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डीलिस्टिंग: धर्म परिवर्तन करने वाले अनुसूचित जनजाति के लोग क्या आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे?
30-Mar-2024 2:56 PM
डीलिस्टिंग: धर्म परिवर्तन करने वाले अनुसूचित जनजाति के लोग क्या आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे?

-मयूरेश कोण्णूर

भारत के कई राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कुछ लोग धर्म के आधार पर आरक्षण के मुद्दे को लेकर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए हैं।

आदिवासी या अनुसूचित जनजाति के लोग धार्मिक विश्वास के आधार पर तो बंटे हुए हैं ही लेकिन डीलिस्टिंग की मांग ने उनके बीच इस अविश्वास को और बढ़ा दिया है।

ये सवाल उठता है कि डीलिस्टिंग क्या है, यह कैसे आदिवासी समुदायों को प्रभावित कर रहा है और क्या इसका कोई राजनीतिक पहलू है, इन बातों को समझने के लिए हमने कुछ आदिवासी इलाकों का दौरा किया।

कुछ लोग मांग कर रहे हैं कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया है उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाए। इसे डीलिस्टिंग कहा जा रहा है। इस मांग से आदिवासी समुदाय में दरार पैदा हो रही है।

इस डीलिस्टिंग बहस के पीछे तो असल मुद्दा आरक्षण है लेकिन इसका एक धार्मिक पहलू भी है। यानी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण। पिछले कुछ सालों में इस बहस के साथ धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे मुद्दे भी जुड़ गए हैं।

धार्मिक पहचान

हमने झारखंड और छत्तीसगढ़ के उन इलाकों का दौरा किया जहां ये दरार साफ-साफ दिखती है। कोई भी ये महसूस कर सकता है कि आदिवासियों की सामूहिक पहचान पर हिंदू या ईसाई होने की धार्मिक पहचान हावी हो रही है जिससे उनके बीच धार्मिक ध्रुवीकरण हो रहा है और इसका असर राजनीति पर भी पड़ रहा है।

हमारी यात्रा झारखंड की राजधानी रांची से शुरू हुई। यहां भी कुछ सालों से डीलिस्टिंग के विरोध या पक्ष में कई आंदोलन हुए हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम जंगल के अंदर बढ़ते हैं यह बहस और साफ दिखती है।

रांची से दो से तीन घंटे दूर, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा के पास गुमला तहसील में टोटो गांव की आबादी 100 है।

यहां घने जंगलों में पीढिय़ों से आदिवासी समुदाय रहते हैं और सदियों से अपनी परंपराओं और संस्कृति को संजोए हुए हैं।

यहां रहने वाले महेंद्र पुरव कहते हैं, ‘यह हमें बांटने की साजिश है। अगर ईसाई और सरना आदिवासी अलग कर दिए जाएं तो हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। वे हम पर सरना सनातन का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं। मैं हिंदू नहीं हूं, मैं आदिवासी हूं। मैं प्रकृति पूजक हूं।’

डीलिस्टिंग की बहस?

इसी गांव के नारायण भगत कहते हैं, ‘जो लोग हमारे समुदाय से अलग हो गए वे हमारे रीति रिवाजों की इज़्जत नहीं करते। अगर वे हमारी संस्कृति की इज़्जत नहीं करते, हम उनका साथ कैसे दे सकते हैं?’

यहां हर कोई आदिवासी है लेकिन आजकल ‘स्थानीय’ और ‘बाहरी’ के बीच भेद किया जा रहा है। वे एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं और डीलिस्लिंग का मुद्दा उनके मतभेद को और बढ़ा रहा है।

आदिवासी इलाकों की रोजमर्रा की जिंदगी में डीलिस्टिंग का मुद्दा उनकी संस्कृति, सामाजिक पहचान और उनके आर्थिक-राजनैतिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है।

संविधान के प्रावधानों के मुताबिक़ भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए अलग सूची है। अनुच्छेद 341 एससी और अनुच्छेद 342 एसटी से संबंधित है जो विभिन्न जनजातियों और जातियों को सूचीबद्ध करता है। हर समूह के लिए चयन का मापदंड बनाया गया है।

