विचार / लेख
ध्रुव गुप्त
हिन्दी में व्यवसायिक स्तर पर निकलने और आम लोगों तक पहुंचने वाली एक भी साहित्यिक पत्रिका या अखबार नहीं हैं। राजनीति और खबरों पर केंद्रित जो भी बड़ी पत्र-पत्रिकाएं हैं, उनमें साहित्य का उपयोग फिलर के तौर पर ही होता रहा है। एक-दो को छोडक़र जो हज़ारों लघु साहित्पिक पत्रिकाएं हैं, वे बहुत कम प्रतियों में निकलती हैं और लेखकों तथा स्थापित साहित्यकारों के बीच ही बंट जाती हैं। आम लोगों तक उनकी पहुंच नहीं है। उन्हें लेखक ही निकालते हैं, लेखक ही पढ़ते हैं और लेखक ही उनका मूल्यांकन करते हैं। कोई रचनाकार अगर आम पाठकों तक पहुंचना चाहता है तो फेसबुक आज उसके लिए सबसे बड़ा और कारगर मंच है। समस्या यह है कि ज्यादातर लेखक इस मंच का सही उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। जो बड़े लेखक हैं वे इससे जुड़े तो हैं, लेकिन रचनात्मक तौर पर सक्रिय नहीं हैं। उन्हें यह मंच शायद अपने यश और क़द के अनुरूप नहीं लगता। यह भी संभव है कि उन्हें आम पाठकों का सामना करने के ख्याल से शायद डर लगता हो। प्रायोजित आलोचना, चर्चाओं और पुरस्कारों के बल पर खुद को तोप समझने वाले तमाम लेखकों की अग्निपरीक्षा भविष्य में यहीं होने वाली है। नए लेखक इस मंच पर सक्रिय तो हैं, लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि यहां दुरूह, यांत्रिक और बोझिल साहित्य नहीं चलेगा। यहां चलेगा वही जो लोगों की खुशियों, व्यथाओं, भावनाओं से टकराकर पाठकों से संवेदनात्मक रिश्ता कायम करने में सफल है। छपी हुई किताबों का अस्तित्व तो बना रहेगा, लेकिन यह अब तय लगने लगा है कि फेसबुक साहित्यिक पत्रिकाओं को विस्थापित कर साहित्य का सबसे व्यापक और कारगर मंच बनने वाला है ! आखिर पत्रिकाओं में छपे साहित्य को ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्हें फिर से फेसबुक पर पोस्ट तो करना ही पड़ रहा है न !
हमें सोशल मीडिया को सस्ते या लोकप्रिय साहित्य का वाहक बताकर खारिज़ करने के बज़ाय साहित्य की व्यापक पहुंच के लिए इसका कारगर उपयोग सीखने और करने की जरूरत है।