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कनक तिवारी लिखते हैं- दस साल, एक किताब पर एक नजर
05-Nov-2022 4:44 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- दस साल, एक किताब पर एक नजर

1971-80 के दशक की पांच घटनाएं चुनकर युवा पत्रकार सुदीप ठाकुर ने करीब 200 पृष्ठों में एक वृत्तांत समेकित किया है। वह जानकारियों, सूचनाओं, सांख्यिकी, इंटरव्यू, रिपोर्ताज वगैरह से लकदक होकर कई अव्यक्त इशारे भी करता है जिनमें से उभरकर वस्तुपरक सच किसी भी तटस्थ लेकिन सक्रिय व्यक्ति को झिंझोड़ सकता है। पुस्तक जब सुदीप ने भेजी, तो अंदाज नहीं था कि वह तुरतफुरत पढ़ लेने के लिए आग्रह के बदले मजबूर कर देगी। उसमें लेखकीय विनम्रता, आत्ममुग्धविहीनता, भाषा की कसावट और समुद्र की लहरों की तरह तर्कों का उछाल सराबोर कर देगा। पूरा पढ़ लेने के बाद संतोष और अनुतोष हासिल होकर इस बात के लिए कुरेदेगा कि या तो इसमें से बहुत कुछ मालूम नहीं था क्योंकि हालिया इतिहास के ज्ञान को लेकर एक नैतिक अहम्मन्यता अंदर ही अंदर गर्वोन्मत्त हो रही थी। अथवा जो भूल गए को याद दिला दे और अपनी अनोखी नजर पाठक के हवाले कर दे। वह अहसास भी किताब की सफलता का एक पैमाना हो गया लगता है। किताब को पिछले पृष्ठों से पढ़ेे ंतो खुद सुदीप के अनुसार 1971-80 के दशक में हुई कुछ घटनाएं मसलन गर्भपात को वैधता (1971), बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971), चिपको आंदोलन (1973), पहला परमाणु परीक्षण (1974), सिक्किम का विलय (1965), आर्यभट्ट का प्रक्षेपण (1975), दूरदर्शन की स्थापना और असम आंदोलन (1979) पर विस्तार से नहीं लिखा गया है। यह लेखक की समझ है कि उसने गरीबी, प्रिवीपर्स समाप्ति, कोयला-कथा, परिवार-नियोजन और आपातकाल जैसे पांच विषयों को चुनकर उन्हें विस्तारित, व्याख्यायित और सिलसिलेवार तार्किक किया है। पांचों मुद्दे लेखक के अनुसार आज तक कमोबेष अपनी अनुगूंज में कहीं न कहीं और कभी न कभी कुलबुला रहे हैं। ये लोकतंत्र की बुनियाद में पैठ गए हैं कि चाल चरित्र और चेहरे के त्रिभुज में रहते इनकी धडक़न सुनी, देखी और महसूस की जा सकती है।

आज कॉरपोरेट की गिरफ्त में हिन्दुस्तान है। तब सीधे सीधे उनकी गिरफ्त में नहीं था, क्योंकि अंगरेज भारतीयों की छाती पर चढ़े बैठे थे। एक बड़ेे भौगोलिक हिन्दुस्तान की सरहदों के अंदर सैकड़ों छोटे बड़े राजे रजवाड़े हुकूमतगाह थे। वहां रियाया दोहरे अन्याय का शिकार थी। फेबियन समाजवाद से ज्यादा प्रभावित आजादी के बाद देष बचाने के सबसे बड़ेे सूरमा जवाहरलाल को राजे रजवाड़ेे देख, सूंघकर लगता रहा जैसे नाक पर मक्खी बैठ जाने के बोध से होता है। नेहरू ने अपने यूरोप प्रवास में रूस सहित कई देशोंं के हालात का रूबरू जायजा लिया। संकुल परिस्थतियों मेंं भी जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया। नेहरू के बाद उनकी बेटी के प्रधानमंत्री काल की सबसे बुनियादी समस्याओं को लेकर सुदीप ने अपनी सुगठित किताब लिखी है। इंदिरा गांधी नेहरू की तरह फेबियन या माक्र्सवादी अध्ययन के कारण समाजवादी नहीं थीं। उनकी राजनीतिक समझ ने नेहरू के वैचारिक गर्भगृह से जन्म नहीं लेकर महात्मा गांधी, फिरोज गांधी, कृष्ण मेनन, जयप्रकाश नारायण, लोहिया, मोहन कुमार मंगलम और कई नौकरशाहों, जिनमें से ज्यादातर कश्मीरी रहे हैं, समाजवाद को दार्शनिक उपपत्ति से कहीं ज्यादा राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के हथियार के रूप में इस्तेमाल की है। राजशाही और इजारेदारी के धाकड़ों ने मिलकर लोकतंत्र को दूध की हांडी और इंदिरा को मक्खी समझना शुरू किया। तब जवाहरलाल की बेटी ने पलटवार किया। संवैधानिक, कानूनी और राजनीतिक औपचारिकताओं को धता बताकर इंदिरा ने राजशाही का अंत किया और प्रिवी पर्स भी बंद कर दिए।

