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बांग्लादेश के नोबेल पुरस्कार विजेता क्यों अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के फैसले को गलत मानते हैं
07-Mar-2024 4:20 PM
बांग्लादेश के नोबेल पुरस्कार विजेता क्यों अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के फैसले को गलत मानते हैं

साल 2006 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस को लगता है कि 2007 में बांग्लादेश में सैन्य समर्थित कार्यवाहक सरकार के दौरान एक राजनीतिक पार्टी बनाने की उनकी पहल एक ग़लती थी।

प्रोफेसर यूनुस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘गरीबों के बैंकर’ के तौर पर जाना जाता है। बीबीसी बांग्ला को दिए एक इंटरव्यू में प्रोफेसर यूनुस ने दावा किया कि उस समय सेना समर्थित सरकार के अनुरोध के बावजूद उन्होंने सरकार का मुखिया बनना स्वीकार नहीं किया था। बाद में सबके अनुरोध पर उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाने की पहल की थी। लेकिन इस पहल के दस सप्ताह के भीतर ही वो पीछे हट गए थे।

बीबीसी बांग्ला से बातचीत में उन्होंने सवाल किया कि क्या दस सप्ताह के उस घटनाक्रम का खामियाजा उन्हें जिंदगीभर भुगतना होगा?

प्रोफेसर यूनुस ने उस समय ‘नागरिक शक्ति’ नामक राजनीतिक पार्टी बनाने की पहल की थी।

बीबीसी बांग्ला के संपादक मीर शब्बीर के साथ कऱीब एक घंटे की बातचीत के दौरान इस नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री ने अपने खिलाफ चलने वाले मामलों, अपनी संस्था पर जबरन कब्जे के आरोप, बांग्लादेश चुनाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलावा पद्मा सेतु की फंडिंग रोकने की घटना समेत तमाम मुद्दों पर खुलकर जवाब दिया।

प्रोफेसर ने बताया कि उनके खिलाफ सौ से ज़्यादा मामले चल रहे हैं। उनमें सजा हुई है। एक मामले में वो जमानत पर हैं। इसका असर उनके निजी जीवन पर भी पड़ा है।

वह कहते हैं, ‘निजी जीवन में सब कुछ तहस-नहस हो गया है। मेरी पत्नी डिमेंशिया की मरीज़ है। वह मेरे अलावा किसी को नहीं पहचानती। उसकी देखभाल का पूरा जिम्मा मुझ पर है। इस परिस्थिति में अगर जेल में रहना पड़ा तो उनकी क्या हालत होगी?’

मामले और जेल की सजा

प्रोफेसर यूनुस और उनकी संस्था के ख़िलाफ़ श्रम कानूनों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार निरोधक आयोग के समक्ष मनी लॉन्ड्रिंग समेत जो सौ से ज़्यादा मामले हैं उनमें से एक में छह महीने की सजा हुई है। कई मामलों की अब भी सुनवाई चल रही है।

इन मामलों के कारण उनको क़ानूनी लड़ाई में बहुत समय देना पड़ता है। उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘मैं किसी योजना का कार्यक्रम तैयार नहीं कर पाता। मेरे और मुझसे जुड़े लोगों के जीवन में एक तरह की अनिश्चितता पैदा हो गई है।’

बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक के संस्थापक

प्रोफेसर बताते हैं कि ग्रामीण के संस्थानों से वह कोई वेतन-भत्ता नहीं लेते, वह अवैतनिक रूप से वहां काम करते हैं।

वह कहते हैं, ‘इन संस्थानों को तैयार करने में ही मेरा जीवन बीत गया। मेरा परिवार ख़त्म हो गया। मेरे पुत्र-पुत्रियों का भविष्य नष्ट हो गया। अब लोग मुझसे डरते हैं। मैं एक सजायाफ्ता हूं।’

संस्थान पर क़ब्ज़ा?

प्रोफेसर यूनुस ने इस साल फऱवरी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने संस्थान ग्रामीण टेलीकॉम और ग्रामीण कल्याण समेत आठ संस्थानों पर जबरन कब्ज़े करने का आरोप लगाया था। यह तमाम संस्थान ढाका के मीरपुर में चिडिय़ाखाना रोड पर स्थित टेलीकॉम भवन में थे।

लेकिन अब उन संस्थानों की क्या स्थिति है? इस सवाल पर उनका कहना था, ‘फिलहाल हम लोग यहां हैं। लेकिन यह नहीं पता कि भविष्य में क्या होगा। अचानक कुछ लोग वहां पहुंचे और शोरगुल करने लगे। नियम कानून की परवाह किए बिना वो सबको आदेश देने लगे।’

