने देश को भगत सिंह तक को बहुत-बहुत किया और सराभा सबके हीरो आज़ाद बने. कर्तार सिंह सराभा से जज ने पूछा था- 'क्या तुम्हारा इरादा अंग्रेजी सरकार पलटने का था ?'
सराभा ने कहा- 'हाँ, मैंने जो भी काम किया, देश की आज़ादी के लिए और अंग्रेज़ों को हिन्दुस्तान से बाहर निकालने के लिए किया है.'
'जज ने फिर पूछा- 'जाने हो तुम्हारे इन बयानों का क्या परिणाम होगा ?'
जी हाँ जानता हूँ ,..आपका ख्याल है कि मुझे पता नहीं कि आप क्या सलूक करेंगे? मैं तैयार हूँ ...अब आपको जो करना हो, करो, मुझे पता है..''
क्रांतिकारियों का तरीका शांतिपूर्ण जेल जाने के बदले फरार रहकर, जेल फांदकर क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखने का रहा तो गांधीवादी तरीका शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से अदालत के फैसलों को ना मानने का रहा.
गांधीजी ने जुर्माना न देने का निर्णय लेकर जेल जाना पसंद किया था.
वहीं पूरे जीवन में नेहरूजी 9 बार जेल गए 3259 दिन जेल में गुज़ारे, 31 अक्टूबर 1940 को गिरफ्तार होने पर गोरखपुर मुक़दमे में सीधे मुक़दमे में न हिस्सा लेने का स्टैंड लिया था. कोर्ट से नेहरूजी ने कहा था ''मैं जोर देकर कहता हूँ कि डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स एक सबसे बड़ी तौहीन है.....'' .
उस दौर में गाँधी-नेहरू के बाद ढेर बड़े नेता थे, जो उनकी अनुपस्थिति में बागडोर सम्हाल लेते थे, पर क्या ये बात हर दौर में लागू हो सकती है, जबकि कोई ठोस सेकंड लाइन लीडरशिप न हो ?
इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण सामने हैं. इसलिए इस लेख को सिर्फ ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखिए, आज के सन्दर्भ में नहीं.
आज़ादी के बाद जब यशपाल किसी पार्टी संगठन से नहीं जुड़े थे और जब 'विप्लव' का प्रकाशन कर रहे थे, तब रेल हड़ताल के दौरान उनकी भी गिरफ्तारी हुई. यशपालजी को तेज़ बुखार था. यशपालजी के लिए डॉक्टर्स का प्रबंध किया गया और डिप्टी कमिश्नर ने कहा एक रुपये की ज़मानत पर यशपालजी को तत्काल रिहा किया जा रहा है.
यशपालजी ने एक रुपये की ज़मानत पर भी रिहा होने से इंकार किया और एक महीने बाद ही जेल से आये.
ये वही यशपाल थे जो भगत सिंह को छुड़ाने की योजना में भी शामिल थे ...पर तब अलग परिस्थिति थी और जब एक रुपये की ज़मानत पर भी रिहा होने से इंकार किया तब अलग परिस्थिति थी.
बुद्धिजीवियों के भी जमानत न लेने के ढेर उदाहरण हैं ,जो उन्होंने अपने सिद्धांतों की ख़ातिर लिए पर वो किसी पार्टी, संगठन से जुड़े नहीं थे. उनके जेल जाने से संगठन के काम में कोई रूकावट न रही पर उन्होंने ऊंचे आदर्श स्थापित किये.
केरल के समाजवादी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पत्रकार मथाई मंजूरन ने 1959 में प्रेस की आज़ादी के सवाल पर अदालत की अवमानना के एक केस में केरल के हाई कोर्ट में माफी मांगने से इनकार कर दिया था.
दैनिक अखबार केरल प्रकाशम में एक ख़बर के छपने पर एडिटर मंजूरन पर 100 रुपये और प्रकाशक सुधाकरण पर 50 रुपये का जुर्माना लगा था पर दोनों ने प्रेस की आज़ादी के सावल पर जेल का रास्ता चुना था. दोनों को त्रिशूर की वियुर जेल भेजा गया था.