इस संदर्भ में सुदीप ने सुप्रीम कोर्ट के तीन चार बड़ेे फैसलों का हवाला दिया है। उनके अनुसार ज्यादातर चुनौतियां कांग्रेस के अंदरखाने से कुछ राजे रजवाड़ों ने ही उठाई थीं। उनमें माधवराव सिंधिया का नाम प्रमुख रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को निष्प्रभ कर देना हो, तो नए और चतुर संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते संसद में दो तिहाई बहुमत हो। इस हथियार का इस्तेमाल करते इंदिरा ने सियासी फतह हासिल कर ली, लेकिन उसका ताजा प्रतिफलन यह भी हुआ कि नरेन्द्र मोदी की हुकूमत के सामने सुप्रीम कोर्ट को मालूम है कि भलाई इसी में है कि सहयोजन और समायोजन के शब्दों के शब्दार्थ नहीं फलितार्थ ढूंढे जाएं। बड़ेे दिलचस्प बयान हैं सुदीप की किताब में राजाओं की राजमहली बेचैनी को लेकर। कई समाजवादी नेताओं का जिक्र है जिनमें इंदिरा के खिलाफ चुनाव याचिका दाखिल करने वाले राजनारायण का उल्लेख है। कई राजाओं, रानियों के नाम हैं। सरदार पटेल और व्ही. पी. मेनन की हिकमतों का बयान है। यह पढक़र मुझे अच्छा लगा कि राजशाही और प्रिवीपर्स के खात्मे को लेकर दमदार तकरीर कम्युनिस्ट सदस्य भूपेश गुप्त ने की। संसदीय राजनीति में कई धनुर्धर हुए हैं जो निर्दलीय या छोटी पार्टियों के सदस्य रहे हों लेकिन उनकी आवाज इतिहास में प्रतिध्वनि की तरह गूंज रही है।

काले रंग का कोयला खदानों में दबा दबा आखिर हीरा भी बन जाता है। इतिहास में भी कई घटनाएं मनुष्य की उत्पत्ति और हैसियत का अनिवार्य चरित्र बन जाती हैं। कोयला भारतीय राजनीति और आर्थिक जीवन में एक तरह की भूमध्य रेखा की तरह संतुलन की तुला पर डंडी भी मारता है। लेखक या शोधकर्ता बहुत गंभीर या धैर्यवान नहीं है तो कोयले को अपने सामाजिक चिंतन की भूमिका में बुनियादी महत्व का नहीं मानेगा। वही कोयला इंदिरा गांधी के कार्यकाल मे कई गफलतें कर रहा था। कोयला उत्पादक बिहार के क्षेत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी, अपराध और हेकड़बाजी को लेकर उजले कपड़ों वाले सियासतदां अपनी नीयत और दिल में लगातार कोयला मल रहे थे। कोयले का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कारण एक बड़ी राष्ट्रीय घटना हुई। आपातकाल के अभिषापों में अब यह स्वीकृत है कि संजय गांधी के हस्तक्षेप के कारण अत्याचार जनता पर नसबंदी और परिवार नियोजन को लेकर हुए हैं। वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन का बड़ा कारण रहा है। किताब में बहुत विस्तार से उन सब घटनाओं, परिदृष्यों, राजनीतिक उठापटक और नेपथ्य की हरकतों का हवाला है, जो आमतौर पर उजागर नहीं हो पाते। आपातकाल के वक्त अभिव्यक्ति पर ही पहरा था। संजय गांधी को उनकी मां इंदिरा गांधी की विवशता के संदभ में अकेला खलनायक भी बना दिया गया था। पूरी इंदिरा मंत्रिपरिषद के सदस्य तक संजय गांधी की गैरसंवैधानिक मंत्रिपरिषद की टीम के सदस्य थे।