उनकी सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं, जीवनशैली, रीति रिवाजों और प्रथाओं के आधार पर उन्हें विभिन्न राज्यों में वर्गीकृत और सूचीबद्ध किया गया है।

भारत का संविधान

आदिवासियों में धर्मांतरण और आरक्षण को लेकर कब खत्म होगी लड़ाई’, अवधि एसटी का आरक्षण कोटा 7.5 फ़ीसद है। पांचवीं अनुसूची के अनुसार, कुछ आदिवासी बहुल इलाकों को विशेष दर्जा (अनुसूचित क्षेत्र) दिया गया है और छठवीं अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर के आदिवासी बहुल राज्यों को विशेष दर्जा और अधिकार दिया गया है।

इन राज्यों में एसटी समुदाय के लोगों के लिए राजनीतिक सीटें आरक्षित हैं।

हाल के सालों में उन आदिवासी समुदायों में ये मांग उठी है कि जिन लोगों ने ईसाई या इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया उन्हें एसटी की सूची से बाहर किया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएस) से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम और नवजाति सुरक्षा मंच से डीलिस्टंग की जोरदार वकालत की जाती रही है।

सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और रीति रिवाजों के मद्देनजर आदिवासियों को कैसे शामिल किया जाए और उनका स्वतंत्र वजूद कैसे बनाए रखा जाए, यह अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा मुद्दा है। भारत के संविधान में इन समुदायों को स्वतंत्र अधिकार दिए गए हैं।

लेकिन देश के विभिन्न इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के अंदर सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता ने अलग-अलग व्याख्याओं को जन्म दिया है। जंगल पर निर्भरता की वजह से अधिकांश आदिवासी प्रकृति पूजक के रूप में जाने जाते हैं।

विवाद का विषय

इसलिए वे आदि धर्म के अनुयायी कहे जाते हैं। इनमें कुछ ने सदियों तक अपने धर्म का पालन किया। भारत के पूर्वोत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक हर आदिवासी समुदाय के अपने रीति रिवाज और पूजा पद्धतियां हैं। उदाहरण के लिए झारखंड में आदिवासी सरना धर्म की बात करते हैं।

कई आदिवासी समुदायों ने ख़ुद को हिंदू मानते हुए हिंदू परंपराओं को आत्मसात कर लिया। इसकी वजह से हिंदू राष्ट्रवादी संगठन उन्हें हिंदू मानते हैं।

छत्तीसगढ़ और झारखंड में ईसाई संगठन एक सदी से सक्रिय हैं और यहां कई लोग पीढिय़ों से ईसाई धर्म का पालन कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन भारत में विवाद का विषय रहा है और खासकर हिंदू राष्ट्रवादी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं।

1967 में पहली बार डीलिस्टिंग का मुद्दा तत्कालीन कांग्रेस नेता कार्तिक उरांव ने उठाया था। इस पर संसद में भी बहस हुई लेकिन फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।

डीलिस्टिंग की मांग का नया चेहरा ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ है, जिसे 'वनवासी कल्याण आश्रम’ के तहत 2006 में स्थापित किया गया था।

क्या जन्म से जाति, जन्म से धर्म या आरक्षण का सवाल है?

डीलिस्टिंग की वकालत करने वाले लोग आदिवासियों को हिंदू मानते हैं। लेकिन इसके विरोधियों का तर्क है कि आदिवासियों का अपना स्वतंत्र धर्म, स्वतंत्र रीति रिवाज है और वे अपनी पसंद के किसी भी धर्म या पूजा पद्धति को मानने के लिए आजाद हैं। इसलिए अगर वे इस आजादी का इस्तेमाल करते हैं तो इससे उनका आरक्षण का अधिकार प्रभावित नहीं होना चाहिए।

डीलिस्टिंग के विरोधियों का दूसरा तर्क है कि आरक्षण किसी जाति या समुदाय के आधार पर दिया गया है, यानी यह जन्म से है। धर्म के आधार पर यह कैसे बदल सकता है? क्योंकि हमारा संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं देता।

