विचार / लेख
पॉल कलानिधि एक भारतीय अमरीकी न्यूरोसर्जन थे
- सुदेशना रुहान
जून का महीना, तीसरा हफ्ता, शायद बुधवार का दिन। मैंने फिर से झाँक के देखा उन आँखों में। वे अब भी उतनी ही गहरी थीं जैसे सालों पहले हुआ करती थीं। जीवन से भरी, इंदीवर की रचना जैसी! उस रोज मगर साफ-साफ कुछ भी नहीं दिख रहा था मुझे, शायद उन्हें भी। हम दोनों की आँखों में पानी की पांच परतें चढ़ी हुई थी, जिसे हटाना हम में से कोई नहीं चाहता था। थोड़ा संभलकर फिर उन्होंने कहा ‘माँ से मेरा नमस्ते कहना..!’ ‘लिपस्टिक लगाते रहिएगा!’ मैं अंत में केवल इतना कह पाई। वो हंस पड़ीं और फिर उसी मुस्कुराहट के साथ लौट गईं। कैंसर अस्पताल का वो छोटा सा गलियारा, उस दोपहर व्हील चेयर की आवाज से देर तक गूंजता रहा।
आज जब आँखों से पानी की वो परतें हट चुकी हैं, तो बता दूँ कि उस महिला से मेरा पुराना परिचय था। कोई दो दशक पुराना, जब वह एक अस्पताल में शिशु रोग विशेषज्ञ हुआ करती थीं। मैं शिशु और वह मेरी विशेषज्ञ। सभी बच्चों के लिए वह डॉक्टर कम, और चॉकलेट वाली आंटी अधिक थीं। ममता और धैर्य से भरी हुई। पर बीस साल बाद उस रोज जब हम मिले-तो मैं उनकी काउंसलर थी, और वह मेरी मरीज। उनका कैंसर अब आखरी चरण में था। एक डॉक्टर होने के नाते उन्हें इस बात की समझ थी, और घटते वक्त का अंदाजा भी। ऐसे में उन्होंने घर लौटने का फैसला किया और अपनी शेष इच्छाओं की लिस्ट थमाते हुए परिवार के साथ इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा की। उनके शेष दिनों तक पसंदीदा भोजन, क्यारियों में फूल और किताबें, लिस्ट में जगह बनाते रहे।
वह महिला, उन मरीजों में से एक थीं जिनकी आँखों में कभी मैंने मृत्यु का भय नहीं देखा, और न ही जीने की हड़बड़ाहट। बेहद सहजता से उन्होंने कहा ‘आज से बीस साल पहले जब मैं एक दफा बीमार पड़ी, तो मैंने ईश्वर से इतना समय माँगा जिसमें अपने बच्चों को आत्मनिर्भर होते देख सकूँ। उसके बदले ईश्वर ने मुझे बीस साल दे दिए। और आज जब वह मुझे अपने पास बुला रहा है, तो मैं तैयार हूँ!’
और इस तरह जून की उस सूखी दोपहर को मैंने जाना-मृत्यु के करीब चल रहा व्यक्ति शिक्षक होता है। उसका सत्य परम सत्य है।
‘चिरियत: यत तत्त शरीरम’- जो मिट रहा है वह शरीर है
प्रकृति का स्वरुप है बदलाव। जीवन की परिणीति है मृत्यु। आधायत्म कहता है कि हर जन्म लेती चीज धीरे-धीरे घट रही है। ब्रह्मांड और आकाश, देह और चैतन्य, सब कुछ! पर चुकीं जीवन सामाजिक है और मृत्यु व्यक्तिगत, इसलिए यथार्थ के बावजूद, मृत्यु को स्वीकार करना मुश्किल होता है। लेकिन अगर आने वाले अंत को स्वीकार कर लिया जाये तो शेष जीवन आनंद और गरिमा से भर उठता है। और यहीं से होती है पूर्ण रूप से जीने की शुरुआत। ओशो, जीवन को भरपूर जीने की कवायद कुछ यूँ करते हैं ‘प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि मृत्यु के बाद कहीं जीवन है या नहीं, प्रश्न ये हो- कि मृत्यु से पहले हम वास्तव में जीवित हैं या नहीं!’
जीवन के अंतिम दिनों में 70 वर्षीय स्नेहलता बेहद दुखी रहीं। एक अरसा हुआ लंबी बीमारी से जूझते। अस्पताल की खिडक़ी से झांकती गुनगुनी धूप और नर्स की समय पर दवाई, कुछ अच्छा नहीं लगता। रोज शाम जब बेटी मिलने आती तो स्नेहलता मुस्कुराने लगतीं। पर बेटी के लौटते ही उनका चेहरा आंसुओं से भर जाता। कुछ दिनों बाद इसका कारण पता चला। उनकी बेटी ने माँ की आने वाली मृत्यु को अस्वीकार कर दिया था। वह जितनी देर अस्पताल में रूकती, माँ को स्वस्थ होने के लिए कहती। बेटी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की, कि माँ के मन में क्या है। क्या माँ की इच्छा जीने की है, या वह सुकून के साथ आनेवाली मृत्यु को स्वीकारना चाहती हैं? कितना दुखद है जब अंतिम समय में भी व्यक्ति के पास मन में चल रहे संघर्ष, भय और दुविधा को साझा करने वाला कोई न हो। और कितना सुखद हो सकता है जो कोई स्नेह से पकड़ ले उस जाते हुए हाथ को, और कह दे ‘अलविदा, ओ जाने वाले सुंदर इंसान!’
