विचार / लेख
-शंभुनाथ
कोलकाता में सात दिवसीय 29वां हिंदी मेला चल रहा है। लगभग 40 सालों से स्त्री विमर्श चल रहा था और पहले से इसपर काफी मंथन है। पर लघु स्तर पर ही सही सिर्फ स्त्री रचनाकारों का यह संभवत: पहला जमावड़ा है जहां मंच पर सिर्फ स्त्री साहित्यकार हैं और वे स्त्री विमर्श के समक्ष नई चुनौतियों पर कुछ सोचना चाहती हैं। यहां कई अन्य लेखिकाओं को होना चाहिए था, पर हिंदी मेला की आर्थिक सीमाओं के कारण ज्यादा लोगों को बुलाना संभव नहीं हुआ। अत: सभी लेखिकाएं इक_ा होकर स्त्री के समक्ष उपस्थित नई चुनौतियों और स्त्री विमर्श के नए मुद्दों पर बात करें, यह एक स्वप्न ही रह गया।
फिलहाल कुछ ये सवाल मेरे मन में हैं-
1) हिंदी में स्त्री विमर्श लंबे समय से है, पर स्त्रियों का कोई बड़ा संगठित आंदोलन नहीं है। जब तक निर्भया कांड जैसी कोई घटना नहीं होती, हिंदी क्षेत्र की स्त्रियां इक_ी होकर अपने मुद्दों कुछ आंदोलनात्मक कर नहीं पातीं।
2) दुनिया में उस रुत्रक्चञ्ज के आंदोलन आज भी हैं, जो विश्व की आबादी के . 01 प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन स्त्रियों का वैसा आंदोलन अब नहीं है जो 20 वीं सदी के आरंभिक 6 दशकों तक तीव्र रूप में था।
उनकी वजह से दुनिया के कई पुराने नियम-कानून बदले, संयुक्त राष्ट्र सक्रिय हुआ और इन सबकी आंच भारत में भी आई। क्या मान लिया जाए कि अब पुरुषसत्ता का मामला ठंडे बस्ते में चला गया है या कुछ तात्कालिक गुस्सों और कुछ एक ही जैसे स्टीरियो टाइप उपन्यास तथा कविताएं लिखने तक सीमित है?
3) क्या स्त्री मुक्ति का आंदोलन पिछले करीब 25 सालों में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बाद अब स्त्री-सशक्तिकरण में सीमित हो गया है, अर्थात पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर ही स्त्रियों को कुछ ऊंचे पद, कुछ आरक्षण, कुछ पुरष्कार-सम्मान और सेमिनारों, कार्यक्रमों में दो-एक को बुलाकार प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व देकर तृप्त कर देना और इन्हीं से स्त्रियों का तृप्त हो भी जाना?
4) पिछले 10 सालों में स्त्री रचनाकारों के कितने उपन्यास या कितनी कहानियां उस धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वासों को विषय बनाकर लिखी गई हैं जो वस्तुत: स्त्री स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा है?
5) पिछले दो दशकों में स्त्री रचनाकारों ने वे कौन से नए प्रश्न उठाए हैं जो पहले के स्त्री साहित्य में नहीं थे, क्या उनके साहित्य की अंतर्वस्तु में वस्तुत: कोई परिवर्तन या विकास आया है?
6) विश्वविद्यालय और कालेजों में वीमेन्स स्टडी सेंटर बने हैं और अब सबसे आसान है स्त्री विमर्श पर पीएचडी की डिग्री पाना। धर्म की तरह बाजार का स्त्री बिंबों का उपयोग करके किसी भी युग से अधिक पुरुषसत्तात्मक विस्तार हुआ है। इन मुद्दों पर स्त्री लेखिकाएं क्या सोचती हैं? क्या इन घटनाओं को स्त्री विमर्श की सफलता के रूप में देखा जाए या एक चक्रव्यूह के रूप में?
ऐसे कई प्रश्न हो सकते हैं। मुख्य बात है स्त्री विमर्श में आए गत्यावरोध को तोडऩा और इसके अति–होमोजीनियस हो चुके रूप के बाहर आना! क्या आधी आबादी स्त्री, दलित, पिछड़ा, आदिवासी विमर्शों के बीच पुल बनाकर प्रतिरोधों के बीच विभाजन दूर कर सकती है?
पर ये काम खुद स्त्रियों द्वारा ही संभव हैं। उनकी आधी आबादी में पूरी आबादी को बदल डालने की असीम संभावनाएं हैं!