वो बताते हैं कि उन लोगों ने ग्रामीण बैंक से चि_ी लाने का दावा कर चेयरमैन से लेकर सब कुछ बदलने की बात कह कर अधिकारियों और कर्मचारियों को डरा दिया था। इसके जरिए उन्होंने एक डरावना माहौल भले बना दिया, लेकिन अब कब्जा करने के लिए आने वाले लोग इस संस्थान में नजर नहीं आते।

क्या अब जबरन दखल का मामला ख़त्म हो गया है? इस सवाल पर प्रोफेसर यूनुस ने बताया, ‘फिलहाल ऐसा कुछ हमें नजर नहीं आ रहा है। भीतर-भीतर हो भी सकता है। हमें तो यह भी नहीं पता कि कल क्या होगा।’

ग्रामीण बैंक से प्रतिद्वंद्विता क्यों?

प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस और ग्रामीण बैंक को साल 2006 में संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। नोबेल विजेता संगठन और नोबेल विजेता व्यक्ति के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध कैसे बने?

इसके जवाब में नोबेल विजेता अर्थशास्त्री ने कहा, ‘क्या यह एक अनूठा मामला नहीं है? इसे एक मजबूत संबंध होना चाहिए था। अब उसी संस्थान का नाम लेकर उग्र रूप से हमला करने आ रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?’

मोहम्मद यूनुस ने साल 2011 में ग्रामीण बैंक की जिम्मेदारी छोड़ दी थी। इसके कऱीब 13 साल बाद बीती फरवरी में एक गुट ने उसी ग्रामीण बैंक पर कब्जे का प्रयास किया।

प्रोफेसर यूनुस बीबीसी बांग्ला को दिए इंटरव्यू में कहते हैं, ‘बांग्लादेश में नोबेल पुरस्कार आया। सबके मन में बेहद खुशी थी। लोगों में लंबे समय तक यह खुशी बनी रही। इसकी याद बांग्लादेश के लोगों के मन में गहराई तक बसी हुई है।’

उनका कहना था कि नोबेल तो कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी खोज मैंने की है, यह पूरी दुनिया में स्वीकार्य है।

क्या इस शत्रुतापूर्ण रिश्ते को सुधारने के लिए कोई पहल की गई थी? इस सवाल पर उनका कहना था, ‘नहीं, मेरे साथ कोई संपर्क नहीं किया गया। हमारी ओर से रिश्ते में कोई दरार नहीं पैदा की गई है।’

‘अब कौन किसका ख़ून चूस रहा है?’

ग्रामीण बैंक ने माइक्रो क्रेडिट की अवधारणा के माध्यम से पूरी दुनिया में असर छोड़ा था। प्रोफ़ेसर यूनुस की इस अवधारणा के कारण ही उनको और ग्रामीण बैंक को साल 2006 शांति का नोबेल मिला था। लेकिन उसके बाद सत्तारूढ़ अवामी लीग और प्रधानमंत्री ने कथित रूप से कई बार यूनुस को ‘सूदखोर’ कहा था, अलग-अलग समय पर मीडिया में ऐसी खबरें छपती रही हैं।

प्रोफेसर यूनुस ने इस मुद्दे पर भी अपनी बात रखी। वह कहते हैं, ‘हम खून चूसने वाले हैं। ठीक है, हम यही सही। जब हमने माइक्रो क्रेडिट के मुद्दे पर काम शुरू किया तब लोग हमें खून चूसने वाला कहते थे। अब तो सब लोग यही व्यापार कर रहे हैं। सरकार नियम नीति बना कर पैसे दे रही है। अब कौन किसका खून चूस रहा है?’

उनका कहना था, ‘मुझे कई बार सूदखोर कहा गया है। सुनकर तकलीफ़ होती है। जो व्यक्ति बांग्लादेश के लिए नोबेल पुरस्कार ले आया, उसे प्रधानमंत्री ऐसे अपमानित करेंगी, यह तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा। यह तो देश को लोगों को भी पसंद नहीं आना चाहिए।’

‘अगर आप एक बात बार-बार कहेंगे तो वह लोगों के मन में बैठ जाएगी। लोगों को लगेगा कि यह अच्छा आदमी नहीं हैं। देश का नुकसान कर रहे हैं। लोग तो मेरी ओर देखकर कहते हैं कि यह सूदखोर है, इसे पकड़ो।’

मोहम्मद यूनुस अफसोस जताते हुए कहते हैं, ‘मुझे भी यह जानने की इच्छा होती है कि वह लोग ऐसी बातें क्यों कहते हैं। मुझे लोगों को अपमानित करने के अलावा इसका दूसरा कोई उद्देश्य नजर नहीं आता।’