सीप, साहस और रजनीगंधा
मृत्यु के बारे में जानना और मृत्यु को जान लेना- ये दो अलग विषय हैं। विशेषज्ञ मानते हैं अंतिम समय से कुछ पहले मरीज को इसका ज्ञान होने लगता है। यह समय कुछ सप्ताह से लेकर महीनों का हो सकता है। पर अपने परिजनों का मनोबल बनाए रखने की खातिर वह इस पर बात नहीं करते। एक कैंसर अस्पताल के शोध में पाया गया के मरीज और उसका परिवार जब साथ परामर्श के लिए आते हैं तो उत्साही दिखते हैं। पर जैसे ही उन्हें अलग-अलग परामर्श कक्ष में बुलाया जाता है, वे सब अपने एकांत, भय और दु:ख पर बात करना चाहते हैं। एक दूसरे के सामने, मगर इसे स्वीकार करने में उन्हें हिचक होती है। ऐसे में स्नेह और करुणा से भरा वातावरण इस संकोच को मिटाने में सहायक हो सकता है। प्रेम से माथे पर हाथ फेरना और चुपचाप किसी को अंत तक सुनना, किसी ईलाज से कम नहीं!
मरीज और उनके लोगों को प्रेरित करें कि वे छोटे-छोटे वाक्यों से अपने भय और असुरक्षा के विषय में कहना शुरू करें। इसे कर्णप्रिय होने की कोई आवश्यकता नहीं। हो सकता है ऐसी बातचीत की शुरुआत एक लंबी खामोशी से हो, जो हफ्तों चलें। या फिर एक दूसरे के लिए इसमें दु:ख, ग्लानि और शिकायत निकलकर सामने आए। अगर ऐसा है तो भी अच्छा! याद रहे, शुरू की जटिलताएं ही आगे आने वाले समय को सहज करेंगी।
‘एक मृत व्यक्ति के लिए दु:ख नहीं, बल्कि आभार से भरा मन सच्ची श्रद्धांजलि होगी!’ थॉर्नटन वाइल्डर
आनंद बसा है सत्य के ह्रदय में
सत्य हमारे लिए बेहतर चुनाव के द्वार खोलता है- फिर यह चुनाव जीवन का हो, या मृत्यु का। कहते हैं सौंदर्य, सत्य का उपहार है। ‘वेन ब्रेथ बिकम्स एयर’ किताब के दिवंगत लेखक पॉल कलानिधि एक भारतीय अमरीकी न्यूरोसर्जन थे। महज 36 वर्ष की आयु में जब पॉल कैंसरग्रस्त हुए तो उन्होंने तय किया कि अब जो भी जीवन शेष है, वे इसे पूरे आनंद के साथ जीएंगे। यह आनंद उनके दु:ख को स्वीकारने के बाद आया।
अगले 22 महीने वे सर्जन, लेखक और रोगी तीनों बने रहे। और इन सबके मध्य ही उन्होंने पिता बनने का फैसला किया। इसे याद करते हुए उनकी पत्नी लूसी बताती हैं ‘पॉल के इस निर्णय से मैं हैरान थी! मैंने पूछा- पॉल, क्या उस शिशु को अलविदा कहना तुम्हारे लिए बहुत दुखदायी नहीं होगा? इस पर वह बोले ‘हाँ, पर क्या यह दु:ख मेरे जीवन का सबसे सुंदर दु:ख नहीं होगा?’ 9 मार्च 2015 को एक छोटे से, मगर भरपूर जीये हुए जीवन को पॉल ने अलविदा कह दिया। जीवन के आखरी दिन, आखरी पहर और आखिरी सांस तक पत्नी लूसी और नन्हीं बेटी केडी उनके साथ बने रहे।
जन्म और मृत्यु पर बात करना हम सभी का अधिकार है। और इस यात्रा को सुनिश्चित करना भी। ठीक कहा है उस अज्ञात कवी ने- ‘एक दिन हम सब तस्वीर बन जायेंगे।’ किसी जाते हुए व्यक्ति के अंत को सम्मान के साथ स्वीकार करना, जिंदगी के सबसे सुंदर उपहारों में से एक है। यह सच है कि किसी अपने का चले जाना एक अकल्पनीय क्षति है, पर यह भी सच है कि स्मृतियाँ और प्रेम, जीवन और मृत्यु से परे, अभेद हैं!
आइये बाँचें प्रेम और फिर से झाँके उन गहरी आँखों में। और इस बार उन्हें पूरी गरिमा के साथ विदा करें....
परिचय- सुदेशना रूहान
निरामय: कैंसर फाउंडेशन की संस्थापक। सन 2012 से छत्तीसगढ़ में कैंसर मरीजों के लिए काम कर रही हैं। साहित्य, सिनेमा और संगीत में रुचि। अंग्रेजी और हिंदी में लेखन। कई पत्रिकाओं और अखबार में लेख प्रकाशित।