विचार / लेख

जहां संसाधन सीमित, वहाँ संघर्ष और खींचतान ज्यादा
18-Jul-2022 7:34 PM
जहां संसाधन सीमित, वहाँ संघर्ष और खींचतान ज्यादा

-अमिता नीरव
पाकिस्तानी ड्रामा ‘रकीब से’ में नायक मकसूद अहमद अपनी बेटी इंशा के दोस्त से शादी के सिलसिले में मिलते हैं। बातचीत के दौरान दोस्त अब्दुल अपने बारे में बताता है कि वह सेल्फ मेड इंसान है तो मकसूद कहते हैं कि ‘आय हेट सेल्फ मेड पीपल।’ इंशा बाद में पूछती है कि ‘आपने ऐसा क्यों कहा?’ तो वे जवाब देते हैं कि ‘क्योंकि मैं भी सेल्फ मेड हूँ और सेल्फ मेड लोग शॉर्ट कट्स का सहारा लेते हैं।’

हमारा देश जुगाड़ तकनीक के लिए खासा प्रसिद्ध है। डेनिम के थ्री-फोर्थ को हजार, बारह सौ, पंद्रह सौ में खरीदने की हैसियत न रखने वाले लोग अक्सर अपने पुराने हो चुके डेनिम को काटकर अपने उस शौक को पूरा करने का जुगाड़ लगा लेते हैं। जुगाड़ को इन्नोवेशन वो लोग कह पाते हैं, जिनके पास जीने की तमाम सहूलियतें हैं। जो जुगाड़ करता है, वह दुनिया के साथ कदमताल करने का अपना तरीका निकालता है।

दुनिया के जिस हिस्से में या तो संसाधन सीमित हैं या फिर हिस्सेदारियाँ ज्यादा हैं, उस हिस्से में संघर्ष और खींचतान ज्यादा होगी। हमारे यहाँ जिन राज्यों में जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक हैं, वहाँ की राजनीति और समाज का अलग से अध्ययन किया जाए तो नतीजे पाकर चौंक जाएँगे। यूपी, बिहार के समाजों में दूसरी जगह के समाजों की तुलना में विश्वास का संकट ज्यादा मिलेगा।

दुनिया में एशिया और अफ्रीका में जनसंख्या घनत्व के चलते तरह-तरह के संघर्ष हो रहे हैं। दुनिया का आर्थिक इतिहास यह बताता है कि जिस - जिस वक्त दुनिया को मंदी ने अपनी चपेट में लिया है, उस - उस वक्त कट्टरता और पारस्परिक संघर्ष की घटनाएं बढ़ी है। मंदी में ही संकीर्णता और घृणा के बीज पनपते हैं। जाहिर सी बात है, अभाव हमें कृपण बना देते हैं।

जब तक गाँवों से आपका राब्ता नहीं हो, तब तक आपको गाँवों की हकीकतें पता नहीं चलती है। कई साल गाँव में रहने के बाद जब सास-ससुर शहर आएं तो कई ऐसी चीजों को जाना जो अन्यथा नहीं जान पाती। बाहर यदि किसी भी किस्म का झगड़ा हो रहा हो, मम्मीजी का सबसे पहला सवाल यह होता था, बच्चे तो कोई बाहर नहीं हैं? शुरू-शुरू में मुझे समझने में दिक्कत हुई, मैं पूछ लिया करती थी आपको क्या डर है?

एक दिन उन्होंने बताया कि इतने साल गाँव में रही हूँ, गाँव की राजनीति को बहुत करीब से देखा है। वहाँ मारपीट से लेकर हत्याएँ तक हो जाती है। जो लोग सरल सहज होते हैं, गाँव उन लोगों के लिए बहुत क्रूर होते हैं। मैं चौंकी थी। अब तक गाँवों के किस्से फिल्मों और कहानियों तक ही सीमित थे। और दोनों ही माध्यमों में गाँवों को ओवररेट किया जाता रहा है। गांवों तक संसाधनों की पहुंच ने उसके कई हिस्सेदार पैदा किए हैं जो उन संसाधनों पर कब्जे के लिए लगातार संघर्षरत रहते हैं।

जो लोग गाँव से निकलकर आते हैं, वे गाँव की हकीकत आपको बताते हैं। जब अखबार में काम करती थी, तब कुछ संवाददाताओं से इस सिलसिले में बात की तो उन्होंने बहुत सकुचाते हुए बताया कि जब से पंचायतों के चुनाव होना शुरू हुए हैं, तब से गाँवों में राजनीति बहुत खतरनाक रूप ले चुकी है। लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के लिए किए गए संशोधनों के चलते होने वाले लोकल बॉडी इलेक्शंस की वजह से ग्रामीण समाज का ताना-बाना क्षत-विक्षत हो गया है।