ये सच है कि डीलिस्टिंग की मांग धर्मांतरण से प्रेरित है। लेकिन इन मुद्दों पर बात करते हुए हमें लगा कि डीलिस्टिंग की मांग में धार्मिक पहलू होने के साथ-साथ आर्थिक मुद्दा भी जुड़ा है।

आरक्षण का लाभ

आदिवासी ईसाई समुदाय अन्य के मुक़ाबले कहीं आगे हैं। डीलिस्टिंग की मांग करने वालों का कहना है कि ‘उन्हें’आरक्षण का लाभ मिलता है ‘हमें’ नहीं।

शैक्षणिक और आर्थिक असमानता को ईसाई आदिवासी नेता और समुदाय के सदस्य भी मानते हैं। लेकिन उनका तर्क है कि इसका कारण शिक्षा है। आरक्षण पाने के लिए शिक्षित होना ज़रूरी है और ईसाई आदिवासियों की कुछ पीढिय़ों को मिशनरी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा मिली। हालांकि ये शिक्षण संस्थाएं सभी के लिए हैं। उनका तर्क है, ‘हमारे आरक्षण के अधिकार पर उन्हें बेचौनी क्यों है?’

पढ़ाई-लिखाई और नौकरी-चाकरी में पिछड़ गए आदिवासियों का लगता है कि इसका हल आरक्षण है और उनके अनुसार सबसे पहले ईसाई आदिवासियों को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाए।

इसे डीलिस्टिंग से हासिल किया जा सकता है। इस तरह यह मुद्दा आदिवासी समुदाय में फैल रहा है और उन्हें आपस में बांट रहा है।

धर्मांतरण से एससी आरक्षण रद्द हो जाता है

तो एसटी आरक्षण का क्या होगा?

जनजाति सुरक्षा मंच का कहना है कि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले आदिवासियों को दोहरा लाभ मिल रहा है।

आरएसएस से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम के नेशनल ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी रामेश्वर राम भगत कहते हैं, ‘आदिवासी लोगों को 10 प्रतिशत भी लाभ नहीं मिल रहा। लेकिन धर्मांतरण करने वाले दोहरा फायदा उठा रहे हैं। उन्हें एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक दोनों का फायदा मिल रहा है।’

वो हमें संगठन के जशपुर मुख्यालय में मिले, जहां 1956 में इसकी स्थापना हुई थी।

ईसाई आदिवासी समुदाय के नेता इन आरोपों का खंडन करते हैं। जशपुर के कुंकुरी इलाके में स्थित चर्च एशिया के सबसे बड़े गिरिजघरों में से एक माना जाता है। यहां की अधिकांश आबादी ईसाई है। यहां डॉ। फूलचंद कुजूर एक बड़ा अस्पताल चलाते हैं।

वो कहते हैं, ‘अल्पसंख्यकों के लिए कोई सरकारी योजना या अलग आरक्षण नहीं है। केवल कुछ शिक्षण संस्थाओं में ही अलग से सुविधाएं हैं। लेकिन वहां सभी लोग पढ़ते हैं। ईसाई या मुस्लिम के लिए वहां कोई अलग योजना नहीं है। दोहरे फ़ायदे का तर्क सिर्फ भ्रम पैदा करने के लिए दिया जाता है। किसी को दोहरा फायदा नहीं मिल रहा।’

भारत में आरक्षण

धर्म के आधार पर भारत में आरक्षण नहीं दिया जाता लेकिन डीलिस्टिंग की मांग करने वाले संविधान में संशोधन की मांग करते हैं।

उनका तर्क है कि जब धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति को आरक्षण नहीं मिलता तो यह आदिवासी जनजातियों पर क्यों नहीं लागू होता।

जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्रीय संयोजक इंदर भगत कहते हैं, ‘डॉ. आम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 341 में एक प्रावधान बनाया था। हिंदू, जैन, बौद्ध आदि को छोड़ अगर कोई विदेश में पैदा हुए धर्म को स्वीकारता है तो उसे एससी आरक्षण छोडऩा होगा। यह 1956 से लागू है। हमारी मांग बिल्कुल यही है।’