उन्होंने दूसरे बैंकों के साथ ग्रामीण बैंक की ब्याज दर के अंतर का भी जिक्र किया। वह कहते हैं, ‘ग्रामीण बैंक का 75 प्रतिशत मालिकाना हक सदस्यों के पास है। तो अगर ब्याज खाते भी हैं तो गऱीब और महिलाएं ही खा रही हैं। लेकिन बीच में मैं सूदखोर हो गया? मुझे निजी तौर पर सूदखोर क्यों कहा जा रहा है? ग्रामीण बैंक के ब्याज की दर सबसे कम है। ब्याज की दर नियंत्रित करने का अधिकार माइक्रो क्रेडिट अथॉरिटी के पास है जो सरकारी संस्था है।’

वन इलेवन की घटना पर सवाल

साल 2007 में वन इलेवन के बाद सेना के समर्थन वाली कार्यवाहक सरकार के कार्यकाल में मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश की राजनीति में काफ़ी अहम हो गए थे। तब पूर्व प्रधानमंत्री बेगम ख़ालिदा जिय़ा और मौजूदा प्रधानमंत्री शेख़ हसीना से इतर एक राजनीति की कोशिश हो रही थी। उस समय प्रोफ़ेसर यूनुस के नेतृत्व में एक राजनीतिक पार्टी बनाने की चर्चा भी जोरों पर थी।

प्रोफेसर यूनुस ने इस मुद्दे पर कहा, ‘उस समय सेना तो मेरे पास ही आई थी। उसने मुझे सरकार का मुखिया बनने का प्रस्ताव दिया था। कहा था कि आप बांग्लादेश की सत्ता संभालिए। मैंने इससे मना कर दिया। मैं तो राजनीति नहीं करता। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं।’

उन्होंने ऐसी परिस्थिति में नागरिक शक्ति नामक एक पार्टी बनाने की पहल करने की बात कही।

उनका कहना था, ‘मुझे कई तरह के दबाव में डाला गया। तब मैंने सबको पत्र भेजा और सबसे राय लेता रहा। इसके समर्थन और विरोध में कई प्रस्ताव मिले। पार्टी के नाम पर कौतूहल था। तब मैंने नागरिक शक्ति नाम दिया। बाद में मैंने कह दिया कि अब और राजनीति में नहीं रहूंगा, मैं राजनीति नहीं करना चाहता।’ (बाकी पेज 8 पर)

अब मोहम्मद यूनुस मानते हैं कि राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला गलत था।

बांग्लादेश चुनाव और लोकतंत्र

बांग्लादेश का बारहवां राष्ट्रीय चुनाव हाल में संपन्न हुआ है। अवामी लीग ने लगातार चौथी बार जीत हासिल कर सरकार का गठन किया है। लेकिन उस चुनाव से पहले यूनुस के हवाले कार्यवाहक सरकार के सत्ता में आने की बात भी सुनने में आ रही थी। लेकिन उनका कहना था कि वह सब अफवाह थी।

चुनाव के बाद सरकार के गठन के बावजूद उनको लगता है कि देश में अब भी लोकतंत्र पर एक तरह का संकट है।

उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘हम फिलहाल लोकतंत्रविहीन स्थिति में हैं। मैंने वोट नहीं डाला। कइयों ने वोट नहीं दिया। मैं तो मतदान में हिस्सा नहीं ले सका। कई अन्य लोग भी ऐसा नहीं कर सके। अगर मैं वोट नहीं डाल सका और मतदान में हिस्सा नहीं ले सकता तो यह कैसा लोकतंत्र है?’

पद्मा सेतु की फंडिंग में किसने बाधा पहुंचाई थी?

अवामी लीग सरकार ने साल 2009 में सत्ता में आने के बाद पद्मा सेतु के निर्माण की पहल की थी। उस समय विश्व बैंक भी इसके लिए वित्तीय सहायता मुहैया कराने के लिए तैयार हो गया। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप में वह सहायता बीच में ही रुक गई।

इसके बाद प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने विभिन्न सभाओं में आरोप लगाया कि मोहम्मद यूनुस के प्रभावित करने के कारण ही यह फंडिंग रुक गई थी।

इसके जवाब में यूनुस ने कहा, ‘मेरे पास तो इसमें बाधा पहुंचाने की कोई वजह नहीं थी। पद्मा सेतु देश के लोगों का सपना है। इसमें बाधा डालने का सवाल क्यों पैदा हो रहा है? विश्व बैंक तो मेरे प्रभावित करने का इंतजार नहीं कर रहा। उसका कहना है कि भ्रष्टाचार हुआ है।’ (bbc.com/hindi)

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