समाजशास्त्रीय अध्ययन यह बताता है कि जिन जगहों में जीवन मुश्किल होता है, वहाँ के लोग सरल होते हैं। जिन जगहों पर जीवन सरल होता है, वहाँ के लोग जटिल होते हैं। पहाड़ों और मैदानों के जीवन में आपको यह स्थापना सही लगती है। लेकिन एक बहुत बारीक बात है जो अक्सर हम इस मोटा-मोटी स्थापना में देखते नहीं है वो ये कि जीवन मुश्किल होना और संसाधनों के लिए संघर्ष करना दो अलग-अलग बात है।

पहाड़ों पर मुश्किल जीवन सबके लिए एक-सा होता है, जबकि मैदानों पर संसाधनों की बंदरबांट होती है। जिसका जितना बड़ा रूतबा, जिसकी जितनी ज्यादा पहुँच उसके हिस्से उतने ज्यादा संसाधन... संक्षेप में संसाधनों का असमान बँटवारा संघर्षों और क्षुद्रताओं के लिए जमीन तैयार करता है। सत्ता में हिस्सेदारी के लिए होने वाले संघर्ष प्राकृतिक नहीं व्यवस्थागत होते हैं।

कई साल पहले एक बहुत चौंका देने वाली खबर पढ़ी थी कि दुनिया में सबसे ज्यादा जागरूक लोग एशिया में पाए जाते हैं। एशियन दुनिया भर के बारे में जानते हैं, जानना चाहते हैं। इस खबर ने न सिर्फ चौंकाया बल्कि यह सोचने पर मजबूर किया कि जबकि जागरूकता का संबंध शिक्षा से है और एशिया में यूरोप की तुलना में शिक्षा का औसत प्रतिशत कम है तो फिर एशियन सबसे ज्यादा जागरूक कैसे हुए!

धीरे-धीरे समझ आया कि जागरूकता का संबंध भी अभावों और संघर्षों से ही है। जिन लोगों के जीवन में कोई अभाव नहीं हैं, उन्हें कुछ भी जानने की न तो इच्छा होती है और न ही जरूरत। बहुत साल पहले एक चुटकुला पढ़ा था कि पूरी दुनिया में भूख पर एक सर्वे किया गया, जो बुरी तरह से असफल हुआ।

उस चुटकुले के अनुसार वह सर्वे यूएन ने करवाया था, जिसमें सवाल पूछा गया था कि, would you please give your honest opinion about solution to the food shortage in the rest of the world?  इसमें दुनिया भर के देशों के बारे में बताया गया था, लेकिन भारत के बारे में बताया गया कि यहाँ के लोग नहीं जानते हैं कि ‘ऑनेस्ट’ का क्या मतलब है और आखिर में यह कि अमेरिका के लोग यह नहीं जानते हैं कि ‘रेस्ट ऑफ द वल्र्ड’ (शेष दुनिया) किसे कहते हैं?

यहाँ दोनों ही चीजें एक खास व्यवस्था औऱ उस व्यवस्थाओं की विशिष्टताओं पर जोर देती है। भारत, जहाँ अभाव है, संसाधनों के लिए संघर्ष हैं, मूलभूत चीजों को हासिल करने की जद्दोजहद है, इसलिए यहाँ ऑनेस्टी या ईमानदारी जैसी चीज का अभाव है। वजह एकदम साफ है जितनी ज्यादा असमानता होगी, जितनी बड़ी जनसंख्या अभावग्रस्त होंगी उतने ही ज्यादा संघर्ष होंगे और उतनी ही ज्यादा अनैतिकता, खींचतान और बेईमानी होगी।

इसके उलट अमेरिका का मामला है। वहाँ के लोगों के जीवन में मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष तुलनात्मक रूप से कम है। जीवन की जरूरतें यहाँ तक कि लग्जरी भी वहाँ आसानी से हासिल हो जाती है। ऐसे में उन्हें अपने से बाहर दुनिया को देखने और जानने की जरूरत महसूस नहीं होती। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों को जीवन में छोटी-छोटी सहूलियतें बड़ी मुश्किल और मशक्कतों से हासिल होती हैं, वे बहुत लंबे समय तक नैतिकता और मूल्यों को चाह कर भी नहीं साध सकते हैं।

निरंतर संघर्षरत इंसान के अनैतिक होने की जिम्मेदारी अकेले उसकी नहीं, पूरे समाज, पूरी व्यवस्था की है।

विषमता औऱ संसाधनों के लिए जद्दोजहद भी अनैतिकता के लिए उत्तरदायी हैं।

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