इंदर भगत कहते हैं, ‘वो व्यक्ति अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों और जन्म से मिली पहचान को छोड़ देता है जो वास्तव में उसे आरक्षण का अधिकार देता है। जैसे ही वो धर्मांतरण करता है, जन्म से मिली उसकी पहचान भी छूट जाती है। अगर वो खुद ही अपनी पहचान छोड़ता है तो उसे आरक्षण क्यों मिलना चाहिए जोकि उसकी पुरानी पहचान के आधार पर मिलती है। हमारी मांग है कि एसटी के लिए बने अनुच्छेद 342 में संशोधन होना चाहिए और इसका आधार है अनुच्छेद 341।’

हिंदू धर्म का हिस्सा

लेकिन डॉ फूलचंद कुजूर कहते हैं, ‘यह सूची धर्म के बजाय जनजाति के आधार पर बनाई गई है। भारत सरकार का नियम है कि आदिवासी कोई भी धर्म अपना सकते हैं। यह सर्कुलर में भी है। जनजाति सुरक्षा मंच के लोग एससी आरक्षण का हवाला देते हैं लेकिन वो इसलिए है कि अनुसूचित जातियां हिंदू धर्म का हिस्सा हैं। जबकि आदिवासी हिंदू नहीं हैं।’

छत्तीसगढ़ और झारखंड में एक तरफ जनजाति सुरक्षा मंच डीलिस्टिंग का आंदोलन चला रहा है तो दूसरी तरफ क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन ने इसके खिलाफ सडक़ पर उतरनेे का फैसला किया है।

विरोधियों का कहना है कि अगर यह लागू हुआ तो इसकी जद में पूरा आदिवासी समुदाय आएगा। पांचवीं अनुसूची में मिली रियायतें खतरे में पड़ जाएंगी और कुल आदिवासी आबादी घटेगी तो आदिवासी डी-शेड्यूल (ग़ैर-अधिसूचित) हो जाएंगे।

क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन के प्रवक्ता डॉ. सीडी बखाला कहते हैं, ‘जल-जंगल-ज़मीन पर हमारे अधिकार हैं। अगर डीलिस्टिंग होती है तो हमें अपने ही जंगलों से बाहर कर दिया जएगा और हमारा वजूद खत्म हो जाएगा। इसीलिए हम विरोध कर रहे हैं। यह केवल ईसाइयों को ही नहीं बल्कि सभी आदिवासियों और आदिवासी इलाक़ों को प्रभावित करेगा।’

वो आगे कहते हैं, ‘अनुच्छेद 330 के तहत हमें लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिलता है, अनुच्छेद 332 के तहत विधानसभा में। लेकिन अगर हमारा राज्य डी शेड्यूल हो जाता है तो सब कुछ छिन जाएगा। हम न तो गांव के मुखिया या सरपंच बन पाएंगे न विधायक न सांसद।’

अगर हमें बाहर किया जाएगा तो कहां जाएंगे?

हाल की पीढिय़ों में अच्छी ख़ासी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है। एक अनुमान के अनुसार जशपुर और इसके आसपास के इलाकों में 22 फीसदी आदिवासी आबादी ने ईसाई धर्म स्वीकार किया है। डीलिस्टिंग की मांग से पैदा हुए ‘अंदरूनी’ और ‘बाहरी’ के बंटवारे से इन गांवों में तनाव बढ़ा है।

जशपुर जिले में सोगदा गांव में अधिकांश लोग हिंदू रीति रिवाज मानते हैं। विभाजन इतना बढ़ गया है कि जो लोग सदियों से जंगलों में साथ रहते आए हैं, अब अलग होने की बात करते हैं।

मनीजर राम कहते हैं, ‘हम प्रकृति पूजक हैं और मूर्ति की भी पूजा करते हैं। जो ईसाई धर्म मानते हैं, वो उस तरीके से प्रार्थना नहीं करते हैं। तो हम एक साथ कैसे रह सकते हैं? उन्हें विदेशी धर्मों में फंसा लिया गया और वे ईसाई बन गए। इसीलिए वे हमसे अलग हैं।’

