विचार / लेख

हिन्दी में अकादमी पुरस्कार
23-Dec-2023 10:37 PM
हिन्दी में अकादमी पुरस्कार

- प्रेमकुमार मणि
हिंदी समाज की हालत यह है कि यहाँ साहित्य पर कम, पुरस्कारों पर अधिक चर्चा होती है। आज भी हिंदी समाज एक अनपढ़, संस्कृतिहीन और मोटे तौर पर जाहिल समाज है। 1935 में गांधीजी जब हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे,तब उन्होंने हिंदी वालों से पूछा था कि आपके बीच कोई रवीन्द्रनाथ टैगोर, जगदीश चंद्र बसु और प्रफुल्लचंद्र राय क्यों नहीं है? हिंदी वालों के पास कोई जवाब नहीं था। गांधी जी का वह सवाल बहुत हद तक आज भी प्रासंगिक कहा जा सकता है।

गांधीजी के तीन नामों पर गौर कीजिए। इन में एक लेखक और दो वैज्ञानिक हैं। कैसा लेखक? तो रवीन्द्रनाथ जैसा दृष्टि सम्पन्न। वैज्ञानिक तो अपनी जगह थे ही। इस अनुपात में गांधी क्यों हिंदी समाज को देखना चाहते थे। यह शायद उनका मिजाज था। यही कारण था कि आज़ाद देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जवाहरलाल का चुनाव किया, जो उनके विचारों से अनेक मामलों में असहमत थे। लेकिन गांधी जानते थे कि भारतीय समाज को आज नेहरू जैसी विवेक-दृष्टि चाहिए। नेहरू लगातार वैज्ञानिक चेतना ( साइंटिफिक टेम्पर ) की वकालत कर रहे थे। अर्द्धसामन्ती और रामनामी- मुल्लावादी धार्मिकता में लिथड़े पिछड़े समाज को एक जबरदस्त वैज्ञानिक थेरेपी की जरूरत थी। गाय, गंगा और गीता-कुरान से घिरे हिंदीभाषी समाज को एक सम्यक वैचारिक आवेग ही आधुनिक बना सकता था।

लेकिन गांधी- नेहरू की चिंता पर हिंदीभाषी समाज ने कभी ध्यान नहीं दिया। यह समाज आत्मावलोकन करना नहीं जानता। विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण यहाँ कम ही होता है। हाँ, संश्लेषण यानि जोड़-तोड़ में हिन्दी के लोग माहिर होते हैं। भेडिय़ाधसान प्रवृति भी बहुत गहरी है। प्रेमचंद, पंत,निराला को घेर कर आज तक लोग बैठे हैं। बंगला में रवीन्द्र या शरत की कोई परंपरा नहीं है। हिंदी साहित्य के अभ्यर्थी, परम्पराएं अथवा डगर बनाने में दक्ष हैं। तुलसी, कबीर ,प्रेमचंद, निराला सबकी परंपरा है। बंगला और मराठी भाषी बौद्धिक ऐसी परम्पराओं को निरंतर तोड़ते हैं और नए का संधान करते हैं। हिंदी में हर किसी का एक टीला या वेदी बनाते हैं और लोग उसे पूजते रहते हैं। यही हमारा जातीय संस्कार है।
इधर कुछ वर्षों से देख रहा हूँ, पुरस्कार, विशेष कर अकादमी पुरस्कार, हर बार बहस का विषय बन जाता है। मोदी राज आते ही रमेश चन्द्र शाह को जब पुरस्कृत किया गया, तब एक नए मिजाज को लक्षित किया गया। दो वर्ष पहले दयाशंकर सिन्हा को जब उनके नाटक पर मिला तब कहा गया यह उन्हें उनकी संघ से निकटता के कारण मिला। पिछले वर्ष कवि बद्रीनारायण को जब पुरस्कार मिला तब भी कुछ इसी तरह की बात कही गई। इस बार यह पुरस्कार नक्सलबाड़ी से प्रभावित कथाकार संजीव को दिया गया है। अब लोग चुप हैं। एक बेहूदा धड़ा इन्हे उनकी जाति से जोड़ कर देख रहा है कि लेखक पिछड़ी जाति से हैं। यह तो पतन की पराकाष्ठा और संजीव का अपमान है। संजीव की उम्र 75 से अधिक होगी। उन्हें बीस साल पहले भी यह पुरस्कार मिल सकता था। उन्हें पुरस्कृत कर अकादमी ने अपना ही कद ऊँचा किया है। संजीव पर पिछले दिनों चर्चा के दौरान एक इंटरव्यू में मैंने कहा था कि उन्हें मैं बड़ा कथाकार तो नहीं मानता,लेकिन वह प्रयोगधर्मी और खूब परिश्रमी लेखक जरूर हैं। संजीव ने उपन्यासों की भरमार उस दौर में लगाई जब इस क्षेत्र में सन्नाटा था। 

