विचार / लेख
- प्रियंका झा
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में नई सरकार के गठन पर जारी सस्पेंस के बीच इन विधानसभा चुनावों में लडऩे वाले बीजेपी के 10 सांसदों ने संसद सदस्यता छोड़ दी है। पार्टी ने हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए अपने 21 सांसदों को मैदान में उतारा था। इनमें से 12 उम्मीदवारों को जीत मिली और नौ के हिस्से में हार रही।
ये सांसद चाहते तो विधायकी छोडक़र, संसद सदस्य बने रह सकते है, क्योंकि विधायकी छोडऩे के बावजूद बीजेपी का तीनों राज्यों में बहुमत बरकऱार रहता।
लेकिन उन्होंने संसद से इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा।
इन इस्तीफ़ों की टाइमिंग इसलिए ज़रूरी हो जाती है क्योंकि रविवार को चुनावी नतीजे आने के बाद अभी तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान मे सीएम पद के लिए नाम पर शीर्ष नेतृत्व का मंथन जारी है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह का नाम सीएम पद की दौड़ में है। लेकिन कहा ये भी जा रहा है कि बीजेपी नए चेहरों को भी सीएम बना सकती है।
इन अटकलों के बीच सांसदों के इस्तीफ़े ने ये सवाल खड़ा कर दिया है कि आखऱि बीजेपी के इस दांव के पीछे क्या रणनीति हो सकती है।
क्यों लिया गया सांसदों का इस्तीफ़ा?
मध्य प्रदेश में 7 सांसदों ने चुनाव लड़ा, जिनमें फग्गन सिंह कुलस्ते, राकेश सिंह, उदय प्रताप सिंह, रीति पाठक, प्रह्लाद सिंह पटेल, गणेश सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर शामिल थे। इनमें से गणेश और कुलस्ते चुनाव हार गए।
राजस्थान से बीजेपी की तरफ से सात सांसदों ने चुनाव लड़ा। जिनमें बाबा बालकनाथ, किरोड़ीलाल मीणा, दीया कुमारी, राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़, भागीरथ चौधरी, नरेंद्र खीचड़ और देवजी पटेल शामिल थे। इन सात में से सिर्फ चार ही चुनाव जीत सके। चुनाव जीतने वालों में राज्यवर्द्धन, बालकनाथ, दीया कुमारी और किरोड़ीलाल का नाम है। वहीं, छत्तीसगढ़ में बीजेपी के चार सांसदों ने चुनाव लड़ा और जीतने वाले तीनों ने इस्तीफ़ा दे दिया।
इनमें गोमती साय, रेणुका सिंह, अरुण साव शामिल हैं। हारने वालों में दुर्ग से सांसद विजय बघेल हैं, जो कि भूपेश बघेल के भतीजे हैं और उन्हीं से पाटन विधानसभा सीट पर हारे हैं।
मध्य प्रदेश में बीजेपी ने 163, छत्तीसगढ़ में 54 और राजस्थान में 115 सीटों पर जीत दर्ज की है। तीनों राज्यों में पार्टी इतनी मज़बूत स्थिति में है कि अगर सांसदों के सीट छोडऩे के बाद उपचुनाव में हार मिले तो भी बीजेपी सरकार बहुमत नहीं खोती।
बहुमत पर असर न पडऩे के बावजूद पार्टी ने सांसदों से इस्तीफ़ा क्यों लिया?
मध्य प्रदेश की राजनीति को बारीकी से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया इसके पीछे कई कारण गिनाते हैं।
वो कहते हैं कि सांसदों को चुनाव लड़वाने से पहले पार्टी की नीति ये रही होगी कि ये दिग्गज सत्ता विरोधी लहर को काटने में मदद करेंगे। नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, रीति पाठक वे नाम हैं जो जीतते आए हैं। ऐसे में पार्टी ये मानकर चल रही थी कि अगर चुनावों में 5-10 सीटों से बहुमत से दूर रह जाएं, तो उस फ़ासले को पाटने में ये सांसद मदद करेंगे।
हालांकि, इनका इस्तीफ़ा लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इससे बीजेपी के लिए लोकसभा में बहुमत पर कोई असर नहीं होगा। एक कारण ये भी हो सकता है कि शायद बीजेपी शिवराज को सीएम न बनाना चाहती हो, ऐसे में उनके पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक से अधिक नाम होंगे। प्रह्लाद पटेल का नरसिंहपुर जि़ले में काफ़ी कमांड है। उनकी स्थिति ऐसी है कि वो किसी भी पार्टी से लड़ें, जीत सकते हैं।’
‘एक तीर से दो शिकार’
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी मज़बूत रही है। साल 2005 में शिवराज सिंह चौहान पहली बार मध्य प्रदेश के सीएम बने और 2020 में उन्होंने चौथी बार इस पद की शपथ ली थी।
