विचार / लेख
चैतन्य नागर
आइन्स्टाइन को दिन में करीब दस घंटे तक नींद आती थी। इसके अलावा वह बीच-बीच में कुछ मिनटों की झपकी लेते रहते थे। उनका मानना था कि नींद दिमाग को टटका बना देती है, उनकी सृजनात्मक अंतर्दृष्टियां काम और विश्राम के अंतराल में ही जन्मती हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कोई लगातार नींद में रहे। और यह उम्मीद करे कि उस नींद की स्थिति में ही चमत्कार का जन्म होगा। यह बात जीवन की हर क्षेत्र में लागू होती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बहुत अधिक। कांग्रेस पर तो जरूरत से ज्यादा।
कांग्रेस के साथ दो बड़ी समस्याएं हैं। बाकी छोटी तो और भी कई हैं। सबसे विचित्र समस्या यह है कि वह सोचती है कि भाजपा के करीब दस साल के शासन के बाद भी जनता उसकी पुराने, परम्परावादी राजनीतिक दर्शन के झांसे में आ जायेगी। इस दर्शन में मुस्लिम तुष्टिकरण, जातिवाद पर आधारित राजनीति वगैरह शामिल है। दूसरी यह कि कांग्रेस एक विचित्र किस्म के रुग्ण अहंकार से पीडित है और इसका सोचना है कि चूंकि उसने कई दशकों तक देश पर राज किया है, तो यही अनंत काल तक उसे आगे राज करने का भी अधिकार दे देती है। ऐसा सोचते समय वह बदलते हुए देश और समाज, इसके सामाजिक ढाँचे वगैरह को पूरी तरह अनदेखा कर देती है। वह अभी भी सोचती है कि एक परिवार या एक व्यक्ति के आधार पर वह लगातार लोगों को झांसे में रखेगी और जीतती जायेगी, सत्ता पर काबिज रहेगी। जब आत्म निरीक्षण की बात होती है तो वह बार-बार विपक्ष पर अधिक और स्वयं पर कम गौर करती है। इसका अर्थ है कि उनकी हार का दोष उनकी कमियों पर नहीं, बल्कि विपक्ष पर मढा जाना चाहिए। अजीब बात यह है कि कांग्रेसी इस अनर्गल बात पर बार बार भरोसा कर बैठते हैं। परिणाम यह है कि उनका सबसे बड़ा नेता, (पार्टी अध्यक्ष नहीं, बल्कि राहुल गांधी) लगातार, झूठे वाह्य आवरण के पीछे बैठकर ऐसे फैसले लेता रहता है जिसके बारे में उसकी समझ अभी भी परिपक्व नहीं हुई (यह भी नहीं मालूम कि उम्र के किस पड़ाव पर यह परिपक्व होगी), और पार्टी उनकी जय जयकार करती रहती है।
अब तीन राज्यों में हार के बावजूद हो सकता है कांग्रेस पार्टी स्थानीय नेताओं पर दोष मढ़ दे, या भाजपा के चातुर्य या कुटिलता पर। ई वी एम पर भी कुछ लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है। वह और भी कई सृजनात्मक कारण ढूँढ सकती है। पिछले कई वर्षों में हुई लगातार पराजय ने उसे इस काम में माहिर बना दिया है। पर जो बात उसे समझ नहीं आ रही, वह यह है कि यह सब उसके खुद के लिए कितना विध्वंसक है।
कांग्रेस के साथ उलझी हुई विचारधारा की भी एक समस्या है। कांग्रेस पार्टी कभी भी ओबीसी आधारित राजनीति के केंद्र में नहीं रही। हमेशा इसकी परिधि में ही रही है। न ही वह हिन्दूवादी पार्टी रही है। मंडल आयोग का उसने विरोध किया था। उसे मुस्लिम समुदाय का विकास करने वाली पार्टी नहीं बल्कि मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली पार्टी के रूप में ही इतिहास याद रखेगा। तो फिर अचानक कांग्रेस जातिगत जनगणना वगैरह की बात कैसे करने लगी? कैसे कमलनाथ जैसे नेताओं ने सॉफ्ट हिंदुत्व का नाटक रचना शुरू किया? क्यों राहुल गांधी ने माथे पर भस्म लगाकर मंदिरों में जाना शुरू किया? क्यों उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों को बेवकूफ बनाने की कोशिश की? खासकर तब जब भारत पिछले दस वर्षों में मोदी की कार्य शैली देख चुका है। जनता मोदी पर इसलिए भरोसा करती है क्योंकि उन्होंने जो कहा, वो किया। 3.0 हटाई, तीन तलाक खत्म किया, राम मंदिर बनाया जिसका वादा किया वही किया। वोटर वोट देते समय सोचता है कि ये तो भरोसे के लोग हैं। कम से कम जो कहते हैं, वो करते तो हैं। इधर कांग्रेस अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट और आश्वस्त ही नहीं। जब खुद ही स्पष्ट नहीं, तो जनता के पास कौन सा सन्देश लेकर जायेगी?