इसी बीच गुजरात के छात्रों की ओर से एक जलजला पैदा किया गया। असंतोष, आक्रोश और जोष के पूरे माहौल में वर्षो से शांत अलग थलग और उपेक्षित लगते बीते जमाने का एक पौरुषपूर्ण किरदार मैदान में आकर बागडोर संभालने अपनी भूमिका से बेरुख नहीं रह सका। यह किरदार था अतीत के राजनीतिक नायक जयप्रकाश नारायण का। कभी उन्हें गांधी ने लोहिया के साथ भारत की आत्मा कहा था। जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा गांधी को नहीं जयप्रकाश नारायण को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा था। जेपी के नाम से मशहूर चर्चित किरदार ने लेकिन अज्ञात और अनसुलझे हालातों में जनसंघर्ष का मोर्चा छोडक़र विनोबा भावे के भूदान आंदोलन जैसे ‘बोनलेस चिकन चिली’ कहलाते प्रकल्प से खुद को जोड़ लिया। देश के नौजवानों की चुनौतियों से बेखबर या अनजान होकर जयप्रकाश ने डाकुओं को आत्मसमपज़्ण कराना अपने एजेंडा में रखा।

अब उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी आबादी नियोजन को लेकर कई फैसले किए हैं। उनमें क्या लक्ष्य हैं और क्या हासिल होगा-यह तो फिलहाल कोई नहीं बता सकता। एक त्रासदायक और अवांछित तल्खी बार बार इषारा करती है कि मानो मुसलमान इस देश में बहुविवाह की मजहबी प्रथा के चलते आबादी में बहुत इजाफा कर रहे हैं। इस मजहब के लोगों पर इसी कारण बहुसंख्यक लोग षाब्दिक, षारीरिक और सियासी हमले करते ही रहते हैं। भारत सरकार की ताजा विष्वसनीय रिपोटांज़्े के अनुसार हिन्दुओं की आबादी के बढऩे की दर मुस्लिमोंं की आबादी बढऩे की दर से किसी कदर कम नहीं है। 19-20 का फकज़् हो सकता है। यह भी लेकिन दुखद सच है कि सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद मर्द अपनी नसबंदी कराने से किसी न किसी जुगत के सहारे अगल बगल हो लेते हैं। स्त्रियों की सामाजिक, कौटुंबिक और आर्थिक लाचारी परिवार नियोजन को लेकर भी एक नया विमषज़् हर वक्त मांगती है। बड़ेे-बड़ेे स्त्री समर्थक तीसमार खां अपने निजी जीवन में लेकिन घाघ दकियानूस जैसा आचरण करते हैं।

इसी परिच्छेद में नागरिक आज़ादी को लेकर सरकार की तरफ  से किए जा रहे हमलों को तथ्यपरक किया गया है। आज जो पाटीज़् देष में हुकूमत कर रही है। दरअसल उसका गर्भगृह आपातकाल की घोषणा में है। यह बात किताब में पूरी तौर पर नहीं आ सकती थी क्योंकि उसका इतिहास वृत्त बीसवीं सदी का सातवां दशक है। घटनाएं काल परीक्षित होती हैं। काल प्रतिबंधित नहीं होतीं। यह अलग बात है कि 1977 की जनता पार्टी की सफलता और इंदिरा की भयानक हार के बाद 1979, 80, 1984, 1991, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के बार बार सत्तामूलक जीत के कारण कब तक यह फतवा कायम रखा जाएगा कि जेपी के कारण आज भाजपा सरकार में हैं। भारतीय लोकतंत्र को उसके संविधान के प्रावधानोंं के कारण राजनीतिक विवेक की चुनौतियां मिलीं। उनका तरतीब के साथ किताब में बयान है। पूरी किताब सरसरी तौर पर पढऩे से भी एक तात्कालिक प्रतिक्रिया मांगती है। यादों की गुमशुदगी भी होती है। यह पुस्तक एक तरह से यादध्यानी या रिफ्रेंस की भी है। इसे गजेटियर की तरह भी पढ़ा जा सकता है। बीसवीं सदी के सातवें दषक का केवल भारतीय परिप्रेक्ष्य में नहीं, भारत पर असर डालने वाली दुनियावी परिस्थितियों और घटनाओं का लेखा जोखा करना किताब भूलती नहीं है। सुदीप ठाकुर ने इतनी ज्यादा किताबों, फाइलों और पत्रिकाओं को खंगाला है, जो परिशिष्ट में संदर्भित है। यह भी दिलचस्प है कि उन्होंंने नई तकनॉलॉजी का फायदा उठाते हुए कई नामचीन लोगों तक की खोजखबर जज्ब की। ई मेल भेजे। टेलीफोन किया। रूबरू भी मिले और इस तरह अपनी किताब की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता को लेकर लोगों से केवल विशेषणों की गिफ्ट नहीं मांगी। उनसे कई मुद्दों पर अहसमति भी व्यक्त की। कुछ पेचीदे सवाल भी पूछे और लेखन को औपचारिक नहीं बनाया। मुझे लगता है कि दस वर्ष का प्रामाणिक विवरण ब्यौरेवार प्रस्तुत करने में सुदीप ने कम से कम वर्षों का समय भी लगाया होगा।

