विचार / लेख

तोड़ो कारा तोड़ो
08-Mar-2024 2:17 PM
तोड़ो कारा तोड़ो

ध्रुव गुप्त

‘महिला दिवस’ पर एक बार फिर से स्त्री-शक्ति के गुणगान का सिलसिला शुरू हो गया है। हर तरफ शोर मचा है कि स्त्रियां मां है, देवी हैं, शक्तिस्वरूपा हैं, पूजनीया हैं। यह बात कम ही लोग कहेंगे कि वे पुरुषों के जैसी ही हाड़-मांस की बनी व्यक्ति हैं जिनकी अपनी स्वतंत्र चेतना होती हैं,सोच होती है, इच्छाएं होती हैं, उडऩे की चाहत होती है। किसी न किसी बहाने स्त्रियों का महिमामंडन उनको बेवकूफ बनाने का सदियों पुराना और आजमाया हुआ नुस्खा है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक धर्म और संस्कृति के नाम पर पुरुषों ने योजनाबद्ध तरीके से उनकी मानसिक कंडीशनिंग की है। इतना कि अपनी बेडिय़ां भी उन्हें आभूषण नजर आने लगे। सदियों तक स्त्रियों ने यह सवाल नहीं पूछा कि किसी भी धर्म अथवा संस्कृति में पुरूष धर्मगुरु और नीतिकार ही आजतक क्यों तय करते रहे हैं कि स्त्रियां कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े, किससे बोलें- बतियाएं और मर्दों को खुश रखने के लिए क्या-क्या करें? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मर जाने के बाद किसी दूसरी दुनिया में उनकी क्या भूमिका होने वाली है। स्वर्ग या जन्नत पहुंचकर भी उन्हें अप्सरा या हूरों के रूप में पुरूषों का दिल ही बहलाना है। स्त्रियों के संदर्भ में आजतक गढ़ी गई तमाम नीतियां, मर्यादाएं और आचारसंहिताएं उनके व्यक्तित्व और स्वतंत्र सोच को नष्ट करने के पुरुष-निर्मित औज़ार हैं। भोलेपन में उन्हें अपनी गरिमा मानकर स्त्रियों ने स्वीकार किया और अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा स्वतंत्र चेतना की बलि दे दी।

शिक्षा के प्रसार और कानूनी संरक्षण के विस्तार के साथ अब उन्हें बहुत हद तक समझ आने लगा है कि दुनिया की आधी और श्रेष्ठतर आबादी को अपने इशारों पर चलाने की मर्दों की शातिर चाल उन्हें कहां ले आई है। आज की पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने रूढिय़ों से लडक़र अपने लिए थोड़ी आर्थिक आत्मनिर्भरता भी हासिल की है, आत्मविश्वास भी और थोड़ी-सी आज़ादी भी। इस प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित और विवेकवान पुरुषों का सहयोग भी मिला है। मगर दुर्भाग्य से ऐसी स्त्रियों और पुरुषों की संख्या अधिक नहीं है। ज्यादातर पुरुष अपनी सोच में आज भी रूढि़वादी हैं और ज्यादातर स्त्रियां आज भी पितृसत्ता की बेडिय़ों में जकड़ी हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में अथवा अशिक्षित या अर्धशिक्षित आबादी के बीच स्त्रियों की मुक्ति की खिड़कियां कम ही खुल पाई हैं। पितृसत्ता की जकडऩ से मुक्ति के लिए स्त्रियों को किसी खास दिन या किसी की दया और कृपा की नहीं, बहुत सारी स्वतंत्र सोच के साथ थोड़ी आक्रामकता की जरुरत है। उन्हें देवत्व नहीं, मनुष्यत्व चाहिए। उनकी जिन्दगी क्या और कैसी हो, इसे उनके सिवा किसी और को तय करने का अधिकार नहीं।

शुभेच्छाओं के साथ सभी स्त्रियों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं !

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