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें में एक ‘अनगढ़पन और घबराहट है, मानों वह ऐसे छात्र हों जिसने अपना पाठ पूरा कर लिया हो और शिक्षक को प्रभावित करने की चेष्टा में हो, लेकिन विषय का पारंगत होने के लिए जज़्बे और प्रतिभा दोनों की उसमें कमी हो।’ इस पुस्तक का शीर्षक है ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’। आम कांग्रेसी इस परिभाषा और व्याख्यान से बौखलाया था हालांकि पार्टी ने औपचारिक तौर पर इसपर चुप्पी साध ली थी। ओबामा ने अपनी किताब में सिर्फ राहुल गांधी के बारे में ही नहीं लिखा। उस काल के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में भी अपनी बात कही है। उनका कहना है कि डॉ सिंह एक भावशून्य ईमानदारी वाले व्यक्ति हैं। सोनिया गांधी का जिक्र करते हए ओबामा कहते हैं कि दुनिया में पुरुष नेताओं की खूबसूरती के बारे में खूब चर्चा होती है पर महिला नेताओं के सौंदर्य के बारे में लोग बातें करते हुए कतराते हैं। उन्होंने सुंदर स्त्री नेताओं में सोनिया गांधी के नाम का जिक्र किया है।
ओबामा ने थोड़े शब्दों में कांग्रेस के इन नेताओं को बड़े सटीक ढंग से परिभाषित किया है। उनकी टिप्पणियां किसी पूर्वग्रह से ग्रसित बिल्कुल नहीं लगती। दो बार राष्ट्रपति रहे ओबामा ने अपने गहरे अवलोकन की क्षमता को दर्शाया है। जो लोग उनके ऐसा कहने की आजादी पर सवाल कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्ममंथन करना चाहिए। ये किसी आम नेता का बयान नहीं जो प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी का विरोधी हो, अभी देश की सत्ता संभाले हुए लोगों का करीबी हो या कांग्रेस में राहुल गांधी की जगह हथियाने की फिराक में हो। यह एक बहुत ही लोकप्रिय और विश्व के सबसे बड़े नेताओं में से एक, नोबेल शांति का पुरस्कार पाए हुए एक सुलझे हुए नेता का बयान है जो कि अपने व्यक्तित्व, संजीदगी और अपने देश की जनता के साथ अच्छे संबंधों के कारण न सिर्फ अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में विख्यात रहा है। वह सस्ती लोकप्रियता और नाटकीय तौर तरीकों से कोसों दूर रहने वाले नेताओं में रहे हैं और ट्रम्प को उनके विलोम के रूप में देखा जा सकता है।
पिछले लोक सभा चुनावों के बाद एक शब्द बड़ा लोकप्रिय हुआ-आत्मनिरीक्षण। राजनैतिक आत्मनिरीक्षण का मतलब है चुनाव परिणाम के आईने में खुद की बदली हुई स्थिति को देखना। आईना आपको दिखाता है कि कैसे हैं आप, आपके नाक नक्श कैसे हैं, वजन बढ़ा हुआ है, या घटा है, वगैरह-वगैरह। अब आप आईने से कहें कि जरा बदल दे वह आपकी नाक का आकार, तो यह तो भयंकर बेईमानी हुई। आत्मनिरीक्षण में तो एक निर्ममता होनी चाहिए, एक कठोर और स्पष्ट दृष्टि, जिसमें कोई कोशिश भी करे तो न बदल पाये आपकी नाक के आकार को। खुद को जस का तस, यथाभूत देखने का साहस होना चाहिए।
मुझे तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस के लिए भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर नहीं, शुतुरमुर्ग होना चाहिए। कम से कम कांग्रेसियों के लक्षण देख कर तो ऐसा ही लगता है। कांग्रेसी खुद से रचे रेत के ढेरों में सर छिपा रहा है, बचने की कोशिश में है। खासकर एक ऐसी पार्टी जिसने अपना पूरा जीवन एक व्यक्ति, एक नाम पर लटककर बिताया हो, परजीवी की तरह अतीत की मृत देह को नोच कर अपनी राजनीतिक भूख मिटाने की कोशिश में रहा हो, उससे तो और कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती। शुतुरमुर्ग आत्मनिरीक्षण नहीं करता बस रेत के एक ढेर से दूसरे ढेर की तलाश भर कर सकता है। यही उसकी कमेडी है; यही ट्रेजडी। व्यक्ति और संगठन का वर्तमान जब सन्नाटे में चला जाता है, तो उसके पास एक रूमानी अतीत पर जीभ फिराने और उसे फिर से जिलाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। और उस मृत, तथाकथित गौरवशाली अतीत के आधार पर वह एक अजन्मे लुभावने भविष्य की कल्पना करता है, खुद को और दूसरों को बहलाने के लिए। समय की मांग यही है कि कांग्रेस इस देश के राजनीतिक लैंडस्केप पर कोई जगह चाहती है तो एक बार फिर से आत्म निरीक्षण करे। और सचाई के साथ करे। वैसे तो काफी देर हो चुकी है, पर फिर भी 2024 नहीं तो 2029 के लिए तो कुछ काम आ ही जाएगा उनका निरीक्षण।
आत्म-निरीक्षण के साथ कांग्रेस थोडा मोदी-निरीक्षण भी करे। उनमें सिर्फ बुराइयां न ढूँढे। उनकी कार्य शैली से, उनके व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता के कारणों को खंगाले और उनसे भी कुछ सीखे। कांग्रेस में कोई नरेंद्र मोदी नहीं बन सकता, बनने की जरूरत भी नहीं, पर कांग्रेस नरेंद्र मोदी से सीख जरूर सकती है, यदि वह उनकी अंधाधुंध नकारात्मक आलोचना से थोडा परहेज कर सके तो। यदि अभी भी नहीं, तो फिर कब? विधान सभा चुनावों के नतीजे और उनका संदेश दीवारों पर साफ-साफ लिखा है। साफ भी है और चीख भी रहा है। समय रहते उसे पढऩा और सुनना कांग्रेस की मदद करेगा। और नहीं तो जाने अनजाने में कांग्रेस और राहुल गांधी भाजपा के लिए एक कीमती जरिया बने रहेंगे, जीत के रास्ते पर । जब तक राहुल गांधी रहे, भाजपा उनकी और कांग्रेस की शुक्रगुजार रहेगी। वह बने रहें, भाजपा जीतती रहेगी। फिक्र नहीं कांग्रेस को, तो वह हारती रहे।