वसुंधरा राजे साल 2003 में राजस्थान की पहली महिला सीएम बनी थीं। इसके बाद राज्य में जब-जब बीजेपी सरकार लौटी, सीएम पद पर वसुंधरा ही बैठीं। वहीं रमन सिंह छत्तीसगढ़ के गठन के बाद राज्य पहले निर्वाचित सीएम बने और फिर 15 साल यानी 2018 तक इस पद पर बने रहे।
लेकिन ताज़ा चुनाव के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीएम पद के लिए कई नाम तैर रहे हैं। कई मीडिया रिपोर्टों में भी ये दावे किए जा रहे हैं कि विधायक बनने वाले सांसदों में से भी किसी को सीएम पद पर बैठाया जा सकता है।
बुधवार शाम एक चि_ी वायरल हुई, जिसमें राजस्थान के लिए मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्रियों के नाम थे। हालांकि, पार्टी ने इसे फ़ेक बताया लेकिन ये तीनों नाम उन सांसदों के थे जो अब विधायक बन गए हैं।
हालांकि, मुख्यमंत्री के पद तक कोई एक ही नेता पहुंचेगा। लेकिन जानकारों की नजऱ में सांसदों से विधायक बनने वाले नेताओं को राज्य के मंत्रीपद तक ज़रूर पहुंचाया जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी सांसदों के इस्तीफ़े को बीजेपी की ‘एक तीर से दो शिकार’ वाली नीति के तौर पर देखती हैं।
उनका कहना है, ‘सांसदों से इस्तीफ़ा लेने के पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक तो अब ये विधायक बने रहेंगे और इन सीटों पर उपचुनाव कराने की झंझट नहीं होगी। दूसरा, इससे खाली हुए संसदीय सीटों पर नए चेहरों को उतारने का मौका मिलेगा। हो सकता है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव में अपनी टीम में नए चेहरे शामिल करना चाहते हों। ये कदम एक तीर से दो शिकार करने जैसा है।’
क्या सांसदों का डिमोशन है ये कदम?
शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह उस समय अपने-अपने राज्यों के सीएम पद की कुर्सी पर थे, जब नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
इन नेताओं की जनता के बीच अच्छी पकड़ मानी जाती है और इसलिए ये भी कहा जाता है कि बीजेपी गुजरात, उत्तराखंड या कर्नाटक की तरह इन राज्यों में सीएम पद के चेहरे नहीं बदल सकी।
लेकिन नतीजों को आए जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, वैसे-वैसे नए चेहरे की चर्चा भी ज़ोर पकड़ती जा रही है।
राजस्थान में दीया कुमारी, बाबा बालकनाथ, छत्तीसगढ़ में रेणुका सिंह और अरुण साव, मध्य प्रदेश में नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल को सीएम पद की दौड़ का हिस्सा बताया जा रहा है।
लेकिन क्या मज़बूत नेताओं को हटाकर नए चेहरे लाना बीजेपी के लिए आसान होगा। इस पर वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया कहते हैं, ‘बीजेपी किसी भी आदमी को ज़्यादा ताकतवर नहीं होने देती है। योगी आदित्यनाथ का कहीं किसी ने नाम नहीं सुना था। उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इनका एक स्टाइल है, किसी भी आदमी को ज़्यादा नहीं बढऩे देना।’
नीरजा चौधरी का भी ये मानना है कि आज के वक्त में शायद ही ऐसा कोई है जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के फ़ैसलों को चुनौती दे। वह कहती हैं, ‘मोदी-शाह नए चेहरों को लाकर अपनी नई टीम खड़ी करना चाहेंगे।’
मध्य प्रदेश में बीजेपी के चुनाव अभियान से जुड़े रहे नेता दीपक विजयवर्गीय कहते हैं, ‘ये तो हमने टिकट वितरण से पहले ही तय कर लिया था कि अगली विधानसभा में कौन-कौन नेता रहेंगे। कौन कार्यकर्ता किस भूमिका में रहेगा ये तो पहले ही पार्टी ने तय कर लिया था।’
तो क्या ये सांसदों और मंत्रियों का डिमोशन है, ये पूछे जाने पर वह कहते हैं, ‘सांसदों का डिमोशन या प्रमोशन नहीं होता। सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं। किस कार्यकर्ता को क्या भूमिका दी जाए ये पार्टी समय-समय पर तय करती है।’
लोकसभा चुनाव में अब छह महीने भी नहीं बचे। फिर क्या इन इस्तीफ़ों को लोकसभा चुनाव से पहले सांसदों के टिकट काटने की रणनीति से जोड़ा जा सकता है?
लज्जा शंकर हरदीनिया इस पर कहते हैं, ‘हां, ये भी एक कारण हो सकता है, लेकिन ये टिकट देते समय की रणनीति नहीं रही होगी। उस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बहुमत पाना ही लक्ष्य रहा होगा। हालांकि, बीजेपी को इससे एक मौका भी मिल गया है इन संसदीय सीटों पर कोई नया चेहरा लाने का।’ (बीबीसी)