यह किताब अकादेमिक नस्ल और तेवर की भी है। यह भी लिखने की शैली है कि यदि उद्धरण दिए जाएं तो उनका प्रमाण भी संलग्न किया जाए। सुदीप की किताब सुनी सुनाई या भूलती सी पढ़ी पढ़ाई बातों का खटराग नहीं बने। इसका ख्याल रखा गया है। उन्होंने तमाम उद्धरण प्रत्येक परिच्छेद के अंत में सूचीबद्ध किए हैं। कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उनकी बात हुई। ई मेल के माध्यम से संवाद हुआ है या टेलीफोन के माध्यम से। मसलन पुपुल जयकर, रामचंद्र गुहा, जयराम रमेश,  पी. चिदंबरम्, कौशिक बसु, नीलांजन मुखोपाध्याय और ज्यां द्रेज पहले ही परिच्छेद में हैं। आगे बढ़ें तो दूसरे परिच्छेद में भी वी. पी. मेनन की किताब और दीवान जर्मनी दास की और राजमोहन गांधी तथा डॉ. कणज़्सिंह से बातचीत का हवाला दर्ज है। परिच्छेद दर परिच्छेद संदर्भ दिए गए हैं। डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर, विवेक देबराय वगैरह, दिलीप सिनीयन, महालेखाकार रहे विनोद रॉय, पूर्व केबिनेट सचिव बी. के. चतुर्वेदी, लोकसभा के वादविवाद भी साथ हैं। यह देखना दिलचस्प है कि इसी परिच्छेद में सुदीप ने इस्को के सहायक जनसंपर्क अधिकारी बनखंडी मिश्र को चासनाला कोयला खदान की भयानक त्रासदी के संदर्भ में एक मजबूत गवाह के रूप में उल्लिखित कर पत्रकारिता और लेखन की प्रामाणिकता का सम्मान किया है। अगले पड़ाव पर और कई स्त्रोतों के अतिरिक्त प्रसिद्ध पत्रिका ‘इंडिया टुडे‘ और डा. कणज़्सिंह का विषेष उल्लेख है, जो विश्वसनीयता पैदा करने के लिए अध्यवसायी लेखन का जागरूक लक्षण है। मैंने पन्ने पलटकर देखे तो आखिरी परिच्छेद में तो महत्वपूर्ण नामों की भरमार है। विनोद मेहता, कुलदीप नैयर, बिपनचंद्र, डॉ. सुब्रमण्यम, स्वामी, जियोफे्र ओस्टरगार्ड, लालू प्रसाद यादव, जयप्रकाश, राजनारायण, भोला चटजीज़्, प्रो आनंद कुमार, पी एन दर, मार्कटुली, अजय बोस, मधु लिमये और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस के हवाले से तमाम प्रासंगिक विवरण को ख्ंागाला जाना आष्वस्त करता है। यह किताब आकर्षक होने और 299 रुपये कीमत होने से पढऩे के लिए उद्वेलित करती है लेकिन उत्सुकता के लिहाज से पाठक को 99 के फेर में नहीं डालती।

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