गिने-चुने लेखक उपन्यास लिख रहे थे। उनसे कमतर लेखकों को यह अकादमी पुरस्कार पहले मिल चुका है। इसलिए उनके चयन को जाति और राजनीति से जोड़ कर देखना शरारत के सिवा और कुछ नहीं है। एक सज्जन ने तो यहाँ तक लिखा कि पहली बार अकादमी ने ओबीसी लेखक को पुरस्कृत किया है। यदि ऐसा है तो क्या यह माना जाय कि मोदी सरकार का संस्कृति मंत्रालय साहित्य में सामाजिकन्याय का परचम गाड़ रहा है। और यह सब आसन्न चुनाव के मद्देनजर किया गया है? तो क्या संजीव बीजेपी की चुनावी खुराक है?इस तरह से चीजों को देखना निन्दनीय होना चाहिए।

भारत में साहित्य अकादमी की स्थापना के पीछे जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आज़ाद के सपने थे। स्वतंत्रता के पहले से ही इसकी रूपरेखा बनाई जा रही थी। 1952 में इस सम्बन्ध में भारत सरकार का संकल्प जारी हुआ। इस नवस्वतंत्र राष्ट्र की विभिन्न भाषाओं की साहित्यिक गतिविधियों को एक स्वरूप देने के लिए इस संस्था की स्थापना हुई थी। इसके आरंभिक अध्यक्षों में जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, ज़ाकिर हुसैन और सुनीति कुमार चाटुर्ज्या जैसे दिग्गज रहे। पहली बार पुरस्कारों की घोषणा 1955 में की गई। हिंदी में उस वर्ष माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य-संकलन ‘हिमतरंगिणी ’ को पुरस्कृत किया गया था। नेहरू जी के कार्यकाल में वासुदेवशरण अग्रवाल, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, रामधारी सिंह दिनकर और सुमित्रानंदन पंत को सम्मानित किया गया। सुना था 1957 और 1958 की पुस्तकों के चुनाव में स्वयं नेहरू ने पहल की थी। नरेन्द्र देव की पुस्तक ' बौद्ध धर्मदर्शन ' और राहुल की इतिहास संबंधी किताब ' मध्य एशिया का इतिहास ' का चुनाव स्वयं नेहरू जी किया था। ये किताबें शायद सूचीबद्ध भी नहीं थीं।

हिंदी मामलों में पुरस्कारों की गिरावट 1970 के बाद होने लगी। इस बीच इस संस्था पर वाम प्रभाव हावी हुआ। अज्ञेय को 1964 में ही पुरस्कार न मिल गया होता तो 1970 के बाद के दौर में शायद नहीं मिलता। क्योंकि धर्मवीर भारती को पूरी कोशिश करके मिलने से रोक दिया गया। यह आश्चर्य ही है कि मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, रामबृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध, मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेंद्र यादव, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, राही मासूम रजा, ज्ञानरंजन, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, शेखर जोशी, विजय देवनारायण साही, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, हिमांशु श्रीवास्तव, मुद्राराक्षस, तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, ममता कालिया,अब्दुल बिस्मिल्लाह और आलोक धन्वा जैसे चर्चित रचनाकारों को यह पुरस्कार नहीं मिला। दर्शन, इतिहास, विज्ञान, विचार जैसे विषयों पर लिखे गए पुस्तकों का कभी कोई चयन नहीं हुआ। 

कालिदास पर केंद्रित महत्वपूर्ण पुस्तक भगवतशरण उपाध्याय ने लिखी और इसी तरह इतिहासकार रामशरण शर्मा ने 'आर्य संस्कृति की खोज ' शीर्षक पुस्तक मूलरूप से हिंदी में लिखी। फादर कामिल बुल्के ने रामकथा पर मूल हिन्दी में किताब लिखी। इन्हें पुरस्कृत कर इन विषयों में लेखन को प्रोत्साहित किया जा सकता था। लेकिन हिंदी की गालबजाउ संस्कृति को कविता-कहानी-उपन्यास से इतर कुछ दीखता ही नहीं। आज कोई नेहरू नहीं हैं कि इस मामले में हस्तक्षेप करें।

हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी लेखक आत्मालोचन करें कि उनमें कितनी कमियां हैं। यह प्रवृति उन्हें चेतना सम्पन्न करेगी और वे अपने तंग नजरिए से बाहर आ सकेंगे। इसके बाद ही वे सुन्दर का संधान कर पाएंगे।

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