इस इलाक़े में मिलीजुली आबादी है। जनजातियां कई पीढिय़ों से जंगलों में रहती आई हैं और उनके बीच धर्म को लेकर कोई मुद्दा नहीं रहा। लेकिन गांव से अगर कोई धर्म के आधार पर डीलिस्टिंग का मुद्दा उठाता है तो इससे समस्या पैदा हो सकती है।

उसी गांव के सोहम राम कहते हैं, ‘हमें इसका दुख नहीं है। क्योंकि वे हमारी संस्कृति, हमारे धर्म से भटक गए। इसलिए हम किसी चीज से परेशान नहीं हैं। अगर वे लौटना चाहते हैं लौट सकते हैं, लेकिन जो भी गया वो लौटा नहीं।’

डीलिस्टिंग और धर्मांतरण

गांवों में ऐसी धारणा बहुत मजबूत है। जशपुर से हम छत्तीसगढ़ जाते हैं। इस इलाके में अम्बिकापुर एक बड़ा केंद्र है, जहां ग्रामीण और शहरी इलाके हैं। यहां नया पाड़ा में केवल ईसाई रहते हैं।

निवासी कुजूर ने करीब दस सालों तक सरगुजा जिला पंचायत अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभाई है। पंचायती राज में आदिवासियों के लिए सीटें आरक्षित होने की वजह से वो इतने लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय रहीं। उनके यहां हमारी मुलाकात कुछ ईसाई आदिवासी लोगों से हुई।

निवासी कुजूर ने कहा कि शहरों के मुक़ाबले ग्रामीण क्षेत्रों में डीलिस्टिंग और धर्मांतरण को लेकर भय का मौहाल है।

वो कहती हैं, ‘गांवों में ईसाई बनाम ग़ैर-ईसाई की बहस चल रही है। साफ कहें तो अगर आप आजाद हैं तो जो चाहें धर्म अपनाएं। हमारे संविधान ने अधिकार दिया है कि आप कोई धर्म अपनाएं। कोई भी दबाव नहीं डालता है।’

मुन्ना तापो इस बात से इनकार करते हैं कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परम्पराओं को छोड़ रहे हैं।

राजनीतिक ध्रुवीकरण और चुनावों पर इसका असर

तापो के अनुसार, ‘हम जन्म से मृत्यु तक आदिवासी समुदाय के रीति रिवाजों और प्रथाओं को पालन करते हैं। हम सिफऱ् आशीर्वाद लेने के लिए चर्च जाते हैं। जो लोग हम पर परम्पराओं को छोडऩे के आरोप लगाते हैं, मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि वो बताएं की कौन सी परम्परा का हम पालन नहीं करते। मैं आपको सब कुछ बता सकता हूं।’

अनंत प्रकाश एक सीधा सवाल पूछते हैं, ‘अगर हमें एसटी श्रेणी से बाहर कर देंगे तो कहां रखेंगे? किस लिस्ट में? किस कैटेगरी में? हमारे लिए कहां जगह है। बताएं। हमें इन सवालों पर सोचने की जरूरत है।’

डीलिस्टिंग का मुद्दा अब राजनीतिक भी होता जा रहा है, जिसका चुनावी राजनीति पर सीधा असर है। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और यहां तक कि पूर्वोत्तर के राज्यों में जहां अच्छी ख़ासी आबादी ईसाई है, ये आंदोलन और विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। उत्तर महाराष्ट्र के नासिक और नंदुरबार जैसी जगहों पर ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।

अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय और नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई धर्म अपनाने वाली जनजातियों की संख्या अधिक है। इसीलिए डीलिस्टिंग का मुद्दा इन राज्यों में मुखर है और यहां जनजातीय समुदायों में ध्रुवीकरण भी अधिक है।

आदिवासियों को आरक्षण मिलना एक संवैधानिक अधिकार है और इसमें बदलाव का मतलब संविधान संशोधन करना होगा। इसलिए इस बात को लेकर आशंका है कि ये सच में होगा या नहीं। लेकिन अगर ये होता है तो ये अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि यह लंबी प्रक्रिया कब पूरी होगी और कब इसकी घोषणा होगी।

रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल कहते हैं, ‘जिन आदिवासी समुदायों में लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया और जिन्होंने नहीं किया और जो लोग हिंदू धर्म का पालन करते हैं, उनके बीच रोजाना संघर्ष बढ़ता जा रहा है।’

आलोक पुतुल आगे कहते हैं, ‘इसका चुनावों पर साफ़ असर दिखता है। पिछले दो-तीन सालों में बस्तर जैसे क्षेत्रों में कई संघर्ष हुए हैं। हिंसा की कई ख़बरें सामने आई हैं। इसका चुनाव पर निश्चित असर होगा। और ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में भी इस मुद्दे का असर पड़ेगा और आपको चुनावी नतीजों में इसका असर दिखेगा।’

वोटों में विभाजन हो चुका है। छत्तीसगढ़ के हालिया चुनावी नतीजों में डीलिस्टिंग, धर्मांतरण और घर वापसी जैसे मुद्दों का अच्छा खासा असर देखने को मिला था। और बीजेपी के नेता भी इस तथ्य को स्वीकार करने से नहीं हिचकते।

धर्म में वापसी की वकालत

प्रबल प्रताप सिंह जूदेव पूर्व जशपुर रियासत के शाही परिवार के वंशज हैं। उनके पिता दिलीप सिंह जूदेव बीजेपी के सांसद थे। वो कैबिनेट मंत्री भी रहे थे। प्रबल प्रताप सिंह भी बीजेपी में हैं और उन्होंने हालिया चुनाव भी लड़ा है।

हालाँकि, यह पूर्व शाही परिवार, पहले पिता और अब पुत्र, घर वापसी से संबंधित कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं, यानी वे ईसाई आदिवासियों की हिंदू धर्म में वापसी की वकालत करते हैं। इन हिंदू राष्ट्रवादी कार्यक्रमों को लेकर लगातार विवाद होता रहता है।

प्रबल साफ कहते हैं कि चाहे घर वापसी की बात हो या डीलिस्टिंग की, इससे चुनाव में बीजेपी को फायदा हुआ है।

प्रबल प्रताप ने बीबीसी को बताया, ‘चुनावी नतीजे साफ़ दिखाई दे रहे हैं। आदिवासी समुदायों ने बीजेपी को महत्वपूर्ण समर्थन दिया है। उनका मानना है कि उनके पूर्वज हिंदू थे। उनके पूजा के तौर तरीके, उनकी संस्कृति, उनके रिश्ते, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से उनका संबंध- ये सभी जुड़े हुए हैं और वे जनजातीय मुद्दों का समर्थन करते हैं। आपने देखा होगा कि सरभुज और बस्तर जैसे इलाके जहां जनादेश अहम है। बिना इन इलाक़ों के समर्थन के कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकती। इन दोनों जगहों पर बीजेपी ने बहुत कुछ हासिल किया।’

भाजपा स्पष्ट रूप से राजनीतिक फायदे पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है। इसलिए उन्होंने ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के संयोजक भोजराज नाग को लोकसभा चुनाव के लिए बस्तर के कांकेर से अपना उम्मीदवार बनाया है।

इस बारे में कांग्रेस का आधिकारिक पक्ष अभी घोषित नहीं है, लेकिन उसके नेताओं का कहना है कि बीजेपी दोहरी बातें कर रही है और ध्रुवीकरण की साजिश रच रही है।

कांग्रेस नेता शैलेश नितिन त्रिवेदी के अनुसार, ‘नागालैंड और मिजोरम ऐसे राज्य हैं जहां ईसाई धर्म व्यापक रूप से माना जाता है। आजादी के पहले से ही। यहां तक कि बीजेपी समर्थक और कार्यकर्ता भी वहां ईसाई हैं। इसलिए, बीजेपी एकतरफा नजरिये की वकालत कर रही है। विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदायों में दरार डालकर वे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही है।’

राजनीति एक तरफ कर दें तो भी भारत के आदिवासियों को दो हिस्सों में बांटने वाले एक ऐतिहासिक मुद्दे के कारण उनमें गहरी दरार पैदा हो गई है।

परंपरा, संस्कृति, धर्म और विरासत के नाम पर भारत के आदिवासी दो खेमों में बंट गए हैं। (bbc.com/hindi)

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